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खाँ और नसरतखाँ ने बिना युद्ध के भी हम्मीर से अपनी बातें मनवाने का प्रयत्न किया था । एसामी के कथनानुसार उलुगखाँ ने एक दूत राय के पास भेजा ओर उसे लिखा कि कमीजी मुहम्मदशाह तथा कामरू दो तू हमारे दुश्मनों की हत्या कर दे,
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हम्मीर महाकाव्य में उलुगंखाँ
विद्रोही तेरी शरण में आ गए हैं। अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जा ।" और नुसरतखाँ के दूत का नाम मोल्हण है । " इसने (३०० घोड़ों की, स्वर्णलक्ष, चार हाथी, राजसुता और विशेष रूप से चार मुगल विद्रोहियों की माँग की ।" इससे मिलती-जुलती मांगका अन्य हम्मीर सम्बन्धी काव्यों में भी वर्णन है । किन्तु माँग चाहे मुगल भाइयों के समर्पण की रही हो या उससे अधिक ; हम्मीर ने उसे ठुकरा दी। एसामी के शब्दों में 'हम्मीर ने उतर दिया कि जो मेरी शरण में आ चुका है मैं उसे किसी प्रकार हानि नहीं पहुँचा सकता, चाहे प्रत्येक दिशा से इस किले पर अधिकार जमाने के लिए तुर्क एकत्रित क्यों न हो जाय" और लिख भेजा कि 'यदि तू युद्ध करना चाहता है तो मैं तैयार 193 अन्य काव्यों में कथित माँगों के अनुरूप उत्तर है ।
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खल्जी सेनापतियों ने उत्तर मिलते ही गढ़ को जा घेरा । किन्तु दुर्ग जीतना कोई खेल तो न था । हम्मीर राजनीतिज्ञ रहा हो या न रहा हो, उसमें शौर्य और युद्धकौशल की कमी न थी । उसने दुर्ग की रक्षा का कार्य समुचित रूप से बांट दिया। पहरा लग गया। ढें कुलियां दिखाई
१ - वही, ११, २२ |
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ऊपर देखें ।
३ - फुतू हुस्सलातीन का अवतरण देखें।
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