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करता हुआ अचलेश्वर कहता है, "कल ही के दिन तो रणथम्भोर में राज हम्मीरदेव के घर में जौहर हुआ था । उन जौहरों में जो हुआ वही तुम पूरी कर दिखाओ ( २१.९ ) । ” काव्य के अन्त में भी फिर शिवदास ने हम्मीर का स्मरण किया है । सातल, सोम, हम्मीर और कन्हड़दे ने जिस तरह जौहर जलाया, उसी तरह रणक्षेत्र में पहुँचकर चौहान ( अचलदास ) ने अपने आदिम कुलमार्ग को उज्ज्वल किया ( २७ )” ।
कान्हड़दे प्रबन्ध में पद्मनाम हम्मीर का स्मरण करना न भूला | जब अलाउद्दीन की सेना गढ़रोध छोड़कर जाने लगी तो हम्मीर का पदानुगमन करने की इच्छा से वीर कान्हड़दे भी कहता है ।
तुझ वीनयूँ आदि योगिनी, पाछा कटक आणि तूं अनी । हमीररायनी परि आदरु, नाम भारउ उपरि करउं ॥
वर्णों में प्राकृत पैङ्गलम् के हम्मीर और जाजाविषयक पद्य भी पठनीय हैं। इनके विषय में डा० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है, "इन छन्दों में वास्तविक ऐतिहासिकता नहीं मिलती है । उदाहरणार्थ एक छन्द में कहा गया है कि हम्मीर ने खुरासान की विजय की थी, जिसमें उसने खुरासान के शासक से ओल ( जमानत ) में उसके किसी आत्मीय को ले लिया था । किन्तु हम्मीर का खुरासान पर आक्रमण करना ही इतिहास-सम्मत नहीं है ।” किन्तु क्या वास्तव में इस उदाहरणार्थ प्रस्तुत पद्य में खुरासान की विजय का वर्णन है ? पद्य यह है :
ढोल्ला मारिय ढिल्ली महं मुच्छिय मेच्छ सरीर । पुर जज्जला मंतित्रर चलिय वीर हम्मीर । चलिअ वीर हम्मीर पाअ भर मेइणि कंपइ । दिगमगणह अंधार धूलि सूरह रह पिअ ।
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