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डा० गुप्त ने शायद पृथ्वीराज द्वारा प्रताप को प्रेषित पत्र के इस पद्य पर ध्यान नहीं दिया है :
पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूँता वयण ।
मिहिर पिछ दिस माह, ऊगै कासपराव उत ॥ यह ‘कासपराव उत (पुत्र)' और 'कासिपराउ तणउ' पुत्र एक ही हैं। 'मिहिर' भानु और सूरिज का समानार्थक है । कवि ने अपना निजी नाम तो चउपई की दूसरी अर्धालि के दूसरे चरण में दिया है, और इसी नाम की आवृत्ति उसने ५१-६० आदि पदों में भी की है जिनका निर्देश हम अभी कर चुके हैं। समग्र कथा की अच्छी तरह आवृत्ति कर डा० गुप्त यदि कवि का नाम निश्चित करने का प्रयत्न करते तो उनसे यह भूल न होती।
हम्मीरायण की कथा हम्मीरायण का कथा-माग कुछ विशेष लम्बा नहीं है। इसे रामायण से तुलित किया जाए तो शायद यही कहना पड़े कि इसमें लङ्काकाण्ड मात्र ही है। हम्मीर के आरम्भिक जीवन को सर्वथा छोड़ कर इसकी कथा प्रायः अलाउद्दीन और हम्मीर के संघर्ष से ही आरम्भ होती है। संक्षेप में कथा निम्नलिखित है :
जयतिगदे का पुत्र हम्मीरदे चहुआण रणथंभोर का राजा था | उसका भाई वीरम युवराज था और सूरवंशी रणमल तथा रायपाल उसके प्रधान थे । हम्मीर ने प्रधानों को आधी बूंदी गुजारे में और बहुत सी सेना दी थी।
इसी बीच में उल्लूखां के दो विद्रोही सरदार, महिमासाहि और मीर ‘गामरू' उल्लूखाँ की बहुत सी सेना का नाश कर रणथम्भोर आ · पहुँचे। हम्मीर ने उन्हें शरण दी, और उन्हें दो लाख वेतन ही नहीं,
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