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( ११८ ) किन्तु नयचन्द्र के कथनानुसार ये चारों ही रणथम्भोर में थे, और उसने इनके नाम महिमासाहि, गर्भरूक, तिचर और वैचर के रूप में दिए। बहुत सम्भव है कि राय कर्ण की शरण में अपने को सुरक्षित न पाकर ये कुछ समय बाद रणथम्भोर आ गए हों।
मुहम्मदशाह की रणथम्भोर पहुँच कर शरणदान की प्रार्थना सभी हम्मीर विषयक काव्यों में वर्तमान है। हम्मीर ने उसे शरण ही नहीं दी, उसे अपने भाई की तरह रखा। चाहे कार्य नीति-सम्मत रहा हो या असम्मत हिन्दू संसार ने हम्मीर के इस आदर्श त्याग को नहीं भुलाया है। वह उसी के कारण अमर हैं। राजनैतिक दृष्टि से भी कार्य कुछ बुरा न था। अलाउद्दीन से युद्ध तो अवश्यम्भावी था। आज एक राज्य की तो कल दूसरे की बारी थी। ऐसी अवस्था में शत्रु के शत्रुओं से मैत्री नीतिपूर्ण थीं। अनीतिपूर्ण तो शायद इससे पूर्व के हम्मीर के कार्य थे जिनकी वजह से सभी आसपास के राजा उससे सशङ्कित हो उठे होंगे। अपने लगभग अठारह वर्ष के राज्य में उसने राज्य की सीमा बढ़ाई, अनेक कोटि यज्ञ किए। और ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। किन्तु उसकी सामान्य प्रजा को उसकी नीति से शायद ही कुछ विशेष लाम हुआ हो। उसकी सैन्य-संख्या बहुत बड़ी थी, और राज्य के निजी साधन बहुत कम। जबतक धन दूसरे राज्यों की लूट से आता रहा, सैन्यमार कुछ विशेष दुःखदायी न था। किन्तु जब लुटेरों की संख्या बढ़ गई, मुसल्मानी आक्रमणों की शङ्का से हम्मीर के लिए अपने ही राज्य में रहना आवश्यक हो गया और कोटि मखादि के व्यय से कोश बहुत कुछ रिक्त हो गया, इसके सिवाय उपाय ही क्या था कि वह प्रजा पर नित्य नवीन कर लगाए। दिल्ली में अलाउद्दीन को भी आर्थिक
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