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का धन था। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्सामयिक राजा दुगी में इस सब सामग्री को तैयार रखते। दुर्ग को अच्छी तरह सज्जित - रसमा तो उस समय राजपूतों के लिए सर्वथा आवश्यक था ही। यही मध्यकालीन राजपूतों के स्वातन्त्र्य संग्राम के साधन और प्रतीक थे। इन्हीं के सामने से मुसल्मानी. सेनाओं को हताश होकर अनेक बार पीछे लौटना पड़ता था। जब तक जल और धान्य की कमी न होती, दुर्गस्थ सेना प्रायः लड़ती ही रहती। कई बार रात में सहसा दुर्ग से निकल कर ये शत्रु पर आक्रमण करते (७९)। शत्रु को चिढ़ाने के लिए कंगूरों पर.छोटी पताकाएं लगाते, दरवाजों का शृङ्गार करते और बुर्ज-बुर्ज पर निशान बजाते । गाना बजाना भी होता। दोनों ओर से बाण छूटते.। मगरिबी नाम के यन्त्रों से नीचे की सेना पर गोले बरसाए जाते। ठेकलियों से भी पत्थर फेंके जाते। नलियारों का भी हम्मीरायण और हम्मीर महाकाव्य में वर्णन है। (११३-१८७) ___खजाइ नुलफुतुह पत्थर बरसाने वाले यन्त्रों में से इरादा, मंजनीक
और मगरिबों के नाम हैं। जिस प्रकार के पत्थर फेंके जाते थे, उन्हें कई वर्ष पूर्व मैंने चित्तौड़ में देखा था। शायद अब भी वे अपने स्थान पर हों। दुर्ग से राल मिले तेल, जलते हुए बाण, और दूसरी आग लगाने वाली वस्तुओं का भी प्रयोग होता। खजाइनुलफुतूह में रणथंभोर के घेरे के वर्णन से स्पष्ट है कि मुसल्मानी सिपाहियों को कदम कदम पर आग में से बढ़ना पड़ा था। ऊपर से पायकों ने बाणों की वर्षा की मुसल्मानों को हताश होकर वापस लौटना पड़ा। . दुर्ग लेने के उपायों को भी हम हम्मीरायण में पाते हैं। को इतनी बुझी तरह से घेरा जाता कि उसमें से कुछ न भा जा सके।
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