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( ५३ ) हम्मीरायण के स्वतन्त्र प्रसंग हम्मीरायण में कुछ ऐसे प्रसङ्ग भी हैं जो कान्हड़दे काव्य से ही नहीं हम्मीर महाकाव्य से भी सर्वथा स्वतन्त्र है। महिमासाहि और मीर गामरू को शरण मिलने पर महाजनों का हम्मीर के पास पहुँच कर उसे इस नीति के विरूद्ध समझाना ऐसा ही प्रसंग है। कान्हड़दे प्रबन्ध में महाजन कान्हड़दे के पास अवश्य पहुंचते हैं, किन्तु उनका व्यवहार इनसे सर्वथा भिन्न है। उनमें स्वामिभक्ति तो इनमें स्वार्थ है, जब मुसलमानी सेना रणथंभोर पर आक्रमण करती है तो सहायता प्रदान न कर वे दुकानों में बैठे हँसते हैं। अन्त में एक वणिक जौहर का कारण बनता है। किन्तु सांसारिक दृष्टि से महाजनों की सलाह ठीक थी, और भाण्डउ ने उसे बहुत सुन्दर शब्दों में दिया है :
विष वेली ऊगंतड़ी, नहे न खटी जे ( होइ); इणिवेलि जे फल लागिस्यइ, देखइलउ सहूवइ कोइ ॥ ६१ ॥ इणि वेली जे फल लागिसई', थोडा दिन मांहि ते दीसिसइ ; तिहरा किसा हुस्यइ परिपाक, स्वादि जिस्या हुस्यइ ते राख ॥ ६२ ॥
जब मुसल्मानी सेना रणथंभोर की ओर बढ़ती है, तब भी उसी रूपक को प्रयुक्त करते हुए कवि ने कहा है :— हाटे बइठा हसइ वाणिया, वेलितणा फल जोअउ सयाणिया ॥ ७३ ॥
जाजा को विदेशी पाहुणा कहकर इस बात का अन्त तक निर्वाह करना भी भाण्डउ व्यास की ही सूझ प्रतीत होती है। विजय होने
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