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जाजा वीरमदे और दोनों वीरम ने राज्य को तिरस्कृत कर दिया, तब राजा मीर गढ़ की रक्षा के लिए प्रसन्नता पर्वक जाजदेव को राज्य दिया, और तैयार थे, किन्तु हम्मीर ने कहा, "अब अनर्थ हो
स्वप्नागत पद्मसर के आदेशानुसार उसने सब द्रव्य चुका है। अब जीने से पद्मसर में डाल दिया। फिर हम्मीर की आज्ञा से क्या लाभ ?"
बीरम ने छाहड़ का सिर काट डाला (१३-१६९-१९२) (२५६-२७७) ११. गढ़ मे केवल ११. वीरम, सिंह, टाक, गङ्गाधर, चारां मुगल ये रहे-वीरमदे, हम्मीरदे, बन्धु और क्षेत्रसिंह परमार इन वीरों के साथ हम्मीर मीर ( गाभरू ), महिमा- युद्ध में उतरा । पहले वीरम काम आया। फिर शत्र
बाणों से महिमासाहि को मूच्छित देख कर हम्मीर साहि, माट और पाहुणा
आगे बढ़ा और अनेक शत्रुओं का वध कर स्वयं अपने जाजा । हम्मीर घोड़े पर हाथ से ही मरा। उसके लिये यह असह्य था कि शत्रु चढ़ा, किन्तु वीरम को उसे जीता पकड़ें। युद्ध की तिथि श्रावण शुक्ल षष्ठी पैदल देख कर घोड़े से रविवार था।
(१३-१९२-२२५) उतर पड़ा और घोड़े को
सूर वंशी रतिपाल को और रणमल्ल को धिकार
है। अभिनंद्य वह जाजा है जिसने हम्मीर की मृत्यु अपने हाथ से मार डाला।
के बाद भी दो दिन तक दुर्ग की रक्षा की। दो न न दोनों मीर, फिर जाजा, कहने से हां का अर्थ बनता है यह सोचकर जिसने उसके बाद बीरम ने युद्ध __हम्मीर के “जा, जा" का अर्थ 'ठहर जा' किया और किया हम्मीर ने स्वयं स्वामि की आज्ञा का मङ्ग किए बिना उसकी सेवा की अपने हाथों गला काट
वह जाजा चिरजयी हो। अहकार निकेतन उस
महिमासाहि का वर्णन तो क्या किया जाए जिसने कर अपनी इह लीला
प्राणान्त पर भी शत्रु के सामने सिर न झुकाया। समाप्त की।
उस वीर महिमासाहि की बराबरी कौन कर सकता संवत् १३७१ ज्येष्ठ है जो पकड़े जाने पर पैर को आगे दिखाता हुना
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