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इससे दुःखी होकर दोनों काशी गए और काशी- करोत लेकर उन्होंने प्राण छोड़ें । अन्तिम समय में अलैया ने बादशाह बनकर गोवध और रुद्रमूर्ति के भङ्ग की प्रार्थना की और कनैया ने उनकी रक्षा के लिए श्यामसिंह सोनिंगरा के घर में अवतार की I
आगे की कथा मुझे प्राप्त नहीं है । किन्तु इतने से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस ग्रंथ में विशेष ऐतिहासिकता नहीं है । यह केवल जन मनोरञ्जन के लिए घड़ी हुई बात है जिसके तत्त्व अनेक स्थलों से संगृहीत है । संस्कृत काव्यों में 'हम्मीर महाकाव्य' के अतिरिक्त सुर्जन चरित मैं हम्मीर की कथा है। वह जैत्रसिंह का पुत्र ( ११-७ ) और त्रिविध वीर था ( ११-८ ) । आसमुद्रान्त भूमि को विजित कर उसने तुरुष्कों पर आक्रमण किया और आसानी से दिल्ली जीत ली ( ११-१५-१६ ) । चम्बल में स्नान कर और मृत्युञ्जय भगवान् शिव का अर्चन कर उसने तुलादान दिया ( ११-४२-४६ ) । शुभ मूहूर्त में उसने 'कोटिमख' यज्ञ का आरम्भ किया ( ११-५८ ) । इस अवसर को उपयुक्त समझकर अलाउद्दीन रणथम्भोर के लिए रवाना हुआ ( ११-६४ ) । उसका भाई उल्लूखान भी ५०,००० सवारों सहित चला ( ११-६५ ), और जगरपुर में उसने डेरे डाले। हम्मीर के सेनापति रण ( रंग ) मल्ल ने उल्लूखान को हराया ( ११-६९ ) इससे क्रुद्ध होकर अलाउद्दीन ने रणथम्भोर को जा घेरा ( ११-७१ ) । हम्मीर कृत्य की समाप्ति पर रणथम्भोर वापस भाया ( ११-७४ ) ।
अलाउद्दीन का दून सन्देश लेकर उसके पास पहुँचा ( १२ - ३ ) । उसने कहा, बादशाह को राज्य करते सात वर्ष बीत चुके हैं । तुमने न कर
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