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________________ प्रधानों ने सुल्तान को वचन दिया कि सेना के प्रयोग के बिना ही वे उसे दुर्ग दिलवा सकेंगे। _गढ़ में पहुँच कर इन दुष्टों ने झूठ मूठ ही बातें बनाते हुए राजा से कहा, "सुल्तान देवलदेवी को मांगता है।" कुमारी भी आत्मोत्सर्ग के लिए तैयार हुई। किन्तु हम्मीर ने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपनी सेना तैयार करनी शुरू की। अपने प्रधानों की दगाबाजी को अब भी वह न समझ सका। दुर्ग के धान्यरक्षक से मिल कर इन्होंने सब धान्य इधर उधर करवा दिया | फिर अलाउद्दीन पर हमला करने के बहाने से हम्मीर से सेना लेकर वे शत्रु से जा मिले। हम्मीर को अब कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई न दे रहा था जिसके हाथ में वह हथियार दे। इसलिए प्रजा को बुला कर उसने कहा, "मैं राजा हूँ, तुम मेरी प्रजा हो" कहो, मैं तुम्हें कहाँ पहुँचाऊँ ? और जाजा तुम तो परदेशी पाहुणे हो, तुम अपने घर जाओ।" किन्तु जाने के लिए कोई तैयार न हुआ। महिमासाहि ने तो यह भी कहा, “यदि हमें देने से गढ़ बच सके तो इसे बचाओ।" हम्मीर के लिए यह असम्भव था। मीरों के कहने पर हम्मीरने धान्यागारों की देखभाल करवाई तो मालूम हुआ कि वे सब खाली हैं। अब जौहर के सिवाय उपाय ही दया था ? उसकी तैयारी हुई। राजा ने वंश रक्षा के लिये वीरम को गढ़ से जाने के लिये कहा। किन्तु जब वह तैयार न हुआ तो उसने कंवर को तिलक दिया और विदा करने से पूर्व उसे उचित शिक्षा दी। हाथियों और घोड़ों को राजपूतों ने मार डाला। जमहर (जौहर) की चिताएं जल उठीं। सवा लाख का संहार हुआ। फिर सब स्थानों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003823
Book TitleHammirayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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