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परिशिष्ट (१) सेना से सुसज्जित (संयुक्त) होकर क्रोध से [रणयात्रा के लिए] चल पड़ा। म्लेच्छों के पुत्रों ने बड़े कष्ट के साथ हाहाकार किया तथा वे मूर्छित हो गये।
[३] छप्पय :
पिंधउ दिढ सण्णाह वाह उप्पर पक्खर दइ । बंधु समदि रण धसउ सामि हम्मीर वअण लइ॥ उड्डउ णहपह भमउ खग्ग रिउ सीसहि मल्लउ । पक्खर पक्खर ढल्लि पल्लि पव्वअ अप्फालउ । हम्मीर कज्जु जजल भणह कोहाणल मह मइ जलउ ।
सुलताण सीस करवाल दइ तजि कलेवर दिअ चलउ ॥१०६॥ वाहनों के ऊपर पक्खर देकर ( डालकर ) मैं दृढ़ सन्नाह पहनू, स्वामी हम्मीर के वचनों को लेकर बांधवों से भेंटकर युद्ध में धसू;
आकाश में उड़कर घूमू, शत्रु के सिर पर तलवार जड़ दू हम्मीर के लिये मैं क्रोधाग्नि में जल रहा हूं। सुलतान के सिरपर तलवार मारकर अपने शरीर को छोड़कर मैं स्वर्ग जाऊँ।
. १ :-यह पद्य प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार शाङ्गधर के 'हम्मोर रासो' का है, जो अनुपलब्ध है। राहुलजी इसे किसी जज्जल कवि की कविला मानते हैं । पर वास्तव में स्वामीभक्त जाजा और जज्जल एक ही मालूम देता है, जिसकी उक्ति का कवि ने वर्णन किया है। देखिये :-हिन्दी साहित्य का इतिहास पृष्ठ र५, हिन्दी काव्य धारा पृष्ठ ४५२ । ।
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