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बनाया। फिर मण्डलकृत दुर्ग से कर लेकर वह शीघ्र ही धारा पहुँचा । वहाँ परमार वंश में प्रौढ़ राजा भोज को, जो दूसरे मोज की तरह था, उसने म्लान किया । तदनन्तर उसने अवंति ( उज्जयिनी ) पर आक्रमण किया
और शिप्रा में स्नान कर महाकाल का अर्चन किया। वहां से लौटकर उसने चित्रकूट को कूटा और आबू पहुँचकर वहाँ अपने तम्बू लगाए। पहाड़ पर चढ़कर विमलवसही में उसने श्रीऋषभदेव को प्रणाम किया। वस्तुपाल के मन्दिर को देखकर वह विस्मित हुआ। अर्बुदा को उसने भक्ति समेत प्रणाम किया और वशिष्ठाश्रम में आराम कर और मन्दाकिनी में स्नानकर उसने भगवान् अचलेश्वर का पूजन किया। यहाँ अर्बुदेश्वर ने उसे सर्वस्व अर्पण किया। वहाँ से उतर कर वर्धनपुर को निर्धन और चङ्गा को रङ्गरहित कर वह अजमेर होता हुआ पुष्कर पहुंचा और स्नान किया। उसके बाद शाकम्भरी, महाराष्ट्र और खंडिल्ल को उसने निष्प्रभ किया। ककराला में त्रिभुवनाद्रि के स्वामी ने उसे मान दिया। इस प्रकार सर्वत्र विजय करता हुआ वह रणथंभोर लौटा' ।" - इन सब विजित स्थानों की पहचान कुछ कठिन है। पहला स्थान भीमरस है जिसका स्वामी अर्जुन था। यह अर्जुन सम्भवतः मालवे का राजा अर्जुन होगा, जिसे हराकर हम्मीर ने बलात् उसके हाथी छीन लिए थे । इस विजय के फलस्वरूप चम्बल से लगता हुआ मालव राज्य का कुछ भाग भी हम्मीर के हाथ लगा होगा। दूसरा विजित स्थान मण्डलकृत् है। यह सम्भवतः माण्डू है । हम्मीर के पिता ने उसके राजा जयसिंह को तप्त किया था। हम्मीर ने उस नगर से कर वसूल किया। हम्मीर महाकाव्य में इससे
१. सर्ग ९ श्लोक १३-५१ ।।
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