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दोनों सेनाओं की शक्ति की तुलना करता हुआ सुल्तान को बाज से और हम्मीर को चिड़िया से उपमित करता है। छठे कविक्त में हम्मीर का उत्तर है, 'जो मैं बादशाह के सामने सिर झुकाऊँगा, तो सूर्य आकाश में न उदित होगा, यदि मैं दण्ड (कर ) दंगा तो हरिहर ब्रह्म और सुकृत सब विसृष्ठ होंगे। मैं पुत्री को देने की कहूं तो जीभ के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे "मैं बादशाह से आकर मिला तो पृथ्वी डूब जायगी। उत्तर में फिर दूत सातवें कवित्त में अलाउद्दीन की सामर्थ्य का बखान करता है। उत्तर में हम्मीर आठवें कवित्त में कहता है, “तू इसको देवगिरि मत समझ। यह यादव राजा नहीं है । तू इसको चित्तौड़ मत समझ। यह कर्ण चालुक्य नहीं है। इसको गुजरात मत समझ जिसे करोड़ों छल करके लिया है। अरे, अलाउद्दीन मैं हम्मीर हूं जो इस क्षेत्र का खरा
और रक्षक कपाट है। अब रणथंभोर का रोध करने पर तेरे सत्त्व का पता लगेगा।'
उत्तर में नवम कवित्त में दृत बताता है कि रणमल, बादशाह से जा मिलेगा, वीरम्म घर का भेद देगा, राजा छाहड़दे अभी उसके विरुद्ध है, पृथ्वीराज अलाउद्दीन से जा मिला है। जिन भृत्यों से यह मरोसा था कि वे युद्ध में साथ देंगे वे तो शत्रु से जा मिले हैं। किन्तु इससे हम्मीर विचलित नहीं होता। वह कहता है, 'चाहे पीथल मिले,
१ डा० माताप्रसाद गुप्त ने कवित्त का अर्थ सर्वथा भूतार्थक किया है जो ठीक नहीं है । दूत 'मिलै' धातु से रणमल और वीरम के लिए भविष्य की सम्भावना का द्योतन करता है। छाहड़दे विरुद्ध ( अमेल ) हो गया है और पृथ्वीराज बादशाह से जा मिला है।
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