Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4197 मकरपारामघरमकाका मिनधारकाकाकारकरिवािरमिस laaसिकरहनावकर Seauaaरिसबममासनलीर्य handigbalutant theidomnामीमीamera:माराम Loबमबारेमविiaralia बाबमावामनामयसमातिनाaanaका विनियोजन मशिनासामे निमावीमहायमे Ismairaaरेकामदार Ratantr w anamalenars lammacasammakaewafaiपनिक Ratnaamalayanनयनि Aboutuपनीनगीमानल्या उरोजानसनpaausीमसेसनमालवबकि निममसन जीएEBRaमantaraaaaamnativarurunatellaरमाया निमिरजेविनचीकार लगानीdaemsinhaबिनविषयक कामावनिमयनधि Gayalamaateमानिस पडियोमा गणनाकामियममामाराम may a nanamaAR सरशjanimandalaangan Naवमयावरिकिकमनामी गुमईडियकावण )tamanianterf aदिमामला Reकामसंगठिीनीयवासी नायबैवविसीमपराउiawaazanामविलमBAURमनमकशिनिक Ragnहिलसाजीमहीनयोजनासीसिलीनतीनकोदोमा अ सायप्रसाद d asanaबडवाय IRROकिमयमासमीनी सिकहीवरिशांत जोशीmamlearana जादी Madमरममा एवमीबनमाली बीविरजासमकदी जायनियरियालीबीongमर विलाधारापान मिनमरियामक जब जेनिराजनीशियार ARRENOR Romसबारमधीरशमशकबालिमकारवादी Samme gaana nिufaaaaaaat inालकाचीगावापजेजसिंhिaar Mariatos सायटिंगखोaaimani 5bassaमिसोयरे धमनीमकाविहां संगीतशासीकीafalona मिलने पर काय भगवती-जोड़ (खण्ड -४) श्रीमज्जयाचार्य amanमविश्वानिमनशकरेसमा जारवजारेकीमोगायोMARविनमबमोमविनयजमानमनिमन। 201ला.RAKAकवविवारीमधलाकारमा बम 29- BिEL818नकारRARRRRRRRRRA - Saaविलयसिमसामरिकही बनाकरैली कर्मयादि नाममायकीमा यसपलमतियोदिनमारक Tianकार जरिवंजामिनमानयविकार. पि. मानसीमुविचार या शाaai मनमायरेयकमकरलपामजेगटालनमाण करविनय aaaवादविवार सिवायनी जाननरेव याकरिवनिकलधुममामकारे/नोडली जानकामाविमनाaveale aas.5mmaavanविराजे फलंगसहजयातमनको मायामकारवयासमवृतिविक रिकारिजवरीaaamaasीयलेब कममममनोगदिनशिवानीलिमारमादिसायसिलिकामादिकजेलिबानमनतादिनियोजनासकिय नकगणपनिजी सविसकलनारकमणशनिसमुदायममीस संशकालिनकादिकासात्मक रीतीनिकमन्तिममा creasana वासन पर कामशिवसानिकारकडीयाकियामासानायकारणीमासण्वाश्रमकाजमतदानीanaमरनाकरताadaदिया नकदमोबससानीवनकाRasीमिकमीबजलmaबालमaliमनमररीक रकदिनमा-अपनी जीवनासकालमनवमएमनोरम maनी जान केवलकादमीनदीकरवी बनाएननजाननलिएपनरैनी ननिस कन५२, लामोशालमनावरेदामगंगाश्वतीमालमत्रता दिनमानल माकानी 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अंग और अंग बाह्य। अंग बारह थे। आज केवल ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उनमें पांचवां अंग है- भगवती। इसका दूसरा नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति है। इसमें अनेक प्रश्नों के व्याकरण हैं। जीव-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान, सृष्टि-विधान, रहस्यवाद, अध्यात्म - विद्या, वनस्पति- विज्ञान आदि विद्याओं का यह आकर-ग्रन्थ है। उपलब्ध आगमों में यह सबसे बड़ा है। इसका ग्रन्थमान १६००० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण माना जाता है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी ने इस पर टीका लिखी। उसका ग्रन्थमान अठारह हजार श्लोक प्रमाण है। भगवती सूत्र की सबसे बड़ी व्याख्या है- यह 'भगवती जोड़'। इस की भाषा है राजस्थानी। यह पद्यात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे 'जोड़' की संज्ञा दी गई है। इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम जयाचार्य द्वारा प्रस्तुत जोड़ के पद्य और ठीक उनके सामने उन पद्यों के आधारस्थल दिये गये हैं। जयाचार्य ने मूल के अनुवाद के साथ-साथ अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षा भी की है। आवरण पृष्ठ पर मुदित हस्तलिखित पत्र गन्य की ऐतिहासिक पाण्डुलिपि के नमूने हैं। इनकी लेखिका है-तेरापंथ धर्मसंघ की विदुषी साध्वी गुलाब, जो आशु-लेखन की कला में सिद्धहस्त भी। जपाचार्य भगवती-जोड़ की रचना करते हुए पद्यों का सृजन कर बोलते जाते और महासती गुलाब अविकल रूप से उन्हें कलम की नोक से कागज पर उतारती जाती। उस प्रथम ऐतिहासिक प्रति के ये पत्र प्रज्ञा, कला और ग्रहण-शीलता की समन्विति के जीवन्त साक्ष्य है। मुदण का आधार यही प्रति है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती जोड़ (शतक १२ से १५) श्रीमज्जयाचार्य Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : ग्रन्थ १५ भगवती-जोड़ खण्ड ४ (शतक १२ से १५) प्रवाचक प्रधान सम्पादक आचार्य तुलसी युवाचार्य महाप्रज्ञ सम्पादन साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभा प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध-सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन जैन विश्व भारती ISB No. 81-7195-030-2 © जैन विश्व भारती, लाडनूं राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत सरकार, नई दिल्ली के आर्थिक सौजन्य से प्रकाशित प्रथम संस्करण : १६९४ मूल्य 400-00 मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्वभारती प्रेस, लाडनूं (राजस्थान) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'भगवती जोड़' का प्रथम खण्ड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङमय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा खण्ड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ और तीसरा खण्ड सन १९९० में प्रकाशित हुआ। अब उसी ग्रन्थ का चतुर्थ खण्ड पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित हैं। द्वितीय खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक और तृतीय खण्ड में नौवें से लेकर ग्यारहवें शतक तक की सामग्री समाहित है। प्रस्तुत खण्ड में बारहवें से पन्द्रहवें तक चार शतक एवम् एक परिशिष्ट 'गोशाला री चौपई' संगृहीत है। साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रन्थों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत आगमों को राचस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़--ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक हैं। "भगवई' अंग ग्रन्थों में सबसे विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रन्थ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रन्थ माना गया है। इसमें मूल के साथ टीका ग्रन्थों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढाले हैं। ४१ ढालें केवल दोहों में हैं । ग्रन्थ में ३२९ रागिनियां प्रयुक्त हैं। इसमें ४९९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छंद, १८४८ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४९ पद्यपरिमाण ११९० गीतिकाएं, ९३२९ पद्य-परिमाण ४०४ यन्त्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप् पद्य-परिणाम ग्रन्थाग्र ६०९०६ है। प्रस्तुत खण्ड में मूल राजस्थानी कृति के साथ संबंधित आगम पाठ और टीका गाथाओं के सामने दी गई है। इससे पाठकों को समझने की सुविधा के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य को जानकारी भी हो सकेगी। इस ग्रन्थ का कार्य युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ है और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरापूरा हाथ बंटाया है । उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृग्गोचर होता है। योगक्षेम वर्ष की सम्पन्नता के बाद तृतीय खण्ड प्रकाशित हुआ है । अब उसके बाद चतुर्थ खण्ड को पाठकों के हाथ में प्रदान करते हुए जैन विश्व भारती अपने आपको अत्यंत गौरवान्वित अनुभव करती है। इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में सम्पन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में मित्र परिषद्, कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से हुई थी। दिनांक १०-११-९३ श्रीचन्द रामपुरिया कुलपति जैन विश्व भारती, साडनूं Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवती-जोड़ का चतुर्थ खंड भगवती सूत्र के चार शतकों का समवाय है । बारहवें से पन्द्रहवें शतक तक चार शतकों में अनेक विषयों का विवेचन किया गया है । बारहवें शतक के दस उद्देशक हैं । इन उद्देशकों की विषय वस्तु का आकलन संग्रहणी गाथा में है। गाथा के माधार पर जयाचार्य ने दो दोहे लिखे हैं संख जयंती श्राविका, पृथ्वी रत्न प्रमाद । पुद्गल प्राणातिपात नों, राहु तणो विधिवाद ॥ लोक नाग सुर वारता, भेद आत्म संपेख । द्वादशमा जे शतक नां, दश उद्देशा देख ॥ प्रथम उद्देशक में शंख-पोखली आदि श्रावकों का प्रसंग वणित है। वे श्रावक श्रावस्ती नगरी में रहते थे। वहां एक बार भगवान महावीर पधारे । लोग देशना सुनने गए । देशना का समय पूरा हो गया । श्रावक अपने घर लौटने लगे। शंख श्रावक ने उनसे कहा-'आज हम सामूहिक भोजन कर पाक्षिक पोषध की आराधना करें।' शंख के निर्देशानुसार सामूहिक भोजन की व्यवस्था हो गई । समय पर प्रायः सभी श्रावक पहुंच गए, पर शंख नहीं पहुंचा। सब लोग शंख की प्रतीक्षा करने लगे। उसके आने में विलम्ब होता देख पोखली धावक ने कहा---'मैं जाता हूं और शंखजी को बुलाकर लाता हूं।' पोखली श्रावक शंख के घर पहुंचा । शंख की पत्नी उत्पला ने उसका अभिवादन किया, स्वागत किया और आने का प्रयोजन पूछा। पोखली ने कहा-'सब श्रावक पहुंच गए। भोजन तैयार हो गया । शंखजी नहीं पहुंचे। मैं उन्हें बुलाने आया हूं।' उत्पला बोली-'वे आज पौषधशाला में साधना कर रहे हैं।' पोखली श्रावक पौषधशाला में शंख से मिला और बोला-'सब लोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप अब तक पहुंचे क्यों नहीं ?' शंख ने उत्तर दिया---आज मैं विशेष साधना में संलग्न हूं। इसलिए आपके साथ नहीं जा सकता और भोजन भी नहीं कर सकता। शंख के मना करने पर पोखली वहां से चलकर प्रतीक्षारत श्रावकों के पास पहुंचा। उसने सबको वस्तु स्थिति की जानकारी दी। उन्होंने भोजन कर सामूहिक रूप में पाक्षिक पोषध की आराधना की। दूसरे दिन सूर्योदय के बाद शंख भगवान् महावीर के दर्शन करने गया। अन्य श्रावक भी वहां आए। भगवान ने प्रवचन किया। प्रवचन सम्पन्न होने पर श्रावक शंख के पास जाकर बोले-'देवानुप्रिय! कल आपने हमारे साथ धोखा क्यों किया? आपको भोजन नहीं करना था, सामूहिक पौषध नहीं करना था तो हमें क्यों कहा? आपके कारण हमें कितना हास्यास्पद बनना पड़ा?' श्रावक शंख को उपालम्भ दे रहे थे, उसी समय भगवान महावीर ने उन्हें प्रतिबोध देते हुए कहा-श्रावको! तुम शंख की अवहेलना मत करो। शंख प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी श्रावक है। इसने जागरिका की है । श्रावकों को अपने प्रमाद का बोध हुआ। उन्होंने भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। शंख के साथ खमतखामणा किया। कालांतर में शंख श्रावक ने भगवान के पास अनगार धर्म-. मुनि दीक्षा स्वीकार की। जयाचार्य ने भगवती के इस प्रेरक कथानक को 'जोड़' में आबद्ध किया ही है, इसके साथ-साथ कुछ विमर्ष योग्य शब्दों की समीक्षा भी की है। दूसरे उद्देशक में कौशाम्बी नरेश उदयन के परिवार का वर्णन है। उदयन की माता मृगावती एक तत्त्वज्ञ श्राविका थी। उदयन की बुझा जयन्ती भी अच्छी तत्त्वज्ञा थी। साधुओं की प्रथम शय्यातर के रूप में उसकी प्रसिद्धि थी। एक बार भगवान महावीर कौशाम्बी नगरी पधारे। जयंती श्राविका को यह संवाद मिला । उसने प्रसन्न हो अपनी भाभी मृगावती तक यह सूचना पहुंचाई । मृगावती जयन्ती को साथ लेकर भगवान् के दर्शन करने गई। राजा उदयन भी उनके साथ था। भगवान का प्रययन सुन राजा उदयन और महारानी मृगावती घर लौट गई । जयंती के मन में कुछ जिज्ञासाएं थीं। उसने भगवान् की उपासना कर अपनी जिज्ञासाएं प्रस्तुत की। जयन्ती के प्रश्न--- (१) भन्ते ! जीव भारी कैसे होते हैं ? (२) जीव की भव्यता स्वाभाविक है या पारिणामिक ? Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) सव भव्य जीवों की मुक्ति होगी? (४) सब भव्य जीव मुक्त हो जाएंगे तो क्या लोक भव्य जीवों से शून्य हो जाएगा? (५) सोना अच्छा है या जामना? (६) बलवत्ता अच्छी है या दुर्बलता? (७) दक्षता-पुरुषार्थ अच्छा है या आलस्य ? (८) इन्द्रियों की वशतिता से किन कर्मों का बन्ध होता है ? भगवान् महावीर ने जयन्ती के सब प्रश्नों को उत्तरित कर उसे समाहित कर दिया। तीसरे उद्देशक में नरक की सात पृथ्वियों, उनके नाम, गोत्र आदि का निरूपण है। चतुर्थ उद्देशक में पूदगलों के मिलन और भेद का विस्तृत विवेचन है। जोड़ में जो विवेचन है, उसे यन्त्रों के माध्यम से और अधिक स्पष्ट करके निशित किया गया है। इसके बाद पुदगल-परावर्त का पूरे विस्तार के साथ वर्णन है । पुद्गल परावर्त के प्रकार, चौबीस दण्डको में पुदगल परावर्त, इनमें अल्पबहुत्व आदि की चर्चा है। पांचवें उद्देशक में वर्णादि की अपेक्षा से द्रव्य की मीमांसा की गई है। क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची नामों की व्याख्या और उनमें वर्ण, गंध आदि का उल्लेख है। इसी क्रम से बुद्धि के प्रकार, मतिज्ञान के प्रकार, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम, जीव परिणामी, अजीव-परिणामी, अवकाशांतर, चौबीस दण्डक, पंचास्तिकाय, कर्म, लेण्या, दृष्टि, शरीर, योग, उपयोग, सब द्रव्य और गर्भोत्पत्ति काल में वर्ण आदि का विवेचन है। उद्देशक के अन्त में कर्मों के योग से होने वाली जीवों की विचित्रता का वर्णन है। छठे उद्देशक में चन्द्रमा-सूरज का ग्रहण, राहू का स्वरूप, राहु के भेद और चन्द्रमा एवं सूरज के कामभोग का विवेचन है। सातवें उद्देशक में लोक में जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु का विस्तार से वर्णन है। आठवें उद्देशक में देवों के द्विशरीरी उपपाद आदि का वर्णन है। नौवें उद्देशक में पांच प्रकार के देवों का विस्तृत विवेचन है । दसवें उद्देशक में आत्मा की चर्चा है । आत्मा के प्रकार, किस गुणस्थान तक कौन-सी आत्मा, किस आत्मा में किन आत्माओं की नियमा-भजना, आठ आत्माओं का अल्प बहुत्व, आत्मा के साथ ज्ञान-दर्शन का भेदाभेद आदि का निरूपण है। परमाण, स्कन्ध आदि के सन्दर्भ में आत्मा-नोआत्मा के प्रसंग को यन्त्रों के माध्यम से भी स्पष्ट किया गया है। जयाचार्य ने १३ ढालों, दोहों-सोरठों, वार्तिकाओं और यन्त्रों के द्वारा बारहवें शतक को कहीं संक्षेप और कहीं विस्तार के साथ विश्लेषित किया है । बीच-बीच में अपने स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर कुछ समीक्षाएं भी की गई है । तेरहवें शतक का गुम्फन १९ ढालों, दोहों-सोरठों एवं वार्तिकाओं में किया गया है। इसके प्रथम उद्देशक में सात नरकभूमियों का वर्णन है। गणधर गौतम ने भगवान महावीर से नरकभूमियों की संख्या, नरकावासों की संख्या और उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्बन्ध में उनचालीस प्रश्न किए हैं। नरकभूमियों से उदवर्तन---निकलने और सत्ता के बारे में भी ऐसी ही प्रश्नावली है। दृष्टि और लेश्या को भी विषयवस्तु बनाकर प्रश्न उपस्थित किए गए हैं। भगवान ने प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देकर गौतम को समाहित कर दिया। दूसरे उद्देशक में नै रयिकों की भांति औपातिक होने के कारण देवों का वर्णन किया है। देवों के प्रकार, उनके आवास, उनमें उत्पन्न होने वाले देवों में दृष्टि, लेश्या आदि का वर्णन मूल पाठ और वृत्ति के आधार पर किया गया है। उसके बाद जयाचार्य ने अन्य ग्रन्थों के आधार पर भी नैरयिक जीवों और देवों के आवासों की संख्या का वर्णन किया है। तीसरे उद्देशक में चौवीस दण्डकों के जीवों के आहार ग्रहण, शरीर संरचना और परिचारणा आदि का वर्णन संक्षेप में वर्णित चोथे उद्देशक में नरकभुमियों और नैरयिक जीवों में स्थान, कर्म, वेदना आदि की अल्पता और अधिकता का प्रतिपादन है। इसी प्रकार नरकभूमियों की मोटाई, लम्बाई, चौड़ाई, नरक भूमियों के पार्श्ववर्ती जीवों के कर्म, वेदना आदि का विवेचन है । इसी उद्देशक में लोक के मध्य आयाम, दिशाओं-विदिशाओं का प्रवाह, लोक का स्वरूप, पंचास्तिकाय का वर्णन, उनकी स्पर्शना, अवगाहना जीवों की अवगाहना, लोक का संस्थान आदि अनेक विषयों का वर्णन है। पांचवें उद्देशक में नैरयिक जीवों के आहार का वर्णन है। यह वर्णन प्रज्ञापना सूत्रानुसारी है। इसलिए यहां उसका उल्लेख करते हुए मात्र संक्षिप्त सूचना दी गई है। छठे उद्देशक में नैरयिक जीवों एवं देवों की सान्तर-निरन्तर उत्पत्ति एवं च्यग्न की चर्चा करते हुए असुरेन्द्र चमर के चमरचंचा नामक आवास का विस्तृत विवेचन है। देशयत और नवव्रत के विराधक व्यक्ति असुरकुमार देव बनते हैं । जैन शासन में इस प्रकार की विराधना के सन्दर्भ मैं सिन्धु-सौवीर देश में वीतिभय नामक नगर के राजा उदायन का विस्तृत कथानक इसी उद्देशक में Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) वर्णित है। राजा उदायन का पुत्र अभीचिकुमार श्रमणोपासक था । अनशन में भी वह अपने पिता के प्रति उत्पन्न द्वेष भाव से मुक्त नहीं हुआ । इस क्रम से देशव्रत की विराधना कर असुरकुमारावास में पैदा हुआ। सातवें उद्देशक में भाषा, मन और काय का अनेक दृष्टियों से विवेचन किया गया है। इसी उद्देशक में आगे मरण के पांच प्रकारों का वर्णन है। आठवें उद्देशक में कर्म प्रकृतियों की चर्चा है, पर यहां प्रज्ञापना सूत्र की सूचना देकर उनका उल्लेख मात्र किया गया है । नवमें उद्देशक में भावितात्म मुनि द्वारा किए जाने वाले वैरिलब्धि के विविध प्रयोगों की चर्चा है। उद्देशक के अन्त में यह बताया गया है कि मायी भावितात्म अनगार विक्रिया करता है। विक्रिया करने वाला अनगार आलोचना और प्रतिक्रमण करके अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है तो वह आराधक है। आलोचना किए बिना मृत्यु को प्राप्त करने वाला विराधक होता है। दसवें उद्देश में किसानों की वर्षा की गई है। विविध विषयों का स्वर्ण करने वाला मूलपाठ और वृत्ति के आधार पर रचित तथा बीच-बीच में समीक्षात्मक गद्य और पद्यों से परिवर्धित प्रस्तुत शतक पाठक को ज्ञान की गहराई तक पहुंचाने बाला है। चौदहवें शतक के दस उद्देशक हैं। शतक के प्रारंभ में संग्रहणी गाथा के आधार पर सात दोहों में वर्ण्य विषयों को उल्लिखित किया गया है। प्रथम उद्देशक में लेश्यानुसारी उपपाद तथा चौबीस दण्डकों के जीवों का अनन्तर, परम्पर आदि की चर्चा है। दूसरे उद्देशक में दो प्रकार के उन्माद बताकर चौबीस दण्डकों में उन्माद का वर्णन किया गया है। इसी उद्देशक में देवों द्वारा वृष्टिकाय और तमस्काय करने की चर्चा है । तीसरे उद्देशक में देवों और नैरयिक जीवों की विनय विधि तथा उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले पुद्गल परिणामों की संक्षिप्त चर्चा की गई है । चौथे उद्देशक में पुद्गल और जीवों की विविध परिणतियों तथा जीव परिणाम और अजीव परिणाम के भेदों का उल्लेख है । पांचवें उद्देशक में चौबीस दण्डक के जीवों द्वारा अग्निकाय के अतिक्रमण का प्रश्न उपस्थित किया है। इस सन्दर्भ में उनकी विग्रहगति और अविग्रहगति को आधार बनाकर समझाया गया है। इसी प्रकार शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य, यशकीर्ति और उत्थान कर्म-बल-वीर्य पुरुषाकार पराक्रम इन दस बोलों को चौबीस दण्डकों के सन्दर्भ में चर्चित किया गया है। छठे उद्देशक के प्रारंभ में नैरयिक जीवों के आहार आदि का वर्णन है। दूसरा प्रसंग इन्द्र का है। इन्द्र के मन में दिव्य भोग भोगने की इच्छा होती है, तब वह क्या करता है ? इस प्रश्न को विस्तार के साथ उत्तरित किया गया है। सातवें उद्देशक में भगवान महावीर द्वारा गणधर गौतम को आश्वस्त करने का वर्णन है। गौतम द्वारा दीक्षित साधुओं को केवलज्ञान उपलब्ध हो गया। वे वीतराग बन गए। इस घटना से गौतम उद्वेलित हो गए। भगवान् महावीर ने गौतम के केवलज्ञान में उपस्थित बाधा का मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया और अन्त में यह बताया है कि इस शरीर को छोड़ने के बाद हम तुल्य हो जाएंगे । यह कथन गौतम के लिए बहुत बड़ा आलम्बन बन गया। महावीर और गौतम की तुल्यता को अनुत्तरोपपातिक देव जानते हैं या नहीं ? इस प्रश्न को समाहित करने के बाद छह प्रकार की तुल्यता का विवेचन है । अनशन की स्थिति में उत्पन्न आहार की इच्छा, लवसत्तम देव और अनुत्तर विमान के देवों की संक्षिप्त चर्चा के साथ उद्देशक पूरा हुआ है । आठवें उद्देशक में नरकभूमियों और देवों के आवासों के मध्य की दूरी का वर्णन है। वृक्षों के पुनर्जन्म की चर्चा है अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों का अनशन, अम्बड़ की चर्या, अव्याबाध देवों की शक्ति, इन्द्र की शक्ति तथा जृम्भक देवों का वर्णन है । प्रस्तुत उद्देशक की जोड़ में कुछ स्थलों पर जयाचार्य की लम्बी समीक्षा भी है। नौवें उद्देशक के प्रारंभ में लेश्या, पुद्गल, देवभाषा, सूर्य और श्रमणों की तेजोलेश्या का वर्णन है। एक मास की दीक्षा पर्यायवाला श्रमण व्यन्तर देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रांत कर देता है उन्हें प्राप्त होने वाले सुखों से आगे बढ़ जाता है। इसी क्रम में दो मास तीन मास यावत बारह मास की दीक्षा पर्यायवाला भ्रमण अनुत्तर विमान के देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रांत कर देता है। इस उद्देशक का प्रतिपाद्य यह है कि साधु जीवन में जिस सुख का अनुभव हो सकता है, वह देवों को भी उपलब्ध नहीं है । दसवें उद्देशक में केवली और सिद्धों के ज्ञान दर्शन के बारे में कुछ प्रश्न उपस्थित कर उनको समाहित किया गया है। चौदहवें शतक की पूरी जोड़ पन्द्रह ढालों और दोहों-सोरठों में रची गयी है । भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक की रचना नई शैली में है। इसमें न किसी संग्रहणी गाथा का संकेत है और न अलग-अलग उद्देशक हैं। पूरा शतक संलग्न रूप में व्याख्यात है। इसमें मुख्य रूप से गोशालक का वर्णन है। प्रासंगिक रूप में आजीवक मत, भगवान महावीर की तपस्या, उनके द्वारा गोशालक का शिष्य रूप में स्वीकार, नियतिवाद, पोट्टपरिहार, वैश्यायन तपस्वी द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग, भगवान् द्वारा गोशालक का बचाव इस सन्दर्भ में समीक्षात्मक वार्तिका, तेजोलब्धि प्राप्त करने की विधि, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) गोशालक का स्वतन्त्र विहार, लब्धि प्राप्ति, छह दिशाचरों का योग, केवली के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास, श्रावस्ती में भगवान् महावीर का आगमन, गोशालक के असत्य संभाषण का प्रतिवाद, गोशालक को कोप, स्थविर आनन्द के साथ उसका वार्तालाप, चार बल्गुओं का दृष्टांत, आनन्द और भगवान् का संवाद, गोशालक का भगवान् के समवसरण में आगमन, सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनियों पर तेजोलब्धि का सफल प्रयोग, भगवान् पर तेजोलब्धि का असफल प्रयोग, तेजोलब्धि का पुमः गोशालक के शरीर में प्रवेश, भगवान् और गोशालक का संवाद, श्रावस्ती नगरी में जन प्रवाद, भगवान् के शिष्यों द्वारा गोशालक की पुनः हालाहला कुंभकारी के आपण में वापसी, गोशालक द्वारा विचित्र सिद्धान्तों के रूप में आठ चरम तत्त्वों का निरूपण ओर उनका आचरण । आजीवक श्रमणोपासक अयंपुल का गोशालक के पास आगमन, आजीवक स्थविरों द्वारा अयंपुल का समाधान, गोशालक को अपनी मृत्यु का आभास, अन्तिम संस्कार के बारे में निर्देश, गोशालक के परिणामों में परिवर्तन पश्चात्ताप, अपने बारे में श्रावकों को नया निर्देश, गोशालक की मृत्यु और उसके निर्हरण का विस्तार के साथ विवेचन है । के गोशालक ने भगवान् पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया। वह शरीर अनन्त था । वह उस कष्ट से प्रभावित नहीं हुआ । किन्तु शरीर पर उसका प्रभाव भगवान् श्रावस्ती नगरी से विहार कर मिडियग्राम नगर के साण कोष्ठक उद्यान में पित्तज्वर का प्रकोप हुआ। लोगों में चर्चा होने लगी कि गोशालक की घोषणा के गए। अब वे निश्चित रूप से छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होंगे । भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाई। भगवान् का आत्मबल होने लगा । उस स्थिति में भी महान् आत्मबली पधारे। वहां भगवान् के शरीर में अस्वस्थता बढ़ी । अनुसार छह महीनों के भीतर महावीर अस्वस्थ हो भगवान् महावीर का शिष्य सिंह नामक मुनि ने भगवान् के सम्बन्ध में उक्त जनप्रवाद सुना । वह अधीर हो गया । वह मालुका कच्छ में प्रविष्ट होकर बाढ़ स्वर में विलाप करने लगा। भगवान् ने अपने ज्ञान बल से सिंह मुनि की मनःस्थिति को जाना । साधुओं को भेजकर सिंह को अपने पास बुलाया। सिंह मुनि को आश्वस्त किया। उसे रेवती के घर से बीजोरापाक लाने का निर्देश दिया। सिंह मुनि रेवती के घर गोचरी गया। सहज निष्पन्न बीजोरापाक लेकर आया । भगवान् ने उसका सेवन कर स्वास्थ्य लाभ किया । इससे चतुविध संघ में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई । भगवान् का शरीर स्वस्थ होने पर गणधर गौतम ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि के बारे में कुछ प्रश्न किए। गोशालक के बारे में जिज्ञासा की । भगवान् ने पूरे विस्तार के साथ गोशालक के संसार भ्रमण का चित्र उपस्थित किया । अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करने के बाद गोशालक महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ नामक केवली होगा। वह अपने शिष्य साधुओं को गोशालक भव का पूरा वृत्तांत सुनाकर कहेगा- 'आर्यो ! मैंने अपने धर्माचार्य भगवान् महावीर की प्रत्यनीकता की। उनका अवर्णवाद किया। उन्हें कष्ट दिया । इसलिए मुझे संसार में दीर्घकाल तक भ्रमण करना पड़ा । कोई भी व्यक्ति आचार्य - उपाध्याय का प्रत्यनीक बनता है, उसकी यही स्थिति होती है।' दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवली पर्याय में रहकर अनशनपूर्वक देह त्याग कर मुक्त हो जाएंगे । ११८९ दोहों में निबद्ध गोशालक - चरित्र की शैली भगवती-जोड़ की चालू शैली से हटकर है । इसका कारण पन्द्रहवें शतक के अन्तिम पद्यों में उल्लिखित है। उन पद्यों पर दिए गए टिप्पणों से उसकी पूरी जानकारी उपलब्ध हो जाती है । प्रस्तुत खण्ड में एक परिशिष्ट भी रखा गया है । उसमें आचार्य भिक्षु द्वारा रचित गोशालक को चौपई दी गई है। चौपई की इकतालीस ढालें हैं । चौदहवें शतक की आखिरी ढाल की संख्या ३०५ है । पन्द्रहवें शतक की जोड़ के दोहों को इकतालीस ढालों की संख्या में गिनकर सोलहवें शतक का प्रारंभ ३४७ वीं ढाल से किया गया है। यह प्रसंग आचार्य भिक्षु के प्रति जयाचार्य के उत्कृष्ट समर्पण का उदाहरण है । भगवती जोड़ के प्रथम तीन खण्डों की तरह चतुर्थ खण्ड का सम्पादन परमाराध्य आचार्यवर की मंगल सन्निधि में हुआ है । यत्र-तत्र युवाचार्यश्री का मार्गदर्शन भी मिलता रहा है। सम्पादन कार्य में आदि से अन्त तक निष्ठा के साथ काम किया है साध्वी जिनप्रभाजी ने । जोड़ में निर्दिष्ट आगमों के प्रमाण-स्थलों की खोज में मुनि हीरालालजी का सहयोग अविस्मरणीय है। किसी भी आगम या व्याख्या ग्रंथ का विवक्षित स्थल वे जिस सहजता से खोज लेते हैं वह उनके गंभीर आगम-अनुशीलन का परिचायक है । प्रति शोधन, प्रूफ निरीक्षण आदि कार्यों में साध्वी जिनप्रभाजी को अनेक साध्वियों का सहयोग सुलभ रहता है। इससे कार्य सम्पादन की गति में त्वरा आ जाती है। भगवती-जोड़ का मुद्रण कार्य भी बहुत श्रम साध्य है। ग्रंथ को सही ढंग से कम्पोजिंग करने में भी पूरी एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। जैन विश्व भारती प्रेस के कार्यकर्ता इस कार्य में उत्तरोत्तर दक्षता बढ़ाते जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह माना जा सकता है प्रस्तुत ग्रंथ में कुछ भी नया लेखन न होने पर भी जितना समय और श्रम इसके सम्पादन में लगता है, वह इसके वैशिष्ट्य का सूचक है है। आचार्यप्रवर का मंगल आशीर्वाद और सम्पादन कार्य में आए अवरोधों को दूर करने में आपकी तत्परता से मुझे जो आलोक मिलता है, वह आगामी खण्डों के सम्पादन में और अधिक सघनता से प्राप्त होगा, यह विश्वास ही मेरी सम्पादन यात्रा का सबसे बड़ा आलम्बन है । राजस्थानी, प्राकृत और संस्कृत भाषा वाले इस साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ १११ ११२ विषय शंख पोक्खली पद राजा उदयन परिवार पद राजा उदयन आदि का धर्मश्रवण पद जयन्ती प्रश्न जीव की गुरुता और लघुता जीव की भव सिद्धिता जीव की बलवत्ता और दुर्बलता जीव की दक्षता और आलस्य इन्द्रियों की वशवर्तिता पृथ्वी पद परमाणु पुद्गलों का संघात-भेद पुद्गल परावर्तन पद चउवीस दंडक आश्री पुद्गल परावर्त औदारिक आदि पुद्गल परावत्तं नो स्वरूप वर्णादि की अपेक्षा से द्रव्य मीमांसा पद क्रोध के दस नाम मान के बारह नाम माया के पन्द्रह नाम लोभ के सोलह नाम मति के चार प्रकार उत्थान आदि का स्वरूप अवकाशांतर आदि में वर्णादिक की पृच्छा जंबूद्वीप आदि में वर्णादिक की पृच्छा चौबीस दंडकों में वर्णादिक की पृच्छा धर्मास्तिकाय आदि में वर्णादिक की पृच्छा कर्म, लेश्या और दृष्टि में वर्णादिक की पृच्छा उदयभाव जीव-अजीव शरीर, जोग और उपयोग में वर्णादिक की पृच्छा सब द्रव्यों में वर्णादिक की पृच्छा गर्भोत्पत्ति काल में वर्णादिक की पृच्छा कम विभक्ति पद चंद्रसूर्य ग्रहण पद राहू वर्णन राहू के भेद शशि-आदित्य पद चंद्रसूर्य-कामभोग पद जीवों का जन्म-मृत्यु पद अनेक अथवा अनन्त वार उपपात पद देवों का द्विशरीर-उपपाद पद। पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनि उपपाद पद पंचविध देवों का उपपाद पद पंचविध देवों का स्थिति पद पंचविध देवों का विकुर्वणा पद पंचविध देवों का उद्वर्तना पद पंचविध देवों का संचिट्ठणा पद पंचविध देवों का अंतर-पद पंचविध देवों का अल्पबहुत्व पद आत्मा-पद आठ आत्मा का अल्पबहुत्व पद आत्मा के साथ ज्ञान-दर्शन का भेदाभेद रत्नप्रभा आदि पृथ्वी आत्मा या नोआत्मा सौधर्म आदि स्वर्ग आत्मा या नोआत्मा परमाणु स्कंध आदि आत्मा या नोमात्मा नरक उपपाद पद नरक उद्वर्तना पद नरक-सत्ता पद सक्करप्रभा का विस्तार वालुकप्रभा का विस्तार पंकप्रभा का विस्तार धूमप्रभा का विस्तार तमा का विस्तार तमतमा का विस्तार नरक में सम्यक् दष्टि आदि की पृच्छा नरक में लेश्या की पृच्छा देवों के प्रकार असुरकुमार आदि देवों की पृच्छा व्यन्तर देवों की पृच्छा ज्योतिषी देवों की पृच्छा वैमानिक देवों की पृच्छा अनुत्तर विमान के देवों की पृच्छा देवों में सम्यग्दृष्टि आदि की पृच्छा देवों में लेश्या को पृच्छा २४ दण्डकों में आहार यावत परिचारणा नरक और नैरयिक-अल्पमहत् पद ११२ १२५ १३० १३३ १३४ १३४ १३५ १३६ GWWi Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) १५५ २३९ १५६ १५६ २४४ १५६ १५८ २५० २५३ ~ ~ ~ ~ ~ x rrr..mor ~ xxxxrururururu ~ ~ ~ ~ ~ १६३ २५६ १६४ २५७ २६२ १६७ २६४ १७३ १७५ २६५ २६९ २७१ २७२ १८१ १८२ २७३ २७७ १८४ २८२ १८५ नैरयिक स्पर्शानुभव पद नरक-बाहल्य क्षुद्रत्व पद नरक परिसामन्त पद लोक मध्य पद दिशि विदिशि प्रवह पद लोक पद धर्मास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना आकाशास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना जोवास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना अद्धा समय के प्रदेशों की स्पर्शना धर्मास्तिकाय आदि की परस्पर स्पर्शना अवगाहना द्वार अन्य प्रकार से अवगाहना द्वार जीवों की अवगाहना द्वार अस्तिकाय प्रदेश निषीदन द्वार बहुसम द्वार संस्थान द्वार नैरयिक आहार पद सांतर-निरंतर पद चमर आवास पद उदायन कथा पद उदायन की धर्म जागरणा वीतिभय में महावीर का आगमन उदायन की दीक्षा की स्वीकृति केशीकुमार का राज्याभिषेक उदायन का अभिनिष्क्रमण अभीचिकुमार का आक्रोश व्रत-विराधना की परिणति भाषा पद मन पद काय पद मरण पद कर्म-प्रकृति पद भावितात्मा विक्रिया पद छाअस्थिक समुद्घात लेश्यानुसारी उपपाद पद नरयिक आदि का गतिविषय पद नैरयिक आदि का अनंतरोपपन्नगादि पद उन्माद पद वृष्टिकाय करण पद २८३ २८४ २८५ १८६ १८६ १८९ तमस्काय करण पद विनयविधि पद पुद्गल जीव परिणाम पद अग्निकाय अतिक्रमण पद प्रत्यनुभव पद देव उल्लंघन पद नैरयिक आदि का आहारादि पद देवेन्द्र-भोग पद गोतम-आश्वासन पद महावीर और गौतम की तुल्यता भावी तुल्यता-परिज्ञान पद तुल्यता पद भक्त प्रत्याख्यात-आहार पद लवसत्तम देव पद अणुत्तरोपपातिक देवपद अबाधा अन्तर पद अम्मड अंतेवासी पद अम्मड चर्या पद अव्याबाध देवशक्ति पद शक्रशक्ति पद जम्भक देव पद सरूपी सकर्म लेश्या पद अत्त-अणत्त पुद्गल पद इष्ट-अनिष्ट आदि पुद्गल पद देवभाषा सहस्र पद सूर्य पद श्रमणों की तेजोलेश्या पद केवली पद गोशालक पद भगवान् विहार पद प्रथम मासखमण पद द्वितीय मासखमण पद तृतीय मासखमण पद चतुर्थ मासखमण पद गोशालक का शिष्य रूप स्वीकरण पद तिल स्तंभ पद वैश्यायन बाल तपस्वी पद तिलस्तंभ-निष्पत्ति और गोशालक-अपक्रमण पद तेजोलेश्या-उत्पत्ति पद गोशालक अमर्ष पद गोशालक भाक्रोश प्रदर्शन पद वल्मीक दृष्टांत पद ~ ~ ~ rxxxvorm". ~ ~ FUTU.०००.०० - ~ . २८७ m x9mm orrm 2 rrrrrrrNNNNNNYrrrrr mmm m m mm mr mr r m mr x2 ० ० xrurr ० ०. r १९२ १९४ १९६ १९८ १९९ ३०६ २०५ २१० २१४ २१५ २२० ३१५ २२५ ३२० २२९ २३२ २३५ ३२१ ३२२ ३२३ ३२३ २३८ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ३३२ ३४८ ३५१ ३५५ ३५६ mmmmmmmmmm Mmm x ३४१ ३५७ मानंद स्थविर द्वारा भगवान् को निवेदन पद गोतम आदि को अनुज्ञापन पद गोशालक द्वारा स्वसिद्धांत निरूपण पद गोशालक वचन प्रतिकार पद गोशालक का पुन: आक्रोश पद सर्वानुभूति भस्मराशिकरण पद सुनक्षत्र परितापन पद भगवान् पर तेजोलब्धि प्रयोग पद श्रावस्ती में जनप्रवाद पद गोशालक के साथ श्रमणों के प्रश्नोत्तर गोशालक संघ भेद पद गोशासक प्रतिगमन पद ३५८ नाना सिद्धांत प्ररूपण पद भयंपुल आजीवकोपासक पद निहरण निर्देश पद गोशालक परिणाम परिवर्तन पद निहरण पद भगवान् के रोगातंक प्रादुर्भाव पद मुनि सिंह का मानसिक दुःख पद भगवान द्वारा आश्वासन पद सिंह द्वारा रेवती से भैषज्य आनयन पद सर्वानुभूति उपपाद पद सुनक्षत्र उपपाद पद गोशासक का भवभ्रमण पद ३५९ ३४३ ३५९ ३६१ ३४५ ३४५ ३४७ ३४७ mm MY mir ३६३ ३६५ Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १२ १-१२२ शतक १३ : १२३-२२२ शतक १४ : २२३-२६८ शतक १५ : २९९-३८० परिशिष्ट (गोशालक की चौपई) : ३८१-४४० Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश शतक ढाल : २४९ १. व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम, अथ तथाविधमेव द्वादशमारभ्यते । (वृ. प. ५५२) २,३ संखे जयंति पुढवि पोग्गल अइवाय राहु लोगे य । नागे य देव आया, बारसमसए दसुद्देसा ।। (श. १२ संगहणी-गाहा) ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था-वण्णओ। कोटुए चेइए-वण्णओ। ५. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासया परिवसंति-अड्ढा । ६. जाव बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव"...."विहरति ।। ७. तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम ___ भारिया होत्था-सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा । ८. समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव..."विहरइ । १. एकादशमां शतक में, विविध अर्थ अवदात । द्वादशमें पिण तेहिज हिव, कहियै अर्थ सुज्ञात ।। २. संख जयंती श्राविका, पृथ्वी रत्न प्रमाद । पुद्गल प्राणातिपात नों, राह तणो विधिवाद ।। ३. लोक नाग सुर वारता, भेद आत्म संपेख । द्वादशमा जे शतक नां, दश उद्देशा देख ॥ शंख पोक्खली पद ४. तिण काले नै तिण समय, नगरी सावत्थी नाम । कोट्ठग नामे चैत्य थो, वर्णक बिहुं नो ताम ॥ ५. तिण सावत्थी ने विषे, संख प्रमुख बहु जान । समणोपासग संदरू, वस अधिक ऋद्धिवान ॥ ६. यावत अपरिभूत छै, जाण्या जीव अजीव । तावत मुनि प्रतिलाभता, विचरै सखर सदीव ।। ७. वनिता संख तणी सही, नाम उत्पला तास । कर पग तनु सुखमाल है, जाव सरूप उजास ॥ ८. ते पिण' छै सुध श्राविका, जीवाजीव पिछाण । जाव पात्र प्रतिलाभती, विचरै ते गुणखाण ।। ६. नगरी सावत्थी नै विषे, वसै पोक्खली नाम । समणोपासग सुंदरू, अड्ढे ऋद्धिवंत ताम ।। १०. जाण्या जीव अजीव ने, यावत विचरै तेह। जाव शब्द में जाणवू, श्रावक वर्णक जेह ।। ११. तिण काले नैं तिण समय, समवसरया भगवंत । कवण प्रकार थयो तदा, ते सुणज्यो धर खंत ॥ *प्राणी गुणरसियो। जेह सुगुण नर नार तेहनै मन वसियो ।(ध्रुपदं) १२. महावीर जिन आविया रे, गुणिजन ! जावत परिषद जान । प्राणी गुणरसियो। सेव करै साचै मनै रे, गुणिजन ! त्रिहं जोगे शुभ ध्यान । प्राणी गुणरसियो॥ १३. ते बहु श्रावक तिण समे रे, सांभल वीर वृतंत। आलभिया जिम आविया रे, यावत सेव करंत ।। १४. वीर प्रभू तिण अवसरे रे, थावकां मैं सुखकार। महामोटी परिषद विषे रे, धर्म कथा कही सार ॥ १५. 'आण धर्म' ओलखावियो रे, केवली-भाषित तेह । वाण सुणी नै परषदा रे, जाव गई निज गेह ।। *लय : पंखी गुणरसियो ९. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नाम समणो वासए परिवसइ-अड्ढे । १०. अभिगयजीवाजीवे जाव......"विहरइ । (श. १२।१) ११. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । १२. परिसा जाव पज्जुवास इ । १३. तए णं ते समणोवासगा इमीसे कहाए लट्ठा समाणा जहा आलभियाए जाव पज्जुवासंति । १४. तए ण समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ । १५ जाव परिसा पडिगया। (श. १२।२) श० १२, उ०१, ढा०२४९ १ Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. वाण सुणो महावोर नों रे, श्रावक सखर सुजान । हिये धार हरष्या घणां रे, पवर संतोष प्रधान ॥ १७. वच-स्तुती जिन वंदनै रे, नमस्कार शिर नाम । प्रश्न प्रते पूछी करी रे, अर्थ ग्रही अभिराम ।। १८. ऊठी नै ऊभा थई रे, वीर कनां थी ताहि । कोठग बाग थी नीकली रे, आवै सावत्थी मांहि ॥ १६. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा । १७. समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियंति । १८. उट्ठाए उठेति, उठेता समणस्स भगवओ . महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडि निक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (श. १२१३) १९. तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह । १६. संख श्रावक तिण अवसरे रे, श्रावका ने कहै वाय । तुम्हे अहो देवानुप्रिया! रे बह चिहं आ'र निपाय ॥ सोरठा २०. उदक केम रंधाय, तास न्याय इम संभवै। अन्न विषे जल आय, तथा उदक उन्हो करै ।। २१. *ते बहु चिहुं असणादि मैं रे, आस्वादता विस्वाद । देता भोगवता विचरसां रे, पक्खी पोसह जाग्रत समाध ।। २१. तए णं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। (श. १२१४) __ सोरठा २२. आस्वादन संवादि, अल्प खाय बहु न्हाखवो। इक्षु-खंड इत्यादि, तेहनी पर पहिछाणवो ।। २३. विस्वादन सुविशेष, घणो खायवो छै तसु । अल्प न्हाखवो शेष, छुहारादिक नी परै। २४. परिभाए पहिछाण, माहोमां देता छतां । परि जमाणा जाण, सहु खाये पिण नहि तजै॥ वा०-'आसाएमाणा इत्यादि' ए पद नै वर्तमान प्रत्ययांतपणे पिण अतीत प्रत्ययांतपणो जाणवो । अनै वली तेह थकी ते विस्तीर्ण असनादि आस्वादितवंत छता 'पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो त्ति' पक्ष ते अर्द्धमास नै विषे वयं ते पाक्षिक, पोषध ते अव्यापार एतले सावज्ज व्यापार नां त्याग, ते पोषध प्रते जागता-अनुपालता विचरस-रहिसां । जे इहां अस्साएमाणा इत्यादिक पूर्व कह्या ते पद नै विषे अतीत काल प्रत्ययांतपणां नै विपे वर्तमान प्रत्यय ग्रहण करिवो, ते भोजन कीधां पछैहीज अविलंब करिक पोसह अंगीकार करिवू ते देखाड़वा नै अर्थे हीज । एवं उत्तर पद नै विषे पिण गमनिका करवी। २५. धर्म तणी जे पुष्ट', जीमी पोसह नाम तम् । दशमो व्रत अदुष्ट, पिण नहि व्रत इग्यारमों ।। २६. *तिण अवसर श्रावक बहु रे, संख श्रावक नी वाय । विनय करीने सांभलै रे, अंगीकार करै ताय ॥ *लय : पंखी गुणरसियो १. पुष्टि २२. 'आसाएमाण' त्ति ईषत्स्वादयंतो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव । (वृ. प. ५५५) २३. 'विस्साएमाण' त्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेरिव (वृ. प. ५५५) २४. 'परिभाएमाण' त्ति ददत: परिभुजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः । (वृ. प.५५५) वा.-एतेषां च पदानां वार्तमानिकप्रत्यपान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या, ततश्च तद्विपुलमशानाद्यास्वादितवन्तः सन्तः 'पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामों त्ति पक्षे-अर्द्ध मासे भवं पाक्षिक 'पौषधं' अव्यापारपौषधं 'प्रतिजाग्रतः' अनुपालयन्तः 'विहरिष्याम' स्थास्यामः । ___ यच्चेहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानन्तरमेवाक्षेपेणं पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थ, एवमुत्तरत्रापि गमनिका कार्येत्येके । (वृ. प. ५५५) २६. तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमट्ठविण एणं पडिसुणेति । (श. १२५) २ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिए जाव (सं. पा.) समुप्पज्जित्था । २८. नो खलु मे सेयं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स"पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए। २९. सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स ३०. ओमुक्कमणिसुवण्णस्स ३१,३२. बवगयमालावण्णगविलेवणस्स २७. तिण समय ते संख श्रावक भणी रे, एहवे रूपे सार । अज्झथिए जाव ऊपनों रे, मन नै विषे विचार ॥ २८. निश्चै मुझ नैं श्रेय नहीं रे, ते विस्तीर्ण चिहं आ'र। __ आस्वादता ने पक्खी पोसहो रे, पालता विचरवू धार । २६. निश्च करि मुझ नै सिरे रे, पोषधसाला मांहि । पोसह करि सहित नैं रे, ब्रह्मचर्य धारी ताहि ॥ ३०. मूक्या सुवर्ण मणी भणी रे, पोसह करतां जेह । अलगा मेल्या छै तसु रे, त्याग्या धर अति नेह ।। ३१. पुष्पमाल अलगी करी रे, सचित्त सर्व थी जाण । वन्नग उगट्टण नां किया रे, पोसा में पचखाण । ३२. चंदन प्रमुख विलेपन भणी रे, ते पिण पोसह माय । करिवा नां पचखाण छ रे, पूर्व थी भंग न थाय ।। ३३. 'इमज उगट्टणा प्रते रे, पोसा में पचखाण । आग उगट्टणोकियो हव रे, तिण सं पोसा में भंग म जाण ॥ ३४. इमहिज वलि सुवर्ण नवा रे, पहिरण रा पचखाण । पहिला जे पहिरया हुवै रे, तिण सू पोसा में भंग म जाण ।।' (ज.स.) ३५. वले किया जे वेगला रे, सस्तर मूसल धार । एकलो पिण बीजो नहीं रे, बेसी दर्भ संथार ॥ वा०-एगस्स कहितां एकहीज, बाह्य सहाय अपेक्षा करिक दूसरो सहाय्य देणे वालो नहीं। अबितियस्स कहितां तथाविध क्रोधादि सहाय अपेक्षा करिक एकलो हीज, पिण बीजो नहीं । इहां पाठ में एगस्स अघि इयस्स इम कहिवा थकी पोषधशाला मैं विषे एकला नै हीज पोषध करिवो कल्पे, एहवो निश्चय नहीं करवो । कारण इण पोषध नों चरितानुवादरूपपणो होवा थकी। चरितानुवाद एतल संख श्रावक चित में चिंतव्यो-एकला नै हीज आज पोषघ करवो । तेह जिम विचार कियो, तिमज सूत्र में बतायो। पर शास्त्रकार नों 'एकला नै हीज पोषध करवो' एहवो कथन नथी, एणे माटे । तथा ग्रंथांतरे बहु श्रावकां नो पोषधशाला में एकठा मिलवा नो सुणवा थकी दोप ना अभाव थकी। तथा परस्परस्मारणादि ते चरचा बोल याद करै । आदि शब्द करिक अशुद्ध काया नुं वर्जवू, चोलना-प्रतिचोलना नुं करिवं, विशिष्ट गुण नां मंभव थकी। ३६. पक्खी नां पोसा प्रते रे, पालंतो इहवार । सिरै अछै मुझ विचरवो रे, एहवो करी विचार ।। ३७. सावत्थी नगरी छै जिहां रे, जिहां निज गृह निज नार। नाम उत्पला श्रावका रे, तिहां आव्यो तिण वार ।। ३८. उत्पला प्रति पूछी करी रे, आयो पोषधसाल । वलि पोषधसाला प्रते रे, पूंजी दृष्टि निहाल ।। ३५. निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दब्भ संथारोवगयस्स वा०-'एगस्स अबिइयस्स' 'त्ति एकस्य' बाह्यसहायापेक्षया केवलस्य अद्वितीयस्य तथाविधक्रोधादिसहायापेक्षया केवलस्यैव, न चैकस्येति भणनादेकाकिन एव पौषध-शालायां पौषधं कर्तुं कल्पत इत्यवधारणीयं, एतस्य चरितानुवादरूपत्वात् । तथा ग्रन्थान्तरे बहूनां श्रावकाणां पौषधशालायां मिलनथवणाद्दोपाभावात्परस्परेण स्मारणादिविशिष्टगुणसंभवाच्चेति । (वृ. प. ५५५) ३६. पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ। ३७. जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समणोवासिया तेणेव उवागच्छइ । ३८. उप्पलं समणोवासियं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छ इ, उवागनिहत्ता पोसहसालं अणुपविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पमज्जइ पमज्जित्ता। ३९. उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भ संथारगं संथर इ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ । ३६. बड़ी नीत लघु नीत नी रे, भूमि प्रते प्रतिलेख। ___दर्भ संथारो साथरी रे, बैठो आप संपेख । श० १२, उ०१, ढा० २४९ ३ Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. पोषधशाला नै विषे रे, पोसह युक्ति सुबंभ । जाव पाक्षिक पोसह प्रते रे, पालतो विचरै अदंभ ।। ४१. ते बहु श्रावक तिण समै रे, सावत्थी नगरी माय । जिहां निज-निज घर स्थान छै रे, आया तिहां चलाय॥ ४२. विस्तीर्ण चिहं आहार नै रे, रंधावै रंधाय । मांहोमांहि तेडायनै रे, बोलै इहविध वाय ॥ ४३. इम निश्चै देवानुप्रिया ! रे, विस्तीर्ण चिउं आहार। अम्है रंधाया छै इहां रे, पिण संख न आयो इहवार । ४४. श्रेय निश्चै देवानुप्रिया! रे, लीजै संख बोलाय । पोखली श्रावक तिण समै रे, श्रावका प्रति कहै वाय ।। ४०. पोसहमालाए पोसहिए बंभचारी जाव (सं. पा.) पक्खियं पोसह पडिजागरमाणे विहरइ । (श. १२१६) ४१. तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साइं साइं गिहाई तेणेव उवागच्छति । ४२. विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खड़ाति, उवक्खडावेत्ता अण्णमण्णं सदावेंति, सद्दावेत्ता एवं बयासी४३. एवं खलु देवाणु प्पिया! अम्हेहि से विउले असण पाण-खाइम-साइमे उवक्ख डाविए, संखे य णं समणोवासए नो हबमागच्छइ। ४४. तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए । (श. १२१७) तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी४५. अच्छह णं तुम्भे देवाणु प्पिया! सुनिव्वुयवीसत्था, अहण्णं संखं समणोवासगं सद्दावेमि ४६. ति कटु तेसिं समगोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता सावत्थीए नगरीए मज्भमझेणं जेणेव संखस्स समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संखस्स समणो वासगस्स गिहं अणुपविठे। (श. १२१८) ४७. तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्ख लि समणोवासयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठा ४८. आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्ठत्ता सत्तट्ठ पयाइ अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता पोक्खलि समणोवासग वंदति, नमंसति । ४५. बेसो तुम्है देवानुप्रिया! लीजे सूख विश्राम । संख श्रावक प्रति हूं सही रे, तेड़ी ल्यावं ताम ॥ ४६. एम कहीने नोसरयो रे, सावत्थी बीच में होय । संख श्रावक नो घर तिहां रे, आवी पेठो सोय ॥ ४७. संख त्रिया तिण अवसरे रे, तास उत्पला नाम । पोखली श्रावक आवतो रे, निरखी हरषी ताम ।। ४८. आसण सं ऊठी करी रे, सात-आठ पग धार । पोखली साहमी जायने रे, करै वंदन स्तुति नमस्कार ।। सोरठा ४६. 'वंदै ते गुणग्राम, नमस्कार शिर नाम नैं। साहमी आवी ताम, विनय रीत निज साचवी॥ ५०. नवकार नां पद पंच, श्रावक नैं तिहां टालियो। नमस्कार नी संच, ए आज्ञा नहिं जिन तणी॥' (ज० स०) ५१. *आसन आमंत्रण करी रे, बोले इहविध वाय । आज्ञा द्यो देवानुप्रिया ! रे, कवण प्रयोजन आय ? ५१ आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतेत्ता एवं वयासीसंदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं? (श. १२।९) सोरठा ५२. 'श्रावक साहमी आय, आसन आमंत्र्यो बली। निज छंदे कहिवाय, पिण नहिं अरिहंत आगन्या । ५३. नमस्कार पिण ताहि, गृहस्थ नै करिवा तणी। जिन आज्ञा दे नांहि, धर्म नहीं आज्ञा बिना ॥' (ज.स.) *लय: पंखी गुणरसियो ४ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. *पोखली श्रावक तिण समे रे, कहै उत्पला नैं इम वाय । किहां अहो देवानुप्रिया ! रे, संख श्रावक सुखदाय ? ५५. तिग अवसर ते उत्पला रे, क पोखली प्रति इम वाय । इस निश्चय देवानुप्रिया रे, संघ धावक सुखदाय ॥ ५६. पोषधशाला ने विषे रे, पोसह कर अंगीकार । ब्रह्मचर्य प्रति आदरी रे, यावत विचरै सार ॥ ५७. तिम अवसर ते पोखली रे जिहां छे पौषधशाल । जिहां संख धावक अछे रे, तिहां आयें तत्काल || ५८. शंख श्रावक पे आयने रे, गमणागमण पडिक्कमंत । इरियावहि पाटी गुणी रे, ए उत्तरगुण साधंत ॥ ५६. संख श्रावक प्रति पोखली रे, वच-स्तुति वंदंत । नमस्कार शिर नाम नै रे, ए निज छंद करत ॥ ६०. बंदी नमण करी कहै रे इस निश् सुविचार | अहो देवानुप्रिया ! अम्हे रे, रंधाया बहु चिहुं आर ॥ ६१. ते माटे आवो तुम्हे रे, बहु जाव पोसह प्रतिपालता रे, ६२. संघ धावक ति अवसरे रे, कहे पोखली प्रति इम वाय निश्चे मुझ कल्प नहीं रे, अहो देवानुप्रिया ! ताय ॥ ६३. ते विस्तीर्ण चिहुं ओर नं आस्वादता ने ताहि । यावत पोसह पालता रे, विचरयुं कल्पै नांहि ॥ रे, चिहुं आर आस्वाद । विचरां घर अह्लाद । ६४. कल्पै छै मुझ ने सही रे, पोसणाला माहि जाव विचरवो ताहि ॥ विस्तीर्ण चिहुं ओर । विचरो छो इहवार ॥ पोसह ब्रह्म सहित नैं रे, ६५. पोतानं खांदे तुम्हें रे, आस्वादता यावत सहु रे, सोरठा इम | ६६. वृत्ति टबा ₹ मांहि छंदेणं नों अर्थ निज इच्छाई ताहि, पिण म्हारी आज्ञा नथी । ६७. जी आज्ञा बार, तो जीमा तेहनें किम है धर्म उदार? स्वाय दृष्टि करि देखिये ' (ज० स० ) ६८. *तिण अवसर ते पोखली रे, संख कना थी ताय । निकली बाहिर आय ॥ ते पोषधशाला थकी रे, ६६. सावत्थी नगरी नैं विषे रे, जिहां ते बहु श्रावक अछे रे, *लय : पंखी गुणरसियो मध्योमध्य थइ नैं सोय । तिहां आयो अवलोय ॥ ५४. तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासिय एवं वयासीष्णं देवापिया संबे समणोवासए ? (श. १२।१० ) ५५. तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलि समणोवास एवं क्यासी एवं खलु देवाप्पिया ! सं समोवास ५६. पोसहसा लाए पोसहिए बंमचारी जाव (सं० पा० ) विहरइ । ( श० १२1११ ) ५७. तए से पोक्ली समणोवास जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । ५८. उवागच्छित्ता गमनागमणाए पडिक्कमइ 'गमणागमणाए पडिक्कमइ' त्ति ईर्यापथिकीं प्रतिकामतीत्यर्थः । ( वृ० १० ५५५) ५९. संखं समणोवासगं वंदइ नमसइ । ६०. वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हेहि से विउले असण- पाण- खाइम साइमे उपखडा दिए। ६१. तं गच्छामो देवाय तं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा जाव (सं०पा० ) पोसह पडिजागरमाणा विरामो । (४० १२।१२) ६२. तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलि समणोवासगं एवं वयासी - नो खलु कप्पर देवाणुपिया ! ६३. तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स जाव (सं० पा० ) पोसहं पडिजागरमाणस्स हिरिए । ६४. कप्पइ मे पोलहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स जाव (सं० पा० ) विहरित्तए । ६५. सं देणं देवापिया ! तुग्मे तं विउलं असणं पाणं खाइमं खाइमं अस्साएमाणा जाव (सं० पा० ) बिहरद (८० १२०११) ६६. 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति । (४० १० ५५५) ६८. तए णं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासदस्य अंतियाज पोसहसालाओ पढिनिक्सम पडिनिक्खमित्ता ६९. सावत्थिं नगरी मज्भमज्झणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ । श० १२, उ० १. १० २४९ ५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. श्रावकां प्रति इहविध कहै रे, इम निश्चै सुवदीत । संख पोषधसाला विषे रे, जाव विचरै पोसह सहीत ।। ७१. निज अभिप्राये ते भणी रे, विस्तीर्ण चिहं आर। जाव विचरो छो आस्वादता रे, तसु आज्ञा न लिगार ॥ ७०. ते समणोवासए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवास ए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरइ। ७१. तं छंदेणं देवाणुप्पिया! तुब्भे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा जाव (सं० पा०) विहरह। ७२. संखे णं समणोवासए नो हब्वमागच्छइ । ७२. संख श्रावक तिण कारणे रे, शीघ्रपणे करि ताम। आपां कन्है आवै नहीं रे, जीमण ने इण ठाम ।। ७३. ते श्रावक तिण अवसरे रे, विस्तीर्ण चिहं आ'र । आस्वादता विस्वादता रे, यावत विचरै तिवार।। ७४. दोयसौ नै गुणपचासमी रे, आखी ढाल उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' हरष अपार । ७३. तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा जाब विहरंति । (म० १२।१४) ढाल : २५० दूहा १. संख श्रावक नै तिण समय, मध्य रात्रि रै माय । धर्म जागरणा जागतो जाव उपना ए अध्यवसाय ।। २. मुझ नै निश्चै श्रेय छ, काल थये परभात । यावत जाज्वलमान रवि ऊगतेज विख्यात ।। ३. भगवंत श्री महावीर नैं, वंदन करि शिर नाम । तिहां थी पाछो आयने, पोसह पारिस ताम ।। ४. एहवी करी विचारणा, काले जाव जलंत । पोषधशाला थी तदा, नीलियो गुणवंत ॥ १. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्ताव रत्तकाल समयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था । २. सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव __उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते ३. समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जु वासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए ४. त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्टियम्मि सूरे सहस्स रस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ । ५. सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ । ५. निर्मल पहिरण जोग्य जे, पवर वस्त्र मंगलीक । पहिरी नै निज घर थकी, नीकलियो तहतीक ॥ ६. 'पोसह कीधा प्रथम जे, राख्यो है आगार । तेह वस्त्र पहिरचा तिणे, इम दीसै ववहार ।। (ज० स०) ७. पग अलवाणे चालतो, नगरी सावत्थी तास । __ मध्योमध्य थई करी, जाव करै पर्युपास ॥ ८. अभिगमण जे पंच छै, ते इहां कहिवा नांहि। . पोसह छै तिण कारण, सचित्त त्याग पहिला हि ॥ *कटुक वचन मति बोलो, सूध वयण व पाटज खोलो जी, बोलो तो पहिली तोलो जी। या राखो मून अमोलो जी कटुक वचन मति बोलो। (ध्रपदं) *पय : झूठ वचन मति बोलो, थारी सत्य जबानज खोलो जी ७. पायविहारचारेणं सावस्थि नगरि मज्झमझेणं जाव (सं० पा०) पज्जुवासति। (श० १२।१५) ८. 'अभिगमो णत्थि' त्ति पंचप्रकारः पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्त्यस्य सचित्तादिद्रव्याणां विमोचनीयानामभावादिति । (वृ० ५० ५५५) ६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. हिवे ते श्रावक तिन वारे, दिनकर ऊगां अवधारे जी । १०. स्नान बलिकर्म कीधा, यावत तनु शोभ प्रसीधा जी ॥ ११. निज निज घर थी नीकलिया, पछे सर्व एकठा मिलिया जी ॥ १२. अवशेष राहि जिम प्रथम कह्यो तिम कहिं जी ।। १३. पहिली वंदन नें आया, तिम बीजी वार सिधाया जी ।। १४. यात करता जिन सेवा जिन-वाण सुधारस मेवा जी ॥ १५. प्रभु धर्म कथा विस्तारी, महामोटी परषद सारी जी ।। १६. यात आज्ञा आराधक, कहिं इहां लगे १७. ते धावक तिम बारो, निसुणी जिन-वाण सुसाधक जी ।। उदारो जी ।। अधिकावा जी ।। १५. हिये धार र अति पाया, संतुष्टपणं १९. ऊठी प्रभुजी ने वंदे, वलि नमस्कार आनंद जी ॥ २०. वंदी जिन ने शिर नामै आवै संख पास निज कामै जी ॥ २१. प्रतिबो वायो, अहो देवानुप्रिया ! ताह्यो जी ॥ २२. गत दिन अम्हनें तुम्ह आख्यो, निश्च करीने इम भाख्योजी ॥ २३. तुम्हे देवानुप्रिय ! सारो, विस्तीर्ण चिह्न आहारो जी ॥ २४. जावत आपे विवरसा जीमी पोसह करसां की ॥ मांह्यो जी ॥ २५. तिथ अवसर तुम्ह ताह्मो, पोषधमाला २६. इहविध अह ने विप्रतारी, विन जीये पोसह धारी जो ॥ २७ ते भलं कर! इम केहवै, इह रीत ओलूंभो देव जी ॥ २८. म्है हीला निन्दा अति पाया, म्हांने हास्यास्पद बणवाया जी ॥ २६. तिण अवसर श्री भगवंतो, महावीर श्रमण तपवंतो जी ॥ ३०. अहो आर्यो ! इम वच आखे, श्रावकां प्रति प्रभु भाख जी ॥ ३१. संख श्रावक नैं मत हेलो, मत निंदो खिसो कुवेलो जी ॥ ३२. ग अवज्ञा नहि कीजे, मन कलुष भाव मेटीजे जी ।। ३३. सं श्रावक अधिक उदारो निश्च विधर्मी सारो जी ॥ ३४. निश्वे दृढधर्मी जाणी, धर्म विषे दृढ गुण खाणी जी ।। ३५. सुदवखु जागरणा जाने, तमु अर्थ सुणोज आगे जी ।। ३६. सु कहितां भलो शोभन छै, दक्खु सम्यक दर्शन छै जी ॥ ३७. ते सहित जागरणा जाणी, प्रमाद रहित पहिछाणो जी ॥ ९. तए णं ते समणोवासगा कल्लं पाउप्पभायाए पीए जब उमरे १०. व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा ११. सिह गिड़ितो पडिनिमंति पनि मित्ता एगयओ मेलायंति । १२- १४. सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवासंति । (श० १२।१६ पा० टि० ४ ) १५. तए गं समणे मग महावीरे तेसिमहति महानियाए परिसाए धम्म परि १६. जाव आणाए आराहए भवइ । ( ० १२।१७) समणस्स भगवओ १७. तए णं ते समणोवासगा महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म १८. हट्टतुट्टा १९. उट्ठाए उट्ठेति, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसंति । २०. वंदित्ता नमसिता जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति । २१. संखं समणोवासयं एवं देवाविया ! वयासी - तुम २२. हिज्जो अम्हे अप्पणा चेव एवं वयासी'हिज्जो' त्ति ह्यो ह्यस्तनदिने ( वृ० प० ५५५ ) २३, २४. तुम्हे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं'''' परिभुंजे माणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा जाव (सं० पा० ) विहरिस्सामो । तुम पोहगावाए जाब (सं० पा० ) णं २५,२६. लए विहरिए । २७. सुतु देवाविया तं २८. अम्हे हीलसि । ( श० १२।१८ ) २९, ३०. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी ३१. मा णं अज्जो ! तुब्भे संखं समणोवासगं हीलह निदह बिसह ३२. गरहह अवमण्णह । ३३.३४. संखे णं समणोवासए पियधम्मे चेव, दढधम्मे चेव । ३५. सुदक्खुजागरियं जागरिए । (०१२०१९) ३६३७. जागर जागरिए सिमु परिक्षण जस्स सो सुदक्खु तस्स जागरिया प्रमादनिद्राव्यपोहेन जागरणं सुदवखुजागरिया तां जागरितः कृतवानिश्वर्थ: ( वृ० प०५५५) श० १२, उ० १, ढा० २५० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. 'शुभ जोग रूप जागरणा, तेहनों छे इहां वागरणा जो॥ ३६. जसु अशुभ जोग वरतायो, ते कथन इहां न कहायो जी ॥[ज.स.] ४०. हे भगवंत ! इम कही वाणी, गोतम गणधर गुणखाणी जी।। ४१. जिन वंदी नमण करीन, इम पूछे हरष धरीने जी ।। ४२. हे भगवंत ! किती जागरणा? कृपा करी करो वागरणा जी। ४३. जिन भाख तीन प्रकारो, जागरणा कहि सारो जी।। ४४. बुद्ध-जागरणा पहली छै, केवल अवबोध करी छै जी। ४०,४१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंद इ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी४२. कतिविहा णं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? ४३. गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता । ४४. बुद्धजागरिया बुद्धाः केवलावबोधेन (वृ० ५० ५५५) ४५. अबुद्धजागरिया अबुद्धाः केवलज्ञानाभावेन । (वृ० प० ५५५) ४६. सुदक्खुजागरिया। (श० १२।२०) ४७. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्च इ-तिविहा जागरिया पण्णत्ता। ४५. जागरणा अबुद्ध कहायो, तसं केवलज्ञान न पायो जी॥ ४६. सुदक्खु-जागरणा जाणी, ए श्रावक नी पहिछाणी जी। ४७. किण अर्थे प्रभु ! इम आखी, जागरणा तीनज दाखी जी? ४८. भाखै तब श्री जिनरायो, त्रिण जागरणा न न्यायो जी ।। ४६. जे अरिहंतो भगवंतो, उपनो तसु ज्ञान अनंतो जी। ५०. वलि केवलदर्शनधारो, जिम खंधक मैं अधिकारो जी। ५१. यावत सह द्रव्य जाणता, वलि सर्व वस्तु देखता जी । ५२. केवलज्ञान छै जेहन, वर बुद्ध कहीजै तेहनै जी।। ५३. अजाणपणो तसु नांही, तिण करि जाग्या छै त्यांही जी।। ५४. बुद्ध-जागरिका तसु कहियै, हिव न्याय अबुद्ध नोंलहियै जी। ५५. जे ज्ञानवंत अणगारा, वर पंच समितधर सारा जी। ५६. ते जाव गुप्त ब्रह्मचारी, छद्मस्थ संत सुविचारी जी ॥ ५७. ज्यां केवलज्ञान न पायो, तिण कारण अबुद्ध कहायो जी। ५८. जे जागरिका प्रति जागै, ते अबुद्ध जागरिका साग जी ।। ५६. जे समणोपासक साचा, जीवादिक जाण्या जाचा जी। ६०. यावत मुनि प्रतिलाभंता, ते विचरै छै मतिवंता जी। ४९,५०, गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाण दंसणधरा जहा खंदए (भ० २।३८)। ५१. जाव (सं० पा०) सव्वष्णू सवदरिसी। ५२-५४. एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । बुद्धा: केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति । ५५. जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया"। ५६. जाव (सं० पा०) गुत्तबंभचारी। ५७. एए णं अबुद्धा। ५८. अबुद्ध जागरियं जागरंति । ५९. जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा । ६०. जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावे माणा बिहरंति६१. एए णं सुदक्खु जागरियं जागरंति । ६२. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तिविहा जागरिया पण्णत्ता। (श०१२।२१) ६३. तए णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता । ६४. अथ भगवन्तं शंखस्तेषां मनापरिकुपितश्रमणोपासकानां कोपोपशमनाय क्रोधादिविपाकं पृच्छन्नाह (वृ० ५० ५५६) ६५. कोहवसणं भंते ! जीवे कि बंधइ ? कि पकरेइ ? किं चिणाइ? कि उवचिणाइ? ६६,६७. संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ ६८. सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ । ६९.७०. एवं जहा पढमसए (भ० ११४५) असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियट्टइ। (श०१२।२२ पा०टि०८) ६१. सुध सम्यक्त्व करि जागै, सुदक्खु-जागरिका सागैजी ॥ ६२. गोतम ! तिण अर्थे ए आखो, जागरिका त्रिविध भाखी जी। ६३. हिव संख श्रावक तिणवारो, जिन वंदी करि नमस्कारो॥ ६४. श्रावक नों कोप मिटावा, फल क्रोध प्रश्न सद्भावा जी। ६५. प्रभु! क्रोध तण वस पोड़ित, स्यूं बंध पकर चिण उपचित जी ? ६६. जिन भाखै संख ! अतोवा, क्रोधे करि पीड़ित जीवा जी। ६७. आऊखो वर्जी सोयो, सप्त कर्म प्रकृति अवलोयो जी ।। ६८. ढील बंधन जे बंधी, दृढ बंधन करै सुसंधी जी ।। ६६. इम प्रथम शतक अधिकारो, कह्यो असंवत अणगारो जी।। ७०. तिण रीत इहां पिण कहियै संसार अनंत दुख लहिये जी ।। ८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१. प्रभु! मान से जे पीड़ित स्यूं बांधे यावत उपचित जी ? ७२. जिन भाखे एवं जाणी, इम माया लोभ पिछाणी जी ॥ ७३. जावत भ्रमण करतो, दुख पाये काल अनंतो जी ॥ ७४. ते श्रावक तिणवारो, सुण जिन-वाण उदारो जी ॥ ७५. हिये धारी डरिया तायो बलि जाठा मन मांह्यो जी ॥ ७६. पाया उद्वेगज मंदो, सोखव्यो रस आनंदो जी ॥ ७७. संसार भ्रमण भय भारी, तेहथी थया उद्विग्न अपारी जी ॥ ७८. भगवंत वीर प्रति बंदी, करि नमस्कार आनंदी जी ॥ ७६. जिहां संख तिहां आवंता, बंदे वच स्तुति ८०. बलि नमस्कार गिर नामी निज छंदे इहविध १. लांजे अविनय कीधो, तेहिज के अर्थ प्रसोधो जी ॥ ८२. साचै मन विनय करीने समाने व उपरी ने जी ॥ ८३. बार-बार खमावी चाल्या, आलभिया जिम दिश हाल्या जी ॥ ८४. यात सहु निज घर आया, हिवै गोतम प्रश्न सुहाया जी 11 ८५. हे भगवंत ! इहविध धामी, इम पूछे गोतम स्वामी जी ॥ ८६. जिन बंदी करी नमस्कारो, इम बोल्या वचन उदारो जी ॥ ८७. प्रभु ! श्रावक संख हुलासे, दीक्षा लेसे तुम्ह पासै जी ? ८८. इम शेष सर्व अधिकारो, ऋषिभद्र-पुत्र जिम ८. यावत दुख अंत करेसे, शिव सुंदर वेग ९०. सेवं भंते! बे वारे, इम गोतम शब्द करता जी ।। धामी जी ।। ६१. द्वादशम शतक सुविशेषे अर्थ आख्यूं प्रथम ६२. बेस ऊपर सुविशालो, एकही पचासमीं ६३. भिक्षु भारिमाल ऋषिरायो, 'जय जश' सुख तास पसायो जी ॥ द्वादशशते प्रथमोद्देशकार्यः ॥१२॥१॥ उद्देशे जी ॥ ढालो जी ॥ , सारो जी ॥ वरेसे जी ॥ उचारे जी ॥ ढाल : २५१ दूहा १. प्रथम उद्देशा नैं विषे, श्रावक प्रश्न विचार । द्वितीय श्राविका प्रश्न नो, वीर कियो निरधार ॥ ७१. माणव सट्टे णं भंते ! जीवे कि बंधइ ? ....... किं उवचिणाइ ? (०१२/२३) वि एवं लोभवसट्टे १२।२२ पा० टि० ९) समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा ७२,७३. एवं चेव, एवं मायवसट्टे वि जाव अणुपरियट्टइ। (श० ७४, तए णं ते ७५. निसम्म भीया तत्था तसिया ७६,७७. संसारभउब्विग्गा ७८. समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ७९,८०. जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता संखं समणोवासगं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता ८१८२ एवम सम्मं विषएवं मुण्णो भुज्जो खामेति । ८३, ८४. तए णं ते समणोवासगा सेसं जहा आलभियाए ( ० ११।१८१) जापा (श० १२ २६ पा० टि० ५ ) गोयमे समणं भगवं महावीरं नमसित्ता एवं वयासीसमणोवासए देवाणुप्पियाणं अगाराओ अणगारियं ८५,८६. भंतेति ! भगवं वंदइ नमसइ, वंदित्ता ८७. पभू णं भंते ! संखे अंतियं मुंडे भवित्ता पव्व इत्तए ? ८८.८९ मे जहा इसिस भ० ११।१८२, १८३) जाव अंतं काहिति । (१२।२८ ) ९०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । ( ० १२०२९) ― १. अनन्यमणोपासकविशेषप्रति निर्णय महावीरकृतो दर्शितः तु श्रमणोपासका विशेषप्रश्नितार्थ निर्णयस्तत्कृत एव दश्यंते । (० ० ५५६) श० १२, उ० १. ढा० २५० ९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा उदयन परिवार- पद * चतुर नर ! सांभलज्यो चित ल्याय ॥ [ ध्रुपदं ] २. तिण काले ने तिण समय रे, कोसंबी अभिधान । चंद्रायण नामे चैत्य है रे, वर्णक उभय' बखान ॥ ३. कोसंबी नगरी विषे रे सखर नृपति शुभ सूत । पोतो सहस्रानीक नों रे, सतानीक नो पूत ।। ४. वेडा राजा नो तिको रे, दोहितरो दीपंत । मृगावती राणी तणो रे, अंगजात ओपंत ।। तास भतीजो ताम । वर्णक अति अभिराम ॥ सहस्रानीक नृप सार । सतानीक नीं नार ॥ राय उदायन जान । प्रवर पुन्याईवान || तास भोजाई सार । राणी अधिक उदार ॥ जाव सुरूप निधान । प्रवर पाठ पहिचान || जाण्या जीव अजीव । विचरं सुजश अतीव ।। ५. शुद्ध जयंती श्राविका रे, नाम उदायन नृप हुंतो रे, ६. लि कोसी ने विधे रे तेहनां पुत्र तणी बहू रे, ७. चेडा राजा नीं सुता रे माता तास मनोहरू रे, ८. नाम जयंती श्रावका रे, मृगावती नामे हुंती रे, १. तनु वर्णन तेहनों घणो रे, इतला लग कहियो सह रे, १०. सखर अछे ते श्राविका रे, यावत मुनि प्रतिलाभती रे, ११. वलि कोसंबी नैं विषे रे, ते नृप नीं छै पुत्रिका रे, १२. नाम उदयन नृप तणी रे, मृगावती राणी तणी रे, १३. सुकुल विशाले ऊपना रे, । सहस्रानीक गुणगहन । सतानीक नी बहन || भूआ भली गुणवान । कहिये नणद प्रधान ।। वैशालिक महावीर । सुणै सुणावै वच तसु रे, एहवा संत सधीर ॥ १४. ते मुनि वलि केहवा अछे रे ? देव तास अरिहंत । एहवा साधू तेहने रे, पूर्व सेज्यातरी वंत ॥ १५. प्रथम स्थानदायक तिका रे, आवै अपूरव संत । जयंती पासे तिकै रे, वसती प्रथम जाचंत || १६. प्रथम स्थान दात्रीपण रे, प्रसिद्धपणे सुविशाल । जयंती प्रथम सेज्यातरी रे, हुंती अधिक सुखमाल || * लय : राम पूछें सुग्रीव नं रे १. जोड़ में चन्द्रायण चैत्य है । जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यही पाठ रहा होगा। अंगुताणि भाग २ में 'बंदोहर' पाठ है। २. नगरी और चैत्य — दोनों का वर्णक यहां ज्ञातव्य है । भगवती जोड़ १० २. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी नाम नगरी होत्या वणओ चंदोतरणं चेइएवम्पओ ३. तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहत्साणीयस्स रण्णो पोते सयाणीयस्स रण्णो पुत्ते । ४. चेडगस्स रण्णो नत्तुए मिगावतीए देवीए अत्तए 'ए' निष्ता दोह (बु०प०५५८) ५. जयंतीए समणोवासियाए भत्तिज्जए उदयणे नाम राया हो । ६. तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रण्णो सुहा सयाणीयस्स रण्णो भज्जा । ७. चेडगस्स रण्णो धूया, उदयणस्स रण्णो माया । ८. जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होरा ९. सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा । १०. समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिगहिएहि तवोक तवोकम्मे हि अप्पाणं भावे माणो बिहरह ११. कोलंबीए नगरीए सहस्मणीयस्सरणो धूया, सयाणीयस्स रण्णो भगिणी । १२. उदवणस्स रण्णो पिउच्छा मिगावतीए देवीए नणंदा । १२, १४. सालियावयाचं अरहंताणं पुम्सेतरी वैशालिको - भगवान् महावीरस्तस्य वचनं श्रृण्वन्ति श्रावयन्ति वा द सालिकश्रावकास्तेषाम् 'आर्हतानाम्' अर्हद्देवतानां साधूनामिति गम्यम् । (२०१० ५५८) १५,१६. 'पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एवं प्रथमं वसतिं याचन्ते तस्याः स्थानात्वेन प्रसिद्धत्वादिति सा पूर्वस्मातरा (०प०५५८) होत्या जयंती नाम समणीवासिया सुकुमालपाणिपाया। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. जाव सुरूपित तनु तसं रे, जाण्या जीव अजीव । यावत मुनि प्रतिलाभती रे, विचरै हर्ष अतीव ।। १७. जाव सुरूवा अभिगयजीवाजीवा जाव अहा परिग्गहि एहि तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणो विहरइ। (श० १२।३०) १८. दोयसौ नैं एकावनमी रे, आखी ढाल उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय' सुख हर्ष अपार ।। ढाल : २५२ १,२. तेणं कालेणं तेणं सम एणं सामी समोसढे । १. तिण काले नै तिण समय, भगवंत श्री महावीर । ग्रामां नगरां विचरता, मेरु तणी पर धीर ।। २. कोसंबी नां बाग में, समवसरया जिनराज । अतिशयधारी ओपता, प्रभुजी भवदधि पाज ।। राजा उदयन आदि का धर्मश्रवण-पद _ *वीर पधारिया जी ॥ध्रुपदं] ३. वीर पधारिया जी, जाण्यो नगर मझार। यावत परषद जिन तणी जी, सेव करै सुखकार ।। ४. राय उदायन तिण समैं जी, ए कथा अर्थ लाधे ताय । हरष संतोष पायो घणो जी, कहै सेवग पुरुष बोलाय ।। ३. जाव परिसा पज्जुवासइ। (श० १२।३१) ४. तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हट्ठतुठे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी ५. शीघ्र तुम्हे देवानुप्रिया ! जी, नगर कोसंबी मांय । वलि कोसंबी बाहिरे जी, कचर काढ छिड़काय ।। ६. जिम उववाई में कह्यो जी, कोणक वर्णक तास । तिमज इहां कहिवो सहू जी, जाव करै पर्युपास ।। ७. जयंती श्रमणोपासिका जी, प्रभू पधारया जाण । हरष संतोष पामी घणी जी, भ्यंतर बाह्य पिछाण ।। ८. मृगावती राणी कनै जी, आय कहै सुविशेष । इम जिम नवमा शतक में जी, तेतीसम उद्देश ।। है. देवानंदा ने कह्यो जी, ऋषभदत्त वर वाय । यावत अनुगामी हुस्यै जी, एतला लग कहिवाय ।। १०. तिण अवसर मृगावती जी, जयंती तणां वचन्न । अंगीकार करै तदा जी, तन मन अधिक प्रसन्न ।। ११. जिम देवानंदा ऋषभदत्त नों जी, वचन कियो अंगीकार। तिमज वचन जयंती तणां जी, मृगावती अवधार। *लय : राम पधारिया जो १. ओवाइयं सू० ५५-६९ ५,६. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंबि नगरि सभितर-बाहिरियं आसित्त-सम्मज्जिओवलित्तं करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । एवं जहा कूणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ । (श० १२।३२) ७. तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठतृट्ठा। ८,९. जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छइ उवाग च्छित्ता मिगावतिं देवि एवं वयासी-एवं जहा नवमसए (भ० ९।१३९) उसभदत्तो जाव भविस्सइ। (०१२३३ पा० टि०१५) १०.११. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा (भ० ९।१४०) जाव पडिसुणे इ । (श० १२।३४) श०१२, उ०१, ढा० २५२ ११ Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १२. ति असर मृगावती जो कहै सेवग पुरुष बोलाय । शीघ्र तुम्हे देवानुप्रिया जी, त्यार करो रथ ताय ।। १३. लहूकरण शीघ्र गति तमु जी, किया युक्त पाण इत्यादिक इहां पाठ छै जी, यावत धार्मिक जाण ॥ १४. धर्म ने अर्थ ए अजी यान बहिल-वेली प्रधान । जोवर ले आओ इहां जी, शीघ्रपणे पहिचान || १५. यावत रथ आणी थापियो जी, सेवग पुरुष तिवार । यावत मृगावती भणी जी आज्ञा सूपे जिवार ॥ १६. तिण अवसर मृगावती जो स्नान अने बलिकर्म करी जी जयंती साथ जिवार । यावत तनु शृंगार || १७. कूबडी आदि देई घणी जी, बहु दास्यां संघात । अंबेडर थी नीकली जी नणद भोजाई साथ || १८. उवठाण झाला बाहिरी जी, छं जिहां धार्मिक यान तिहां आवै आवी करी जी, यावत बैठी आन || १६. देवी मृगावती तिण अवसरे जी जयंति धाविका संघात । धार्मिक यान प्रवर प्रते जी बैठी यही सुविख्यात ॥ २०. निज परिवार सहीत सूं जी वीर वंदण ने जाय । ऋषभदत्त विप्रनीं पर जी, आया प्रभु ने पाय ॥ २१. यावत धार्मिक रथ थकी जी, प्रवर प्रधान ते जान । ते थकी हेठी ऊतरै जी, पवर अधिक पुन्यवान । २२. तिण अवसर मृगावती जी, जयंति श्राविका साथ । बहु कूबडी आदि दे जी, दास्यां संघाते आत || २३. देवानंदा नीं पर जी, नमस्कार शिर नामनें जी, २४. नृपति उदायन प्रति तदा जी रही थकी महावीर नीं जी २५. तब प्रभु उदायन राय नैं जी, वले जयंती धावका प्रते जी, यावत वंदे ताम | करें येहूं जणी गुणग्राम ॥ आगल करिने ताम सेव करें अभिराम ॥ मृगावती नैं ताहि । मोटी परिषद मांहि ॥ २६. यावत धर्म कथा कही जी, यावत परषद जान । वाण मुणी महावीर नीं जी पौहती निज निज स्थान || २७. राय उदायन पिण गयो जी, मृगावती पिण जाण । पोता नैं स्थानक गई जी, वीर तणी सुण वाण ।। २८. जयंती श्रमणोपासका जी, प्रभु पे धर्म गुण निर्दोष । हिये धार हरपी घणी जी, वलि पामी संतोष ॥ २९. श्रमण भगवंत महावीर ने जी वचस्तुति वदंत नमस्कार शिर नामनैं जी, प्रवर प्रश्न पूछंत ॥ १२ भगवती जोड़ १२-१४ तसा मिगावती देवी कोरसे सहावे सहावेता एवं बयासी खिप्यामेव भो देवापिया! लहूकरणजुस जोश्य जाव धम्मियं जाणण्पवरं जुत्तामेव उवट्टवेह, उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ( श० १२।३५) १५. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा मिगावतीए देवीए एवं वृत्ता समाणा धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्टवेंति, उववेत्ता तमाणत्तियं पच्चपिणंति । ( श० १२/३६ ) १६. लए सामगावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धि व्हाया कपबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणाfu १७. बहूहि बुम्बाहि जाव बेडियाचकवासरघरबेरकं महत्तरगयंदपरिखिता निग्गच्छइ । १८. जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मिए जाणपवरं दुरूढा । (० १२०२७) १९. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी अंतेउरानी २०. नियगपरियाल संपरिवुडा जहा उसभदत्तो । (४० ९२१४५) २१. जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ | (श० १२ २८ ) २२. एसा मिगावती देवी जयंतीए समगोवालियाए बहूहि माहि २३. जहा देव नंदा ( भ० ९।१४६ ) जाव वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता २४. उदय रावं पुरखो कट्टु दिया व जाव (सं०पा० ) पज्जुवासइ । ( श० १२/३९ ) २५. तए ण समणे भगवं महावीरे उदयणस्स रण्णो मिगावतीए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य मतिमहालियाए परिसाए २६. जाव धम्मं परिकहेइ जाव परिसा पडिगया । २७. उदयणे पडिगए, मिगावती वि पडिगया । ( श० १२/४० ) २८. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हा २९. समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दोयसी में भिक्षु भारीमा जयन्ती प्रश्न ढाल उदार । बावनमों जी, आखी कृषिराय थी जी, 'जय जश' हरप अपार ।। ढाल : २५३ ब्रहा हिवै सांभलज्यो " चित्त । पवित्त ॥ इक उत्तर दियै १. प्रश्न जयंती नां महावीर महिमा गरू, श्री महावीर तणां वचनामृत, भाग्य भला सो ही पार्व भाग्य भला सो ही पावे मैं वारी जाऊं, सरस वयण सरधावै हो । श्री महावीर तणां वच वारू, भाग्य भला सो ही पावे ।। [ धुपदं ] जोव की गुरुता और लघुता २. किस प्रकार अहो भगवंत जी ! जीव वह जन मोही। भारीपणो शीघ्र किम पामै ? तेहथी अति दुख थाई || ३. श्री जिन भाखे सुणे जयंती ! सेवै प्राणातिपातो । मावत मिथ्यादर्शणसत्य करि शीघ्र जीव भारी इम थातो ।। ४. इम जिम धुर शत नवम उद्देशे, आख्यो जिम अधिकारो । जाव अठारे पाप निवर्त्य, शिव सुख पाएँ सारो ॥ जीव की भवसिद्धिता ५. बनी जयंती पूछे प्रभु नं जीव तणें प्रभु ! अछे स्वभावे, ६. श्री जिन भाखे मुणे जयंती के भवसिद्धिरूपणुं सोय । परिणाम थी जोय ? स्वभाव भी एह छै पण परिणमवा थी नहीं छै, ए भवसिद्धिकपणुं जेह || सोरठा ७. स्वभाव भी अवलोय पुद्गल नों रूपो तिण विध ए पिण जोय, स्वभाव करि भवसिद्धियो । ८. परिणमन पहिछाण, बालक तरुणपण लहै। तरुणां ने पिग जाण, वृद्धपणुं जे परिणम् ॥ ।। ९. वली जयंती पूछे प्रभु में हे भगवंत ! सुशानी । सह भवसिद्धिक जीव सीमस्य ? जिन कहै हंता जानी ।। १०. जो प्रभु ! सह भवसिद्धिक सीमस्यै, तो इण लोक मारो। भवसिद्धिक नो विरहो होस्, अभव्य रहिस्यै लारो ? *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण २. कष्णं भंते! जीवा गरयतं हवमागच्छति ? ३. जयंती ! पाणाइवाएणं जाव (सं० पा० ) मिच्छादंसणसल्लेणं एवं खलु जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति । ४. एवं जहा परमसए (४० १३०४-३९२ ) जाय वीतिवर्यति । ( ० १२०४१-४८ ) ५. भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ ? परिणामओ ? ६. जयंती ! सभावओ, नो परिणामओ । ( ० १२०४९) ७. 'समावओ' त्ति स्वभावतः पुद्गलानां मूर्तत्ववत् । (२०१०५५८) ८. परिणामओ त्ति' परिणामेन अभूतस्य भवनेन पुरुषस्य तारुण्यवत् । ( वृ० प० ५५८ ) ९. सव्वेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति ? हंता जयंती ! सव्वेवि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्भिस्संति । ( श० १२/५० ) १०. जइ णं भंते ! सव्वे भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्पति, तम्हा गं भवसिद्धियविरहिए सोए भविस्स ? श० १२, उ०२, ढाल २५३ १३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नाहीं, तो किण अर्थ कहायो'? ११. णो इणठे समठे। (श० १२१५१) सहु भवसिद्धिया जीव सीझस्यै, भव विरह नहि थायो? से केणं खाइणं अट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ-सव्वेवि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ? वा०-इहां जयंती पूछ्यो-आगामिक काले सिद्धि थायवू जेह नै ते भव- वा०- 'सब्वेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति' सिद्धिका । ते सर्व पिण जीव हे भगवंत! सीझस्यै ? इति प्रश्न । तेहनों उत्तर- त्ति भवा -भाविनी सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकास्ते सर्व पिण भवसिद्धिका जीव सीझस्य, एहनों ए अर्थ छै-समस्त पिण भवसिद्धिया सर्वेऽपि भदन्त ! जीवा सेत्स्यन्ति ? इति प्रश्नः, जीव सीझस्य अन्यथा तेहनों भवसिद्धिकपणो पिण नहीं। 'हते' त्यादि तुत्तरम्, अयं चास्यार्थ:-- समस्ता अपि भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्त्यन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादिति । अथ सर्व पिण भवसिद्धिया सीझस्य तिवारे लोक में भवसिद्धिया नो अभाव अथ सर्वभवसिद्धिकानां सेत्स्यमानताऽभ्युपगमे भवथस्ये ? उत्तर-इम नहि, कारण समय नां दृष्टांत थकी । जिम सर्व पिण अनागत- सिद्धिकशून्यता लोकस्य स्यात्, नैवं, समयज्ञातात, काल नां समय वर्तमानपणो पामस्य । कह्यो मिण छ तथाहि सर्व एवानागतकालसमया वर्तमानता लप्स्यन्ते । अतीत तेहनै हिज कहिये जे वर्तमानपणां प्रते प्राप्ति थयो। अनै अनागत भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् । तेहनै हिज कहिय जे वर्तमानपणां प्रति प्राप्त थस्य । ए बात अंगीकार करिबा एष्यश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् ।। थकी इम कहिये कि सर्व पिण अनागत कान नां समय वर्तमानपणो पामस्यै । परंतू इत्यभ्युपगमात्, न चानागतकालसमयविरहितो लोको कदा पिण लोक नै विषे अनागत काल नां समा नो विरह नहि पड़स्य । तिमज सर्व भविष्यतीति । भवसिद्धिका सीझस्यै, परंतु भवसिद्धिया नो विरह लोक नै विषे कदा पिण नहीं थस्य। वलि जयंती नां प्रश्न द्वारे करी ए उपरोक्त समय-दृष्टांत नी अपेक्षया बीजो अर्थतामेवाशंकां जयन्तीप्रश्नद्वारेणास्मदुक्तसमयज्ञातादष्टांत देई एहिज शंका टालवा ने माटे शास्त्रकार कहै छ-'जइण' मित्यादि इम पेक्षया ज्ञातान्तरेण परिहर्तुमाह-'जइ ण' मित्यादि एकेक आचार्य कहै छ। इत्येके व्याख्यान्ति । बलि अन्य आचार्य कहै छ-'सर्व भवसिद्धिया सीझस्य' एहनो ए परमार्थ अन्ये तु व्याचक्षते-सर्वेऽपि भदन्त ! भवसिद्धिका छ-जे सीझस्य ते सर्व भवसिद्धिया हीज सीझस्यै, पर अभवसिद्धियो एक पिण जीवा सेत्स्यन्ति-ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि नहीं सीझस्य । अन्यथा भवसिद्धिकपणो पिण तेह में नहि ते माटे । भवसिद्धिका एव नाभवसिद्धिक एकोऽपि, अन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः, 'हते' त्याधुत्तरम । हिवै जे सीकस्य ते भवसिद्धिक सीझस्य, इम मानवा थी पिण कालान्तरे अथ यदि ये केचन सेत्स्यन्ति सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव सर्व भवसिद्धिक सीझस्य तिवारे जगत में भव्य नी शून्यता थशे। ए जयंती नीं नाभवसिद्धिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते तदा कालेन आशंका अन तेहनों उत्तर कहिता शास्त्रकार कहै छै-जइ ण भते ! सब्वे सर्वभवसिद्धिकानां सिद्धिगमनात् भव्यशून्यता जगतः भवमिद्धिया जीवा सिकिस्संति तम्हा णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्मइ ? स्यादिति जयन्त्याशंका तत्परिहारं च दर्शयितुमाहणो इणठे समझें । से केणं खाइणं अढेणं भंते ! इत्यादि । हिवै आकाशश्रेणी नो 'जइ ण' मित्यादि। (वृ० प० ५५८, ५५९) दृष्टांत देई नै कहै छै १२. श्री जिन भाखै सूर्ण जयंति! यथानाम दृष्टंत । सर्व आकाश तणी हुवै श्रेणी, नहीं आदि नहि अंत ।। १२. जयंति ! से जहानामए सवागाससेढी सिया अणादोया अणवदग्गा सोरठा १३. सर्वाकाश कहेण, बुद्धि करी चतुरस्र जे। प्रतरीकृत नी श्रेण, प्रदेश नीं पंक्ती तिका ।। १४. परित्ता कहितां तेह, एक प्रदेशपणे करी। विष्कंभ अभावे जेह, परिमित तसु परिमाण ए॥ १३. सर्वाकाशस्य-बुद्ध्या चतुरस्रप्रतरीकृतस्य श्रेणि: प्रदेशपंक्तिः सर्वाकाशश्रेणिः। (वृ० ५० ५५९) १४. परित्ता 'परित्त' त्ति एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता। (वृ० ५० ५५९) १४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. गरीवत पहिछाण, अन्य श्रेणि करिने तिका। परिकर थकी सुजाण, स्वरूप ए तिण श्रेणि नुं ।। १५. परिवुडा। 'परिवुड' त्ति श्रेण्यन्तरैः परिकरिता, स्वरूपमेतत्तस्याः (वृ० ५० ५५९) १६,१७. सा णं परमाणुपोग्गलमत्तेहि खंडेहि समए समए अवहीरमाणी अबहीरमाणी अणताहि ओसप्पिणीउस्सप्पिणीहि अवहीरंति, नो चेव • णं अहिया सिया। १८. से तेणठेणं जयंती! एवं वुच्चइ-सव्वेवि णं भव सिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धिअविरहिए लोए भविस्सइ। (श० १२५२) १९,२०. किह पुण भव्वबहुत्ता सव्वागासपएसदिळंता । नवि सिज्झिहिति तो भणइ कि न भब्वत्तणं तेसि ।। (वृ० ५० ५५९) १६. *तिका परमाणु मात्र खंड करि, समय-समय करि सोई। अपहरतां-अपहरतां थी जे, काल अनंतो होई ।। १७. उत्सप्पिणी अनंती करिक, अवसपि करि धारो। अपहरतां ते निश्चै तेहनों, नहि होवै अपहारो।। १८. तिण अर्थे म्है कह्यो जयंति ! सर्व भव्य शिव जास्यै । लोक विषे जे भव्य जीव नों, विरह कदे नहि थास्यै ।। सोरठा १६. सर्व आकाश प्रदेश, दष्टांते करि सर्व भव्य । न सीझस्यै सुविशेष, भव्य बहू छै ते भणी ।। २०. तब शिष्य बोल्यो वाय, ते भव्य नो भविपणो। किणहि प्रकारे नांय, वलि भव्य तस् किम कह्या ? २१. जे थइ भव्यपणेह, जीव केयक शिव नां लहे। इम तो भवि पिण तेह, अभवी ईज कहीजिये ।। २२. अभव्य शिव न लहाय, तो भव्य में फुन अभव्य में । कवण विशेष कहाय? अथवा विशेष छै नथी ।। २३. जास्यै मोक्ष मझार, ते सगला भव्यसिद्धिया । पिण न लहै शिव सार, अभव्यसिद्धियो एक पिण ।। २४. शिव गति जावा योग्य, भव्य नाम तेहनों अछ। लहिस्य शिव आरोग्य, ते सह योग्यज मांहिला ।। २५. चंदन आदिज वृक्ष, प्रतिमादिक नैं जोग्य छ । एरंड भिंड प्रत्यक्ष, अजोग्य ए संसार में।। २१,२२. जइ होऊ णं भव्वावि केइ सिद्धि न चेव गच्छन्ति । एवं तेवि अभव्वा को व विसेसो भवे तेसि? (वृ० ५० ५५९) २५. पडिमाईणं जोगा बहवो गोसीसचंदणदुमाई । संति अजोगावि इहं अन्ने एरंडभेंडाई ॥ (व०प० ५५९) २६-२८, न य पुण पडिमुप्पायणसंपत्ती होइ सव्वजोगाणं । जेसिपि असंपत्ती न य तेसि अजोग्गया होइ।। कि पुण जा संपत्ती सा नियमा होइ जोग्गरुक्खाणं । न य होइ अजोग्गाणं एमेव य भव्बसिझणया ।। (वृ०प०२५९,५६०) २६. प्रतिमा न हुवै कोय, सर्व जोग्य जे तरु तणी। ____तिम शिव जोग्यज सोय, ते पिण सह नहिं सीझस्यै ।। २७. प्रतिमादिक जे होय, ते सहु जोग्य तरू तणी। निश्चै करि अवलोय, पिण अजोग्य तरु नी नहीं ।। २८. इण कारण थी जोय, न लहै शिव ते भव्य नैं । अजोग्यपणो नहिं होय, है शिव जोग्यज भव्य ते ।। २६. तिम होस्य शिव सार, सिद्धि गति जोगज मांहिला। अजोग्य जे अवधार, इक पिण शिव लहिस्यै नहीं।। ३०. अथवा काल आश्रित्य, सह भव्य नों व्यवछेद नहीं। अतीत नैं अनागत्य, ए बिहुं अद्धा तुल्य छै ।। ३१. गया काल रै मांहि, भव्य जीव छ तेहनों। भाग अनंतमो ताहि, एक भाग सिद्ध सीझिया ।। ३२. एताईज पिछाण, काल अनागत सीझस्यै । इण न्याये करि जाण, गयो अनागत काल सम ।। ३०. अहवा पडुच्च कालं न सव्वभव्वाण होइ वोच्छित्ती। जं तीतणागयाओ अद्धाओ दोवि तुल्लाओ ।। (वृ० ५० ५६०) ३१,३२. तत्थातीतद्धाए सिद्धो एकको अणंतभागो सि । कामं तावइयो च्चिय सिज्झिहिइ अणागयद्धाए । (वृ० ५० ५६०) *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण श० १२, उ०२, ढाल २५३ १५ Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. यत्पुनरिदमुच्यते--अतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति तन्मतान्तरं। (वृ० प० ५६०) ३४,३५. तस्य चेदं बीज-यदि द्वे अपि ते समाने स्यातां तदा मुहर्तादावतिक्रान्तेऽतीताद्धा समधिका अना गताद्धा च हीनेति हतं समत्वम् । (वृ० ५० ५६०) ३६. एवं च मुहर्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीयमाणाऽप्यनागताद्धा यतो न क्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्तगुणेति । (वृ० प० ५६०) ३८. यच्चोभयोः समत्वं तदेवं--यथाऽनागताद्धाया अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरिति समतेति । (वृ० ५० ५६०) ३३. जे वलि इम भाखंत, गया काल थी आगलो। अनंतगुणो आखंत, ए छै बात मतांतरे ।। ३४. अतोत अनागत काल, ए दोनूंइ तुल्य है । ते किण रोते न्हाल, मतांतरे नों प्रश्न ए ।। ३५. मुहर्तादिक अतिक्रत, अतीत अद्धा अधिक है। हीन अनागत हंत, तिणसं सम नहिं इम कहै ।। ३६. क्षण-क्षण प्रति-क्षयमान, अद्धा अनागत क्षय नहीं। अतीत सू इम जान, अनागत अनंतगुणो कहै ।। ३७. ए तो आखी बात, मतांतरे नी म्हैं इहां । अतीत अनागत ख्यात, ए बिहुँ सम तसु न्याय हिव ।। ३८. उभय समपणों साध, काल अनागत अंत नहीं। अतीत नीं नहिं आद, तिण कारण बिहं समपणों ।। ३६. ए सह विस्तर हीज, कह्य वृत्ति में तिम अख्यं । पिण मिलतूं सूत्र थकीज, तेहिज सत्य करि सद्दहिवं ।। वा०-जे बली इम कहै अतीत अद्धा थकी अनागत अद्धा अनंतगुणो ते मतांतर । तेहनों ए बीज - रहस्य--अतीत अनागत ए बिहं पिण जो सम हुवै तो तिवारे मुहर्तादिक अतिक्रम्ये छते अतीत काल अधिक हवै अनै अनागत काल हीन हवै। इण लेखे समपणो न रह्यो । अन इम मुहर्तादिक करिकै क्षण-क्षण प्रति क्षय थातो छतो पिण अनागत काल क्षीण न हुवै ते भणी ते अनतगुणो अनै दो काल नों समपणो ते इम-जिम अनागत काल नों अंत नहीं इम अतीत काल नी आदि नहीं, इम समपणो हवै इति । ए विस्तार वृत्तिकार कह्यो तिम लिख्यो छ, पिण सूत्र में तो अतीत अद्धा थकी अनागत अद्धा एक समय अधिक कह्यो छ । जे वर्तमान एक समय ते अनागत अद्धा नै विषे लेख व्यो छै ते माट ।' ४०. सर्वेपि भव्य जान, सीझीस्यै इम प्रभु कह्यो। जेम जयंती वान, पूछयो तिम उत्तर दियो ।। ४१. सूता नहिं सीझंत, सीझै जीवज जागरा। ए संबंध करि हुँत, प्रश्न सुप्त जागर तणो ।। ४१. जीवाश्च न सुप्ताः सिद्ध्यन्ति कि तहिं जागरा एवेति सुप्तजागरसूत्रम् (वृ० ५० ५६०) जीव का सोना और जागना ४२. *सूतापणुं भलं हे प्रभुजी ! निद्रापणंज थावै। अथवा जाग्रतपणुं भलु छै, निद्रा तणे अभावे ? ४३. श्री जिन भाखै सुण जयंती! कितरायक जीवां रे। सूतापणुं भलं ते सूता, जबर बंध नहिं त्यांरे ।। ४४. कितरायक जीवां रे आछू, जाग्रतपणुं सुजाणी। किण अर्थे इम प्रभुजी आख्यू ? तसु उत्तर पहिछाणी ।। ४२. सुत्तत्तं भंते ! साहू ? जागरियत्तं साहू ? 'सुत्तनं' ति निद्रावशत्वम् । (वृ० प० ५६०) ४३. जयंती ! अत्यंगतियाणं जीवाणं सुत्ततं साहू । ४४. अत्यंगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साह । (श० १२॥५३) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण १. यह वात्तिक ३३-३९ तक की सात गाथाओं का स्पष्टीकरण है । वृत्ति के जिस अंश के आधार पर यह स्पष्टीकरण किया गया है, उसे गाथाओं के सामने उद्धृत कर दिया है। १६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. श्री जिन भाखै सुण जयंती ! जे ए प्रत्यक्ष जीवा । श्रुत चारित्र धर्म करि रहितज, तेह अधर्मी अतीवा ।। ४५. जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया 'अहम्मिय' त्ति धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकास्तन्निषेधादधाम्मिकाः। (वृ० ५० ५६०) ४६. अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई ४६. अधर्म में मारग ते चाल, अधर्म वल्लभ तासो । अधर्म प्रते कहै लोकां नैं, एहवं शीलज जासो।। ४७. अधर्म आदरवै करि तेहिज, देखे तेह प्रलोकी। अधर्म विषे हीज रंजै ते, रति पामै महादोखी ।। ४८. अधर्म विषे प्रमोद सहित छ, तथा अधर्म आचारो। अधर्म करी वृत्ति-आजीविक करता विचरै धारो।। ४७. अहम्मपलोइ अहम्मपलज्जणा 'महम्मपलोइ' त्ति न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिनः 'अहम्मपलज्जण' त्ति न धर्म प्ररज्यन्ते--आसजन्ति ये तेऽधर्मप्ररञ्जनाः । (वृ०प० ५६०) ४८. अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरति । 'अहम्मसमुदाचार' त्ति न धर्मरूप:-चारित्रात्मकः समुदाचारः-समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तथा। (वृ० ५० ५६०) ४९. एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । ४६. सूतापणुं इसा जीवां रै, भलु कह्य छै ताह्यो। सूता थका जीव ए पापी, बहु भारी नहि थायो ।। ५०. प्राण भूत बहु जीव सत्व ने, जीव अधर्मी ताह्यो। सूता दुख अर्थे नहिं वत्तँ, सोक हेतु नहिं थायो ।। ५१. यावत परितापन नैं अर्थे, ए बहु वत्र्तं नाही। घणां पाप सं भारी न हुवै, इम तसु भलुं कहाई॥ ५२. वलि ए सूता थका अधर्मी, निज पर बिहुँ ने जोई। जे बहु अधर्म तणी योजना जोड़नहार न होई ।। ५०. एए णं जीवा सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए ५१. जाव (सं.पा.) परियावणयाए वति । ५२. एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहूहि महम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। ५३. एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू । ५४. जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया ५३. सूतापणुं अधर्मी में इम, भलं कह्य छ तासो। जाग्रतपणुं भलु हिव ज्यांरै, तेहनों न्याय प्रकाशो।। ५४. श्री जिन भाखे सुण जयंती! जे ए प्रत्यक्ष जाणी। धर्म श्रुत चारित्र नां धारक, करणहार पहिछाणी ।। ५५. यावत धर्म करी आजीविक करता ते विचरंता । ज्यांरै जाग्रतपणं भलु छ, पाप-पिंड न भरता ।। ५६. जाग्रत थका जीव ए धर्मी, बह प्राणी नै त्यांही। यावत घणां सत्व में दुख नैं अर्थे वत नाही ।। ५७. जावत परिताप नैं अर्थे, वत्त नहीं विचारी। तिणसू जाग्रतपणुं भलं तसु, धर्मी नैं सुखकारी ।। ५८. वलि जे जाग्रत थकाज धर्मी, निज बेहुं नैं जोई। जे बहु धर्म तणीज योजना जोड़नहारा होई ।। ५५. जाव (सं.पा.) धम्मेणं चैव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू। ५६. एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं जाव (सं. पा.) सत्ताणं अदुक्खणयाए ५७. जाव (सं. पा.) अपरियावणयाए वति । ५६. धर्म जागरणा करै ए जीवा, जाग्रत छताज जाणी। आतम प्रते जगाड़णहारा, तेह हुवै गुणखाणी ।। ६०. एहवा जे धर्मी जीवा नैं, जाग्रतपणोंज रूड़ो। उत्तम पुरुष मुनी मतिवंता, करै कर्म चकचुरो। ५८. एए णं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवति । ५९. एए णं जीवा जागरा समाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति । ६०. एएसि णं जीवाणं जागरियतं साहू । श० १२, उ० २, ढा० २५३ १७ Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. तिण अर्थे करि कह्यो केइक नें, सूतापण्ज आछु । जाग्रतपणुं भलु केइक नै, न्याय अर्थ ए साचूं ।। ६१. से तेणठेण जयंती ! एवं वुच्चइ–अत्थेगतियाण जीवाणं सुत्तत्तं साहू अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्त साह। (श० १२।५४) सोरठा ६२. अनन्तरं सुप्तजाग्रता साधुत्वं प्ररूपित, अथ दुर्बलादीनां तथैव तदेव प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाह (वृ० ५० ५६०) ६२. भलापणुं आख्यात, सुप्त अनैं जाग्रत तणों । दुर्बल प्रमुखज बात, तथैव तेहिज हिव कहै ।। जीव की बलवत्ता और दुर्बलता ६३. *हे प्रभु ! बलवंतपणुं भलु छै, कै दुर्बलपणुं उदारू ? ए बिहं प्रश्न किया तसु उत्तर, श्री जिन भाख वारू ।। ६४. के इक ने बलवंतपणं वर, केइक मैं वलि ताम। दुर्बलपणुं भलु ए उत्तर, किण अर्थे हे स्वाम? ६३. बलियत्तं भंते ! साहू ? दुब्बलियत्तं साहू ? ६५. श्री जिन भाखै सूर्ण जयंती! जीव अधर्मी जेहो। यावत अधर्म करी आजीविक करता विचरै तेहो ।। ६६. दुर्बलपणुं भलु छै तेहन, कहिये सूता जेमो। बलवंतपणं भलं धर्मी नैं, जाग्रत नी पर एमो ।। ६४. जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । (श० १२।५५) से केणठेणं भंते एवं वुच्चइ६५. जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव अहम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति । ६६. एएसि णं जीवाणं दुबलियत्तं साहू। एए ण जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुब्बलियवत्तव्वया भाणियव्वा, बलियस्स जहा जागरस्स तहा भाणियब्वं जाव संजोएत्तारो। ६७. से तेणठेणं जयंती ! एवं वुच्चइ–अत्थेगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू। (श० १२१५६) ६७. तिण अर्थे म्है कह्यो के इक नै, बलवंतपणुंज आछो। दुर्बलपणुं भलु केइक ने, न्याय सहित वच साचो । जीव की दक्षता और आलस्य ६८. वली जयंती पूछै प्रभुजी ! दक्ष-डाहापणु वारू । अथवा उद्यमपणुं दक्ष वर, कै आलस्यपणुं उदारू? ६६. श्री जिन भाखै केई जीव ने, दक्षपणुं इज वारू । आलस्यपणुं भलु केइक ने, प्रभु ! किण अर्थ उदारू? ६८. दक्खत्तं भंते ! साहू ? आलसियत्तं साहू ? ७०. जिन कहै जीव अधर्मी जावत, अधर्म करि विचरंता। आलस्यपणुं भलु छै तेहनें, सूता जेम कहता ।। ६९. जयंती! अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू। (श० १२।५७) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ७०. जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव अहम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं आलसियत्तं साहू। जहा सुत्ता तहा आलसा भाणियव्वा । ७१. जहा जागरा तहा दक्खा भाणियब्वा जाव संजोएत्तारो। ७२. एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरिय वेयावच्चेहिं ७३. उवज्झायवेयावच्चेहि थेरवेयावच्चेहि तवस्सि वेयावच्चेहि गिलाणवेयावच्चेहिं सेहवेयावच्चेहि ७१. जिम जाग्रत तिम दक्षज भणवा, जाव संयोजनहारा । निज पर उभय प्रते जे धर्मे जोड़े अधिक उदारा॥ ७२. दक्ष थका ए धर्मी जीवा, बहु गणपति नी ताह्यो। वैयावच्च विषे निज आतम जोड़णहारा थायो ।। ७३. इम बहु उपाध्याय नी व्यावच, स्थविर भणी इम जाणी। प्रवर तपस्वी गिलाण नव-शिष्य, तास वेयावच ठाणी।। *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण १८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. कुल गच्छ नां समुदाय तणी वलि, गण कुल नों समुदायो । संघ गणनां समुदाय तणी जे, करें वैयावच ताह्यो । ७५. साधर्मी ते साधु साधवी, तास वेयावच सोयो । आतम प्रति जे सम्यक प्रकारे, जोड़णहारा होयो । ७६. यां जीवां रै दक्षपणो वर, तिण अर्थे सुविचारू । दक्षपणो जे भलो केइक में केई आलसू वारू ।। सोरठा ७७. दक्षपणो वर जास, इंद्री जीती छै जिणे । न पड़े इंद्रिय पास, ते मुनिवर सुखियो हुव ॥ इन्द्रियों की वशवर्तिता ७८. इंद्रिय जीती नाहि, ते इंद्री ने भ्रमण करे भव मांहि, तास प्रश्न ८०. इन चक्षु इंद्रिय व यावत भ्रमण करें संसारे, कहियो ८१. ताम जयंती जिन पे वच सुण, हिये देवानंदा जेम शेष सहु, इम दीक्षा ७९. *हे प्रभु! श्रोद्रिय वश पीड्यो, स्यूं बांधे अध-भारो ? इम जिम क्रोध वशे आख्यो तिम, यावत भ्रमण संसारो ॥ वश पूछे पौधों, जाव फासेंदिव एमो पाटन तेमो ॥ धार हरषाई । दिल आई ॥ ढाल : २५४ १. द्वितीय उद्देशा में कह्यो, पाप कर्म नीं प्रकृति प्रति, पड़यो । हिवे || ८२. जाव सर्व दुख थी मूकाणी, सेवं भंते! वारू । शतक वारमा नौ ए आस्यो, द्वितीय उद्देश उदारू || ८३. आखी एह दो सौ ऊपर, तीन पचासमों ढालो । भिक्षु भारीमा ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमालो ॥ द्वादशशते द्वितीयोद्देशकार्यः ॥ १२२॥१ ब्रहा पंचेंद्रिय वंश जीव । बांधे अधिक अतीव ।। २. अष्ट कर्म बंधन थकां नारक पृथ्वी सरूप | ते प्रतिपादन हिव कहूं, तृतीय उद्देश तद्रूप ॥ *लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण ७४. कुलवेयावच्चेहि गणवेयावच्चेहि संघबेयावच्चेहि ५. साहम्मियवेयावच्चेहि अत्ताणं संजोएतारो भवंति । ७६. एएस गंजीवाद साह से ते जयंती ! एवं बुच्चइ — अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खतं साहू, अत्येगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू | (श० १२५८) ७७,७८. दक्षत्वं च तेषां साधु ये नेन्द्रियवशा भवन्तीतीन्द्रियवशानां यद्भवति तदाह ७९. सोदिवस भंते जीवे कि ? (संपा.) एवं जहा कोहबराट्टे तहेब जाव अपरिय 'सोईदिवस' त्ति थोत्रेन्द्रियवशेन तत्पारतन्त्येण कृतः पीडितः भोद्रिय (०प० ५६० ) ८०. एवं दिवस वि एवं जाव फासिदिवस विजाय अणुपरिमद ( ० १२५९-६३) ८१. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवमो महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ठट्ठा से जहा देवाणंदा (०९।१५२-१२५) तहेव पव्वइया । ८२. जाव सव्वदुक्ख पहीणा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (पु०प०५६०) ( श० १२/६४ ) ( श० १२/६५ ) १२. अनन्तरं श्रोत्रादीन्द्रियवशार्त्ता अष्टकम् प्रकृती बघ्नन्तीत्युक्तं तद्द्बन्धनाच्च नरकपृथिवीष्वप्युत्पद्यन्त इति नरकपृथिवीस्वरूपप्रतिपादनाय तृतीयोद्देश कमाहदे (२०१० ५६१) श० १२, उ० २,३ ढा० २५३, २५४ १९ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वो पद ३ नगर राजगह जाव इम, बोल्या गोतम स्वाम । किती प्रभु ! पृथ्वी कही? जिन कहै सप्त तमाम ।। ४. पहिली नै दुजी वली, जाव सप्तमी जान । नाम गोत्र नों प्रश्न हिव, सुणो सुरत दै कान ।। ५. पहिली पृथ्वी नो प्रभु! नाम गोत्र स्यू होत ? जिन कहै घम्मा नाम है, रत्नप्रभा है गोत ।। ६. नाम ऐच्छिक अभिधान है, गोत्र अर्थ अनुसार । सातइ जे नरक नां, नाम गोत्र अवधार ।। ७. इम जिम जीवाभिगम में, प्रथम नरक उद्देश । यावत अल्पाबहुत लग, कहि सर्व विशेष ।। ३. रायगिहे जाव एवं वयांसी-कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ। ४. तं जहा-पढमा, दोच्चा जाव सत्तमा । (श० १२०६६) ५. पढमा भंते ! पुढवी किंगोत्ता पण्णत्ता ? गोग्रमा ! घम्मा नामेण रयणप्पभा गोत्तेणं । ६. तत्र नाम----यादच्छिकमभिधानं गोत्रं च अन्वर्थिकमिति । (वृ० प० ५६१) ७. एवं जहा जीवाभिगमे (३।४-७५) पढमो नेरइयउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो जाव अप्पाबहुगं ति। (श० १२०६७) ८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १२१६८) ८. सेवं भंते ! बार बे, शतक बारमें सोय । तृतीय उद्देशक नों कह्यो, अर्थ अनूपम जोय ।। द्वादशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥१२॥३॥ ९. अनन्तरं पृथिव्य उक्तास्ताश्च पुदगलात्मिका इति पुद्गलाश्चिन्तयश्चतुर्थोद्देशकमाह- (वृ० ५० ५६१) १०. रायगिहे जाव एवं ६. पृथ्वी तृतीय उद्देश कहि, पुद्गल प्रमुख तेह । पुद्गल चितवतां हिवै, तुर्य उद्देश कहेह ।। १०. नगर राजग्रह – विषे, यावत गोतम स्वाम । इम बोल्या स्तवना करी, विनय करी शिर नाम ।। परमाणु पुद्गलों का संघात-भेद पद *वीर कहै सुण गोयमा !॥ ध्रुपदं] ११. दोय परमाण प्रभ! एकठा, मिलियां थका स्यं होय जी? जिन कहै सांभल गोयमा ! दूप्रदेशियो खंध जोय जी ।। १२. ते खंध भेदीजतो छतो, दोय विभाग में तास जी। इक पासे एक परमाणुओ, दूजो परमाणु इक पास जी ।। ११. दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहाणंति, साहण्णिता कि भवइ ? गोयमा ! दुप्पएसिए खंधे भवइ । १२. से भिज्जमाणे दुहा कज्जइ–एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ । (श० १२०६९) १३. तिण्णि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ? गोयमा ! तिपएसिए खंधे भवइ । १४. से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा बि कज्जइ--. १३. तीन परमाणु प्रभु ! एकठा, मिलियां थकां स्यूं होय जी ? जिन कहै सांभल गोयमा ! त्रिप्रदेशिक खंध जोय जी ।। १४. ते खंध भेदीजतो थको, दोय विभागज थाय जी। अथवा तसु तोन विभाग ह्व, सांभलजो तसु न्याय जी ।। १५. दोय विभाग करतां थकां, परमाणु हुवै इक पास जी। एक पामे दोय प्रदेशियो खंध ह अछ तास जी ।। १६. तीन भागे करता छतां, तीन परमाणया होय जी। तीनइ परमाणु जूजुआ, न्याय थकी अवलोय जी ।। १५. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ ___ दुपएसिए खंधे भवइ। १६. तिहा कज्जमाणे तिण्णि परमाणु पोग्गला भवंति । (श० १२१७०) *लय: मम करो काया माया २० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्यार प्रदेशिया खंध नां ४ भांगा १७. च्यार परमाणु प्रभु! एकठा, मिलियां थकां स्यूं होय जी ? जिन कहै सांभल गोयमा ! चउ प्रदेशिक खंध जोय जी ॥ १८. ते खंध भेदीजतो छतो, बिहु भागे तीन विभाग पिण ह्र तसु, च्यार भागे १९. दोय विभाग करता था, परमाणु पिण होय जी । पिण जोय जी ।। इक पास जी । एकण पास होवे बनि विप्रदेशिक संच तास जी ।। २०. अथवा द्विप्रदेशिया, बंध हर्ष असो जी दोष विभाग तेहनां भांगा काया ए दोष जी ।। २१. तीन भागे करता था, इक पास परमाणुआ दोय जी । खध होने गर्छ सोय जी ।। हुवै परमाणुआ च्यार जी । एचिउ भंग अवधार जी ।। इक पास दो प्रदेशियो २२. च्यार भागे करतां थकां च्यार प्रदेशिया खंध नां, च्यार प्रदेशिया नीं स्थापना १ १३ २ | २२ ३ | १|१|२ ४ | १|१|१|१ पंच प्रदेशिया खंध नां ६ भांगा २३. पंच परमाणु प्रभु! एकठा, मिलियां थकां स्ं होय जी ? जिन कहै सांभल गोयमा ! पंच प्रदेशिक खंध जोय जी ।। २५. विहं भागे करतां थकां इक पासे च्यार प्रदेशियो २६. अथवा वलि एक पासे हुवै, २४. ते संघ भेदीजतो तो, दोय भागे पिण होय जी। बलि हिं भाग चिह्न भागलं. पंच भागे पिण जोय जी ॥ परमाणु हुये एक पास जी। खंध होवै अछे तास जी ॥ दोय प्रदेशियो खंध जी । इक पासे तीन प्रदेशियो बंध होवै छै संबंध जी ॥ २७. तीन भागे करतां थकां इक पास परमाणुया दोय जी । इक पासे तीन प्रदेशियो बंध होवे अवलोय जी ।। २८. अथवा वलि एक पासे हुवै, एक परमाणुओ सोय जी । इक पासे दोय प्रदेशिया खंध होवे तसु दोय जी ॥ २६. च्यार भागे करतां थकां तीन परमाणु इक पास जी। बंध हो अ तास जी ॥ पांच परमाणुआ थाय जी । भांगा छह कहिवाय जी ॥ इक पासे द्विप्रदशियो ३०. पांच भागे करतां थकां पंच प्रदेशिया खंध नां, 1 १७. चत्तारि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहण्णित्ता किं भवइ ? गोयमा ! चउपएसिए खंधे भवइ । १८. से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा विकज्जइ १९. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपएसिए बंधे भवइ । २०. अहवा दो दुपएसिया खंधा भवति । २१. तिहा कज्ज माणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपए सिए बंधे भवइ । २२. चउहा कज्जमाणे चत्तारि परमाणुपोग्गला भवति । ( ० १२०७१) २३. पंच भंते! परमाणुयोग्यता एगयो साहयति साहण्णित्ता किं भवइ ? गोमा ! पंचसिएधे भवद २४. से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा वि पंचहा विकज्जइ २५. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चपएसिए बंधे भवइ । २६. एमसीएसए बधे एपिएसए खंधे भवइ । 1 २७. तिहा कज्ज माणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए बंधे भवइ । २८. अाए खंधा भवंति । परमाणुषमाले, एमओ दो एसिया २९. उामा एमपी तिणि परमाणु एमओ दुपए सिए बंधे। ३०. पंचहा कज्जमाणे पंच परमाणुपोग्गला भवंति ।. (० १२.७२) श० १२, उ० ४, ढा० २५४ २१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच प्रदेशिया नी स्थापना २।३ १।१।३ ।१।२।२ |१११११२ ६ | १।१।१।११ छह प्रदेशिया खंध नां १० भांगा ३१. षट परमाणु प्रभु ! एकठा, मिलियां थकां स्यं होय जी ? जिन कहै सांभल गोयमा! षट प्रदेशिक खंध जोय जी। ३१. छब्भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहण्णित्ता किं भवइ ? गोयमा ! छप्पएसिए खंधे भवइ । ३२. से भिज्जमाणे दुहा दि तिहा वि जाव छबिहा वि कज्जइ। ३३. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । ३४. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ । ३५. अहवा दो तिपएसिया खंधा भवंति । ३२. ते खंध भेदीजतो थको, दोय भागे पिण होय जी। त्रिण चिउं पंच षट भाग ह, हिव तसु न्याय अवलोय जी। दो भाग स्यूं ३ विकल्प३३. दोय भागे करतां थकां, इक परमाणु इक पास जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी ।। ३४. अथवा जे एक पासे तसु, द्विप्रदेशिक खंध होय जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै तसु सोय जी ।। ३५. अथवा जे तीन प्रदेशिया खंध होवै तसु दोय जी। दोय भागे करतां थकां, तीन भांगा इम होय जी।। तीन भाग स्यूं ३ विकल्प३६. तीन भागे करतां छतां, परमाणु दोय इक पास जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी। ३७. अथवा इक पास परमाणु ह, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी ।। ३८. अथवा जे दोय प्रदेशिया खंध होवै तसु तीन जी। तीन भागे करतां थकां, ए त्रिहुं भंग सुचीन जी ।। च्यार भाग स्यूं २ विकल्प३६. च्यार भागे करता थकां, तीन परमाणु इक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी ।। ४०. अथवा जे एक पासे तसु, दोय परमाणुआ होय जी। इक पासे दोय प्रदेशिया खंध होवै तसु दोय जी। ४१. पंच भागे करतां थकां, परमाणु च्यार इक पास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी ।। ४२. छए भागे करतां थका, षट परमाणुओ होय जी। षट प्रदेशिक खंध नां, ए दश भंग अवलोय जी ।। ३६. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ । ३७. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ३८. अहवा तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । ३९. चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ४०. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयो दो दुपएसिए खंधा भवंति। ४१. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । ४२. छहा कज्जमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति । (श० १२१७३) २२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह प्रदेशिया नी स्थापना २।२।२ २१४ १११३ | १११०२२ १।२४ | १।१।११।२ | १।२।३ |१।१।१।१।१।१ सप्त प्रदेशिया खंध नां १४ भांगा ४३. सप्त परमाणु प्रभु ! एकठा, मिलियां थकां स्यू होय जी? जिन कहै सप्त प्रदेशियो खंध होवै अछ सोय जी। ४३. सत्त भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति साहण्णित्ता किं भवइ? गोयमा ! सत्तपएसिए खंधे भवइ। ४४. से भिज्जेमाणे दुहा वि जाव सत्तहा वि कज्जइ ४५. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ। ४६. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ। ४७. अहवा एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । ४४. ते खंध भेदीजतो छतो, दोय भागे पिण होय जी। त्रिण चिउं पंच षट भाग पिण, सप्त भागे पिण जोय जी ।। दो भाग स्यूं ३ विकल्प-- ४५. बिहं भागे करतां थकां, परमाणु हवै इक पास जी। एक पासे छह प्रदेशियो खंव हौवै अछै तास जी। ४६. अथवा जे एक पासे तस्, द्विप्रदेशिक खध होय जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै तस् सोय जी ।। ४७. अथवा जे एक पासे तस्, त्रिप्रदेशिक खंध थाय जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै तसु ताय जी ।। तीन भाग स्यूं ४ विकल्प४८. तीन भागे करतां थकां, इक पास परमाणआ दोय जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै तम सोय जी ।। ४६. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी ।। ५०. अथवा वलि एक पासे तसु, परमाणु पुद्गल होय जी। एक पासे त्रिप्रदेशिया खंध होवै तसु दोय जी।। ५१. अथवा वलि एक पासे हुवे, द्विप्रदेशिक खंध दोय जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै अछ सोय जी ।। च्यार भाग स्यूं ३ विकल्प५२. च्यारे भागे करतां थकां, इक पास परमाणुआ तीन जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछै चीन जी ।। ५३. अथवा इक पास परमाणु बे हवै, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी । ५४. अथवा वलि एक पासे हुवै, परमाणु पुद्गल एक जी। इक पासे दोय प्रदेशिया खंध त्रिण होय विशेख जी॥ ४८. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । ४९. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए ___ खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ। ५०. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति ।। ५१. अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ५२. च उहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ। ५३. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ५४. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । श० १२, उ०४, ढा० २५४ २३ Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच भाग स्यूं २ विकल्प - ५५. पंत्र भागे करतां थकां इक पास परमाणुआ च्यार जी । इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवे तिणवार जी ॥ ५६. अथवा बलि एक पासे तसु तीन परमाणुआ होय जी। इक पासे दोय प्रदेशिया खंध होवे तसु दोय जी ॥ ५७. छए भागे करतां थकां इक पास परमाणुआ पंच जी । इक पासे द्विप्रदेशियो बंध हौवै अछे संच जी ॥ ५८. साते भागे करतां थकां सप्त प्रदेशिया खंध नां, सप्त प्रदेशिया नीं स्थापना १ १६ २ २५ ३ ४ ११५ ३/४ ५ १।२।४ ६ १।३।३ ७ २२/३ सात परमाणुआ होय जी । चवद भांगा इम जोय जी ॥ ८ दोष भागे तास लेखो ९ | શશા १० १।२।२।२ १।१।२३ ११ १।१।१।१।३ १२ १।१।१।२।२ अष्ट प्रदेशिया खंध नां २१ भांगा ५६. अष्ट परमाणु प्रभु! एकठा, मिलियां थकां रूपं होय जी ? जिन कहे अष्ट प्रदेशियो बंध हो अखं सोय जी ।। १३ | १|१|१|१|१२ १४ | १|१|१|१|१|१|१ पिण सुण ६०. ते बंध भेदीजतो थको यावत आठ भागे हुवे दो भाग स्यूं ४ विकल्प - ६१. दोय भागे करतां थकां इक पासे सात प्रदेशियो ६२. अथवा इक पास होवै तसु, एक पासे छह प्रदेशियो ६३. अथवा वलि एक पासे तसु इक पास परमाणु एक जी । संध होवे सुविमेख जी ।। द्विप्रदेशिक बंध सोय जी । बंध है तास अवलोय जी ।। त्रिप्रदेशिक खंध होय जी । इक पासे पंच प्रदेशियो बंध हो अर्थ सोय जी ॥ ६४. अथवा बति प्यार प्रदेशिया बंध होवे तसु दोष जी दोय भागे हुवे तेनां विकल्प प्यार ए जोय जी ।। तीन भाग स्यूं ५ विकल्प६५. तीने भागे करतां चको, एक पासे यह प्रदेशियो २४ भगवती जोड़ होय जी सोय जी ॥ इक पास परमाणुआ दोय जी संध होवे अर्थ सोय जी ।। ५५. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए बंधे भवइ । ५६. अहवा एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपसिया खंधा भवंति । ५७. छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एमओ दुपएसए बंधे भव । ५८. सत्तहा कज्जमाणे सत्त परमाणुपोग्गला भवंति । ( ० १२०७४) ५९. अट्ठ भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहण्णित्ता किं भवइ ? गोपमा ! अनुपसिए बंधे भवद ६०. से भिज्जमाणे दुहा वि जाव अट्टहा वि कज्जइ । ६१. दुहा कज्ज माणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ सत्तपएसिए बंधे भवइ । ६२. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ । ६३. अहवा एगयओ तिपएसिए बंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । ६४. अहवा दो चउप्पएसिया खंधा भवंति । ६५. तिहा कज्जमा एगवको दो परमाणुयोगाला भयंति, एगयओ छप्पएसिए बंधे भवइ । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक बंध इक पास जी। इक पासे पंच प्रदेशियो बंध हो अछे तास जी ॥ ६७. अथवा इक पास परमाणुओ, त्रिप्रदेशिक खंध इक पास जी। इक पासे प्यार प्रदेशियो बंध हो अर्थ तास जी ॥ ६. अथवा बलि एक पासे तत् द्विप्रदेशिक संध दोय जी । संध होवे अ सोय जी ।। द्विप्रदेशिक खंध होय जी । खंध होवे तसु दोय जी ।। इक पासे प्यार प्रदेशियो ६९. अथवा वलि एक पासे तसु, इक पासे तीन प्रदेशिया च्यार भाग स्यूं ५ विकल्प 1 ७०. च्यारे भागे करतां थकां इक पास परमाणुआ तीन जी । इक पासे पंच प्रवेशियो बंध हो अर्थ चीन जी।। ७१. अथवा इक पास परमाणु दो, द्विप्रदेशिक खंध इक पास जी। इक पासे प्यार प्रदेशियो बंध हो अर्थतास जी ।। ७२. अथवा वलि एक पासे तसु, दोय परमाणुआ होय जी । इक पासे तीन प्रदेशिया बंध हो रा दोय जी ॥ ७३. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक दो इक पास जी । इक पासे तीन प्रदेशियो बंध हो अछे ७४. अथवा बलियो प्रदेशिया बंध हो च्यार भागे हुवै तेहनां विकल्प पंच पांच भाग स्यूं ३ विकल्प तास जी ॥ त प्यार जी । विचार जी ।। ७५. पंच भागे करतां थकां एक पास परमाणुआ च्यार जी । इक पाने व्यार प्रदेशियो बंध होवे तिणवार जी ।। ७६. अथवा बलि एक पाये हुवे तीन परमाणुआ तास भी एक पासे द्विप्रदेशियो, त्रिप्रदेशिक खंध इक पास जी ॥ ७७. अथवा वलि एक पासे हुवै, दोय परमाणुआ चीन जी । इक पासे दो प्रदेशिया बंध हो तसु तीन जी ॥ छह भाग स्यूं २ विकल्प - ७८. छ भागे करतां थकां इक पास परमाणुआ पंच जी । इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवे अच्छे संच जी ।। ७६. अथवा वलि एक पासे तसु, च्यार परमाणुआ होय जी । इक पासे दोय प्रदेशिया खंध होवे तसु दोय जी ॥ ८०. साते भागे करतां थकां छह परमाणु इक पास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो खंध होवै अछे तास जी ।। १. आठे भागे करता था, अष्ट परमाणुजा होय जी। अष्ट प्रदेशिया बंधनां भंग इकवीस ए जो जी | ६६. हवाए परमाणुपले एनयत्रो दुणएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए बंधे भवइ । 1 ६७. अहवा एगयी परमाणुयोग्यले एपओ पिसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए बंधे भवइ । ६. एग दो एशिया बंधा, एसपी उपसिएधे भवद ६९. अहवा एगयओ दुपएसिए बंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवति । ७०. चहा कन्जमा एगयो तिथि परमाणुयोगला एगयओ पंचपएसिए बंधे भवइ । ७१. एमी दोणि परमाणुपला, एगदमो एसिए थे, एमओ उप्पएसिए बंधे भव । ७२. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति । ७३. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया बंधा, एगयओ तिपएसिए बंधे भवइ । ७४. अहवा चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । ७५. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए बंधे भवइ । ७६. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयभो दुपए सिए बंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ७७. अहवा एग दो परमाणुयोग्गला, एगपओ तिथि दुपसिया बंधा भवति । ७८. हा माणे एमयत्रो पंच परमाणुपला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । ७९. सहवाग चत्तारि परमाणुयोग्यता, एण्यत्रो दो दुपसिए बंधा भवंति । ८०. सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपए सिए बंधे भवइ । अट्ट परमाणुपोग्ला भवति । ( श० १२४७५ ) श० १२, उ० ४, ढा० २५४ २५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्ट प्रदेशिया नी स्थापना १ | ११७ १२ | १२१३॥३ २ । २६ १३ | शशरा३ ३ | ३५ १४ । २।२।२।२ ४|४|४ १५ । ११११११११४ ५ | ११०६ १६ | ११११११।३ ६ | श२।५ १७ | १११।२।२।२ ७ | ११३१४ १८ | १|शशशश३ ८ | २।२।४ १९ | १११११११।२।२ ९ | २।३।३ २० । १३शशशशश२ १० | १११११५ २१ ११११११११११११११ | ११ । १।१२।४ नव प्रदेशिया खंध नां २८ मांगा ८२. नव परमाणु प्रभु ! एकठा, मिलियां थकां स्यू होय जी? जिन कहै सांभल गोयमा ! नव प्रदेशिक खंध जोय जो ।। ८२. नव भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहण्णिता कि भवइ? गोयमा ! नवपएसिए खंधे भवइ । ८३. से भिज्जमाणे दुहा वि जाव नवहा वि कज्जइ ८४. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ। ८५. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ । ८६. अहवा एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ। ८७. अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंच पएसिए खंधे भवइ। ८३. ते खंब भेदीजतो छतो, दोय भागे करि होय जी। यावत ते नव भाग करि ह तसु न्याय अवलोथ जी ।। दो माग स्यूं ४ विकल्प८४. दोय भागे करता थकां, परमाणुओ इक पास जी। इक पासे अष्ट प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी ।। ८५. अथवा वलि एक पासे तसू, द्विप्रदेशिक खंध होय जी। इक पासे सात प्रदेशियो खंध होवै अछै सोय जी ।। ८६. अथवा वलि एक पासे तसु, त्रिप्रदेशिक खंध हाय जी। एक पासे छह प्रदेशियो, खंध होवे तसु सोय जी ।। ८७. अथवा बलि एक पासे तसु, चिउं प्रदेशिक खंध होय जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै अछ सोय जी ।। तीन भाग स्यूं ६ विकल्प८८. तीन भागे करतां थकां, दोय परमाणु इक पास जी। इक पासे सात प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी ।। ८९. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास जी। एक पासे छह प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी ।। १०. अथवा इक पास परमाणुओ, त्रिप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी॥ ६१. अथवा इक पास परमाणुओ, एक पासे अवलोय जी। च्यार प्रदेशिया खंध ते, दोय होवै अछ सोय जी ।। १२. अथवा वलि एक पासे हवै, द्विप्रदेशिक खंध तास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो, चिउं प्रदेशिक इक पास जी ।। ६३. अथवा वलि तीन प्रदेशिया खंध होवै तसु तीन जी। तीन भागे हवै तेहनां, ए षट विकल्प चीन जी ।। २६ भगवती जोड़ ८८. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ ___सत्तपएसिए खंधे भवइ। ८९. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ । ९०. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । ९१. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो चउप्प एसिया खंधा भवंति। ९२. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ च उप्पएसिए खंधे भवइ। ९३. अहवा तिण्णि तिपएसिया खंधा भवति । Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४. चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ । ९५. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खधे भवइ । ९६. अहवा एगयओ दो परमाणुपोरगला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । ९७. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयो दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । ९८. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति । ९९. अहवा एगयओ तिण्णि दुप्पएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ। च्यार भाग स्यूं ६ विकल्प----- ६४. च्यारे भागे करता थका, तीन परमाणु इक पास जी। एक पासे छह प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी।। ६५. अथवा इक पास परमाणु बे हवै, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी। ६६. अथवा इक पास परमाणु दो, त्रिप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी। ६७. अथवा इक पास परमाणुओ, एक पासे वलि तास जी। दोय प्रदेशिया खंध बे, चिउं प्रदेशिक इक पास जी ।। १८. अथवा एक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशिया, बे खंध होवै तास जी। १६. अथवा बलि एक पासे हवै, द्विप्रदेशिक खंध तीन जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै अछै चीन जी। पांच भाग स्यूं ५ विकल्प१००. पांच भागे करतां थकां, इक पास परमाणआ च्यार जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै छै तिवार जी।। १०१. अथवा इक पास परमाणुआ तीन होवै छै तास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो, चिउं प्रदेशिक इक पास जी ।। १०२. अथवा इक पास परमाणुआ तीन होवै अछ सोय जी। इक पासे तीन प्रदेशिया खंध होवै अछै दोय जी ।। १०३. अथवा इक पास परमाणु दो, एक पासे वलि तास जी। दोय प्रदेशिया खंध बे, त्रिप्रदेशिक इक पास जी ।। १०४. अथवा इक पास परमाणुओ. एक पासे अवधार जी। द्विप्रदेशिक खंध चिउं हुवै, विकल्प पंच विचार जी। छह भाग स्यूं ३ विकल्प१०५. छए भागे करतां थकां, पंच परमाणु इक पास जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी। १०६. अथवा इक पास परमाणुआ, च्यार हवै अछै तास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो, त्रिप्रदेशिक इक पास जी। १०७. अथवा इक पास परमाणुआ, तीन होवै अछै तास जी। इक पासे दोय प्रदेशिया खंध त्रिण ह ते विमास जी ।। सात भाग स्यूं २ विकल्प१०८. साते भागे करतां थकां, छह परमाणु एक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध हवै अछै तास जी॥ १०६. अथवा इक पास परमाणुआ, पंच होवै अवलोय जी। दोय प्रदेशिया खंध ते, एक पासे हुवै दोय जी॥ आठ भाग स्यूं १ विकल्प' ११०. आठ भागे करतां थकां, सात परमाणु इक पास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो खंध होवै अछ तास जी ।। १००. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, ___एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ। १०१. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १०२. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति । १०३. अहह्वा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । १०४. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । १०५. छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १०६. अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । १०७. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । १०८. सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ। १०९. अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति । ११०. अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । श०१२, उ०४, ढा० २५४ २७ Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौ भाग स्यूं १ विकल्प१११. नवे भागे करता थका, नव परमाण जगोस जो। नव प्रदेशिया खध नां, विकल्प कह्या अठवीस जो ।। नव प्रदेशिया नी स्थापना १११. नवहा कज्जमाणे नव परमाणुपोग्गला भवति । (श० १२१७६) १ | ११८ १५ । श२।३।३ २ । २७ 10 | रारा२।३ ३१६ ११११११११५ |४५ २१।१२।४ ११११७ १११।१।३।३ शश६ २० ११११२२॥३ ११३१५ २१ | शरा२।२।२ | ११४।४ २२ २११११११११४ | २।३।४ २३ १११शशश।३ १० | ३।३।३ २४ १।१।१।२।२।२ १।१२११६ २५ १११।१।१।१।११३ १२ १।१२।५ २६ | १११११शशश।२ १३ ।।३।४ २७ / १।१।१।१।१।१।१२२ १४ | १।२।२।४ २८ | १२१।१।१।१।१।१।१।१ दश प्रदेशिया नां ४० भागा११२. दश परमाणु प्रभु ! एकठा, मिलियां थकां स्यूं होय जी? जिन कहै सांभल गोयमा ! दश प्रदेशियो खंध जोय जी।। ११२. दस भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहण्णित्ता किं भवइ? गोयमा ! दसपएसिए खंधे भवइ । ११३. से भिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि कज्जइ ११३. ते खंध भेदीजतो थको, दोय भागे पिण होय जी। यावत ह दश भाग करि, आगल न्याय तसु जोय जी। दो भाग स्यूं ५ विकल्प११४. दोय भागे करतां थकां, परमाणओ इक पास जी। इक पासे नव प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जो॥ ११५. अथवा वलि एक पासे तसु, द्विप्रदेशिक खंध होय जी। इक पासे अष्ट प्रदेशियो खंध होवै तसु सोय जी॥ ११४. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गलले, एगयओ नवपएसिए खंधे भवइ। ११५. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ। २८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६. अथवा वलि एक पासे तसु एक पासे सप्त प्रदेशियो ११७. अथवा बलि एक पाये तसु एक पासे छह प्रदेशियो बंध होते ११८. अथवा वलि पंच प्रदेशिया खंध होवे त्रिप्रदेशिक खंध होय जी । बंध हो त सोय जी ॥ चिउं प्रदेशिक बंध होव जी । तसु सोप जी ।। तसु दोय जी । । दोय भागे हुवै तेहनां, विकल्प पंच ए होय जी ॥ तीन भाग स्यूं ८ विकल्प ' ११. तीने भागे करतां कां इक पास परमाणु ह्र दोष जी। इक पासे अष्ट प्रदेशियो बंध होते अछे सोय जी ॥ १२०. अथवा एक पास परमाणओ, द्विप्रदेशिक दक पास जी। एक पासे छह प्रदेशियों खंध होवे असे तास जी ॥ १२१. अथवा इक पास परमानओ विप्रदेशिक कपास जी। एक पासे सप्त प्रदेशियों बंध हो अच्छे तास जी ।। १२२. अथवा इक पास परमाणओ, चिडं प्रदेशिक इक पास जी। इक पासे पंच प्रदेशियो बंध हो अछे तास जी ॥ १२३. अथवा एक पासे हुवै, द्विप्रदेशिया खंध दोय जी । खंध हुवै अछे सोय जी ॥ द्विप्रदेशिक बंध तास जी । पंच प्रदेशिक इक पास जी ॥ द्विप्रदेशिक खंध होय जी । बंध हो अछे दोय जी ॥ त्रिप्रदेशिक खंध दोय जी । बंध होते असे सोय जी ॥ एक पाने छह प्रदेशियो १२४. अथवा वलि एक पासे हुवै, इक पासे तीन प्रदेशियो १२५. अथवा वलि एक पासे तसु, एक पासे प्यार प्रदेशिया १२६. अथवा वलि एक पासे तसु इक पासे प्यार प्रदेशियो प्यार भाग स्यूं ८ विकल्प१२७. प्यारे भागे करता थकां इक पास परमाणुआ तीन जी। इक पासे सप्त प्रदेशियो खंध तास आकीन जी ॥ १२८. अथवा इक पास परमाणु दो, द्विप्रदेशिक इक पास जी। 1 एक पासे छह प्रदेशियो बंध हो अच्छे तास जी ॥ १२६. अथवा इक पास परमाणुआ, दोय होवे अछे तास जी इक पासे तीन प्रदेशियों, पंच प्रदेशिक इक पास जी ॥ १३०. अथवा वलि एक पासे 'तसु, दोय परमाणुआ होय जी । १३२. अथवा वलि एक पासे तसु, इक पासे तीन प्रदेशिया १३३. अथवा बलि एक पासे हुवे इक पासे च्यार प्रदेशियो १३४. अथवा बलि एक पासे हुवे इक पासे च्यार प्रदेशिया खंध पिण ह्र तसु दोय जो ॥ १३१. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो, चिउं प्रदेशिक इम तास जी ॥ परमाणु- पुद्गल चीन जी । बंध होवै तसु तीन जी ॥ द्विप्रदेशिक बंध तीन जी। खध ह्र तास आकीन जी ॥ द्विप्रदेशिक संध दोय जी। इक पासे तीन प्रदेशिया, ते पिण खंध बे होय जी ॥ J 7 ११६. अहवा एगयओ तिपएसिए बंधे, एगयओ सत्तएसिए बंधे भवइ । ११७. अहवा एगयओ चप्पएसए बंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ । ११८. अहवा दो पंचपएसिया खंधा भवंति । ११९. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगज अभि १२०. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगओ छप्पए सिए बंधे भवइ । १२. परमाणुपमा, एमओ पिएसिए खंधे, एगयओ सत्तपए सिए बंधे भवइ । १२२. अहवा 1 एनओ परमाणुपोग्गले, एगयओ बंधे एग पंचपएसए बंधे भवइ । १२३. अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ छप्परखिए वयं भव । १२४. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपए सिए खंधे भवइ । १२५. अहवा एगयओ दुपए सिए बंधे, एगयओ दो चप्पएसिया खंधा भवंति । १२६. हवा एप दो पिएसिया बंधा, एमओ चप्पएसिए बंधे भवइ । १२७. चउहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एमपी सतपक्षि भव १२८. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपए सिए बंधे, एमओएसिए भव । १२९. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ एसएएमओ पंचसिए बंधे भव १०. दो परमाणुपोन्गता, एगयो हो चप्पएसिया यंत्रा भवति । १३१. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए बंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १३२. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिष्णि तिपएसिया खंधा भवंति । १३२. हा गतिणि दुपएसिया संधा, एगो astrएसिए बंधे भवइ । १३४. अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ दो पिएसिया धा भवति । श० १२, उ० ४, ढा० २५४ २९ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच भाग स्यूं ७ विकल्प१३५. पांचे भागे करतां थकां, इक पास परमाणुआ च्यार जी । एक पासे छह प्रदेशियो खंध ह तास उदार जी ।। १३६. अथवा इक पास परमाणुआ, तीन होवै अछ तास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो, पंच प्रदेशिक इक पास जी।। १३७. अथवा इक पास परमाणआ, तीन होवै अछ तास जी। इक पासे तीन प्रदेशियो, चिउं प्रदेशिक इक पास जी । १३८. अथवा इक पास परमाण दो, एक पासे वलि तास जी। दोय प्रदेशिया खंध बे, चिउं प्रदेशिक इक पास जी ।। १३६. अथवा इक पास परमाण दो, द्विप्रदेशिक इक पास जी । इक पासे तीन प्रदेशिया, बे खंध हवै छै तास जी ।। १३५. पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ । १३६. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । १३७. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १३८. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खधे भवइ । १३९. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयो दुपए सिए बंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवति । १४०. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपए सिए खंधे भवइ । १४१. अहवा पंच दुपएसिया खंधा भवंति । १४०. अथवा इक पास परमाणओ, एक पासे वलि तास जी। द्विप्रदेशिक खंध त्रिण, त्रिप्रदेशिक इक पास जी ।। १४१. अथवा तसु दोय प्रदेशिया खंध हवै अछै पंच जी। पांचे भागे हवै तेहनां, विकल्प सात ए संच जी ।। छह भाग स्यूं ५ विकल्प१४२. भाग षट तास करतां छतां, इक पास परमाणआ पंच जी। इक पासे पंच प्रदेशियो खंध होवै अछ संच जी ।। १४३. अथवा इक पास परमाणआ, च्यार होवै अछ तास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो, चिउं प्रदेशिक इक पास जी ।। १४४. अथवा इक पास परमाणआ, च्यार होवै अछै सोय जी। इक पासे तीन प्रदेशिया खंध होवै अछै दोय जी ।। १४५. अथवा इक पास परमाणु त्रिण, एक पासे वलि तास जी। दोय प्रदेशिया खंध बे, त्रिप्रदेशिक इक पास जी।। १४६. अथवा इक पास परमाण बे, द्विप्रदेशिक च्यार इक पास जी। छए भागे हवै तेहनां, विकल्प पंच विमास जी ।। सात भाग स्यूं ३ विकल्प१४७. साते भागे करतां थकां, छह परमाण इक पास जी। इक पासे च्यार प्रदेशियो खंध होवै अछै तास जी ।। १४८. अथवा इक पास परमाणआ, पंच होवे अछै तास जी। इक पासे दोय प्रदेशियो, त्रिप्रदेशिक इक पास जी ।। १४६. अथवा इक पास परमाणुआ, च्यार हुवै तास आकीन जी। एक पासे दोय प्रदेशिया खंध होवै अछै तीन जी ।। आठ भाग स्यूं २ विकल्प१५०. आठ भागे करतां थकां, इक पास परमाणआ सात जी। इक पासे तीन प्रदेशियो खंध होवै छ विख्यात जी ।। १५१. अथवा इक पास परमाण षट, एक पासे वलि सोय जी। दोय प्रदेशिया खंध पिण, तास होवै अछै दोय जी ।। १४२. छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । १४.३ अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १४४. अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवति । १४५. अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । १४६. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति । १४७. सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ । १४८. अहवा एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयभो दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । १४९, अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । १५०. अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । १५१. अहवा एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति। ३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौ भाग स्यूं १ विकल्प१५२. अथवा इक पास परमाणुआ, अष्ट हुवै सुविशेखजी। इक पासे दोय प्रदेशियो खंध होवै तसु एक जी ।। १५३. तास दस भाग करतां थकां, दश परमाणुआ दीस जी । दश प्रदेशिया खंध नां, विकल्प एह चालीस जी ।। दश प्रदेशिया नी स्थापना १५२. नवहा कज्जमाणे एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला, ___एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ ।। १५३. दसहा कज्जमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति। (श० १२।७७) २।२।३।३ २२१८ २२ |११११११११६ ३१७ २३ / १।१।१।२।५ |१११११३।४ १।१।२।२।४ ६२११८ | ११श२।३।३ शि२७ श२।२।२।३ | ११३६ | २।।।२।२ ||४/५ २९ | १।१।१।१।१५ राश६ ११ | २।३१५ |१|शश११३३ १२ | २।४।४ २।४।४ ३ १।१।१।२।२।३ १३ ३।३।४ ३।३।४ ३ | १।१।२।२।२।२ १४ |१११।२७ ३४ ११११११११११११४ १५ | १११।२।६ रा " ३५ १११११।१।११।३ ११।३।५ १११।११।२।२।२ १२१४४ शशशश१११११३ १८ श२।३।४ ३८ १११।११।११।२।२ ११३।३।३ ११११।१।१।१।१।१२ २।२।२।४ ११११११११११११११११११ -श०१२, उ०४, ढा०२५४ ३१ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४. बारमा शतक विषे कह्या, चउथ उद्देशे एभाव जो चउथो उद्देशो बाकी रह्यो, आगल छै वलि न्याव जो ।! १५५. दोयसौ नैं चउपनमीं, आखो ए ढाल उदार जो । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जम' हरष अपार जो ।! इहा १. संख्यात परमाणु एकठा, मियां थकां स्यं होय ? जिन कहै संख प्रदेशियो बंध हुवै छै सोय ॥ ढाल : २५५ २. तेह संध भेदीजतां वे भागे विष होय । यावत दश भागे करी, तेह हुवै छ सोय ।। ३. वले संख्याते भाग पिण, कीजे तास प्रकार । तास भेद हिव जूजुआ, दाखे जिन जगतार ॥ संख्यात प्रदेशिया नां भांगा ४६० दो भाग स्यूं ११ विकल्प - *जय जय ज्ञान जितेंद्र नौ ॥ [घ्रपद ] परमाणु एक पास हो, गोतम ! बंध हवं तास हो, गोतम ! द्विप्रदेशिक बंध हो हो, गोतम ! प्रदेशियो बंध हवं सोय हो, गोतम ! ६. अथवा एक पासे तमु, तीन प्रदेशियो बंध हो गोतम ! ४. बिहं भागे करतां चको, इक पास संख्यात प्रवेशियो ५. अथवा एक पासे तसु इक पास संख्यात इक पास संख्यात प्रदेशियो संघ हुवे सुगंध हो, गोतम ! ७. अथवा एक पासे तसु, च्यार प्रदेशियो खंध हो, गोतम ! इक पास संस्थात प्रदेशियो बंध प्रबंध हो, गोतम ! गोतम ! ८. अथवा एक पासे तसू पंच प्रदेशिक होय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हुवै छै सोय हो, ९. अथवा एक पासे तसु छ प्रदेशिक बंध हो हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो बंध एवं सोय हो, गोतम ! १०. अथवा एक पासे तसु, सप्त प्रदेशिक जास हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हुवै छै तास हो, गोतम ! ११. अथवा एक पासे तसु, अष्ट प्रदेशिक एम हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हुवै छै तेम हो, गोतम ! १२. अथवा एक पासे तमु, नव प्रदेशिक बंध म्हाल हो, गोतम ! इक पास संस्पात प्रदेशियो बंध हुये ते संभाल हो, गोतम ! *लय : तारा हो प्रत्यक्ष मोहनी ३२ भगवती जोड़ १. संखेज्जा णं भंते! परमाणुपीगला एगयओ साहति, साहण्णित्ता किं भवइ ? गोयमा ! संखेज्जपएसिए बंधे भवइ । २. से भिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि । ३. संखेज्जहा वि कज्जइ ४. हा कज्जमागे एगपो परमाणुयोग्य ए संखेज्ज एसिए बंधे भवइ । ५. अवाए खंधे भवइ । ६. एगयओ तिपएसिए बंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ७- १३. एवं जाव अहवा एगयओ दस पएसिए बंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । दुपसिए बंधे एक संवेगपएसिए J Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अहवा दो संखेज्जपएसिया खंधा भवति । १३. अथवा एक पासे तसु, दश प्रदेशिक खंध देख हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हवै छ विशेख हो, गोतम ! १४. अथवा संख्यात प्रदेशिया खंध हुवै तसु दोय हो, गोतम ! दोय भागे करि तेहनां, भंग इग्यारै होय हो, गोतम ! तीन भाग स्यूं २१ विकल्प१५. तीने भागे करतां थकां, एक पास परमाणुआ दोय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हवै छ सोय हो, गोतम ! १६. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हवै छै तास हो, गोतम ! १७. अथवा इक पास परमाणुओ, त्रिप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो खंध हौ तास हो, गोतम ! १८. इम यावत एक पास हवै, परमाण पुदगल तास हो, गोतम ! इक पासे दश प्रदेशियो, संखेज्ज प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! १६. अथवा इक पास परमाणओ, एक पासे अवलोय हो, गोतम ! संख्यात प्रदेशिया खंध ते, दोय हवै छै सोय हो, गोतम ! २०. अथवा एक पासे तसु, द्विप्रदेशिक खांध होय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हुवै छै दोय हो, गोतम ! २१. अथवा एक पासे तसु, विप्रदेशिक खंध होय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हवै छै दोय हो, गोतम ! २२. अथवा एक पासे तसु, चिउं प्रदेशिक खंध होय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हवै छै दोय हो, गोतम' ! २३. इम यावत एक पासे तसू, दश प्रदेशिक खंध होय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हवै छै दोय हो, गोतम ! २४. अथवा संख्यात प्रदेशिया खंध होवै तस् तीन हो, गोतम ! तीने भागे हुवै तेहनां, एक बीस भंग चीन हो, गोतम ! च्यार भाग स्यूं ३१ विकल्प२५. च्यारे भागे करतां थकां, इक पास परमाणआ तीन हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशियो, इम चिहुं भाग सुचीन हो, गोतम ! २६. तथा इक पासे दोय परमाणुआ,द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! इक पास संख प्रदेशियो, ए विकल्प द्वितीय विमास हो, गोतम ! २७. अथवा एक पासे हुवै, बे परमाणु सुविशेष हो, गोतम ! इक पासे तीन प्रदेशियो, इक पास संखेज प्रदेश हो, गोतम ! १५. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । १६. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । १७. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । १८. एवं जाव अहह्वा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ ___ दसपएसिए खधे, एंगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । १६. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो संखेज्ज पएसिया खंधा भवंति। २०. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेज्ज पएसिया खंधा भवंति । २३. एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । २४. अहवा तिण्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । २५. चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । २६. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । २७. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ। २८. एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ। २९. अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवति । २८. इम यावत एक पासे हवै, परमाण बे सुविशेष हो, गोतम ! इक पासे दश प्रदेशियो, इक पास संखेज प्रदेश हो, गोतम ! २६. अथवा एक पासे हुवै, परमाणु पुद्गल दोय हो, गोतम ! इक पास संख्यात प्रदेशिया, तास खंध बे होय हो, गोतम ! १. २१ वीं और २२ वीं गाथाएं जिस पाठ के आधार पर लिखी गई हैं, वह पाठ अंगसुत्ताणि भांग २ में नहीं है । संभवत: जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में दो विकल्पों का पाठ और रहा होगा। श०१२, उ०४, ढा० २५५ ३३ Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. अथवा इक पास परमाणुओ, द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम! ३०. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए. इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हवै बे तास हो, गोतम ! खंधे, एगयओ दो सखेज्जपएसिया खंधा भवति । ३१. इम जाब इक पास परमाणओ, दश प्रदेशिक इक पास हो, गोतम! ३१. जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध हवे बेतास हो, गोतम! दसपएसिए खंधे, एगयो दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ३२. अथवा एक पासे तस्, परमाणु पुद्गल होय हो, गोतम! ३२. अहवा एगयो परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि इक पास संख्यात प्रदेशिया खंध तीन हुवै सोय हो, गोतम ! संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ३३. अथवा एक पासे हवै, दोय प्रदेशिक खंध हो, गोतम ! ६३. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिण्णि इक पास संख्यात प्रदेशिया, तीन खंध तसु संघ हो, गोतम! संखेज्जपएसिया खंधा भवंति। ३४. इम यावत एक पासे तथा, दश प्रदेशिक खंध होय हो, गोतम ! ३४. जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खधे, एगयओ इक पास संख्यात प्रदेशिया, तीन खंध हवै सोय हो, गोतम ! तिण्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ३५. अथवा संख्यात प्रदेशिया, खंध ह च्यार जगीस हो, गोतम! ३५. अहवा चत्तारि संखेज्जपएसिया खंधा भवति । च्यारे भागे हुवै तेहनां, भंग क ह्या इकतीस हो, गोतम ! पांच भाग स्यूं नौ भाग तक क्रमशः ४१, ५१, ६१, ७१ और ८१ विकल्प३६. इम इण अनुक्रमे करी, पंच संयोगिक पेख हो, गोतम ! ३६-३८. एवं एएणं कमेणं पंचग गंजोगो विभाणियब्बो एक चालीस भांगा तसु, करिवा विधि सुविशेख हो, गोतम ! जाव नवगसंजोगो। ३७. षट भागे हुवै तेहनां, भंग एकावन सोय हो, गोतम ! सप्त भागे हुवै जेहना, इकसठ भांगा होय हो, गोतम ! ३८. आठे भागे हुवै तसु, एकोत्तर अवधार हो, गोतम ! नव भागे हवै तेहनां, भंग इक्यासी विचार हो, गोतम ! दस भाग स्यूं ९१ विकल्प३६. दश भागे हुवै तेहनां, विकल्प एकाणं थाय हो, गोतम ! ते इह रीत कहीजिय, सांभलज्यो चित ल्याय हो, गोतम ! ४०. इक पासे नव परमाणुआ, फुन इक पासे पेख हो, गोतम ! ४०. दसहा कज्जमाणे एगयओ नव परमाणुपोग्गला, खंध संख्यात प्रदेशियो, ए धुर विकल्प पेख हो, गोतम ! एगयओ संखेज्जपएसिए खधे भवइ । ४१. तथा इक पासे अष्ट परमाणु, द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ४१. अहवा एगयओ अट्ठ परमाणुपोग्गला, एगयओ इक पासे संख प्रदेशियो, विकल्प द्वितीय विमास हो, गोतम ! दुपएसिए, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ४२. इम इण अनुक्रमे करी, एक-एक अवलोय हा, गोतम ! पूरवो अधिक संचारवो, करवा विचारी सोय हो, गोतम ! ४३. जावत अथवा जाणवो, दश प्रदेशिक एक पास हो, गोतम ! ४३. जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ नव एक पासे संख आखिया, खंध कह्या नव तास हो, गोतम ! संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ४४. अथवा दशं ही लीजिय, संख प्रदेशिक खंध हो, गोतम ! ४४. अहवा दससंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । दश भागे करै तेहनां, भांगो एकाणुमो संध हो, गोतम ! ४५. दश भागे हवे तेहनां कह्या, भंग एकाणु एह हो, गोतम ! ४५. दशधात्वे ९१ संख्यातभेदत्वे त्वेक एव विकल्पः। संख्याते भागे तसु, भांगो एकज लेह हो, गोतम ! ४६. संख्यात प्रदेशिक खंध नां, च्यार सौ साठ ए भंग हो, गोतम ! छेहलो भांगो तेहनों, करिवो एम प्रसंग हो, गोतम ! ४७. भाग संख्यात करतां थकां, परमाणु संख्याता होय हो, गोतम! ४७. संखेज्जहा कज्जमाणे संखेज्जा परमाणुपोग्गला संख्यात प्रदेशिया खंध नों, वर्णन आख्यो सोय हो, गोतम ! भवति । (श० १२६७८) सख्यात प्रतिसु, भांग भग एकाण ३४ भगवती जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्यातप्रदेशिकस्य द्विधाभेदे ११, विधाभेदे २१, चतुर्धाभेदे ३१, पंचधाभेदे ४१, षोढात्वे ५१, सप्तधात्वे ६१, अष्टधात्वे ७१, नवधात्वे ८१, दशधात्वे ९१, संख्यातभेदत्वे त्वेक एव विकल्पः । (वृ० ५० ५६६) संख्यात प्रदेशिया नी स्थापना, द्विधा- ११ विधा- २१ चतुर्धा- ३१ पंचधा- ४१ षड्ढा- ५१ सप्तधा- ६१ अष्टधा- ७१ नवधा- ८१ दशधा- ६१ संख्यातधा-१ एवं सर्व- ४६० असंख्यात प्रदेशिया खंध नां भांगा ५१७४८. हे प्रभ! असंख परमाणआ, मिलियां थकां स्यू होय हो? प्रभुजी! असंख्यात प्रदेशिक खंध है, ए जिन उत्तर जोय हो, गोतम ! ४८. असंखेज्जा णं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति. साहण्णित्ता किं भवइ ? गोयमा! असंखेज्जपएसिए खंधे भव। ४९. से भिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि, संखेज्जहा वि, असंखेज्जहा वि कज्जइ ४६. ते खंध भेदीजतां छतां, बिहं भागे हुवै सोय हो, गोतम! यावत दश भागे हवै संख्यात, असंख्यात जोय हो, गोतम ! दो भाग स्यूं १२ विकल्प५०. बिहं भागे करतां थकां, परमाणु इक पास हो, गोतम ! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हवै छै तास हो, गोतम ! ५१. इम यावत एक पासे तथा, दश प्रदेशिक खंध होय हो, गोतम! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हुवे छ सोय हो, गोतम ! ५२. अथवा एक पासे तस्, संख्यात प्रदेशियो खंध हो, गोतम ! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हवै छै संध हो, गोतम! ५३. अथवा असंख प्रदेशिया खंध होवे तस दोय हो, गोतम! दोय भागे हुवै तेहनां, द्वादश भांगा होय हो, गोतम ! तीन भाग स्यूं २३ विकल्प५४. तीन भागे करतां थका, इक पास परमाणु दोय हो, गोतम ! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हुवै छै सोय हो, गोतम ! ५५. अथवा इक पास परमाणुआ, द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हवै छै तास हो, गोतम! ५६. इम यावत एक पासे तथा, परमाण पुदगल तास हो, गोतम ! एक पास दश प्रदेशियो, असंख प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ५०. दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणपोग्गले, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ५१. जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खधे भवइ, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ५२. अहवा एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे. एगयो असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ। ५३. अहवा दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवति । ५४. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ५५. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ। ५६. जाव अहवा एगयओ परमाणपोग्गले. या दसपएसिए खंधे, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ५७. अहवा एगयओ परमाणपोग्गले. एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ । ५८. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो असंखेज्ज पएसिया खंधा भवंति । ५०. अथवा इक पास परमाणओ, संख प्रदेशिक पास हो, गोतम! इक पास असंख प्रदेशियो खंध हुवै छै तास हो, गोतम ! ५८. अथवा इक पास परमाणओ, एक पासे अवलोय हो, गोतम ! असंख्यात प्रदेशिया खंध हुवै छै दोय हो, गातम ! श० १२, उ०४, ढा०२५५ ३५ Jain Education Intemational cation Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. अथवा इक पासे दोय प्रदेशियो, फुन इक पासे जोय हो, गोतम ! असंख प्रदेशिक खंध बे, एतेरमों विकल्प होय हो, गोतम ! ६०. इम यावत वा एक पास ही संख्य प्रदेशिक सोय होत ! इक पास असंख प्रदेशिया बंध हुवै छै दोय हो, गोतम ! ६१. अथवा असंख प्रदेशिया बंध हुवै तसु तीन हो, गोतम ! तीने भागे हुवै तेहनां भंग तेबीस सुचीन हो, गोतम ! प्यार भाग स्यूं ३४ विकल्प - ६२. इक पास तीन परमाणुआ, एक पासे अवलोय हो, गोतम ! असंख्यात प्रदेशियो बंध हुवे सोय हो, गोतम ! ६३. भंगा चउक्क संजोगिया, यावत दश संयोग हो, गोतम ! ए जिम संख प्रदेशिक नां कह्या, तिमहिज कहिवो प्रयोग हो, गोतम ! असंसेज पद एक हो, गोतम ! चरम भंग हिव देख हो, गोतम ! असंल प्रदेशिया बंध हो गोतम ! दश हवेचे तेहनां चरम भंग ए संबंध हो, गोतम ! ६६. चउतीस चक्क संजोगिया, पंच संयोगि पैताल हो, गोतम ! छप्पन छह संयोगिया, भांगा कहिया भाल हो, गोतम ! ६७. सतसठ सप्त संयोगिया, अनंतर अठ गोतम ! निव्यासी नव संजोगिया सी भंग दश गोतम ! ६४. वरं इतरो विशेष है अधिको भणवो इहां, ६५. बावत अथवा जागिये, संयोग हो, संजोग हो, संख्यात भाग स्यूं १२ विकल्प - ६८. संख्याते भागे करतां बकां एक पास परमाणु संख्यात हो, गोतम ! एक पासे असंख प्रदेशियो खंध हुवै छे विख्यात हो, गोतम ! ६९. अथवा एक पासे तसु, द्विप्रदेशिक तास हो, गोतम ! संख्याता बंध हवे असे असंख प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ७०. इम यावत एक पासे तथा, दश प्रदेशिक तास हो, गोतम ! तेह संख्याता हुने अझै असंखप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ७१. अथवा एक पासे तसु संख प्रदेशिक तास हो, गोतम ! संख्याता खंध हुवै अछे, असंख प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ७२. अथवा असंखप्रदेशिया खंध संख्याता होय हो, संख्यात भागे हुवे तेहनां द्वादश भंग ए जोय हो, असंख्यात भाग स्यूं १ विकल्प - गोतम ! गोतम ! ७३. असंख्याते भागे करता थकां असंख्यात अवलोय हो, परमाणु पुद्गल हुवे ए इक भंगो जोय हो, असंख्यात प्रदेशिया नीं स्थापना विधा त्रिधा ३६ भगवती जोड़ १२ २३ चतुर्धा - ३४ ४५ पंचधाषड्ढा- ५६ सप्तधा ६७ - गोतम ! गोतम ! ५९. बहवा एमओ दुपएसिए बंधे, एगपओ दो असंखेज्जएसिया खंधा भवंति । १०. एवं जान हवा एग संवेएसए बंधे एगजो दो असंवेज्जाचा भवति । ६१. अहवा तिणि असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ६२. मागे एगपत्री तिष्णि परमाणुपोग्ला एगयओ असंखेज्जपए सिए बंधे भवइ । ६३. एवं चउक्कग संजोगो जाव दसगसंजोगो । एए जहेव एपिस ६४. नवरं -- असंखेज्जगं एवं अहिगं भा णयव्वं । ६५. जाव अहवा दसअसंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ६८. संखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्ला, एगो असिए बंधे भव । ६९. संवे दुपएसिया बंधा एवम अपएसए बंधे भव ७०. एवं जाव अहवा एगयओ संखेज्जा दसपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए बंधे भवइ । ७१. हवा एनपी संवेगपएसिया बंधा एगयओ असंखेज्जपए सिए बंधे भवइ । ७२. अहवा संखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । ७२. असा कजमार्ग असं परमाणुषोमला भवंति । ( श० १२/७९ ) असंख्यातप्रदेशिकस्य तु द्विधाभावे १२, त्रिधात्वे २३, चतुर्द्धात्वि ३४, पञ्चधात्वे ४५ षोढात्वे ५६, सप्तधात्वे ६७, अष्टधात्वे ७८ नवधात्वे ८९, दशभेदत्वे १०० संख्यात भेदत्वे द्वादश, असंख्यातभेदकरणे त्वेक एव । (५० ५० ५६६) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टधा-- ७८ नवधा- ८६ दशधा- १०० संख्यातधा-१२ असंख्यातधा-१ एवं सर्व-५१७ ७४. प्रभ ! अनंत परमाण एकठा, मिलियां थकां स्यूं संध हो, प्रभुजी ! ७४. अणंता णं भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, था जिन भाखै गोयमा! हवे अनंतप्रदेशिक खंध हो, गोतम ! साहण्णित्ता कि भवइ? गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ। ७५. ते खंध भेदीजतां थकां, बे त्रिण भागे जोय हो, गोतम ! ७५. से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि जाव दसहा वि जाव दश संख असंख ही, अनंत भागे पिण होय हो, गोतम! संखेज्जहा वि असंखेज्जहा वि अणंतहा वि कज्जइ दो भाग स्यूं १३ विकल्प७६. बिलं भागे करतां थकां, परमाण एक पास हो, गोतम ! ७६. दहा कज्जमाणे गयो इक पासे अनंत प्रदेशियो खंध हुवै छै तास हो, गोतम ! अणंतपएसिए खंधे भवइ । ७७. एवं जाव तथा तस्, अनंत प्रदेशिक खंध हो, गोतम ! ७७. जाव अहवा दो अणंतपएसिया खंधा भवति । ___ दोय हुवै छै तेहना, तेर भंगा इम संध हो, गोतम ! तीन भाग स्यू २५ विकल्पतीने भागे करतां थकां, एक पास परमाणु दोय हो, गोतम ! ७८. तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणपोग्गला, एगयो इक पास अनंत प्रदेशियो खंध हुवै छै सोय हो, गोतम ! अणंतपएसिए खंधे भवइ। ७६ अथवा इक पास परमाणओ, द्विप्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ५९. अरवा एगो Trimum इक पास अनंत प्रदेशियो खंध हुवै छै तास हो, गोतम ! ५०. यावत एक पासे तथा, परमाणु पुद्गल तास हो, गोतम ! ८०. जाव अह्वा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ इक पास असंख प्रदेशियो, अनंत प्रदेशिक इक पास हो, गोतम! असखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ । ८१. अथवा इक पास परमाणओ, एक पास वलि सोय हो, गोतम ! ८१. अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो अणंत खंध अनंत प्रदेशिया, ते पिण ह तसू दोय हो, गोतम ! पएसिया खंधा भवति । २. अथवा एक पासे तसू, द्वि प्रदेशिक खंध होय हो, गोतम ! ८२. अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो अणंतइक पासे अनंत प्रदेशिया खंध ह तसु दोय हो, गोतम ! पएसिया खंधा भवति । ८३. इम यावत एक पासे तसू, दश प्रदेशिक खध होय हो, गोतम! ८३. एवं जाब अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ इक पासे अनंत प्रदेशिया खंध ह तसु दोय हो, गोतम ! दो अणंतपएसिया खंधा भवति । ८४. अथवा एक पासे तसु, संखेज प्रदेशिक होय से तसु, सखेज प्रदाशक हाय हा, गातम ! हो, गोतम ! ८४. अहवा एगयो संखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ दो इक पास अनंत प्रदेशिया खंध हवै छै दोय हो, गोतम ! अणंतपएसिया खंधा भवति । ८५. अथवा एक पासे तसु, खंध असंख प्रदेशिक होय हो, गोतम ! ८५. अहवा एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ दो इक पास अनंत प्रदेशिया खंध हुवे छ दोय हो, गोतम! अगंतपएसिया खंधा भवंति । ८६. अथवा अनंत प्रदेशिया खंध हवे तसु तीन हो, गोतम! ८६. अहवा तिणि अणंतपएसिया खंधा भवति । तोन भागे हुवै तेहनां, पंचबोस भंग चीन हो, गोतम ! च्यार भाग स्यूं ३७ विकल्प८७. च्यारे भागे करतां थकां, त्रिण परमाणु इक पास हो, गोतम! ८७. चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, इक पास अनंत प्रदेशियो खंध हवै छै तास हो, गोतम ! एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ । श० १२, उ० ४, ढा० २५५ ३६ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. एवं चउक्क संयोगिया, जाव असंख संयोग हो, गोतम ! ___ ए सहु जिमहिज आखिया, असंख प्रदेश नां जोग हो, गोतम! ८८. एवं च उक्कसंजोगो जाव असंखेज्जगसंजोगो। एते सव्वे जहेव असंखेज्जमाणं भणिया। ८९. तहेव अणंताण वि भाणियध्वं । ९०. नवरं-एक्कं अणंतगं अब्भहियं भाणितब्वं । ९१. जाव अहवा एगयओ संखेज्जा संखेज्जपए सया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ । ९२. अहवः एगयओ संखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ । ९३. अहवा संखेज्जा अणंतपएसिया खंधा भवंति । ८६. तिमहिज अनंत प्रदेश नां, विकल्प भणवा ताय हो, गोतम ! कांयक फेर छै इह विषे, आगल ते कहिवाय हो, गोतम ! ६०. णवरं विशेष छ एतलो, एक अनंत पद जाण हो, गोतम ! अधिको कहिवो छै इहां, हिव भंग छेहला पिछाण हो, गोतम ! ६१. यावत वा इक पास ही, संख्यात प्रदेशिया तास हो, गोतम ! संख्याता खंध हुवं अछ, अनंत प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ६२. अथवा एक पासे हुवै, संख्याता सुविमास हो, गोतम ! खंध असंख प्रदेशिया, अनंत प्रदेशि इक पास हो, गोतम ! ६३. अथवा अनंत प्रदेशिया, खंध हवै संख्यात हो, गोतम ! संख्याते भागे हुवै तेहनां, ए भंग द्वादश थात हो, गोतम ! असंख्यात भाग स्यू १३ विकल्प - ६४. असंख्याते भागे करतां थकां, एक पासे हुवै तास हो, गोतम ! परमाणु असंख्याता तसु, अनंत प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ६५. अथवा एक पासे तसु, द्वि प्रदेशिक खंध तास हो, गोतम ! असंख्याता हुवै अछ, अनंत प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ६६. यावत एक पास तथा, असंख्याता खंध तास हो, गोतम ! संखेज प्रदेशिया हवै, अनंत प्रदेशिक इक पास हो, गोतम ! ६७. अथवा एक पासे तसु, असंख्याता सुविमास हो, गोतम ! असंख प्रदेशिक खंध ह, अनंत प्रदेशिक इस पास हो, गोतम ! १८. अथवा एक पासे तसु, असंख्याता अवलोय हो, गोतम ! ___ अनंत प्रदेशिक खंध ह्व, ए भंग तेरमों जोय हो, गोतम ! अनन्त भाग स्यूं १ विकल्प - ६६. अनंत भाग करतां थकां, अनंत परमाणु होय हो, गोतम ! अनंत भेदे हुवै तेहनों, ए इक भंगो जोय हो, गोतम ! १००. अनंत प्रदेशिया खंध नां, बे भागे भंग तेर हो, गोतम ! त्रिण भागे करतां थका, पंचवीस भंग हेर हो, गोतम ! १०१. सैतीस चउक्क संयोगिया, पंच भेदे गुणचास हो, गोतम ! षट भेदे इकसठ हुवै, सप्त भेदे तीहोत्तर तास हो, गोतम ! १०२. पच्यासी अष्ट भेदे हुवै, नव भेदे सत्ताणू होय हो, गोतम ! दश भेदे एकसौ नव हुवै, करिवा विचारी सोय हो, गोतम ! १०३. संख्याते भेदे बारै हुवं, असंख्याते भेदे तेर हो, गोतम ! अनंत भागे हुवै तेहनों, ए इक भंगो हेर हो, गोतम ! १०४. अनंत प्रदेशिया खंध नां, ए सह भांगा आख्यात हा, गोतम ! पांचसौ पिचंतर कह्या, विवरा शुद्ध विख्यात हो, गोतम ! अनंत प्रदेशिया नी स्थापना द्विधा- १३ त्रिधा- २५ चतुर्धा- ३७ ९४. असंखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ असंखेज्जा परमाणु पोग्गला, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ । ९५. अहवा एगयओ असंखेज्जा दुपए सिया खंधा, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ। ९६. जाव अहवा एगयओ असंखेज्जा संखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ अगंतपएसिए खंधे भवइ । ९७. अहवा एगपओ असंखेज्जा असंखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ अगंतपएसिए खंधे भवइ । ९८. अहवा असंखेज्जा अणंतपएसिया खंधा भवति । ९९. अणंतहा कज्जमाणे अगता परमाणुपोग्गला भवंति । (श० १२।८०) १००. अनन्तप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे १३ त्रिधात्वे २५ । (वृ० ५० ५६६) १०१. चतुर्द्धात्वे ३७ पञ्चधात्वे ४९ षडविधत्वे ६१ सप्तधात्वे ७३। (वृ० ५० ५६६,५६७) १०२. अष्टधात्वे ८५ नवधात्वे ९७ दशधात्वे १०९ (वृ०प०५६७) १०३. संख्यातत्वे १२ असंख्यातत्वे १३ अनंतभेदकरणे त्वेक एव विकल्पः। (वृ० ५० ५६७) ३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधा- ४६ षड्ढा- ६१ सप्तधा- ७३ अष्टधा- ८५ नवधा- '६७ दशधा - १०६ संख्यातधा - १२ असंख्यातधा - १३ अनंतधा १ एवं सर्व - ५७५ दश लगे - १२५ संख्याता लगे - ४६० असंख्याता लगे - ५१७ अनंता लगे --- ५७५ एवं सर्व- १६७७ भांगा थया । चउथा उद्देशा नों देश हो, आगल बात कहेस हो, आखो ढाल उदार हो, गोतम ! भिक्षु भारीमा ऋषिराय थी, 'जय जय' हरण अधार हो, गोतम ! १०५. शतक बारमानों कह्यो, चय उद्देश बाकी रह्यो, १०६. दोसो ने पचायनमों ढाल : २५६ पुद्गल परावर्तन पद १. पुद्गल नों जे एकठो, वे भागादिक करि तमु, कहा भेद २. बिहुं आश्री पूछे वहा मिलवं तिण हिये, परमाणु ने साहन संचालन मिलन, भेदवियोजन ३. ए बिहु नो अनुपात सगला पुद्गल द्रव्य ४. परमाणू पुद्गल तास विजोग करी पूर्व गोतम ! गोतम ! कहाय । ताय ॥ स्वाम | पाम || जे योग करीनें ताय । कहाय ॥ तमु संघात तणो, संजोगे करि थात । वली, पुद्गल द्रव्य संघात || ५. अनंत अनंता 1 ह्वं अर्थ, पुद्गल - परिवर्तन पुद्गल द्रव्य संघात जे परमाणुआ मिलन ? ६. जिन कहै हंता गोयमा ! परमाणुआ विख्यात । तास संजोग विजोग करि पुद्गल द्रव्य संघात || २- ४. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाए 'साहणणाभेयाणुवाएणं' ति 'साहणण' त्ति..' संहननं- संघातो भेदश्व वियोजनं तपो पातो-योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः । ( वृ० प०५६८ ) ५. अनंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा भवतीति मक्खाया ? ९. ता गोयमा एएस में परमाणुपला सागणा मेदाबा श० १२, उ०४, डा० २५५ ३९. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अनंत-अनंता ह अछ, पुद्गल-परिवर्तन । अन्य जिने पिण आखिया, तेह जाणवा मन ।। ८. परावर्त्त-पुद्गल हिवै, कहियै छै इहवार । श्रोता! चित दे सांभलो, जिन वच अधिक उदार।। ७. अणंताणता पोग्गलपरियट्टा समणगंतव्वा भवंतीति मक्खाया। (श०१२।८१) ८. अय पुद्गलपरावर्तस्यैव भेदाभिधानायाह (वृ० ५० ५६८) ९. 'पुग्गलपरियट्ट' त्ति पुद्गलैः पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ताः-परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः। (वृ० ५० ५६८) सोरठा ६. पुद्गल द्रव्य कर साथ, बहु परमाणू नों मिलन । तेह प्रते आख्यात, परावर्तन-पुद्गल प्रगट ।। __ *वीर जिनेंद्र कहै सुण गोयमा ! [ध्रुपदं] १०. पुद्गल-परावर्त भगवंत जी ! कांइ आख्यो किते प्रकार? जिन कहै सप्त प्रकार परूपियो, ते सांभलज्यो विस्तार । ११. ओदारिक शरीर विषे जीव वर्त्तता, ओदारिक तनु प्रयोग। जे द्रव्य ते ओदारिकपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए ओदारिक परावर्त-पुद्गल कह्यो । १०. कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते तं जहा११. ओरालियपोग्गलपरियटे। 'ओरालियपोग्गलपरियट्टे' त्ति औदारिकशरीरे वर्तमानेन जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्यद्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसाबौदारिकपुद्गलपरिवर्तः । (व०प० ५६८) १२. वेउवियपोग्गलपरियट्टे । १३. तेयापोग्गलपरियटे। १४. कम्मापोग्गलपरियट्टे । १५. मणपोग्गलपरियट्टे । १६. वइपोग्गलपरियट्टे । १२. वैक्रिय शरीर विषे जीव वर्त्तता, कांइ वैक्रिय तनु प्रयोग। जे द्रव्य ते वैक्रिय शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त वैक्रिय कह्यो। १३. तेजस शरीर विषे जीव वर्त्ततां, कांइ तेजस तनु प्रयोग। जे द्रव्य तेजस शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त तेजस कहो।। १४. कार्मण शरीर विष जीव वर्त्ततां, कांइ कार्मण तनु प्रयोग । जे द्रव्य कार्मण शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त कार्मण कहो। १५. मन नै जे विषे जीव वर्त्ततां थकां, कांइमन प्रायोग्य पिछाण । जे द्रव्य छै तेहनै मनपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त मन जिन कहो।। १६. वचन नै विषे जीव वर्त्ततां थकां, कांइवचन प्रायोग्य विशेख। जे द्रव्य छै तेहने वचनपणे करी, समस्तपणे ग्रहै पेख । ए पुद्गल-परावर्त्त वच जिन कह्यो ।। १७. आन अरु पान विषे जीव वर्त्ततां, कांइ आन रु पान प्रायोग। जे द्रव्य आन रु पानपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए आन रु पान पुद्गल-परावर्त कह्यो। हिवै चउवीस दंडक आश्री पुदगल-परावर्त १८. नारक मैं किते प्रकार कह्यो, प्रभ! पुदगल-परावर्त पिछान? जिन कहै सप्त प्रकार परूपियो, ते सांभलजे सूविधान । श्री वीर जिनेंद्र कहै सुण गोयमा ! ]॥ १६. ओदारिक परावर्त्त-पुद्गल वलि, कांइ जाव उस्सास निस्वास। ए सप्तविध परावत्तं-पुद्गल कह्या, इम जाव विमानिक तास।। *लय : वीर जिनेश्वर सुणज्यो मोरी बीनती ४० भगवती जोड़ १७. आणापाणुपोग्गलपरियट्टे । (श० १२०८२) १८. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णते। १९. तं जहा-ओरालियपोग्गलपरियट्टे....... " जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे। एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १२१८३) Jain Education Intemational Education International Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा संसार में। २०. नारक प्रमुख विचाल, आदि रहित विचाल आदि रहित प्रकार, परावर्तन- पुद्गल भमता सप्त का ॥ २१. *इक इक नारक नैं भगवंत जी ! किया गया काल है मांय । ओदारिक परावर्त्त पुद्गल किता ? जिन कहै अनंता थाय ॥ To - अतीत काल में अनंता पुद्गल परावर्त्तन जाणवा । ते अतीत काल नैं अनादिपण थकी अनं जीव ने अनादिपणां थकी । वलि अनेरा-अनेरा पुद्गल ग्रहण सरूपपणां थकी । २२. काल आगमिये करिस्ये केतला ? तब भाखे श्री जिनराय । कोइक नैं परावर्त्त पुद्गल अछे, कोइक नैं कहिये नांय ॥ सोरठा २३. कोई एक जे जीव, दूर अथवा अभव्य अतीव जसु २४. कोइक नें पहियाण, परावर्त-पुद्गल नरक थकी जे जाण, नीकल नर भव' शिव २५. भव संख्यात करेह, तथा असंख भवे शिव गति जास्ये तेह, तेहने पिण परावर्त भव्य शिव दूर तसु । पुद्गल परावर्त - छे । २६. काल अनंतो होय, परावर्त्त-पुद्गल तणो । तिण कारण अवलोय, भव अनंत कह्या इहां ॥ २७. *पुद्गल - परावर्त्त जेहनें अछे, इक बे त्रिण जघन्य निहाल । उत्कृष्ट संख असंख अनंत ही, करिस्ये आगमिये काल || हिवे असुरकुमार साथी क २८. इक इक असुर त भगवंत जी ! किया गया काल रे मांय । ओदारिक परावल किया। इस नरक जेम कहियाय ।। परावर्त्त ! २६. एवं यावत वैमानिक लग सहु, कांइ काल अनागत हुंत । जेहनें है इक वे त्रिण तसु जघन्य थी, उत्कृष्टसं असंल अनंत ।। हि वैक्रिय शरीर आश्री कहे छे नथी। हुये ॥ ३०. इक इक नारक नैं भगवंत जी ! थया गया काल रे मांहि । वैक्रिय परावर्त्त- पुद्गल किता ? जिन कहै अनंता ताहि ॥ ३१. इम जिम ओदारिक पुद्गल-परावर्त कह्या *सप वीर जिनेश्वर सुन्यो मोरी वीनती करी । नहीं ।। तिम वैक्रिय पिण भणवा तास । एवं यावत वैमानिक लग सहु, इम जाव उस्सास निस्वास ॥ ३२. एनारक प्रमुख एक वचने कह्या, ओदारिकादि सप्त प्रकार। पुद्गल विषयपणां भी हूं जिको कांई दंडक सप्त विचार ॥ चवीस दंडक में सप्त सप्त हुवै ॥ १. हस्तलिखित प्रति में यहां भव्य शब्द है । २०. 'नेरइयाणं' ति नारकजीवानामनादौ संसारे संसरता सप्तविधः परावतः प्रज्ञप्तः (० प० ५६० २१. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया ओरालियपोमलपरियट्टा अतीता ? वगता वा० - ' एगमेगस्सेत्यादि, अतीतानन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्य जीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुद्गलग्रहणस्वरूपत्वाच्चेति । ( वृ० प० ५६८ ) २२.? कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि । 'पुरक्खडे' ति पुरस्कृता भविष्यन्तः । ( वृ० प० ५६८ ) २३. 'कस्सइ अस्थि' त्ति कस्यापि जीवस्य दूरभव्यस्याभव्यस्य वा ते सन्ति । ( वृ० प० ५६८ ) २४. कस्यापि न सन्ति उद्धृत्य यो मानुषत्वमासाद्य सिद्धि यास्यति । ( वृ० प० ५६० ) यः सिद्धि तस्यापि (पु०प०५६०) ( वृ० प० ५६८ ) २५. संख्येयर संख्येयैर्वा भवैर्यास्यति परिवर्त्तो नास्ति । २६. अनन्तकाल पूर्यत्वात्तस्येति । २०. जस्स जो एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्को सेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा । (० १२२८८) २८, २९. एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स केवइया ओरालियोलपरियट्टा (संपा.) एवं जेब जाव एवं जाव वैमाणियस्स । ( ० १२००५) ३०. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया वेउब्वियपोग्गल परियट्टा अतीता ? अनंता । २१. एवं हे ओरालिपपलपरियट्टा तहेव उब्वियपोग्गलपरियट्टावि भाणियव्वा । एवं जाव मायरस एवं जाय वाणापाणुपासपरियट्टा । ३२. एते एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति । 'एगत्तिय' त्ति ( ० १२००६) एकत्विकाः – एकनारकाद्याश्रयाः श०१२, उ० ४, ढा० २५६ ४१ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सत्त' त्ति औदारिकादि-सप्तविधपुद्गलविषयत्वात्सप्तदण्डकाश्चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति । (वृ० ५० ५६८) वा० --- एकत्वपृथक्त्वदण्डकानां चायं विशेषःएकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुद्गलपरावर्ताः कस्यापि न सन्त्यपि, बहुत्वदण्डकेषु तु ते सन्ति, जीवसामान्यश्रयणादिति । (वृ० ५० ५६८) वा० --हिवं चउवीस दंडके बहु वचन आश्री कहै छै । एक वचन बहुवचन दंडक नै विषे एतलो विशेष -एक वचन के विषे इक-इक नेरिया प्रमुख नीं पूछा। तेहनों उत्तर प्रभु दीधो । पुद्गल-परावर्न गये काल अनंता कीधा अनै आगमिये काले कोइ एक जीव करस्यै, कोइ एक जीव न करस्य, एहवू कह्य । अनै बहुवचने नेरिया प्रमुख नै पुदगल-परावर्त गये काल अनंता कीधा अनै मागमिये काले अनंता करस्येज । जीव सामान्य आश्रयण थकी एहवं भाव कहै छै३३. बह वच नारक ने भगवंत जी ! थया गया काल रै मांहि । ओदारिक परावर्त-पुद्गल किता? जिन कहै अनंता ताहि ।। ३३. नेरइयाणं भंते ! केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? अणंता। ३४. केवइया पुरेक्खडा? अगंता । एवं जाव वेमाणियाणं । ३५. एवं बेउब्वियपोग्गलपरियट्टावि । एवं जाव आणा पाणुपोग्गलपरियट्टा वेमाणियाणं । एवं एए पोहत्तिया सत्त चउव्वीसतिदंडगा। (श० १२१८७) ३४. काल आगमिये करिस्य केतला? जिन कहै अनंता थाय । एवं यावत वैमानिक लग सह, बह वचनारक समुदाय ।। ३५. एवं वैक्रिय पुद्गल-परावर्त्त छै, इम जाव उस्सास निस्वास। पुद्गल-परावर्त ए सातमों, कांइ वैमानिक नैं तास ।। इम पृथक' सप्त चउवीस दंडका ।। वा०-इम ए बहु वचने औदारिकादि पुद्गल-परावर्त्त सप्त प्रकारे चउवीस दंडक नै विषे हुवे, ते माट चउवीस दंडका कह्या । ३६. इक-इक नारक ने भगवंत जो ! कांइ नरकपणे वर्तमान । ओदारिक परावर्त-पुद्गल किता थया गया काल में जान? ३७. जिन कहै इक पिण तिहां हुवो नहीं, कांइ नरकपणे वर्तमान। ओदारिक पुद्गल ग्रहण करै नहीं, तेहथी इक पिण नहीं जान।। ३८. काल अनागत करिस्यै केतला? जिन कहै एक पिण नांय । आगल पिण नरकपणे वर्तमान में, ओदारिक द्रव्य न ग्रहाय ॥ ३६. इक-इक नारक नै भगवंत जी! कांइ असुरपणे वर्तमान । औदारिक परावर्त-पुद्गल किता थया गया काल में जान ? ४०. जिन कहै इक पिण तिहां हुओ नहीं, वलि आगल पिण नहिं हंत। __यावत इम थणियकुमारपणे तसु, जिम असुरपणे तिम मंत।। ४१. इक-इक नारक में भगवंत जी! कांइ पृथ्वीपणे वर्तमान । औदारिक परावर्त्त-पुद्गल किता थया गया काल में जान? ४२. श्री जिन भाखै इक-इक नरक नें, कांइ पृथ्वीपणे पिछाण। ओदारिक परावर्त्त-पुद्गल थया, कांइ वार अनंती जाण ।। ४३. काल आगमिये करसी केतला? जिन कहै कोइक नै थाय । कोइक नै नहीं ह ते पृथ्वीपणे विण ऊपजियां शिव पाय ।। ४४. पुद्गल-परावर्त जेहनै अछ, तसु जघन्य एक बे तीन । उत्कृष्ट संख असंख अनंत है, करिस्य कर्मी वस दीन ।। ४५. इमहिज यावत मनुष्यपणे अछ, व्यंतर जोतिषि विचार । वैमानिकपणे ओदारिक केतला?जिम असुरपणे तिम धार।। ३६. एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? ३७. नत्थि एक्को वि। __'नत्थि एक्कोवि' त्ति नारकत्वे वर्तमानस्यौदारिक पुद्गलग्रहणाभावादिति । (वृ० ५० ५६८) ३८. केवतिया पुरेक्खडा? नत्थि एक्को वि। (श० १२१८८) ३९. एगमेगस्स णं भते। नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? ४०. एवं चेव । एवं जाव थणियकुमारत्ते । (श० १२।८९) ४१. एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविक्काइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? ४२. अणंता। ४३. केवतिया पुरेक्खडा ? कस्सइ अत्थि, कस्सइ नत्थि । ४४. जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा, दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । ४५. एवं जाव मणुस्सते वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा असुरकुमारत्ते । (श० १२६९०) १. प्रत्येक ४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. इक-इक असुर जीव भगवंत जी! कांइ नारकपणे निहाल। ओदारिक परावर्त-पद्गल किता? कांइ गया काल में भाल ।। ४७. इम जिम नरक तणी कही वारता, तिम असुर तणी अवधार। जाव वैमानिकपणे विचारवो, इम यावत थणियकुमार ।। ४६. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा ? ४७. एवं जहा नेरइयस्स वत्तव्वया भणिया, तहा असुर कुमारस्स वि भाणियव्वा जाव वेमाणियत्ते । एवं जाव थणियकुमारस्स। ४८, एवं पुढविकाइयस्स वि । एवं जाव वेमाणियस्स । सव्वेसि एक्को गमो। (श० १२।९१) ४८. नारक असुर प्रश्न उत्तर कह्यो, तिम पृथ्वी नों पिण ईख । एवं यावत वैमानिक देव नों, प्रश्नोत्तर एक सरीख ।। हिवै चौबीस दण्डके वैक्रिय शरीर नों प्रश्न५६. इक-इक नारक में भगवंत जी ! कांइ नारकपणे अतीत । किया वैक्रिय परावर्त-पुद्गल किता? जिन कहै अनंत संगीत।। ४९. एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया वेउव्वियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? अणंता। ५०. केवतिया पुरेक्खडा? एकुत्तरिया जाव अणंता वा । ५०. काल आगमिये करिस्य केतला? तब भाख श्री भगवंत । एगुत्तरिया जाव अनंत वा, इक बे त्रिण जाव अनंत ।। सोरठा ५१. एगुत्तरिया आम, इण बचने करि जाणवं । किणहिक नै छै ताम, कोइक जीव करिस्यै नथी।। ५२. जेहनै छै तसु जाण, एक दोय त्रिण जघन्य थी। उत्कृष्टा पहिछाण, संख असंख अनंत वा ।। ५१,५२. 'एगुत्तरिया जाव अणंता व' त्ति अनेनेदं सूचितं --'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स जहन्नेणं एक्को वा दोन्नि वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा' इति । (वृ० ५० ५६८,५६९) ५३. एवं जाव थणियकुमारत्ते। (श० १२।९२) ५३. *इम यावत थणियकुमारपणे कह्यो, कांइ इक-इक नारक तेम। थणियकुमारपणे वैक्रियपणों, प्रश्नोत्तर नारक जेम ।। ५४. इक-इक नारक ते पृथ्वीपणे, जिन कहे अतीत न एक । काल अनागत पिण करिस्य नहीं, तिहां वैक्रिय अभाव पेख ।। ५५. इम जे दंडक में वैक्रिय तनु अछ, तिहां इक बे आदि अनंत । वायु तिर्यंच पंचेंद्रिय मनुष्य में, वले व्यंतर आदि कहंत ।। ५४. पुढविका इयत्ते-पुच्छा। नत्थि एक्कोवि । केवतिया पुरेक्खडा? नत्थि एक्को वि। ५५. एवं जत्थ वेउव्वियसरीरं तत्थ एकुत्तरिओ। यत्र वायुकाये मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु व्यन्तरादिषु च वैक्रियशरीरं तत्रैको वेत्यादि वाच्यमित्यर्थः । (वृ० ५० ५६९) ५६. जत्थ नत्थि तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा भाणियव्वं । ५६. अथवा जे दंडक में वैक्रिय नथी, कांइ ते दंडक रै मांहि । पृथ्वीकायपणे जिम आखियो, कांइ तिण विध कहिवं ताहि ।। सोरठा ५७. जिहां वैक्रिय नाहि, तेहिज दंडक मैं विषे । वैक्रिय पुद्गल ताहि, परावर्त्त नहिं छै तिहां ।। ५७. यत्राप्कायादी नास्ति वैक्रियं तत्र यथा पृथिवी कायिकत्वे तथा वाच्यं, न सन्ति वैक्रियपुद्गलपरावर्ता इति वाक्यमित्यर्थः । (वृ० ५० ५६९) ५८, जाव वेमाणियस्स माणियत्ते। ५८. *इमहिज जाव वैमानिक देव नैं, वैमानिकपणे कहाय । वैक्रिय तिहां एक बे आदि है, वैक्रिय नहिं तिहां न पाय ॥ ५६. तेजस अनैं कार्मण ए बिहुँ, पद्गल-परावर्त्त पिछाण । काल अतीत अनंत थया अछ, इक-इक नरकादिक जाण । ६०. आगल करिस्यै ते जेहन अछ, तेहनै एकादि अनंत । ए सहु नरक प्रमुख पद नैं विषे, पूरवली परे कहंत । *लय: बीर जिनेश्वर सुणज्यो मोरी वीनती ५९. तेयापोग्गलपरियट्टा कम्मापोग्गलपरियट्टा य सव्वत्थ एकुत्तरिया भाणियव्वा। ६०. तेजसकार्मणपुद्गलपरावर्ता भविष्यन्त एकादय: सर्वेषु नारकादिजीवपदेषु पूर्ववद् वाच्याः । (वृ०प०५६९) श० १२. उ० ४, ढा० २५६ ४३ Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. 'ए बिहु पुद्गल जंत, अतीत काल ६२. आगल करिस्यै इक वे प्रमुख ६३. ए बिहु पुद्गल पेख, ते शिव गमन ६४. तिण कारण कहिवाय, पिण ए दो सोरठा सर्व विषे तिण कारण । दंडके ॥ अनंत, कीधा छं सह जेहनें खं तेहने छै तेहनें तेह, करेह, कहिया अनंत ६५. मन लपवतं जिन आणियो सर्व पद्रिय दंडक आसरी, ६६. आगल करिस्यै ते जेहने अछे, आदि इक इक नारक दंडक विषे ६७. विलद्रिय विषे नयी जिनवर को, एकेंद्रिय पण ग्रहिवो ए न्याय छै, मन ७४. बहु वच नारक औदारिक परावर्त्त ७५. काल आगल जे विशेख अल्प भवे जेहनें छे तसु इक ताय दंडक चउवीसे * पर्यंत करिस्यं नथी । करि सीझस्यै ।। ६. पुद्गल-परावर्त्त बच इमज छे, एकेंद्रिय तेजस आदि परिवर्तन नीं परं नैं भगवंत जी ! किया केतला ? आगमिये करिस्यै केतला ? यावत मनुष्यपण इम जाणवा, तिहां लय: वीर जिनेश्वर सुणज्यो मोरी वीनती ४४ भगवती जोड़ कह्या । ए ॥ कांइ सर्व पंचेंद्रिय मांय गये काल अनंत कराय ॥ तेहनैं एकादि अनंत । पुरवली परे कहंत ॥ विकलेन्द्रिय पहियो सोय । पुद्गल तास न होय ॥ - ६२. आण अरु पाण परावतं युगला, कां गया काल है मांहि । नरकादिक बउवीस दंडक में विषे कांड किया अनंता ताहि ॥ ७०. आगल करिस्यै ते जेहनें अछे, तेहनें एकादि अनंत । विमानक ने विषे वैमानिकपणे कहंत ।। यावत एम सोरठा ७१. इक वच दंडक एह अर्थ इसी विध आखिया दंडक बहु वचनेह, कहिये छँ हिव आगले ॥ ७२. * वय नारक में भगवंत जी नारकपणे असीत ताहि । किया औदारिक परावर्त-पुद्गल किता ? जिन भाखे इक पिण नांहि || ७३. काल आगमिये करिस्यै केतला ? जिन कहै एक पिण नांय । यावत पणियकुमारपणां लगे, कांइ नारक जिम कहिवाय ॥ प्रमुख । हुवे ॥' (ज०स० ) विषे न एह । नरकादिक विषे बहे ॥ कांइ पृथ्वीपणें अतीत | जिन कहै अनंत संगीत ॥ जिन कहँ अनंता ताय । औदारिक कहिवाय ॥ ६५,६६. मणपोग्गलपरियट्टा सव्वेसु पंचिदिए एगुत्तरिय 'मणपोग्गले' त्यादि मनः - पुद्गल रावत पञ्चेन्द्रियेष्वेव सन्ति भविष्यन्तश्च ते एकोतरिका: पूर्ववद् वाच्याः । (बु०प०५६९) ६७. विगलिदिएसु नत्थि । 'विगलिदिए नत्यत्ति विद्रग्रह केन्द्रिया अपि प्राह्याः तेषामपीन्द्रियाणामसम्पूर्णत्वात् मनोवृतेश्वाभावाद् अतस्तेष्वपि मनः मुद्गलपरावर्त्ता न सन्ति । ( वृ० प०५६९) ६. पोलपरियट्टा एवं चे नवरे एगिदिए नत्थ भाणियव्वा । 'वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव' त्सि तेजसादिपरिवर्तवत्सर्वनारका दिजीवपदेषु वाच्याः नवरमेकेन्द्रियेषु वचनाभावान्न सन्तीति वाच्या: । ( वृ० प० ५६९) ६९, ७०. आणापाणुपोग्गलपरियट्टा सव्वत्थ एकुत्तरिया जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते । ( ० १२०९३) ७१. 'नेरइयाण' मित्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह ७२. नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते पोगलपरियट्टा अतीता ? नत्थि एक्कोवि । ७३. केवतिया पुरेक्खडा ? नत्व एक्कोवि एवं जाव ७४. पुढविका इयत्ते - पुच्छा। अनंता । (१० १० २६९) केवतिया ओरालिय नियकुमार ७५. केवतिया पुरेक्खडा ? अनंता । एवं जाव मणुस्सत्ते । ( श० १२/९४ ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. बहु वच नारक न व्यंतरपणे कोइ जोतिषोषणं पिछाण । वैमानिकपणे जेम नारकपणे, आरुयूँ तिम कहिं जाण ।। ७७. जावत वैमानिक जे देव ने वैमानिकपणे विचार । एवं सातू पिण पुदगल परियट्टा, कांइ भगवा जिन वच सार ॥ ७८. जेहने तिहां अतीतपणे कोइ आगल पिण है अनंत । जेहनें नहीं सिंहां अतीत अनागत, ते परावर्त नहीं हूंत ॥ बा० - इहां ए भावार्थ- नारकी नैं नारकीपण वैक्रिय शरीर छँ तो वैक्रिय पुद्गल - परावर्त्त नारकपणें अतीत अनागत बेहुं पृथक दंडक भणी अनंता कहिवा सामान्यपणे नारकी नां आश्रय थकी तथा नारकोपण औदारिक पुद्गल ग्रहवा नां अभाव थकी औदारिक पुद्गल - परावर्तन अतीत तथा अनागत एदोनूं नहीं इम सगल भावना करिवी । ! ७६. जाव वैमानिक जे देव ने वैमानिकपणे विचार आगापा पोग्गल परियह किता ? जिन कहे अनंता धार ॥ ८०. काल अनागत करिये केतला ? जिन पुद्गल परावर्त करिस्यै जिके, ए यह ८१. आख्यो ए देश बारमा तुर्य नों, बेसौ कहे अनंता जेह वचने करि लेह ॥ छपनमीं ढाल | भिक्षु भारीमाल राय प्रसाद थी, कांइ 'जय जय' मंगलमाल || ढाल : २५७ औदारिक आदि पुद्गल परावर्तनों स्वरूप सोरठा १. अथवा औदारिक आद, परावर्त्त पुद्गल तणो । स्वरूप प्रति संवाद कहिये देखाडवा अरथ ।। दूहा २. वलि गोतम पूछे अखे ओदारिक पुद्गल प्रभु ! ३. वीर प्रभू तिण जिन वच सरधे तेहनें, अवसरे, किण अर्थ कहियाय ? परावर्त ए ताय ।। उत्तर देव एम कुशल नैं खेम ॥ सदा * चित्त लगाय नैं सांभलै ॥ [ ध्रुपदं ] ४. जीव ओदारिक तनु रह्यो, ओदारिक प्रायोग्य हो, गोतम! ग्रहण करे सह द्रव्य ने गहियाई ग्रहे योग्य हो, गोतम ! *लय: स्वामी ! म्हारा राजा नै धर्म सुणावज्यो ७६. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते । ७७. एवं जाव वैमाणियाणं वेमाणियते । एवं सत्त वि पोगरपट्टा भागिया ७८. जत्थ अस्थि तत्थ अतीता वि पुरेक्खडा वि अनंता भाणियव्वा, जत्थ नत्थि तत्थ दोवि नत्थि भाणियव्वा । ७९. जाव परियट्टा अतीता ? अनंता । ८०. केवतिया पुरेक्खडा ? अनंता । ( श० १२/९५ ) से देवनिया आणापाशुपोमल १. अथौदारिकादिपुद्गलपरावर्त्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह— ( वृ० प० ५६९ ) (3TO PRISE) २. से केणट्ठेण भंते ! एवं वुच्चइ -ओरालियपोग्गलपरिय- मोरासियोपरि ? ४५. गोयमा ! जणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालि यसरीरपायोग्गाई दव्बाई ओरालिय सरीरत्ताए गहियाई बढाई J श० १२, उ० ४, ढा० २५६, २५७ ४५ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ते ओदारिक तनुपणे, ग्रह्या करया अंगीकार हो, गोतम ! बंध्या जीव प्रदेश थी, एकमेक किया धार हो, गोतम ! ६. जे माटे पहिला फशिया, तनु रज जिम फर्शत हो, गोतम ! पुटाई जे पाठ नों, प्रथम अर्थ ए हुंत हो, गोतम ! 'गहियाई' ति स्वीकृतानि 'बधाई' ति जीवप्रदेशरात्मीकरणात् । (वृ० ५० ५६९) ६. पुट्टाई 'पुढाई ति यतः पूर्व स्पृष्टानि तनो रेणुवत् । (वृ० ५० ५६९) ७. अथवा पुष्टानि पोषितान्यपरापरग्रहणतः । ७. अथवा पुदाई पोखिया, अपर-अपर जे नाम हो, गोतम ! ग्रहण थकी ए जीवड़े, द्वितीय अर्थ ए ताम हो, गोतम ! ८. पाठ कडाई चउथो कह्यो, पूर्व परिणाम हंत हो, गोतम ! तेह तणीज अपेक्षया, अन्य परिणाम करत हो, गोतम ! ८. कडाई। 'कडाई' ति पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि । (वृ० ५० ५६९) ६. ए च्यारूं पद आखिया, ओदारिक नां एह हो, गोतम ! पुदगल ग्रहण करण विषे, जाणेवा विधि जेह हो, गोतम ! १०. पट्टवियाई स्थापिया, स्थिर कीधा इण जीव हो, गोतम ! निविदाई स्थाप्या तिके, गाढा कोधा अतीव हो, गोतम ! ११. अभिनिविट्ठाई तिको, अभिविध करिक जाण हो, गोतम ! सह पुद्गल जंतू विषे, लागा ते पहिछाण हो, गोतम ! १२. अभिसमण्णागयाइं कह्यो, अभिविधि करि सह प्राप्य हो, गोतम! रस अनुभव न जीवे कियो, ए रस आश्री आप्य हो, गोतम ! १३. परियादियाई जीव रै, सह अवयव करि संच हो, गोतम ! तसु रस ग्रहण द्वारे ग्रह्यो, स्थिति विषे पद पंच हो, गोतम ! १४. परिणामियाई रस भणी, भोगविवै करि जेह हो, गोतम ! अन्य-अन्य परिणाम में, पहचाड्या छै तेह हो, गोतम ! १०. पट्ठवियाई निविट्ठाई 'पट्टवियाई' ति प्रस्थापितानि-स्थिरीकृतानि जोवेन 'निविट्ठाई' ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवेन स्वयं । (वृ० ५० ५६९) ११. अभिनिविट्ठाई 'अभिनिविट्ठाई' ति अभि-अभिविधिना निविष्टानि सर्वाण्यपि जीवे लग्नानीत्यर्थः। (वृ० ५० ५६९) १२. अभिसमण्णागयाई 'भभिसमन्नागयाई' ति अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः समन्वागतानि-सम्प्राप्तानि जीवेन रसानुभूति समाश्रित्य । (वृ० प०५६९) १३. परियादियाई 'परियाइयाई' ति पर्याप्तानि-जीवेन सर्वावयवैरा त्तानि तद्रसादानद्वारेण। (वृ० ५० ५६९) १४. परिणामियाई। 'परिणामियाई' ति रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादितानि । (वृ० ५० ५६९) १५. निज्जिण्णाई 'निज्जिण्णाई' ति क्षीणरसीकृतानि । (वृ० ५० ५६९) १६. निसिरियाई 'निसिरियाई' ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि । (वृ० ५० ५६९) १७. निसिदाई भवति । "निसिट्ठाई' ति जीवेन निःसृष्टानि स्वप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि । (वृ० ५० ५६९) १८. इहाद्यानि चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहण विषयाणि तदुत्तराणि तु पञ्च स्थितिविषयाणि तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति । (वृ०प० ५७०) १९. से तेणठेण गोयमा! एवं बुच्चइ-ओरालिय पोग्गलपरियट्टे-ओरालियपोग्गलपरियट्टे । १५. निज्जिण्णाई पाठ छ, जे प्रदेश थी क्षीण हो, गोतम ! जीवे रस कीधा अछ, पुद्गल नां निज्जीण हो, गोतम ! १६. निसिरियाई पाठ छ, जीव प्रदेश थी ताय हो, गोतम ! ते पुद्गल रस नीसरचा, तसु हिव आगल न्याय हो, गोतम ! १७. निसिट्राइं जीव जे, निज प्रदेश थी धार हो, गोतम ! तजिया दूर किया तिणे, विगम विषे पद च्यार हो, गोतम ! १८. औदारिक जे पोग्गला, ते आश्री पद तेर हो, गोतम ! अर्थ सूत्र बिहुं आखिया, चारू चित सू हेर हो, गोतम ! १६. तिण अर्थे करि गोयमा! म्है आखी इम वाय हो, गोतम ! ओदारिक पुद्गल तणां, परावर्त नों न्याय हो, गोतम ! ४६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतम ! २० एवं वैक्रिय पुद्गल - परावर्त्त विषे पेख हो, तेरे पद कहिया तिके, णवरं इतो विशेख हो, गोतम! २१. वैयि तनु रह्यो जीव जे, वैक्रिय शरीर प्रायोग्य हो, गोतम ! सह द्रव्य यह क्रियपणे शेष तिमज सर्व योग्य हो, गोतम ! २२. एवं यावत सातमों, आणापाणु संपेल हो, गोतम ! परावर्त-पुद्गल लगे णवरं इतरो विशेोख हो, गोतम ! २३ रह्यो आणपाण नैं विषे, आणपाण प्रायोग्य हो, गोनम ! सहु द्रव्य आणपाणुपण, शेष तिमज सर्वं योग्य हो, गोतम ! सोरठा २४. हिव ओदारिकादि ताव परावर्त ल पुद्गल कितै काल पूराय ? अल्प बहुत कहिये औदारिक आदि पुद्गलन्दरावर्त कि काल भी पूरो हुने२५. * औदारिक पुद्गल प्रभु ! परावर्त्त कहिवाय हो, स्वामी ! ते कितरं काले करी, पूरो करियं ताय हो ? स्वामी ! २६. वीर है अवसप्पिणी ते अनंती न्हाल हो, गोतम ! अनंत वले उत्सप्पिणी, तेणे करिके भाल हो, गोतम ! २७. ए इतने काले करी, ओदारिक अवलोय हो, गोतम ! परावर्त्त पुद्गल तिको पूरी करिये सोय हो, गोतम ! सोरठा पुद्गल नां अनंतपणां ग्रहितां काल अनंत २८. एक जीव ग्रहणहार, अगृहीत पुद्गल धार, ३४. कार्मण सोरठा पुद्गल जोय, सूक्ष्म बहू परमाणु तेह नीचना होय, एक बार fपण बहु *लय स्वामी ! म्हारा राजा नं धर्म सुणावज्यो तिये। वलि ॥ परा । २१. काल एसे एह. औदारिक पुद्गल पूरो करियै तेह, अनंत उसी तिहां ॥ ह्र ३०. *एवं वेत्रिय पुद्गल-परावर्त तिण करत हो, गोतम ! एवं यावत सातमों, आणपाण परावरत हो, गोतम ! ३१. ए ओदारिक पुद्गल प्रभु ! परावतं नों काल हो, स्वामी ! यावत आणापाण न काल निवर्त्तन म्हाल हो, स्वामो ! [ हूं अर्ज करूं छू वीनती] | की काल आश्री अल्पबहुत्वपणो सरीखो होय हो, स्वामी ! ? हिय जिन उत्तर जोय हो, स्वामी ! कार्मण तणो निहाल हो, गोतम ! निपजावा तो काल हो गोतम ! 1 औदारिक आदि पुद्गल परावर्त ३२. कवण कवण थी थोड़ो हवं बलि विशेष अधिक ३३. सर्व थकी थोड़ो हुवे परावर्त्त पुद्गल तिको, थकी । है ॥ करि ग्रहै ॥ । २०. एवं परिवि नवरं २१. उन्नियरीपायोम्बाई दम्मा वेदविसरता गहिवाई सेव सव्वं । २२. एवं जान आणापाणपोयालपरिपट्टे, नबरं २३. आणा सम्बदम्बाई आणापाणुत्ताए गहियाई, सेसं तं चैव । ( श० १२/९७ ) २४. अथ पुद्गलपरावर्त्तानां निर्वर्तनकालं तदल्पबहुत्वं च दर्शयन्नाह(बु०प०५७०) २५. ओरालियपोग्गल परियट्टे णं भंते! केव इकालस्स निव्वत्तिज्जइ ? २६. गोयमा ! अणताहि ओसप्पिणीहि उस्सप्पिणीहि । २७. एवतिकालस्स निव्वत्तिज्जइ । २८. एकस्य जीवस्य ग्राहकत्वात् पुद्गलानां चानन्तत्वात् पूर्व गृहीतानां च ग्रहणस्यागण्यमानत्वादनन्ता वय इत्यादि मुक्तमिति ० ० ५७० ) ३०. एवं योग्परिवि एवं जाय आणायामुपोपविवि ( श० १२/९८ ) ३१. एस्स णं भंते! ओरालियोग्गलपरियनिवत्तणाकालस्स''''जाय आणापाणपोगलपरिषदृनिस्वत्तणा कालस्स य ३२. करे करेहितो अप्पा वा ? वा? विसेसाहियावा ? बहुया वा ? तुल्ला ३३. गोयमा ! सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले । ३४. ते हि सूक्ष्मा बहुतमपरमाणु निष्पन्नाश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहबो गृह्यन्ते । ( वृ० प० ५७० ) श० १२, उ० ४, ढा० २५७ ४७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५,३६. सर्वेषु च नारकादिपदेषु वर्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति स्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्गलग्रहणं भवतीति। (वृ०प० ५७०) ३७. तेयापोग्गलपरियनिव्वत्तणाकाले अर्णतगुणे । ३५. च उवीस दण्डक मांहि, वर्तमान जे जीव नैं। समय-समय प्रति ताहि, ग्रहणपणों पामै तसु॥ ३६. ते माटे कहिवाय, अल्प काल करि पिण तिके। " " "" कार्मण पुद्गल ताय, सगला ग्रहण हुवै अछ। ३७. *तेहथी तेजस पुद्गल-परावर्त नों काल हो, गोतम ! निवर्तन निपजावतां, अनंतगुणो ते न्हाल हो, गोतम ! सोरठा ३८. स्थूलपण करि धार, तेजस पुदगल अल्प नों। ग्रहण हुवै इक वार, अल्प प्रदेश निष्पन्नपणे ।। ३९. ते माटे इम न्हाल, कार्मण पुदगल काल थी। तेजस पुद्गल काल, अनंतगुणो इम आखियो ।। ४०. *तेहथी ओदारिक तणो, पुदगल-परावर्त्त जोय हो, गोतम ! निवर्त्तन निपजावतां, अनंतगुणो काल होय हो, गोतम ! सोरठा ४१. ओदारिक नां जाण, पुद्गल अतिही स्थल छै। स्थूल तणो पहिछाण, अल्पईज ग्रहै एकदा ।। ४२. वलि प्रदेश पिण तास, अतिही अल्प अछै तसु । ग्रहिवे थके विमास, ग्रहै अल्प अणु एकदा ।। ४३. कार्मण तेजस धार, तसं पुदगल जिम ए नथी। तेहनों ग्रहण विचार, दंडक चउवीसे हवै।। ४४. मनुष्य अनै तिर्यच, तेहनै इज तेहनों ग्रहण । बहु काले करि संच, ते माटे तसु ग्रहण ह ॥ ४५. *तेहथी आणापाणु जे, पुद्गल-परावर्त काल हो, गोतम ? निवर्तन निपजावतां, काल अनंतगुणो न्हाल हो, गोतम ! ३८,३९. यतः स्थूलत्वेन तैजसपुद्गलानामल्पानामेकदा ग्रहणं, एकग्रहणे चाल्पप्रदेश निष्पन्नत्वेन तेषामल्पानामेव तदणूनां ग्रहणं भवत्यतोऽनन्तगुणोऽसाविति । (वृ०प० ५७०) ४०. ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे । ४१. यत औदारिकपुद्गला अतिस्थूराः, स्थूराणां चाल्पानामेवैकदा ग्रहणं भवति। (वृ० ५० ५७०) ४२. अल्पतरप्रदे शाश्च ते ततस्तदग्रहणेऽप्येकदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते। (वृ० ५० ५७०) ४३. न च कार्मणतैजसपुद्गलवत्तेषां सर्वपदेषु ग्रहणमस्ति । (वृ० ५० ५७०) ४४. औदारिकशरीरिणामेव तद्ग्रहणाद्, अतो बृहत्व कालेन तेषां ग्रहणमिति । (वृ० ५० ५७०) ४५. आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिब्वत्तणाकाले अणंतगुणे । सोरठा ४६. औदारिक थी बलि बहु प्रदेश जास, आणपाण सूक्षम अणु । तास, अल्प काल करि ग्रहै तसु ।। ४७. तो पिण अपज्जत्त, तेह अवस्था नै विषे । ग्रहण नथी छ तत्थ, आणपाण पुद्गल तणां ।। ४८. तथा पर्याप्त पेख, औदारिक तन पेक्षया। आणपाण नां देख, ग्रहण अछै थोड़ाज नां ।। ४६. पुद्गल आण रु पाण, ग्रहण न शोघ्र उतावलो। ते माटे पहिछाण, औदारिक थी अनंतगुण ।। ५०. *तेह थकी मन पुद्गल-परावर्त्त नो काल हो, गोतम ! निवर्तन निपजावतां, अनंतगुणो अद्धा न्हाल हो, गोतम ! ४६. यद्यपि हि औदारिकपुद्गलेभ्य आनप्राणपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषामल्पकालेन ग्रहण संभवति। (वृ० ५० ५७०) ४७-४९. तथाऽप्यपर्याप्त कावस्थायां तेषामग्रहणा त्पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिकशरीरपुद्गलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव ग्रहणान्न शीघ्र तद्ग्रहणमित्यौदारिक पुद्गलपरिवत्र्तनिर्वर्तनाकालादनन्तगुणताऽऽनप्राणपुदगलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालस्येति । (वृ० ५० ५७०) ५०. मणपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे । *लय : स्वामी ! मोरा राजा नै धर्म सुणावज्यो ४८ भगवती जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५१. यद्यपि आण रु पाण, तसु पुद्गल थी मन तणां । सूक्षम पुद्गल जाण, प्रदेश पिण बहू तेहनां ॥ ५२. ते माटे अवलोय, अल्प काले पिण तेहो। ग्रहण हुवै छै सोय, अनंतगुणो क्रिम किम अखियो ? ५३. एकेंद्रियादि कहाय, कायस्थिति नां वश थकी । बहु काले पिण ताव, ताय, मन नों लाभ हुवै अछै ॥ ५४. * तेह थकी पिण वचन नां, पुद्गल परिवर्त न्हाल हो, गोतम ! निवर्तन निपजावतां अनंतगुणो है काल हो, गोतम ! सोरठा ५५. मन पुद्गल थी सोय भाषा अतिही शीघ्र है। वली बेंद्रियादिक में होय, अधिक कह्यो किम न्याय हिव ॥ ५६. मनो द्रव्य थी जाण, भाषा अतिही स्थूल है। थोड़ा नोंज पिछाण, ग्रहण हुवै इम एकदा ॥ ५७. ते माटे ए थाय, मन परिवर्तन काल थी । अनंतगुणो अधिकाय, अद्धा वच पुद्गल-परा' ॥ ५८. *तेवी वैपि पुद्गल परावर्तनों काल हो, निवर्त्तन निपजावतां, अनंतगुणो अद्धा न्हाल हो, सोरठा लाभे अति बहू अनंतगुणो वैक्रिय गोतम ! गोतम ! ५९. वैवि शरीर सोप तिण सूं वच थी जोय, हिये पुद्गल परावर्त - ! ६० *ए प्रभु ओदारिक तणां योग्गल परियट्टा पेख हो, यावत आणापाण नां, पोग्गल परियट्टा देख हो, ६१ कवण - कवण थी अल्प है, बहुत्व सरिखा तेह हो, अधिक विशेष कह्या प्रभु ! हिव जिन उत्तर देह हो, स्वामी ! ६२. सर्व थकी थोड़ा वेक्रिय पुद्गल परिवर्त जो हो, गोतम ! अति बहु काले एनीपजे तिणसूं अल्वन होय हो, गोतम ! काल ते । अद्धा ॥ स्वामी ! स्वामी ! स्वामी ! ६३. तेहथी वच पुद्गल-परा, अनंतगुणा आख्यात हो, गोतम ! तेहथी मन पुद्गल - परावर्त्त, अनंतगुणा थात हो, गोतम ! ६४. आणावा परियट्टा अनंतगुणा कहिवाय हो, गोतम ! ओदारिक पुद्गल-परा, अनंतगुणा अधिकाय हो. गोतम ! ६५. तेजस पुद्गल परियट्टा, अनंतगुणा आख्यात हो, गोतम ! कार्मण पुद्गल - परियट्टा, अनंतगुणा अवदात हो, गोतम ! *लय : स्वामी ! म्हारा राजा ने धर्म सुणावज्यो १. परावर्त्त ५१.५२ कप प्यानप्राणपुद्गले यो मनल सूक्ष्मा बहुप्रदेशाश्वेत्यल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति। ( वृ० प० ५७० ) ५२. तान्द्रादिकावस्थितिवान्नराश्विरेणनाभामानसपुसपरित बहुकासाध्य इत्यनन्तगुण (बु०प०५७०) उक्तः । २४. बोलपट्टनिस्वत्तणाकाले अनंतगुणे । ५५. कथम् ? यद्यपि मनसः सकाशाद् भाषा शीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाद्यवस्थायां च भवति । ५६.४७.पी. (बु०प०५७० ) भावाद्रव्याणामतिस्थूलतया तोकानामेकदा ग्रहणात्ततोऽनन्तगुणी वाक्युद्गल परिवर्तनिर्वर्त्तनाकाल इति । (बु०प०४७०) ५८. वेउब्वियपोग्गल परियट्टनिव्वत्तणाकाले अनंतगुणे । ( श० १२ १९९ ) २९. रातिबहुकाललभ्यत्वादिति । ( वृ० प० ५००) ६०. एएसि णं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव पट्टा य ६१. कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला या ? विसेसाहियावा ? ६२. गोमा ! सत्योना बेल्बियपोग्यतपरियट्टा । सस्तोका परिवत बहुतकालनिर्वर्त नीयत्वात्तेषाम् । ( वृ० प० ५००) ६३. वइपोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा, मगोगलपरिपट्टा अनंतगुणा । ६४. आपापलपरियट्टा जगतगुणा बोरालिय पोग्गलपरियट्टा अनंतगुणा । ६५. योग्परिट्टा अपतगुणा, कम्मरपोग्न सपरियट्टा वर्णतगुणा । ( २०१२ / १०० ) श० १२, उ० ४, ढा० २५७ ४९ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा कही प्रतीत, अल्प ए विपरीत अंतिम ६६. पूर्व तेहथी ६७. जेहनी थोडं काल, हुवै पोग्गल - परियट्ट न्हाल, घणां ६८. कार्मण पुद्गल सोय, बहु हुवै छ परावर्त ढाल : २५८ १. पूर्व उद्देशे पुद्गला, पुद्गल कर्म स्वरूप थकी निवर्त्तन तास काल अवलोय सर्व थकी थोड़ ६६. इतरे काल, पूरो ह्र तो सर्व थकी बहु न्हाल, कम्मा ७०. वैक्रिय पुद्गल देख परिवर्तन वैक्रिय सर्व थकी संपेख, करि बहु काले ७१. तेहवा पुद्गल ताम, परावर्त्त न्याय विचारो आम, सर्व थकी ७२. जेनों बहुलो काल, ते अल्प अद्धा जसु म्हाल ते अद्धा तणु । पिच्छाणिये ॥ तेहनां । ते सही ॥ पोग्गल - परियट्टा || नों काल जे । नीपजे || तणां । थोड़ा कह्या ॥ कह्या । पुद्गल थोड़ा पुद्गल परिवर्त बहु ।' (ज.स.) ७३. सेवं भंते! इस कही, जाव गोयम विचरंत हो, भविवण ! द्वादशमा ए शतक नों, तुर्य उद्देशो वंत हो, भवियण ७४. दाल दोवसौ ऊपरे सत्तावनमी देख हो, भवियण ! भिक्षु भारीमात ऋषिराम थी. 'जय जय' हरष विशेष हो, भवियण ! द्वादशशते चतुर्थोद्देशकार्य ।। १२।४।। *लय : स्वामी ! म्हारा राजा नै धर्म सुणावज्यो लय: आछेलाल ५० भगवती जोड़ निवर्तना । थोड़ो कह्यो । कार्मण । वर्णादि की अपेक्षा से द्रव्यमीमांसा पद दूहा कह्या तास प्रस्ताव । नां, पंचमुदेशे पंचमुदेशे भाव || २. नगर राजगृह नं विषे यावत भाखे एम । गौतम बंदी वीर नं. प्रश्न करें धर प्रेम ॥ ३. अब प्रभु ! प्राणातिपात पापठाणो आस्थात, आछेलाल । तसु उदय थी जीव हिंसा करें ॥ उपचार थी अवलोय । प्राणः तिपालन उच्चरं । ४. ए चारित्र मोहनी जोप ७३. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं जाव विहरइ । ( ० १२ / १०१) १. अनन्तरोद्देश के पुद्गला उक्तास्तत्प्रस्तावात्कर्मपुद्गलस्वरूपाभिधानाय पञ्चमो माह ( वृ० प० ५७१) २. रायगिहे जाव एवं वयासी ३, ४. अह भंते ? पाणाइवाए 'पाणाइवाए' त्ति प्राणातिपातजनितं तज्जनकं वा चारित्रमोहनीय कर्मोपचारात् प्राणातिपात एन ( वृ० प० ५७२ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वृ०प०५७२) ५. एवमुत्तरत्रापि मुसावाए ६. अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे ५. आगल पिण इह रोत, कहिवो वचन प्रतीत । मृषावाद विषे सही ।। ६. एम अदत्तादान, मिथुन परिग्रह मान । ए पांचंइ पापठाणा मही॥ ७. वर्ण केता हवै तास ? केतला गंध रस फास? हिव जिन कहै गोतम सुणै। ८. पंच वर्ण गंध दोय, वलि पंच रस अवलोय । च्यार फर्श इम जिन थुण ।। वा०-पंच रस, पंच वर्ण करिक परिणत, द्विविध गंध, च्यार फर्श । सिद्धां थकी अनंतगुण हीण, अनंतप्रदेशिक एहवा द्रव्य कहिये । ७,८. एस णं कतिवण्णे कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णते? गोयमा ! पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे चउफासे पण्णत्ते । (श० १२/१०२) वा०-पंचरसपंचवन्नेहिं परिणयं दुविहगंधचउफासं । दवियमणंतपएसं सिद्धेहि अणंतगुणहीणं ।। (वृ०प० ५७२) ९,१०. 'चउफासे' त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति । (वृ०प० ५७२) सोरठा ६. स्निग्ध लूखो ताम, शीत उष्ण ए चिहुं फरस । जे सूक्षम परिणाम, ते पुद्गल में ए चिहुं ।। १०. कर्म सूक्ष्म परिणाम, फर्श च्यार तिणमें हवै। रूपी अजीव ताम, कर्म भणी कहियै अछ । क्रोध के दस नाम ११. *अथ हिव भगवंत! क्रोध, नाम सामान्य ए बोध । कोपादि नाम विशेष छ । ११. अह भंते ! कोहे कोवे क्रोध इति सामान्य नाम, कोपादयस्तु तद्विशेषाः । (वृ० ५० ५७२) १२. तत्र 'कोहे' त्ति क्रोधपरिणामजनकं कर्म। (वृ० ५० ५७२) १३. तत्र कोपः क्रोधोदयात्स्वभावाच्चलनमात्र । (वृ० ५० ५७२) १४. रोसे १२. क्रोध तणां परिणाम, उपार्जणहारो ताम ।। तिण कर्म ने क्रोध कह्यो अछ। १३. क्रोध नुं उदय स्वभाव, तेह थकी प्रगट प्रभाव। जाज्वलमानज कोप है। १४. क्रोध नो इज अनुबंध, रोस नाम ए संध । क्रोध तणोज आटोप है। १५. दोस ते चउथो नाम, आतम पर मैं ताम । दुख उपजावै अधिक ही। १६. अथवा दोष जे द्वेष, अप्रीतिभाव विशेष । जे कर्म उदय थी ए सही। १७. अक्षमा पंचम नाम, पेला रो कीधो ताम ।। __ अपराध नांहि सहीजिये ।। १८. छठो संजलण नाम, क्रोध अग्नि करि ताम। वारंवार दहीजिये ।। रोषः--क्रोधस्यैवानुबन्धः । (वृ० ५० ५७२) १५. दोसे दोषः-आत्मनः परस्य वा दूषणं । (वृ० ५० ५७२) १६. द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम् । (वृ० ५० ५७२) १७. अखमा अक्षमा-परकृतापराधस्यासहनं । (वृ० ५० ५७२) १८. संजलणे सज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं । (वृ० ५० ५७२) १९. कलहे कलहो-महता शब्देनान्योऽन्यमसमञ्जसभाषणं । . १६. कलह सातमो नाम, मोटा शब्द करि ताम। मूंडा वचन वदै जिको। *लय : आछेलाल १. वत्तिकार ने दोष का अर्थ किया है-'आत्मनः परस्य वा दूषणं' । दूषण दुःख का निमित्त बनता है । इस दृष्टि से जोड़ में जयाचार्य ने इसका अनुवाद किया है-'दुख उपजावं अधिक ही।' श. १२, उ०४, ढा० २५८ ५१ Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. चंडिक्के चाण्डिक्यं-रौद्राकारकरणं । २१. भंडणे भण्डनं--दण्डादिभिर्युद्ध। २२. विवादे विवादो-विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि । २३. क्रोधैकार्था वैते शब्दाः । २७. एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णते? २८. गोयमा ! पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे चउफासे पण्णत्तं । २०. चंडिक्के अष्टम नाम, क्रोध करीनै ताम । रौद्र आकार कर तिको।। २१. भंडणे नवमों नाम, दंडादिक करि ताम । युद्ध करै तामस धरी ।। २२. विवादे दशमों नाम, अविनय वचन निकाम । बोलै कर्म उदय करी ।। २३. कलहादिक अभिधान, कार्य क्रोध नां जान । एकार्थ क्रोध विषे सहु ।। २४. जेह कर्म थी जाम, बिगड़े जीव परिणाम । तेहनां नाम अछै बहु ॥ २५. त्रोध तणां दश नाम, जे कर्म उदय थी पाम । ते कर्म नां नाम दरों कह्या ।। २६. द्रव्य क्रोध ए देख, पापठाणो संपेख । पुदगल परिणामे रह्या ।। २७. वर्ण किता त्यां मांय, जाव फर्श के पाय । गोतम प्रश्न इसो करै ।। २८. पंच वर्ण रस पंच, दोय गंध इम संच। च्यार फर्श जिन वागरै।। सोरठा २६. कह्या क्रोध दश नाम, हिव कहियै छै मान नां । द्वादश नाम तमाम, तास प्रश्न गोयम करै। मान के बारह नाम ३०. अथ हिव भगवंत! मान, नाम सामान्य पिछान । मदादि नाम विशेष ही ।। ३१. मान तणां परिणाम, उपार्जणहारो ताम । ते कर्म नै मान कह्यो सही। ३२. मद प्रमुख हिव ताम, कहूं विशेषज नाम । हरष मात्र तसु मद कह्यो । ३३. दर्प ए तीजो नाम, दृप्तपणों दिल पाम । आंट विषेइज ते रह्यो । ३४. थंभ ए चउथो नाम, अनमवापणुं ताम । गर्व नाम सूरापणुं ।। ३५. आतम उत्कर्ष नाम, निज आतम नां ताम । पर पास करावै गुण घणुं ।। ३०,३१. अह भंते ! माणे 'माणे' त्ति मानपरिणामजनकं कर्म, तत्र मान इति सामान्य नाम मदादयस्तु तविशेषाः । (वृ० ५० ५७२) ३२. मदे तत्र मदो-हर्षमात्र । (वृ० ५० ५७२) ३३. दप्पे दो-दृप्तता। (व० ५० ५७२) ३४. थंभे गव्वे स्तम्भः-अनम्रता गर्व-शौण्डीयं । (वृ० ५० ५७२) ३५. अत्तुक्कोसे । 'अत्तुक्कोसे' ति आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणरुत्कर्ष णम् - उत्कृष्टताऽभिधानं । (वृ०प० ५७२) ३६. परपरिवाए परपरिवादः-परेषामपवदनं । (वृ०प० ५७२) वा०-परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति । (वृ० प० ५७२) ३६. परपरिवाद अगाध, पर नां अवर्णवाद। राग द्वेष वस भावतो।। वा०--अथवा गुण थी हेठो पाडवो ते परिपात । ५२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. उक्कोसे अष्टम नाम, पोता मान ३८. अथवा पोता नैं पेख, ३९. ईपत क्रिया कर ४०. अपकर्षण ए नाम, वा० - अवक्कोसेत्ति अपकर्षण अथवा अवकर्षण ते अभिमान थकी आपणी आत्मा नैं वा पर नैं क्रिया नां आरंभ थकी किणही प्रवर्त्तायवो अथवा अप्रकाश ते अभिमान थकीज । कारण थकी पिण ४१. उण्णए ऊंची भाव, ४२. उष्णामे वा० - ' उण्णए 'त्ति अभिमान थकी पहिला नमैं नहीं ते न्याय नुं छेदवूं ते अभिमान थकी न्याय नुं अभाव ते उन्नय । ४३. दुण्णामे दुष्टपणेह, नीं ऋद्धि पाम । वसेज बतावतो ॥ फुन पर नैं सुविशेख | मान अहंकार थकी वली ॥ जेष्टणु करेह | रंगरली ॥ मद कर मानें आतम पर नैं ताम | कषाय में प्रवर्त्तावही ॥ ४७. बारम नमण उच्छिन्न मान कीज नमैं ग्यारम एह, शत ४४. थंभादिक ए ४५. जे कर्म थीए परिणाम, ४६. वीर कहै वर्ण पंच, क्रोध सुविशेष, ४८. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय कहाव । नहीं ॥ जे कोई आय नमेह | रोहनें गर्व चढावही ॥ उन्नत कहिये । अथवा नमण करै छै जेह । मद अभिमानपणें सही ॥ नाम, मान नां कारज ताम । मान वाचक ए शब्द ही ॥ ते कर्म तणां ए नाम । वर्णादियां किता का ? कह्यो तिम संच । पुद्गल द्रव्य माहे रह्या ॥ पंचमुद्देशक बेस अठावनमी ढाल है । आनंद तास पसाय देश | 'जय जय' हरष विशाल है । ३७-३९. उक्कोसे 'उक्कोसे' त्ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक् क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा प्रकाशनमभिमानास्वकीयसमृद्धयादेः । ( वृ० प० ५०२) ४०. अवक्कोसे वा०-- ' अवक्कासे त्ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात कुतोऽपि व्यावर्त्तनमिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति । (१० १०५७२) ४१. उष्णते 19 ४२. उण्णामे वा०- 'उण्णए' त्ति उच्छिन्नं नतं पूर्वप्रवृतं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्न वा नयो नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः । (०५०५७२) 'उष्णामे' त्ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशा दुन्नमनं । ( वृ० प०५७२) ४३. दुणा 'दुन्नामे' त्तिमदाद्दुष्टं नमनं दुर्नाम इति । ( वृ० प० ५७२) ४५. एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? ४६. गोयमा ! पंचवण्णे (सं. पा.) जहा कोहे तहेव । १. वृत्ति में अवक्कोसे स्थान पर अवक्कासे पाठ है। श० १२, उ० ४, ढा० २५८ ५३ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २५९ हा १. कह्या क्रोध अरु मान नां, नाम हिव माया नें लोभ नां, कहियै माया के पन्द्रह नाम *मुनि प्यारा एतो चोकड़ी दूर तजीजे ॥ ( ध्रुपदं ) २. अथ माया हे प्रभु ! ताम, सामान्य नाम ए पाम । उपधि प्रमुख विशेषज नाम रे ।। परिणाम, सामान्य विशेष | नाम अशेष || ३. माया तणां ४. उपधि प्रमुख हिव तेह ५. उपधि ए बीजो हुंत, ६. निकृति तीजो नाम कहाय, अति आदर करि ते ताय । पर-वंचन ठगवूं कराय रे ॥ उपार्जणहारो ताम । तेह कर्म न माया नाम रे ।। कहूं नाम विशेषज जेह । भेद माया तणां छै एह रे 11 पर ठगवा निमित्त रचंत । तसु गमन समीप करंत रे ॥ ७. तथा पहिली माया कोधी रूड़, तिका ढांकण अर्थे मूढ । वलि अन्य माया करें गूढ रे । ८. वलय चउपो नाम कहेह, जिण भावे करोने जेह वच वलय ज्यूं वक्र वदेह रे ।। वक्र चेष्टा में वह ६. अथवा वलय तणी पर तेह, तेह भाव नैं वलय कहेह रे ॥ १०. गहन पर ठगवा नैं न्हाल, करे वचन जाल असराल । गहन नीं पर गहन संभाल रे ॥ ११. मे परबंधन ने ताय प्रवर्त्ते नीचो अचाय अथवा नीचे स्थान रहे जाय रे ॥ १२. कल्क हिंसादि अघ कहिवाय, तसु कारण वंचन अभिप्राय । तिको कल्क हीज का ताय रे ॥ १३. कुरूपे खोटो रूप बणाय, अन्य प्रते विमोह पमाय । भांड चेष्टा विशेष कराय रे ॥ *लय : राणी भाखं सुण रे सूड़ा ५४ भगवती जोड १४. जिम्हे पर वंचन अभिप्राय, क्रिया विषे मंदा हुय जाय । एहवा भाव ते जिन्ह कहाय रे ॥ २. अह भंते! माया उवही 'माया' त्ति सामान्यं उपध्यादयस्तद्भेदाः । [ ( वृ० प० ५७२ ) ५. 'उवहि' त्ति उपधीयते येनासावुपधिः - वञ्चनीयसमीपगमनहेतुर्भावः । ( वृ० प० ५७२ ) ६. नियडी 'नियsि' त्ति नितरां करणं निकृतिः- आदरकरणेन परवञ्चनं ( वृ० प० ५७३) ७. पूर्वकृतमायाप्रमादनायें या मामान्तरकरणं । ( वृ० प० ५७३) ८, ९. वलए 'वलए' त्ति येन भावेन वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्त्तते स भावो वलयं । (बु० ० ५७६) १०. गहणे । 'गहणे' त्ति परव्यामोहनाय यद्वचनजालं तद्गहनमिव गहनं । (१० १०५७३) ११. णूमे 'णूमे' त्ति परवञ्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वाश्रयणं तन्नूमं ति । ( वृ० प० ५७३) १२. कक्के 'कमके' ति फरक हिसादिरूपं पापं तन्निमित यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमेवोच्यते । ( वृ० प० ५७३) १३. कुरुए 'कुरुए' त्ति कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपपतिविमोहयति रुपं भाग्यादिकर्म मायाविशेष एव । (बु०प०५७३) - १४. जिन्हे 'जिम्हे' त्ति येन परवञ्चनाभिप्रायेण जैम्यंया मान्यमम्यते भावोजैवमेवेति । (बु०प०५७३) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. किव्विसे किलवेषी जान, जे माया थी पर भव स्थान । तथा इह भव किलवेषी समान रे ॥ १६. आयरणया माया दिल धार, कांइ वस्तु करे अंगीकार । तथा आदर करत अपार रे ।। १७. अथवा पर विप्रतारण जेह, विविध क्रिया आचरण करेह | आयरणया न दूजो अर्थ एह रे ॥ १८. ग्रहणया बारमों नाम, निज रूप गोपर्व ताम । पर बंधन नां परिणाम रे ।। १९. चणया तेरमों जान, वर्ष ठगे ते विधान तिण रै ठगवा तणो इज ध्यान रे ।। २०. पलिउंचणया कहिवाय, सरलपणों पोता नों दिखाय । करें खंडित वचन ए माय रे ॥ २१. सायोग्य द्रव्य माय पाडुओ द्रव्य भेलो मिलाय कर रूडा सरीखो ए माय रे ।। 1 २२. पन नाम माया नां जाण, शब्द एकार्थवाची पिछाण । त्यांमें किता वर्णादिक मान रे ? २३. जिन कहै वर्ण पंच पाय, जिम क्रोध कह्यो तिम माय । पिण पुद्गल द्रव्य में आय रे ॥ ए लोभ के सोलह नाम २४. अहो भगवंत ! लोभ ए देख कह्यो नाम सामान्य संपेख । तसु इच्छादि नाम विशेष रे ।। २५. प्रथम नाम लोभ कहिवाय, इच्छा अभिलाषमात्रज थाय । मूर्च्छा ममत्त भाव थी रखाय रे ।। २६. कांक्षा अगामी वस्तु नीं चाहि गृद्धि प्राप्त अर्थ माहि आसक्ति वृद्धि अति पाइ रे ।। २७. पामी वस्तु रखे हुवे नाश, एहवी इच्छा ते तृष्णा तास । भिज्झा विषय नों ध्यान विमास रे ॥ २८. अभिज्झा ते भिज्झा सरीस, पिण भाव में अंतर दीस। तिणरो आगल न्याय कहीस रे 11 २९. भिमा स्थिर दृपणं कहाय ध्यान लक्षणपर्णा ए पाय ध्यान एकाग्र विषय रे मांय रे ।। १५. किब्बिसे १६. आयरणया 'किब्धिसे' ति यतो मायाविशेषाज्जन्मान्तरेऽवा भवे किल्बिषः - किल्बषिको भवति स किल्बिष एवेति । (१० १०५०२) 'आयरणय' त्ति यतो मायाविशेषादादरणं अभ्युपगमं कस्यापि वस्तुनः करोत्पसावादरणं । ० ५० ५७३ ) १७. आचरणं विविध क्रियाणामाचरणम् । ( वृ० प० ५७३) वापरप्रतारणाय १८. गूहणया 'गूढनया' गूहनं गोपायनं स्वरूपस्य । ( वृ० प० ५७३) १९. वचणया 'वंचणया' वञ्चनं—परस्य प्रतारणं । ( वृ० प० ५७३ ( २०. पलिउंचणया 'पलिउंचणया' प्रतिकुञ्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनं । (बु० १० ५०३) २१. सातिजोगे 'साइजोगे' त्ति अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयस्य योगस्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थ. । (० ० ५७३) २२. मायैकार्था वैते ध्वनय इति । (२०१०५७३) एस णं कतिवण्णो जाव कतिफासे पण्णत्ते ? २३. गोयमा ! पंचवण्णे (सं० पा० ) जहेब कोहे । ( श० १२ १०५ ) २४. अह भंते ! लोभे 'लोभे ' त्ति सामान्यं इच्छादयस्तद्विशेषाः । २५. इच्छामुच्छा तत्रेच्छा - अभिलाषमात्रं मूर्च्छा संरक्षणानुबन्धः । ( वृ० प० ५७३ ) २६. कंखा गेही कांक्षा - अप्राप्तार्थाशंसा प्राप्तार्थव्यासक्तिः । ( वृ० प० ५७३) 'गेहि' त्ति गृद्धि:(२०५०५७३) २७. तव्हा भिज्झा 'तण्ह' त्ति तृष्णा प्राप्तार्थानामव्ययेच्छा 'भिज्ज' त्ति अभि-व्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वम् । ( वृ० प० ५७३ ) २८. अभिभा । 'अभिज्भ' त्ति न भिष्या अभिध्या भिध्यासदृशं भावान्तरं । (बु०प०५७३) २९. तत्र दृढाभिनिवेशो भिया ध्यानलक्षणत्वात्तस्याः । ( वृ० प० ५७३ ) श०१२, उ०५, ढा० २५९ ५५ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. अभिभा अदृढपणेह चित लक्षणपर्णे गिणेह | ध्यान चित्त नो अर्थ सुणेह रे ॥ ३१. स्थिर अध्यवसाय ते ध्यान, चित्त कहियै छै चल अध्यवसान । कही वृत्तिकार इम वान रे । ३२. आसासणया आसीस कहायो, म्हारा सुत ने या शिष्य ने तह्यो। अमकडी अमकडी वस्तु थायो रे ।। ३३ पत्थणया प्रार्थना कहाय, अर्थ वांछित पर प्रति ताय । जाचे मांगे लोभ मन ल्याय रे ॥ ३४. लालप्पणया करी लाल पाल, अति बोली ने वचन विशाल । मांगे लोभ करिने न्हाल रे ॥ ३५. कामासा शब्द रूप नीं आस, भोगासा गंध रस वलि फास । यांरी आसाए विषय विमास रे ।। ३६. जोवियासा जीतव्य बहुमाण, तिणरी वांछा करे लोभ आण ए असंजम जीतव्य जाण रे ।। ३७. मरणासा किण ही अवस्थाय, लोभ अर्थे मरवूं वंछे ताय । किणहिक परत में ए न दिखाय रे ॥ ३८. नंदिरागे समृद्धि पाय आणे राग हरव अधिकाय । सह एकार्थ नाम कहाय रे ॥ ३६. इम किता वर्णादिक हुंत ? जिन कहै पंच वर्ण पावंत । जिम क्रोध तेम भावंत रे ॥ ४०. दश बार पनर नें सोल, इम तेपन नामज घोल । प्रकृति मोह कर्म नीं चोल रे ॥ ४९. चोकड़ी रा ए तेपन नाम, किण ही परत में बावन पाम । द्रव्य पुद्गल रूपी तमाम रे ॥ ४२. प्रभु ! पेज दोस राग द्वेष, कलह जाव मिथ्यादर्शन पेख किता वर्णादियां व रे ॥ सोरठा ४२. पेज्ज प्रेम कहिवाय, दोष द्वेष अधिकाय, ४४. प्रेम हासादिक पेख, स्नेह सुतादिकने विषे भाव अप्रीति जाणवूं ॥ तेही उपनो युद्ध नें । कहिये कलह विशेख, वृत्ति थकी ए आखियो । ४५. *जिम क्रोध विषे तिम कहियै, जाव च्यार फर्श यांमे लहियै । रूपी पुद्गल द्रव्य में रहिये रे । *लय : राणी भाखं सुण रे सूडा ५६ भगवती जोड़ ३०. अदृढाभिनिवेशस्त्वभिध्या ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेषः । ३१. "जं थिरमज्भवसाणं तं भाणं ति । ३२. आसासणया 'आसासणय' त्ति आशंसनं मम पुत्रस्य शिष्यस्य वा इदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः । ( वृ० प० ५७३ ) चित्तलक्षणत्वात्तस्या: ( वृ० प० ५७३ ) जं चलं तयं चित्तं" (१० १०५७३) ३३. पत्थणया 'पत्थणय' त्ति प्रार्थनं परं प्रतीष्टार्थयाञ्चा । (२० १०५०२) ३४ लालप्पण्या 'लालप्पणय' त्ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः । (२००२७३) ३५. कामासा भोगासा 'कामास' त्ति शब्दरूपप्राप्तिसंभावना, 'भोगास' त्ति गंधादिप्राप्तिसंभावना | ३६. जीवियासा ( वृ० प० ५७३) 'जीवितास' त्ति जीवितव्यप्राप्तिसंभावना । ३७. मरणासा (बु० १०५०२) 'मरणास' त्ति कस्याञ्चिदवस्थायां मरणप्राप्तिसम्भावना । इदं च क्वचिन्न दृश्यते । ( वृ० प० ५७३ ) ३८. नंदिरागे 'नंदिरागे' त्ति समृद्धी सत्यां रागो-हर्षो नन्दिरागः । ( वृ० प० ५७३ ) ३९. एस णं कतिवणे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? ( सं ० पा० ) जहेब कोहे (२०१२ १०६) ४२. अह भंते ! पेज्जे दोसे कलहे जाव (सं० पा० ) मिच्छादंसण सल्ले एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? ४२. पति प्रेम-पुत्रादिविषयः स्नेहः 'दोसे' शि 'पेज्जे' अप्रोतिः । ( वृ० प० ५७३ ) ४४. कलहः - इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धं । ( वृ० प० ५७३ ) ४५. गोपमा ! जब पोहे तहेब (सं० पा० ) चउफासे पण्णत्ते ? ( ० १२ १०७) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४६. 'आख्या पाप अठार, पाप पदारथ एह छै । चौफर्शी अवधार, तिण ४७. केई पाप ने ताय, जीव कहै तास पर्याय, मिथ्या सूं पुद्गल द्रव्प ए ॥ अजीव बिहं तणी । है तेहनों ॥ कही । वच ४. जे ठाणे देख, रास दोय जिनवर जीव अजीव संपेख, तीजी रास कही नयी ॥ ४६. जे कहै तीजी रास, तिरासियो निन्हव तिको । लसु केडायत तास, पर्याय कहै बेतणी ॥ ५०. पाप अठारै मांहि, वर्णादिक जिन आखिया । तिणसूं पुद्गल मांहि, प्रत्यक्ष देखो पाठ में ॥ ५१. वर्ण गंध रस फास, पुद्गल नां लक्षण कह्या । अध्येन अठावीस में ॥ उत्तराध्येन' विमास, ५२. पुद्गल द्रव्य न ताय, जीव अजीव विहं तणी । किम कहिये पर्याय अंतर न्याय आलोचिये ॥' (ज० स० ) ५३. *अथ हे प्रभु ! प्राणातिपात, तेहथी विरमण निव्रत ख्यात । टाले जीव हिंसा ने सुजात रे ॥ ५४. जाव परिग्रहवेरमण पेख, क्रोध विवेग जाव विशेख । मिथ्यादर्श नसल्य-विवेक रे। ५५. यांमें वर्ग किता जाव फास ? जिन भाखं वरण न विमास । गंध रस फर्श नहीं तास रे ॥ सोरठा ५६. छांडे पाप अठार, नहि वर्णादिक च्यार, ५७. बधादि विरमण सार, त्याग तिको संवर अछे । जीव तणी पर्याय ए ॥ जीव तणो उपयोग है। अमूर्तपणे उदार, वृतिकार इस आखियो || वा० - 'अवन्ने' इत्यादि वधादि विरमण जीव-उपयोग सरूप छे। अने जीवउपयोग ते अमूर्त अपना पकी बधादि वेरमण में पिग अमूर्त कहिये ते कारण थकी अवर्णादिपणो । ५८. 'पंचाश्रव नां त्याग, संवर कहिये तेहने । तेह अरूपी माग, तिणसूं संवर जीव द्रव्य ॥ ५६. जीव क्रिया बे भेद, सम्यक्त्व क्रिया धुर कही । मिथ्या किरिया वेद, दूजे ठाणे देखलो ॥ ६०. त्याग सहित सुविचार, सम्यक्त्व शुद्ध श्रद्धा तिका । क्रिया जीव व्यापार, संवर कहिये एहनं । ६१. मिथ्याती विपरीत, सरधं ते मिथ्या क्रिया । जीव परिणाम अनीत पुर आधव मिथ्यात्व ए ॥ आश्रव 1 *लय : राणी भाखं सुण रे सूड़ा ४८. दो रासी पण्णत्ता, तं जहा जीवरासी बेब, बजीवरासी चेय ( ठाणं २३९२) ५१. सधयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा । वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ ( उत्तर० २८/१२) ५३. अह भंते! पाणाइवायवेरमणं ५४. जाय परिग्वेरमणं कोहविवेगे जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे । ५५. एस णं कतिवणे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! अवण्णे अगंधे अरसे अफासे पण्णत्ते । (श० १२ १०८ ) वा० - 'अवन्ने' त्ति वधादिविरमणानि जीवोपयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्तत्वाच्च तस्य बधादिविरमणानाममूर्त्तत्वं तस्माच्चावर्गादित्वमिति । (२०१० ५७३) ५९. जीवकिरिया दुविहा पणणता, तं जहासम्मत्त किरिया चैव मिच्छत्तकिरिया चेव । ( ठाणं २/३ ) श० १२, उ०५, ढा० २५९ ५७ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. सम्यक्त्व नै मिथ्यात, जीव क्रिया जिनवर कही। तिणसू ए अवदात, संवर आश्रव जीव छ । ६३. अजीव किरिया दोय, संपराय इरियावही । ते अजोव में होय, जीव क्रिया तिम जीव द्रव्य ।।' (ज० स०) ६४. *शतक बारमें पंचमुद्देश, रह्यो पंचमुदेशो शेष । ढाल बेसौ गुणसठमी कहेस रे । ६५. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, वारू गण-वृद्धि तास पसाय । सुख 'जय-जश' हरष सवाय रे ॥ ढाल : २६० दूहा १. जोवस्वरूपविशेषमेवाधिकृत्याह- (व. प. ५७ ) १. जीव तणांज स्वरूप नैं, पूर्वे कह्य प्रकार । हिव तिणसूं लगतो कहूं, जीव तणोंज विचार ।। बुद्धि के चार प्रकार *सुणो भव्य प्राणी रे, वीर जिनेंद्र दयाल तणी वर वाणी रे ।। [ध्रुपदं ] २. अथ प्रभु ! बुद्धि उत्पत्तिया रे, विनयकी कर्मजा तास । परिणामिया माहै किता रे, वर्ण गंध रस फास? २. अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता? दूहा ३. उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी । (वृ. प. ५७३) ४. ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः ? (वृ. प. ५७३) ५,६. सत्यं, स खल्वन्तरंगत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते । (बृ. प. ५७३) ३. उत्पत्तीज प्रयोजनं, जेह बुद्धि नैं होय । औत्पत्तिकी बुद्धि ते, शब्दारथ ए जोय ।। ४. प्रेरक पूछ स्वाम जी! जे क्षयोपशम भाव। अछे प्रयोजन एहने, उत्पत्ती केम कहाव? ५. गुरु भाखै ते सत्य कह्य, भाव क्षयोपशम तेह। __अंतरंग सहु बुद्धि में, साधारण निश्चेह ।। ६. इण हेतू थी एहने, वंछयो नहिं इहवार । उत्पत्तीज प्रयोजनं, दाख्यो तास विचार ।। ७. शास्त्र कर्म अभ्यास जे, प्रमुख अन्य व्यापार । तेह अपेक्षा नहि इहां, उत्पत्तीज विचार ।। ८. विनय सुश्रूषा गुरु तणी, ते कारण तसु होय । अथवा विनय प्रधान तसु, ते वैनयकी जोय ।। ६. सीख्यो आचारज विना, तेह कर्म अवलोय । आचारज पे धारियो, शिल्प कहीजै सोय ।। ७. न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति । (बृ. प. ५७३) ८. विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी। (वृ. प. ५७३) ९. अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं । (वृ. प. ५७३) *लय : राजा राणी रंग पी रे ५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. कादाचित्कं वा कर्म शिल्पं तु नित्यव्यापारः ततश्च कर्मणो जाता कर्मजा। (व.प. ५७३) ११. परि-समन्तान्नमनं परिणामः । (वृ. प. ५७३) १०. तथा कदाचित कर्म है, शिल्प नित्य व्यापार। __ कर्म-कार्य थी ऊपनी, तेह कर्मजा धार ।। ११. परि ते सर्व प्रकार थी, नमन तेह परिणाम। हिव कारण कहियै तसू, सुणो राख चित ठाम ।। १२. अतिही दीर्घज काल नां, पूर्वापरार्थ परम । अवलोकन आदिक थकी, उपनो आतम धरम ॥ १३. ते कारण जे बुद्धि नो, पारिणामिकी नाम । बुद्धि च्यार प्रकार नीं, आखी त्रिभुवन स्वाम।। १४. *जिन भाखै तिमहीज छ रे, जाव फर्श नहिं पाय । जीव धर्म कह्यो वृत्ति में रे, तिणसूं अमूर्त कहाय ।। १२,१३. सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स कारणं यस्याः सा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्य (वृ. प. ५७३) शेषः । १४. गोयमा ! तं चेव जाव (सं. पा.) अफासा पण्णत्ता । (श. १२६१०९) इयमपि वर्णादिरहिता जीवधर्मत्वेनामूर्त्तत्वात् । (वृ. प. ५७३) मति के चार प्रकार १५. जीवधर्माधिकारादवग्रहादिसूत्रं कर्मादिसूत्र । (वृ. प. ५७३) १६. अह भंते ! ओग्गहे, ईहा १७. अवाए, धारणा --एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता? १८. एवं चेव जाव (सं. पा.) अफासा पण्णत्ता । (श. १२।११०) १९. अह भंते ! उट्ठाणे, कम्मे, बले । सोरठा १५. जीव धर्म विस्तार, आख्यो तेहथी हिव वली। अवग्रहादि अधिकार, वलि उढाणादिक कहं ।। १६. *अथ प्रभु ! जे अवग्रह जिको रे, ग्रहै सामान्यपणेह । ईहा करै विचारणा रे, छता अर्थ री जेह ।। १७. अवाय ते छता अर्थ नो रे, निश्चय करिवो विशेख । धारणा ते वीसर नहीं रे, यांमें किता वर्णादि लेख? १८. जिन भाखै इमहीज छै रे, जाव अफर्श संपेख । चिउं बुद्धि नै मति चिउं कही रे, निर्जरा उज्जल लेख । उत्थान आदि का स्वरूप १६. अथ भगवंत ! उट्ठाण ते रे, ऊभो थायवो ताय । कर्म ते गमनादिक क्रिया रे, बल तनु नी समर्थाय ।। २०. वीर्य उत्साह जीव नों रे, पुरुषाकार अभिमान । पराक्रम तसु साधना रे, कार्य निपावै जान ।। २१. वर्णादि एह विष किता रे? तिमहिज जाव अफास । जीव धर्म तिण कारण रे, जीव राशि में विमास ।। सोरठा २२. 'कह्या अरूपी धार, उट्ठाण कर्मादिक भणी। भाव जोग व्यापार, जीव राशि मांहे अछ । २३. दशमां ठाणां मांय, जीव परिणामी भेद दश । गति इंद्रिय कषाय, लेस जोग उपयोग वलि ।। २४. ज्ञान दर्शण चारित्त, वेद परिणामी ए दशं । जीव राशि में थित्त, जीव तणां परिणाम है ।। २५. गति-परिणामि धुर एह, भाव गती है जीव है। नाम कर्म प्रकृति जेह, ते द्रव्य गति न गिणी इहां ।। २०. वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे । २१. एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? तं चेव जाव (सं. पा.) अफासे पण्णत्ते।(श. १२।१११) २३,२४. दसविधे जीवपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा गतिपरिणामे, इंदियपरिणामे, कसायपरिणामे, लेसापरिणामे, जोगपरिणामे, उवओगपरिणामे णाणपरिणामे सणपरिणामे चरित्तपरिणामे वेयपरिणामे। (ठाणं १०१८) *लय : राजा राणी रंग थी रे श० १२, उ०५, ढा०२६० ५९ Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. वलि इंद्रिय-परिणाम, भावे इंद्रिय जीव ए। द्रव्य इंद्रिय ताम, अजीव ते न गिणी इहां ।। २७. वलि कषाय-परिणाम, भावे कषाय जीव ए। द्रव्य कषाय तमाम, पाप प्रकृति न गिणी इहां ।। २८. लेश-परिणामी नाम, भावे लेस्या जीव ए। पिण द्रव्य लेस्था ताम, पुद्गल ते न गिणी इहां ।। २६. आख्यो जोग-परिणाम, भाव जोग ए जीव है। द्रव्य जोग जे ताम, रूपी ते न गिण्यो इहां ।। ३०. उपयोग दर्शन ज्ञान, चारित ए गुण जीव नां। जीव-परिणामी जान, जीव राशि मांहे अछै ।। ३१. वेद-परिणामी देख, वेद भाव ए जीव है। द्रव्य वेद संपेख, मोह प्रकृति न गिणी इहां ।। ३२. ज्ञान-परिणामी जीव, तिम बोजा पिण जीव है। पुद्गल द्रव्य अजीव, जीव-परिणामो में नथी। ३३. तिण सं जोग-परिणाम, भाव जोग ए जीव है। उहाण प्रमुखज ताम, इण न्याय अरूपी जिन कह्या ।। ३४. पंचम आश्रव जोग, भावे जोग भणो कयो। कर्म ग्रहै सुप्रयोग, जीव-परिणामी मांहि छ । ३५. उदाण प्रमुखज देख, ए पिण आश्रव जोग है। भाव जोग संपेख, अशुभ जोग शुभ जोग बिहुँ । ३६. अशुभ जोग अवधार, सावज जीव व्यापार ए। कहिये आश्रव द्वार, तेहथी पाप बंधै अछ ।। ३७. वलि शुभ जोग उदार, निरवद जोग व्यापार छ। निर्जरा कहिये सार, वलि आश्रव कहिये तसु ।। ३८. शुभ जोगे पुन्य बंध, तिणसं आश्रव पंचमो। कर्म कटै तिण संध, करणी निर्जरा नी कही। ३६. जीव-परिणामी मांय, कषाय-परिणामी कह्यो। भावे एह कषाय, कषाय आश्रव जीव इम ।। ४०. जीव राशि में आय, जीव-परिणामी भेद दश । अजीव राशि रै माय, भेद अजीव-परिणामि दश ।। ४१. बंधण गति संठाण, भेद वर्ण गंध रस फरस । अगुरुलघु शब्द जाण, दश अजीव-परिणामि ए॥ ४१. दसविधे अजीवपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-- बंधणपरिणामे, गतिपरिणामे, संठाणपरिणामे, भेदपरिणामे, वण्णपरिणामे, रसपरिणामे, गंधपरिणामे, फासपरिणामे, अगुरुलघुपरिणामे, सहपरिणामे । (ठाणं १०।१९) ४२. 'अजीव राशि विमास, न्याय दृष्टि करि देखिये । वर्ण गंध रस फास, ए जीव तिम अन्य पिण ।। ४३. जीव राशि में थित्त, जीव-परिणामिक भेद दश । ज्ञान दर्शन चारित्त, एह जीव तिम अन्य पिण। ४४. तिणसं भावे जोग, जीव-परिणामिक में कह्या। उद्राण आदि प्रयोग, तास अरूपी जिन कह्या ।।' [ज.स.] ६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवकाशान्तर आदि में वर्णादिक की पृच्छा वा०-हिब ७ आकास ७ तनुबाय ७ घनवाय ७ घनोदधि ७पृथ्वी-ए वा०-'सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे' त्ति प्रथमद्वितीयपृथिपंच प्रश्न करै छ। पहिलो अवकाशांतर पहिली अनै बीजी नरक पृथ्वी नै बीच व्योर्यदन्तराले आकाशखण्डं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तमं कहियै । तेहनी अपेक्षाए सातमों अबकाशांतर सातमी पृथ्वी नीचै छ। तेहन ऊपर सप्तम्या अधस्तात्तस्योपरिष्टात् सप्तमस्तनुवातस्तसातमों तनुवाय । ते ऊपर सातमों धनवाय। ते ऊपर सातमों घनोदधि । ते ऊपर स्योपरि सप्तमो घनवातस्तस्याप्युपरि सप्तमो सातमी पृथ्वी। इम ऊपरली पृथ्वी पिण अनुक्रम जाणवो। प्रथम सातमा घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी पृथिवी । अवकाशांतर नों प्रश्न कहै छै-- (वृ. प. ५७४) ४५. *सातमा आकाश नै विषे रे, प्रभु ! किता वर्णादि विमास? ४५. सत्तमे णं भंते ! ओवासंतरे कतिवण्णे जाव कतिफासे जिन भाखै इमहीज छ रे, यावत नहिं छै फास ।। पण्णत्ते ? एवं चेव जाव (सं.पा.) अफासे पण्णत्ते । (श. १२।११२) ४६. प्रभु ! सप्तम तनुवाय में रे, किता वर्णादि विमास ? ४६. सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कतिवण्णे जाव कतिफासे जिन कहै प्राणातिपात ज्यूं रे, णवरं लहै अठ फास ।। पण्णते? जहा पाणाइवाए नवरं (सं. पा.) अट्ठफासे पण्णत्ते । सोरठा ४७. तनुवायादिक तेह, अठफर्शी पूद्गलपणे । ४७. तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्गलिकत्वेन बादर परिणत एह, सूक्षम प्राणातिपात है।। मूर्तत्वात् अष्टस्पर्शत्वं च बादरपरिणामत्वात् । (व प. ५७४) ४८. *जिम सप्तम तनुवाय छ रे, तिम सप्तम घनवाय । ४८. एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घनोदधि इम सातमों रे, इम सप्तम पृथ्वी कहाय ।। घणोदधी पुढवी। ४६. छठा अवकाशांतर नै विषे रे, सप्तमी छठी रै बीच । ४९. छठे ओवासंतरे अवण्णे । वर्णादिक तिणमें नहीं रे, ए अजीव द्रव्य समीच ।। ५०. छठा तनुवाय नै विषे रे, फुन छट्ठो घनवाय । ५०. तणुवाए जाव छट्ठी पुढवी-एयाई अट्ठफासाई । घनोदधी छठी पृथ्वी रे, अष्ट फर्श तिण मांय ।। ५१. सप्तम पृथ्वी नी कही रे, वक्तव्यता जिम जाण । ५१. एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया तहा इम जावप्रथम पृथ्वी लगे रे, कहि सर्व पिछाण ।। जाव पढमाए पुढवीए भाणियव्वं । सोरठा ५२. 'अवकाशांतर सात, वर्ण गंध रस फर्श नहीं। अमूर्तपणे विख्यात, स्थान जुआ ते कहूं । ५३. पहिली पृथ्वी हेठ, दूजी पृथ्वी ऊपरे । ए बिहं बीचज नेठ, आकाशांतर प्रथम है। ५४. दूजी पृथ्वी हेठ, तीजी पृथ्वी ऊपरे। ए बिहु विच में नेठ, आकाशांतर द्वितीय छ । ५५. तीजी पृथ्वी हेठ, चउथो पृथ्वी ऊपरे । ए बिहु बिच में नेठ, आकाशांतर तृतीय छै ।। ५६. चउथी पृथ्वी हेठ, पंचम पृथ्वी ऊपरे । ए बिहु बिच में नेठ, आकाशांतर चतुर्थो ॥ ५७. पंचम पृथ्वी हेठ, छठी पृथ्वी ऊपरे । ए बिहु बिच में नेठ, आकाशांतर पंचमो॥ ५८. छठी पृथ्वी हेठ, सप्तम पृथ्वी ऊपरे । ए बिहु बिच में नेठ, आकाशांतर ए छठो॥ *लय : राजा राणी रंग थी रे श०१२, उ०५, ढा०२६० ६१ Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. हिव सप्तम अवकाश, सप्तम पृथ्वी हेठ है । पछै अलोक विमास, न्याय करी पहिछाणियै || ६०. आकाशांतर ख्यात, ते ऊपर तनुवाय छै I ते ऊपर घनवात, घनोदधि ते ऊपरे ॥ ६१. ते ऊपर पहिछाण, पृथ्वी सातूई कहो । इण न्याये करि जाण, बिहू विच को आकाश नें ॥ ६२. अवर्ण सप्त आकाश, तनु घनवाय घनोदधि । पृथ्वी सप्त विमास आठ फर्श त्यां में कया ।। ६३. आकाशांतर सात, तेह आधारे असे । कहिये जे तनुवात, आठ फर्श छै तेह में ॥ ६४. तनुवाय आधार विचार, अठफर्शी घनवाय छै । घनवाय तणें आधार, घनोदधि में फर्श अठ ॥ ६५. घनोदधी आधार, अठकर्णी सातूं पृथ्वी । इण रीते सुविचार, आकाशादिक जाणज्यो ।' [ ज०स०] जंबूदीप आदि में वर्णादिक की पृच्छा ६६. *जंबूद्वीप नामा द्वीप में रे, यावत वलि कहिवाय । सयंभूरमण समुद्र में रे, सौधर्म कल्प है मांय || ६७. जाव इसीपभारा पृथी रे, नरक नां नरकावास । जाव वासा वैमानिक तणां रे, ए सहु में अठ फास ।। वा०-जान मानियावासा' ही यावत करण थकी असुरकुमारावासादि ग्रहवा, ते असुरकुमार नां भवन, वाणव्यंतर नां नगर, ज्योतिषी नां विमान तिरछा लोक नैं विषे । वलि ते ज्योतिषी नी नगरी राजधानी पिण तिरछा लोक में छं । २४ दंडकों में वर्णादिक की पृच्छा ६८. हे प्रभु! नारक नै विषे रे, वर्ण केतला पाय ? गंध रस फर्म केतला रे ? उत्तर दे जिनराय ॥ ६६. वैक्रिय तेजस आसरी रे, पंच वर्ण गंध दोय । पंच रसा अठ फर्श छ रे, बादर परिणत सोय ॥ ७०. कर्म कार्मण आसरी रे, पंच रसा चिफ रे, फर्श छै पंच वर्ण गंध दोय । सूक्षम परिणत सोय || ७१. जीव पडुच्च अवर्ण छै रे, यावत फर्श न पाय । इम जाव थणियकुमार में रे, नारक जेम कहिवाय ॥ ७२. पूछा पृथ्वीकाय नी रे, तब जिन भावे तास । ओदारिक तेजस आसरी रे, पंच वर्ण जाव अठ फास || ७३. कार्मण आसरी जिम नेरिया रे, जीव आसरी तिमहोज । इमज जाव चउरिद्विया रे, गवरं विशेष कहीज || *लय : राजा राणी रंग थी रे ६२ भगवती जोड़ ६६. जंबूद्दीने दी जाय वयंभूरमणे समुद्दे, सोहम्मे कप्पे ६७. जाव ईसिप भारा पुढवी, नेरइयावासा जाव मानियावासा एवाणि सव्याणि बद्रकाराणि । (. १२।११३) वा० यावत्करणादसुरकुमारावासादिपरिग्रह में च भवनानि नगराणि विमानानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति । (वृ. प. ५७४ ) ६८. नेरइयाणं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता ? ६९. गोयमा ! उब्वियवा पहुच पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा अट्ठफासा पण्णत्ता । वैक्रियतेजसशरीरे हि बादरपरिणामपुद्गलरूपे ततो यादरत्वासयोनरकाणामष्टस्पर्शत्वं (वृ. प. ५७४) ७०. कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा चउफासा पण्णत्ता । कार्मणं हि सूक्ष्मपरिणामपुद्गलरूपमतश्चतुः स्पर्श । (बृ. प. २७४) ७१. जीवं पडुच्च अवण्णा जाव अफासा पण्णत्ता । एवं जाव थणियकुमारा । ( . १२।११४) ७२. पुढविकाइयाणं पुच्छा 1 गोयमा ! 1 ओरालियतेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । ७३. कम्मगं पडुच्च जहा नेरइयाणं । जीवं पडुच्च तहेव । एवं जाव चउरिदिया, नवरं Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. वाउ विषे ओदारिक नै रे, वैक्रिय तेजस तास । ए तीन आश्री पंच वर्ण छ रे, जाव लहै अठ फास ।। ७५. शेष नरक जिम जाणज्यो रे, ते इविध कहिवाय । फर्श च्यार कार्मण मझे रे, वर्णादि जीव में नाय ।। ७६. पंचेंद्रिय तिरखजोणिया रे, वाउकाय जिम जाण । मनुष्य तणी पूछा कियां रे, उत्तर दे जगभाण ।। ७४. वाउक्काइया ओरालिय-वे उब्विय-तेयगाई पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्रफासा पण्णत्ता। ७५. सेसं जहा नेरइयाणं । ७७. धुर चिउं तनु आश्री कह्या रे, पंच वर्ण जाव अठ फास । ___ च्यार फर्श कार्मण मझे रे, जीव अरूपी तास ।। ७६. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा बाउक्काइया । (श. १२।११५) मणुस्साणं-पुच्छा। ७७. ओरालिय-वेउम्विय-आहारग-तेयगाई पडुच्च पंच वण्णा जाव अट्रफासा पण्णत्ता। कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेरइयाणं ७८. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया । ७५. व्यंतर नै वलि जोतिषी रे, वैमानिक वलि जोय । कहिवं नारक नीं परै रे, सह विरतंतज सोय ।। ७६. शत बारम देश पंचम तणो रे, बेसौ साठमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश'मंगलमाल ।। ढाल : २६१ धर्मास्तिकाय आदि में वर्णादिक की पृच्छा १. धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए –एए सव्वे अवण्णा । दूहा १. वलि धर्मास्तीकाय में, जाव पोग्गल-परिवत्त' । ए सगला में वर्ण नहिं, जाव फर्श नहि तत्थ ।। सोरठा २. जाव शब्द थी ताय, अधर्मास्ति आगासस्थि । वलि पुद्गलास्तिकाय, अद्धा समयो आवलिका ।। ३. मुहूर्त इत्यादेह, परावर्त्त-पुद्गल लगे। अमूर्तपणेज एह, वर्णादिक यांमें नथी॥ २,३. इह यावत्करणादेवं दृश्यम् -'अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए आवलिया मुहुत्ते' इत्यादि। (वृ. प. ५७४) ४. णवरं इतो विशेष छ, पुदगलास्ति में तास । पंच वर्ण बे गंध छ, पंच रस अठ फास ।। ४. नवरं--पोग्गलत्थिकाए पंचवणे, दुगंधे, पंचरसे, अट्ठफासे पण्णत्ते। १. अंगसुत्ताणि (भाग २) में 'धम्मस्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए' पाठ है। वृत्तिकार ने जाव की पूर्ति में पोग्गलत्थिकाए के बाद 'अद्धासमए आवलिया मुहत्ते इत्यादि' लिखा है । इत्यादि शब्द सूचना देता है कि कुछ शब्द और हैं । जयाचार्य ने इसी शब्द के आधार पर काल के अन्तिम भेद 'पोग्गल-परिवत्त' तक का ग्रहण कर लिया। श० १२, उ०५, ढा०२६०,२६१ ६३ Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म, लेश्या और दृष्टि में वर्णादिक की पृच्छा _ *हो प्रभुजी ! आप तणी बलिहारी॥ [ध्रुपदं] ५. ज्ञानावरणी ताय, कांइ यावत वलि अंतराय । आठ कर्म में तास, कांइ जाव लहै चिहं फास ।। ६. कृष्ण लेश्या नी पृच्छा, हिवै जिन कहै सुण धर इच्छा । द्रव्य लेश्या में तास, पंच वर्ण जाव अठ फास ।। ५. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए -एयाणि चउफासाणि। (श १२।११६) ६. कण्हलेसा णं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता? दव्वलेसं पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । ७. भावलेसं पडुच्च अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा । भावलेश्या-आन्तरः परिणामः । (वृ. प. ५७४) ८. सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी समामिच्छदिट्ठी। ७. भाव लेश्या अंतर परिणाम, कांइ ते आश्रयी नै ताम। नहीं वर्ण गंध रस फास, इम जाव शुक्ल पिण तास ।। ८. सम्यगदृष्टि मझार, कांइ मिथ्यादष्टि विचार । सम्यगमिथ्या दृष्ट, ए तीन दष्टि में इष्ट ।। ६. चक्षु अचक्षु दर्शण ताहि, अवधि केवल दर्शण मांहि । पांच ज्ञान में तीन अज्ञान, वलि च्यार संज्ञा में जान ।। ९. चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे आभिणिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा१०. एयाणि अवण्णाणि अगंधाणि अरसाणि अफासाणि । १०. यां सगलां में तास, नहिं वर्ण गंध रस फास । कह्या वत्ति में जीव-परिणाम, तिण सं वर्णादिक नहिं ताम।। सोरठा ११. इहां कृष्ण लेश्यादि, परिग्रह संज्ञा अंत लग। अवर्णादि संवादि, जीव-परिणामपणां थकी। उदयभाव जीव-अजीव १२. 'तीन दृष्टि रै मांय, वर्णादिक कह्या नथी। सम्यग-दृष्टि सुहाय, त्याग सहित संवर अछ।। १३. मिथ्यादृष्टि कहाय, भाव क्षयोपशम उदय वलि । ए बिहुं भावे थाय, देखो अनुयोगद्वार में ।। ११. इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसंज्ञाऽवसानानि अवर्णा दीनि जीवपरिणामत्वात् । (वृ. प. ५७४) १३. से कि तं खओवसमनिप्फण्णे ?......"खओवसमिया मिच्छादसणलद्धी...... (अणु. सू० २८५) से कि तं जीवोदयनिष्फण्णे ?"""""मिच्छदिट्ठी। (अणु. सू० २७५) १४. क्षयोपशम-निपन्न मांहि, दाखी मिथ्यादष्टि में । मिथ्याती री ताहि, भली-भली श्रद्धा तिका ।। १५. मिथ्याती रै ताम, केइक बोल समा अछ। भाजन लारै नाम, मिथ्यादृष्टि कही तसु ॥ १६. क्षयोपशम निर्मल भाव, ते कारण ए निर्जरा। उज्जल लेख कहाव, जीव-परिणाम अमूर्त ए॥ १७. उदय भेद बे जन्न, जीव-उदय-निप्पन प्रथम । अजीव-उदय-निष्पन्न, देखो अनुयोगद्वार में ।। १७. से किं तं उदयनिष्फण्णे? उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवोदयनिष्फपणे य अजीवोदयनिष्फण्णे य । (अणु. सू० २७४) १८. जीव-उदय-निष्पन्न, कर्म तणांज उदा थकी। जीवपणेज प्रपन्न, बोल तेतीस कह्या तिहां ।। *लय : स्वामीजी यार दर्शन की ६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. च्यार गति षट काय, वलि षट लेश कषाय चिउं । तीन वेद कहिवाय, मिथ्यादष्टि अविरती। २०. असन्नी में अन्नाण, आहारत्था संसारथा । असिद्ध अकेवली जाण, छद्मस्थ सजोगी वली ।। २१. यां बोलां में जाण, मिथ्यादृष्टि कही तिका । छै ऊंधी श्रद्धान, उदय भाव इण कारणे ।। २२. जीव तणां परिणाम, तिणसू वर्णादिक नथी। मिथ्यात आश्रव ताम, उदय भाव मिथ्यादष्टि ।। २३. तेतीस बोलां मांय, च्यार गति भावे अछ। भावे लेश कहाय, भाव कषाय रु वेद वलि ।। २४. भावे च्यार कषाय, कषाय आश्रव तेह छै। मिथ्यादृष्टी ताय, मिथ्यात आश्रव में कह्यो ।। २५. सजोगी भावे जोग, आश्रव जोग कहीजिये। अविरति अधिक अयोग, अविरत आश्रव तसु कह्यो । २६. अजीव-ग्दय-निष्पन्न, तेहनां भेदज तीस है। पंच शरीर प्रपन्न, तनु-प्रयोग-परिणत पंच द्रव्य ।। २७. पंच वर्ण गंध दोय, फर्श अष्ट रस पंच बलि । कर्म उदय थी जोय, अजीवपणेज ऊपनां ।। २८. अजीव-उदय-निष्पन्न, अजीव राशि मांहे अछ। तिम जीव-उदय-निष्पन्न, जीव राशि में जाणज्यो।।ज०स०] शरीर, जोग और उपयोग में वर्णादिक की पृच्छा २६. *ओदारिक तनु जाणी, वैक्रिय आहारक पिछाणी। वलि तेजस में अठ फास, बादर परिणत सुविमास ।। २९. ओरालियसरीरे जावतेयगसरीरे-एयाणि अट्ठफासाणि औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादर परिणामपुद्गलरूपत्वात् । (व. प. ५७४) ३०. कम्मगसरीरे चउफासे । ३१. मणजोगे वइजोगे य चउफासे। ३०. कर्म कार्मण ताहि, कांइ च्यार फर्श तिण मांहि । ए सूक्षम परिणाम, पुद्गल रूपी छै ताम ।। ३१. मनो योग वच योग, तिणमें च्यार फर्श सुप्रयोग । सूक्षम परिणत सोय, कांइ द्रव्य जोग ए होय ।। ३२. काय जोग अठ फास, बादर परिणाम विमास । पुदगल रूपी जाणो, ए पिण द्रव्य जोग पिछाणो । ३३. साकार नैं अनाकार, ए बे उपयोग विचार । नहि वर्णादिक त्यां मांय, ए तो जीव लक्षण कहिवाय ।। ३४. च्यार फर्श जिण माय, सूक्ष्म पृद्गल कहिवाय । आठ फर्श जे होय, बादर पुद्गल द्रव्य सोय ॥ ३२. कायजोगे अट्ठफासे । ३३. सागारोवओगे अणागारोवभोगे य अवण्णे । (श० १२१११७) ३४. सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति । (वृ. प. ५७४) सब द्रव्यों में वर्णादिक की पृच्छा ३५. सर्व द्रव्य भगवान ! धर्मास्तिकायादिक जान । किता वर्णादिक पाय ? हिव उत्तर दै जिन राय ॥ ३५. सव्वदव्वा णं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता? 'सव्वदन्व' त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि । (वृ. प. ५७४) *लय : स्वामीजी थारै दर्शन की श०१२, उ०५, ढा० २६१ ६५ Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सर्व द्रव्य रै मांहि, कितलायक सहु द्रव्य ताहि । पंच वर्ण जाव अठ फास, बादर पुद्गल द्रव्य राश ।। ३७. बलि सर्व द्रव्य में जाणी, कितलायक सह द्रव्याणी। पंच वर्ण जाव चिउं फास, सूक्षम परिणाम विमास । ३६. गोयमा ! अत्थेगतिया सव्वदव्वा पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता। बादरपुद्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्त सर्वद्रव्याणां मध्ये कानिचित्पंचवर्णादीनीति भावार्थः। (व. प. ५७४) ३७. अत्थेगतिया सव्वदव्वा पंचवण्णा जाव चउफासा पण्णत्ता 'चउफासा' इत्येतच्च पुद्गलद्रव्याण्येव सूक्ष्माणि प्रतीत्योक्तम् । (वृ. प. ५७४) ३८. अत्थेगतिया सव्वदव्वा एगवण्णा एगगधा एगरसा दुफासा पण्णत्ता। 'एगगंधे' त्यादि च परमाण्वादिद्रव्याणि प्रतीत्योक्तम् । (वृ. प. ५७४) ३८. केइक सह द्रव्य सोय, इक वर्ण एक गंध होय । इक रस ने बे फास, परमाणु आश्रयी तास ।। ३९. स्पर्शद्वयं च सूक्ष्मसम्बन्धिनां चतुर्णा स्पर्शानामन्य तरदविरुद्धं भवति । तथाहि- (वृ. प. ५७४) ४०. स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति । (वृ. प. ५७४) ४१. अत्थेगतिया सव्वदव्वा अवण्णा जाब अफासा पण्णत्ता । 'अवण्णे' त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्याश्रित्योक्त। (वु. प. ५७४) सोरठा ३६. सूक्षम संबंधि सोय, च्यार फर्श ते माहिला। अविरुद्ध पावै दोय, ते देखा. छै हिवै ।। ४०. स्निग्ध उष्ण उदार, अथवा स्निग्ध शीत वलि । रूक्ष शीत सुविचार, तथा रूक्ष वलि उष्ण ह। ४१. *केइक सर्व द्रव्य तास, नहि वर्ण जाव नहि फास । धर्माधर्भ आकाश, अद्धा जीवास्ति विमास । सोरठा ४२. रह्या द्रव्य रै मांहि, प्रदेश नं पर्याय फुन । द्रव्य सूत्र कही ताहि, ए बिहुं सूत्र कहै हिवै।। ४३. द्रव्य तणो जे जोय, निविभाग जे अंश है। ते प्रदेश अवलोय, पर्यव धर्मज द्रव्य नुं । ४४. *सर्व प्रदेश पिण एम, वलि सह पजवा पिण तेम । सह द्रव्य कह्या तिण रीत, कहिवा प्रदेश पजवा धर प्रीत॥ ४५. रूपी द्रव्य नां रूपी प्रदेश, रूपी पजवा विशेष । अरूपी द्रव्य नां ताय, अरूपी छै प्रदेश पर्याय ।। ४२. द्रव्याधितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रं । (वृ. प. ५७४) ४३. तत्र च प्रदेशा-द्रव्यस्य निविभागा अंशापर्यवास्तु धर्माः । (वृ. प. ५७४) ४४. एवं सव्वपएसा वि सव्वपज्जवा वि । ४५. इह च मूर्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्तद्रव्य वत्पञ्चवर्णादयः अमूर्त्तद्रव्याणां चामूर्तद्रव्यवदवर्णादय इति । (वृ. प. ५७४) ४६. तीयद्धा अवण्णा जाव अफासा। एवं अणागयद्धा वि सव्वद्धा वि। (श. १२।११८) ४६. अतीत काल में तास, नहिं वर्ण गंध रस फास । एम अनागत काल, सर्व अद्धा पिण इम हाल । ४७. वर्णाद्यधिकारादेबेदमाह (बृ. प. ५७४) सोरठा ४७. वर्णादिक विख्यात, ते अधिकार थकी हिवै। आगल जे अवदात, तेहिज कहियै छै सुणो।। गर्भोत्पत्ति काल में वर्णादिक की पृच्छा ४८. *जीव गर्भ विषे भगवान! ऊपजतो छतो पिछान । के वर्ण गंध रस फास, परिणाम परिणमै तास ।। ४८. जोवे णं भंते ! गभं वक्कममाणे कतिवणं कति गंधं कतिरसं कतिफासं परिणाम परिणमइ ? सोरठा ४६. परिणाम परिणमै जेह, स्वरूप प्रते जाए तिको। ____ कति वर्णादिरूपेह ? परिणमै इम पूछ्यु अरथ ।। *लय : स्वामीजी थार दर्शन की ४९. परिणामं परिणमइ' ति वरूपं गच्छति कतिवर्णादिना रूपेण परिणमतीत्यर्थः ।(व. प. ५७५) ६६ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. *जिन कहै वर्ण रस पंच, बे गंध फर्श अठ संच। ५०. गोयमा ! पंचवण्णं, पंचरसं अट्ठफासं परिणाम गर्भ में उत्पत्ति काल, परिणाम परिणमै न्हाल ।। परिणमइ। (श. १२।११९) वा०—गर्भ में ऊपजवा नै काले जीव शरीर नै पांच वर्णादिकपणां थकी वा०.---'पंचवन्नं ति गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य गर्भ उपजवण काल नै विषे जीव परिणाम नै पांच वर्णादिपणो जाणवो। ते माटे पञ्चवर्णादित्वात् गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पंच वर्ण, दोय गंध, पंच रस, आठ फरस परिणामे परिणमै । पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति । (वृ. प. ५७५) सोरठा ५१. गर्भ उपजतो जीव, वर्ण गंध रस फर्श करि । ५१. अनन्तरं गर्भ व्युत्क्रामन् जीवो वर्णादिभिविचित्रं विचित्रपणे अतीव, परिणाम परिणमै इम कह्यो ।। परिणाम परिणमतीत्युक्तम् । ५२. जे विचित्र परिणाम, जीव तणे उपजै अछ । ५२. अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति तिण कारण थी ताम, ते देखाड़े छै हिवै ॥ तद्दर्शयितुमाहकर्म विभक्ति पद ५३. *कर्म थकी प्रभु ! जीव, पिण कर्म बिना न अतीव । ५३. कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं विभक्तिभाव कहिवावै, विभाग रूप जे भावै ।। परिणमइ? 'विभत्तिभावं' विभागरूपं भावं। (बृ. प. ५७५) ५४. नारक तिरि मनु देव, जे भव नै विष स्वयमेव । ५४. नारकतिर्यग्मनुष्यामरभवेष नानारूपं परिणाममित्यर्थः नानारूप परिणाम, परिणमैं प्राप्ति हवै ताम ।। परिणमति गच्छति । (बु. प. ५७५) ५५. तथा तिण प्रकार करेह, 'कम्मओ णं जए' पाठ कहेह। ५५,५६. कम्मो णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं कर्म थकी जे जाणी, जगत-जीव-समूह पहिछाणी।। परिणमइ? ५६. ते ते नारकादि भाव प्रतेह, जाये ते भाव परिणमेह । 'कम्मओ णं जए' त्ति गच्छति तांस्तान्नारकादिपिण कर्म बिना नहि ताहि, विभाग भाव परिणमै नांहि ॥ भावानिति 'जगत्' जीवसमूहः। (वृ. प. ५७५) ५७. जिन कहै हंता जेह, कर्म थी तिमज जाव परिणमेह । ५७. हंता गोयमा ! कम्मओ णं तं चेव जाब (सं.पा.) पिण कर्म बिना जे ताहि, विभाग परिणम नांहि ।। परिणमइ। (श. १२।१२०) वा०-कम्मओ णं जीवे ए प्रथम पाठ में समचे जीव नीं पूछा कीधी । अनवा०--जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंगमाभिधानो जगन्ति 'कम्मओ णं जए' द्वितीय पाठ में जीव द्रव्य नों हीज विशेष जंगम अभिधान ते जंगमान्याहुरिति वचनादिति । (वृ. प. ५७५) जीव त्रस नीं पूछा, एहवू जणाय छै । ५८. सेवं भंते ! जाणी, प्रभु ! सत्य तुम्हारी वाणी। ५८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. १२११२१) शतक बारमा नों जाण, अर्थ पंचमुद्देशक वाण ।। ५६. ढाल बेसौ इकसठमी ताय, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय । तास प्रसादे जोय, 'जय-जश' सुख संपति होय ।। द्वादशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१२॥५॥ ढाल : २६२ दहा १. पूर्व उद्देशक अंत में, जीव विभक्तीभाव। चिउं गति में नानापणो, पामै कर्म प्रभाव ।। २. ते राहु ग्रसते समय, चंद्र तणो पिण थाय । ए आशंकाटालवा, षष्ठमुदेशे वाय ।। *लय : स्वामीजी थारे दर्शन की १. जगतो विभक्तिभावः कर्मत इति पञ्चमोद्देशकान्त उक्तम् । (वृ. प. ५७५) २. स च राहुग्रसने चन्द्रस्यापि स्यादिति शंकानिरासाय षष्ठोद्देशकमाह (वृ. प. ५७५) श० १२, उ०५,६, ढा० २६१,२६२ ६७ Jain Education Interational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. रायगिहे जाव एवं वयासी-बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ चंद्रसूर्य ग्रहण पद *जय जय जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों ।। (ध्रुपदं) ३. नगर राजगह जाव गोतम कहै, प्रभु ! बहु जन माहोमांय हो, जिनेश्वर । इम कहै जाव परूपै इहविधे, ते आगल कहिवाय हो, जिनेश्वर ।। ४. इम निश्चै राह चंद्र प्रति ग्रहै, ते किणविध ए ताय हो? जिन कहै बहु जन अण्णमन्न इम कहै, यावत मिथ्या वाय हो। ४. एवं खलु राहू चंदं गेण्हति, एवं खलु राहू चंद गेहति । (श. १२।१२२) से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु। ५. इह तदवचनमिथ्यात्वमप्रमाणकत्वात् कुप्रवचनसंस्कारोपनीतत्वाच्च । (वृ. प. ५७६) ६,७. ग्रहणं हि राहुचन्द्रयोविमानापेक्षं, न च विमानयोसिक ग्रसनीयसम्भवोऽस्ति आश्रयमात्रत्वात् । (बृ. प. ५७६) ८. नरभवनानामिव अथेदं गृहमनेन ग्रस्तमिति दृष्टस्तद् व्यवहारः ? सत्यम्। ९. स खल्वाच्छाद्यादकभावे सति नान्यथा। सोरठा ५. इहां मिथ्या अप्रमाण, वलि कुत्सित प्रवचन तणां । संस्कार थी जाण, तसु उपनीतपणां थकी। ६. राह तणो विमान, चंद्र विमान प्रते ग्रसै। पिण सुर नों न ग्रसान, ते तो विमान में अछै । ७. ग्रासक राहू देव, चंद्र देव ग्रसनीय इम। इम संभव न कहेव, आश्रयमात्रपणां थकी । ८. मनुष्य-भवन जिम न्हाल, एणे इण घर नै ग्रस्यो। इम को कहै संभाल, एहवो दृष्ट ववहार सत्य ।। है. ते निश्चै आच्छाद्य-आच्छादक भावे थकां। बत्तै ए संवाद्य, पिण ते न हुवै अन्यथा ।। १०. आच्छादनभावेन, ग्रास विवक्षा – विषे । इण अभिप्राय कथेन, तो पिण विरुधपणो नथी ।। राहू का वर्णन ११. *हूं पिण गोतम !इम आखू अछू, जाव परूपूं एम हो, मुनीश्वर । इम निश्चै करि राहु देवता, महद्धिकजाव सुप्रेम हो, मुनीश्वर ।। १२. महेसक्खे ते महाईश्वर का, वर वत्थधारक जेह हो। धरणहार बलि प्रधान माल्य नां, वर गंधधारक एह हो।। १३. वर आभरण तणो धारी तिको, राहु नां नव नाम हो । श्रृंघाटक ए पहिलो नाम छ, जटिल क्षत्रक अभिराम हो।। १०. आच्छादनभावेन च ग्रासविवक्षायामिहापि न विरोध इति । (वृ. प. ५७६) ११. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि -एवं खलु राहू देवे महिड्डीए जाव १२. महेसक्खे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे । १३. वराभरणधारी राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा -सिंघाडए जडिलए खतए १४. खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे । १४. खरक दद्र ने मगर छठो कह्यो, मछ अरु कच्छप जान हो। कृष्णसर्प ए नवमों नाम छ, वर पुन्याईवान हो। १५. विमान पंच वर्ण राहु तणां, कृष्ण नील कहिवाय हो। लोहित वर्ण अनैं हालिद्द वली, शुक्ल वर्ण सुखदाय हो ।। १६. कृष्ण वर्ण जे राह विमान छ, दीवा नो जे लोय हो। तेहनां मल नों वर्ण तिसी कहो, आभा कांती होय हो। खिंजन वर्णाभे कहिये तसु] ॥ १७. नील वर्ण जे राह विमान छ, काचो तुंबो तेह हो। तेहनां वर्ण सरीखी कांति छ, लाउय वर्णाभे जेह हो ।। *लय : पूजजी पधारो हो नगरी सेविया ६८ भगवती जोड़ १५. राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा-किण्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुक्किला। १६. अत्थि कालए राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते। 'खंजणवन्नाभे' त्ति खञ्जनं-दीपमल्लिकामलस्तस्य यो वर्णस्तद्वदाभा यस्य तत्तथा। (वृ. प. ५७६) १७. अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते । 'लाउयं' ति तुम्बिका तच्चेहापक्वावस्थ ग्राह्यमिति । (व. प. ५७६) Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्टवण्णाभे पण्णत्ते । १९. अत्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवण्णाभे पण्णत्ते । १८. रक्त वर्ण जे राहु विमान छ, मजीठ वर्ण समान हो। तेहनी आभा कांति अछ तसु, मजीठ वर्णाभे जान हो । १६. पीत वर्ण जे राहु विमान छ, हालिद्द वर्ण समान हो। छै तसु आभा कांति जेहनी, हालिद्द वर्णाभ पिछान हो । २०. शुक्ल वर्ण जे राहु विमान छै, भसम छार नीं राश हो। उज्जल राख सरीखी जेहनी, आभा कांति उजास हो। [भसम राख वर्णाभ कह्यो तसु॥] २१. राहुदेव जिवारे जायने, अतिचारे करि आम हो। दाख्यो एह विशेषण गति तणो, पाछो वलतो ताम हो ।। [कृष्ण वर्णादि विमान बेसी करी] । २२. चार स्वभाव गती करि जावतो, ए बिहं पद करि ताय हो। गति स्वाभाविक कही राहु तणी, हिव अन्य गति कहिवाय हो।। २०. अत्थि सुक्किलए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते । 'भासरासिवण्णाभे' त्ति भस्मराशिवर्णाभं । (वृ. प. ५७६) २१. जदा राहू आगच्छमाणे वा। 'भागच्छमाणे व' त्ति गत्वाऽतिचारेण ततः प्रतिनिवर्तमानः कृष्णवर्णादिना विमानेनेति शेषः । (वृ. प. ५७६) २२. गच्छमाणे वा । 'गच्छमाणे व' त्ति स्वभावचारेण चरन्, एतेन च पदद्वयन स्वाभाविकी गतिरुक्ता। (वृ. प. ५७६) २३. विउब्वमाणे वा परियारेमाणे वा। २३. वलि राह वैक्रिय करतो थको, वलि परिचारण करत हो। ए बिहं पद करि अतिही उतावलो, प्रवर्तमान जद हुंत हो। २४. अधिक स्थूल चेष्टा करिने तदा, निज विमान प्रति जाणहो। चलावतो ते असमंजसपणे, राहू देव पिछाण हो। २५. ए बिहुं पद करि अस्वाभाविकपणे, विमान नी गति हुंत हो । पूर्व दिशि चंद्र-लेश्या ढांक नै, पश्चिम दिशि जावंत हो। २४. विसंस्थुलचेष्टया स्वविमानमसमञ्जसं वलयति । (वृ. प. ५७६) २५. एतच्च द्वयमस्वाभाविकविमानगतिग्रहणायोक्तमिति । (वृ. प. ५७६) चंदलेस्सं पुरथिमेणं आवरेत्ता णं पच्चत्थिमेणं वीतीवयइ। २६. स्वविमानेन चन्द्रविमानावरणे चन्द्रदीप्तेरावृत्तत्वा च्चन्द्रलेश्यां पुरस्तादावृत्य (वृ. प. ५७६) २७,२८. तदा णं पुरथिमेणं चंदे उवदंसेति पच्चत्थिमेणं राहू राह्वापेक्षया पूर्वस्यां दिशि चन्द्र आत्मानमुपदर्शयति चन्द्रापेक्षया च पश्चिमायां राहरात्मानमुपदर्शयतीत्यर्थः । सोरठा २६. निज विमाण करेह, शशि-विमान आवरण छ । वली चंद्र नी जेह, दीप्ति आच्छादन भाव थी॥ २७. *तिण अवसर राहु नी अपेक्षया, पूर्व दिशि पहिछाण हो। चंद्र आतम प्रति देखाड़े अछ, दोसै चंद्र विमाण हो । २८. चंद्र तणीज अपेक्षाए करी, पश्चिम दिशि पहिछाण हो। राह आतम प्रति देखाड़तो, दीस राह विमाण हो। सोरठा २६. राह विमान जिवार, पूर्व चंद्र विमान प्रति । ढांकी ने तिण वार, जाये पश्चिम दिशि विषे । ३०. पूरव दिशे तिवार, चंद्र विमाण दीसै अछ। पश्चिम दिशि अवधार, राह विमाण दीसतो।। ३१. एक आलावो एह, इम सगली दिशि जाणवो। संक्षेपे करि तेह, कहियै छै ते सांभलो ।। ३२. *राह जिवारे अतिचारे करी, जई पाछो आवत हो। ___अथवा स्वभाव गति करि जावतो, वली वैक्रिय करत हो ।। ३३. परिचारण ते काम-क्रीडा प्रते, करतो गमन करत हो। चंद्रलेश्या पश्चिम दिशि आवरी, पूरव दिशि जावंत हो । *लय : पूजजी पधारो हो नगरी सेविया ३२,३३. जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउध्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पच्चत्थिमेणं आवरेत्ता णं पुरत्थिमेणं व तीवयइ। श० १२, उ०६, ढा. २६२ ६९ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. तिण अवसर पश्चिम दिशि चंद्रमा, स्वविमान देखावंत हो। पूर्व दिशि राहु दीसे अछे, द्वितीय आलावो हुंत हो ॥ ३५. इस जिम पूर्व पश्चिम नों को प्रथम आलावो पेस हो । अथवा पश्चिम पूर्व करि कह्यो, द्वितीय आलायो विशेष हो । ३६. जिम ए दो आलावा आखिया, तिमहिज कहिया ताम हो । दक्षिण उत्तर दिशि संघात हो, दोय आलावा आम हो || सोरठा उत्तर साथ तृतोय तृतीय आलावो दक्षिण संचात ३७. दक्षिण आलावो जाणवो । उत्तर चउथो अछे ॥ ३८. *महि कृण ईशाण अनं वली, नैस्तकूण संघात हो । भगवा दोय आलावा विधि करी, वारू रीत विख्यात हो || सोरठा ३९. ईशान नेत पंचमो । अछै ॥ जाण, ते साथ आलावो नैरुत ने ईशाण, छट्टो आलावो ४०. *हि आग्नेयकूण अने तो वायव्यकूण संचात हो । कहिवा दोय आलावा विधि करि, पूरव रीत विख्यात हो ।। सोरठा ४१. आग्नेय वायव्य आम, तेह संघाते वायव्य उत्तर ताम, ते साथ आलावो ४२. हिव अष्टम आलाव, कहिये छै इण निसुणो निर्मल न्याव, वारू जिन वच ४३. *जाव तिवारे वायव्यकूण नी, चंद्र लेश्या प्रति ताय हो । ढांकी में जे राहु विमाण से, अग्निकूण में जाय हो । ४४. तिन अवसर ते वायव्यकूण में दोसे चंद्र विमाण हो। अग्निकूण में राहू दोसतो, अष्टम आलावी जाण हो । सोरठा ४५. इह विध गमन करत, राहू चंद्र विमाण नैं । जे हवे तेह कहंत, चित्त लगाई ४६. राहु जिवारे जई ने आगतो, अथवा जातो वत्रिय परिचारण करता वलि, चंद्र लेश्या सांभली ॥ जेह हो । ढांकेह हो || बा० आवरेमाणे आवरेमा चिदुइ ति इहां द्विवचन कहा वे चि इण क्रिया नां विशेषणपणां थकी । ४७. मनुष्य लोक में मनुष्य कई तथा इस निश्वं करि एह हो । राह महाग्रह चंद्र प्रते ग्रहे इम जन वाण बदेह हो । ४८. राहु जिवारे आतो जावतो, बैकिय फीड करंत हो। ढांकी पास गर्छत हो । चंद्र विमान तणी लेश्या प्रते, *लय पूजजी पधारो हो नगरी सेविया भगवती जोड़ ७० सातमों। आठमों ॥ रीत सूं विमल छे || ३४. तदा णं पञ्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेति पुरत्थिमेणं राहू | 1 ३५. एवं जहा पुरत्थिमेणं पच्चत्थिमेण य दो आलावगा भणिया । ३६. एवं दाहिणेणं उत्तरेण य दो आलावगा भाणियव्वा । ३८. एवं उत्तरपुरत्थिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेण य दो आलावगा भाणियव्वा । ४०. एवं दाहिणपुरत्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेण य दो आलावगा भाणियव्वा । ४४. एवं चैव जाव तदा णं उत्तरपच्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेति दाहिणपुरमेणं राहू तदाह- ४५. एवंविधस्वभावतायां च राहोश्चन्द्रस्य यद्भवति (बु.प. ५७६) ४६. जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेमाणेआरेमा चि वा० 'आवरेमाणे' इत्यत्र द्विर्वचनं तिष्ठतीति क्रियाविशेषणत्वात् । ( वृ. प. ५७६ ) ४७. तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति एवं खलु राहू चंद गेहति एवं खलु राहू चंदं गेण्हति । ४८. जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेत्ता णं पासेणं वीतीवयइ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. मनुष्य लोक में मनुष्य कहै तदा, इम निश्चै करि एह हो। __चंद्र राहु नी कुक्षि भेदी अछ, इम जन वाण वदेह हो। ४९. तदा ण मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना, एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना। सोरठा ५०. राहु अंश में चंद, पइट्टो जन कहै चंद सुरिंद, भेदी इम का जोइजै । कुक्षि राहू तणी।। ५१. *राह जिवारे आवत-जावतो, वैक्रिय क्रीड करत हो। चंद्र लेश्या प्रति ढांकी आवरी, जब ते पाछो वलंत हो । ५२. मनुष्य लोक में मनुष्य वदै तदा, इम निश्चै करि एह हो। राह चंद्र प्रते छोड्यो अछै, इम जन वाण वदेह हो । ५३. राह जिवारे आवत-जावतो, वैक्रिय क्रीड़ करंत हो । नीचे चिउं दिशि वलि चिउं विदिशि में, चद लेश्या ढांकी रहंत हो ।। ५०. राहोरंशस्य मध्येन चन्द्रो गत इति वाच्यं, चन्द्रेण राहो कुक्षिभिन्न इति व्यपदिशन्तीति । (वृ. प. ५७६) ५१. जदा णं राहू आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेत्ता णं पच्चोसक्कइ। ५२. तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति--एवं खलु राहुणा चंदे वंते, एवं खलु राहणा चंदे वते। 'वंते' त्ति 'वान्तः' परित्यक्तः। (व. प. ५७६) ५३. जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउब्व माणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ता णं चिट्ठइ । 'सपक्खि सपडिदिसं' ति सपक्ष-समान दिग् यथा भवति सप्रतिदिक-समानविदिक् च यथा भवति । (वृ. प. ५७६) ५४. तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे, एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे। (श. १२।१२३) ५४. मनुष्य लोक में मनुष्य वदै तदा, इम निश्चै करि एह हो। राहु चंद्र प्रते ग्रस्यो ग्रह्यो, इम जन वाण वदेह हो । सोरठा ५५. आवरण मात्रज एह, स्वाभाविक जे चंद नो। राहु ग्रसन कहेह, पिण ग्रसन क्रिया निष्पन्न नथी। ५६. *बारम शतक देश छठो कह्यो, दोयसौ बासठमी ढाल हो। . भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल हो । ५५. अत आवरणमात्रमेवेदं वैससिकं चन्द्रस्य राहणा प्रसनं न तु कार्मणमिति। (वृ. प. ५७६) ढाल २६३ दूहा १. अथ राहो दमाह (वृ. प. ५७६) १. राह करिक चंद्र नों, पूर्वे ग्रसन कहेह। हिव राहू नों भेद वलि, कहिये निसुणो जेह ।। राहू के भेद २. किते प्रकारे हे प्रभु ! राहु परूप्यो स्वाम ! जिन कहै दोय प्रकार जे, राह कह्योज ताम ।। २. कतिविहे णं भंते ! राहू पण्णते? गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते, तं जहा *लय : पूजजी ! पधारो हो नगरी सेविया श० १२, उ०६, ढा० २६२,२६३ ७१ Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. धुवराहू य । यश्चन्द्रस्य सदैव संनिहितः संचरति स ध्रुवराहुः । (वृ. प. ५७६) ४. पव्व राहू य । यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यामावास्ययोश्चन्द्रादित्य योरुपरागं करोति स पर्वराहुरिति । (वृ. प. ५७७) ५. तत्थ णं जे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं चंदलेस्सं आवरेमाणेआवरेमाणे चिट्ठइ। ६. पढमाए पढमं भागं बितियाए बितियं भागं । 'पढमाए' त्ति प्रथमतिथौ। (वृ. प. ५७७) ७. जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं । चरिमसमये चंदे रत्ते भवई सर्वथाऽप्याच्छादित इत्यर्थः । (वृ. प. ५७७) ८. अवसेसे समये चंदे रत्ते वा वि रत्ते वा भवइ । अवशेषे समये प्रतिपदादिकाले चन्द्रो'..." आच्छादितानाच्छादित इत्यर्थः। (वृ. प. ५७७) ३. प्रथम ध्रुव-राहू कह्यो, चंद्र समीपे जेह। सदा काल जे संचरै, ते ध्रुव-राहु कहेह ।। ४. तथा अमावस पूर्णिमा, पर्व दिवस पहिछाण । चंद्र सूर्य नो ग्रहण है, पर्व-राहु ते जाण ।। ५. *ध्रुव-राहू तिहां जे का, बिद पख नी जे पडिवा ते दिन थी प्रारंभी, हो लाल । राह पोता नै पनर भागे करी, पनर भाग तन लेश्या आवरतो दिन-दिन अंभी, हो लाल । ६. जे पहिली तिथि नै विषे, प्रथम भाग आवरतो वलि बीजी तिथि रै मांह्यो, हो लाल ।। बोजो भागज आवरै, तीजी तिथि आवरतो कांइ तीजो भाग कहायो, हो लाल । ७. जाव पनरमा दिन विषे, भाग पनरमों ढांकी कांइ राहु रहै तिवारे, हो लाल । चरम समय चंद्र रक्त ब, सर्व थकी आच्छादित ___ कांइ हुवै अमावस सारे, हो लाल । ८. अवशेष थाकता समय में, पडिवा थी चवदश लग रक्त विरक्तज चंदो, हो लाल। कायक चंद इम ढांकियो, कांयक ते अणढाक्यो रक्त विरक्त कथंदो, हो लाल ।। ६. तेहिज चंद्र लेस्या प्रते, शुक्ल पक्ष पडिवा थी प्रारंभी राहू तेही, हो लाल । पाछो ऊसरवा थकी, पंच रु दश भागे करि ___ कांइ चंद्र देखोड़तो जेही, हो लाल ।। १०. जे पहिली तिथि नैं विषे, पहिलो भाग उघाड़े काइ बीजी तिथि में बीजो, हो लाल । जाव पूनम दिन पनरमे, भाग पनरमों प्रगट ए अंतिम भाग कहीजो, हो लाल ।। ११. शुक्ल पक्ष पूनम विषे, चंद्र विरक्त हुवै छै कांइ सर्व थकीज उघाड़ो, हो लाल । अवशेष समय में चंद्रमा, अणाच्छादित आच्छादित कांइ रक्त विरक्त तिवारो, हो लाल । सोरठा १२. इहां भावार्थ एह, शशधर नां मंडल तणां । सोले भाग करेह, एक उघाड़ो नित रहै ।। १३. अल्पपणां थी जाण, तास विवक्षा नहिं करी । पनर भाग पहिछाण, ते माटे इहां आखिया । १४. कृष्ण पक्ष में राहु, इक-इक भागज आवरै। शुक्ल पक्ष अधिकाहु, इक-इक भागज ऊघडै ।। * लय : पातक छानो नहीं रहै ९. तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठइ । 'तमेव' त्ति तमेव चन्द्रलेश्यापंचदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिष्विति गम्यते 'उपदर्शयन् उपदर्शयन्' पञ्चदशभागेन स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयंस्तिष्ठति । (वृ. प. ५७७) १०. पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागे । ११. चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ 'चरिमसमये' त्ति पौर्णमास्यां चन्द्रो विरक्तो भवति सर्वथैव शुक्लीभवतीत्यर्थः सर्वथाऽनाच्छादितत्वादिति । (वृ. प. ५७७) १२. इह चाय भावार्थः षोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशो भागोऽवस्थित एवास्ते। (बृ. प. ५७७) १४. ये चान्ये भागास्तान् राहुः प्रतितिथ्येकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुञ्चतीति । (वृ. प. ५७७) ७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. 'ज्योतिष्करंडक' सोल भाग १६. इक योजन छप्पन भाग १७. राहू तणो जोजन अर्ज १८. मोटो पिण इम पेख, तेहमें आखियो । सुविशेख को चंद्र विमान नां ॥ नां जाण, इकसठ भागज कीजिये। पिखाण, चंद्र विमाण को अर्द्ध ।। विमान, विमानपणें करी । ग्रह ते किम के सर्वथा ॥ विमान ते । न्याय हिव ।। पर्ण जणाय छै ।। प्रमाण, चंद्र विमान, राहू लघु दिवस पनरमे जाण, किम सह ढांके १६. योजन अर्द्ध विमान ते प्रमाण राहु ग्रह नों जाण, अधिक प्रमाण राहु २०. अन्य गणि आई एम लघु पिण विमाण महा अतितमि तेम तसुं किरणसमूह करि २१. केइक दिन लग धार, ध्रुव- राहु दीसे वृत आकार, ग्रहण विषे पर्व- राहु २२. केक दिन लग सोय, वृत्त न स्यूं कारण इहां होय ? उत्तर कहिये तसु ॥ छै २३. जे दिन विषे सुजान, अतिही तम कर व्याप्त शशी । ते दिन २४. जे दिन राहू जान, अति तम कर नहिं चंद्र विशुद्ध पिछान, ते दिन दिन वृत्त २५. ए सगलो विस्तार, आख्यो म्हैं वदै केवली सार, तेहिज सत्य २६. पर्व- राहू तिहां चंद्र नौ जघन्य हुवे पट मासे राहु विमान, वृत्त आकारे दोसतो ॥ , उत्कृष्टो मास बर्याली हो लाल । इमहि सूर्य नों अछे, पिण णवरं उत्कृष्टो शशि- आविस्य पद २७. किण अयं भगवंत जी 1 कंता मनहर देव छे जिन भावे गुण गोयमा ! चंद्र ज्योतिषि इंद्रज *लय पातक छानो नहीं रहे १. गाथा १११ । राहु नों आवरे ॥ विमान ते । जिम ॥ दीसतो । व्याप्त शशि । न दीसतो || टीका थकी । पिछाणज्यो । कांइ कह्यो वर्ष अडताली, हो लाल ॥ sis ज्योतिषिराय सलहिये, हो लाल ।। २८. मृग चिह्न छे जेहनें, तेह मृगांक विमाने शशि रहिये तारा आधारे, हो लाल । मनहर से चिरं देव्यां कोइ सोल सहस्र परिवारे, हो लाल ।। चंद्र प्र इम चारू शशि नामैं किम कहियै, हो लाल । १५. उक्तञ्च ज्योतिष्करण्डके सोलसभागे काऊण । (बृ. प. ५७७) १६-१८. ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वाद राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनाईयोजनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशे दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् इति । (पु.प.२७७) १९. यदिदं विमानानामयोजनमिति प्रमाणं तत्प्राधिक ततश्च राहोर्ग्रहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं संभाव्यते । (बृ. प. ५७७ ) २०. अन्ये पुनराहु:-- लघीयसोऽपि राहुविमानस्य महता तमिल रश्मिजालेन तदाति इति ( पू. प. ५७७ ) २१, २२. ननु कतिपयान् दिवसान् यावद ध्रुवराहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते ग्रहण इव कतिपयांश्च न तथेति किमत्र कारणं ? अत्रोच्यते । (बृ. प. २७०) २३. येषु दिवसेष्वत्यर्थं तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति । ( वृ. प. ५७७ ) विशुद्धयमानत्वात् तेषु न (वृ. प. ५७७ ) २४. येषु पुनर्नाभिभूयतेऽसौ वृतमाभाति । २६. तत्थ णं जे से पव्वराहू से जहणेणं छण्हं मासाणं उस्कोसेणं वायलीचाए मासा चंदरस अदवासीसाए संबन्धराणं सूरस्त | (. १२।१२४) सूरस्याप्येवं नवरकृष्टतटारिया संवत्सराणामिति । (बृ. प. २७७) २७. से के भंते! एवं चंदे ससी, चंदे ससी ? गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिदस्स जोइसरणो २८. मियंके विमाणे कंता देवा, कंताओ देवीओ श० १२, उ० ६, ढा० २६३ ७३ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. मनहर आसन शयन छै, थंभ भंड अरु मात्रज उपगरण मनोहर जाणी, हो लाल । पोतं पण चंद्र इंद्र ते, सोम्य अरुद्र आकारे अथवा नीरोग पिछाणी हो लाल । ३०. कांति सोभाग सहीत छे, तिणसूं ए बहु जन ने कांद वल्लभ अतिही लागे, हो लाल । दर्शण प्रेमकारी अछे, स्वां माटे ? तसु उत्तर 9 कांइ सुंदर रूपज सागै, हो लाल ॥ ३१. ति अर्थ करि चंद्र ने श्री सोभा करि सहितज वर्त्तते शशि का छै, हो लाल । नाम तास गुणनिष्पन कांदे कर छे हो लाल । ३२. किण अर्थे भगवंत जी ! द्वितीय नाम सूर्य नो कांति सहित निज सुरसुरी कांड आदित्य तास कहीजे, हो लाल । जिन भाखे गुण गोयमा ! समय आवलिकादिक नीं कोइ सूर्य आदि नहीजे, हो लाल ।। सोरठा ३३. दिवस निशादिक जाण, निर्विभाग पहिखाण, ३४. तिण प्रकार कर तेह दिवस रात्रि नों जेह, ३५. * यावत अवसर्पिणी तणी, वलि उत्सप्पिणी केरी कां आदि प्रथम रवि लहिये, हो लाल । तिण अर्थ करी जाव ही सूर तणो आदित्यज कांद अपर नाम इम कहिये हो लाल ।। ३६. हे प्रभु ! इंद्र जोतिषी तणो, ज्योतिषी नों ए राजा कां चंद्र महासुखदाई हो लाल । अमहिषी तसु केतली ? दशम शत पंचमुदेते दाख्यूंतिम इहां कहाई, हो लाल ॥ काल तणां जे भेद नों । तेह अंश ए समय छै ॥ सूर्य उदय अवघे करी । प्रारंभ कर्त्ता समय छै ॥ ३७. यावत ते निश्चै करी, सभा सुधर्मा मांही मिथुन न सेवे महाली हो लाल । तिहां पाठ कहिवो इतला लगे, सूरज ने पिण तिमहिज कां कहिवो सर्व संभाली, हो लाल ।। ३८. देश बारम छट्टा तणो, ढाल दोयी ऊपर कां सम ए आखी हो लाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' सरस संपदा कां निर्मल रूड़ी रात्री हो लाल ।। 7 *लय : पातक छानो नहीं रहे ७४ भगवती जोड़ २९. कंताई आसण-सयण-खंभ- भंडमत्तोवगरणाई अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे ३०. ते सुभए सिणे सुरु ३१. सेते गोपमा ! एवं दुबइ पंदे ससी, चंदे ससी । (श. १२।१२५) ३२. से! एवं बरे आदिले रे आदिच्च ? गोयमा ! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा ३५. जाव ओसप्पिणी इ वा उस्सप्पिणी इ वा । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-सूरे आदिच्चे, सूरे आदिच्चे । ( . १२।१२६) ३६. चंदस्स णं भंते! जोइसिदस्स जोइसरण्णो कति अगमहिसीओ पप्णताओ ? जहा दसमाए (भ० १०९० ) ३७. जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव । (न. १२/१२७) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल २६४ दूहा १. पूर्व चंद अग्रमहेषिओ आखी हिव तसु सुख तणो, चन्द्रसूर्य-कामभोगपद *जिनदेव अनुग्रह कीजे, लाल स्वामजी ! (ध्रुपदं ) २. चंद सूर्य ए जाणी, लाल स्वामजी ! ज्योतिषी नां इंद्र पिछाणी जी । ३. काम भोग किसा कहिवाया, लाल स्वामजी ! भोगवता विचरे राया जी ? ४. जिन भाखै सुण धर खंतो, लाल गोयमा ! हूं दाखूं दे दृष्टंतो जी । [सुविनीत शिष्य सुण वाणी, लाल गोयमा ! ] ५. कोइ एक पुरुष पुन्यवंतो, लाल स्वामजी ! ते केहवो छे बलवंतो जी ॥ सूर्य नीं सार । कहियै छे अधिकार || ६. वय जोवन प्रथम बखाणी, लाल गोयमा ! तेहज उदय पहिछाणी जी ॥ तत्काल जवानी इष्टे जी ॥ पाणिग्रहण कियो रलियाते जी ॥ त्यां नैं हुवो थोड़ोइज कालो जी !! ७. बल प्राण तत्र जे तिष्ठे, लाल गोयमा ! ८. सुंदर एहवीज संघाते, लाल गोयमा ! ६. विवाह कियां नैं न्हालो, लाल गोयमा ! १०. चित द्रव्य कमावण धरियो, लाल गोयमा ! ११. वर्ष सोल लग बसियो, लाल गोपमा ! प्रदेश विषे संचरियो जी ॥ ते द्रव्य तो अति तिसियो जी ।। १२. तिहां द्रव्य अर्थ बहु पायो, लाल गोयमा ! १३. सह कारज करवा सोई, लाल गोयमा ! हिय बाध्य हरष सवायो जी ॥ *लय : सुखपाल सिंघासण लायज्यो राज १४. सह द्रव्य साथ ले तो लाल गोयमा ! अति समर्थ ते अवलोई जी ॥ १५. घर शीघ्रपणें आवंतो, लाल गोयमा ! निज घर आवण ऊम्हायो जी ।। १६. निर्विघ्नपणे घर आयो, लाल गोयमा ! मन पूर्ण मोद पावतो जी ।। मारग में नहि लूटायी जी ॥ २१. चंदमरियागं भतेोदिजोइसरायागो केरिएकामधोने पन्चन्भवमाणा विहति ? ४, ५. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे ६७.पदमावसत्ये । 'पढजाणवत्येति 'प्रथमयौवनत्याने' प्रथमयौवनोद्गमे वद्बलं प्राणस्तप पस्तिष्ठति (पु. प. ५७९) ८९. जोगवस्थाए भारियाए सद्धि अवित्तविवाहकज्जे । तथा । १०, ११. अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए । १२. से णं तओ लद्धट्ठे १३. कयकज्जे १४-१६. समग्गे पुणरवि नियमं गिर्ह मागए। श० १२, उ० ६, ढा० २६४ ७५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७-१९. पहाए कयबलिकम्मे-कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते २०. सव्वालंकारविभूसिए २२,२३. मणुण्णं थालिपागसुद्ध २४,२५. अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे २६,२७. तंसि तारिसगंसि वासघरंसि वण्णओ महब्बले कुमारे (भ. ११४१५७) १७. वलि स्नान वलिकर्म कीधा, लाल गोयमा ! कोतुक तिलकादि प्रसीधा जी॥ १८. दधि अक्षत द्रोबज धारी, लाल गोयमा ! वलि सरसव आदि विचारी जी ।। १६. मंगलीक अर्थ ए साजे, लाल गोयमा ! दुःस्वप्न हरण नै काजे जी ।। २०. सहु अलंकार करि अंगो, लाल गोयमा ! तनु थयो विभूषित चंगो जी॥ २१. पछै भोजन-मंडप आयो, लाल गोयमा ! ते भोजन महासुखदायो जी ।। २२. मनगमतो भोजन जाणी, लाल गोयमा ! ते थालीपाक पिछाणी जी।। २३. रूड़ी पर तेह पचायो, लाल स्वामजी ! ते सिद्ध अन्न कहिवायो जी ।। २४. व्यंजन दश अष्ट प्रकारो, लाल गोयमा ! तिण करी सहित उदारो जी। २५. भोजन एहवो पहिछाणी, लाल गोयमा ! भोगविये छतेज जाणी जी। २६. वसिवा नै धर ते आयो, लाल गोयमा ! तसुं वर्णन अधिक कहायो जी।। २७. महाबल उद्देशे जाण्यो, लाल गोयमा ! तेहवो घर इहां बखाण्यो जी ।। २८. यावत सेज्या सुखदाई, लाल गोयमा ! उपचार सहित अधिकाई जी।। २६. ते सेज्या विषे सुपीतो, लाल गोयमा ! तेहवी जे रमण सहीतो जी ।। ३०. शृंगार तणो घर नारी, लाल गोयमा ! रूड़ो आकार विचारी जी।। ३१. तसु वेष मनोहर चारू, लाल गोयमा ! सुंदर अति निपुण उदारू जी ।। ३२. जाव कलित सहित कहिवायो, लाल गोयमा ! इहां जाव शब्द रै मांह्यो जी॥ ३३. हसवा नी जाणज डाही, लाल गोयमा ! चेष्टा करि रमण सुहाई जी। ३४. सुंदर मंजुल मृदु वाणी, लाल गोथमा ! बोलण नै अधिक सयाणो जी। ३५. वलि नेत्र विकार विलासो, लाल गोयमा ! जाण सुंदर सुखवासो जी ।। ३६. बोलिवू परस्पर जाणे, लाल गोयमा ! वलि मर्म वचन पहिछाण जी॥ ३७. अति निपूण युक्ति अधिकाई, लाल गोयमा ! उपचार काम नी डाही जी।। २८. जाव (सं. पा.) सयणोवयारकलिए । २९. ताए तारिसियाए भारियाए ३०,३१. सिंगारागारचारूवेसाए ३२. जाव (सं. पा.) कलियाए ३३-३७. संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्रिय-विलास-सललिय संलाब-निउणजुत्तोवयारकुसलाए । ७६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८-४२. सुंदरथण-जघण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण रूव-जोव्वण-विलासकलियाए ४४. अणुरत्तए ४५,४६. अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धि 'अविरत्ताए' त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया 'मणाणुकूलाए' त्ति पतिमनसोऽनुकूलवृत्तिकया। (वृ. प. ५७९) ३८. तसु युगल पयोधर आछा, लाल गोयमा ! धन पीवर पुष्ट सुजाचा जी।। ३६. वर जघन गुह्य प्रदेशो, लाल गोयमा ! ते पिण सुंदर सुविशेषो जी ।। ४०. मुख बदन हस्त पग जासो, लाल गोयमा ! वलि नेत्र मनोहर तासो जी। ४१. लावण्य रूप अधिकाई, लाल गोयमा ! वय जोवणपणे सुहाई जी ।। ४२. विलास कलित ते सहितं, लाल गोयमा ! ___ ए जाव शब्द में लहितं जी। ४३. जंबूद्वीपपन्नत्ति' प्रकास्यो, लाल गोयमा ! तेहथी ए मुझनैं भास्यो जी।। ४४. अनुरागवंत ते नारी, लाल गोयमा ! प्रीतम सं प्रेम अपारी जी॥ ४५. भरतार प्रीत जो तोड़े, लाल गोयमा ! तो पिण आ अधिकी जोड़े जी ।। ४६. जो विविध प्रकारे छेड़े, लाल गोयमा ! चाले पति नां मन के. जी ।। ४७. ते एहवी नार संघातो, लाल गोयमा ! सुख विलसै हरष धरातो जी ।। ४८. मनगमता शब्द विलासो, लाल गोयमा ! वर रूप गंध रस फासो जी। ४६. मनुष्य संबंधी सारो, लाल गोयमा ! काम भोग पंच प्रकारो जी।। ५०. भोगवतो विचरै तेही, लाल गोयमा ! __ ते रमण संग रतगेही जी ।। ५१. हे गोतम ! ते नर न्हालो, लाल गोयमा ! पुवेद - उपशमकालो जी ।। ५२. ए शुक्र क्षरण प्रस्तावे, लाल गोयमा ! साता सुख किसो इक पावे जी? ५३. इम पूछ्यो भगवंत धामी, लाल गोयमा ! हिव बोलै गोतम स्वामी जी ।। ५४. मोटो सुख साता पावै, लाल स्वामजी ! गोतम ए उत्तर भावै जी ।। ५५. तब बोल्या वलि भगवंतो, लाल गोयमा ! हे श्रमण आउखावंतो जी।। ५६. तेह पुरुष ना जाणी, लाल गोयमा ! काम भोग थकी पहिछ। णी जी ।। ५७. काम भोग व्यंतर नां इष्टो, लाल गोयमा ! एत्तो अनंतगुणां सुविशिष्टो जी ।। ४८-५०. इठे सद्दे फरिसे रसे रूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरेज्जा । ५१,५२. से णं गोयमा ! पुरिसे विउसमणकाल समयंसि केरिसयं सायासोक्खं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ? 'विउसमणकालसमयसि' त्ति व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र रतावसान इत्यर्थः । (वृ. प. ५७९) ५४. ओरालं समणाउसो ! ५५-५७. तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहितो वाणमंतराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिटुतरा चेव कामभोगा। १.२०१५ श०१२, उ०६,ढा. २६४ ७७ Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५८. एत्तो कहिता जाण, कह्यो स्वरूपज पुरुष नों। तसु काम भोग थी माण, व्यंतर नां अनंतगुण विशिष्ट । ५८. 'एत्तो' त्ति शब्दो योज्यते ततश्चैतेभ्य उक्तस्वरूपेभ्यो व्यन्तराणां देवानामनन्तगुणविशिष्टतया चैव कामभोगा भवन्तीति । (वृ. प. ५७९) ५९. क्वचित्तु एत्तो शब्दो नाभिधीयते। (व. प. ५७९) ६०-६२. वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो असुरिंद वज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव काम भोगा । ६३,६४. असुरिंदवज्जियाणं भवणवासियाणं देवाणं काम भोगेहितो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव कामभोगा। ६५-६७. असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहितो गहगण नक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो अणनगुणविसिट्टतरा चेव कामभोगा। ५६. एत्तो शब्द आख्यात, किणहिक पुस्तक मेंज छ । वत्ति थकी विख्यात, आखी छै ए वारता ।। ६०. *ते वाणव्यंतर नां न्हाली, लाल गोयमा! ____ काम भोग थकी सुविशाली जी। ६१. असुरिदज वर्जी ताह्यो, लाल गोयमा ! सुर भवनपति नां कहिवायो जी ।। ६२. तसु काम भोग छै इष्टो, लाल गोयमा! एत्तो अनंतगुणां सुविशिष्टो जी। ६३. असुरिंद वर्ज भवनपति, लाल गोयमा! तसु काम भोग थी छै अति जी।। ६४. काम भोग असुर नां इष्टो, लाल गोयमा ! एत्तो अनंतगुणां सुविशिष्टो जी।। ६५. जे असुर देव सुविचारी, लाल गोयमा ! तसु काम भोग थी धारी जी। ६६. ग्रहगण नक्षत्र बखाणी, लाल गोयमा! तारारूप जोतिषी जाणी जी॥ ६७. तसु काम भोग अति इष्टो, लाल गोयमा ! ___एत्तो अनंतगुणां सुविशिष्टो जी।। ६८. ग्रहगण नक्षत्र यावत, लाल गोयमा ! तसु काम भोग थी पावत जी। ६६. चंद्र सूर्य ज्योतिषीराया, लाल गोयमा ! ज्योतिषी ना इंद कहाया जी। ७०. तसु काम भोग अति इष्टो, लाल गोयमा ! एतो अनंतगुणां सुविशिष्टो जी॥ ७१.इंद चंद सूर्य अधिकारी, लाल गोयमा ! ज्योतिषी नां राजा भारी जी ।। ७२. एहवा काम भोग सुखकंदा, लाल गोयमा ! भोगवता विचरै इंदा जी ।। ७३. सेवं भंते । सुखदाणी, लाल गोयमा ! प्रभु ' सत्य तुम्हारी वाणी जी॥ ७४. एम कही शिर ना मी, लाल गोयम ! जाव विचरै गौतम स्वामी जी ।। ७५. द्वादशम शतक नों दाख्यो, लाल गोयमा ! अर्थ छठे उद्देशे आख्यो जी॥ ७६. बे सय चौसठमी सारं, लाल सुगुण जी ! आ तो आखी ढाल उदारं जी।। ६८-७०. गहगणनक्खत्त जाव (सं. पा.) कामभोगेहितो चंदिम-सूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव कामभोगा । ७१,७२. चंदिम-सूरिया ण गोयमा! जोतिसिंदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे पच्चणुब्भवमाणा विहरति । (श. १२।१२८) ७३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ७४. त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव (सं. पा.) विहरइ । (श. १२।१२९) *लय : सुखपाल सिंहासन लायज्यो राज ७८ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. भिक्ष भारीमाल ऋषिराया, लाल सुगुणजी! 'जय-जश' सुख हरष सवाया जी ।। द्वादशशते षष्ठोद्देशकार्थः ॥१२॥६॥ ढाल : २६५ १. अनन्तरोद्देशके चन्द्रादीनामतिशयसोख्यमुक्तम् । (वृप. ५७९) २,३. ते च लोकस्यांशे भवन्तीति लोकांशे जीवस्य जन्ममरणवक्तव्यताप्ररूपणार्थः सप्तमोद्देशक उच्यते । (वृ. प. ५७९) ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी दूहा १. छठे उदेशे अंत में, चंद्रादिक नां जाण । __ अतिशय करिनै सुख कह्या, वारू अधिक बखाण ॥ २. चंद्रादिक तो लोक नां, अंश विषे अवलोय । लोक अंश में जोव नों, जनम मरण पिण होय ।। ३. ते जनम मरण री वारता, जीव तणी पहिछाण । सप्तमुद्देशक नै विषे, कहियै तेह विनाण ॥ ४. तिण काले नै तिण समय, यावत गोतम स्वाम। वीर प्रभु नै इम कहै, कर जोड़ी शिर नाम। जीवों का जन्म-मृत्यु पद *वीर प्रभु वागरै इम जीव भम्यो भव मांहि ।। (ध्रुपदं) ५. प्रभ! लोक मोटो कह्यो केतलो जो? तब भाखै भगवान । ___ महामोटो लोक परूपियो जी, बहु वस्तू नों स्थान ॥ ६. जे पूरव दिशि मैं विष जी, असंख्याता कोडाकोड़। जोजन लग ए लोक छै जी, इमहिज दक्षिण जोड़ ।। ७. इमहिज पश्चिम दिशि विषे जी, उत्तर दिशि पिण एम। इमहिज ऊंची दिशि विषे जी, कहिवो पूरव जेम ।। ८. इम नीची दिशि नैं विष जी, असंख्याता कोडाकोड़। जोजन लांबपणे अछै जी, चोड़पणे पिण जोड़।। ६. एवड़ा महामोटा लोक में जी, परमाणु परिमित पिण प्रदेश एहवो छै, जिहां ए जीवड़ो जी, भव भमतो सूविशेष ।। १०. जनम मूल पाम्यो नहीं जी, अथवा मूओ पिण नाय ? कृपा करो मुझ ऊपरे जी, उत्तर द्यो जिनराय ! ११. जिन भाखै सुण गोयमाजी! अर्थ समर्थ नहिं एह। किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो जी? हिव जिन उत्तर देह ।। ५. के महालए णं भंते ! लोए पण्णत्ते? गोयमा ! महतिमहालए लोए पण्णत्ते६. पुरत्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ, दाहिणणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ। ७. एवं पच्चत्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उड्डे पि। ८. अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं । (श. १२११३०) ९,१०. एयंसि णं भंते ! एमहालगंसि लोगंसि अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? १२. प्रभु दृष्टांत देई कहै जी, कोई पुरुष सुविशेख । सय अजा अर्थे करै जी, मोटो बाड़ो एक ॥ ११. गोयमा ! णो इणठे समठे । (श. १२।१३१) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ१२. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे अया-सयस्स एगं महं अया-वयं करेज्जा। 'अयावयं' ति अजावजम् अजावाटकमित्यर्थः । (व. प. ५८०) *लय : जम्बू कह्यो मान ले रे जाया ! श०१२, उ०७, ढा० २६५ ७९ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. छाली घालै ते वाड़ा मझे जी, जघन्य एक दोय तीन । १३. से णं तत्थ जहण्णणं एक्कं वा दो वा तिण्णि वा, उत्कृष्ट सहस्र अजा भणी जी, करै प्रक्षेप संकीन ।। उक्कोसेणं अया-सहस्सं पक्खिवेज्जा। यदिहाजाशतप्रायोग्ये वाटके उत्कर्षेणाजासहस्रप्रक्षेपणमभिहितं तत्तासामतिसंकीर्णतयाऽवस्थानख्यापनार्थमिति । (वृ. प. ५८०) १४. प्रचुर घास पाणी तिहां जी, इण वचने अवलोय । १४. ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ प्रचुर लघु बड़ी नीत नों जी, संभव कहियै सोय ॥ 'पउरगोयराओ पउरपाणीयाओ' त्ति प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च, अनेन च तासां प्रचुरमूत्रपुरीषसम्भवः । (वृ. प. ५८०) वा०-वली क्षुधा तृषा नै अविरहे सुखे रहिवापण करी चिरजीविपणुं वा०-बुभुक्षापिपासाविरहेण सुस्थतया चिरंजीवित्वं का। चोक्तम्। (वृ. प. ५८०) १५. एक दोय तीन दिन लगे जी, जघन्य थकी रहै जेह । १५. जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा, उक्कोसेणं षट मास लगे उत्कृष्ट थी जी, बाड़ा में अजा बसेह॥ छम्मासे परिवसेज्जा। १६. वीर कह सुण गोयमाजी! छाली नां बाड़ा मांय । १६-१८. अत्थि णं गोयमा ! तस्स अया-वयस्स केइ परमाणु-पुद्गल मात्र पिण, कोइ विन फया रहिवाय ।। परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जे णं तासि अयाणं १७. ते अजा ने बड़ी नीते करी जी, लघु नीते करि जोय । उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा __ खेल संघाण वमन करी जी, विण फयां रहै सोय ।। वतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण १८. पित्त राध शुक्रे करी जी, रुधिर चाम करि ताय । वा चम्मेहि वा रोमेहि वा सिंगेहि वा खुरेहि वा रोम सींग खर नख करीजी, विण फर्त्यां रहै काय ? नहेहिं वा अणोक्कतपुव्वे भवइ ? १६. गोतम कहै ए अर्थ नै जी, समर्थ नहीं जिनराय ! १९. णो इणठे समठे । विण फश्य किणविध रहै जी, लोकिक पक्ष रै न्याय ।। २०. जिन कहै होवै पिण गोयमाजी! छाली रा बाड़ा मांय । २०,२१. होज्जा वि णं गोयमा ! तस्स अया-वयस्स केई परमाणु मात्र प्रदेश पिण जे, विण फा रहिवाय ।। परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जे णं तासि अयाणं २१. ते अजा ने बड़ी नीते करी जी, जाव खुराग्रज नक्ख । उच्चारेण वा जाव नहेहिं वा भणोक्कतपुब्वे । तिण करिनै विण फशियां जी, परमाणु मात्र प्रतक्ख ।। 'नहेहि व' त्ति नखाः-खुराग्रभागास्तैः । (वृ. प. ५८०) २२. पिण निश्चै करिने नहीं जी, ए महालोक रै मांहि । २२. नो चेव णं एयंसि एमहालगंसि लोगंसि । परमाणु मात्र प्रदेश में जी, जिहां जनम मरण थयु नांहि॥ 'अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे' इत्यादिना पूर्वोक्ताभिलापेन सम्बन्धः । (वृ प. ५८०) सोरठा २३. अति मोटो ए लोय, जनम मरण किम पूरियो ? २३. महत्त्वाल्लोकस्य, कथमिदमिति चेदत आहइसी आशंका होय, ते टालण कहियै हिवै।। (बृ. प. ५८०) २४. *लोक नां शाश्वत भाव नै जी, आश्रयी नै कहिवाय । २४. लोगस्स य सासयं भावं, लोकनो नाश हवै नहीं जी, तिण सं लोकशाश्वत कह्य ताय ।। लोकस्य शाश्वतभावं प्रतीत्येति योगः । (वृ. प. ५८०) यतनी २५. शाश्वतपणुं छते पिण सोय, ए लोक संसार नैं जोय । २५. शाश्वः त्वेऽपि लोकस्य संसारस्य सादित्वे नैवं स्यात् । आदि सहितपणां रै मांहि, इतरा जन्म मरण करै नांहि ।। (वृ. प. ५८०) २६. *तिण कारण ए जाणवू जी, अनादि भाव संसार । २६. संसारस्स य अणादिभावं, ते प्रति आश्रयी लोक नै जी, भरो जन्म मरण कर धार ।। इत्यनादित्वं तस्योक्तम् । (वृ. प. ५८०) *लय : जम्बू कह्यो मान ले रे जाया ! ८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७,२८. नानाजीवापेक्षया संसारस्यानादित्वेऽपि विवक्षित जीवस्यानित्यत्वे नोक्ताऽर्थः स्याद् (बृ. प. ५८०) २९. जीवस्स य णिच्चभावं यतनी २७. अनादि संसार में पिण ताय, नाना जीव तणी अपेक्षाय । विवक्षित जीव नैं जेह, अनित्यपणुं हुवै तेह ।। २८. अनित्य विषे ए उदंत, लोक छाली बाड़ा नं दृष्टंत । जन्म मरण करीनें पूराय, तिण सू आगल नित्य कहाय ।। २६ *तिणसं जीव तणां नित्य भावनै जी, ते प्रति आश्रयी जोय। जनम मरण कर पूरियो जी, सर्व लोक नैं सोय ।। यतनी ३०. जीव नित्यपणे पिण जाण, कर्म अल्पवणां विषे माण । पूर्व क ह्यो ते भ्रमण न थाय, तिणसूं कर्म-बहुल हिवै आय।। ३१. *बहलपणुं वलि कर्म न जी, ते प्रति आश्रयी जंत । भ्रमण कियो इम लोक में जी, छाली बाड़ा नैं दुष्टत ।। ३०. नित्यत्वेऽपि जीवस्य कर्माल्पत्वे तथाविधसंसरणाभावान्नोक्त वस्तु स्यादतः कर्मबाहुल्यमुक्तम् । (वृ. ५. ५७०) ३१. कम्मबहुत्तं यतनी ३२. कर्म-बहुलपणे पिण जेह, अल्प जन्मादिपणां विषेह । उक्त अर्थ भ्रमण हुवे नांय, तिणसू जन्मादि बहु हिव आय ।। ३३. *जनम नैं मरण बहुलपणुं जी, ते प्रति आश्रयी ख्यात । दृष्टंत अज बाड़े करी जी, लोक भर्यो सुविख्यात ।। ३४. एह सर्व ही लोक में जी, कोइ नहीं छै तेह। परमाणु-पुद्गल मात्र ही जी, जेह प्रदेश विषेह ।। ३२. कर्मबाहुल्येऽपि जन्मादेरल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मादिबाहुल्यमुक्तमिति। (वृ. प. ५८०) ३३. जम्मण-मरणबाहुल्लं च पडुच्च ३४. अस्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे । जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वा वि। से तेणट्टेणं गोयमा ! ३५. जाव (सं. पा.) न मए वा वि। (श. १२।१३२) ३५. ए जीव जिहां जन्म्यो नहीं जी, अथवा न मओ जेथ । तिण अर्थे करि तिमज ही जी, जाव मूओ नहीं पिण तेथ ।। [वीर प्रभु वागरें] ॥ सोरठा ३६. हिव एहिज अधिकार, लोक विषे वस्तु तणो। कहियै छ विस्तार, गोतम पूख्यां जिन कहै॥ अनेक अथवा अनन्त वार उपपाद पद ३७. *पृथ्वी कही प्रभु ! केतली जी ? जिन कहै पृथ्वी सात। धुर शत पंचमुद्देशके जी, आख्यो तिम अवदात ।। ३६. एतदेव प्रपञ्चयन्नाह (वृ. प. ५८०) ३७. कति णं भंते ! पुढबीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, जहा पढमसए (भ. १५२११-२५५) पंचपउद्देसए । ३८. तहेव आवासा ठावेयब्वा । ३८. तिमज आवासज स्थापवा जी, रत्नप्रभा रै माय । नरकावासा लक्ष तीस छ जी, इत्यादि सर्व कहाय ।। *लय : जम्बू कह्यो मान ले रे जाया ! १. पाठ में'नत्थि' पद प्राप्त होता है। किन्तु प्रस्तुत वाक्य के प्रारम्भ में 'नो चेव णं' पाठ है । इस कारण नत्थि पद की संगति नहीं बैठती । वृत्ति में पाठ ठीक है । यहां उसे ही स्वीकृत किया गया है। श० १२, उ० ७. ढा०२६५ ८१ Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. जाव विमान अनुत्तरे जी, जाव अपराजित जाण । बलि सर्वार्थसिद्ध लगे जी कहिवं सर्व पिछाण || ४०. हे प्रभुजी ! ए जीवड़ो जी, रत्नप्रभा नां जोय । नरकावासा आखिया जी, तीस लाख अवलोय || ४१. इक इक नरकावास में जी, पृथ्वीकायपणे पेख । जीव एह सुविशेख । अर्थ कियो इह रोत आख्यो ते आश्रीत || यावत वनस्पति जी ४२. 'नरगत्ताए' इण पाठ नों जी, नरकावास पृथ्वीपणें जी, ४३. पूर्व उपनों जी ? वार अनेकज ऊपनों जी, ४४. सर्व जीव पिण हे प्रभूजी लक्ष तीस नरकावास में जी, ४५. सर्व जीव प्रभु ! ऊपना जी. जिन कहै गोतम । हंत अथवा वार अनंत || तिमहिज यावत धार । अथवा अनंती वार ॥ सक्करप्रभा नां सोय । लक्ष पचीस सुजोय || एक जीव आश्रीत । दोय आलाव संगीत । दोय आलावा देख । कहि एम संपेल | पंच ऊण लक्ष नरकावास । शेष पूर्ववत तास ॥ सप्तमी पृथ्वी विषेह ५०. हे प्रभुजी ! एजीवड़ो जी, अधो ५१. इक इक नरकावासा विषे रत्नप्रभा पृथ्वी नी परे जी ५२. हे प्रभुजी एजीवड़ो जी, चौसठ लक्ष ५३. पृथ्वी कायपणे देवपण उत्कृष्ट पंच मोटा घणां जी, महानरकावासेह ॥ जी, शेष सर्व विस्तार । कहियूँ इहां अधिकार ।। असुरकुंवार नां तास । आवास में जी, एक-एक आवास || ऊपनों जी, जाव वनस्पति जेह | देवीपणें जी, शयनपणेह || आसन वार अनेकज अपना जी. ४६. हे प्रभुजी ! ए जीवड़ो जी, नरकावासा आखिया जी, ४७. जिम का रत्नप्रभा विषे जी, अथवा सर्व जीव आसरी जी, ४८. तेम इहां पिण जाणवा जी, यावत धूमप्रभा लगे जी. ४६. प्रभु ! ए जीव तमा तणां जी, इक इक नरकावास में जी, ५४. भंड मात्र जिन ! रत्नप्रभा नां तास । इक इक नरकावास || उपकरणपणे जी, पूर्व कहै हंता गोयमा जी ! जाव पिण ऊपनां जी, इमज ५५. सर्व जीव अनंती वार | इम जाव पणियकुंवार ने जी, भेद आवास मझार ॥ ८२ ऊपनों धार ? अनंती बार । ५६. पूर्वे आवास का अछे जी, असुर नां चौसठ लाख । लक्ष चरासी नाग नां जी, इत्यादिक अभिलाख || ५७. हे प्रभुजी ! ए जीवड़ो जी, पृथ्वीकाय लक्ष असंख आवास छै जी, इक इक नां तास । तास आवास ॥ भगवती जोड़ ३९. जाव अत्तरविमामेति जान अपराजिए सम्बि (श. १२।१९३३) ४०. अण्णं भंते! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु ४१. एगमेस निरास पुढविकाइयत्ताए जा वणस्स इकाइयत्ताए । ४२. नरगत्ताए 'नरणताएं' सि नरकावा सपृथिवीकायिकतयेत्यर्थः । (पु.प. ५८१) ४३. नेरइयत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोपमा ! अस अदुवा अपतत्तो। 'असई' ति असकृद् अनेकशः । ४४,४५. सव्जीवा विणं भंते! इमीसे पुढवीए सीसा निरयावास सहमे (संपा.) अनो (प. १२।१३५) (. १२१२४) (सु.प. २०१) रयणप्पमाए देव जाव ४६. अयणं भंते ! जीवे सक्करप्पभाए पुढवीए पणुवीसाए निरयाव ४७, ४८. एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा भाणियव्वा । एवं जाव धूमप्पभाए । ( रा. १२/१३६ ) ४९. अण्णं भंते! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावास सय सहस्से एगमेगंसि निरयावासंसि ? सेसं त चेव । (श. १२/१३७) ५०,५१. भते ! जीये आहेससमाए पुढबीए पंचसु अणुतरेसु महतिमहालए महानिरए एगमेसि निरयावासंसि ? सेसं जहा रयणप्पभाए । (श. १२/१३८) ५२. अयण्णं भंते! जीवे चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्से एगमेगंसि असुरकुमारावाससि ५११४. पुढविताए जाव वगरसइकाइयताए देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण - भंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! जाव (सं. पा.) अनंतखुत्तो । ५५. सव्वजीवा वि णं भंते! एवं चेव । एवं जाव यिकुमारेसु । नाणत्तं आवासेसु । ५६. आवासा पुव्वभणिया । (श. १२१३९) ५७. अयण्णं भंते! जीवे असंखेज्जेसु पुढविक्काइय:वास सय सहस्से एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहां पृथ्वीकाय नां असंख्याता आवास कहियँहीज ए अर्थ सिद्ध हुवै । जे असंख्याता लक्ष ग्रहण कर्तुं ते पृथ्वीकाय नां आवास नुं अति बहुपणो जणावा नैं अर्थ | ५८. पांच स्थावरपणे ऊपनों जी? जिन यावत वार अनंत ही जी, सर्व जीव ५६. इम जाव वणस्सइकाय में जी, लक्ष ये आलावे करि अपनों जी, ६०. हे प्रभुजी ! एजीवड़ो जी, बेंद्रिय लक्ष असंख आवास में जी, इक इक तास आवास || तेम | बेंद्रियपर्णेज ६१. पांच स्वावरप अपनों जी. जिन कहे जाव अनंत ही जी सर्व जीव पिण एम ।। कह हंता तेम पण एम ॥ ६२. एवं जाव मनुष्य विषे जी, णवरं तेंद्री आलाव | पांच भावरपणे उपनों जो तेंद्रियपणे कहाव || ६३. चउरिंद्री नां आलावा विषे जी, पंच स्थावरपणें पेख | चरिद्वीप ऊपन जी हम कहियो ६४. पंचेंद्री त्रिण आलावा विषे जी, पंच तिर्यंच पंचेंद्रियपण जी, ऊपनों ६५. मनुष्य तणां आलावा विषे जी, पंच मनुष्यपर्णे पूर्व अपनी जी, शेष ६६. व्यंतर ज्योतिषी ने विषे जी, एह विषे पूर्व अपनो जो ६७. हे प्रभुजी ए जीवो जी ! द्वादश लक्ष विमान में जी, ६८. पृथ्वी कायपण ऊपनों जी, सुविशेख ॥। स्थावरपणें तेम । कहियो एम ॥ स्थावरपणें तेम । असुर क्षणी पर जाण ॥ सनतकुमार उदार । इक इक वास मभार ॥ शेष असुर जिम ताहि । यावत वार अनंतही जी, पिण निश्चै देवीपणें नांहि ॥ असंख आवास | पूरववत सुप्रकाश ॥ विषे विमास । ७२. हे प्रभुजी ! एजीवड़ो जी, इक इक तास विमान में जो सोरठा 1 तणो उपपात, बीजा कल्प लगेज छै । ६९. देवी ते माटे आगे आख्यात, सुरीपण नथी ॥ ७०. * सर्व जीव पिण इह विधेजी एवं यावत तेम आणत पाणत नै विषे जी, आरण अच्युत एम ॥ ७१. हे प्रभुजी ! ए जीवड़ो जी सीनसी अधिक अठार सेवेयक विमान आवास में जी इमहिज कहियो विचार ।। बेईद्रिय जेम || सौधर्म नैं ईशाण । पंच अनुत्तर विमान । पृथ्वीपण तिमज जान || ७३. जाव अनंत वार ऊपनों जी, नहि सुरपर्णं वार अनंत । देवीपणें नहीं सर्वथा जी, इम सर्व जीव पिण मंत | वा० - इहासंख्यातेषु पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धे तत्तेषामतिवत्वख्यापनार्थं । (बृ. प. ५८१) ५८. पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा ! जाव (सं. पा.) अंतखुत्तो । एवं सव्वजीवा वि । ५९. एवं जाव वणस्सइकाइएसु । (. १२१४०) जाव ६०. अयण्णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु बे इंदियावाससयसहस्से एगमेगंसि वेइंदियावासंसि ६१. ए बेइं दियत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंतानोपना (. पा.) अजीवा विणं एवं चेव । ६२. एवं जाव मस्से वणस्सइकाइयत्ताए तेइंदियत्ताए । नवरं तेईदिए जाय ६३. चउरिदिएसु चउरिदियत्ताए । वणस्स इकाइयत्ताए ६४. पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु जोगिताए। ६५. मणुस्सेसु मणुस्सताए, सेसं जहा बेइंदियाणं । पंचिदियतिरिक्ख ६६. वाणमंतर जोइसिय सोह्म्मीसामु य जहा असुरकुमाराणं । (श. १२/१४१) ६७. अयण्णं भंते! जीवे सणकुमारे कप्पे बारससु विवाहस्ते एगमेगसि मानियावासंसि । ६८. विकास जहा असुरकुमाराचं जाय (सं. पा.) अनंतखुत्तो नो चेव णं देवताए । ६९. ईशानान्तेष्वेव देवस्थानेषु सनत्कुमारादिषु पुनर्नेतिकृत्वा । एवं सव्वजीवा वि । एवं जाव आरणच्चएसुवि। ७०. आणयपणएसु एवं ( स. १२०१४२) ७१. अण्णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठारसुत्तरेसु गेविज्जविमाणायासस एवं वेब (श. १२/१४३ ) ७२, ७३. अण्णं भंते! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंस अणुत्तर विमाणंसि पुढविकाइयत्ताए ? सहेब जाव अस अदुवा असतो, नो चे देवत्ताए वा देवित्ताए वा । एवं सव्वजीवा वि । (श. १२०९४४) देव्य उत्पद्यन्ते ( १. १.५८१) श० १२, उ० ७, ढा० २६५ ८३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. हे प्रभजी! ए जीवड़ो जी, सर्व जीवां नों सोय । मातापणे नै पितापणे जी, ऊपनों जे अवलोय ? ७५. भाईपणे भगनीपणे जी, भार्यापण सुविचार । पत्रपणे बेटीपण जी, ऊपनों ए अवधार ? ७६. पुत्र नी स्त्रीपणे ऊपनों जी, पूरव काल मझार? जिन कहै हंता गोयमा जी! जाव अनंती वार ।। ७४. अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं माइत्ताए पितित्तए। ७५. भाइत्त ए भगिणित्ताए भज्जताए पुत्तत्ताए धूयत्ताए। ७७. सर्व जीव पिण हे प्रभुजी ! एहि जीव नां हंत । मातापणे जाव ऊपनां जी? जिन कहै जाव अनंत ।। ७८. हे प्रभजी ! ए जीवड़ो जी, सर्व जोव नों जोय। सामान्य अरिपणे थयो जी, दीर्घ काल वैरीपणे होय ।। ७६. 'घायगत्ताए' तास अर्थ घातकृत जी, 'वयत्ताए' होय। ताड़ कपणे जी, पूर्व ऊपनों सोय ।। ८०. प्रत्यनीकपणे ऊपनों जी, कार्यापघातक कहाय । 'पच्चामित्तत्ताए' वली जी, अमित्र नै दे सहाय? ८१. जिन कहै हंता गोयमा जी! जाव अनंती वार । सर्व जीव पिण एहनां जी, अरि प्रमुख इम धार ।। ७६. सुण्हत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। (श. १२।१४५) ७७. सव्वजीवा विणं भंते ! इमस्स जीवस्स माइत्ताए जाव (सं. पा.) उववन्नपुदा? हंना गोयमा ! जाव (सं. पा.) अणंतखुत्तो। (श. १२२१४६) ७८. अयण्णं भंते ! जीवे सब्बजीवाणं अरित्त ए वेरियत्ताए 'अरित्ताए' ति सामान्यतः शत्रुभावेन, 'वेरियत्ताए' त्ति वैरिकः -- शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तया। (बृ. प. ५८१) ७९. घातगत्ताए, वहगत्ताए। 'धायगत्ताए' त्ति मारकतया बहात्ताए' त्ति व्यधकतया ताडकत येत्यर्थः । (बृ. प. ५८१) ८०. पडिणीयत्ताए, पच्चा मित्तत्ताए उववन्नपुव्वे ? 'पडिणीयत्ताए' त्ति प्रत्यनीकतया--- कार्योपघातकतया 'पच्चामित्तत्ताए' त्ति अमित्रसहायतया । (व. प. ५८१) ८१. हंता गोयमा ! जाव (सं. पा.) अणंतखुत्तो । (श. १२।१४७) सब्वजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स अरित्ताए"" ___ (श. १२।१४८) ८२. अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए ८३. जाव (सं. पा.) सत्थवाहत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा ! जाव (सं. पा.) अणंतखुत्तो । (श. १२२१४९) ८४. सव्वजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स रायत्ताए"" (श. १२।१५०) ८५. अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए 'दासत्ताए' त्ति गृहदासीपुत्रतया । (वृ. प. ५८१) ८६. पेसत्ताए भयगत्ताए 'पेसत्ताए' त्ति प्रेष्यतया-आदेश्यतया 'भयगत्ताए' त्ति भृतकतया दुष्कालादौ पोषिततया। (बृ. प. ५८१) ८७. भाइल्लत्ताए 'भाइल्लगत्ताए' त्ति कृष्यादिलाभस्य भागग्राहकत्वेन । (वृ. प. ५८१) ८८. भोगपुरिसत्ताए 'भोगपुरिसत्ताए' ति अन्यरुपाजितार्थानां भोगकारिनरतया। (बृ. प. ५८१) ८२. हे प्रभजी! ए जीवड़ो जी, सर्व जीव नों ताम । राजापणे ए ऊपनों जी, युवराजापण आम ? ८३. यावत सार्थवाहपण जी, पूर्व ऊपनों धार? जिन कहै हंता गोयमा जी! जाव अनंती वार ।। ८४. सर्व जीव पिण ऊपना जी, एह जीव नां जाण । राजापणे प्रमुख सह जी, तिमहिज कहिवो पिछाण ।। ८५. हे प्रभजी! ए जीवडो जी, सर्व जीव नों सोय। घर नी दासी नां पुत्रपणें जी, ऊपनों ए अवलोय । ८६. पेस आदेशकारीपण जी, भृतक दुकालादि मांय । ___ आवी वस्यो छै तेहन जी, पोषितपणों कराय ।। ८७. करषणादिक नां लाभ नों जी, भाग नां ग्राहक जेह । भाइल्लगपणे तसु कह्यो जी, ऊपनों पूरव एह ।। ८८. भोग पुरुषपणे ऊपनो जी, भोगवै तेह पुरुषपणें जी, अन्य उपाजित धन्न । पूरव एह उपन्न ।। ८४ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. शीसपणे पूर्व अपनों जी, द्वेष्यपणे वलि धार ? जिन कहै हंता गोयमा जी! जाव अनंती वार । ८९. सीसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुवे ? हंता गोयमा ! जाव (सं. पा.) अणंतखुत्तो। (श. १२।१५१) 'सीसत्ताए' त्ति शिक्षणीयतया 'वेसत्ताए' त्ति द्वेष्यतयति। (व. प. ५८१) ९०. एवं सव्वजीवा वि (सं. पा.) अणतखुत्तो। (श. १२।१५२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श. १२।१५३) १०. सर्व जीव सेवं भंते ! पिण एहना जी, एम अनंती वार । गोतम कही जी, यावत विचरे सार । ६१. शत बार मुद्देशक सातमों जी, दोयसौ पैंसठमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋपिराय थी जी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। द्वादशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥१२॥७॥ हाल : २६६ १. सप्तमे जीवानामुत्पत्तिश्चिन्तिता, अष्टमेऽपि सैव भंग्यन्तरेण चिन्त्यते । (वृ. प. ५८१) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी १. सप्तमद्देशे जीव नी, उत्पत्ति नों अधिकार। अष्टमुद्देशक पिण तिमज, भंगांतरे विचार ।। २. तिण काले नैं तिण समय, यावत गोतम स्वाम। इम बोल्या प्रभुजी प्रते, विनय करी शिर नाम ।। देवों का द्विशरीर-उपपाद पद ___*गोयम प्रश्न सुहामणा । (ध्रुपदं) ३. महद्धिक सुर भगवंत जी, जाव महाईश्वर धाम । प्रभुजी ! अंतर रहित चवी करी, तनु छोड़ी नै ताम ।। प्रभुजी ! ४. बे शरीरी नाग में ऊपजै, नाग कहतां गजराज । प्रभजी ! अथवा नाग ते सप है, ए बिहुं अर्थ समाज ।। प्रभुजी ! ५. नाग शरीर प्रथम तजी, द्वितीय मनुष्य तनु लेह । प्रभुजी ! शिव पद मांहि सिधावस्ये, बे शरीरी नाग जेह ।। प्रभुजी ! ६. ते नाग विषे सुर ऊपजै? जिन कहै हां उपजत । गोयमजी ! ते तिहां नाग जनम विषे, तथा उत्पत्ति खेत अर्चत ।। प्रभुजी! ३. देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता ४. बिसरीरेसु नागेसु उव्यज्जेज्जा ? 'नागेसु' ति सप्पेषु हस्तिषु वा। (व. प. ५८२) ५. ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति । (वृ. प. ५८२) ६. हंता उववज्जेज्जा। (श. १२११५४) से ण तत्थ 'तत्थ त्ति' नागजन्मनि यत्र वा क्षेत्रे जातः । (वृ. प. ५८२) ७. अच्चिय-वदिय-पूइय तत्र चाचितश्चन्दनादिना वन्दितः स्तुत्या पूजितः पुष्पादिना। (वृ. प. ५८२) ८. सक्कारिय-सम्माणिय सत्कारितो-वस्त्रादिना । (वृ. प. ५८२) ९. दिब्वे सच्चे। 'दिव्बे' त्ति प्रधानः 'सच्चे' त्ति स्वप्नादिप्रकारेण तदुपदिष्टस्यावितथत्वात् । (वृ. प. ५८२) ७. अयॊ चंदनादिक करी, वंदित स्तुति विशेख । प्रभजी । पुष्पादिक करि पूजियो, नाग भणी जन पेख ।। प्रभजी ! ८. वस्त्रादिके सत्कारियो, वलि सनमान्यो जेह । प्रभुजी ! एह विशेषण सेव नों, नाग भणी धर नेह ।। प्रभुजी ! ६. दिव्य प्रधान साचो तिको, स्वप्नादिक करि सोय । प्रभुजी ! ते कह्यो झूठ हुवै नहीं, सत्य हुवै अवलोय ॥ प्रभुजी ! *लय : शिवपुर नगर सुहामणो श०१२, उ०७, ८, ढा०२६५, २६६ ८५ Jain Education Intemational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. सफल सेव हवै जेहनी, देव अधिष्ठित सार । प्रभुजी ! १०. सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे । पूर्व मित्रादिक सुर निकट, कीधो कर्म प्रतिहार ।। प्रभुजी ! 'सच्चोवाए' ति सत्यावपातः सफलसेव इत्यर्थः, कुत एतत् ? इत्याह-'सन्निहियपाडिहेरे' त्ति सन्निहितं-अदूरवत्ति प्रातिहार्य-पूर्व संगतिकादिदेवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा। (व. प. ५८२) ११. एहवा नाग विषे अमर जे, उपजै छै भगवान ? प्रभुजी ! ११. यावि भवेज्जा? जिन कहै हंता गोयमा ! अमर ऊपजै आन ।। गोयमजी ! हंता भवेज्जा। (श. १२.१५५) १२. अंतर रहित तिहां थकी, निकल तेह सीझंत? प्रभजी ! १२. से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उवट्टित्ता जिन कहै हंता सोझै तिको, जाव करै दुख अंत ।। गोयमजी ! सिज्झज्जा... हंता सिझज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा । (श. १२।१५६) १३. महद्धिक सुर भगवंत जी! इमज चवी ने एह । प्रभुजी ! १३. देवे णं भंते ! महिड्डीए एवं चेव जाव (सं. पा.) दोय शरीरी मणि विषे, पृथ्वीपणे उपजेह ।। प्रभुजी ! बिसरी रेसु मणीसु उववज्जेज्जा? 'मणीसु' त्ति पृथिवीकायविकारेषु । (व. प. ५८२) १४. इम निश्च करि आखियो, नाग भणी जिम न्हाल । प्रभुजी ! १४. हंता उववज्जेज्जा । एवं चेव जहा नागाणं । कहिवो तिणहिजरीत सं, रत्न मणि नों विशाल ।। गोयमजी ! (श. १२।१५७) १५. सुर प्रभु ! महद्धिक जाव ही, बे शरीरी तरु में उपजंत?प्रभजी! १५. देवे णं भंते ! महिड्डीए जाव (सं. पा.) बिसरीरेसु जिन कहै हंता ऊपजै, एवं चेव उदंत ।। गोयमजी ! रुक्खेसु उववज्जेज्जा? हंता उववज्जेज्जा। एवं चेव । १६. णवरं इमं नाणत्तं, जाव अधिष्ठित देव । गोयमजी ! १६,१७. नवरं---इमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाडिहेरे छगणादिक करि भूमिका, मृदू कीधी ए भेव ।। गोयमजी ! लाउल्लोइयमहिए यावि भवेज्जा? १७. खड़ी प्रमुख करि भीत नैं, धवलै जन धर राग। गोयमजी ! 'लाउल्लोइयमहिए' त्ति 'लाइयं' ति छगणादिना एह बिहुं करि पूजियो, वृक्ष चोतरो माग ।। गोयमजी ! भूमिकायाः संमृष्टीकरणं 'उल्लोइयं' ति सेटिकादिना कुडयानां धवलनं एतेनैव द्वयन महितो यः स तथा । (वृ. प. ५८२) १८. वृक्ष नी पीठ अपेक्षया, कह्या विशेषण एह । गोयमजी! १८. हंता भवेज्जा। सेसं तं चेव जाव सब्यदुक्खाणं अंतं तिमहिज शेष कहीजिये, यावत अंत करेह ।। गोयमजी ! करेज्जा । (श. १२।१५८) ___ वा०-ए विशेषण वृक्ष नी पीठ नी अपेक्षाए कह्य । विशिष्ट वृक्ष जे वा०-एतच्च विशेषणं वृक्षस्य पीठापेक्षया, विशिष्टवक्षा हुवै, ते बद्धपीठ हीज हुवै । हि बद्धपीठा भवन्तीति। (वृ. प. ५८२) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनि उपपाद पद १६. अथ हिव हे भगवंत जी ! गोलांगूल-वानर रै माय । प्रभजी ! १९. अह भंते ! गोनंगूलवसभे। मोटो जेह वानर अछ, ते गोलांगूल वृषभ कहिवाय ॥ प्रभुजी ! 'गोलंगूलवसभे' त्ति गोलांगूलानां-वानराणां मध्ये महान् । (वृ. प. ५८२) सरिज मोटो वानर विदग्ध, विदग्ध पर्यायपणां थकी वा० स एव वा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वावृषभशब्दस्य । वृषभ शब्द कह्यो। (वृ. प. ५८२) २०. कूट-वृषभ कुर्कट मझे, मोटो बलवंत एह। प्रभजी ! २०. कुक्कुडवसभे, मंडुकवसभे । मंडक-वृषभ मंडुक मझे, ए पिण जबर कहेह ॥ प्रभुजी ! २१. शील समाधि रहीत ए, अणुव्रत गुणव्रत रहीत । प्रभुजी ! २१. एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निपच्चमर्याद पचखाण रहीत ए, नहि पोसह उपवास सहीत ।।प्रभुजी! क्खाण-पोसहोववासा 'निस्सील' त्ति समाधानरहिताः 'निव्वय' त्ति अणुव्रतरहिताः 'निग्गुण' त्ति गुणवतः"रहिताः । (वृ. प. ५८२) ८६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. काल करो काल अवसरे, रत्नप्रभा पृथ्वी एह । प्रभुजी ! २२. कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उत्कृष्ट सागर आउखे, ऊपजै नरक में नारकपणेह ।। प्रभुजी ! उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि ने रइयत्ताए उववज्जेज्जा? २३. श्रमण भगवंत महावार जो, वागरै इहविध वाण । गोयमजा! २३. समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववज्जमाणे उपजवा लागा तसु, ऊपनां कहियै पिछाण । गोयमजी ! उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया। (श० १२।१५९) सोरठा २४. 'जेह समय छै सोय, वानर कुर्कट मोंडको। तेह समय में जोय, नारक भव कहियै नथी ।। २५. इण कारण अवलोय, किम कहियै नारकपणें । निरणय वच तसु जोय, वीर प्रभू इम वागरयो ।। २६. ऊपजवा लागो न्हाल, कहियै तेहने ऊपनो। किरिया निष्ठा काल, ए बिहं तणां अभेद थी। २७. ऊपजवा लागो जेह, क्रिया कार्य समय ते। तिण समय ऊपनों तेह, निष्ठा कालज समय इक । २८. किरिया निष्ठा जाण, ए बेहुं नो समय इक। ते माटे जिन वाण, उववज्जमाणे ऊपनों ।। (ज० स०) वा० --'नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा' ? इति प्रश्न । इहां 'उववज्जेज्जा' ए एहनों वा०-'नेर इयत्ताए उववज्जेज्जा' इति प्रश्नः, इह च उत्तर । ते ए असम्भव छ, एहवी आशंका करी नै एहनों उत्तर आप छ.'समणे' 'उववज्जेज्जा' इत्येतदुत्तरं तस्य चासंभवमाशंकइत्यादि। मानस्तत्परिहारमाह--'समणे' इत्यादि । असम्भवता केम ? जेणे समय गोलांगूल आदिक तेणे समय नारक नथी तो असंभवश्चवं-यत्र समये गोलांगूलादयो न तत्र ते नारकपण उत्पन्न थया, ए किम कहिये ? समाधान–श्रमण भगवान महावीर, समये नारकास्ते अतः कथं ते नारकतयोत्पद्यन्ते जमालि आदि नहीं, एम कहै छ के जे वानरादिक नारकपणे उपजता छता नै नरके इति वक्तव्यं स्याद् ? अत्रोच्यते-श्रमणो भगवान् महावीरो न तु जमाल्यादिः एवं व्याकरोति यदुत उपनांज कहिये, क्रियाकाल निष्ठाकाल बेहूं नां अभेद थी। जे माटे वानर आदिक उत्पद्यमानमुत्पन्नमिति वक्तव्यं स्यात्, क्रियाकालनारकपणे उत्पन्न होणारा नारकहीज कहिवाय अनै नारक नारकपणे उत्पन्न थाय, निष्ठाकालयोरभेदाद, अतस्ते गोलांगूलप्रभृतयो नारकए सत्य छै। तयोत्पत्तुकामा नारका एवेतिकृत्वा सुष्ठूच्यते । बीजी दृष्टीए वानर प्रमुख नों भव छोड़ी नरक नां भव नों पहिलो समय ---- (वृ० ५० ५८२) ऊपजवा लागो बाटे बहै छ, ते क्रियाकाल अनै तेणेज समये ऊपनो ए निष्ठाकाल । ए क्रियाकाल अनै निष्ठाकाल नो समय एक छ-क्रियाकाल नों जे समय तेहिज समय निष्ठाकाल नो छ । इण न्याय पिण बिहु काल नां अभेद थको ऊपजवा लागो तेहनै अपनो कटिं। २६. *सींह बाघ हिव हे प्रभु ! जिम अवसप्पिणी उद्देश । प्रभुजी ! २९. अह भते ! सीहे वग्घे जहा ओसप्पिणी उद्देसए जाव सप्तम शतक छठा मझे, जाव पाराशर शेष ।। प्रभुजी ! (सं० पा०) परस्सरे। (भ० ७।१२२) ३०. ए शील रहित पूरवलो परे, जाव शब्द थी जाण । प्रभजी ! ३०. एए णं निस्सीला एवं चेव जाव (सं० पा०) वत्तव्वं ऊपजवा लागा तसु, ऊपना कहिये पिछाण ।। गोयमजी ! समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया। (श० १२/१६०) ३१. अथ हिव हे भगवंत जी! ढंक कंक अवलोय । प्रभजी ! ३१. अह भंते ! ढंके कंके विलए मदुए सिखी-एए णं बिलए' मंडुक मोरियो, शील-रहित ए सोय ।। प्रभुजी ! निस्सीला। *लय : शिवपुर नगर सुहामणो १. बगुला श० १२, उ०८, ढा०२६६ ८७ Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. शेष तिमज जाव भाखवं, सेवं भंते ! सुविशेष । प्रभुजी ! यावत गोतम विचरता, शत बारम अष्टमुद्देस ।। सुगणजी ! ३२. सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) वत्तब्वं सिया । (श• १२/१६१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श० १२/१६२) ३३. दोयसौ नै छासठमी, आखी ढाल उदार । सुगणजी! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष अपार ॥ सुगणजी ! द्वादशशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥१२॥८॥ ढाल २६७ १. अष्टमोद्देशके देवस्य नागादिषूत्पत्तिरुक्ता नवमे तु देवा एव प्ररूप्यन्ते । - (वृ० ५० ५८३) २. कतिविहा णं भंते ! देवा पण्णता? गोयमा! पंचविहा देवा पण्णत्ता। ३. भवियदव्वदेवा । दूहा १. अष्टमुद्देशक देव नी, नागादिक उत्पत्त। नवमें देवतणीज हिव, परूपणा अवितत्थ ।। पंचविध देव पद ___ *वाणी थांरी मन बसी साहिब जी। (ध्रपदं) २. कितै प्रकार परूपिया साहिबजी ! बह वचने करि देव हो । जशधारी! जिन कहै पंच प्रकार नां गोयमजी ! देव कह्या स्वयमेव हो । जशधारी ! ३. भव्य-द्रव्यदेवा क ह्या गोयमजी ! भव अंतर सुर थाय हो । जशधारी ! देव तणां गुण शून्य छै गोयमजी! तिणसू द्रव्यदेव कहिवाय हो । जशधारी ! वा०-दीव्यन्ति---क्रीडन्ति क्रीडा करै ते देव । अथवा दीव्यन्ते स्तूयन्ते आराध्यपणे करी जेहनी स्तुति कीजिये ते देव । हिवै भविय-द्रव्यदेव नों अर्थ कहै छै—द्रव्य भूत जे देव ते द्रव्यदेव । द्रव्यपणो ते अप्रधानपणां थकी, भूतभावपणां थकी अनै भावी भावपणां थकी । तेहमां अप्रधानपणां थकी देवता नां गुणे करी शून्य जे देव ते द्रव्य-देव । जिम गुणे करी रहित साधु नै वर्ष, ते द्रव्य-साधु । जे देवता नां भाव प्रति भोगवी भाव देवपणां थकी चवी अनेरी गति नै विषे ऊपनो ते भूतभाव द्रव्यदेव कहिये । अनैं देवता थावा जोग्य छै पिण हजे देव थया नथी--मनुष्य, तिर्यच नी गति में वत्त छ, तेहनै भावी भावदेव कहिये। ते भावी भाव द्रव्यदेव नो पक्ष इहां ग्रहण कीर्छ । वा०-दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यन्ते वास्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः। 'भवियदव्वदेव' त्ति द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः द्रव्यता चाप्राधान्याद्भूतभावित्वाभाविभावत्वाद् वा, तत्राप्राधान्याद्देवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवा यथा साध्वाभासा द्रव्यसाधवः । भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रतिपन्नकारणा भावदेवत्वाच्च्युता द्रव्यदेवाः, भाविभावपक्षे तु भाविनो देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह (वृ०प०५८५) *लय : शीतल जिन शिवदायका ८८ भगवती जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. नरदेव ते देव नरां मझे गोयमजी ! तथा क्रीड़ा कांत्यादिक युक्त छै गोयमजी ! जन आराध तास हो । जशधारी ! ५. धर्मदेव का तीसरा गोयमजी ! ए ची पुन्य-राश हो | जगधारी ! तेणे करीनें सहित छै गोयमजी ! योग्य जे देव ते देवातिदेव । श्रुत चारित्र रूप धर्म हो। जगधारी ! ९. देवातिदेव चौथा कह्या गोयमजी ! ए मुनिवर गुण धर्म हो । जणधारी ! अतिक्रम्यासुर शेष हो जणधारी ! । ते भावे तीर्थकरू गोयमजी ! केवल सहित संपेख हो । जशधारी ! वा० – देवातिदेव कहितां शेष देव प्रते अतिक्रम्यां परम अधिक देवपणां ७. देवाधिदेव दस किहां गोयमजी ! अधिक असुर मांहि हो । जशधारी ! पारमार्थिक देवत्व थी गोयम जी ! भावे तीर्थकर ताहि हो । जनधारी ! aro - देवाहिदेव किहाइक पाठ दीसें । तेह्नों अर्थ - देवता मांहि अधिक, परमार्थिक देवपणां नां योग थकी देवाधिदेव कहिये । ८. भावदेव चि जाति नां गोयमजी ! देवगत्यादि कर्म सोय हो जगधारी ! तास उदय परियाये करी गोयमजी ! भवनपत्यादिक जोय हो । जशधारी ! १. कि अर्वे प्रभु! इम को गोमजी ! भविय द्रव्यदेवा ताम हो ? जशधारी ! जिन कहे तिथेच पंचेंद्रिया गोयभजी ! अथवा मनुष्य अभिराम हो । जणधारी ! १०. ऊपजवा जोग सुर विषे गोयमजी ! भविय द्रव्यदेव एह हो जगधारी ! भविव द्रव्यदेव तेह हो । जलधारी ! जे नरदेव पिछाण हो ? जसधारी ! तिण अर्थ है इम कह्यो गोयमजी ! ११. किण अर्थे प्रभु ! इम का साहिबजी ! जिन कहै भरतादि मही तणां गोयमजी ! स्वामी नराधिप जाण हो । जणधारी ! १२. स्वामी भरत एरवतादिक तणां गोयमजी ! तिण सू चाउरंत कहिवाय हो । जशधारी ! वासुदेवादिक टालिया गोयम जी ! एम को वृत्ति मांय हो । जशधारी ! ४. नरदेवा 'नरदेव' त्ति नराणां मध्ये देवा-आराध्याः क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा नराश्च ते देवाश्चेति वा नरदेवा: 1 ( वृ० प० ५८५) ५. धम्मदेवा 'धम्मदेव' त्ति धर्मेण - श्रुतादिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः । (०८०४८५) ६. देवातिदेवा वा० - 'देवाइदेव' त्ति देवान् शेषानतिक्रांता पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवातिदेवा (५० ५० ५०५ ) ७. देवाहिदेव' ति क्वचिद्दृश्यते तच देवानामधिकाः पारमाधिदेवत्व योगाद देवा देवाधिदेवाः । ( वृ० प० ५८५) ८. भावदेवा । ( ० १२ / १५३) 'भावदेव' ति भावेन देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवा भावदेवाः । ( वृ० प० ५०५) ९,१०. से केणट्ठे भंते! एवं वृच्चइ – भवियदव्वदेवाभवियदव्वदेवा ? गोयमा ! जे भविए पंचिदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वच्चइ - भवियदव्वदेवाभवियदव्वदेवा । ( श० १२ / १६४ ) ११. से के भने ! एवं युच्चइनरदेवा नरदेवा ? गोयमा ! जे इमे रायाणो १२.१३. उट्टी 'चाउरतचनकवट्टि ति चतुरन्तावा भरतादिविव्या एवं स्वामिन इति चातुरन्ताः चत्रेण वर्णनशीलत्याच्चक्रवत्तिनः ' "चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां ( वृ० प० ५८५) व्युदासः । श० १२. उ० ९, ढा० २६७ ८९ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवनिहिपइणो १४. उप्पण्णसमत्तचक्करयणप्पहाणा समिद्धकोसा । १५. बत्तीसरायवरसहस्साणुयातमग्गा सागरवरमेहला हिवइणो। 'सागरवरमेहलाहिवइणो' त्ति सागर एव वरा मेखला काञ्ची यस्याः सा सागरवरमेखला-पृथ्वी तस्या अधिपतयो ये ते तथा। (वृ० ५० ५८५) १६. मणुस्सिदा । से तेणठेणं जाव (सं० पा०) नरदेवानरदेवा। (श० १२/१६५) १३. वर्तनशील चक्रे करी साहिबजी ! चक्रवर्ती कहिवाय हो । जशधारी ! चक्र पंथ देखाड़तां साहिब जी ! खट खंड साधै ताय हो । जशधारी ! १४. समस्त रत्न समुप्पना गोयमजी ! जिणमें चक्र प्रधान हो। जशधारी! नव निधान नों अधिपति गोयमजी! समृद्ध कोष पिछाण हो ।। जशधारी ! १५. बतीस सहस्र राजेश्वर गोयमजी ! सेवै के. जाय हो । जशधारी ! समुद्र हीज जसु मेखला गोयमजी! ते पृथ्वी नां अधिपति राय हो । जशधारी! वा०-सागर ही है श्रेष्ठ मेखला-कांची, कटिप्रदेश नों गहणो-कंदोरो जेहन ते पृथ्वी, तेहना अधिपति । १६. मनुष्य नां इंद्र मनोहरू गोयमजी! तिण अर्थे करि ताय हो । जशधारी ! यावत नरदेवा कह्या गोयमजी! षट खंडाधिप राय हो ।। जशधारी ! १७. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो गोयमजी ! धर्मदेव गुणवंत हो? जशधारी ! जिन कहै ए अनगार छै गोयमजी! ज्ञानवंत भगवंत हो ।। जशधारी ! १८. ईर्ष्या सुमति सहीत छ गोयमजी ! जाव गुप्ति ब्रह्मचार हो । जशधारी ! तिण अर्थे जावत कह्या गोयमजी! धर्मदेव मुनि सार हो । जशधारी ! १६. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो साहिबजी ! देवाधिदेव उदार हो? जशधारी! जिन कहै ए अरिहंत छै गोयमजी! भगवंत ज्ञान भंडार हो । जशधारी ! २०. उत्पन्न ज्ञानदर्शणधरा गोयमजी! जाव सर्वदर्शद्र हो, जशधारी! तिण अर्थे जावत कह्यो गोयमजी ! देवाधिदेव जिनेन्द्र हो, जशधारी ! २१. प्रभु ! किण अर्थे भाव देवता साहिबजी ! जिन भाखै तहतीक हो, जशधारी ! भवनपति व्यंतरा गोयमजी! ज्योतिषी नैं वैमानीक हो, जशधारी ! २२. देवगती नाम गोत्र जे साहिबजी ! कर्म प्रते वेदंत हो, जशधारी! तिण अर्थे जावत कह्या गोयमजी! भावदेव चिहुं मंत हो, जशधारी ! १७. से केणठेणं भंते ! एवं युच्चइ-धम्मदेवा धम्मदेवा? गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो १८. रियासमिया जाव गुत्तबंभयारी । से तेणठेणं जाव (सं० पा०) धम्मदेवा-धम्मदेवा ।। (श० १२/१६६) १९. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-देवातिदेवा देवातिदेवा ? गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो २०. उप्पण्णनाण-दसणधरा जाव (सं० पा०) सव्वदरिसी। से तेणठेणं जाव (सं० पा०)देवातिदेवा-देवातिदेवा । (श० १२/१६७) २१. से केण→ण भंते ! एवं वुच्चइ-भावदेवा भावदेवा? गोयमा! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा २२. देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति । से तेणढेणं जाव (सं० पा०) भावदेवा-भावदेवा । (श० १२/१६८) ९० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. भवियदव्वदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जति-- कि नेरइएहितो उववज्जति ? तिरिक्ख-मणुस्सदेवेहितो उववज्जति? २४. गोयमा ! नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्ख-मणुस्स देवेहितो वि उववज्जति । २५. भेदो जहा वक्कंतीए (प० ६/८७-९२) सव्वेसु उववाएयव्वा जाव अणुत्तरोववाइय त्ति । २६. नवरं असंखेज्जवासाउय 'असंखेज्जवासाउय' त्ति असंख्यातवर्षायुष्काः कर्मभूमिजाः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्मनुष्याः", "भव्यद्रव्यदेवा न भवति । (वृ० ५० ५८५,५८६) पचविध देवों का उपपाद पद २३. भविय-द्रव्य जे देवता साहिबजी ! किहां थकी आवंत हो, जशधारी ! स्यं नारक थकी तिरि मनुष्य थी साहिबजी ! देव थकी उपजत हो ? जशधारी ! २४. जिन भाखै सुण गोयमा ! गोयमजी ! नारक थी उपजत हो, जशधारी ! तिरि मनु देव थकी वली गोयमजी ! ऊपजवू तसु मंत हो, जशधारी ! २५. भेद पन्नवणा में जिम कह्या साहिबजी ! षष्ठ पदे सुविख्यात हो, जशधारी ! सर्व थकी उपजायवो साहिबजी! जाव अनुत्तरोपपात हो, जशधारी ! २६. णवरं असंख वर्षायु ते साहिबजी ! कर्मभूमिज कहिवाय हो, जशधारी ! तिर्यंच पंचेन्द्रिय मनुष्य ते साहिबजी ! भव्य-द्रव्यसुर नहि थाय हो, जशधारी ! वा०-इहां 'असंखेज्जवासाउय' पाठ कह्य, अनै कर्मभूमिजा नों नाम नथी खोल्यो, पिण ते असंख्यात वर्षायुष्क नै विषे भरत, एरवत नां कर्मभूमिजा पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य युगलिया ग्रहिवा अनै अकर्मभूमिजादिक नुं पाठ साक्षातपणहीज का छै। २७. वलि अकर्मभूमिजा साहिबजी ! नर पंचेन्द्रिय तिर्यंच हो, जशधारी ! ए मर भव्य-द्रव्य न हुवै साहिबजी ! अंतरद्वीप इम संच हो, जशधारी ! २८. ए सगलाई युगलिया साहिबजी ! __भावदेव में जाय हो, जशधारी ! तिण कारण इहां इम कह्यो साहिबजी ! ___ भव्य-द्रव्यसुर नहिं थाय हो, जशधारी ! २६. तथा सर्वार्थसिद्ध थी साहिबजी ! मनुष्य थई सिद्ध थाय हो, जशधारी ! भव्य-द्रव्यदेव हुवै नहीं साहिबजी ! ___ ए पिण वरजवा ताय हो, जशधारी ! ३०. जावत अपराजित थकी साहिबजी ! अमर चवी उपजेह हो, जशधारी ! भव्य-द्रव्यदेव हुवै सहू साहिबजी ! सव्वट्ठ युगल वरजेह हो, जशधारी ! ३१. नरदेवा भगवंतजी ! साहिबजी! किहां थकी उपजंत हो ? जशधारी! नरक थकी स्यूं ऊपजै? साहिबजी! चिहुं गति पूछा हुंत हो, जशधारी ! २७. अकम्मभूमगअंतरदीवग २८. भावदेवेष्वेव तेषामुत्पादात् । (वृ० ५० ५८६) २९. सव्वट्ठसिद्धवज्ज ३०. जाव अपराजियदेवेहितो वि उववज्जति । (श० १२/१६९) ३१. नरदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति-कि नेरइएहितो –पुच्छा । श०१२, उ०९, ढा० २६७ ९१ Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. जिन भाखै नारक थकी गोयमजी ! ३२. गोयमा ! नेरइएहितो उववज्जति, नो तिरिवखनोकलने उपजत हो, जशधारी! जोणिएहितो, नो मणुस्से हितो, देवेहितो वि तिरिक्ख मनुष्य मरि नहिं हुवै गोयमजो ! उववज्जति। (भ० श० १२/१७०) देव थकी पिण हुत हो, जशधारी ! ३३. नरक थकी जो ऊपजै साहिबजी! ३३. जइ नेरइएहितो उववज्जति---कि रयणप्पभापुढविस्यूं रत्नप्रभा थी हुंत हो, जशधारी ! नेरइएहितो उववज्जंति जाव अहेसत्तमापुढवियावत सप्तम नरक थी साहिबजो! ने रइएहितो उववज्जति ? ह नरदेव महंत हो ? जशधारी ! ३४. जिन कहै रत्नप्रभा थकी गोयमजी! ३४. गोयमा! रयणप्पभापुढवि ने रइएहितो उववज्जति, नीकल नरदेव होय हो, जशधारी ! नो सक्करप्पभापुढविनेरइएहितो जाव नो अहेसत्तमासकर जाव सप्तम थ की साहिबजी ! पुढविनेरइएहितो उववज्जति । (श० १२/१७१) नीकल नहिं हवै सोय हो, जशधारी ! ३५. जो देव थकी प्रभु ! ऊपजै साहिबजी ! ३५. जइ देवहितो उववज्जति कि भवणवासिदेवेहितो स्यू भवनपति थी होय हो? जशधारी ! उववज्जति ? व्यंतर नैं ज्योतिषी थकी साहिबजी ! वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियदेवेहितो उववज्जति ? वैमानिक थी जोय हो ? जशधारी ! ३६. जिन कहै भवनपति थकी गोयमजी ! ३६. गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति, व्यंतर थी पिण होय हो, जशधारी ! वाणमंतरदेवेहितो, एवं सव्वदेवेसु उववाएयव्वा । ज्योतिषी वैमानिक थकी गोयमजी! ह नरदेवज सोय हो, जशधारी! ३७. भेद पन्नवणा पद छठे साहिबजी ! ३७. वक्कंतीए (प० ६/९२) भेदेणं जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति । तिण भेदे करि ताय हो, जशधारी! (श० १२/१७२) जाव सर्वार्थसिद्ध थकी गोयमजी! पद नरदेवज पाय हो, जशधारी ! ३८. धर्मदेव भगवंतजी ! साहिबजी! ३८. धम्मदेवा णं भते ! कओहितो उववज्जति–कि किहां थकी उपजंत हो ? जशधारी ! नेरइएहितो उववज्जति -पुच्छा । नरक थकी स्यू ऊपजै ? साहिबजी ! तिरि मनु सुर थी हत हो ? जशधारी ! ३६. पन्नवण पद छठे क ह्यो गोयमजी ! ३९. एवं वक्कंतीभेदेणं (प० ६/९१,९२) सव्वेसु ___ तिण भेदे करि हुंत हो, जशधारी ! उववाएयव्वा जाव सव्वट्ठसिद्धत्ति । सर्व थको उपजायवो गोयमजी! __ जाव सव्वट्ठसिद्ध अंत हो, जशधारी ! ४०. णवरं तम अहेसप्तमी गोयमजी! ४०. नवरं-तम-अहेसत्तम-ते उ-वाउ- असंखेज्जवासाउयतेऊ वाऊ ताय हो, जशधारी ! अकम्मभूमगअन्तरदीवगवज्जेसु । (श० १२/१७३) वले सगलाई जुगलिया गोयमजी ! धर्मदेव नहिं थाय हो, जशधारी ! यतनी ४१. तम थी नीकल नारित्र न पाय, सप्तमी-पृथ्वी तेऊ वाय। ४१. 'तम' त्ति षष्ठपृथिवी तत उद्वृत्तानां चारित्रं नास्ति, सहु युगल ते मनुष्य न थाय, तिण सं धर्मदेव हवै नांय ।। तथाऽधःसप्तम्यास्तेजसो वायोरसंख्येयवर्षायुष्ककर्म भूमिजेभ्योऽकर्मभूमिजेभ्योऽन्तरद्वीपजेभ्यश्चोद्वत्तानां मानुषत्वाभावान्न चारित्रं, ततश्च न धर्मदेवत्वमिति । (वृ० ५० ५८६) ९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. *देवाधिदेव भगवंतजी ! साहिबजी! ४२ देवातिदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति–कि किहां थकी उपजंत हो ? जशधारी! नेरइएहितो उववज्जंति ---पुच्छा। नरक थको स्यं ऊपजै ? साहिबजी ! तिरि मनु सुर थी हुंत हो ? जशधारी ! ४३. जिन कहै नरक थकी हवै गोयमजी ! ४३. गोयमा ! नेरइएहितो उववज्जंति, नो तिरिक्खतिर्यंच मनुष्य थी नांहि हो, जशधारी ! ___जोणिएहितो, नो मणुस्सेहितो, देवेहितो वि देव थकी जे ऊपज गोयमजी! उबवज्जति । (श० १२/१७४) देवाधिदेव रै मांहि हो, जशधारी ! ४४. नारक थी जो ऊपजै गोयमजी! ४४. जइ नेरइहिता? एवं तिसु पुढवीसु उववज्जंति, धुर तीन पृथ्वी थी जोय हो, जशधारी ! सेसाओ खोडेयव्बाओ। (श०१२/१७५) शेष च्यार पृथ्वी थकी गोयमजी ! 'सेसाओ खोडेयवाओं' त्ति शेषाः पृथिव्यो निषेधयिदेवाधिदेव न होय हो, जशधारी ! तव्या इत्यर्थः । (वृ० ५० ५८६) ४५. देव थकी जो ऊपजे गोयमजी! इत्यादिक प्रश्नेह हो, जशधारी! ४५. जइ देहितो ? बेमाणिएसु सव्वेसु उबवज्जति । सर्व वैमानिक सुर थकी गोयमजी ! पद तीर्थकर लेह हो, जशधारी ! ४६. जाव सर्वार्थसिद्ध थकी साहिब जी! ४६. जाव सव्वदृसिद्धत्ति सेसा खोडेयव्वा । हवै तीर्थकर सोय हो, जशधारी ! (श० १२/१७६) शेष तीन सुरकाय थी गोयमजी ! देवाधिदेव न होय हो, जशधारी ! ४७. भावदेव भगवंतजी ! साहिबजी ! ४७. भावदेवा णं भंते ! कओहितो उववज्जति ? किहां थकी उपजंत हो ? जशधारी ! स्यूं नारक थी ऊपज ? साहिबजी! तिरि मनु सुर थी हंत हो ? जशधारी ! ४८. जेम पन्नवणा पद छठे गोयमजी! ४८. एवं जहा वक्कंतीए (प० ६/८१, ९३-९८) भवनपति में जान हो, जशधारी ! भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियव्वो। ऊपजवो आख्यो तिहां गोयमजी! (श० १२/१७७) तेम इहां पिण आन हो, जशधारी ! पंचविध देवों का स्थिति पद ४६. हे प्रभु ! भव्य-द्रव्यदेव नी साहिबजी ! ४९. भवियदव्वदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती ___स्थिती केतली इष्ट हो? जशधारी! पण्णत्ता? अंतर्महत जघन्य थी गोयमजी! गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि तीन पल्य उत्कृष्ट हो, जशधारी ! पलिओवमाई। (श० १२/१७८) सोरठा ५०. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, अंतमहल स्थितिक मर। ५०. अन्तर्मुहर्त्तायुषः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो देवेषुत्पादाद्भव्यसुर में ऊपजै संच, जघन्य स्थितिक भव्य-द्रव्यसुर ।। द्रव्यदेवस्य जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिः । (वृ० ५० ५८६) ५१. अरु उत्तरकुरु आद, मनुष्य अनै तिर्यंच जे। ५१. उत्तरकुर्वादिमनुजादीनां देवेष्वेवोत्पादात् ते च भव्यदव विष उत्पाद, ज्येष्ठ' स्थितिक भव्य-द्रव्यसुर ।। द्रव्यदेवाः तेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति । (वृ० ५० ५८६) *लय : शीतल जिन शिवदायका १. उत्कृष्ट । श० १२, उ०९, ढा० २६७ ९३ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. *नरदेव नी स्थिति पूछियां साहिबजी ! ५२. नरदेवाणं-पुच्छा। जघन्य सातसौ वास' हो, जशधारी ! गोयमा ! जहणणं सत्त वाससयाई, उक्कोसेणं चउरासी-लख' पूर्व नी गोयमजी! चउरासीई पुव्वसयसहस्साई। उत्कृष्टि स्थिति तास हो, जशधारी ! (श० १२/१७९) ५३. धर्मदेव नी स्थिति किती साहिबजी ! ५३. धम्मदेवाणं-पुच्छा। जघन्य अंतर्मुहूर्त जाण हो, जशधारी ! गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा कोड़ पूर्व उत्कृष्ट हो गोयमजी ! पुवकोडी। (श० १२/१८०) देश ऊण पहिछ। ण हो, जशधारी ! सोरठा ५४. अंतर्मुहुर्त शेष, आयु छतेज चरण ले। ५४. धर्मदेवानां 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति योऽन्तर्मुहूर्ताव तास अपेक्षा देख, अंतर्मुहुर्त जघन्य स्थिति ।। शेषायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिदं ।(वृ० ५० ५८६) ५५. स्थिति पुवकोडी तेह, साधिक अष्टज वर्ष में । ५५. 'उक्कोसेणं देसूणा पुष्वकोडी' ति तु यो देशोनपूर्वचारित्र ग्रहण करेह, तास अपेक्षा ज्येष्ठ स्थिति ।। कोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता च पूर्वकोटया अष्टाभिर्वर्षः अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात् । (वृ० ५० ५८६) ५६. *देवाधिदेव नी स्थिति किती? साहिबजी ! ५६. देवातिदेवाणं-पुच्छा। जघन्य बोहित्तर वास हो, जशधारी! गोयमा ! जहण्णेणं बावत्तरि वासाइं, उक्कोसेणं चउरासी लख पूर्व ही गोयमजी! चउरासीइं पुब्बसयसहस्साइं। (श० १२/१८१) स्थिति उत्कृष्टी तास हो, जशधारी ! ५७. भावदेव नी स्थिति किती? साहिबजी ! ५७. भावदेवाणं-पुच्छा । जिन कहै जघन्य जगीस हो, जशधारी! गोयमा ! जहणेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं दश हजारज वर्ष नों गोयमजी! तेत्तीसं सागरोवमाई। (श० १२/१८२) उत्कृष्ट सागर तेतीस हो, जशधारी ! पंचविध देवों का विकुर्वणा पद ५८. भव्य-द्रव्यदेव हे प्रभु ! साहिबजी! ५८. भवियदव्वदेवा ण भंते ! कि एगत्तं पभू ते सन्नी मनुष्य तिर्यंच हो, जशधारी! विउब्वित्तए ? पुहत्तं पभू विउव्वित्तए ? समर्थ इक रूप विविवा साहिबजी ! भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग् वा वैक्रियकै नाना रूप करिवा संच हो ? जशधारी ! लब्धिसम्पन्नः ‘एकत्वम्' एकरूपं 'प्रभुः' समर्थो विकुर्वयितुं 'पुहुत्तं' ति नानारूपाणि । (वृ० ५० ५८६) ५६. जिन भाखै इक रूप ही गोयमजी! ५९. गोयमा! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं वि पभू वक्रिय करण समर्थ हो, जशधारी! विउवित्तए। रूप नाना पिण वैक्रिय गोयमजी ! करिवा समर्थज तत्थ हो, जशधारी ! *लय : शीतल जिन शिवदायका १. ब्रह्मदत्त की तरह। २. भरत की तरह। ३. भगवान महावीर की तरह । ४. भगवान् ऋषभ की तरह । ९४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. एगत्तं विउव्वमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिदिय रूव वा। ६१. पुहत्तं विउव्बमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पचिदियरूवाणि वा। ६२. ताई संखेज्जाणि वा असंखेज्जाणि वा । ६३. संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरि साणि वा विउव्वंति । ६०. एक रूप विकुर्वतो गोयमजी ! रूप एकेन्द्रिय एक हो, जशधारी! जाव पंचेन्द्रिय रूप प्रते गोयमजी! वैक्रिय समर्थ पेख हो, जशधारी ! ६१. रूप नाना करतो थको गोयमजी! एकेन्द्री नां बह जाण हो, जशधारी ! यावत पंचेन्द्रिय तणां गोयमजी! रूप घणां पहिछाण हो, जशधारी ! ६२. संख्याता रूप करै तिको गोयमजी! अथवा रूप असंख्यात हो, जशधारी ! समर्थ आश्री ए जाणिय गोयमजी! शक्ति इति अवदात हो, जशधारी ! ६३. संबद्धा ते माहोमा मिल्या गोयमजी ! अणमिल्या ते असंबद्ध हो, जगधारी ! सारिखा नै अणसारिखा गोयमजी! समर्थ वैक्रिय लद्ध हो, जशधारी ! ६४. विकुर्वणा करने पछै गोयमजी ! निज वंछित कार्य करत हो, जशधारी! इमज कहिवा नरदेव नै गोयमजी! धर्मदेव इम हुंत हो, जशधारी ! ६५. देवाधिदेव नों पूछियां साहिबजी ! भाखै जिन गुणगेह हो, जशधारी ! एक अनेकज रूप नैं गोयमजी ! विकुर्वण समर्थ तेह हो, जशधारी ! ६६. पिण न करै निश्चै करि गोयमजी! विकुर्वण त्रिहं काल हो, जशधारी ! वैक्रिय रूप किया नहीं गोयमजी ! न करै न करस्यै न्हाल हो, जशधारी ! ६४. विउब्वित्ता तओ पच्छा जहिच्छियाई कज्जाई करेंति । एवं नरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि। (श० १२/१८३) ६५. देवातिदेवाणं-पुच्छा। गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, पुहत्तं पि पभू विउव्वित्तए। ६६. नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा, वि उव्वंति वा, विउव्विस्संति वा। सोरठा ६७. भाव तीर्थंकर देव, औत्सुक्य-वजित सर्वथा। ६७. देविातिदेवास्तु सर्वथा औत्सुक्यवजितत्वान्न विकुर्वते शक्ति छते पिण हेव, वैक्रिय रूप करै नहीं। शक्तिसद्भावेऽपि। (वृ० ५० ५८६) वा०-संपत्तीए कहितां यथोक्तार्थसंपादनेन-वैक्रिय रूप करिवै करी वा० --'संपत्तीए' त्ति वैक्रियरूपसम्पादनेन, विकुर्वणपणां थकी वैक्रिय रूप कियो नहीं, करै नहीं, करस्य नहीं । ते वैक्रिय नी विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते, तल्लब्धिमात्रस्य लब्धिमात्र नै विद्यमानपणां थकी। विद्यमात्वात् । (बृ० ५० ५८६) ६८. *भावदेव चिहं जात नां गोयमजी! ६८. भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा। भव्य-द्रव्यदेव जेम हो, जशधारी ! (श० १२/१८४) कहि सर्व विचार - गोयमजी ! पूर्वे भाख्यो तेम हो, जशधारी! *लय : शीतल जिन शिवदायका श०१२, उ०९, ढा० २६७ ९५ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविध देवों का उद्वर्तना पद ६६. भव्य द्रव्यसुर हे प्रभु ! साहिबजी ! नीकल किण गति संचरे साहिबजी ! ७०. स्यूं नरक जाव सुर में ऊपजे ? साहिबजी, तिरि मन में नहि उपजे साहिबजी ! ७१. सर्व देव में ऊपजै गोयमजी ! अंतर-रहितज तेह हो, जशधारी ! किण स्थानक उपजे हो ? जशधारी ! जिन कहै नरके न जाय हो, जणधारी ! उपज सुर गति मांय हो, जशधारी ! भव्य द्रव्यसुर ते भणी गोयमजी ! ७२. नरदेव अंतर-रहित ही साहिबजी ! ९६ जाय सर्वार्थसिद्ध हो, जसवारी ! सहु सुर उत्पत्ति लिद्ध हो, जशधारी ! निकली किण गति जंत हो ? जशधारी ! तिरि मनुष्य देव न त हो, जगधारी ! सोरठा जिन करके ऊपजे गोवमजी, ७३. काम भोग अव्यक्त, नरदेवा नरकेज तिरि मनु सुर मनु सुर गति व्यक्त, श्री महाभाग, सुर नरदेवपणां ने त्याग, ७४. के धर्मदेव ७५. * नरदेव नरके ऊपजै साहिबजी ! *लय : शीतल जिन शिवदायका भगवती जोड़ जिन कहै साइ नरक में गोयमजी ! ७६. धर्मदेव किहां ऊपजै ? साहिबजी ! त्रिहुं गति में नहि ऊपजै गोयमजी ! ७७. देव विषे जो ऊपने साहिबजी ! तो किसी नरक उपजत हो ? जगधारी ! उपजी दुःख सहत हो, जशधारी ! तब भा भगवंत हो, जगधारी ! सुर गति में उपजंत हो, जगवारी! तो किसी जाति में जाय हो, जनधारी ! धर्मदेव नहि थाय हो, जशधारी ! सर्व वैमानिक मांय हो, जनधारी ! ऊपजवो कहिवाय हो, जशधारी ! जिन कहै धुर त्रिहुं जाति में गोयमजी ! ७८. वैमानिक विषे जे गोयमजी ! जाव सर्वार्थसिद्ध विषे गोजी ! हं । ए त्रिहुं में नहिं ऊपजै ॥ गति मांहे पाम्ये ऊपजे । छते ॥ ६९. भवियदव्वदेवा ण भंते! अनंतरं उब्वट्टित्ता कहि गच्छति ? कहि उववज्जंति । ७०. किं नेरइएस उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएस उववज्जंति नो तिरिक्खजोगिएसु नो मनुस्सु देवेति । ७१. देवयति जाब (सं० पा० ) सम्ब सिद्धत्ति (STO PRIPEX) ७२ नरदेवा णं भंते ! अनंतरं उब्वट्टित्ता पुच्छा । गोवमा ! नेरइएस उपनिोिगिएसु. नो मनो देयेसु उज्जेति । ७३. अत्यक्तकामभोगा नरदेवा नैरयिकेषूत्पद्यन्ते शेषत्रये तु तन्निषेधः । (To To xex) ७४. तत्र च यद्यपि केचिच्चक्रवत्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथाऽपि ते नरदेवत्वत्यागेन धर्म्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः । ( वृ० प०५०६) ७५. जइ नेरइए उपवनंति ? सत्तयु वि पुढवीसु उबवज्जति । ( ० १२ १०६) ७६. धम्मदेवा णं भंते ! अनंतरं उब्वट्टित्ता पुच्छा । गोपमा ! नो नेरइए उति नो तिरिय सुनो मस्से देवेसु उववज्जति । (श० १२/१८७ ) ७७. जइ देवेसु उववज्जति किं भवणवासि पुच्छा । गोयमा ! नो भवणवासिदेवेसु उववज्जंति, नो वाणमंतर देवे उति गोजोइसियदेवे उति ७८. माणिपदेसु व्यवज्जति सम्येसु वेमाणिएमु उबज्जति जाव सव्वसिद्धअ गुत्तरोववाइयवेमाणि यदेवेसु उववज्जति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. कल्प रु कल्पातीत, उपजै एह वदीत, सोरठा भेद ८०. *धर्मदेव केइ महामुनि गोयमजी ! जाव करें अंत दुख तो गोवमजी ! ८१. देवाधिदेवतीर्थंकरू साहिबजी । जिन कहै ते सी सही गोयमजी ! ८२. भावदेव किहां ऊपजै साहिबजी ! असुर निकल जिहाँ ऊपजे गोयमजी ! नहिं पंचविध देवों का संविटुणा पद ८३. भव्य द्रव्यदेव हे प्रभु ! साहिबजी ! सी बुझे चित संत हो, जशधारी ! चर्मशरीरी तंत हो, जशधारी ! किण गति में उपजंत हो, जशधारी ! जाव सर्व दुख अंत हो, जशधारी ! पद छट्ठे पन्नवण मांय हो, जशधारी ! तिम इहां पिण कहिवाय हो, जगधारी ! रहे भव्य द्रव्यसुर कितो काल हो, जसधारी ! जघन्य अंतर्मुहूर्त जिन कहे गोयमजी ! विषे । तास भाख्या किलवेषी प्रमुख में ॥ ८४. जिम भव-स्थिति पूर्वे कही गोयमजी ! *लय शीतल जिन शिवदायका उत्कृष्ट त्रिण पत्य न्हाल हो, जशधारी ! जाव भावदेव जाणज्यो गोयमजी ! तेहिज संचिट्ठण काल हो, जशधारी ! ८५. धर्मदेव ने जपन्य ही गोयमजी ! नवरं विशेषज न्हाल हो, जशधारी ! कोड़ पूर्व उत्कृष्ट ही गोयमजी ! एक समय अवधार हो, जशधारी ! देश ऊग सुविचार हो, जगधारी ! सोरठा समय ८६. 'जघन्य ते इक न्हाल, धर्मदेव किण रीत संभाल ?, ८७. शंका पड़ियां ताय, प्रथम गुणठाणे आय, सम्यक्त्व ८८ शंका मिटियां तेह, चारित तुरत तास आवेह, समय ८६. इम संचिणकाल, जघन्य उत्कृष्टो सुविशाल, पूर्व कोड़ संचिणा । तास न्याय इम संभवे ॥ छट्ठा गुणठाणां थकी। गयां ॥ वली । मरे ॥ समय इक संभवे । देसूण ही ।। ' ( ज० स० ) चरण बिहूं सम्यक्त्व बिहुं एक रहीनें ८०. . अत्थेगतिया सिज्यंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । (प्र० १२।१५) ८१. देवातिदेवा अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जंति ? गोयमा ! सिज्भंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति 1 ( ० १२ १०९) ८२. भावदेवा णं भंते ! अनंतरं उव्वट्टिता- पुच्छा । जहा वक्तीए (प० ६।१०१, १०२ ) असुरकुमाराणं उब्वट्टणा तहा भाणियव्वा । ( ० १२०१९० ) ८३. भवियदव्वदेवे णं भंते ! भवियदव्वदेवे त्ति कालओ केवचिरं होई ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिष्णि पलिओ माई । ८४. एवं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा वि जाव भावदेवस्य नवरं 1 ८. धम्मदेवाने एमके समयं उनकोसेणं देणा पुन्यकोठी । ( श० १२ १९१ ) श० १२, उ०९, डा० २६७ ९७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविध देवों का अन्तर पद १०. *अंतर भव्य-द्रव्यदेव नों साहिबजी! ९०. भवियदब्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं भव्य-द्रव्यसुर मर सोय हो, जशधारी ! होइ ? काल केतलै ह वली साहिबजी ! भव्य-द्रव्यसुर जोय हो ? जशधारी ! ६१. श्री जिन भाखै जघन्य थी गोयमजी! ९१. गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तवर्ष सहस्र दश देख हो, जशधारी! मब्भहियाई: अंतर्महत अधिक ही गोयमजी! तास न्याय संपेख हो, जशधारी ! सोरठा १२. वृत्ति विषे इम वाय, भव्य-द्रव्यदेव ते मरी। ९२,९३. भव्यद्रव्यदेवो भूत्वा दशवर्षसहस्रस्थितिष ___व्यंतर में उपजाय, शुभ पृथ्व्यादिक में जई ।। व्यन्तरादिषत्पद्य च्युत्वा शुभपृथिव्यादौ गत्वाऽन्तर्मुहूर्त १३. अंतर्महल स्थित्त, मरी वलि भव्य-द्रव्यसुर हुवे। स्थित्वा पुनर्भव्यद्रव्यदेव एवोपजायत इत्येवं एतच्च एहवो न्याय प्रवृत्त, मत ए टीकाकार नों॥ टीकामुपजीव्य व्याख्यातं । (वृ० प० ५८७) १४. अन्य आचार्य कहै एम, बद्धायु भव्य-द्रव्यसुर। ९४,९५. अन्ये पुनराहुः ...इह बद्धायुरेव भव्यद्रव्यदेवोऽभि इहां वंछयो धर प्रेम, जिम जघन्य स्थितिए देव थइ ।। प्रेतस्तेन जघन्यस्थितिकाद्देवत्वाच्च्युत्वाऽन्तर्मुहूर्त६५. त्यांथी चवी सुभेव, अंतर्महत स्थितिक फून । स्थितिकभव्यद्रव्यदेवत्वेनोत्पन्नस्यान्तमहत्तोपरि देवाथयो भव्य-द्रव्यदेव, तृतीय भाग में आयु बंध ।। युषो बन्धनाद् यथोक्तमन्तरं भवतीति । (वृ० ५० ५८७) वा०-जिम दश हजार वर्ष नो जघन्य देवायु भोगवी पछ अंतर्मुहूर्त नां आउखे सन्नी तिर्यच में ऊपनों। तिहां वलि अंतर्मुहूर्त नों तीजो भाग ते पिण अंतमहत कहिये । तिण में देवायु बंध्यो । तिवारे तेहनै भविय-द्रव्यदेव कहिये । इम दश हजार वर्ष अंतर्मुहुर्त अधिक अन्तर जाणवो। १६. तथा भव्य-द्रव्यदेव, अंतर्महत आउखो। ९६,९७. अथवा भव्यद्रव्यदेवस्य जन्मनोर्मरणयोर्वाऽन्तरस्य तास जन्म थी हेव, मरण अवंतर जाणवं ।। ग्रहणाद यथोक्तमन्तरमिति। (वृ०प०५८७) ६७. ते भव्य-द्रव्यसुर थाय, यथोक्त अंतर इह विधे । ए सगलोई न्याय, टीका मांहि कह्यो अछै ।। १८. *भव्य-द्रव्यसुरनों आंतरो गोयमजी! ९८. उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो । उत्कृष्टो कहिवाय हो, जशधारी ! (श० १२।१९२) काल अनंतो आखियो गोयमजी! वनस्पति रै न्याय हो, जशधारी ! सोरठा ६६. भव्य-द्रव्यसुर न्हाल, सुर थई वनस्पति हवै। रही अनंतो काल, भव्य-द्रव्यसुर ह वली ।। १००. "प्रभु ! अंतर कितो नरदेव नो साहिबजी! १००. नरदेवाणं-पुच्छा। जिन कहै जघन्य थी ताय हो, जशधारी! गोयमा ! जहणणं सातिरेगं सागरोवमं । सागर एक जाझो कह्यो गोयमजी! "जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं' ति कथम् । निसुणो तेहनों न्याय हो, जशधारी ! (वृ० ५० ५८७) *लय : शीतल जिन शिवदायका ९८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त सोरठा १०१. भोग तज्यां विण जेह, चक्री जे नारक विषे। १०१. अपरित्यक्तसंगाश्चक्रवत्तिनो नरकपृथिवीपूत्पद्यन्ते, तासु उपजै कर्म बसेह, ते स्थिति उत्कृष्टीज लहै ॥ च यथास्वमुत्कृष्टस्थितयो भवन्ति । (वृ० प० ५८७) १०२. ते कारण थी ताय, चक्री रत्नप्रभा विषे। १०२. ततश्च नरदेवो मृतः प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नस्तत्र स्थिति इक सागर पाय, भोगव बलि नरदेव है। चोत्कृष्टां स्थिति सागरोपमप्रमाणामनुभूय नरदेवो जातः इत्येवं सागरोपमं । (वृ० ५० ५८७) १०३. इम सागर इक सोय, भत्र वीजे नरदेव ने। १०३. सातिरेकत्वं च नरदेवभवे चक्ररत्नोत्पत्तेराचीनकालेन चक्र न उपनो जोय, ते प्रथम काल ए अधिक है। द्रष्टव्यं। (वृ० ५० ५८७) १०४. *उत्कृष्ट अंतर नरदेव नों साहिबजी ! १०४. उक्कोसेणं अणतं कालं-अवडढं पोग्गलपरियट्ट काल अनंत कहिवाय हो, जशधारी! देसूणं। (श० १२।१९३) देसोन अर्द्ध पुद्गल परा गोयमजी! उत्कृष्टतस्तु देशोनं पुद्गलपरावर्द्धि कथम् ? तेहनों रिण इम न्याय हो, जशधारी ! (वृ० ५० ५८६) सोरठा १०५. चक्रीपणो विचार, समदृष्टीज उपाऊँ। १०५. चक्रवत्तित्वं हि सम्यग्दृष्टय एव निवर्तयन्ति, तेषां तसु उत्कृष्टो काल, देश ऊण पुद्गल परा॥ च देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त एव संसारो भवति । १०६. अंत भवे कोर तास, चक्रीपणो लही करी। १०६. तदन्त्यभवे च कश्चिन्नरदेवत्वं लभत इत्येवमिति । चरण ग्रही शिव वास, अनंत काल इम आंतरो।। (वृ० ५० ५८७) १०७. *अंतर कितो धर्मदेव नों साहिब जी! १०७. धम्मदेवस्स णं-पुच्छा । भाखै श्री जगभाण हो, जशधारी! गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपुहत्तं । पृथक्त्व पल्योपम तणो गोयमजी! जघन्य थकी ए जाण हो, जशधारी ! सोरठा १०८. चरणवंत करि काल, सुधर्म स्वर्ग सुर हुव । १०६. चारित्रवान कश्चित सौधर्म पल्योपमपृथक्त्वायुष्केपृथक्त्व पल्य स्थिति न्हाल, नरभव पामी चरण लै॥ । चरण ल॥ षूत्पद्य ततश्च्युतो धर्मदेवत्वं लभत इत्येवमिति । (वृ०प० ५८७) १०६. नर भवपणे निहाल, चारित्र विण अद्धा अछ। जस विनाशिकमपि अधिक अछै ते काल, पृथक्त्व पल्य रै मांहि ते॥ सत पल्योपमपृथक्त्वेऽन्तर्भावितमिति। (व० ५० ५८७) ११०. *धर्मदेव नों आंतरो साहिबजी ! ११०. उक्कोसेणं अणतं कालं जाव अवड्ढे पोग्गलपरियटें उत्कृष्ट काल अनंत हो, जशधारी ! देसूणं । (श० १२।१९४) जाव अर्द्ध पुद्गल परा साहिबजी, देश ऊण दाखंत हो, जशधारी ! सोरठा १११. मुनी विराधक होय, पुद्गल अर्द्ध परावरत । देश ऊण अवलोय, भ्रमण करी वलि मुनि हवै।। ११२. *देवाधिदेव नों आंतरो साहिबजी! ११२. देवातिदेवाणं-पुच्छा। जिन कहै अंतर नाय हो, जशधारी! गोयमा ! नत्थि अंतरं । एक वार हिज ते हवै गोयमजी! जिनेंद्र शिव पद पाय हो, जशधारी ! *लय : शीतल जिन शिवदायका (श० १२।१९५) श० १२, उ० ९, हा० २६७ ९९ Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. कितो भावदेव नों आंतरो साहिबजी ! अंतरमूर्त्त जन्य थी गोयमजी ! ११४. सुर तसु उत्तर दे जिनराय हो, जशधारी ! निगुणो तेहनों न्याय हो, जगधारी ! सोरठा चवि तिर्वच थाय अध्यवसाय, शुभ ११५. *भावदेव नों आंतरो साहिबजी ! वनस्पती मांहे भमी गोयमजी ! उत्कृष्ट काल अनंत हो जणधारी ! पंचविध देवों का अल्पबहुत्व पद ११६. ए प्रभु ! भव्य द्रव्यदेव में साहिबजी ! अंतर्मुहूर्त स्थिति नही देवपणें ऊपजै ॥ बलि पंचेंद्रिय थइ सुर अंत हो, जशधारी ! कवण - कवण थी थोड़ा हुवै साहिबजी ! ११७. जिन कहै थोड़ा सर्व थी गोयमजी ! लय शीतल जिन शिवदायका १. बलदेव । १०० भगवती जोड़ जाव भावसुर पेख हो, जशधारी ! जंबूद्वीपपन्नती थकी गोयमजी ! ११. एक अवसर्पिणी में विषे गोयमजी ! द्वादश-द्वादश चक्री गोयमजी ! चक्री जे नरदेव हो, जशधारी ! कहियै छै हिव भेव हो, जशधारी ! एक उत्सपिणी मांव हो, जनधारी ! नव बल' वासू पाय हो, जगधारी ! चिहुं चिहुं चत्री थाय हो, जशधारी ! जघन्य वीस इण न्याय हो, जशधारी ! सोरठा १२०. अठवीस ऊपजै । वासुदेवज काल जंबू विषे ॥ विजय रं मांव, पिग चक्री नहि थाय, किण इक वा०-हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामा द्वीप नैं विषे जघन्य पदे अथवा उत्कृष्टपदे केतला चक्रवर्ती हुवै ? हे गोतम ! जघन्यपदे च्यार चक्रवर्ती हुवै महाविदेह क्षेत्र नं विषे । उत्कृष्टपणे तीस चक्रवर्ती हुवै। ते किम ? उत्कृष्टपण महाविदेह नी २० विजय में चक्रवर्ती हुने ४ विजय में महाविदेहे २८, भरते १, ऐरवते १ - इम ३० चक्रवर्ती हुवै। वामुदेव दुर्वते भणी । बलदेव पिण तेतलाज ११६. इक इक विदेहखेत्र विषे गोयमजी ! पंच महाविदेह में विषे गोयमजी ! ११६. एएसि णं भंते! भवियदव्वदेवाणं, नरदेवाणं जाव (सं० पा० ) भावदेवाण य कयरे कयरेहिंतो जाव (सं० पा०) विसेसाहियावा ? यावत अधिक विशेष हो, जशधारी ! ११७. गोयमा ! सव्वत्थोवा नरदेवा । ११३. भावदेवस्स णं पुच्छा । २. वासुदेव । गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं । 'जहनेणं अंतोतंत कथम् ? (० ० ५८७ ) ११४. भावदेवयुतोऽन्यत्र स्थित्वा पुनरपि भावदेवो जात इत्येवं जपन्वेनान्तमन्तरमिति । ( वृ० प० २००) ११५. उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो । (श० १२।१९६) वा० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे जहण्णपए वा उक्कोसपए वा केवइया चक्कवट्टी सव्वग्गेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणपए पत्तारि उस्कोप ती चक्कबट्टी सच्च ग्गेणं पण्णत्ता । बलदेवालिया मेव जतिया चक्कवट्टी, वासुदेवावि तत्तिया चेव । (जंबु० ७।१९९,२००) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघन्य पदे ४, उत्कृष्ट पदे ३०, जेतला चक्रवर्ती हुई। वासुदेव पिण तेतलाजहुवै । ते किम ? जिवारै उत्कृष्टा ३० चक्रवर्ती हुवै तिवारै जघन्य ४ वासुदेव-बलदेव हुवै अनै जिवार उत्कृष्टा ३० वासुदेव-बलदेव हुवै तिवारै ४ चक्रवर्ती हवै। १२१. *संख्यातगुणां नरदेव थी गोयमजी! १२१. देवातिदेवा संखेज्जगुणा । देवाधिदेव कहाय हो, जशधारी ! इक-इक भरत ऐरावते गोयमजी! चउवीस-चउवीस थाय हो, जशधारी ! १२२. इक-इक विदेह जिनेंद्र ह गोयमजी! जघन्य थकी च्यार-च्यार हो, जशधारी ! उत्कृष्ट पंच विदेह में गोयमजी! इकसौ साठ उदार हो, जशधारी ! सोरठा १२३. एक विदेह जगीस, वासुदेव चिहुं जघन्य थी। १२३. विजयेषु च वासुदेवोपेतेष्वप्युत्पत्तेरिति । उत्कृष्ट ह अठवीस, त्यां पिण तीर्थकर हवै।। (वृ० ५० ५८७) १२४. *संख्यातगुणां धर्मदेव हगोयमजी! १२४. धम्मदेवा संखेज्जगुणा। जाझा बे सहस्र कोड़ हो, जशधारी! धम्मदेवा संखेज्जगुण' त्ति साधूनामेकदाऽपि कोटीजघन्य थकी ए जाणवा गोयमजी ! सहस्रपृथक्त्वसद्भावादिति । (व० ५० ५८७) चरण करण धर जोड़ हो, जशधारी! १२५. भवियदब्बदेवा असंखेज्जगुणा।। १२५. भवियद्रव्यदेव तेहथी गोयमजी! भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुण त्ति देशविरतादीनां असंख्यातगुणां होय हो, जशधारी! देवगतिगामिनामसंख्यातत्वात्। (वृ० ५० ५८७) श्रावक प्रमुख अछ घणां गोयमजी! सुर गति गामी सोय हो, जशधारी ! १२६. भावे सुर वर जेह थी गोयमजी! १२६. भावदेवा असंखेज्जगुणा । (श० १२।१९७) असंखगुणां आख्यात हो, जशधारी! - 'भावदेवा असंखेज्जगुण' त्ति स्वरूपेणैव तेषामतिच्यार जाति नां देवता गोयमजो ! बहुत्वादिति । (वृ०प०५८७) अति बहु तेह विख्यात हो, जशधारी ! सोरठा १२७. भवनपत्यादिक जाण, भावदेव छ छ तहना। १२७. अथ भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीनामल्पबहुत्व तेहनीं। अल्पबहुत्व पिछाण, कहियै छै हिव आगल ।। " प्ररूपणायाह (वृ० ५० ५८७) १२८. एएसि णं भंते ! भावदेवाणं भवणवासीणं, वाण मंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं । १२८. *भावदेव भगवंतजी ! साहिबजी ! भवनपति मैं भाल हो, जशधारी ! व्यंतर नै बले ज्योतिषी साहिबजी ! वैमानिक सुविशाल हो, जशधारी ! १२६. सुधर्मा जाव अच्युत लगे साहिबजी ! नव ग्रेवेयक पेख हो, जशधारी! अनुत्तर विमाण नां सुर वलि साहिबजी! कुण-कुण थी जाव विशेख हो? जशधारी ! *लय : शीतल जिन शिवदायका १२९ सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं गेवेज्जगाणं अणुत्तरोव वाइयाण य कयरे कयरेहितो जाव (सं०पा०) विसेसाहिया वा ? श० १२, उ० ९, ढा० २६७ १०१ Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०. जिन कहै थोड़ा सर्व थो गोयमजी ! १३०. गोयमा! सव्वत्थोवा अणुत्तराववाइया भावदेवा, देव अनुत्तर देख हो. जशधारी! उवरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा। ऊपरली विक नां सुरागोयमजी! संखेजगूणां संपेख हो, जशधारी ! १३१. संखेजगुणां मज्झिम त्रिक तणां गोयमजी ! १३१. मज्झिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेद्विमगेवेज्जा संखेहेठिम त्रिक नां संखेज हो, जशधारी! ज्जगुणा, अच्चुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा जाव आणयसंखेज्जगुणां अच्युत सुरा गोयमजी! । कप्पे देवा संखेज्जगुणा । जाव आणत सुर मेंज हो, जशधारी! १३२. इम जिम जीवाभिगम में गोयमजी ! १३२. एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे । त्रिविध जीव अधिकार हो, जशधारी ! 'तिबिहे' त्ति त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः । तिहां तीन प्रकारे पुरुष कह्या गोयमजी! से कि तं पुरिसा? पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तंजहादेव मनुष्य तिरि धार हो, जशधारी ! तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा। (जीवाजीवा० २।७५) १३३. तिहां देव पुरुष नों दाखियो गोयमजी ! . १३३. देवपुरिसे अप्पाबहुयं । अल्पवहुत्व विचार हो, जशधारी ! तिम समुच्चय सुर कहिवा इहां गोयमजी ! जाव असंखगुणां सहस्सार हो, जशधारी ! वा०---जीवाभिगम में देवपुरुष नों अल्पबहुत्व कही। इहां भाव देव नों वा०-देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि वाच्यं, तच्चैवं अधिकार माटे समुच्चय देव शब्द कही अल्पबहुत्व कहिबी। पिण पुरुष शब्द न -सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा .... कहियो । ते इम-सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणां । इम आगल महाशुक्र थी लेई सर्व ठिकाणे देवा कहिवा। १३४. सुर असंखगणा महाशुक्र नां गोयमजी! १३४. महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, लंतए कप्पे देवा लंतक सुर असंख्यात हो, जशधारी! असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, पंचम ब्रह्म सुरलोक नां गोयमजी! असंखगणां आख्यात हो, जशधारी ! १३५. असंखगणां चउथा कल्प नां गोयमजी ! १३५. माहिंदे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवा असंखेज्ज सनंतकुमार हो, जशधारी! असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, असंख्यातगणां ईशाण नां गोयमजी ! सोहम्मे कप्पे देवा संखेज्जगुणा । सुधर्म नां संख धार हो, जशधारी ! १३६. सुर भवनपति नां असंखगुणां गोयमजी! १३६. भवणवासिदेवा असंखेज्जगुणा, वाणमंतरा देवा असंखगणां व्यंतरीक हो, जशधारी! असंखेज्जगुणा, जोतिसिया भावदेवा संखेज्जगुणा। संख्यातगणां ज्योतिषी गोयमजी ! (श० १२।१९८) ए जाव शब्द में सधीक हो, जशधारी! १३७. सेवं भंते ! गोयम कहै साहिबजी! १३७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० १२११९९) बारमा शतक नों सार हो, जशधारी ! अर्थ उद्देशक नवम नों साहिबजी! पंच देव अधिकार हो, जशधारी ! १३८. दोयसौ नं सतसदमों साहिबजी! आखी ढाल उदार हो, जशधारी ! भिख भारीमाल ऋषिराय थी साहिबजी! 'जय-जश' जय-जयकार हो, जशधारी ! द्वादशशते नवमोद्देशकार्थः ॥१२॥६॥ १. जीवाजीवाभिगमे २।९६ । १०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाल ; २६८ १. नवम उदेशक नै विषे, देव तणो विस्तार । १. नवमोद्देशके देवा उक्तास्ते चात्मन इत्यात्मते तो आतमवंत है, हिव आतम अधिकार ।। स्वरूपस्य । (वृ० ५० ५८८) २. अपर-अपर पर्याय निज, जेह निरंतर जाण । २. 'आय' त्ति अतति-सन्ततं गच्छति अपरापरान् पोहचे जावै प्राप्त है, आत्मा तेह पिछाण ।। स्वपरपर्यायानित्यात्मा। (वृ० ५० ५८९) या०-अथवा अत धातु गमनार्थ-- ज्ञानार्थपणां थकी। अतति कहितां वा०—अथवा अतधातोगमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादततिनिरंतर जाणे उपयोग लक्षणपणां थकी, इति आत्मा। प्राकृतपणा थकी सूत्र नै विषे सन्ततमवगच्छति उपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, स्त्रीलिंग निर्देश कियो । आत्मा नै उपयोग लक्षणपणां थकी सामान्य करिके एकविध- प्राकृत्वाच्च सूत्रे स्त्रीलिंगनिर्देश: तस्य चोपयोगलक्षणपण, पिण उपाधि भेद नै अंगीकारपणां थी अष्टविध । त्वात्सामान्येनेकविधत्वेऽप्युपाधिभेदादष्टधात्वम् । (वृ० प० ५८९) आत्मापद ३.किती प्रकार आत्मा प्रभ ! जिन कहै अष्ट प्रकार। ३. कतिविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता ? द्रव्यात्मा प्रथम कही, सर्व जीव में सार । गोयमा ! अढविहा आया पण्णत्ता तं जहा--- दवियाया सर्वेषां जीवानाम् । (वृ०प०५८९) वा....--द्रव्य त्रिकाल अनुगामी उपसर्जनीकृतकषायादि पर्याय छ । एतले वा०-तत्र 'दवियाय' त्ति द्रव्यं --त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकषायादिक ७ आत्मा, ते द्रव्य नां लक्षण छ । तेहनै द्रव्य आत्मा न कहिये तेहन कृतकषायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा। भाव जीव कहिये । अनं द्रव्य जीव ते तीन काल में असंख्यात प्रदेशरूप एक सरीखो (वृ०प० ५८९) जीवपणुं छै । ते छेद्यो छेदाय नहीं, भेद्यो भेदाय नहीं, वधै नहीं, घट नहीं, सावद्य नहीं, निरवद्य नहीं, तेहन द्रव्य आत्मा कहियै ।। ४. कषाय आत्मा दशम लग, तीजी आत्मा जोग। ४. कसायाया, जोगाया उवओगाया । ते कहिये तेरम लगे, सर्व विषे उपयोग । ५. धुर तीजा गुणठाण विण, कहियै आत्मा ज्ञान । ५. नाणाया, दंसणाया। ___दर्शण आत्मा सर्व में, शुद्ध अशुध सरधान ॥ ६. चारित्र ते छट्ठा थकी, चवदम लगै विचार । ६. चरित्ताया, वीरियाया । (श० १२।२००) वीर्य आतमा सिद्ध विण, सर्व जीव संसार ॥ ७. कषाय आत्मा इहां कही, भाव व.पायज च्यार। ७. 'कसायाय' त्ति क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा जोग आत्मा पिण इहां, भाव जोग व्यापार ।। कषायात्मा 'जोगाय' त्ति योगा--मन:-प्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा । (वृ० ५० ५८९) ८. अनाकार साकार ए, उपयोग आत्मा जेह। ८. 'उवओगाय' त्ति उपयोग:-साकारानाकारभेदज्ञान आतमा ज्ञान पंच, ज्ञानी विषे कहेह ।। स्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा'नाणाय' त्ति ज्ञानविशेषितः । (वृ० ५० ५८९) ६. सम्यग-दर्शण आदि त्रिण, दर्शण आत्मा ताहि। ९. चारित्रात्मा विरतानाम् । (वृ० ५० ५८९) चारित्र आत्मा चरित्त पंच, सर्व थकी मुनि मांहि ॥ १०. वीर्य आत्मा वीर्य त्रिण, शक्ति रूप कहिवाय । १०. वीर्य उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणाम् । पुद्गल नां संयोग थी, सर्व संसारी मांय ॥ (वृ० ५० ५८९) ११. ए आठे आत्मा कही, हिव ए मांहोमांय । ११. एवमष्टधात्मानं प्ररूप्याथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यजेहनें है तेहनों कथन, कहियै निसुणो न्याय॥ दात्मभेदान्तरं युज्यते च न युज्यते च तस्य तद्दर्शयितुमाह (वृ०प० ५८९) श० १२, उ०१०, ढा० २६८ १०३ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जस्स णं भंते ! दवियाया तस्य कसायाया ? जस्स कसायाया तस्स दवियाया? १३. गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नत्थि। 'स्यादस्ति' कदाचिदस्ति सकषायावस्थायां 'स्यान्नास्ति' कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषायावस्थायां। (वृ०प०५८९) १५. जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि । (श० १२।२०१) द्रव्य आत्मा का शेष सात आत्मा के साथ अस्तित्व *रूड़े स्वाम उचारै रे, आत्मा प्रश्न उदारं॥ [ध्रुपदं] १२. द्रव्य आत्मा जेहने छै प्रभुजी ! कषाय आत्मा छ तेहनैं । जेहने कषाय आत्मा छै प्रभुजी! द्रव्य आत्मा छै तेहने ? १३.जिन कहै जेहने द्रव्य आत्मा छै, तास कषाय नी भयणा। हवै कदाच न हुवै किवार, वारू न्याय सुवयणा॥ ___ सोरठा १४. द्रव्य सर्व में पाय, धुर गुण' थी सिद्धां लगे । दशमां लगै कषाय, आगल नहिं भजनाज इम।। १५. *कषाय आत्म छ जेह जीव ने, द्रव्य आत्म जे तास । निश्चैई करिनै छै जेहनें, ए नियमा सुविमासं ॥ सोरठा १६. दशमां लगे कषाय, द्रव्य सर्व जीवां मझे। नियमा इम कहिवाय, कषाय त्यां निश्चेज द्रव्य ।। १७. *हे प्रभ! जेहने द्रव्य आत्म छै, जोग आत्म तस होय । जेहन जोग आत्म छै तेहन, द्रव्य आत्म छ सोय ? १८. जिन कहै द्रव्य आत्म छै जेहनें, जोग नी भजना जाणी। जेहन जोग आत्म तसु द्रव्य नी, नियमा निश्चै माणी। सोरठा १६. द्रव्य सर्व में पाय, जोग तेरम गुणठाण लग। तिण कारण कहिवाय, द्रव्य त्यां भजना जोग नीं॥ २०. जोग तेरम लग होय, द्रव्य सिद्ध संसारी मझे। जोग तिहां इम जोय, नियमा द्रव्य तणी कही।। २१. 'हे प्रभ ! जेहने द्रव्य आत्म छै, उपयोग आत्मज तासं? सर्व पदे इम प्रश्न मांहोमां, जिन उत्तर दै जासं ॥ २२. जेहने द्रव्य तास उपयोग नी नियमा निश्चै कहिये । जसु उपयोग आत्म तसु द्रव्य नीं, ए पिण नियमा लहिये ।। सोरठा २३. संसारी सर्व जीव, वलि सिद्धां में पामियै। आतम द्रव्य सदीव, उपयोग दर्शण पिण लहै। २४. *जेहनै द्रव्य तास ज्ञानात्मज, भजनाए करि भणवो। ज्ञान आत्म छै तास द्रव्य नी नियमा निश्चै गुणवो।। १७. जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स जोगाया ? जस्स जोगाया तस्स दवियाया? १८. गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स जोगाया सिय अत्थि सिय नत्यि, जस्स पुण जोगाया तस्स दवियाया नियम अस्थि । (श० १२।२०२) २१. जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स उवओगाया? .... एवं सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा। २२. गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स उवओगाया नियम अत्थि । जस्स वि उवओगाया तस्स वि दवियाया नियम अत्थि । २४. जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए। नस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया नियम अस्थि । *लय : रूडै चन्द निहाले रे १. गुणस्थान १०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जस्स दवियाया तस्स दंसणाया नियम अत्थि, जस्स वि दंसणाया तस्स वि दवियाया नियमं अत्थि । २८. यथा चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति । (वृ०प० ५८९,५९०) २९. भगवई २०४९८ सोरठा २५. द्रव्य सर्व में जाण, धुर तीजा गुणठाण विण । ज्ञानात्मा पहिछाण, भजना नियमा ते भणी ।। २६. *जेहन द्रव्य तास दर्शन नी, नियमा निश्चे होय । जेहने दर्शण तास द्रव्य नीं, ए पिण नियमा जोय ।। सोरठा २७. 'द्रव्य सर्व में होय, सम्यक मिथ्या मिश्र ए। त्रिहं दर्शन अवलोय, दर्शण आत्मा सर्व में ।। २८. चक्षु दर्शण आद, तसु दर्शण आत्मा कही। वृत्ति विषे ए वाद, तेह बात मिलती नथी । २६. शतक पचीसम जोग, आख्यो सप्तमुद्देशके । अनाकार उपयोग, दशमें गुणठाणे नथी ।। ३०. दर्शण आत्मा जान, ते तो सगला जीव में । तिण कारण श्रद्धान, तसु दर्शण आत्मा कही ।। ३१. तेरम पद में ताम, जोग परिणामिक भेद दश । त्यां उपयोग परिणाम, ज्ञान दर्शण चारित्र कह्या ।। ३२. दर्शण तीन प्रकार, सम्मइंसण मिथ्या वलि । ___ सम्यकमिथ्या धार, ए तीनूं श्रद्धान है। ३३. जे कषाय परिणाम, कहियै कषाय आतमा । ___ जोग परिणामिक ताम, तस जोगात्म कहीजिये ।। ३४. जे उपयोग परिणाम, कहियै उपयोग आतमा । चरित्त परिणामिक ताम, चारित्र आत्म कही तसु ।। ३५. तिम दर्शन परिणाम, दर्शन आत्म कहीजिये। ते श्रद्धान तमाम, शुद्ध अशुद्ध बिहूं अछ ।। ३६. तिणसं नियमा न्हाल, द्रव्य तिहां दर्शण तणी। दर्शण तिहां संभाल, द्रव्य तणी नियमा अछै ॥' (ज०स०) ३७. *जेहन द्रव्य तास चारित्र नी, भजना विध सूं भणियै। जेहनें चारित्त तास द्रव्य नीं, नियमा निश्चै थुणियै ।। सोरठा ३८. द्रव्य सर्व में होय, चारित्त छठा गुण थकी। चवदम लग अवलोय, भजना नियमा ते भणी॥ ३६. 'जेहने द्रव्य तास वीर्य नी, भजना वोर वखाणी। जेहनै वीर्य तास द्रव्य नीं, नियमा निश्च जाणी।। ३७. जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियम अस्थि । ३९. जस्स दवियाया तस्स वीरियाया भयणाए, जस्स पुण वीरियाया तस्स दवियाया नियम अस्थि । (श० १२।२०३) सोरठा ४०. द्रव्य सर्व में जाण, वीर्य सिद्ध विण सर्व में । धुर भजना इम छाण, नियमा दूजो प्रश्न है।। * लय : रूडे चन्द निहाल रे श० १२, उ० १०, ढा० २६८ १०५ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय आत्मा का शेष छह आत्मा के साथ अस्तित्व ४१. * जेहनें प्रभुजी ! कषाय आत्मा, जोग आत्मा छै जसं । जेहनें जोग आत्मा आसी कषाय आत्मा तासं ॥ ४२. जिन कहे जेहने कपाय आरगा, जोग नी नियमा गुणियं । जोग आत्म जिहां कषाय आत्मा, भजनाए करि भणियै ।। सोरठा ४३. दशमा लगे कषाय, जोगात्मा तेरम लगे । तिण कारण कहिवाय धुर नियमा भजना पश्चिम || ४४. * जास कषाय तास उपयोग नीं, नियमा निश्वे धारी । उपयोग आम जिहां कषाय नीं, भजना ए सुविचारी ॥ सोरठा ०५. दशमा लगे कपाय, सर्व विषे उपयोग है। इण कारण ए न्याय, धुर नियमा भजना पछिम || ४६. * जास कषाय तास ज्ञानात्मज, ज्ञान तिहांज कषाय । बिहु परस्पर भजना भणवी, तास विचारो न्याय || सोला ४७. दशमा लगे कपाय, प्रथम तृतीय गुणठाण विण । ज्ञान अन्य गुण पाय, तिण सुं धुर भजना कही || ४८. किणहिक ज्ञानी माहि कहिये काय आतमा । किण ज्ञानी में नांहि, ते माटै भजना पछिम || ४६. * जास कषाय तास दर्शण नीं, नियमा श्री जिन आखे । दर्शण तिहां कषायात्मा नीं, भजना भगवंत भाखै ॥ सोरठा ५०. दशमा लगै कषाय, दर्शण आतम सर्व में। धुर नियमा इण न्याय, पश्चिम भजना पेखियै ॥ ५१. * जास कषाय तास चारित नीं, चारित तिहां कषाय । बिहु परस्पर भजना भणवी, विमल विचारी न्याय ।। सोरठा ५२. दशमा लगे कषाय, चारित छठा ठाण थी । चवदम लगे कहाय, ते माटे भजना बिहुं ॥ ५३. * जास कषाय तास वीर्यात्मा, नियमा निश्चै कहिये । वीर्यात्मा साथै कषाय नीं, भजनाविध सुलहियै || *लय : रूडे चन्द निहाल रे १०६ भगवती जोड़ ४१. जस्स णं भंते! कसायाया तस्स जोगाया पुच्छा । ४२. गोयमा ! जस्स कसायाया तस्स जोगाया नियम अत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि । ४४. एवं उवओगायावि समं कसायाया नेयव्वा । ४६. कसायाया य नाणाया य परोप्परं दो वि भइयव्वाओ । ४९. जहा कसायाया य, उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य । ५१. कसायाया य चरिताया य दो वि परोप्परं भइयव्वाओ । ५३. जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियव्वाओ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ५४. दशमा लगे कषाय, वीर्य सह संसारिका । धुर नियमा इण न्याय, भजना पश्चिम जाणवी ।। योग आत्मा का शेष पांच आत्मा के साथ अस्तित्व ५५. *जिम कषाय संघात उपरला, पद आख्या सुप्रतीत । जोग संघात तिमज उपरला, कहिवा पद इह रीत ।। ५६. जोग तिहां उपयोग नीं नियमा, जोग तेरम लग ताय। उपयोग आत्मा सब जीवां में, नियमा छै इण न्याय ॥ ५७. उपयोग तिहां जोग नी भजना, उपयोग सर्व जीवां में। जोग तेरम गुणठाण लगै छ, ए भजना इम पामे ।। ५८. जोगात्मा तिहां ज्ञान नी भजना, जोग तेरम लगजाणी। ___ज्ञानात्मा पहिला तीजा विण, इम भजना पहिछाणी।। ५६. ज्ञानात्मा तिहां जोग नों भजना, प्रथम तृतीयविण नाण। जोगात्मा नहि चवदम सिद्धे, इम भजना पहिछाण ।। ६०. जोग तिहां दर्शण नी नियमा, जोग तेरम लग जोय। दर्शण आत्मा सब जीवां में, इम नियमा अवलोय॥ ६१. दर्शण तिहां जोग नी भजना, दर्शण सिद्ध संसारी। जोग तेरम लग पिण नहि आगे, तिणसू भजना धारी।। ६२. जोग तिहां चारित्त नी भजना, जोग तेरम लग कहिये। चारित्त छठा थी चवदम लग, तिणसू भजना लहियै ।। ६३. चारित्त तिहां जोग नी भजना, छठा थो चवदम चरण । जोग नहीं चवदम गुणठाणे, इम भजना तसु वरणं ।। ६४. जोग तिहां वीर्य नी नियमा, जोग त्रयोदश ठाणं । वीर्य आतमा चवदम लग है, ए नियमा इम जाणं ।। ६५. वीरज तिहां जोग नी भजना, वीरज चवदम तांई। जोग तेरम लग पिण नहिं चवदम, इम भजना है ज्यांही।। उपयोग आत्मा का शेष चार आत्मा के साथ अस्तित्व ६६. द्रव्य संघात ज्ञान प्रमुख कही, तिम उपयोग संघात । ऊपरली आतम प्रति कहिये, तास सुणो अवदात ।। ६७. उपयोग तिहां ज्ञान नी भजना, उपयोग सर्व जीवां में। ज्ञान पहिले तीजै नहिं पावै, इम भजना कहि त्यां में। ५५. एवं जहा कसायायाए वत्तब्वया भणिया तहा जीगा याए वि उवरिमाहि भाणियव्वाओ ।' ५६. यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमाद् यथा संयोगानाम् (वृ० ५० ५९०) ५७ यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा संयोगानां स्यान्नास्ति यथाऽयोगिनां सिद्धानां चेति । (वृ० ५० ५९०) ५८. यस्य योगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टीनामिव स्थान्नास्ति मिथ्यादृष्टीनामिव । (वृ० ५० ५९०) ५९. यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति सयोगि__ नामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति । (वृ०प० ५९०) ६०. यस्य योगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव योगिनामिव । (वृ० प० ५९०) ६१ यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति योगवता मिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिव। (वृ० प० ५९०) ६२. यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति बिरता नामिव स्यान्नास्त्यविरतानामिव । (वृ० ५० ५९०) ६३. यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति । (वृ० ५० ५९०) ६४. यस्य योगात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यम्भावात्। (वृ० ५० ५९१) ६५. यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्य विशेषवान् सयोग्यपि स्याद् यथा सयोगकेवल्यादिः अयोग्यपि स्याद् यथाऽयोगिकेवलीति । (वृ० प० ५९१) ६६. जहा दवियायाए वत्तव्वया भणिया तहा उवओगायाए वि उवरिल्लाहिं समं भाणियव्वा । ६७. यस्योपयोगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशाम् । (वृ० प० ५९१) ६८. यस्य च ज्ञानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धानामिवेति । (वृ० ५० ५९१) ६९. यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव यस्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव यथा सिद्धादीनामिवेति । (वृ० ५० ५९१) ६८. ज्ञान तिहां उपयोग नी नियमा, प्रथम तृतीय विण नाणं। उपयोग आत्मा सब जीवां में, तिणसं नियमा जाणं॥ ६६. उपयोग तिहां दर्शण नी नियमा, दर्शण तिहां उपयोग। ए पिण नियमा निश्चै कहिवी, सब में बिहु संयोग । *लय : रूड चन्द निहाले रे पा० १२, उ० १०, ढा० २६८ १०७ Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्ना स्ति यथा संयतानामसंयतानां च । (वृ० ५० ५९१) ७१. यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येवेति यथा संयतानाम् । (वृ०प० ५९१) ७२. यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणा__ मिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव । (वृ० ५० ५९१) ७३. यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव संसारिणामिवेति । ___ (वृ० ५० ५९१) ७४, जस्स नाणाया तस्स दसणाया नियमं अस्थि । ७५. जस्स पुण दंसणाया तस्स नाणाया भयणाए । ७६. जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि सिय नत्थि । ७७. जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अस्थि । ७०. उपयोग तिहां चारित्र नी भजना, उपयोग सर्व ठिकाणं । चारित्त छठा थी चवदम लग, तिणसू भजना जाणं ।। ७१. चारित्त तिहां उपयोग नी नियमा, छठा थी चवदम चरणं । उपयोग आत्मा सर्व विषे है, तिणसं नियमा वरणं ॥ ७२. उपयोग तिहां वीर्य नी भजना, उपयोग सिद्ध संसारी। वीर्य आतमा चवदम लग है, तिणसं भजना विचारी ।। ७३. वीर्य तिहां उपयोग नीं नियमा, वीर्य सर्व संसारी। उपयोग संसारी सिद्ध विषे छ, तिणसं नियमा धारी ।। ज्ञान आत्मा का शेष तीन आत्मा के साथ अस्तित्व ७४ ज्ञान तिहां दर्शण नों नियमा, प्रथम तृतीय विण ज्ञानं । दर्शण आत्मा सर्व विषे है, तिणसं नियमा जानं ।। ७५. दर्शण तिहां ज्ञान नी भजना, दर्शण सब जीवां में। ज्ञानात्मा पहिलै तीज नहि, तिणसू भजना पामे ॥ ७६. ज्ञान तिहां चारित्त नी भजना, प्रथम तृतीय विण नाणं। चारित्त छट्ठा थी चवदम लग, तिणसू भजना जाणं । ७७. चारित्त तिहां ज्ञान नी नियमा, छट्ठा थी चवदम चरणं ।। ज्ञान प्रथम तीजा विण सह में, तिण नियमा वरणं । ७८. ज्ञान तिहां वीर्य नी भजना, प्रथम तृतीय विण नाणं । वीर्य चवदम पिण नहीं सिद्ध में, तिणसं भजना जाणं ।। ७६. वीर्य तिहां ज्ञान नी भजना, वीर्य चवदमै ताई। ज्ञानात्मा पहिले तीज नहि, तिणसू भजना ज्यांही ।। दर्शन आत्मा का शेष दो आत्मा के साथ अस्तित्व ८०. दर्शण तिहां चारित्र नी भजनां, दर्शण सिद्ध संसारी। चारित्त सिद्धां में नहिं पावै, तिणसं भजना विचारी ।। ८१. चारित्त तिहां दर्शण नी नियमा, छठा थी चवदम चरितं । दर्शण सिद्ध संसारिक सह में, तिणसं नियमा कथितं ।। ८२.दर्शण तिहां वीर्य नी भजना, दर्शण सिद्ध संसारी। वीर्य संसारिक पिण नहीं सिद्ध में, तिणसं भजना धारी। ८३. वीर्य तिहां दर्शण नी नियमा, वीर्य चवदमै ताई। दर्शण संसारिक सिद्धां में, तिणसं नियमा ज्यांही ।। चारित्र आत्मा का एक वीर्य आत्मा के साथ अस्तित्व ८४. चारित्र तिहां वीर्य नी नियमा, छट्रा थी चवदम चरणं। वीर्य धुर गुण थी चवदम लग, तिणसू नियमा वरणं। ७८,७९. नाणाया वीरियाया दो वि परोप्परं भयणाए। यस्य ज्ञानात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टेरिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृश इवेति । (वृ० ५० ५९१) ८०-८३. जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दो वि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियम अत्थि । यस्य दर्शनात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिब, यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव साधूनामिवेति । तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्य च वीर्यात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव संसारिणामिवेति । (व०प०५९१) ८५. वीर्य तिहां चारित्र नी भजना, वीर्य सर्व संसारी। चारित्र धुर गुण पंच न पावै, तिणसू भजना धारी ॥ ८४. जस्स पुण चरित्ताया तस्स वीरियाया नियम अत्थि । यस्य चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव, वीर्य विना चारित्रस्याभावात् । (वृ०प० ५९१) ८५. जस्स पूण वीरियाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि सिय नत्थि। (श० १२।२०४) यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूना मिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिव । (वृ० ५० ५९१) ८६. अधुनषामेवात्मनामल्पबहुत्वमुच्यते । (वृ० ५० ५९१) सोरठा ८६. अष्ट आत्म नी जाण, कही माहोमा योजना। अल्पबहुत्व पिछाण, हिव कहिये ते सांभलो।। १०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ आत्मा का अल्पबहुत्व पद ८७. *हे भगवंत ! आठ आत्मा में, कवण-कवण थी कहिये । अल्प बहु तुल्य विशेष अधिका? हिव जिन उत्तर दइयै ।। ८७. एयासि णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ८८. गोयमा! सब्बत्थोवाओ चरित्तायाओ। 'सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ'त्ति चारित्रिणां संख्यातत्वात् (वृ० ५० ५९१) ८८. सर्व थी थोड़ा चरित्त आत्म नां, वृत्ति में कह्या संख्यात । तिण कारण ए पंच चारित्रिया, सर्वविरत आख्यात ।। ८९. पण्ण० । १३१२,१२ ९०. अणु० सू० २८५ ९१. भगवई ८।१६३ सोरठा ८६. 'जीव परिणामिक मांय, तेरम पद दश भेद त्यां। चरित्त परिणाम कहाय, चारित्त पंच कह्या तिहां ।। ६०. वलि अनुयोगवार, चारित्र पंच थकी जुदो। चरित्ताचरित्त उदार, क्षयोपशम-निप्पन कह्यो ।। ६१. अष्टम शतक मझार, द्वितीय उद्देशक भगवती । चरित्ताचरित्त उदार, चारित्र पंच थकी जुदो।। ६२. ते थी इहां चरित्त, देश थकी नों कथन नहीं। सर्व चरित्त आश्रित्त, संख्याता आख्या वृतौ ।।' (ज०स०) ६३. *तेहथी अनंतगुणां ज्ञानात्मा, सिद्ध प्रमुख समदृष्टी। चारितिया थी अनंतगुणां है, ज्ञानी ते गुण इष्टी ।। सोरठा ६४. अनंतगुणां रै न्याय, सिद्धां में चारित्र नथी। खायक भाव शोभाय, पिण पंच चारित्र पावै नहीं। ६५. *तेहथी अनंतगुणां कषायात्मा, सिद्ध थकी अति ज्यांही। धुर गुणठाणा थी दशमा तांइ, कषाय उदयवंत त्यांही ।। ९३. नाणायाओ अणंतगुणाओ। 'णाणायाओ अणंतगुणाओ' त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् । (वृ० ५० ५९१) १६. तेहथी विसेसाहिया जोगात्मा, अकषाई पिण एह । ग्यारम बारम तेरम गुण नां, जोगवंत छै जेह ।। ६७. तेहथी विशेषाधिक वीर्यात्मा, अजोगी वीर्यवंत । एह विशेष अधिक जिन आख्या, पंच अक्षर स्थिति संत ।। ९५. कसायायाओ अणंतगुणाओ। 'कसायाओ अणंतगुणाओ' त्ति सिद्धेभ्यः कषायो दयवतामनन्तगुणत्वात्। (वृ० ५० ५९१) ९६. जोगायाओ विसेसाहियाओ। 'जोगायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अपगतकषायोदय र्योगवदभिरधिका इत्यर्थः । (वृ० ५० ५९१) ९७. वीरियायाओ विसेसायिाओ। 'वीरियायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अयोगिभिरधिका इत्यर्थः, अयोगिनां वीर्यवत्त्वादिति । (वृ० ५० ५९१) ९८. उवओग-दविय-दसणायाओ तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। (श०१२।२०५) ते च वीर्यात्म भ्यः सिद्धराशिनाऽधिका भवन्तीति । (वृ० ५० ५९१,५९२) १८. द्रव्य उपयोग दर्शण तिहुं तुल्ला, तेहथी विशेषाधिक कहिये। सिद्ध राशि करि अधिक हुवै छ, ए सिद्ध विषे पिण लहिये ।। ६६. बारम शतक दशम - देश, बेसौ अडसठमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश'मंगलमाल।। *लय : रूढ चन्द निहाले रे श० १२, उ० १०, ढा० २६८ १०९ Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २६९ १. अथात्मन एव स्वरूपनिरूपणायाह-(वृ०प० ५९२) १. सरूप आत्मा नोंज हिव, कहं निरूपण अर्थ । गोतम प्रश्न तणो दिय, उत्तर वीर तदर्थ ।। आत्मा के साथ ज्ञान दर्शन का भेदाभेद *सुणज्यो आतम नो अधिकार, गोयम पूछयां कहै जगतार ।। [ध्रुपदं] २. आत्मा ही प्रभु ! ज्ञान प्रधानं, अथवा हवै अनेरो ज्ञानं ? जिन कहै आत्मा ज्ञान कदाचित, ते समदृष्टी छते सुवाचित ।। ३. कदाचित अज्ञान पिछाण, मिथ्याती रै मति प्रमुख अनाण। ज्ञान वली निश्चै करि जेह, आत्माहीज कहीजै तेह ।। ४. हे प्रभु ! आत्म नारक नै ज्ञान, के आत्म थकी अन्य ज्ञान पिछान ? जिन कहै नारक नै कदा आत्म ज्ञान, कदाचित अज्ञान पिछान ।। २. आया भंते ! नाणे? अण्णे नाणे ? गोयमा ! आया सिय नाणे आत्मा स्याज्ज्ञानं सम्यक्त्वे सति मत्यादिज्ञानस्वभावत्वात्तस्य । (वृ० ५० ५९२) ३. सिय अण्णाणे, नाणे पुण नियमं आया। (श० १२।२०६) स्यादज्ञानं मिथ्यात्वे सति तस्य मत्यज्ञानादिस्वभावत्वात्, ज्ञानं पुननियमादात्मा आत्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्य । (वृ० ५० ५९२) ४. आया भंते ! नेरइयाणं नाणे ? अण्णे नेरइयाणं नाणे? गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे, सिय अण्णाणे। ५. नाणे पुण से नियमं आया। आत्मा नारकाणां स्याज्ज्ञानं सम्यग्दर्शनभावात स्यादज्ञानं मिथ्यादर्शनभावात् । (वृ० ५० ५९२) ६. एवं जाव थणियकुमाराणं। (श० १२।२०७) आया भंते ! पुढविकाइयाणं अण्णाणे? अण्णे पूढविकाइयाणं अण्णाणे ? ७. गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं नियम अण्णाणे, अण्णाणे वि नियमं आया। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं । ५. समदृष्टी रै कहिये ज्ञान, मिथ्याती रै अज्ञान पिछान । ज्ञान वली नारक मैं जास, निश्चै आत्म कहीजै तास ।। ६. जावत थणियकुमार नै एम, भणवू नारक नैं कह्यं तेम। प्रभ ! पृथ्वी रै आतम अज्ञान, कै आत्म थी अन्य अज्ञान पिछान? ७. जिन कहै पृथ्वी ने निश्चै आत्म अज्ञान, ___ अज्ञान पिण नियमा आत्म सुजान । जावत वनस्पति ने एम, आख्यं पृथ्वी नैं कर्तुं तेम ।। ८. बे' ते जावत वैमानिक सार, नारक नैं कह्यं जिम अवधार । आत्म प्रभुजी! दर्शण पिछाण, आत्म थकी अन्य दर्शण जाण? है. जिन कहै आत्म निश्चै दर्शण ही, दर्शन पिण निश्चै आतम ही। आत्म नारक नै दर्शन भगवन! कै आत्म थी अन्य नारक नैं दर्शन ? ८. बेइंदिय-तेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं। (श० १२।२०८) आया भंते ! दंसणे ? अण्णे दंसणे ? ९. गोयमा ! आया नियम दसणे, दंसणे वि नियम आया। (श० १।२०९) आया भंते ! नेरइयाणं दंसणे ? अण्णे नेरइयाणं दंसणे? *लय : सोहि सयाणा अवसर साधे १. द्वीन्द्रिय २. श्रीन्द्रिय ११० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जिन भाखै नारक नैं जाण, आत्मा निश्चै दर्शन छाण। दर्शण शुद्ध अशुद्ध सरधेह, निश्चैइ आत्मा कहियै तेह ।। १० गोयमा ! आया नेरइयाणं नियमं दंसणे, दंसणे वि से नियमं आया। सम्यगदृष्टिमिथ्यादृष्ट्योर्दर्शनस्याविशिष्टत्वादात्मा दर्शनं दर्शनमप्यात्मैवेति वाच्यं । (वृ० ५० ५९२) ११. एवं जाव वेमाणियाणं निरंतर दंडओ। (श० १२।२१०) ११. इम जाव वैमानिक नैं अवधार, अंतर-रहित दंडक सुविचार । जीवात्मा नों कह्यो विस्तार, बुद्धिवंत लीज्यो न्याय विचार ।। पामै सोरठा १२. आत्मा तणो स्वरूप, आख्यो तिण अधिकार थी। रत्नप्रभादि सद्रूप, आत्मा-- छतापणो हिवै ।। १३. तेह-तेह पर्याय, जेह निरंतरे। आत्मा नाम कहाय, सद्रपा अस्तिपणो ।। रत्नप्रभा आदि पृथ्वी आत्मा या नोआत्मा ? १४. *रत्नप्रभा पृथ्वी भगवंत ! आत्म तथा तसु अन्य कहंत ? जिन कहै रत्नप्रभा ए किवार, कहियै आत्म तास सुविचार ।। १२. आत्माधिकाराद्र रत्नप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह - (वृ० ५० ५९५) १३. अतति-सततं गच्छति तांस्तान् पर्यायानित्यात्मा ततश्चात्मा -सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी।। (वृ० प० ५९५) १४. आया भंते ! रयणपभा पुढवी ? अण्णा रयणप्पभा पुढवी? १५. कदाचित नोआत्म कहाय, तास न्याय आगल छै ताय । अवक्तव्य किणवार कहाय, आत्म नोआत्म बिहं कहि सकै नाय।। गोयमा! रयणप्पभा पुढवी सिय आया। १५. सिय नोआया, सिय अवत्तव्यं ---आयाति य नोआयाति य। (श० १२२११) 'सिय अबत्तव्यं' ति आत्मत्वेनानात्मत्वेन च व्यपदेष्टु मशक्यं वस्त्विति भावः। (वृ० ५० ५९५) १६,१७. से केणठेणं भते ! एवं बुच्चइ-रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य? १६. किण अर्थे प्रभु ! एम कहाय, रत्नप्रभा पृथ्वी ए ताय । ___ कदाचित आतम अवलोय, कदाचित नोआत्म सुजोय? १७. कदाचित अवक्तव्य एह, आत्म नोआत्म कहि न सकेह। ए तीनूंइ प्रश्न नो न्याय, पूछयो गोतम गणधर ताय ।। १८. जिन कहै रत्नप्रभा छ ताय, स्वपर्याई आत्म कहाय । पोता नां वर्णादिक पर्याय, आत्म कहीजै तसू अपेक्षाय ।। १६. अन्य पृथ्वी नां वर्णादिक नांय, तेह अपेक्षा नोमात्म कहाय । बिहं नां वर्णादिक पर्याय, तास अपेक्षा अवक्तव्य ताय ।। २०. आत्म नोआत्म बिहं कहि सकै नांहि, तेह अवक्तव्य कहियै ताहि। रत्नप्रभा तिण अर्थ कहाय, आत्म नोआत्म अवक्तव्य ताय ।। १८. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया । 'अप्पणो आइठे' ति आत्मनः--स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायः 'आदिष्टे' आदेशे सति तैव्य॑पदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति, स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः (वृ०प०५९४) १९,२०. परस्स आदिठे नोआया, तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्वं -रयणप्पभा पुढवी आयाति य नोआयाति य। से तेणोणं गोयमा ! एवं बुच्चइ–रयणप्पभा पुढवी सिय आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं-- आयाति य नोआयाति य । (श० १२।२१२) 'परस्स आइट्ठे पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः,.... 'अवक्तव्यम्' अवाच्यं वस्तु स्यात, तथाहि-न ह्यसौ मात्मेति वक्तुं शक्या, परपर्यायापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्याः नाप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति । (वृ० ५० ५९५) २१. सक्करप्रभा प्रभु ! आत्म कहाय? रत्नप्रभा जिम कहिये ताय । जाव सप्तमी पृथ्वी एम, आत्म नोआत्म अवक्तव्य तेम ॥ २१. आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी ? जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभावि । एवं जाव अहेसत्तमा । (श० १२०२१३) *लय : सोहि सयाणा अवसर साधे श० १२, उ० १०, ढा० २६९ १११ Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. निज पर्याय सर्व रे मांय, ते माटै ते आत्म कहाय। पर पर्याय नहीं सहु मांहि, तिणसुं नोआत्म कहीजै ताहि ।। २३. बिहु पर्याय तणी अपेक्षाय, अवक्तव्य कहियै इण न्याय। आत्म पिण तसु कहि सकै नांय, नोआत्म पिण कहिय न जाय।। २४. तिणसू अवक्तव्य कहियै ताय, बिहं पर्याय तणी अपेक्षाय । प्रथम कल्प नीं पूछा कीध, श्री जिन उत्तर दियै प्रसीध ॥ सौधर्म आदि स्वर्ग आत्मा या नोआत्मा ? २५. सौधर्म कदा आत्म कहिवाय, कदा नोआत्म कहीजै ताय। कदा अवक्तव्य कहीजै जेह, आत्म नोआत्म बिहं कहि न सकेह ।। २४. आया भंते ! सोहम्मे कप्पे-पुच्छा । २६. किण अर्थे ? तब जिन कहै वाय, आतम निज पर्याय पेक्षाय। नोआतम पर पर्याय पेक्षाय, उभय अपेक्षा अवक्तव्य थाय ।। तिण अर्थे तीनू अवलोय, जाव अच्युतकल्प इम जोय ।। २५. गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य। (श०१२।२१४) २६. से केणट्टेणं भंते ! जाव आयाति य नोआयाति य? गोयमा ! अप्पणो आइठे आया, परस्स आइट्ठे नोआया, तदुभयस्स आइठे अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य । से तेणठेणं तं चेव जाव आयाति य नोआयाति य । एवं जाव अच्चुए कापे । (श० १२।२१५) २७,२८. माया भंते ! गेवेज्जविमाणे ? अण्णे गेवेज्ज विमाणे? एवं जहा रयणप्पभा तहेव । एवं अणुत्तरविमाणा वि । एवं ईसिपम्भारा वि। (श० १२।२१६) २७. प्रश्न ग्रैवेयक विमाण नों जान, स्वपर्याइं आत्म पिछान । पर पर्याय नहीं तिण मांहि, तिणसूनोआत्म कहीजै ताहि ।। २८. उभय पर्याय तणी पेक्षाय, अवक्तव्य बिहं कहि सके नाय। रत्नप्रभा जिम ए अवधार, एवं अनुत्तर ईसिप्पभार ।। २६. बारम शतक दशम - देश, बेसो गुणंतरमी ढाल विशेष । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश'आनंद हरष सवाय ।। ढाल: २७० दूहा १. हिव परमाणू आदि नों, गोयम प्रश्न करंत । उत्तर प्रभुजी वागरे, ते सुणज्यो धर खंत ।। परमाणु स्कन्ध आदि आत्मा या नोआत्मा? २. *आतम प्रभु ! परमाणु कहाय, अथवा अनेरो कहियै ताय? सौधर्मकल्प कह्यो ? जेम, परमाण पिण कहिवो तेम ।। ३. आतम प्रभ ! बे प्रदेशिक खंध, अथवा अन्य प्रदेशिक बंध ? भाखै षट भांगा जिनराय, आत्म कदाचित ए कहिवाय ।। २. आया भंते ! परमाणुपोग्गले ? अण्णे परमाणु - पोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियब्वे। (श० २।२१७) ३. आया भंते ! दुपएसिए खंधे ? अण्णे दुपएसिए खंधे? गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय आया । द्विप्रदेशिकसूत्रे षड्भंगाः। (वृ० प० ५९५) ४. सिय नोआया सिय अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य। तत्राद्यास्त्रयः सकलस्कन्धापेक्षाः पूर्वोक्ता एवं तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षाः। (वृ० प० ५९५) ४. कदाचित नोआत्म कहाय, अवक्तव्य कदाचित थाय । सकल खंध पेक्षा भंग तीन, देश अपेक्षा हिव त्रिहं चीन ।। *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी ११२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. कदा आत्म नोआत्म किवार, ए चोथो भांगो अवधार। कदा आत्म अवक्तव्य जेह, आत्म नोआत्म बिहं कहि न सकेह ॥ ६. कदा नोआत्म अवक्तव्य जेह, आत्म नोआत्म बिहुँ कहि न सकेह। किण अर्थे प्रभु ! ए षट भंग, हिव जिन न्याय कहै तसु चंग ॥ सकल खंध आश्री प्रथम तीन भांगा ७. आत्म पोता नी पर्याय पेक्षाय, पर अपेक्षाय नोआत्म कहाय । निज पर बिहुं नों पर्याय पेक्षाय, अवक्तव्य बिहं कहि सके नांय ॥ ५. सिय आया य नोआया य, सिय आया य अवत्तव्वं आयाति य नोआयाति य । ६. सिय नोआया य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य। (श० १२।२१८) से केणठेणं भंते ! एवं तं चेव जाव नोआया य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य? ७. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया परस्स आदिट्टे नोआया, तदुभपस्स आदिठे अवत्तव्वं दुपएसिए खंधे-आयाति य नोआयाति य । ९,१०. देसे आदिठे सब्भावपज्जवे देसे आदिळे असब्भावपज्जवे दुप्पएसिए खंधे आया य नोआया य । ८. कह्या सकल खंध आश्री भंग तीन, देश आश्री हिवै तीन सुचीन। ___ आत्म नोआत्म बिहं कहिवाय, भंग चोथा नो हिव कहं न्याय ॥ ६. एक देश नां निज पर्यव पेक्षाय, ते देश ने आत्म कहीजै न्याय। दूजा देश नां पर पर्यव पेक्षाय, ते देश भणी नोआत्म कहाय ।। १०. दोय प्रदेशिक खंध नै उमंग, आत्म नोआत्म ए चोथो भंग। आत्म अवक्तव्य पंचम भंग, तास न्याय सुणियै चित चंग। ११. एक देश आश्री निज पर्यव पेक्षाय, ते देश ने आत्म कहीजे ताय। दूजा देश आश्री बिहं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य बिहुँ कहि सकै नांय॥ १२. दोय प्रदेशिया खंध में चंग, आत्म अवक्तव्य पंचम भंग। नोआत्म अवक्तव्य षष्ठम भंग, तास न्याय सुणिय चित चंग ॥ १३. एक देश आश्री पर पर्यव पेक्षाय, ते देश नोआत्म कहीजै न्याय। दूजा देश आश्री बिहुं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य बिहुँ कहि सकै नाय।। १४. दोय प्रदेशिया खंध रै मांय, ए छट्ठो भांगो इम पाय । तिण अर्थ आख्यो म्हैं एम, दोय प्रदेशिक षट भंग तेम ।। ११,१२. देसे आदिठे सम्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभय पज्जवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य। वा०-द्विप्रदेशिक खंध पोता नी पर्याय करिकै आदिष्ट-अंगीकार कीधे छते आत्मा हुवै १ । इम पर पर्याय करिक अंगीकार कीधे छते नोआत्मा कहियै २ । आत्म-पर बिहुँ पर्याय अंगीकार किये छते ए द्विप्रदेशिक खंध अवक्तव्य वस्तु हुवै, ते किम ? निकेवल-आत्मा निकेवल अनात्मा ए बिहुं कहि न सके ३ । एतो सकल खंध आश्री तीन भांगा कह्या । हिवै देश आश्री तीन भांगा कहै छ-द्विप्रदेशिक खंध नै प्रथम एक देश ने सद्भाव पर्यव-स्व पर्याय आश्रयी आत्मा कहिये । अनै बीजा देश नै असद्भाव पज्जव ते प्रथम देश नां पर्यव नी अपेक्षाय अथवा अन्य वस्तु नां पर्यव नी अपेक्षाय इम पर पर्याय अपेक्षाये करी नोआत्मा कहियै । इम आत्मा नोआत्मा बिहुं कहिये, ए चोथो भांगो ४। तथा ते द्विप्रदेशिक ने प्रथम एक देश नै स्व पर्याय नी अपेक्षाय करी आत्मा कहिय अन बीजा एक देश नै स्व पर्याय अने पर पर्याय ए बिहुं पर्याय नी अपेक्षाये करी अवक्तव्य कहिये । इम आत्मा अनै अवक्तव्य ए पांचमो भांगो हुवै ५। तथा द्विप्रदेशिक नां प्रथम एक देश नैं पर पर्याय नी अपेक्षाय करिके नोआत्मा कहिय अन बीजा एक देश नै स्व-पर ए बिहुं नां पर्यव नी अपेक्षाय करिकै अवक्तव्य कहिये । इम नोआत्मा अनं अवक्तव्य ए छठो भांगो हुवै ६।। आत्मा अनं नोआत्मा अनं अवक्तव्य एह सातमों भांगो न हुवै, द्विप्रदेशिक *लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी १३,१४. देसे आदिठे असब्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नो आया य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य । से तेणट्टेणं तं चेव जाव नोआया य अवत्तव्यं आयाति य नोआयाति य । (श० १२२२१९) वा०—'अप्पणो' त्ति स्वस्य पर्यायः 'आदिद्रुत्ति आदिष्टे ---आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः द्विप्रदेशिकस्कन्ध आत्मा भवति, एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोऽ नात्मा तदुभयस्य-द्विप्रदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात, कथम् ? आत्मेति चानात्मेति चेति । तथा द्विप्रदेशत्वात्तस्य देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः-सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स सद्भावपर्यवः .."द्वितीयस्तु देश आदिष्ट: असद्भावपर्यव: परपर्यायरित्यर्थः, परपर्यवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो वेति । ततश्चासौ द्विप्रदेशिक: स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति नोआत्मा चेति, तथा तस्य देश आदिष्ट : सद्भावपर्यवी देशश्चोभयपर्यवस्ततोऽसावात्मा चावक्तव्यं चेति । तथा तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ नोआत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति । सप्तमः पुनरात्मा च नोआत्मा चावक्तव्यं चे-येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके द्वय शत्वादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभंगी। (वृ० ५० ५९५) श० १२, उ० १०, ढा० २७० ११३ Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नां दोय अंश ते माटे । अने त्रिप्रदेशिकादिक नैं विषे ए भांगो हुवे इम सप्तभंगी । द्विदेशी खंध नां ६ भांगा नीं स्थापना आत्मा १ आत्मा नोआत्मा १ अवक्तव्य १ नोआत्मा अवक्तव्य १ ए छह भांगा हुवै, पिण सातमों भांगो आत्मा च नोआत्मा च अवक्तव्य च इम न हुवै, द्विप्रदेशिक नां दोय अंश ते भणी । त्रिप्रदेशिकादिक नैं विषे तो हुवे इम सप्तभंगी । नोआत्मा १ १५. तीन प्रदेशिया खंध नीं जाण, हिव पूछा उत्तर पहिछाण | तीन प्रदेशिक वध भगवान ! आत्म तथा तेहथी अन्य जान || आत्मा अवक्तव्य १ तीन प्रदेशी खंध आश्री १३ भांगा । तिणमें सकल बंध आश्री ३ भांगा तथा बाकी रा द्विकसंजोगिक रा ९ भांगा में देश आश्री ३ भांगा आत्म नोआत्म संघाते जाणवा १६. उत्तर देव श्री जिन हेर, तेहना भांगा कहिये तेर । तोन प्रदेशिक आत्म किवार, कदाचित नोआत्म विचार || १७. कदाचित अवक्तव्य एह, आत्म नोआत्म बिहुं कहि न सकेह । कदाचित आत्मा नोआत्म काय, तुर्य भंग इक वच विहं पाय॥ १८. कदा आत्म इक वच कहिवाय, बहु वचने नोआत्मज पाय । कदाचित आत्म बहु वचनेह, इक वचने नोआत्म कहेह || सातम आठमों नवमों ए तीन भांगा आत्म अवक्तव्य संघाते जाणवा १६. सप्तम भंग कदाचित तेह, इक वचने करि आत्म कह । अवक्तव्य पिण इक वचनेह, आरम नोआत्म कहि न सकेह || २० अष्टम भंग कदाचित ताय, इक वचने करि आत्म कहाय । अवक्तव्य वह वचने तेह, आरम नोआरम कहि न सकेह || २१. नवमे भंग कदाचित धार बहु वचने करि आत्म विचार । अवक्तव्य इक वचने एह आत्म नोआत्म कहि न सकेह || दशमी इग्यारमों बारमों ए तीन भांगा नोआत्म अवक्तव्य संघाते जाणवा२२. दशमों भंग कदाचित तास, इक वचने नोआत्म विमास । अवक्तव्य पिण इक वच एह, आत्म नोआत्म कहि न सकेह ॥ २३. एकादश भंग किवार, इक वचने नोआत्म विचार। अवक्तव्य यह वचने जेह, आत्म नोआत्म कहि न सके। बहु २४. वारम भंग कदाचित सोय, यह वचने नोआत्मज होय । अवक्तव्य इक वचन कहाय, आत्म नोआत्म विहुं कहि सकै नाय ॥ ११४ भगवती जोड़ त्रिसंयोगिक एक तेरमों भांगो आत्म नोआत्म अवक्तव्य संघाते जाणवो२५. तेरमें भंग कदाचित कहाय, एक वचन करि त्रिपद थाय । आरम जने नोजारग कहेह, अवक्तव्य बिहुं कहि न सकेह ॥ १५. आवा से पिएसिए बंचे ? अगे तिपए लिए बंधे ? १६. गोयमा ! तिपए सिए खंधे, सिय आया सिय नोआया त्रिप्रदेशिक स्कन्धे तु त्रयोदश भंगाः । ( वृ० प० ५९५ ) १७. सिय अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य, सिय आया य नोआया य । १८. सिय आया य नोआयाओ य, सिय आयाओ य नोआया य । १९. सिय आयो य अवत्तव्यं - आयाति य नोआयाति य । २०. सिय आया य अवत्तव्वाई- आयाओ य नोआयाओ य । २१. सिय आयाओ य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । २२. सिय नोआया य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । २३. सिय नोआया य अवत्तव्वाइं आयाओ य नोआयाओ य । २४. सिय नोआयाओ य अवत्तव्वं आयाति य नोआयाति य । २५. सिय आया य नोआया य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । ( श० १२/२२० ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकल खंध आश्री ३ भांगा नों न्याय-- २६. किण अर्थ प्रभ! इम आख्यात, त्रिप्रदेशिक खंध कदा आत्म थात। इमज उच्चरिवू जावत जाण, तेरम भंग लग पहिछाण? २६. से केणटुंणं भंते ! एवं वुच्चइ-तिपएसिए खंधे सिय आया-एवं चेव उच्चारेयव्वं जाव सिय आया य नोआया य अवत्तव्बं - आयाति य नोआयाति य? २७. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया।' २८. परस्स आदि→ नो आया, तदुभयस्स आदिठे अवतव्वं-आयाति य नोआयाति य २७. श्री जिन भाखै गोतम ! जेह, तीन प्रदेशिक खंध छ तेह । सकल खंध निज पर्यव पेक्षाय, आत्म तास कहिये इण न्याय ।। २८. पर वस्तु नां पर्यव पेक्षाय, तास नोआत्म कहीजै ताय। निज पर पर्यव तणी अपेक्षाय, अवक्तव्य बिहं कहि सकै नांय ।। बाकी रा भांगा तेहना देश आश्री छ। तिणमें चोथो, पांचमों, छठो ए तीन भांगा आत्म नोआत्म संघाते, तेहनों न्याय२६. इक वच आत्म नोआत्म कहाय, तुर्य भांगा नो निसुणो न्याय। इक देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, इक वचने आत्म कहीजै ताय ।। ३०. दूजा देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, इक वचने नोआत्म कहाय । तीन प्रदेशिक खंध इण न्याय, इक वच आत्म नोआत्म कहाय ।। सोरठा ३१. एक आकाश प्रदेश, दोय प्रदेश रह्या छता। तसु इक वचन कहेस, जुदा रह्या बहु वचन है। २९,३०. देसे आदिठे सम्भावपज्जवे, देसे आदिठे असब्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नोआया य । ३१. यच्चेह प्रदेशद्वयेऽप्येकवचनं क्वचित्तत्तस्य प्रदेशद्वय स्यैकप्रदेशावगाढत्वादिहेतुनकत्वविवक्षणात्, भेदविव क्षायां च बहुवचनमिति। (व०प० ५९५) ३२,३३. देसे आदिठे सब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा असब्भावपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य नोआयाओ य। ३४,३५. देसा आदिट्ठा सब्भावपज्जवा देसे आदिठे असम्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नोआया य। ३२. *इक देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, इक वच आत्म कहीजै ताय । बहु देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, बहु वचने नोआत्म कहाय ।। ३३. आत्म शब्द इक वचने जाण, बहु वचने नोआत्म पिछाण । तीन प्रदेशिया खंध रै मांय, पंचम भंग कह्यो इण न्याय ।। ३४. बहु देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, बहु वचने करि आत्म कहाय। इक देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, इक वचने नोआत्म कहाय ।। ३५. आत्म शब्द बहु वचने जाण, इक वचने नोआत्म पिछाण । तीन प्रदेशिया खंध रैमांय, षष्टम भंग कह्यो इण न्याय ।। आत्म अवक्तव्य संघाते तीन भांगा नों न्याय३६. एक देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, इक वचने तसु आत्म कहाय । दूज। देश भणी बिहुं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य बिहं कहि सकै नाय ।। ३७. आत्म एक वचने करि एह, अवक्तव्य पिण इक वचनेह । तीन प्रदेशिया खंध रे मांय, सप्तम भंग कह्यो इण न्याय ।। ३८. एक देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, इक वचने करि आत्म कहाय । बहु देश भणी बिहुं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य बिहं कहि सकै नांय ।। ३६. आत्म इक वचने करि जोय, अवक्तव्य बहु वचने होय । तीन प्रदेशिया खंध रै माय, अष्टम भंग कह्यो इण न्याय ।। ४०. बह देश भणी निज पर्यव पेक्षाय, बहु वचने करि आत्म कहाय । इक देश भणी बिहं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य इक वचने पाय ।। ४१. आत्म बहु वचने करि जेह, अवक्तव्य इक वचने एह । तीन प्रदेशिया खंध रै मांय, नवमो भंग कह्यो इण न्याय ।। लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी ३६,३७. देसे आदिठे सब्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभय पज्जवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्य-आयाति य नोआयाति य। ३८,३९. देसे आदिलै सम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य अवत्तब्वाई---- आयाओ य नोआयाओ य । ४०,४१. देसा आदिट्ठा सब्भावपज्जवा देसे आदिठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य अवत्तव्वं--- आयाति य नोआयाति य । ण०१२, उ०१०, ढा० २७० ११५ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. सप्तम अष्टम नवमों भंग, कह्या आत्म अवक्तव्य साथ सुचंग | वि नोआत्म अवक्तव्य साथ, भांगा तीन तभी कहूं वात ।। ४३. इक देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, इक वचने नोआरम कहाय । दुजा देश भणी बिहुँ पर्यव पेक्षाय अवक्तव्य इक वचने थाय ॥ ४४. इक वचने नोआत्म पिछाण, अवक्तव्य पिण इक वच जाण । तीन प्रदेशिक बंध रे मांय, दशम भंग नों आस्यो न्याय ॥ ४५. इक देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, तास नोआत्म कही न्याय । बहु देश भणो बिहुं पर्यव पेक्षाय, अवक्तव्य बहु वचने पाय || ४६. इक वचने नोआत्म अवेख, अवक्तव्य बहु वचने पेख । तीन प्रदेशिया खंध ₹ मांय, एकादशम भंग नों न्याय ॥ ४७. वह देश भणी पर पर्यव पेक्षाय बहु वचने नोआरम कहाय । बहु इक देश भणी विपर्यय पेक्षाय अवक्तव्य इक बच कहिवाय ॥ ४८. बहु वचने नोआत्म विचार, अवक्तव्य इक वचने उचार | भंग द्वादशम तणुं ए न्याय || त्रिक संयोगिक १ तेरम भांगा 3 तीन प्रदेशिक बंध रे मांय आत्म- नोआत्म- अवक्तव्य संघाते नों न्याय ४९. इक देण भणी निज पर्यव पेक्षाय तास आत्म कहीजे इण न्याय । दुजा देश भणी पर पर्यव पेक्षाय, तास नोआरम कहीजे न्याय | ५०. तोजा देश भणी अवक्तव्य काय, निज पर पर्यव तणी अपेक्षाय । आत्म नोआत्म अवक्तव्य एह ५१. ति अर्थ आख्यो इम हेर, बारम शतक दशम नुं देश, त्रिदेशिया खंध नां १३ भांगा नीं स्थापना - आ० १ आ० १ १ २ आ० १ १ २ नो० १ ११६ भगवती जोड़ अव ० १ नो० १ २ १ हिं इक वच भंग तेरसमेह ॥ तीन प्रदेशिक खंध भंग तेर । आगल बात सुणो वलि शेष ॥ अव० १ २ नो० १ १ २ भा० १ अव० १ २ १ ५२. दोसौ नं मितरमी ढाल भिक्षु भारीमाल ऋषिराय विशाल । संवत उगणीस बावीस, 'जय जय' संपति हरष जगीस || नो अव १ १ ४३,४४. देसे आदिट्ठे असम्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए बंधे नोखापा व बबआयाति य नोआयाति य । ४५,४६. देसे आदिट्ठे असम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए बंधे नोआया य अवत्तव्वाई - आयाओ य नोआयाओ य । ४७,४८. देसा आदिट्ठा असम्भावपज्जवा देसे आदिट्ठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए बंधे नोआयाओ य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । ४९, ५०. देसे आदिट्ठे सम्भावपज्जवे देसे आदिट्ठे अस भावपज्जवे देसे आदिट्ठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नोआया व अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य । ५१. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बच्चइतिपएसिए बंधे सिय आया तं चैव जाव नो नोआयाति य । ( श० १२/२२१) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २७१ दूहा १. आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे ? अण्णे च उप्पएसिए खंधे? २. चतुष्प्रदेशिकेऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिभंगाः । (वृ०प० ५९५) ३. गोयमा ! चउप्पएसिए खंधे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्तव्वं -आयाति य नोआयाति य । ४,५. सिय आया य नोआया य । १. च्यार प्रदेशिक खंध प्रभु ! स्यूं आतम कहिवाय । के आतम थी अन्य है ? उत्तर दे जिनराय ।। २. च्यार प्रदेशिक खंध नां, भांगा एगुणवीस । आखै श्री जिन जूजुआ, सांभलज्यो सुजगीस ।। _ *रे गोतम सांभलजे भंग-जाल (ध्रुपदं) ३. च्यार प्रदेशिक खंध कदाचित, आत्म कहीजै ताय । कदाचित नोआत्म कहीज, कदा अवक्तव्य पाय ।। ए तीन भांगा सकल खंध आश्री कह्या । बाकी रा द्विकसंयोगिक १२ भांगा देश आश्रयी । तिण में चोथो, पांचमों, कठो, सातमों ए च्यार भांगा आत्म नोआत्म संघाते जोड़े छ-- ४. इक वच आत्म नोआत्म कदाचित, तुर्य भंग छै एह । कदाचि आत्म एक वचने करि, नोआत्म बह वचनेह ।। ५. कदाच आत्म बह वचने करि, नोआत्म एक बचनेह । कदाच आत्म बहु वचने करि, नोआत्म बहु वच जेह ।। आत्म-अवक्तव्य संघाते च्यार भांगा - ६. कदाचि आत्म इक वचने करि, अवक्तव्य इक वच जोय । कदाचि आत्म इक वचने करि, अवक्तव्य बहु वच होय ।। ७. कदाचि आत्म बहु वचने करि, अवक्तव्य इक वच जाण । कदाचि आत्म बहु वचने करि, अवक्तव्य बहु वच आण ।। नोआत्म-अवक्तव्य संघाते च्यार भांगा८. कदा नोआत्म इक वचने करि, अवक्तव्य इक वच पेख । कदा नोआत्म इक वचने करि, अवक्तव्य बहु वच देख ।। ६. कदा नोआत्म बह वचने करि, अवक्तव्य इक बच थाय। कदा नोआत्म बहु वचने करि, अवक्तव्य बहु वच पाय ।। आत्म-नोआत्म-अवक्तव्य संघाते त्रिकसंयोगिक च्यार भांगा--- १०. कदा आत्म नोआत्म अवक्तव्य, ए त्रिहुं इक वचनेह । कदा आत्म नोआत्म वचन इक, अवक्तव्य बहु वच जेह ।। ६,७. सिय आया य अवत्तव्यं । ८,९. सिय नोआया य अवत्तव्वं । १०. सिय आया य नोआया य अवत्तव्वं-आयाति य नो आयाति य, सिय आया य नोआया य अवत्तब्वाई आयाओ य नोआयाओ य । ११. सिय आया य नोआयाओ य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य । १२. सिय आयाओ य नोआया य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य। (श० १२।२२२) ११. कदाचि आत्म इक वचने करि नोआत्म बहुवचनेह । अवक्तव्य इक वचने कहिये, भंग अठारमों एह ।। १२. कदाचि आत्म बहु वचने करि, नोआत्म एक वचनेह । अवक्तव्य पिण इक वचने करि, उगणीसम भंग लेह ॥ सकल खंध आश्री ३ भांगा नों न्याय१३. किण अर्थे करि एम कह्यो प्रभु ! च्यार प्रदेशिक खंध । उगणीस भांगा जूजुआ आख्या? हिव जिन भाखै प्रबन्ध ।। *लय : आधाकर्मी थानक १३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-चउप्पएसिए खंधे सिय आया य नोआया य अवत्तब्वं-तं चेव अठे पडिउच्चारेयव्वं? श० १२, उ० १०, ढा० २७१ ११७ Jain Education Intemational ation Intermational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४,१५. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया, परस्स आदिठे नोआया तदुभयस्स आदिठे अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य । १६-२३. देसे आदिठे सब्भावपज्जवे देसे आदिठे असब्भावपज्जवे च उभंगा। १४. सकल खंध भणी आत्म कहीजै, निज पर्यव पेक्षाय । पर पर्यव अपेक्षाय ते खंध नै, नोआत्म कहिये ताय ।। १५. अवक्तव्य कहिये ते खंध नै, निज पर पर्यव पेक्षाय । आत्म नोआत्म बिहुं कहि न सकिय, खंध आश्री भांगा त्रिहं पाय ।। देश आधी द्विकसंयोगिक १२ भांगा छ। तिणमें आत्म-नोआत्म आश्री च्यार भांगा नों न्याय१६. इक वचने करि आत्म नोआत्महि, तूर्य भंग नो न्याय । ___एक देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव पेक्षाय ।। १७. दूजा देश नै नोआत्म कहीजै, पर पर्यव पेक्षाय । प्रदेश तथा पर वस्तु अपेक्षा, इक-इक प्रदेश मांय ।। १८. इक वच आत्म नोआत्म बहु वच, पंचम भांगा मांय । च्यार प्रदेशिया खंध विषे ए, कहिये हिव तसू न्याय॥ १६. एक देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । घणां देश में नोआत्म कहीजै, पर पर्यव अपेक्षाय ॥ २०. आत्म बह वच नोआत्म इक वच, षष्टम भंग कहाय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे ए, आखं तेहनों न्याय ।। २१. घणां देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । दूजो देश इक कहियै नोआत्महि, पर पर्यव अपेक्षाय ।। २२. आत्म नोआत्म बिहुँ बहु वचने, रह्या च्यार प्रदेश रै माय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे कहूं, सप्तम भंग रो न्याय ॥ २३. घणां देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । अन्य देश बह कहिये नोआत्म, पर पर्यव पेक्षाय ॥ आत्म अवक्तव्य संघाते च्यार भांगा नों न्याय२४. आत्म अवक्तव्य बिहुं इक वचने, रह्या इक-इक प्रदेश मांय । च्यार प्रदेशिया खंध विषे कहूं, अष्टम भंग नों न्याय ।। २५. एक देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । दूजा देश ने अवक्तव्य कहीजै, निज पर पर्यव पेक्षाय ।। २६. इक वच आत्म अवक्तव्य बहु वच, नवम भंग कहिवाय । च्यार प्रदेशिया खंध विषे हिव, कहीजै तेहनों न्याय ।। २७. एक देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव रै न्याय । दूजा देश बहु कह्या अवक्तव्य, निज पर पर्यव पेक्षाय ।। २८. बहु वच आत्म अवक्तव्य इक वच, दशम भंग कहिवाय । ___ च्यार प्रदेशिया खंध विषे हिव, कहिये तेहनों न्याय ॥ २६. घणां देश नैं आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । दुजो देश इक कहियै अवक्तव्य, निज पर पर्यव पेक्षाय ।। ३०. आत्म अवक्तव्य बिहुँ बहु वचने, एकादशम कहाय । च्यार आकाश प्रदेश विषे ए, रह्या तास कहं न्याय ।। ३१. घणां देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांय । दूजा देश बहु कहिये अवक्तव्य, निज पर पर्यव पेक्षाय ।। नोआत्म अवक्तव्य संघाते च्यार भांगा नों न्याय३२. कदा नोआत्म अवक्तव्य इक वच, रह्या इक प्रदेश मांय । ए बारमा भंग तणो हिव, कहियै आगल न्याय ।। ११८ भगवती जोड़ २४-३१. सब्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो।। ३२-३९. असम्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो। Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०-४२. देसे आदिट्टे सब्भावपज्जवे देसे आदिठे असब्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खधे आया य नोआया य अवत्तव्वं-- आयाति य नोआयाति य । ३३. एक देश में नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आश्री ताय । दूजा देश नै अवक्तव्य कहीज, निज पर पर्यव पेक्षाय ।। ३४. कदा नोआत्म इक वचने करी, अवक्तव्य बहु वच पाय । एक देश नै नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आश्री ताय । ३५. घणां देश में अवक्तव्य कहियै, उभय पर्यव अपेक्षाय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे का, तेरम भंग नो न्याय ।। ३६. कदा नोआत्म बहु वचने करि, अवक्तव्य इक वच पाय । घणां देश नै नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आथी ताय ।। ३७. एक देश नै अवक्तव्य कहीजै, स्व पर पर्यव पेक्षाय । च्यार प्रदेशिया खंध विषे का, चवदम भंग नो न्याय ।। ३८. कदा नोआत्म अवक्तव्य दोन, बह वचने कहिवाय । रह्या ए च्यार आकाश-प्रदेशिक, कहिये तेहनों न्याय ।। ३६. घणां देश में नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आश्री ताय । घणां देश नै अवक्तव्य कहीजै, उभय पर्यव अपेक्षाय ।। आत्म नोआत्म अवक्तव्य संघाते त्रिक संयोगिक च्यार भांगा नों न्याय४०. कदा आत्म नोआत्म अवक्तव्य, त्रिहं इक बचन विशेष । च्यार प्रदेशिक खंध अछ ते, रह्यो तीन आकाश प्रदेश ।। ४१. एक देश में आत्म कहीजै, निज पर्यव ते मांहि । दुजा देश में नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आयो ताहि ।। ४२. तोजा देश ने अवक्तव्य कहीजै, उभय पर्यव अपेक्षाय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे का, सोलम भंग रो न्याय ॥ ४३. आत्म नोआत्म बिहु इक वचने, अवक्तव्य बहु वच ताय । च्यार आकाश प्रदेश र ह्या इम, निसुणो तेहनों न्याय ।। ४४. देश एक नैं आत्म कहीजै, स्व पर्यव आश्री ताय । दूजा देश नै नोआत्म कहीज, पर पर्यव अपेक्षाय ।। ४५. बाकी घणां देश ने अवक्तव्य कहीजै, उभय पर्यव अपेक्षाय । च्यार प्रदेशिया खंध विषे ए, सतरम भंग नों न्याय ।। ४६. कदा इक वच आत्म नोआत्मबह वच, अवक्तव्य इक वच ताय। च्यार आकाश प्रदेश विषे ए, कहिये तेहनों न्याय ।। ४७. एक देश नैं आत्म कहीज, निज पर्यव अपेक्षाय । घणां देश नैं नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आश्री ताय॥ ४८. एक देश में अवक्तव्य कहियै, उभय पर्यव अपेक्षाय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे का, अठारम भंग नों न्याय ।। ४६. कदा आत्म बहु वच नोआत्म इक वच, अवक्तव्य वच एक । च्यार आकाश प्रदेश विष रह्या, कहिये न्याय विशेष । ५०. घणां देश नै आत्म कहीजै, स्व पर्याय अपेक्षाय । दूजा देश नै नोआत्म कहीजै, पर पर्यव आधी ताय ॥ ५१. तीजा देश नै अवक्तव्य कहिय, उभय पर्यव अपेक्षाय । च्यार प्रदेशिक खंध विषे, उगणीसम भंग न न्याय।। ५२. तिण अर्थे करिनै इम आख्यो, च्यार प्रदेशिक खंध । कदा आत्म कदा नोआत्म कहिये, कदा अवक्तव्य संध ।। ४३-४५. देसे आदि8 सब्भावपज्जवे देसे आदिठे असब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभपज्जबा चउपएसिए खंधे आया य नोआया य अवत्तब्वाईआयाओ य नोआयाओ य। ४६-४८. देसे आदिठे सम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा असब्भावपज्जवा देसे आदि8 तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नोआयाओ य अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य । ४९-५१. देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवा देगे आदिटठे असब्भावपज्जवे देसे आदिठे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे भायाओ य नोआया य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य । ५२,५३. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-चउप्पएसिए खंधे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्तव्वं श० १२, उ० १०, ढा० २७१ ११९ Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. सर्व भांगा वली जू जुआ भणवा, कहिये तेह निक्खेव। एहीज भांगा उच्चारवा जावत, नोआत्म उगणीसमु कहेव ।। चउप्रदेशी खंध ना १९ भांगा नी स्थापना निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयव्वा जाब आयाति य नोआयाति य। (श० १२।२२३) आ० नो० अव० त्रिक संजोगिया भांगा ४ आ० ना० अव० orrorr orror पंच प्रदेशी खंध भाश्री २२ भांगा। तिण में सकल खंध आश्री ३ भांगा तथा द्विकसंजोगिक नां १२ भांगा जाणवा५४. पंच प्रदेशिक खंध आत्म प्रभु ! के आत्म थी अन्य कहाय ? जिन कहै आत्म कदा नोआत्महि, कदा अवक्तव्य पाय ॥ ५४. आया भंते ! पंचपएसिए खंधे ? अण्णे पंचपएसिए खंधे ? गोयमा! पंचपएसिए खंधे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति य । ५५,५६. सिय आया य नोआया य। ५७. सिय आया य अवत्तव्वं । ५८. नोआया य अवत्तव्वेण य । ५५. कदा आत्म नोआत्म एक वच, ए चोथो भांगो जाण । कदा आत्म एक वच नोआत्म बहु वच, पंचम भंग पिछाण ।। हकदा आत्म बह वच नोआत्म इक वच, छठो भांगो एह। कदा आत्म नोआत्म बिहु बहु वचने, सप्तम भंग कहेह॥ ७. आत्म नोआत्म संघाते आख्या, भांगा च्यार सूरीत। तिमहिज आतम अवक्तव्य साथे, भांगा च्यार संगीत ।। ५८. इमज नोआत्म अवक्तव्य साथे, भांगा च्यार सवट। पनर भांगा इह विध आख्या, हिवै त्रिकसंयोगिक अट्र ।। विकर्मयोगिक अष्ट भांगा हुवै। तिहां पंचप्रदेशिक खंध में भांगा सातईज पडिया अने आठमों भांगो घणां देश आत्म, घणां देश नोआत्म, घणां देश अवक्तव्य-- एन हुवे ते माटे सप्त भांगा जाणवाहकदा आत्म नोआत्म अवक्तव्य इक वच, सोलमो भांगो एह। कदा आत्म नोआत्म बिहुँ इक वचने, अवक्तव्य बहुवचनेह ।। ६०. कदा आत्म एक वच नोआत्म बहु वच, अवक्तव्य वच एक । कदा आत्म एक वच नोआत्म बहुवच, अवक्तव्य बहु वच पेख ।। ५९. सिय आया य नोआया य अवत्तव्वं, सिय माया य नोआया य अवत्तव्वाई। ६०. सिय आया य नोआयाओ य अवत्तव्वं, सिय माया प नोआयाओ य अवत्तव्वाई। १२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. कदा आत्म बहु वच नोआत्म इक वच, अवक्तव्य वच एक। कदा आत्म बहु वच नोआत्म इक वच, अवक्तव्य बहु वचदेख ।। ६२. कदा आत्म नोआत्म दोनूंइ, बहु वचने करि जाण । अवक्तव्य इक वचने कहिये, ए भंग बावीसमों माण ।। ६३. त्रिकसंयोगिक सप्त भांगा ए, हुवै पंचप्रदेशिक मांय । पिण आत्म नोआत्म अवक्तव्य बहु वच, ए अष्टम भंग न पाय। ६१. सिय आयाओ य नोआया य अवत्तव्वं, सिय आयाओ यनोआया य अवत्तव्वाई। ६२. सिय आयाओ य नोआयाओ य अवत्तव्वं । (श० १२।२२४) ६३. तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भंगका भवन्ति, तेषु च सप्तवेह ग्राह्या एकस्तु तेषु न पतत्यसम्भवात् । (वृ० ५० ५९६) ६४. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पंचपएसिए खंधे सिय आया जाव सिय आयाओ य नोआयाओ य अवत्तव्वं? ६४. किण अर्थे प्रभु ! पंच प्रदेशिक, दोय बीस भंग दाख्या। श्री जिन भाखै सकल खंध आश्री, आदि भंग त्रिहुं आख्या ।। ६५. गोयमा ! अप्पणो आदिठे आया परस्स आदिठे नोआया तदुभयन्स आदिठे अवत्तव्वं । ६६. देसे आदिङे सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असम्भाव पज्जवे। आदि नां ३ भांगा नो न्याय६५. पंचप्रदेशिक आत्म कहीज, निज पर्यव आश्री ताय ।। पर पर्यव आश्री नोआत्म कहीजै, अवक्तव्य बिहुं अपेक्षाय ।। द्विकसंयोगिया १२ भांगा नों न्याय-- ६६. एक देश नै आत्म कहीजै, स्व पर्यव आश्री ताय। दूजो देश इक कहियै नोआत्महि, पर पर्यव अपेक्षाय ॥ [रे गोतम ! इक वच बिहुं तुर्य भंग] । ६७. इम द्विकसंयोगिक भांगा बारै, सर्व पड़े छ सोय । विकसंयोगिक सप्त भंग है, अष्टम भंग न होय ।। ६८. आत्म नोआत्म अवक्तव्य तीन, बहु वच अष्टम भंग। पंच प्रदेशिक खंध में नहीं है, पेखो न्याय सुचंग ।। ६६, षट प्रदेशिक में सह पाव, असंयोगिक त्रिहुं दृष्ट । द्विकसंयोगिक द्वादश भांगा, त्रिकसंयोगिक अष्ट ।। पंच प्रदेशी खंध नां २२ भांगा नी स्थापना ६७. एवं दुयगसंजोगे सव्वे पडंति, तियसंजोगे एक्को न पडइ । ६९. छप्पएसिए सव्वे पडंति । षटप्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति । (वृ.५०५९६) | आ० । नो० । अव० त्रिकसंजोगिया भांगा ७ आ० नो० | आ० अव० आ० नोआ० مه له له Marroror Corrrrrror ७०. जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए। (श० १२।२२५) ७०. षटप्रदेशिक में जिम आख्या, भंग तेवीस जगीस। जाव अनंतप्रदेशिक में इम, भणवा भंग तेवीस ।। वा०-षट प्रदेशिक खंध नां २३ भांगा हुवे । आदि नां ३ सकल खंध आश्री, द्विक संयोगी १२, त्रिक संयोगी ८, एवं २३ । इम आगे सात, आठ, नव, दश, संख्याता, असंख्याता, अनंत प्रदेशी लग भांगा २३ हीज हुवै, ते विचारी करवा । ७१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! सत्य तुम्हारी वानी। एम कहीनै गोतम विचरै, ध्यान सुधा रस ठानी। ७१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १२२२६) श० १२, उ० १०, ढा० २७१ १२१ Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. शतक बारम नुं अर्थ संपूरण, दोयसौ इकोतरमी ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय जश' मंगलमाल || १. गंभीर शब्दज रूप जे निज प्रकृति करि जे गमन करिया २. तसु परम सुगुरु प्रसाद रूपज भिक्षु अने दीर्घमाल नृपणसि १२२ भगवती जोड़ गीतक छद महाउदधि मत द्वादशम ही । अशक्तिवंत छतो सही ॥ पोत पार पूगावही । स्हाज जोड़ सुरचित ही ।। द्वादशशते दशमोद्देश कार्थः || १२|१०|| १, २ . गंभीररूपस्य महोदधेर्यत् पोतः परं पारमुपैति मंक्षु । गतावशक्तोऽपि निज प्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्वविजृम्भतं तत् ॥ ( वृ० प० ५९६ ) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश शतक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश शतक ढाल : २७२ दूहा १. बारम शतक अनेकधा, कह्या जीवादिक भाव । तेरम शतके पिण तेहिज, भंगतरे कहाय ।। २. तास उदेशक दश विषे संग्रह गाथा अथ । पुढवी देव मणंतर, इत्यादिकज तदर्थ ।। ३. नारकपृथ्वी विषय नों, प्रथम उदेशक पेख । देव परूपण अर्थ नों, द्वितीय उदेशक देख ।। ४. नरक अनंतर आहारगा, इत्यादिक अधिकार । पृथ्वीगत जे वारता-प्रतिबद्ध तुर्य विचार ।। ५. पंचम नारक प्रमुख नों, आहार परूपण अर्थ । नारकादि उपपात नों, षष्ठमुद्देश तदर्थ ।। १,२ व्याख्यातं द्वादशं शतं, तत्र चानेकधा जीवादयः पदार्था उक्ताः, त्रयोदशशतेऽपि त एव भंग्यन्तरेणोच्यन्त इत्येवं सम्बन्धमिदं व्याख्यायते, तत्र पुनरियमुद्देशकसंग्रहगाथा (वृ. प. ५९९) ३. पुढवी देव 'पुढवी' हादि, 'पुढवी' ति नरकपृथिवीविषयः प्रथम: 'देव' त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः (व. प. ५९०) ४. अणंतर पुढवी 'अणंतर' त्ति अनन्तराहारा नारका इत्याद्यर्थः प्रतिपादनपरस्तृतीयः 'पुढवी' त्ति पृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः (वृ. प. ५९९) ५. आहारमेव उववाए 'आहारे' त्ति नारकाद्याहारप्ररूणार्थः पञ्चमः 'उववाए' त्ति नारकाद्युपपातार्थः षष्ठः (वृ. प. ५९९) ६-७ भासा कम्मणगारे केयाघडिया 'भास' त्ति भाषार्थः सप्तमः 'कम्म' त्ति कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः 'अणगारे केयाघडिय' त्ति अनगारो भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय' त्ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि व्रजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः । (वृ० ५० ५९९) ८. समुग्घाए 'समुग्घाए' त्ति समुद्धातप्रतिपादनार्थो दशम इति । तत्र प्रथमोद्देशके किंञ्चिल्लिख्यते (वृ० ५० ५९९) ६. सप्तम भाषा अर्थ है, कर्म प्रकृति अधिकार। _तास परूपण अर्थ नों, अष्टमुद्देशक सार ।। ७. लब्धि सामर्थ्य थकी मुनि, रजुबद्ध घटिका हस्त । गगन गमन इत्यादि जे, नवम उदेशक वस्त । ८. समुद्धात नों प्रथम उदेशक दशम है, दश उद्देशक एह । नों हिवै, सखरो अर्थ सुणेह ॥ नरक-उपपाद-पद *गोयम गुणसागरू, पूछ प्रश्न उदारू रे। प्रभु सुखआगरू, देवै उत्तर वारू रे। (ध्रपदं) ६. राजगृह जाव गोतम वदै इम, पृथ्वी किती कही स्वाम? जिन कहै सप्त रयणप्पभा जी, जाव तमतमा ताम ।। १०. ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे प्रभ ! नरकावासा के लाख? जिन भाख सुण गोयमा जी! तीस लक्ष नी साख ।। ९. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ, तं जहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा। (श० १३।१) १०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। *लय : अभड भड रावणा इंदा स्यूं अड़ियो श० १३, उ० १, ढा० २७२ १२५ Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. हे प्रभु! नरकावासा विके स्यूं संख योजन विस्तार । के असंय योजन विस्तार है जी ? जिन कहै दोनं विचार । १२. हे प्रभु! एह प्रत्यक्ष छे जी रत्नप्रभा पृथ्वी जाण । नरकावासा तेनां जी. जी, तीस लाख तीस लाख परिमाण || १३. संख्यात विस्तार न जिके जी, नरकावास विषेह । केतलाजी नारक ऊपजे तेह ? एक समय में १४. कापोतलेगी किता शुक्लपक्षी किता ऊपजे जी कृष्णपक्षी किता होय ? ऊपजै जी ? तास लक्षण अवलोय || सोरठा १५. पुद्गल अर्द्धज मांय, संसरवो छै जेहनें। शुक्लपक्ष कहिवाय, अधिक भनेँ ते कृष्णपक्ष ॥ १६. संज्ञी जीव किता अपने जी, किता असंज्ञी कहाय ? भव्यसिद्धिक किता ऊपने जी, किता अभव्यज पाय ? १७. मतिज्ञानी किता अपने जी के अवधिज्ञानी किता ऊपने जी, पूर्व श्रुतज्ञानी संध ? आउखो बंध ? १८. मति अज्ञानी किता ऊपजे जी, केतला विभंग अज्ञानी जीवड़ा जी, १९. केवला चक्षूदर्शणी जी, अचक्षुदर्शणी अवधिदर्शनी जीवड़ा जी, केतला त्यां २०. आहार संज्ञाए वर्तता जी भय संज्ञा वर्तत ? मिथुन परिग्रह जे संज्ञा जी, वसंता के उपजंत ? भूत अन्ना ? केतला ऊपजै आण ? केय ? उपजेय ? २१. ऊपजे के स्त्री-वेदगा जी, पुरुष नपुंसक क्रोध कषायवंत केतला जी, जाव लोभवंत वेद ? खेद ? २२. सोलिदियोउत्ता किता जी, जाव फर्म उपयुक्त ? नोईदियोउत्ता किता जी ? ए भावे मन युक्त ॥ २३. किता मनजोगी ऊपजे जी वचन काय जोगवंत ? साकार नैं अनाकार नां जी, उपयोगी किता उपजंत ? २४. प्रश्न गुणचालीस पूचिया जी उत्पत्ति समयो एह मनुष्य तिरि भय छोडने जी, ऋजु गति जे उपजेह ॥ २५. जिन कहै रत्नप्रभा तणां जी, नरकावासा लक्ष तीस । संखिज्ज विस्तारवंत ने जी, नरकावासे जगीस || १२६ भगवती जोड़ ११. ते णं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि । (१० १३/२) १२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयाया सहस्से १३. संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति ? १३. केवतिया काउलेस्सा उववज्जंति ? केवतिया कण्डपस्विया उपयंति ? देवतिया मुक्का उववज्जंति ? १४. जे पोपरियो से संसारी। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया । ( वृ० प० ५९९) १६. केवतिया सण्णी उववज्जंति ? केवतिया असण्णी उववज्जंति ? केवतिया भवसिद्धिया उववज्जंति ? केवतिया अभवसिद्धिया उववज्जंति ? १७. केवतिया आभिणिनाणी उबवति केवतिया सुयनाणी उववज्जंति ? केवतिया ओहिनाणी उववज्जंति ? १८. केवतिया मइअण्णाणी उववज्जंति ? केवतिया सुथअण्णाणी उववज्जंति ? केवतिया विरुभंगनाणी उववज्जंति ? १९. केवतिया चक्खुदंसणी उववज्जंति ? केवतिया अणी उयति ? केवलिया मोहिदंसणी उववज्जति ? २०. केवतिया आहारसण्णोवउत्ता उववज्जंति ? केवतिया भोत्ता उति ? केवतिया मेहुणसष्णोवउत्ता उपवति ? केवतिया परिग्गहसणोवता उववज्जंति ? २१. केवतिया इत्थवेदगा उववज्जंति ? केवतिया पुरिसवेदगा उववज्जंति ? देवतिया नपुंगवेदगा उति ? केवतिया कोहन्साई उति जान केवतिया लोभसा उज्जेति ? २२. केवतिया सोइंदियोवउत्ता उववज्जंति जाव केवतिया फासिदियोवउत्ता उववज्जंति ? केवतिया नोइंदियोवउत्ता उववज्जंति ? १३. केवतिया सणजोगी उववज्जंति ? केवतिया वइजोगी उववज्जंति ? केवतिया कायजोगी उववज्जंति ? केवतिया सागारोवउत्ता उववज्जंति ? केवतिया अणागारोव उत्ता उववज्जंति ? २५. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ़वीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जघन्य थकी इक ऊपजै जी, अथवा बे तथा तीन । उत्कृष्ट संखेज्जा नेरइया जी, ऊपजै छै अति दीन ।। २६. जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जति । सोरठा २७. नरकावासो एह, संख्याता योजन तणो। ते माटे उपजेह, संख्याताईज नेरइया ।। २८. *इक बे तीन वलि जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । कापोतलेणी ऊपजै जी, धुर नरके ए थात ।। २६. इक बे तीन बलि जघन्य थी जी, संख्याता उत्कृष्ट । कृष्णपक्षी जे ऊपजै जी, शुक्लपक्षी इम दृष्ट ।। २८. जहणणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उववज्जति । २९. जहणणं एक्को बा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उवबज्जति । एवं सुक्क पक्खिया वि, ३०. एवं सण्णी, एवं असण्णी, ३०. संजी कहिवा इह विधे जी. एम असंज्ञी ताम। विभंग ज्यां लग नावियो जी, इतरे असंज्ञी नाम ।। सोरठा ३१. 'प्रथम नरक रै मांहि, जेह असंज्ञी ऊपजै । ___अंतर्मुहर्त ताहि, विभंग अनाण लहै नहीं ।। ३२. कह्यो असंज्ञी तास, भेद जीव नों तेरमो। असंज्ञी तणो विमास, भेद जीव रो त्यां नथी । ३३. भवनपती रै मांय, व्यंतर में पिण ऊपजै । जीव असंज्ञी जाय, कह्या असंज्ञी तास पिण ।। ३४. ए पिण तेरम भेद, पिण असन्नी नो भेद नहि । स्त्री अथवा पु-वेद, वेद नपुंसक नहिं सुरे ।। ३५. असन्नी नो कहै भेद, तिणरै लेखै देव में। ___ कहियै नपुंस-वेद, सुर नपुंस निश्चै नथी। ३६. द्वादश असन्नी भेद, निश्चै तेह नपुंसका। ते माटे तज खेद, पेखो ए सुर में नथी ।। ३७. नारक ने सुर मांहि, असन्नी सूत्रे आखिया । पिण असन्नी नो ताहि, भेद तिहां पावै नहीं। ३८. दशवकालिक मांहि, आख्या अध्येन आटमें। सूक्षम आठज ताहि. पिण सूक्षम नों भेद नहिं ।। ३६. जीवाभिगमे जोय, ते गति आश्री सोय, तेऊ वाऊ त्रस कहा। त्रस नों भेद तिहां नथी॥ ३८. सिणेहं पुफ्फसुहुमं च पाणुत्तिगं तहेव य पणगं बीयहरियं च अंडसुहुमं च अट्ठमं (दसवे ८/१५) ३९. से कि तं तसा? तसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा -- तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा। (जीवा० १/७५) ४०. मणूसा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सण्णिभूया य असण्णिभूया य ।........ (पण्ण. १५/४८) ४०. पनरम पद रै माय, विशिष्ट अवधी रहित नर । ___असन्नीभूत कहाय, पिण असन्नी नो भेद नहीं ।। ४१. समुच्छिम मनुष्य पर्याप्त, आख्यो अनुयोगद्वार में। कांइक पर्याप्ति आप्त, पिण पर्याप्त रो भेद नहीं । *लय : अभड भड रावणा इदा स्यू अडियो १. असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद-.---११ वां और १२ वां २. समूच्छिम मनुष्य पर्याप्त होता है या अपर्याप्त ? इस सम्बन्ध में अनुयोगद्वार में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मनुष्य की अवगाहना के प्रसंग में संमूच्छिम श०१३, उ० १, ढा०२७२ १२७ Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. जीवाभिगमे वयण, असंघयणी नरक सुर । पद बीजे दिव्य संघयण, पिण नहि छै षट मांहिलो ।। ४२. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किसंघयणी पण्णत्ता? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी (जीवा० १/९५) से कि तं देवा ?.......छण्हं संघयणाणं असंघयणी (जीवा० १/१३५) कहि णं भंते ? ......"दिव्वेणं संघयणेणं....... (पण्ण० २/३०) ४३. संघयण जिसा उदार, पुद्गल छै तेहनें कह्या। संघयण नाम विचार, तिम असन्ती सुर नारकी।। ४४. दर्शन अवधि विभंग, ते पाम्यो नहिं ज्यां लगे। असन्नी जिसोज अंग, तिण सं असन्नी जिन कह्या ।। ४५. बांध्यां जे पर्याय', भेद हसी ए चवदमों। तिण कारण कहिवाय, अपर्याप्तो सन्नी तणों ।। ४६. अपर्याप्त धुर भेद, प्रज्या बांध्यां द्वितीय ह। तृतीय भेद संवेद, पर्याय बांध्यां चतुर्थो । ४७. पंचम भेद पिछाण, पर्याय बांध्यां ह छठो । सप्तम भेद सुजाण, पर्याय बांध्यां अष्टमो ।। ४८. नवमों भेद निहाल, पर्याय बांध्यां दशम है। एकादशमों भाल, पर्याय बांध्यां बारमो ।। ४६. तेरम भेदज ताम, पर्याय बांध्यां चवदमों। पिण इग्यारमा नों आम, चवदम भेद हुवै नहीं।। ५०. सन्नी असन्नी सोय, नरक विषे बिहुँ ऊपनां । ___अंतर्महर्त्त जोय, अपर्याप्त बिहुँ रहै ।। ५१. बिहं बांध्यां पर्याय, होसी भेदज चवदमों। अपर्याप्त कहिवाय, भेद चवदमा नां बिहं ।। ५२. ते माटे बिहं मांय, कहिय भेदज तेरमों। पिण ग्यारम नहिं पाय, न्याय दृष्टि करि देखियै ।। ५३. सम्यग प्रकारे सोय, विभंग अन्नाण नावियो। असन्नी सरिखो जोय, तिणसं असन्नी तसं कह्यो ।। ५४. पिण ए तेरम भेद, भेद नहीं असन्नी तणो। तिण कारण संवेद, नारक नै असन्नी कह्यो ।' (ज० स०) ५५. *एक दोय तीन जघन्य थी रे, उत्कृष्टा संख्यात । उपजै छ भवसिद्धिया जी, एम अभव्य आख्यात ।। और गर्भज-- दोनों प्रकार के मनुष्यों की अवगाहना दी गई है। वहां गर्भज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद किए हैं। पर संमूच्छिम का कोई भेद नहीं है (अनु० सूत्र ४०५ का पाद टिप्पण, पृ० ३६६) । इसके आधार पर निष्कर्ष यह निकलता है कि संमूच्छिम मनुष्य के भी कुछ पर्याप्तियां होती हैं । इस दृष्टि से उसे पर्याप्त मान लिया गया है । १. आगम साहित्य में पर्याप्ति के स्थान पर 'पज्जत्ति' शब्द आता है । पज्जत्ति से पज्जा, पर्या, प्रज्या आदि शब्द बनते गए। इन्हीं शब्दों का एक रूप बन गया पर्याय । यह शब्द पर्याय अर्थ का नहीं, पर्याप्ति अर्थ का वाचक है। *लय : अभड भड रावणा इदा स्यूं अडियो ५५. एवं भवसिद्धिया अभवसिद्धिया, १२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. इम मति-श्रुत-ज्ञानी वली जी, अवधिज्ञानी पिण एम। इम मति श्रुत अज्ञान नैं जी, विभंग अनाणी तेम ।। ५७. चक्षुदर्शने न ऊपजै जो, जघन्य एक दोय तीन । उत्कृष्ट संख्याता आजै जी, अचक्षुदर्शणी चीन ।। ५६. आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइ अण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगनाणी। ५७. चक्खुदंसणी न उवग्ज्जति । जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववजंति, सोरठा ५८. उत्पत्ति समयो जाण द्रव्य इंद्रिय तजवे करी। ऊाजवो पहिछाण, नहि इम चक्षदर्शणी ।। ५६. तो दर्शणी अचक्षु, तसं ऊपजवो किम कह्य ? उत्तर तास विवक्ष, कहियै छै ते सांभलो ।। ६०. अचक्षुदशन जाण, इंद्रिय - अनाश्रित्य ह। सामान्य उपयोग माण, उत्पत्ति समय पिण हुवै ।। ५८. 'चक्खुदंसणी न उववज्जति' त्ति इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पनेरिति । (वृ. प. ५९९) ५९. 'तहि अचक्षुदर्शनिनः कथमुत्पद्यन्ते ? उच्यते । (वृ. प. ५९९) ६१. *अवधिदर्शणी इहविधे जी, आहार संज्ञा उपयुक्त । जाव चौथी परिग्रह तणी जो, संज्ञाए करि युक्त ।। ६२. इत्थोवेदगा न ऊपजै जी, पुरुषवेदगा न होय। भव प्रत्ययगणां थी नरक में जी, ए बिह वेद न कोय ।। ६०. इन्द्रियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुर्दर्शन शब्दाभिधेयस्योत्यादसमयेऽपि भावादचक्षुर्दर्शनिन उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति । (व. प. ५९९) ६१. एवं ओहिदंसणी वि। आहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि। ६२. इत्थीवेयगा न उववज्जति, पुरिसवेयगा न उवबज्जति । 'इत्थीवेयगे' त्यादि, स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते भव प्रत्ययान्नपुंसकवेदत्वात्तेषां। (वृ. प. ५९९) ६३. जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नपुंसगवेयगा उबवज्जति । ६४. एवं कोहकसाई जाव लोभकसाई। ६३. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संखेज । वेद नपुंसका ऊपजै जी, नरक नपंस कहेज ।। ६४. इम क्रोध कषाये वर्तताजी, जावत लोभ कहेज । एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संखेज ।। ६५. सोइंदियोव उत्ता तिके जी, उत्पत्ति समय न पाय । जाव फासिदिय इह विधेजो, ए द्रव्य इंद्रिय नाय ।। ६'. सोइंदियोवउत्ता न उववज्जति एवं जाव फासिदि ओब उत्ता न उववज्जति । 'सोइंदिओवउत्ता' इत्यादि श्रोत्राद्युपयुक्ता नोत्पद्यन्ते इन्द्रियाणां तदानीमभावात् । (व. प. ५९९) ६६. जहणे गं एक्को वा, दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदिओवउत्ता उववज्जति । ६६. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संखेज। नोइंदियोव उत्ता हुवै जी, ए मन भाव कहेज ।। सोरठा ६७. वत्ति विषे इम बाय, यद्यपि मन पर्याप्ति जे। तास अभावे ताय, तिहां द्रव्य मन तो नथो ।। . ६८. तथापि भावे मन्न, चैतन्य रूप हवै अछ। तिण करि सहित प्रपन्न, नोइंदियोव उत्ता कह्या ।। ६७,६८. नोइंदिओवउत्ता उववज्जात' त्ति नोइन्द्रियं-- मनस्तत्र च यद्यपि मन:-पर्याप्त्यभावे द्रव्यमनो नास्ति तथाऽपि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्ते !इन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यत (वृ. प. ५९९) इति, वा०-ए नारकी सन्नी पंचेंद्रिय अपर्याप्तो छ । तिहा द्रव्य मन तो नथी पिण ज्ञानावरणी कर्म ना क्षयोपक्षम रूप भाव मन नुं चेतनपणुं तिहा छ । ६६. *मनयोगो नहिं ऊपज जी, ए द्रव्य मन न होय । वचनयोगी नहिं ऊपजै जो, उत्पत्ति समये सोय ।। ६९. मणजोगी न उववज्जति, एवं वइजोगी वि। 'मणजोगी' त्यादि मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्पद्यन्ते, उत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभावादिति । (वृ. प. ५९९) *लय : अभड भड रावणा इंदा स्यूं अइयो श० १३, उ०१, ढा० २७२ १२९ Jain Education Intemational Education International For Private & Pera Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उववज्जति ।। ७१ एवं सागारोवउत्ता वि, एवं अणागारोवउत्ता वि । (श. १३६३) ७२. अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह--- ७०. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । काययोगी तिहां ऊपजै जी, तेह सहित नरक जात ।। ७१. सागारोव उत्ता इह विधे जी, इम कहियै अनाकार । एह उपजवा आसरी जो, ए जिन उत्तर सार ।। सोरठा ७२. उत्पत्ति समय विचार, प्रश्नोत्तर तेहनों कह्यो। कहिये हिव अधिकार, उद्वर्त्तन समयाश्रयी ॥ नरक उद्ववर्तना पद ७३. *ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे प्रभु ! नरकावासा लक्ष तीस । योजन संख्याता तणां जी, नरकावासे जगीस ।। ७४. एक समय में नेरइया जी, किता नीकलै धार? काउलेशी किता नीकलै जी, जाब किता अनाकार ? ७३. इमीसे णं भते! रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ७४. एगसमएणं केवतिया नेरइया उन्वति ? केवतिया काउलेस्सा उबटंति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उव्वटंति ? ७५. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संवेज्जवित्थडेसु नरएसु ७६. एगसमएणं जहणणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उवटति । ७५. जिन कहै ए रत्नप्रभा विषे जो, नरकावासा तीस लक्ष। संख योजन विस्तार नों जी, नरकावास विवक्ष ।। ७६. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । एक समय में नेरइयाजी, नीकलै छ तिहां साथ ।। सोरठा ७७. नीकलवा नों जाण, समयो ते परभव तणो। प्रथम समय पहिछाण, पिण नहि नारक भव समय ।। ७८. *एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । कापोतलेशी नीकल जी, जाव सन्नी इम आत ॥ ७६. असन्नी तो नहिं नीकलै जी, पर भव समय ए आद । नारक मरि असन्नीपणे जी, नहि ह इह विधवाद ।। ७८. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उबटटति । एवं जाव सण्णी। ७९. असण्णी न उव्वति । 'असन्नी न उबट्टति' त्ति उद्वर्तना हि परभवप्रथमसमये स्यात् न च नारका असज्ञिषूत्पद्यन्तेऽतस्तेऽ सज्ञिनः संतो नोद्वर्तन्त इत्युच्यते (वृ. प. ५९९,६००) ८०. जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उन्वति । एवं जाव सुय अण्णाणी। ८१. विभंगनाणी न उब्बति, चक्खुदंसणी न उब्बति । ८०. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्ट संखेज पिछाण। भव्यसिद्धिका नीकलै, इम जावत श्रुत अनाण ॥ ८१. विभंगनाणी न नीकल जी, समय नीकलवा नैं ताहि । विभंग अज्ञान हुवै नहीं जी, चक्षुदर्शन पिण नांहि ॥ ८२. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्ट संखेज कहाय । अचक्षुदर्शणी नीकलै, इम जावत लोभ कषाय ।। ८३. सोइंदिय सहित न नीकलै, इम जावत इंद्रिय फास । नीकलवा नां समय में जी, द्रव्य इंद्री नहिं तास ।। ८४. एक दोय तीन जघन्य थी, उत्कृष्ट संख्याता सोय । नोइंदियोवउत्ता नीकल, ते भावे मन अवलोय ।। ८५. नीकलवा नां समय में जी, मनयोगी न कहाय । इमहिज वयोगी नहीं जी, विमल विचारो न्याय ॥ *लय : अभड भड रावणा इदा स्यूं अडियो ८२. जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खदंसणी उव्वति । एवं जाव लोभ कसाई। ८३. सोइंदियोव उत्ता न उव्वति, एवं जाव फासिदि योवउत्ता न उव्वति । ८४. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उव्वट्टति । ८५. मणजोगी न उव्वति, एवं वइजोगी वि। १३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्ट संख्याता धार । कायजोगी जे नीकल जी, इम साकार - अनाकार ।। ८६. जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखज्जा कायजोगी उव्वटंति । एवं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता। (श. १३१४) ८७. शत तेरम देश प्रथम तणो, दोयसौ बोहितरमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिरायथी जी, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : २७३ १. का हिव रत्नप्रभा विषे, सत्ता तेहने विषे, उत्पत्ति उद्वर्तन । कहियै तेह वचन ॥ १. अनन्तरं रत्नप्रभानारकाणामुत्पादे उद्वर्त्तनायां च परिमाणमुक्तमथ तेषामेव सत्तायां तदाह (वृ. प. ६००) नरक-सत्ता पद *नरक विषे ए सत्ता जाणिय रे ॥ध्रुपदं] २. ए प्रभ! रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, तीस लाख नरकावासा मांहि। योजन संख्याता विस्तार में रे, मरकावासे ताहि ॥ ३. कितला नारक सत्ताए कह्या रे, कापोतलेशी जगीस ? जाव अनागारोव उत्ता किता रे? प्रश्न ए गुणचालीस ।। ४. प्रथम समय उपनां ते केतला रे, सत्ताए कहिवाय? तसु अनंतरोववन्नगा कह्या रे, एक समय जसु थाय ।। ५. ऊपजवा नां समय नीं अपेक्षया रे, बे आदि समय वर्तमान । तेह परंपरोववन्नगा किता रे? घणां समय नां जान ।। ६. प्रथम समय अवगाहा खेत्र नां रे, तेह किता कहिवाय? अनतरोवगाढा तेहनें कह्या रे, वंछित खेत्रे ताय ।। २. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ३. केवतिया नेरइया पण्णत्ता ? केवतिया काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोव उत्ता पण्णत्ता? ४. केवतिया अणंतरोववण्णगा पण्णत्ता? 'केवइया अणंतरोववन्नग' त्ति कियन्तः प्रथमसम योत्पन्नाः ? इत्यर्थः । (वृ० प० ६००) ५. केवतिया परंपरोववण्णगा पण्णत्ता? 'परंपरोववन्नग' त्ति उत्पत्तिसमयापेक्षया द्वयादिसमयेषु वर्तमानाः । (वृ. प. ६००) ६. केवतिया अणंतरोवगाढा पण्णत्ता? 'अणंतरावगाढ' त्ति विवक्षितक्षेत्रे प्रथमसमयावगाढाः । (व०प०६००) ७. केवतिया परंपरोवगाढा पण्णत्ता? 'परंपरोगाढ' त्ति विवक्षितक्षेत्रे द्वितीयादिकः समयोऽवगाढे येषां ते परम्परावगाढाः । (वृ० प० ६००) ८. केवतिया अर्णतराहारा पण्णत्ता? केवतिया परंपरा हारा पण्णत्ता? ९. केवतिया अणंतरपज्जत्ता पण्णत्ता? केवतिया परंपर पज्जत्ता पण्णत्त'? १०,११. केवतिया चरिमा पण्णत्ता? केवतिया अचरिमा पण्णत्ता? 'केवइया चरिम' त्ति चरमो नारकभवेषु स एव ७. वंछित खेत्र भणी अवगाहिया रे, थया समय बे आदि । तेह परंपरोवगाढा किता रे? सत्ताए करि लाधि ।। ८. आहार लियां ने प्रथम समय थयो रे, अणंतर-आहारा धार? आहार लियां द्वितीयादि समय थयां रे, तेह परंपराहार ? ६. प्रथम समय थयो पर्याप्त थयां रे, अणंतर-पज्जत्ता तेह ? समय थया द्वितीयादि पर्याप्त नैं रे, परंपर-पज्जत्ता जेह ? १०. चरम अछ भव तेहिज नरक नों रे, अथवा नारक माय । चरम समय वत्त छै जेहनों रे, चरम किता कहिवाय? लय: साधुजी नगरी आया सदा भला श०१३, 3० १, ढा० २७२,२७३ १३१ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. पूर्व चरम तणो लक्षण कह्यो रे, तेह थकी विपरीत । अचरम सत्ताए प्रभु केतला रे ? ए दश प्रश्न संगीत || १२. जिन है रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, तीस लख नरकावासा मांय । संस योजन विस्तर जे नरक रे ते विषे कहिवाय ॥ १३. विद्यमान संख्याता नारकी रे, काउलेस्सा संसेज | एवं संख्याता सन्नी अरे, ए सताए कहेज ॥ १४. असली मरि जे नरके अपना रे, अपर्याप्त अवस्थाय | भूत-भावत्व न्याय असन्नीका रे, ते थोड़ा करियाय । १५. ते कदाच वै कब न हुबै रे, जो एक दोष तीन पाव जपन्य थी रे, तो इम बात उत्कृष्टा संख्यात ॥ १६. संख्याता भवसिद्धिक आखिया रे, परिग्रहसंज्ञाए उपयुक्त छे रे, १७. इथी वेदगवणें तिहां नवी रे, पुरुष वेद नपुंसक संख्याता का रे १८. मानकबाई जिम असन्नी कह्या रे, ते कदाचित कवनां वे रे १६. इम जावत लोभकषाई उहविधे रे, तेहची तेहनों विरह को भी है, २०. संख्याता श्रोतेंद्रिय सहित छं रे, फशेंद्रिय करने सहित रे, ए छ २१. नोइंदिय उपयुक्त अछे तिके रे, तो ॥ केवल भावे मन सहित छ रे, २२. संपाता मनयोगी आखिया रे, उत्तर ए गुणचालीस प्रश्न न रे २३. नारक प्रथम समय नां ऊपनां रे, एवं जाव कहाय । द्रव्य इंद्री पाव || असन्नी जिम कहिवाय । पिण द्रव्य इंद्रिय नांय ॥ बावत म अनागार हिव दश प्रश्न विचार ।। कदा हुवै कदा नांय ? जो तो असन्नी जिम जाणवा रे, जघन्य उत्कृष्ट कहाय ॥ २४. संख्याताज परंपरोवन्नगारे, वे आदि समय वर्तमान । शेष रह्या ते अष्ट बोलां तणां रे, उत्तर सुणो सुजान ॥ २५. जिम अनंतरोववन्नगा का रे, अनंतशेवगाढा तेम । अनंतर आहार अनंतर पज्जत्तगा रे, ए पिण कहिया एम ॥ २६. परंपरागावा यावत वली रे, अचरम लगे विचार । जेम परंपरोववन्नगा का रे, तिम ए सर्व उचार ॥ १३२ भगवती जोड़ वा० - इहां वृत्तिकार का अनंतरोपपन्नका, अनंतर अवगाढका, अनंतरआहारका, अनंतर पर्याप्तका नै कदाचित्कपणां थकी सिय अत्थि इत्यादिक कहिवूं । अने शेष ने बहुपणां थकी संख्याता इम कहिवूं | इति संख्यात योजन विस्तार नरकावासा नां उत्पत्ति, उद्वर्त्तन, सत्ता - ए तीन गमा कया । एवं जाव कहंत । संख्याता पावंत || वेद पिण नांय । एवं फोधकवाय ॥ मान विषे वर्त्तमान । अपनी जान || नारक क्रोध अथाय । विरहो का || भवो येषां ते चरमाः, नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः, अचरमास्त्वितरे । (बृ. प. ६०० ) १२. गोमा इसे स्वगप्पभाए पृथ्वीए तीसाए निरयावास सय सहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु १३ संखेज्जा नेरइया पण्णत्ता, संखेज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता, एवं जाव संखेज्जा सण्णी पण्णत्ता । १४. असज्ञिभ्य उदवृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसञ्ज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति ( वृ० प० ६००) जइ अत्थि जहणेणं उक्कोसेण संखेज्जा कृत्वा १५. अण्णी सिय अस्थि, सिय नत्थि । एक्कोवा दो पाणि वा पण्णत्ता । १६. संखेज्जा भवसिद्धिया पण्णत्ता एवं जाव संखेज्जा परिग्गहसण्णोवउत्ता पण्णत्ता । १७. इथिवेदा नत्थि, पुरिसवेदगा नत्थि, संखेज्जा नपुंगवेदगा पण्णत्ता । एवं कोहकसाई वि । १८. माणकसाई जहा असण्णी । १९. एवं जाव लोभकसाई । २०. संखेज्जा सोइंदियोवउत्ता फासिदियो उत्ता | २१. नोइदियो उत्ता जहा असण्णी । पण्णत्ता, एवं नाव पण्णत्ता । एवं जाव २२. संखेज्जा मणजोगी अणागारोवउत्ता । २३. अगंत रोवण्णगा सिय अत्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि जहा असण्णी । २४. संखेज्जा परंपरोववण्णगा पण्णत्ता । २५. एवं जहा अनंत रोववण्णगा तहा अनंत रोवगाढगा, अतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा । २६. परंपरोवगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरो( श० १३३५ ) वत्रणगा । वा० अनन्तरोपपन्नानामनन्त रावगाढानामनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्कत्वात् 'सिय अस्थि' इत्यादि वाच्यं शेषाणां तु बहुत्वात्संख्याता इति वाच्यमिति । ( वृ० प० ६०० ) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस योजन विस्तार नरकावासा नां ३ भागा सोरठा २७. संख योजन विस्तार, हिव असंख अववार, नरकावासा नौ वक्तव्यता कहिये रत्नप्रभा का विस्तार २८. *ए प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी तणां रे, नरकावासा तीस लक्ष । योजन असं विस्तार नों रे, नरकावासे प्रत्यक्ष || २६. एक समय में केला नारकी रे, उपजै छे जगदीस ? जाव अनागारोवउत्ता किता रे, उत्पत्ति समय जगीस ? ३०. जिन कहै रत्नप्रभा ए मही तणां रे, नरकावास लक्ष तीस । योजन अस्पाल विस्तार ने रे, नरकावासे दौस ॥ ३१. एक समय में नारक ऊपजै रे, जघन्य एक बे तीन । असंख्यात उपजै उत्कृष्ट थी रे, उत्पत्ति समये चोन || ३२. जिम योजन संखिज्य विस्तार ना रे, नरकावासा माहि ऊपजवो नीकलवो नैं सत्ता रे, कह्या तीन आलावा ताहि ।। ३३. तेम असंख्पाता विस्तार ना रे, ऊपजवो नीकलवी ने सता रे, तीन ३४. वरं असंख्यात भगवा इहां रे, जाव असंख्याता अचरम का रे, ३५. वरं संख असंख विस्तार में रे, दर्शन संख्यातहि ते नीकाला रेशे सोरठा ३६. वृत्ति विषे इम वाण अवधिज्ञानी तीर्थंकरादिक जाण, संख्याताइज ३८. प्रभु ! नरकावासा ते सक्कर ना रे, अथवा असंख्यात योजन तणां रे, ३६. इम जिम रत्नप्रभा नैं विषे कह्युं रे, वरं सन्नी गिमे नथी है, कयो । तसु ॥ नरकावासा मांय । आलाव कहाय ॥ शेव सर्व तिमहीज । इतरा लगे कहीज || ज्ञान अवधि अबाध । पूर्ववत साध ॥ सक्कर प्रभा का विस्तार ३७. * सक्करप्रभा पृथ्वी विषे किता रे, नरकावास जिन कहै पंच बीस लक्ष आखिया रे, *लय : साधूजी नगरी आया सदा भल। अवधिदर्शनी । नीकले ॥ भदंत ? वलि गोतम पूछंत ।। स्यूं योजन संख्यात । विस्तारे अवदात ? सक्कर तेम कहीज । शेष सर्व तिमहीज | २७. अनन्तरं संख्यातविस्तृतनरकायासन रक अतयतामभिधातुमाह २८. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयस हस्सेसु असंखेज्ज वित्थडेसु नरएसु २९. एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उववज्जंति ? ३० गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरावासह असेवित्य नरए एक्को वा दो वा असंखेज्जा नेरइया ( वृ० प० ६०० ) ३१. एगसमएणं तिण्णि वा, उववज्जति । ३२. एवं जहेव संखेज्ज वित्थडेसु तिष्णि गमगा । 'तिन्ति गमग' त्ति 'उववज्जंति उव्वति पन्नत्त' त्ति एते त्रयो गमाः । (बु०प०६००) ३३. तहा समेत्य बि तिण्णि गमगा भाणियव्वा । चेव जाव ३४. नवरं असंखेज्जा भाणियव्वा, सेसं तं असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । ३५. नवरं संखेज्ज वित्थडेसु असंखेज्ज वित्थडेसु महिनाणी हिसणी व संजा उबट्टावेदा सेसं तं चेव । (श. १३/६ ) वि जहणे उनको सेणं ३६. 'ओहिनाणी ओहिदंसणीय संखेज्जा उव्वट्टावेयव्व' ति कथं हि तीर्थ एवं भवन्ति, , ते च स्तोकाः स्तोकत्वाच्च संख्याता एवेति । (पु. प. ६००) ३७. सवकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! पणुवीसं निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता । ३८. ते णं भंते! कि संखेज्ज वित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? ३९. एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाए वि, नवरं - असण्णी तिसु वि गमएसु न भण्णति, सेसं तं चेव । ( श० १३।७ ) श० १३, उ० १, ढा० २७३ १३३ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. ऊपजवा नों एक, सत्ता नों विशेस, नो दूसरा । त्रिहुं आलावा विषे ॥ ए ४१. असन्नी कहियो नांय, ते तो घुर पृथ्वी विषे । उपजै आगम न्याय, षट नरके नहि ऊपजे ॥ वालुकप्रभा का विस्तार सोरठा नीकलवा ४२. प्रभानी फुल पूछा किया रे, जिन कहै पनरे लक्ष परूपिया रे, शेष ४३. नानापज लेश्या ने विषे रे, लेह प्रथम शत जेम संग्रह गाथा कहियै छै तिका रे, सांभलज्यो धर प्रेम ।। नरकावासे तेम | सक्करप्रभ जेन ॥ वा०-- इहां बे आदि पृथ्वी नीं अपेक्षा करिकै तीजी आदि पृथ्वी नैं विषे लेश्या में नानापणुं । तिका लेश्या जिम प्रथम शतक नै विषे कही तिम कहि सोरठा लेश्या कापोत कहीजिये। कापोत ने बलि नील ए ॥ नील कृष्ण बे पंचमी । परम कृष्ण है सप्तमी ॥ ४४. पहिली जी मां, तीजी मिश्र कहाय ४५. नील चतुर्थी मांग, छट्ठी कृष्ण कहाय, पंकप्रभा का विस्तार ४६. *पंकप्रभा नीं फुन पूछा कियां रे, जिन भाखे दश लाख । हम जिम सकरप्रभा ने कह रे, तिम कहि सुत्त साख ॥ ४७. नवरं अज्ञानी अवधिदर्शनी रे, नीकलवो नहि होय । शेष सर्व तिमहीज कहीजिये रे, वारू विधि अवलोय || सोरठा ४८. अवधि ज्ञान दर्शन, बहुलपण करिनें तिके । तीर्थंकर जे प्रपन्न, धुर तीनां सूं नील्या ॥ ४९. चउची प्रमुख जे सोय, तेहषी नीकलिया था। तीर्थंकर नहि होय, तिण सूं वरज्यो अवधि नें ॥ ।। धूमप्रभा का विस्तार ५०. * धूमप्रभा नीं फुन पूछा कियां रे, जिन भाखे त्रिण लाख । इस जिम पंकप्रभा ने आलियो रे, ते सर्व ही भाख ॥ तमा का विस्तार ५१. प्रश्म तमा न पूछयां जिन कहै रे, पंच ऊण इक लाख । शेष सर्व जिम पंकप्रभा विषे रे, आख्यो तिम ए भाख ॥ * लय साधूजी नगरी आया सदा भला १३४ भगवती जोड़ ४०, ४१. 'नवर असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नति' कस्मात ?, उच्यते - असज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते 'असन्नी खलु पढमं' इति वचनादिति । ( वृ० प० ६०० ) ४२. वालुयप्पभाए णं पुच्छा । गोषमा ! पन्नरस निरवायासस्य सहसा पण्णत्ता से जहा सक्करप्पभाए । ४३. नाणत्तं लेसासु, लेसाओ जहा पढमसए । ४४, ४५. काऊ (४० १३०८) o aro - इहाद्यपृथिवीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु त्वं भवति, प्रथमशते तथायाः, तत्र च गावे (५० प० ६०० ) ताश्च यथा दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया ए पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा || ( वृ० प० ६०० ) ४६. पंकप्पभाए णं पुच्छा । गोयमा ! दस निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एव जहा सक्करप्पभाए । ४७. नवरं - ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उब्वट्टति, सेसं तं चेव । (No 2219) ४८, ४९. 'नवरं ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उववज्जति' त्ति, कस्मात् ?, उच्यते, ते हि प्रायस्तीर्थकरा एव ते च चतुर्थ्या उद्वृत्ता नोत्पद्यन्त इति । ( ( वृ० प० ६०० ) ५०. धूमप्पभाए णं पुच्छा । गोयमा तिमि निरमावासमसहस्सा एवं वहा पंकप्पभाए । ( ० १३०१०) ५१. तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया सय सहस्सा पण्णत्ता ? गोमा ! एगे पंचूणे निरयावासस्यसहस्से पण्णत्ते । सेसं जहा पंकप्पभाए । ( श० १३।११ ) निरयावास Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमतमा का विस्तार ५२. अध सप्तमी पृथ्वी में बिता रे, अणुत्तर सर्वोत्कृष्ट । मोटा जति मोट विस्तार से रे, महानरकावासा दृष्ठ ? ५३. श्री जिन भावे च संख्या करी रे, अणुत्तर सर्वोत्कृष्ट । जाव अप्पइट्टाणो ए पंचमो रे, अतिवेदन संक्लिष्ट ।। सोरठा ५४. काल अनें महाकाल, रोरुए महारोए । ए जाव शब्द में न्हाल, मोटा अति मोटा चिहुं ॥ ५५. ते प्रभु ! स्यूं संखिज्ज विस्तार में रे के असंख विस्तार ? जिन कहै एक अपट्टणोतिको रे, संख' योजन विस्तार ॥ ५६. च्यार असंख्याता विस्तार में रे, वलि गोतम पूछेह । अध सप्तमी पृथ्वी ने विधे र प्रभु पंत्र संख्या करि जेह ॥ ५७. अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट मोठा जिके रे, जावत महानरबेह संख योजन विस्तार नरकवासा विषे रे, एक समै किता उपजेह ? ५८. इम जिम पंकप्रभा ने दिये कह रे वरं इतो विशेष । अवधिज्ञानी नहि ऊपजे रे, नीकलवो नहि लेश ।। मति सोरठा ५६. पंकप्रभा में जाण, संख्याता विस्तार नैं । नरकावास पिछाण, आख्यो तिम कहिवो इहां ॥ ६०. *सम्पवस्व रहित तिहां उपजे सही रे, निकले सम्यक्त्व खोय सत्ताए त्रिज्ञान सहीत छ रे सम्यग दर्शन होय ॥ ६१. एम असंख्याता विस्तार नां रे, वरं इतो विशेष इहां अछे रे, ६२. शत तेरम नैं देश प्रथम तणो रे, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, नरकावासा मांय । असं कहिवाय ॥ बेसौ तिहोतरमी ढाल । 'जय-जश' (मंगलमाल || १. लाख योजन * लय साधुजो नगरी आया सदा भला ५२. आहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए कति अणुत्तरा महति - महालया महानिरया पण्णत्ता ? ५२. गोमा ! पंच अणुत्तरा जाव (सं. पा.) अपट्टा । ५४. 'जाव अपइट्टाणे' त्ति इह यावत्करणात् 'काले महाकाले रोरुए महारोरुए' त्ति दृश्यम् । (बु०प०६००) ५५-५७. ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य । ( श० १३।१२ ) असत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएम् महानिरएमु सज्ज नरए एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जति ? ५८. एवं जहा पंकप्पभाए नवरं तिसु नाणेसु न उवज्जतिन उति ६०. पण्णत्तएस तहेव अस्थि । सम्यक्त्वभ्रष्टानामेव तत्रोत्पादात् तत उद्वर्त्तनाच्चाद्येषु त्रिषु ज्ञानेषु नोत्पद्यन्ते नापि चोद्वर्त्तन्त इति 'पन्नताए तब अथिति इत्यत्र तृतीयमेव -प्रथमादिविसन्ति सम् दर्शनलाभ आभिनिबोधिकादिज्ञानत्रयभावादिति । ( वृ० प० ६०० ) नवरं - असंखेज्जा ( श० १३०१३) .... ६१. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि भाणियव्वा । श० १३, उ० १, डा० २७३ १३५ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २७४ १. अथ रत्नप्रभादिनारकवक्तव्यतामेव सम्यग्दष्टयादीनावित्याह -- (व० प० ६७०) दूहा नरक में सम्यक दृष्टि आदि की पृच्छा १. अथ विहं दृष्टि तणो हिवै, रत्नप्रभादिक माय ! वक्तव्यता तसं वारता, प्रश्नोत्तर कहिवाय ।। _ *चतुर नर वारू अर्थ विचार ।। [ध्रपदं] २. प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, तीस लाख नरकावासा माय। संख्याता योजन तणां रे, नरकावासे ताय ।। ३. स्यं समदष्टी ऊपजै रे, कै मिथ्यादष्टि उपजंत । कै समामिथ्यादृष्टि नेरइया रे, उपजै छै भगवंत ! २. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ३. कि सम्मट्ठिी नेरइया उववज्जति ? मिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जति? सम्मामिच्छदिट्ठी नेइरया उववज्जति ? 6. गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरइया उववज्जति, मिच्छदिट्ठी वि नेरइया उववज्जति, नो सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जति । (श० १३.१४) 'न सम्ममिच्छो कुणइ काल' मिति वचनात् मिश्रदृष्टयो न म्रियन्ते। (वृ० प: ६००) ६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ७,८. कि सम्मदिट्ठी नेरइया उव्वटंति ? एवं चेव। (श० १३।१५) ४. जिन कहै समदृष्टि ऊपजै रे, मिथ्यादष्टि उपजत । समामिथ्यादष्टि नहिं ऊपजै रे, मिश्रदष्टि थको न मरंत ।। सोरठा ५. नारक भव नो इष्ट, ए पहिलो समयो अछै । सम्मामिथ्यादिष्ट, अपर्याप्त में नहिं हुवै ।। ६. *प्रभु! रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, नरकावासा तीस लक्ष । संख्याता योजन तणां रे, नरकावासे प्रत्यक्ष ।। ७. स्यं समदृष्टी नीकलै रे, कै मिथ्यादष्टि निकलंत । के समामिथ्यादष्टि थको रे, निकलै छै भगवंत ? ८. जिन कहै समदष्टो नीकलै रे, मिथ्यादृष्टि निकलंत । समामिथ्यादष्टि नहिं नीक लै रे, मिश्रदष्टि थको न मरंत ।। सोरठा ६. नारक उपजै आण, सन्नी मनुष्य तिर्यंच में। ते विहं गति नों जाण, ए पहिलो समयो अछ।। १०. *प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी विषेरे, तीस लाख नरकावासा मांहि। संख योजन विस्तार नैं रे, नरकावासे ताहि ।। ११. स्यं समदृष्टि नारक करी रे, विरह-रहित काहिवाय । मिथ्यादष्टि नारक करी रे, विरह-रहित त्यां पाय? १२. के मिश्रदष्टि नारक करी रे, विरह-रहित अवधार ? ए सत्ता आश्री त्रिहं रे, पूछा----प्रश्न प्रकार ।। १३. जिन कहै समदृष्टी तिहां रे, नारक विरह-रहीत । मिथ्यादष्टी नारकी रे, विरह-रहित संगीत ।। १४. मिश्रदष्टी नारकी रे, कदाचित ते पाय । कदाचित पावै नहीं रे, विरह अविरह कहाय ।। १०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए ___निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा ११. किं सम्मद्दिट्ठीहि ने रइएहि अविरहिया ? मिच्छ दिट्ठीहि नेरइएहिं अविरहिया ? १२. सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया ? १३. गोयमा ! सम्मट्ठिीहि नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छ दिट्ठीहि वि नेरइएहिं अविरहिया । १४. सम्मामिच्छदिट्ठीहि नेरैइएहि अविरहिया विरहिया वा। कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति । (वृ० प. ६००) *लय : राम पूछ सुग्रीव नै रे १३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणवा तीन आलाव | वलि सत्ता नों भाव || एवं तीन आलाव । तीन आलावा पंच अणुरूर अपट्टाणा गांहि || न्याव || ताहि । उपजै छे भगवंत ! के मिथ्यादृष्टी अपने रे के मिथदृष्टी जंत ? १२. जिन कहे समदृष्टी तिर्क है, नारक नहि उपजंत । मिथ्यादृष्टी ऊपने रे, मिश्रदृष्टि नहि जंत ।। १५. एम असंख विस्तार नैं रे, ऊपजवा चववा तणो रे, १६. सक्करप्रभा नैं विषे रे, एवं जाव तमा विषे रे १७. प्रभु ! सातमी नरक में रे, जाव संख योजन तणो रे, १५. स्यू समदृष्टी नारकी रे, २०. इमहिज नीकलवो अछे रे, समदुष्टो मिथदृष्टि में रे, सोरठा २१. नरक सातमीं मांहि, सम्यक्त थको न ऊपजै । नीकलवो पिण नांहि, मिश्र थको पिण इम कह्यो । २२. *सत्ता आश्री सात नीरे, विरह-रहित जलाव । जिम क रत्नप्रभा विषे रे, तिणहिज रीत कहाव ॥ २३. इम असख योजन तणां रे, तीन आलावा तिण विरे २४. नारक दृष्टि प्रकार, हिव तेहज विचार, नरक में लेश्या की पृच्छा मिच्छदिट्टि निकलंत । नीकलयो नहि हुंत ॥ नरकावासा च्यार । दृष्टि तीन सुविचार ॥ सोरठा वक्तव्यता तेहनी कहीं । भंगांतरे कीजिये || २५. *इम निश्च भगवंत जी ! रे, कृष्णलेशी अवलोय | नील लेश्यावंत थई रे, जाव शुक्ल लेश्यावंत होय || २६. कृष्ण लेश्यावंत ने विषे रे, उपजै नारकपणेह ? जिन कहै हंता गोभा ! रे, कृष्णलेस्से जाब उपजेह ॥ २७. किण अर्थ प्रभु ! हम द जाब शुक्तवंत ते पई रे, २८. जिन कहै लेश स्थानक विषे रे, अविशुद्ध विषे बलि जावतो रे, २६. कृष्णलेस्या प्रति परिणमी रे, कृष्ण लेस्यागंत नरक में रे, ३०. तिण अर्थ इम आथियो रे, अन्य लेश्यावंत से परे, रे, लेश्या कृष्ण कहे। कृष्ण विषे उपजेह ? अविशुद्ध विषे वर्त्तत । कृष्ण परिणमें अंत' ॥ करि तिहां थी काल । उपजं तेहिज बाल || कृष्णलेश्या तेह। कृष्ण विषे उपजेह || *लय राम पूछे सुग्रीव ने रे १. कृष्णलेश्यावंत विशुद्ध परिणामे शुक्ल मे जावै वलि अविशुद्ध परिणामे करी अविशुद्ध लेश्या विषे वर्ततो कृष्णपण परिणमै । १५. एव असंखेज्ज वित्थडे भाणियव्वा । १६. एवं सक्करप्पभाए वि एवं जाव तमाए वि 7 ( ० १३०१६) १७. मागं ते! पुढवी पंच अयुत्तरे जाव संखेज्जवित्थडे नरए १८. किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया - पुच्छा । वि तिण्णि गमगा १९. गोयमा ! सम्मट्टी नेरइया न उववज्जंति, मिच्छराति सम्मानिया दि न उववज्जंति : २०. एवं उब्वटटति वि 1 २२. अविरहिए जहेव रयणप्पभाए । २३. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिष्णि गमगा । २४. अथ नारक वक्तव्यतामेव भंग्यन्तरेणाह ( ० १३।१७) , २५. सेनूहले नीलले जाव मुक्कलेसे ( वृ० प० ६०० ) भवित्ता २६. कहले से मेरए उज्जेति ? हंता गोवमा कहलेस्से जाय उज्जेति । ( श० १३।१८ ) २७. से केणट्ठणं भंते! एवं वुच्चइ - कण्हलेस्से जाव उववज्जंति ? २८. गोमाले मासु किलिस माणे उष्वपरिणमद २९. परिणमत्ता कण्हलेसेसु नेरइएसु उववज्जंति । ३०. से तेणट्ठेणं जाव उववज्जति । (० १३०१९) श० १३. उ० १, ढा० २७४ १३७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३१. 'इहां एहवो अभिप्राय, लेश तणां बहु भेद में। सहु लेश्या रै मांय, कृष्णलेश अविशुद्ध है ।। ३२. नील प्रमुख जे लेश, कृष्ण अपेक्षा विशुद्ध है। ते माटै सुविशेष, कृष्ण इहां अविशुद्ध कही ।। ३३. ते कृष्ण अविशुद्ध मांय, नील प्रमुख जे आवतो। अंत कृष्ण परिणमाय, कृष्णलेशी नारक हवै।।'[ज०स०] ३४. *हे निश्चै भगवत जी ! रे, कृष्णलेश्या अवलोय । नीललेस्यावंत ते थई रे, जाव शुक्लवंत होय ।। ३५. नीललेस्या नारक विषे रे, ऊपजै छै भगवान ? जिन कहै हंता गोयमा ! रे, जावत उपजै जाण ।। ३६. किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो रे, कृष्णलेस्यावंत जेह । जाव शुक्लवंत ते थई रे, नील नारक उपजेह ।। ३७. जिन कहै स्थानक बहु लेश नां रे, संक्लिश्य विषे जावंत। तथा विशुद्ध में जावतो र, नील लेश परिणमंत ।। ३८. नील लेश्या प्रति परिणमी रे, काल करीने तेह । नीललेश्या नारक विषे रे, उपजै नि:संदेह ।। ३४,३५. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव उववज्जति । (श० १३।२०) ३६. से केणठेणं जाव उववज्जति ? ३७. गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झ माणेसु वा नौललेस्सं परिणमइ, ३८. परिणमित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति । सोरठा ३६. 'इहां पाठ बे इंत, संक्लिश्य में जातो थको। तथा विशुद्ध में जंत, नील परिणमी नै मरै।। ४०. लेश्या कृष्ण पिछाण, नील तणी अपेक्षाय जे । संक्लिश्य अप्रशस्त जाण, तसू स्थाने जातो थको ।। ४१. ते कृष्ण तणी अपेक्षाय, लेश्या नोल विशुद्ध है। ते अंत परिणमी ताय, नोललेश नारक हवै। ४२. तथा कापोतज आद, नील तणी अपेक्षाय जे । प्रशस्त लेश संवाद, तसु स्थाने जातो थको ।। ४३. ते काउ आदि पेक्षाय, संक्लिश्य अविशुद्ध नील है। ते अंत परिणमी ताय, नील लेश नारक हवै।। ४४. एहवं न्याय जणाय, तिणसं पाठ जे बे कह्या । वत्तिकार अभिप्राय, बहुश्रुति तेह विचारज्यो ।। ४५. पूछ कोइयक एम, नील लेश तो अशुभ छै । विशुद्ध कही यहां केम, तसु उत्तर निसुणो हिवै। ४६. नवमें शतक निहाल, इकतीसम उद्देश में। तप आतापन वाल, करतां विभंग ऊपजै ।। . ४६. तस्स णं छठेंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं ........ """ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नाम अण्णाणे समुप्पज्जइ। (भ. श. ९।३३) ४७. विभंग ऊपने तेह, जीव अजीव नै जाणिया । वलि. अन्यतीर्थी जेह, त्यां नैं पिण जाणे लिया ।। ४८. आरंभ परितवान, जे पाखंड माहे रह्या । जाण्या संतश्यमान, विशुद्धमान पिण जाणिया ।। *लय : राम पूछ सुग्रीव नै रे १३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. संक्लिश तणी अपेक्षाय, विशुद्ध इहां पिण आखिया। टल्या अशुद्ध अधिकाय, विशुद्ध नाम इण कारणे ।। ५०. दोय भेद पहिछ।ण, दशमा गुणटाणां तणां । संक्लिश्य विशुद्धमान, शत पणवीसम सप्तमें ।। ५०. सुहुमसंपरायसंजए-पुच्छा । गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संकिलिस्समाणए य, विसुज्झमाणए य। (भ. श. २५१४५७) ५१. शुक्ल ध्यान सुखदाय, शुक्ल लेश दशमें अछ। संक्लिश्यमान किण न्याय, ए पिण वचन अपेक्षया ।। ५२. क्षायक श्रेण चढंत, विशुद्ध मान दशमें अछ । उपशम श्रेण पडत, आख्यो संक्लिश्यमान ए ।। ५३. इम क्षपक तणी अपेक्षाय, पडतां उपशम श्रण जे। संक्लिश्यमान कहाय, पिण अशुद्ध ध्यान लेस्या नथी। ५४. धुर शत प्रथम उद्देश, अणारंभि अप्रमत्त कहा। प्रमत्त पिण सुविशेष, अणारंभि शुभ जोग में। ५४. तत्थ ण जे ते अप्पमत्तसंजया, ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया, ते सुहं जोगं पडुच्च नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा, अणारंभा। (भ. श. ११३४) ५५. तिणसं दशमें ठाण, अशुभ जोग नहिं सर्वथा। ____ शुभजोगी पहिछाण, तिहां अध्यवसाय अशुभ नथी ।। ५६. तिणसं दशम गुणेण, क्षपक-श्रेण नी पेक्षया । पडतां उपशम-श्रेण, संक्लिश्यमान कह्या तम् ।। ५७. धुर शत प्रथम उद्देश, पूर्व मनां नरक तनु । विशुद्ध वर्ण कहेस, बहु कर्म घस्या तिण कारण ।। ५८. पछै ऊपनां जास, कर्म धणां खपिया नथी। अल्प काल हुओ तास, नारक अविशुद्ध वर्ण तसु॥ ५७,५८. से केणठेणं भंते ! एवं बच्चइ-नेरइया नो सव्वे समवण्णा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहापुवोववन्नगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्थं णं जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। (भ. श. ११६५) ५६. तेम इहां पिण जाण, कृष्ण तणीज अपेक्षया । विशुद्ध नील पिछाण, एहवू न्याय जणाय छै ।। [ज०स०] ६०. *तिण अर्थे करि आखियो रे, कृष्ण लेश्यावंत तेह । जाव नील परिणमी करी रे, नील नारक ऊपजेह ।। ६१. ते निश्चै भगवंत जी ! रे, कृष्णलेश्यावंत सोय । नीललेस्यावंत ते थई रे, जाव शुक्लवंत होय ।। ६२. कापोतलेश्यावंत जे रे, नारक में ऊपजेह । नील लेश्या विषे जिम कह्यो रे, तिम कापोत कहेह ।। ६०. से तेणठेणं गोयमा ! जाव उववज्जति । (श. १३।२१) ६१. से नृणं भंते ! कण्हलेस्से, नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता ६२. काउलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? एवं जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्साए वि भाणियव्वा। ६३. जाव से तेणठेणं जाव उववज्जति । (श. १३।२२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श. १३।२३) ६३. यावत तिण अर्थे कह्यो रे, जाव कापोतजवंत । नारक में ते ऊपजै रे, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ६४. प्रथम उद्देश तेरम तणो रे, बेसौ चोमंतरमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' हरष विशाल ।। त्रयोदशशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१३॥१॥ *लय : राम पूछ सुग्रीव नै रे श०१३, उ०१. ढा० २७४ १३९ Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २७५ वह आख्या द्वितीय मकार । साधर्म्य थी, हिये देव अधिकार || ॥ १. प्रथम उद्देशे नारका, उपपातिक देवों के प्रकार २. देव प्रमजी! कतिविधा ? जिन कहै चिउविध ठीक। भवनपति व्यंतर वली, ज्योतिषी वैमानीक | ३. भवनपति प्रभु! कतिविधा ? जिन कहै दशविध देख असुरकुमारा आदि इस भगवा भेद अशेख || ४. द्वितीय शतक मांहे को, देव उद्देश समृद्ध । सर्व इहां कहियो विमन, जाव सर्वार्थसिद्ध ॥ असुरकुमार आदि देवों की पृच्छा ऋपिराजी हो गोतम प्रश्न अमंदो रे । सुखदायजी हो, उत्तर दे जिनचंदो रे || [ ध्रुपदं ] ५. हे प्रभु ! असुरकुमार नां के लक्ष छै आवासा रे ? जिन कहै आवासा तसु रे, चउसठ लक्ष उजासा रे ।। ६. ते प्रभु! स्यू योजन संख ना रे, के असं योजन विस्तारो रे? जिन कहै संख योजन तणां रे, असंल योजन पिग सारो रे ।। सोरठा ७. जंबूद्वीप सम सार, जघन्य थकी लघु भवन हूँ । मक्किम सं विस्तार, उत्कृष्ट असंच योजन तणां ।। ८. *लक्ष चउसठ असुर आवास में रे, विस्तर असुर आवासे रे । उपजे असुर सुखरासे रे ? कृष्णपक्षी उपजतो रे ? गुणचालीस पूछतो रे ।। एक समय प्रभु ! केतला रे ९. तेजुले किता ऊपजै रे, किता इम जिम रत्नप्रभा विषे रे, प्रश्न १०. उत्तर प्रभु मिहिन दियो रे, इत्थि वेद पिए अपने रे, वरं विशेष कहतो रे। पुरिस-वेद उपजंतो रे ।। * लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे १४० भगवती जोड़ १. प्रथमोद्देशके नारका उक्ताः द्वितीये त्वोपपातिकत्वसाम्पवा] उच्यन्ते । (बु.प. ६०१ ) २. कतिविहाणं भंते ! देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! चउव्विहा देवा पण्णत्ता, त जहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया । ( गं. १३।२४ ) ३. भवणवासी णं भंते! देवा कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा -अनुरकुमारा - एवं भेओ । ४. जहा बितियसए देवद्देसए (२।११७) जाव अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धगा । (स. १३२५) ५. केवतिया णं भंते! असुरकुमारावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोषमा! चोपड पण्णत्ता । ६. ते णं भंते! किं संखेज्ज वित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोमा ! सखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि । (श. १३/२६ ) अमुरकुमारावाससय सहस्सा ७. जंबुद्दीवसमा खलु भवणा जे हुंति सव्वखुड्डागा । संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेज्जा ॥ (बु. प. ६०२,५०३) भंते! असुरकुमारावासवसहमे संवत् असुरकुमारावासे एसमए केवतिया असुरकुमारा उववज्जंति ? ९. जाव केवतिया तेउलेस्सा उववज्जंति ? केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जंति ? एवं जहा रयणप्पभाए तव पुच्छा । १०. तहेव वागरणं, नवरं दोहि वेदेहि उववज्जंति । 'दोहिवि वेदेहि उववज्जंति त्ति द्वयोरपि स्त्रीवेदयत्तयोरेव तेषु भावात् । (बृ. प. ६०३ ) ८. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. नपुंसक वेद न ऊपजै रे, शेष सर्व तिमहीजो रे । नीकलवो दिन तेहनों रे, तिपहिज रीत कहीजो रे ।। १२. गवरं असन्नी नीकले रे, एकेंद्रिय में आयो रे । असुर भी ने ईशान नों रे, चव एकेंद्रिय थायो रे ।। १३. अवधिज्ञानी अवधिदर्शनी रे ए पिण निकले नाही रे । असुर थी न ह सीर्थकरा रे शेष सर्व तम भाई रे ।। १४. सत्ता अनुरकुमार में रे, जिन तिपहिज विध कहियो सहरे १५. संख्याता योजन नां छै ते भणी रे, इत्थोवेदगा संख्यातो रे । संख्याता वेदरे, वेद नपुंस न परे ॥ उदय किवार न होयो रे । एक दोय तोन जोयो रे ।। १६. क्रोधकपाई हुवै कदा रे, जो हो तो जय श्री रे, को प्रथम उद्देगो रे । व इतरी विशेष रे ।। १७. उत्कृष्ट संख्याता कया रे, प्रवल उदय में वर्ततां रे ते १८. लोभकपाई संख्याता कहा रे, इमहिन मान रुमायो रे । आधी कहियायो रे ।। सर्व देवता मांच्यो रे । प्रबल लोभ वर्त्तता घणां रे, शेष तिमज कहिवायो रे || १६. उत्पत्ति निकलवो सत्ता विषे रे, कृष्णादिक ने आदि दे रे, त्रिहुं गमे अवदातो रे । चिलेशी संख्यातो रे ।। विस्तारवंत मभारो रे । २०. इम असंख्याता योजन तणो रे, संखेज्ज योजन नैं विषे कह्यो रे, तिमहिज कहिवो विचारो रे ।। २१. गवरं तीन आलावा विरे असंख्याता कहिवायो रे । जाय असंख्याता कया रे, अचरम गमे वायो रे ।। २२. हे प्रभु ! नागकुमार नां रे, कितला लक्ष जावासा रे ? इम जाँव थणियकुमार नां रे, तोन आलावा उजासा रे ॥ २३. वरं इतरो विशेष छे रे, जेह निकाय रे मांयो रे । जेतला लक्ष भवन कह्या रे, तेह आवास कहिवायो रे ।। सोरठा २४. असुर त अवधार, भवन लक्ष चौसठ कया । लक्ष चउरासी सार, नागकुमार व अच्छे | ११. नपुंगवेयगा न उववज्जंति, सेसं तं चेव । उव्वतग वि तहेव । १२. नवरं असण्णी उब्दट्टति । 'असण्णी उपति' ति अनुरादीशानान्तदेवानामसज्ञिष्वपि पृथिव्यादिपूत्पादात् । (बृ. प. ६०३) १३. ओहिनाणी ओहिदंसणी य ण उव्वति, सेसं तं चेवा 'ओहिनाणी ओहिदंसणी यन उव्वट्टति' त्ति अनुरागीकरादित्यालाभातृ तीर्थंकरादीनामेवाधिमतावृत्तं । (बृ. प. ६०३) १४. पण्णत्तएस तहेव, नवरं 'बब' ति 'प्रवतकेषु प्रशप्तपदीपक्षितगमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव यथा प्रथमोद्देशके । (बृ. प. ६०३ ) १५. संखेज्जगा इथिवेदगा पण्णत्ता एवं पुरिसवेदगा वि, नपुंगवेदगा नत्थि | १६. कोहकसाई सिय अत्थि सिय नत्थि । जइ अस्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिष्णि वा । I 'कोहकसाई' इत्यादि क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत उक्तं 'सिय अत्थी' त्यादि । ( वृ. प. ६०३ ) १७. उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता एवं माणकसाई, मायकसाई । १८. संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं चैव । लोभवन्तस्तु सादिका अत उत 'सेज्जा लोभकसाई पन्नत्त' त्ति । (बृ. प. ६०३ ) १९. तिसु वि गमएसु चत्तारि लेस्साओ भाणियव्वाओ । 'उति उति पन्नत्ता' इत्येव लक्षणेषु त्रिपि गमेषु चतस्रो लेश्यास्तेजोलेश्यान्ता भणितव्याः, एता एवं हि अरकुमारादीनां भवन्तीति । (पु. प. ६०३) २०. एवं असं २१. नवरं तिसु वि गमएस असंखेज्जा भाणियव्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । (श. १३/२७ ) २२. केवतिया णं भंते ! नागकुमारादाससय सहस्सा पण्णत्ता ? एवं जाव थणियकुमारा । २३. नवरं - जत्थ जत्तिया भवणा । (श. १३/२८ ) ' जत्थ जत्तिया भवण त्ति यत्र निकाये यावन्ति भवन लक्षाणि तत्र तावन्त्युच्चारणीयानि । (बु. प. ६०३) २४, २५. चउसट्टी सुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावन्तरि कणगाणं वाउकुमाराण छन्नउई ॥ (५. प. ६०३) श० ११, उ० २. ढा० २७५ १४१ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. वर बोहितर लाख, सुवर्णकुमार ने कहा। वायू तणे सुशाख, भवन लक्ष छिन्न अछै ।। २६. द्वीप रु दिशाकुमार, उदधी विज्जू अग्नि फुन । २६. दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिदथणियमग्गीणं । थणित बिहु मिल धार, लक्ष छीहतर जाणवा ।। जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयराहस्सा ।। व्यन्तर देवों की पृच्छा-- (वृ. प. ६०३) २७. *हे प्रभु ! वाणव्यंतर तणां रे, केतला लक्ष आवासा र? २७. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा श्री जिन भाखै गोयमा ! रे, लक्ष असंख प्रकासा रे ।। पण्णता? गोयमा! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पण्णत्ता २८. ते प्रभु ! स्य संख्यात नां रे, योजन विस्तारवंतो रे । २८. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जअथवा असंख योजन तणां रे ? भाखै तब भगवंतो रे ।। वित्थडा? २६. संख्याता योजन तणां रे, विस्तारवंत विमासो रे। २९. गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा । असंख्याता योजन नहीं रे, नगर तिकेज आवासो रे ।। (श. १३।२९) सोरठा ३०. जंबुद्वीप प्रमाण, नगर कह्या उत्कृष्ट थी। ३०. जंबुद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा। जघन्य भरत सम जाण, मज्झिम विदेह समान छै ।। खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मझिमगा ।। (वृ. प. ६०३) वा०-संखेज्जेस णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति? इहां घणां लाख आवासा कह्या । ते असंख्याता लाख जाणवा, पूर्व असंख्याता लाख कह्या छै ते माट। ३१. *प्रभ ! संख्याता योजन तण रे, बह लक्ष व्यंतर आवासे रे। ३१. संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एक समय किता व्यंतरा रे, उपजै? स्वाम प्रकासे रे ।। एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति ? ३२. इम जिम असुर तणां जिके रे, संख योजन विस्तारो रे । ३२. एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि तीन गमा तेहनां कह्या रे, गमगा तहेव भाणियव्वा वाणमंतराण वि तिण्णि तिम त्रिण गमा व्यंतर नां धारो रे ।। गमगा। (श. १३।३०) ज्योतिषी देवों की पृच्छा३३. केतला प्रभु ! ज्योतिषी तणां रे, विमाणावासज लक्षोरे ? ३३. केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा जिन कहै असंख विमाण छ रे, ए आवास लक्ष प्रत्यक्षो रे ।। पण्णता? गोयमा! असंखेज्जा जोइसियविमाणाबाससयसहस्सा पण्णत्ता। ३४. स्यं प्रभु ! तेह विमाण छै रे, संख विस्तारज चीनो रे । ३४. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा? जिम व्यंतर नां तीन गमा कह्या रे, एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वि तिण्णि तिम जोतिषी नांगमा तीनो रे।। गमगा भाणियब्बा। वा० --एक जोजन नां ६१ भाग कीजै । ते मांहिला ५६ भाग चंद्रमा रो वा०-'एगसठिभागं काऊण जोयण' मित्यादिनां ग्रन्थेन विमाण । ४८ भाग सूर्य रो विमाण इत्यादिक ग्रन्थ करिकै प्रमाण जाणवो । प्रमातव्याः । (वृ. प. ६०३) ३५. णवरं ऊाजवा विषे रे, व्यंतर नैं चिउं लेगो रे। ३५. नवरं—एगा ते उलेस्सा । इहां तेजुलेशी ऊपजै रे, ए उत्पत्ति समय विशेषो रे ।। 'नवरं एगा ते उलेस्स' ति व्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टय मुक्तमतेष तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या। (वृ. प. ६०३) ३६. वलि उपजवा ने सत्ता विष रे, असन्नी तणो निखेदो रे। ३६. उबवज्जतेस पण्णत्तेसु य असण्णी नत्थि, सेसं तं चेव । शेष विस्तार कहिवो सहू रे, व्यंतर जेम संवेदो रे ॥ (श. १३।३१) *लय : राज पानियो रे करकंड कंचनपुर तणो रे १४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. एवं जहा उववाओ "जोइसिय-वेमाणियाणं चयणेणं अभिलावो कातव्वो। (पण्ण. ६।६९) सोरठा ३७. 'पन्नवण छठे जान, जोतिषी वैमानीक नैं। उद्वर्तन में स्थान, चवन शब्द कहि कहो।। ३८. इहां ए आख्यो नांहि, पिण पन्नवण थी जाणज्यो। चवन जोतिषी मांहि, उद्वर्तन नै स्थान छै॥' [ज.स.] वैमानिक देवों की पृच्छा३६. *हे प्रभु! सौधर्म कल्प में रे, कितरा लक्ष विमाणो रे ? जिन कहै लक्ष बत्तीम छ रे, तेह आवासा जाणो रे ।। ४०. ते प्रभु ! जोजन संख्यात नांरे, के असंख योजन विस्तारो रे? जिन कहै योजन संखेज्ज ना रे, असंख जोजन पिण सारो रे।। वि। ३९. सोहम्मे णं भते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससय सहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससपसहस्सा पण्णत्ता । ४०. ते णं भंते ! कि संखेज्जबित्थडा? असंखेज्ज वित्थडा? गोयमा! संज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा (श. १३।३२) ४१. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसाए विमाणावाससय सहसेसु संखेज्जवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं ४२. केवतिया सोहम्मा देवा उवबज्जति ? केवतिया तेउलेस्सा उववज्जति ? ४३. एवं जहा जोइसियाणं तिण्णि गमगा तहेव तिण्णि गमगा भाणियव्वा । ४४. नवरं-तिसु वि संखेज्जा भाणियव्वा, ओहिनाणी ओहिदसणी य चयावेयब्वा । ४१. हे प्रभु ! सौधर्म कल्प में रे, लक्ष बतीस विमाणो रे। संख योजन नां विमाण में रे, एक समय में जाणो रे ।। ४२. एक समय प्रभु ! केतला रे, सौधर्म सुर उपजतो रे? तेजलेशी केता ऊपजै रे? इत्यादिक सूवतंतो रे ।। ४३. इम जिम जोतिषी नै विषे रे, कह्या आलावा तीनो रे । तिम इहां तीन आलावगा रे, भणवा सखर सुचीनो रे ।। ४४. णवरं तीनइं गमा विषे रे, भणवा छै संख्यातो रे। अवधिज्ञानी अवधिदर्शनी रे, चवायवा विख्यातो रे ।। सोरठा ४५. सौधर्म थकी सुहाय, तीर्थंकरादिक ह चवी। ते संख्याता थाय, अवधिज्ञानी अवधिदर्शणी ।। ४६. संख्याता इज सोय, तीर्थकरादिक ऊपजै। अवधि युगल अवलोय, वृत्ति विष इम आखियो ।। ४७. *शेष सर्व तिमहीज छै रे, ज्योतिषी जेम बहेवो रे । ज्योतिषी थी न तीर्थकरा रे, तिणसं अवधि युगल न चवेवो रे ।। ४८. असंख्यात विस्तार में रे, तीन गमा इमहीजो रे । णवरं तीनइ गमा विषे रे, बोल असंख्याता कहीजो रे ।। ४६. अवधिज्ञानी अवधिदर्शणी रे, तेह चवै संख्यातो रे। तीर्थकरादिक ऊपजै रे, संख्याताज विख्यातो रे ॥ ५०. शेष सर्व तिमहीज छ रे, सौधर्म वारता आखी रे । तेम ईशाण कल्प विष रे, आलावा पट साखी रे ।। ४५,४६. सौधर्मसूत्रे 'ओहिनाणी' ततश्च्युता यतस्तीर्थ करादयो भवन्त्यतोऽवधिज्ञानादयश्च्यावयितव्याः 'ओहिनाणी ओहिदसणी य संखेज्जा चयंति' त्ति संख्यातानामेव तीर्थकरादित्वेनोत्पादादिति । (वृ. प. ६०३) ४७. सेसं तं चेव। ४८. असंखेज्जवित्थडेसु एवं चेव तिणि गमगा नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा । ४९. ओहिनाणी ओहिदसणी य संखेज्जा चयंति । ५०. सेसं तं चेव । एवं जहा सोहम्मे वत्तब्बया भणिया तहा ईसाणे वि छ गमगा भाणियब्वा । सोरठा ५१. संख्याता नां तीन, तीन असंख्याता तणां। ए षट गमा सुचीन, सौधर्म तिम ईशाण नां ।। *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपर तणो रे ५१. 'छ गमग' त्ति उत्पादादयस्त्रयः संख्यातविस्तृतानाश्रित्य अत एव च त्रयोऽसंख्यातविस्तृतानाश्रित्य एवं षड़ गमाः । (वृ. प. ६०३) श०१३, उ०२, ढा० २७५ १४३ Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. सगंकुमारे एवं चेव, नवरं- इत्थीवेयगा उववज्जतेसु पण्णत्तेसु य न भण्णति । ५३. 'नवरं इत्थिवेयगे' त्यादि, स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते न च सन्ति उद्वत्तौ तु स्युः । ५२. *इमहिज सनतकुमार में रे, णवरं विशेष कहाई रे। स्त्री वेदे नहि ऊपजै रे, सत्ताए पिण नाही रे ॥ सोरठा ५३. सनत्कुमार थकीज, चवन तणां समया विषे । इत्थी-वेद कहीज, उत्पत्ति सत्ताए नथी ।। ५४. * असन्नो तोनई गमे नथो रे, सनतकुमार नां देवो रे। एकेंद्री में नहि ऊपजै रे, शेष तिमज सह भेवो रे ।। वा-सर्व देवता थकी नीकली एकेंद्रिय बिना असन्नी हुवैज नथी । अनै भवनपति, व्यंतर, जोतिपी, प्रथम-दूजा देवलोक नां देवता चवी असन्नी में ऊपजै ते एकेंद्रिय में हीज ऊपजै। तेह थकी नीकली असन्नी हुवै, इम कह्यो। सनतकुमारादिक थी चवी एकेंद्रिय पिण न हुवै ते भणी असन्नी न हुवै, इम कह्य। ५५. एवं जाव सहस्सार नै रे, तिथंच उत्पत्ति होयो रे । तीनं असंख गमा विषे रे, असंख्याता इम जोयो रे ।। ५४. असपणी तिसु वि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव। बा०-'असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नइ' त्ति सनत् कुमारादिदेवानां सज्ञिभ्य एवोत्पादेन च्युतानां च सजिष्वेव गमनेन गमत्रयेष्वसज्ञित्वस्याभावादिति । (वृ. प. ६०३) ५५. एवं जाव सहस्सारे, ‘एवं जाव सहस्सारे' त्ति सहस्रारान्तेषु तिरश्चामुत्पादेनासंख्यातानां विष्वपि गमेषु भावादिति । ५६. नाणतं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव । (श० १३।३३) ५६. कल्प विमान लेखा विषेरे, नानापणो सलहोजो रे । लेश्या विमान छ जूजुआ रे, शेष सर्व तिमहीजो रे ।। सोरठा ५७. बत्तीस अट्ठावीस, आदि विमाने भेद जे। ___ग्रंथे करी कहीस, लेश्या में पिण भेद इम ।। ५८. तेजू सुधर्म ईशाण, तृतीय तुर्य पंचम पदम । आगल शुक्ल पिछाण, सूत्र विषे ए वारता ।। ५६. वृत्ति विषे इम वाय, सुधर्म नैं ईशाण में । तेज् लेश्या पाय, तृतीय कल्प तेज पदम ।। ६०. पद्म तुर्य कल्पेह, पद्म शुक्ल पंचम कलप । छठे शुक्ल कहेह, परम शुक्ल महाशुक्र थी ।। वा.----उत्तराध्ययने चउतीसमें अज्झयणे (३४१४१-४७) नारकी, तिर्यंच, मनुष्य नी लेश्या नी स्थिति कही । हिवै भवनपति प्रमुख देवों नी लेश्या स्थिति कहै छ--कृष्ण लेश्या नी स्थिति जघन्य १० हजार वर्ष, उत्कृष्ट पल्य नों असंख्यातमो भाग। नील लेण्या नी जघन्य स्थिति उत्कृष्ट कृष्ण नी स्थिति थकी एक समय अधिक अनै उत्कृष्ट स्थिति पल्य नों असंख्यातमों भाग । ५७. 'बत्तीसअटठवीसे' त्यादिना ग्रन्थेन समवसेयं, लेश्यासु पुनरिदं (वृ० प०६०३) ५८. वे माणियाणं पुच्छा' गोयमा! तिण्णि, तं जहा-- ते उलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा । (पण्ण० १७१५४) ५९,६०. तेऊ तेक तहा तेउ-पम्ह पम्हा य पम्हसुक्का य । सुक्का य परमसुक्का सुक्काइविमाणवासीणं ।। (वृ० प० ६०३) वा० --दसवाससहस्साई किण्हाए ठिई जहन्निया होइ । पलियमसंखिज्जइमो उक्कोसा होइ किण्हाए । (उत्त०३४।४८) कापोत नी जघन्य स्थिति उत्कृष्ट नील नी स्थिति ऊपर एक समय अधिक अनै उत्कृष्ट स्थिति पल्य नों असंख्यातमों भाग । जा किण्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमभहिया। जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं तु उक्कोसा ।। (उत्त० ३४१४९) जा नीलाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा ।। _ (उत्त० ३४.५०) दवाससहस्साई तेऊए ठिई जहन्निया होई । दण्णदही पलिओवम असंखभागं च उक्कोसा ।। (उत्त० ३४१५३) तेजू लेण्या नी जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष नी, उत्कृष्ट दोय सागर नै पल्य नो असंख्यातमों भाग अधिक । *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे १४४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म लेश्या नीं जघन्य स्थिति तेजू नीं उत्कृष्ट स्थिति थी एक समय अधिक अन उत्कृष्ट दश सागर नैं मुहूर्त्त अधिक । शुक्ल लेश्या नीं जघन्य स्थिति पद्मनीं उत्कृष्ट स्थिति थी एक समय अधिक अनै उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर ऊपरं मुहूर्त अधिक । ए उत्तराध्येन में कहा । पन्नवणा पद चोथे देव स्थिति कही― तिहां भवनपति नीं जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष भने उत्कृष्ट साधिक एक सागर । व्यंतर नी स्थिति जघन्य दश हजार वर्ष अने उत्कृष्ट एक पल्योपम । ज्योतिषी नीं स्थिति जघन्य पल्य नों आठमों भाग अर्ने उत्कृष्ट एक पल्य नैं लाख वर्ष अधिक । हि वैमानिक में प्रथम कल्पे जघन्य एक पल्य, उत्कृष्ट वे सागर । द्वितीय कल्पे जघन्य एक पल्य जाभी, उत्कृष्ट बे सागर जाझी । तृतीय कल्पे जघन्य बे सागर, उत्कृष्ट सात सागर । चोथे कल्पे जघन्य दो सागर जाभी, उत्कृष्ट सात सागर जाभी । पंचम कल्पे जघन्य सात सागर, उत्कृष्ट दस सागर । इम अनुक्रमे सर्वार्थसिद्ध में अजघन्योत्कृष्ट तेतीस सागर स्थिति । अन उत्तराध्ययने तेजु नीं उत्कृष्ट स्थिति दोय सागर नै पल्य नों असंख्यातमों भाग अधिक कही अनैं दूजे देवलोके साधिक बे सागर नों आउखो छँ तिहां तेजुलेश्या कही छ । तेहथी एक समय अधिक जघन्य पद्मनीं स्थिति जोइये, इण वचने तीजे देवलोके जघन्य वे सागर नीं स्थिति, तिहां तेजु सम्भवे। अने सूत्रे पद्म कही, ते बहुलपणां नी अपेक्षाय जणाय छे। एहवं न्याय विचारी वृत्ति में तीजे देवलोके तेजुलेश्या प्राचीन गाथा में कही अन ते गाथा में पंचमें देवलोके पद्म, शुक्ल कही अन सूत्र मैं विषे पद्महीज कही। उत्तराध्ययने अज्भयण ३४ में पद्म नीं उत्कृष्टि स्थिति दश सागर मुहूर्त्त अधिक कही अ पंचमें देवलोके उत्कृष्ट दश सागर नीं स्थिति कही ते माटै पंचम कल्पे पद्म हुवै । अनैं वृत्ति में शुक्ल पिण गाथा में कही, तेहनीं विचारणा तेहिज जाणे । सूत्र सूं मिलै ते सत्य अ न मिले ते विरुद्ध इहां शिष्य पूछे - स्वामीनाथ ! पन्नवणा पद १७ उद्देशे ३ में कह्यो - नारकी, देवता जे लेश्या में ऊपजै, ते लेश्या में हीज नीकले अर्ने इहां उत्तराध्ययने (३४।४८, ५३) कृष्ण नीं तथा तेजु नीं जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष नीं कही। पूर्व उत्तर भव नां वे अंतर्मुहूर्त किम प्रमाण ? तेहिज लेश्या हुवै तो ए बे अंतर मुहूर्त अधिक फिन नका? गुरु हे तिहां उत्तराध्ययने (२४१४०) हं क नारक, तिथंच मनुष्य नीं लेश्या नीं स्थिति तो कही। हिवै भवनपत्यादिक देवलेश्या जा तेऊए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमन्भहिया । जहनेणं पापसमूहसहियाई व उनकोसा || (उत्त० २४०५४) जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहनेणं सुक्काए तेत्तीस मुहुत्तमम्भहिया ॥ (उत्त० ३४ । ५५) भवणवासीणं भंते ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं । (०४०३१) वाणमंतराणं भंते! जहणे दस बाखसहस्ताई, उक्कोसेणं पलिओवमं । (पास ०४१६५) जोइसियाणं भंते ! जहरमेणं पतित्रोवमभावो उस्को पनिजोम वा हस्तमन्नहि ATOR (०० ४१७१) सोहम्मे णं भंते ! जहणं परिजो उनको सेणं दो सागरोवमाई । (प० ४।२१३) ईसाणे.... पाहणेणं सातिरेगं पतिजीवम उनकोसे सातिरेगाई दो सागरोवमाई । (०४१२२५) सणकुमारे.... जहण्णेणं दो सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई | (40070 21276) माहिदे .... जहणेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई, उस्को सत साहियाई सागरीमाई । (पण ० ४१२४०) गंभलीए.... जहष्येणं सप्त सागरोवमाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई | (०४१२४३) सभ्यसिद्धगदेवाणं भते ! ....अजहण्णमक्कोसे तेत्तीस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । (पण्ण० ४।२९७ ) ........ ..... .... ******** श० १३, उ० २ ० २७५ १४५ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नी स्थिति कहै छै--ते माट तिहां कृष्ण तथा तेजु नी जघन्य दश हजार वर्ष जे देवपण वत्तँ, तेहिज लेखवी । पिण पूर्व उत्तर भव नी लेश्या न लेखवी। तब वलि शिष्य पूछ-- जो इम छै तो पद्म नी उत्कृष्ट स्थिति दश सागर मुहर्त अधिक किम कही ? गुरु कहै--ए पूर्व उत्तर भव ना बे अंतर्मुहर्त नो मुहूर्त काल देव सम्बन्धिनी लेश्या में हीज लेखव्यो छ। तब शिष्य पूछ ----भगवान ! जे पूर्व उत्तर भव नै विषे लेश्या आवै ते देव संबंधिनी किम लेखविय ? तेहनों उत्तर-अनुयोगद्वारे जाणग-शरीर-भविय-शरीरव्यतिरक्त त्रिविध द्रव्य शंख कह्या-एकभविक द्रव्य शख, बद्धायुष्क शंख और अभिमुखनामगोत्र शंख । तिहां नंगम, संग्रह और व्यवहार नय नै मते तीन इहां शंख छ । ऋजुसूत्र नय नै मते बद्धायुष्क अनै अभिमुखनामगोत्र ए शंख बंछ । त्रिण शब्द नय नै मते जे शंख में ऊपजवा सन्मुख थयो ते अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण अभिमुखनामगोत्र शंख कहिये, तेहन वंछ। तिम मनुष्य अन तिर्यंच पंचमें देवलोके ऊपजतां छेहड़े अंतर्महर्त काल प्रमाण तेहनै अभिमुखनामगोत्र देव कहिय । तेहनी पद्म लेश्या ते देवसम्बंधिनी लेश्या कहियै । इम पंचमां देवलोक थकी चवी मनुष्य तिर्यंच में ऊपजै तेहनै अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण पद्म लेश्या हुवै । ते पिण देव लेश्या देवसम्बंधिनी जाणवी । इण न्याय पद्म नी स्थिति दस सागर महर्त्त अधिक कही। पन्नवणा पद २३ में दूजे उद्देशे सू० ७८ में नारकी ना आउखा-कर्म नीं स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष नै अंतर्मुहूर्त अधिक कही । ते अंतर्मुहूर्त थाकते पूर्व भव नै विषे आउखो बांध्यो, ते लेखव्यो। तिम इहां पद्म लेश्या नी स्थिति दस सागर मुहूर्त अधिक कहो, ते पूर्व उत्तर भव नां बे अन्तर्महतं में पद्म लेश्या आवै ते लेखवी । (ज० स०) ६१. *आणत पाणत कल्प में रे, किता सैकडां विमाणो रे ? श्री जिन भाखै च्यार सौ रे, तेह आवासा जाणो रे ।। जाणगसरीर - भवियसरीर - वतिरित्ता दव्वसंखा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - एगभविए बद्धाउए अभिमुहनामगोत्ते य ....इयाणि को नओ के संखं इच्छइ? नेगम-संगह-बवहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा-एगभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च । उज्जुसुओ दुविह संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च अभिमुहनामगोतं च। तिण्णि सद्दनया अभिमुहनामगोत्तं संख इच्छंति । (अणु० सू० ५६८) ६२. ते प्रभु !संख योजन तणां रे, के असंख योजन विस्तारो रे? जिन कहै योजन सख नां रे, असंख योजन पिण सारो रे ।। ६१. आणय-पाणएसु णं भते! कप्पेसु केवतिया विमाणा वाससया पण्णता? गोयमा! चत्तारि विमाणावाससया पण्णत्ता। ६२. ते ण भने !कि संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि । ६३. एवं संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा जहा सहस्सारे, ६४. असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु चयंतेसु य एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा, ६३. संख्याता विस्तार में रे, तीन गमा अवदातो रे। जिम सहस्सार विषे कह्या रे, कहिवा तिम संख्यातो रे ।। ६४. असंख विस्तार विषे वली रे, संख्याता उपजतो रे । संख्याताज चवै अछ रे, तसु न्याय सुणो धर खंतो रे ।। सोरठा ६५. आणत प्रमुख रै माय, सन्नी मनुष्यज ऊपजै । चव्या सन्नी मनु थाय, तिण संख्याता कह्या ।। ६६. इण कारण थी जोय, समय करी संख्यात नों। ऊपजवो तसु होय, चववो पिण संख्यात नों। ६५,६६. आनतादिसूत्रे 'सखेज्जवित्थडेसु' इत्यादि, उत्पादेऽवस्थाने च्यवने च संख्यातविस्तृतत्वादविमानानां संख्याता एव भवन्तीति भावः, असंख्यातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः संख्याता एव, यतो गर्भजमनुष्येभ्य एवानतादिषूत्पद्यन्ते ते च संख्याता एव, तथाऽऽनतादिभ्यश्च्युता गर्भजमनुष्येष्वेवोत्पद्यन्तेऽतः समयेन संख्यातानामेोत्पादच्यवनसम्भवः, (वृ० ५० ६०३,६०४) *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे १४६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. *सत्ता आश्री तेहनै विषे रे, असंख्याता इमहंतो रे। इक सुर जीवित काल में रे, असंख देव उपजतो रे ।। ६७. पण्णत्तेसु असंखेज्जा, अवस्थितिस्त्वसंख्यातानामपि स्यादसंख्यातजीवितत्वेनैकदैव जीवितकालेऽसंख्यातानामुत्पादादिति । (वृ० १० ६०४) ६८. नवरं-नोइंदियोवउत्ता । ६९. अणंत रोववण्णगा अणंतरोवगाढगा ७०. अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा य ७१. एएसि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्को सेणं संखेज्जा पण्णत्ता, ६८. णवरं इतरो विशेष छै रे, नोइंदियोवउत्ता संगीतो रे । द्रव्य इंद्रिय तेहनें नहीं रे, भावे मन सहीतो रे ।। ६६. एक समय थयो ऊपानां रे, अनंतरोववन्नगा तेहो रे । क्षेत्र अवगाह्यां एक समय थयो रे, अनंतरोवगाढा जेहो रे ।। ७०. आहार लियां मैं एक समय थयो रे, तेह अनंतर-आहारा रे। पर्याय बांध्यां ने एक समय थयो रे, अनंतर-पज्जत्त विचारा रे ।। ७१. ए पांचू पद नैं विषे रे, जघन्य एक बे तीनो रे। उत्कृष्ट संख्याता ऊपजै रे, एक समय में सुचीनो रे ।। सोरठा ७२. संख्याता इज सोय, सन्नी नर तिहां ऊपजै । उत्पत्ति अवसर जोय, संख्याता इज पंच ए॥ ७३. *शेष बोल पांच विना रे, सत्ता विषे असंख्याता रे । ए आवासा असंख विस्तार ना रे, तिण सूं असंख आख्याता रे ।। ७४. इमज आरण अच्च नै विषे रे, आणत पाणत जेमो रे । विमाण विषे नानापणो रे, ग्रैवेयक पिण एमो रे ।। अनुत्तर विमान के देवों की पृच्छा ७५. प्रभु ! अणुत्तर विमाण किता कह्या रे? जिन कहै पंच उदारा रे। स्यूं संख्यात योजन तणां रे, तथा असंख विस्तारा रे ? ७३. सेसा असंखेज्जा भाणियव्वा । ७४. आरण-अच्चएसु' एवं चेव जहा आणय-पाणएसु, नाणत्तं विमाणेसु । एवं गेवेज्जगा वि । (श० १३।३४) ७६. जिन कहै संख विस्तार में रे, बिचलो एक विमाणो रे। सर्वार्थ सिद्ध नाम छ रे, योजन लक्ष प्रमाणो रे ।। ७५. कति णं भंते ! अणुत्त रविमाणा पण्णत्ता? गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पण्णत्ता । ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्ज वित्थडा? ७६. गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य 'पंच अणुत्तरोववाइय' त्ति तत्र मध्यमं संख्यात विस्तृतं योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । (वृ०प०६०४) ७७. असंखेज्जवित्थडा य । (श० १३।३५) ७७. विजयादिक च्यारूं कह्या रे, असंख योजन विस्तारो रे । सर्वार्थसिद्ध न हिवै रे, गोयम प्रश्न उदारो रे ।। ७८. एक समय किता ऊपजै रे, सर्वार्थसिद्ध में देवा रे? शुक्ललेसी किता ऊपजै रे ? पूछा तिमज करेवा रे ।। ७६. जिन कहै संख विस्तार में रे, जघन्य एक बे तीनो रे । संख्याता उत्कृष्ट थी रे, उपजै देव सुचीनो रे ।। ७८. पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेस् संखेज्जवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया उववज्जति ? केवतिया सुक्कलेस्सा उववज्जति-पुच्छा तहेव । ७९. गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया उववज्जति, ८०. एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्जवित्थडेसु, नवरं-- ८०. जिम वेयक विमाण में रे, संख विस्तार मझारो रे । आख्यो तिम कहिवू इहां रे, णवरं विशेष विचारो रे ।। *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे श०१३, उ०२, ढा०२७५ १४७ Jain Education Intemational ucation Intermational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. कृष्णपक्षी अभवसिद्धिया रे, तीन अज्ञान रे माही रे । न ऊपजै नैं चवै नहीं रे, सत्ताए ८२. अरिमा पिग छोड़वा रे, ए पि जाव संख्याता चरम छै रे, शेष पिण नाही रे ॥ हिंग नाही रे । तिमज कहिवाई रे ।। वा०-- जेहने चरम - छेलो तेहिज अनुत्तर देव नो भव छं ते चरम । तेहथी अनेरी ते अचरम । ते अचरम सर्वार्थसिद्ध में नथी । जिण कारण थकी चरमहीज मध्यम विमान नैं विषे ऊपजै । ८३. असंख्याता विस्तार में रे, च्यार ए पाछै बोल कह्या तिके रे, त्रिहुं ८४. णवरं अचरमा पिण अछे रे, च्यार विमान में जाई रे । सौधर्मादिक भव करे रे, को परम पद' मांही रे ॥ अनुत्तर गमे नहि जोयो रे । होयो रे ।। ८५. शेष सेवेयक विकरे असंध योजन अवदातो रे । आख्यो तिमहिवो इहां रे, जाव अचरिम असंख्यातो रे ।। देवों में सम्यदृष्टि आदि को पुच्छा ८६. हे प्रभु! असुरकुमार नां रे, चौसठ लक्ष आवासो रे । संख योजन विस्तार में रे असुर आवासे तासो रे ॥ ८७. स्युं असुर समष्टि ऊपजे रे, के मिध्यादृष्टि उपजतो रे । इम जिम रत्नप्रभा विषे रे को तीन आलावा तो रे ।। इम तीन आलावा असुर नां रे, समष्टि नं धुर आलायो रे। मिथ्यादृष्टि न दूसरो रे, तीजो मदृष्टिनों भादो रे ।। ८. असंल योजन विस्तार में रे, तीन गमा इस पारी रे। जाव वैवेयक विमान में रे, इमहिज कहियो विचारी रे।। सोरठा ६०. 'असुरादिक रे मांहि, तीन दृष्टि आखी सत्ता । इम जाव ग्रैवेयक ताहि, तीन दृष्टि इण न्याय त्यां ॥ ६१. पिण जीवाभिगमेह, ग्रैवेयक वे में दृष्टि मिश्रदृष्टि वरजेह, दोय दृष्टि इण न्याय १२. संधक-परित कवित्त, जीव तणां ज्ञान दर्शन चारित, पज्जव अगुरुलघु ६३. च्यार शरीर सहीत, जीव तणां त गुरुलघु सहीत, एहवो न्याय । ह्वै । पजवा विषे । गुरुलघु ।। पर्याय छं । तिहां वृत्तौ ॥ १. पण्ण० प १५ सू० ११२ २. जयाचार्य ने जीवाभिगम सूत्र के आधार पर ग्रैवेयक देवों में दो दृष्टि बताई है। पर जैन विश्वभारती द्वारा मुद्रित जीवाजीवाभिगम में ग्रैवेयक देवों में तीनों दृष्टियां स्वीकार की हैं ( ३।११०५) । सम्भव है जयाचार्य को कोई ऐसा आदर्श उपलब्ध हुआ था, जिसमें दो दृष्टियों का उल्लेख रहा हो। उसके आधार पर कुछ थोकड़ों में भी ग्रैवेयक देवों में दो दृष्टियां मानी गई हैं । १४८ भगवती जोड़ ८१. अभयसिद्धिया तिसु अण्णा एए न उववज्जंति, न चयंति, न वि पण्णत्तएसु भाणियव्वा ८२. अचरिमा वि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तं चेव । aro - 'अरिमावि खोडिज्जति' त्ति येषां चरमोऽनुत्तरदेवभव स एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्ते च निषे धनीयाः यतश्चरमा एव मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति । (१०१०६०४) ८३. असंखेज्जवित्थडे वि एएन भण्णंति, ८४. नवरं अचरिमा अत्थि, 'नवरं अचरिमा अत्थि' त्ति पुनरुत्पद्यन्त इति यतो बाह्यविमानेषु ( वृ० ० प० ६०४ ) ८५. सेसं जहा गेवेज्जएस असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । (श० १३।३६) ८६. चोयटठीए णं भंते ! असुरकुमारावास सय सहस्सेसु अमराव ८७. कि सम्मद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति ? मिच्छदिट्टी असुरकुमारा उववज्जंति ? एवं जहा रयणप्पभाए तिणि आलावगा भणिया तहा भाणियन्त्रा । 'तिनि बालादर' नि सम्यगृदृष्टिमिध्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टिविषया इति । ( वृ० प० ६०४ ) ८९. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा, एवं जाव गेवेज्जविमाणे, ८८. ९२. ( भ० श. २०४६) ९३. अनन्ता गुरुलघुपर्याया औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य । (भ. वृ० प० ११९ ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. सिद्धां नां पर्याय, आख्या तास विष कह्यो। अनंत ज्ञान पजवाय, जाव अनंता अगुरुलघ ।। ६५. जाव शब्द रै मांहि, गुरुलषजवा आविया । ते सिद्धां में नाहि, पिण लाभ ते लीजियै ।। ६६. संलग्न पाठ मझार, अथवा यावत शब्द में। आख्या पाठ उदार, लाभ ते लीजै जिहां ।। ६७. तेम इहां पिण ताय, मिश्रदृष्टि जाव शब्द में। वेयक में पाय, पिण लाभ ते लोजिये ।। १८. तथा समामिच्छादिष्ट, नव नवेयक नै विषे। बहलपणे नहिं इष्ट, जीवाभिगम सिद्धांत में ।। ६६. किणहिक वेला थाय, जाव शब्द में ते गिणी। हवै इसो पिण न्याय, ते पिण जाणे केवली ।।' | ज० स०] १००. * इमज अनुत्तर विमाण में रे, णवरं तीन आलावे रे । मिश्र मिथ्या भणवी नथो रे, शेष तं चेव कहावे रे ।। देवों में लेश्या की पृच्छा १०१. हे भगवंत ! निश्चे करी रे, कृष्णलेणी अवलोई रे । नील लेश्यावंत ते थई रे, जाव शुक्ल लेश्यावंत होई रे ।। १०२. कृष्णलेशी सुर ने पिप रे, उपजै छै ते जीवो रे ? जिन कहै हंता गोयमा ! रे, इमहिज कहिवं अतीवो रे ।। १०३. इम जिम नारक नै विषे रे, प्रथम उद्देश आख्यो रे । भणवो तिण हिजरीत स रे, ए द्रव्य लेण अभिलाख्यो रे ।। १०४. नील लेश्या विषे ऊपज रे, जिभ नरके उपजतो रे । नील लेस्या नै विषेकह्यो रे, तिम कहिवं तज भ्रतो रे ।। १०५. जिम नील लेश्या में ऊपजव कह्यो रे, एवं यावत जाणी रे। पद्म लेस्या विप ऊपजै रे, इमहिज कहि पिछाणी रे॥ १०६. इमज शुक्ल लेस्या विष रे, ऊपजै ते संपेखो रे। णवरं इतरो विशेष छै रे, लेस स्थानक वह देखो रे ॥ १०७. विशुद्ध स्थानक जातो थको रे, विशुद्ध स्थानक में जायो रे । शक्ल लेश्या परिणमी करी रे, शुकालेशी सुर थायो रे ।। १०८. तिण अर्थे इम म्है कह्यो रे, यावत उपजै जेहो रे। सेवं भंते ! गोयम कहै रे, सेवं भंते ! तेहो रे ॥ १००. अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, नवरं-तिसु वि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य न भण्णंति, सेसं तं चेव। (श०१३/३७) १०१. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से जाब सुक्कलेस्से भवित्ता १०२. कण्हलेस्सेसु देवेसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! १०३. एवं जहेव नेरइएसु पढमे उद्देसए तहेव भाणियब्वं । १०४. नीललेस्साए वि जहेव नेरइयाणं, १०५. जहा नीललेस्साए एवं जाव पम्हलेस्सेसु, १०६. सुक्कलेम्सेसु एवं चेव, नवरं-लेस्सट्ठाणेसु १०७. विसुज्झमाणेसु-विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परि णमंति, परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जति । १०८. से तेणठेणं जाव उववज्जति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. १३/३९) सोरठा १०६. 'अन्य स्थानके अंक, नरकावासादिक जिके। योजन संख असंख, संख्या देखी तिम कहं ।। ११०. षट पंच त्रिण बे लक्ष, नरकावासा रत्न थी। पंकप्रभा लग वक्ष, संख्याता जोजन तणां ।। १११. साठ सहस्र महि धूम, वीस सहस्र तमा विषे॥ एक तमतमा ब्रूम, संख्याता जोजन तणां ।। *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे श०१३, उ०२,०२७५ १४९ Jain Education Intemational cātion Intemational For Private & Personal Use Onis Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२. चतुरबीस न बीस, द्वादश अठ लक्ष क्रम । रत्न थकी सुजगीस, असंख्यात जोजन तणां ।। ११३. धूमा बे लख धार, सहस्र चालीसज ऊपरै । छठी असी हजार, च्यार तमतमा असंख जो०' ।। ११४. छट्टी नारक मांहि, पंच ऊण इक लक्ष है। संख असंख में ताहि, ऊणा ते ज्ञानी बदै ।। ११५. आख्या नरकावास, जोजन संख असंख में। हिवै असुरादि विमास, दक्षिण दिश नां धुर कहूं ।। ११६. सप्तबीस लख सार, बीस सहस्र फुन संख जो। षट लख असी हजार, असंख्यात दक्षिण असुर ।। ११७. पंच तीस लक्ष धार, बीस सहस्र संख्यात जो। अठ लख असी हजार, असंखेज दक्षिण अहि ॥ ११८. तीस लक्ष सुविचार, सहस्र चालीस संखेज जो। सप्त लख साठ हजार, असंख्यात जोजन सुवन्न ।। ११६. लख बत्तीसं ख्यात, अष्ट लख जोजन असंख। विद्यत अग्नि विख्यात, द्वीप उदधि नैं फुन दिशा।। १२०. लख चालीस विचार, संखेज जोजन तणां। दश लख अधिक उदार, असंख्यात दक्षिण पवन ।। १२१. लख बत्तीस सुजोय, संख्याता जोजन तणां । अष्ट लख अवलोय, असंखेज दक्षिण थणी।। १२२. दक्षिण दिश नां देख, भवनपति दश ए कहा। उत्तर नां सुविशेख, कहियै छै ते सांभलो ।। १२३. च्यार बीस लख सार, संख्यात जोजन तणां । वर षट लक्ष उदार, असंखेज जोजन वलि ।। १२४. लख बतीस उदार, संख्यात जोजन तणां । असंख जोजन नां सार, अष्ट लख उत्तर अहि ।। १२५. सप्त बीस लख सार, बीस सहस्र संख्यात जो। षट लख असी हजार, असंखेज उत्तर सुवन्न ।। १२६. अष्टबीस लख ख्यात, असी सहस्र संख्यात जो। बीस सहस्र लख सात, असंखेज विद्यतादि पंच ।। १२७. लख बत्तीस विचार, असी सहस्र संख्यात जो। नव लख बीस हजार, असंखेज जोजन पवन ।। १२८. अठबीस लक्ष उदार, असी सहस्र संखेज जो। सप्त लख बीस हजार, असंख्यात जोजन थणिय ।। १२६. उत्तर दिश नां एह, भवनपति नां भवन जे। आगल कहिये एह, विमाण वैमानिक तणां ।। १३०. पवर लख पणबीस, साठ सहस्र संख्यात जो। षट लख सहस्र चालीस, असंखेज जो धुर कलप ।। १३१. लख बावीस उदार, सहस्र चालीस संखेज जो। पंच लख साठ हजार, असंख्यात ईसाण में । १. योजन २. नागकुमार ३. स्तनितकुमार १५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२. जोजन संख जगोस, नव लख साठ हजार ही। बे लाख सहस्र चालीस, असंख्यात जो तृतीय में। १३३. सखर लाख षट सार, सहस्र चालोस संखेज जो। इक लख साठ हजार, असख्यात माहिंद में ।। १३४. त्रि लख बीस हजार, संखेज जोजन तणां। असी सहस्र अवधार, असंख्यात जो० ब्रह्म में ।। १३५. सखर सहस्र चालीस, जोजन संख्याते कह्या । वर दश सहस्र जगीस, असंख्यात जो० लंतके ।। १३६. वर बत्तीस हजार, विमान जोजन संख नां । अष्ट सहस्र अवधार, असंखेज महाशुक्र में ।। १३७. च्यार सहस्र सुखकार, फून अठ सय संखेज जो०। द्वादश सय अवधार, असंख्यात जो० अष्टमे ।। १३८. त्रिण सय बीस संख्यात, असी विमान असंख जो० । आणत पाणते ख्यात, उभय विष ए च्यार सौ ।। १३६. आरण अच्युत माय, वे सय चालीस संख जो। साठ विमान सुहाय, असंख्यात जोजन तणां ।। १४०. ए सगलो अवदात, सूत्र विष तो छ नथी। अन्य स्थान थी ख्यात, प्रभू सिकारै सत्य ते ॥' (ज० स०) १४१. *शत तेरम उद्देशे दुसरे रे, दोयसौ पिचतरमी टालो रे । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश'मंगलमालो रे ।। त्रयोदशशते द्वितोयोद्देशकार्थः ॥१३॥२॥ ढाल २७६ २४ दण्डकों में आहार यावत परिचारणा १. द्वितीय उद्देशे देव नीं, कही वारता तंत। प्राये बहलपणे हुवै, सुर परिचारणवंत ।। २. ते माटै परिचारणा, तेह निरूपण अर्थ । कहिये तृतीय उद्देस हिव, वारू वयण तदर्थ ।। ३. हे भगवंत ! जे नारकी, उत्पत्ति क्षेत्रज पाय । प्रथम समय जे आहार लै, पाछै तनु निपजाय ।। १-२ अनन्तरोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्च प्रायः परि चारणावन्तः इति परिचारणानिरूपणार्थ तृतीयोद्देशकमाह (वृ० प० ६०४) ४. पन्नवण पद च उतीस में, परिचारण अभिधान । कहिवो इहां समस्त ही, ते इहविध पहिछाण ।। ३. नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा, ततो निव्वत्तणया, 'अणंतराहार' ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहार यन्तीत्यर्थः 'तो निव्वत्तणय' ति ततः शरीरनिर्वृतिः, (व०प०६०४) ४. एवं परियारणापदं निरवसेस भाणियव्वं । (श० १३/४०) 'एवं परियारणे' त्यादि, परिचारणापदं-प्रज्ञापनाया चतुस्त्रिंशत्तमं, तच्चैवम् (व० प० ६०४) *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे श० १३, 3०२,३ ढा० २७५,२७६ १५१ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. नरक समय धुर आहार ले J अंग प्रत्यंग करी पर्छ, रोम ६. पुद्गल ग्रहण किया इंद्रिय प्रमुखपणे तिहां, ७. पछे करें परिचारणा, विषय प्रतं ते अनुभव, पाछै तनु निपजाय । आहार ले ताय ॥ तिकै परिणत म तापछेत्रिय करें ? जिन प्रथम आहार यावत पर्छ, २. असुर आहार ले घुर समय, अंग प्रत्यंग करी पच्छे इंद्रियादिकपणें १०. पर्छ पाछे करे विकुर्वणा, ११. जिन कहै हंता गोयमा ! जाव करें परिचारणा, १२. वाऊ वरजी नें चिउं, कहियूँ नारक जेम ए. १३. वाऊ तिरि पंचेंद्रिय, कहि नारक जैम ए पर्छ परिणमावंत । ताम करत ॥ शब्दादिक नी जाण । यथाजोग पहिचान || ॥ धार । कहे गोयम ! हंत | वैश्रिय रूप करत ॥ पाछे तनु निपजाय । रोम आहार लै ताय ।। परिणमावै ते पकरी परिवार ? उससि समये आहार | इम सह देव विचार ।। त्रिहुं विकलेन्द्रिय ताहि । पिण निश्वं वैक्रिय नांहि ॥ सन्नी मनुष्य कहिवाय । छै वैकिय जे मांय । १४. वाणव्यंतर नैं जोतिषी, कहिया असुर तणी परे १५. इत्यादिक त्यां आखियो, वलि वैमानिक देव । ए पन्नवण भी भेव ।। समस्त कहियो जेह । तृतीय उद्देशक एह || त्रयोदशशते तृतीयाद्देशार्थः ।।१३।३।। वच, ॥ सेवं भंते ! सत्य १६. पूर्व कही परिचारणा, नरक प्रमुख ने होय । ते माई नरकादि नो, अर्थ नां, अर्थ कहूं हिव सोय ॥ नरक और नैरयिक- अल्प महत् पद १७. कही पृथ्वी प्रभु ! केतली, श्री जिन भावे सात यावत वली, अधो सप्तमी स्यात ॥ रत्नप्रभा १. इस प्रसंग में कुछ प्रतियों में निम्नलिखित दो द्वारगाथाएं उपलब्ध हैं१. नेरइय फास पणिही, निरयंते चेव लोयमज्झे य । दिसिविदिसाण य पवहा, पवत्तणं अत्यिकाहिं ॥ २.पा, धोवाहगवा य जीवमोगाढा अत्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोगसं ठाणे ॥ १५२ भगवती जोड़ ५. तओ परियाइयणया 'तओ परियाइयणय' त्ति ततः पर्यापानम् अंगप्रत्यंगैः समन्तादापानमित्यर्थः ( वृ० प० ६०४) ६. तओ परिणामणया 'तओ परिणामणय' त्ति तत आपीतस्य- उपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिविभावेन (बु०प०६०४) ७. तओ परियारणया 'तओ परियारणय' त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः ( वृ० प०६०४) ८. तओ पच्छा विउब्वणया ? हंता गोयमा इत्यादि । (१०० ६०४ ) ९-११ असुरकुमारा णं भंते ! अनंतराहारा तओ णिव्वतणया तओ परियाइयणया तओ परिणामतया तओ विव्वणया तओ पच्छा परियारणया ? हंता गोयमा ! असुरकुमारा अनंतराहारा तओ णिव्वत्तणया जाव तओ पच्छा परियारणया । एवं जाव थणियकुमारा । (०३४/२) १२.१३. पुढविक्काइया णं भंते! अनंतराहारा तओ णिव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तओ परियारणया तओ विउब्वणया ? हंता गोयमा ! तं चैव जाव परियारणया, णो चेव णं विउब्वणया । एवं जाव चउरिदिया, णवरं वाउक्काइया पंचेदियतिरक्खजोणिया मणुस्सा य जहा णेरइया । ( पण्ण० ३४ / ३) १४. वाणमंतर - जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । (पण० २४/४) १५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति । (१० १३/४१) १६. अनन्तशके परिचारणोस्ता सा च नारकादीनां भवतीति नारका प्रतिपादनार्थं चतुर्योकमा (बु०प०६०४) १७. कति णं भंते । पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयण(श० १३ / ४२ ) प्पभा जाव आहेसत्तमा । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *गोयम प्रश्न वीर नां उत्तर, सुणियै भविक सुजाण ।। (ध्रुपद) १८. हे भगवंत ! सातमी पृथ्वी, सर्वोत्कृष्ट पिछाण । १८. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पच अणुत्तरा महतिमहामोटा नरकावासा छै, यावत अपइट्ठाण ॥ महालया जाव (सं. पा.) अपइट्टाणे । १६. छट्ठी नां नरकावासा थी, नरक सातमी माय । १९. ते णं नरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए नरएहितो महत्तरा नरकावासा लांबपण करि, अति मोटा कहिवाय ।। चेव, 'महंततरा चेव' त्ति आयामतः (वृ०प०६०५) २०. महावित्थिन्नतरा निश्चै फून, अति मोटो विस्तार । २०. महावित्थिण्णतरा चेव, चोड़पण करिनै ए कहिवा, द्वितीय बोल ए धार ।। 'विच्छिन्नतरा चेव' ति विष्कम्भतः (वृ० प० ६०५) २१. महाअवकाशतरा फुन निश्चै, वंछित द्रव्य बहु जाण । २१,२२ महोगासतरा चेव, तेहने रहिवा योग्य क्षेत्र छ, ते अवकाश पिछाण ।। 'महावासतरा चेव' त्ति अवकाशो-बहूनां विवक्षित२२. महा अवकाशज जेह विषे ते, महाअवकाश कहाय । द्रव्याणामवस्थानयोग्य क्षेत्र महानवकाशो येषु ते अतिशय कर महा अवकाशा ते, महाअवकाशतराय ।। महावकाशाः अतिशयेन महावकाशा महावकाशतराः, (वृ०प०६०५) सोरठा २३. फुन ते महा अवकाश, महाजन संकीर्ण पिण हवै। २३. ते च महाजनसंकीर्णा अपि भवन्तीत्यत उच्यते इण कारण थी जास, पद चोथो कहियै हिवै ।। (वृ० ५० ६०५) २४. *महापतिरिक्कतरा फुन, बहु जन रहित ही स्थान । २४. महापइरिक्कतरा चेव, इतले स्थानक शुन्य बहु, त्यां नहि बहु नारक जान ।। 'महापइरिक्कतरा चेव' त्ति महत्प्रतिरिक्तं--विजन मतिशयेन येषु ते तथा, (वृ०प०६०५) २५. जिम छट्ठी में घणां जीव नै, हवै प्रवेश विशेष । २५. नो तहा महप्पवेसणतरा चेव, एम सातमी नारक माहै, नहि बहु जीव प्रवेश। 'नो तहा महापवेसणतरा चेव' त्ति 'नो' नैव 'तथा' तेन प्रकारेण यथा षष्ठपृथिवीनरका अतिशयेन महत् प्रवेशनं गत्यन्तरान्नरकगतो जीवानां प्रवेशो येषु ते सोरठा तथा, (वृ० प० ६०५) २६. तमा अपेक्षाय चीन, सप्तम पृथ्वी नै विषे । २६. षष्ठपृथिव्यपेक्षयाऽसंख्यगुणहीनत्वात्तन्नारकाणामिति, असंख्यात गुण हीन, प्रवेश नारक नों तिहां ॥ (वृ० प० ६०५) २७. *वलि छट्टी थी अति आकीर्ण, व्याप्त नारक करि नांहि । २७. आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, अणोमाणतरा __ कार्य करिवै नहिं अति आकुल, अति संकीर्ण न ताहि ॥ चैव । 'नो आइन्नतरा चेव, त्ति नात्यन्तमाकीर्णाःसंकीर्णा नारकः 'नो आउलतरा चेव, त्ति इतिकर्तव्यतया ये आकुला नारकलोकास्तेषामतिशयेन योगादाकुलत रास्ततो नोशब्दयोगः, किमुक्त भवति ? -'अणोमाणतरा चेव' त्ति अतिशयेनासंकीर्णा इत्यर्थः (व०प०६०५) वा०-नो तहा महाप्पवेसणतरा चेव आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, वा.-नोशब्द उत्तरपदद्वयेऽपि सम्बन्धनीयः, यत एव नो अणोमाणतरा चेव । इहां प्रथम पद नै विषे नो शब्द ते दूजा-तिजा पद विषे पिण महाप्रवेशनतरा अत एव "क्वचित्पुनरिदमेवं दृश्यते -- जोड़वो । किहायक बली चौथा पद नै स्थानके ए इम दीसै छै-अणोयणतरा चेव- 'अणोयणतरा चेव'---त्ति तत्र चानोदनतराः व्याकुलतेहनै विषे अनोदनतरा व्याकुल जन नां अभाव थी दतिशय करिक परस्पर नोदन- जनाभावादतिशयेन परस्परं नोदनवजिता इत्यर्थः वजिता इत्यर्थः । (वृ० प०६०५) २८. नरक सातमों ना चिउं आख्या, एहवा नरकावास । छठी पृथ्वी थकीज मोटा, वर्णन पूर्व प्रकास ॥ *लय : उस रघुपति के धर्म सुराजे श०१३, उ०४, ढा० २७६ १५३ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. तेह सातमों विष नारकी, नारक तम थी बाध । महाकर्म तेहनै अति कहियै, आयुवेदनी आद ।। ३०. महाक्रिया कायिकादिक नी, नरक तणां भव मांय । काया मोटी छै तिण कारण, महाक्रिया कहिवाय ।। २९. तेसु ण नरएसु नेरइया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव, 'महाकम्मतर' त्ति आयुष्कवेदनीयादिकर्मणां महत्त्वात् (वृ० प०६०५) ३०. महाकिरियतरा चेव, 'महाकिरियतर' त्ति काथि क्यादिक्रियाणां महत्त्वात् तत्काले कायमहत्त्वात् (व०प०६०५) ३१. महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, पूर्वकाले च महारम्भादित्वाद् अत एवं महाधवतरा इति (व०प०६०५) ३२. नो तहा अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, नो शब्दश्चेह प्रत्येक सम्बन्धनीयः 'पदचतुष्टय इति, ३१. महाआश्रव ते पूर्व भव में, महाआरंभी हुँत । तिण कारण ते नारकी भव में, महावेदनावंत ।। ३२. ए चिउं पद विपरीतपणे हिव, नो शब्द च्यारूंइ माय । नहिं तसु अल्प-कर्म अल्प-क्रिया, छट्ठी नी अपेक्षाय ।। ३३. अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, ३३. वलि छट्ठी नारक नी पेक्षा, आश्रव अल्पज नांहि । छट्टी नीं पर नहि अल्प वेदन, नरक सातमी मांहि ॥ ३४. अवधि आदि ऋद्धि थोड़ी जेहने, अल्प दीप्ति छ ताहि। अल्प शब्द ए अभाववाची, एम कह्य वृत्ति मांहि ।। ३४. अप्पिड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चेव , 'अप्पड्डियतर' त्ति अवध्यादिऋद्धेरल्पत्वात् 'अप्पज्जु इयतर' त्ति दीप्तेरभावात्, (व०प०६०५,६०६) ३५. नो तहा महिड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव । ३६. छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावास सयसहस्से पण्णत्ते। ३७. ते णं नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नरएहितो नो तहा महत्तरा चेव, महावित्थिण्णतरा चेव, ३८. महोगासतरा चेव, महापइरिक्कतरा चेव, ३५. नहि महाऋद्धि अवध्यादिक नी, तमा नारक जिम तेह । तेहनी पर महादीप्तवंत नहीं, नरक तमतमा जेह ।। ३६. छठी तमा पृथ्वी नां आख्या, पंच ऊण पहिछाण । एक लक्ष छै नरकावासा, हिव तमु वर्णन जाण ।। ३७. ते नरकावासा छटी नां, नरक सातमी जेह । तेह थकी नहि कहिय मोटा, लांबा चउड़पणेह ।। ३८. नहि महा अवकाशांतर तेहनों, नहिं बह जन करि रहित। नरक सातमी थकी तमा ते, घणा नेरइया सहित ।। ३६. अतिही घणो प्रवेश जिहां छै, अति आकीर्ण कहाय । अतिही आकुल अति संकीर्ण, छठी नरक रै मांय ।। ४०. नरक सातमी नां नारक थी, छट्ठी नां जे जाण । अल्पकर्मतर थोड़ा कर्मज, थोड़ी क्रिया पिछाण ।। ४१. आश्रव थोड़ो तेहनै कहिये, अल्प वेदनावंत । नरक सातमी थी छटी में, कहियै स्यूं भगवंत ? ४२. नरक सातमी तणी अपेक्षा, नहिं महा अतिही कर्म । नहिं महाक्रिया नहीं महाआश्रव, नहिं महावेदन धर्म ।। ४३. अवध्यादिक करि महद्धिक अतिही, महाद्युति कांति कहाय । नहीं सप्तमी जिसा अल्प ऋद्धि, अल्प दीप्ति पिण नाय।। ४४. तमप्रभा छठी नां नरकावासा, पंचम धुमप्रभा नां पिछाण । नरकावासा थी अतिही मोटा, लांबपणे ए जाण ॥ ४५. चोड़पणे पिण अतिही मोटा, अतिही बह अवकाश । ____ अतिही महाप्रतिरिक्त ते जन विण, शून्य क्षेत्र बहु तास ।। ४६. महाप्रवेश पंचमी माहै, तिम नहिं छट्ठी मांहि । नहिं अत्यन्त आकीर्ण नायक, अति आकुल पिण नांहि ।। ३९. महप्पवेसणतरा चेव, आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, अणोमाणतरा चेव। ४०. तेसु णं नरएसु नेरइया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइए हितो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, ४१. अप्पासवतरा चेव, अप्पबेदणतरा चेव ; ४२. नो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, ४३. महिड्डियतरा चेव , महज्जुइयतरा चेव; नो 'तहा अप्पिड्डियतरा' चेव, अप्पजुइयतरा चेव, ४४. छट्ठीए णं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरएहितो महत्तरा चेव, ४५. महावित्थिण्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, महा पइरिक्कतरा चेव; ४६. नो तहा महप्पवेसणतरा चेव, आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, १५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. अणोमाणतरा चव । ४७. नहिं अत्यंत संकीर्ण सांकड़ी, नरक पंचमी जेम। छट्ठी पृथ्वी तमा तणी जे, वक्तव्यता सह तेम ।। ४८. धूमप्रभा थी छट्ठी नरके, महाकर्मी कहिवाय । महाक्रिया नै वलि महाआश्रव, महावेदन अधिकाय ।। ४८. तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, ४९. नो तहा अप्पकम्मतरा चव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, ५०. अप्पिड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चेव; ५१. नो तहा महड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव । ५२. पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिण्णि निरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता। ५३. एवं जहा छट्ठीए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति जाव रयणप्पभंति ५४. जाव नो तहा महड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा (श. १३/४३) चेव । ४६. धूम प्रभा नां नारक नी परि, अल्पकर्म नहि तास । नहिं तसु अल्पक्रिया आश्रव नहि, अल्प वेदना जास ।। ५०. नरक पंचमी तणी अपेक्षा, अल्प ऋद्धि अवध्याद । अल्प दीप्ति द्युति कांति कहीजै, तमा विषे ए लाध ।। ५१. धमप्रभा नां नारक नीं परि, नहि महा अति ऋद्धिवान । नहिं महादीप्ति कांति पिण तेहनी, छट्ठी विष पिछाण ।। ५२. धूम्रप्रभा में नरकावासा, तीन लाख कहिवाय । पंकप्रभा थी छै अति मोटा, लांबा चोड़ा ताय ।। ५३. इम जिम तमा विषेज कह्यो जिम, इम सातूई जाण। परस्परे कहि विधि पूर्वक, जाव रत्नप्रभ आण ।। ५४. यावत सक्करप्रभा नारकि जिम, अल्पऋद्धितर नांहि । अतिही अल्प कांति द्युति नहिं तसु, रत्नप्रभा रै मांहि ।। ५५. प्रथम द्वार नारक नों आख्यो, हिव कहूं स्पर्श द्वार । गोयम वोर तणां प्रश्नोत्तर, सांभलजो धर प्यार।। नैरयिक स्पर्शानुभव पद ५६. रत्नप्रभा नां नारक भगवंत ! पृथ्वी तणो पिछाण । किसो फर्श भोगवता विचरै? उत्तर दै जगभाण ।। ५७. अनिष्ट यावत अतिही मन में, अणगमतो है फास । एवं यावत अधोसप्तमो, पृथ्वी फर्श विमास ।। ५८. एवं आऊ जाव वणस्सइ-फास अनुभव तास । वृत्तिकार इहां न्याय बखाण्यो, सुणजो आण हुलास ।। सोरठा ५६. इहां जाव शब्द रै मांय, तेऊ वाऊकाय नों। फर्श सूत्र कहिवाय, उत्तर आगल आखियै ।। ५६. रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? ५७. गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं । एवं जाव अहे___सत्तमपुढविनेरइया। ५८. एवं आउफासं, एवं जाव वणस्सइफासं। (श. १३।४४) ५९. 'एवं जाव वणस्सइफासं' त्ति इह यावत्करणात्तेजस्कायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिकस्पर्शसूत्रं च सूचितं । (वृ. प. ६०६) ६०,६१. तत्र च कश्चिदाह-ननु सप्तस्वपि पृथिवीषु तेजस्कायिकवर्जपृथिवीकायिकादिस्पर्शो नारकाणां युक्तः येषां तासु विद्यमानत्वात्। (वृ. प. ६०६) ६०. तिहां कोई कहै एम, सातूंई पृथ्वी विषे। तेऊ वर्जी तेम, पृथिव्यादिक नो फर्श है। ६१. तेऊ वर्जी तेह, पृथिव्यादिक नो फर्श जे। सातूं मही विषेह, विद्यमान छ ते भणी।। ६२. बादर तेऊकाय, समयक्षेत्र में ईज छै। सूक्षम तेऊ ताय, नरक विषे सद्भाव पिण ।। ६३. पिण जे सूक्षम तेज, फर्शन्द्रिय अविषय थी। तसू फर्श केम कहेज, किणही तरक करी इसी। ६४. तेऊकाय सरीस, परमाधार्मिक विकुर्वी । अग्नि सरीखी दीस, वस्तु तणोज स्पर्श छै॥ ६२,६३. बादरतेजसां तु समयक्षेत्र एव सद्भावात् सूक्ष्म - तेजसा पुनस्तत्र सद्भावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति। (वृ. प. ६०७) ६४,६५. अत्रोच्यते, इह तेजस्कायिकस्येव परमाधार्मिक विनिर्मितज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्श: तेजस्कायिकस्पर्श श० १३, उ०४, ढा० २७६ १५५ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति व्याख्येयं न तु साक्षात्तेजस्कायिकस्यैव असंभवात् । (बृ. प. ६०७) ६६,६७. अथवा भवांतरानुभूततेजस्कायिकपर्यायपृथिवीकायिकादिजीवस्पर्शापेक्षयेदं व्याख्येयमिति । (वृ. प. ६०७) ६५. तिण कारण इम ख्यात, स्पर्श तेऊकाय नों। पिण तेऊ साक्षात, नहि छै बादर तेज ए॥ ६६. तथा पूर्व भव पेख, तेऊ नो पर्याय जिण। भोगवियो सुविशेख, ते एहवो पृथ्वी प्रमुख । ६७. तास फर्श अपेक्षाय, स्पर्श तेऊकाय नों। नारक नै कहिवाय, वृत्ति विषे ए वारता ।। नरक-बाहल्यक्षुद्रत्व पद ६८. *आ प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी ते, द्वितीय पृथ्वी अपेक्षाय । जाडपणे करि मोटी तेहनें, सर्व थकी कहिवाय ।। ६६. इक लक्ष असो सहस्र जोजन, जाडी धुर पृथ्वी दीस। सककरप्रभा जाडी इक लक्ष रु, योजन सहस्र बतोस । ६८. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोच्च सक्करप्पभं पुढवि पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं ६९. 'सव्वमहतिय' त्ति सर्वथ महती अशीतिसहस्राधिक योजनलक्षप्रमाणत्वाद्रत्नप्रभाबाहल्यस्य शर्कराप्रभाबाहल्यस्य च द्वात्रिंशत्सहस्राधिकयोजनलक्षमानत्वात । (बूप. ६०७) ७०. सव्वखुड्डिया सव्वतेसु। (श. १३।४५) 'सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु' त्ति सर्वथा लघ्वी 'सन्तेिषु' पूर्वापरदक्षिणोत्तरविभागेषु । (वृ. प. ६०७) ७१. आयामविष्कम्भाभ्यां रज्जुप्रमाणत्वाद्रत्नप्रभायास्ततो महत्तरत्वात् शर्कराप्रभायाः। (वृ० ५० ६०७) ७०. रत्नप्रभा सर्वथा नान्ही, चिउं दिशि अंते एह। पूर्व पच्छिम दक्षिण उत्तर, एह विभाग विषेह ।। ७१. लांबपणे नै चोड़पणे कर, रज प्रमाण थकीज । रत्नप्रभा ए सक्करप्रभा थी, नान्ही एम कहीज ।। ___ सोरठा ७२. एक अढाइ जाण, च्यार पंच षट साढषट । सप्त रज्जु क्रम माण, अन्य स्थानके उक्त ए॥ ७३. *इम जिम जीवाभिगमे' आख्यो, बीजे नरक उद्देस । तेम इहां पिण कहिवो सगलो, वारू रीत विशेष ॥ नरक परिसामन्त पद ७४. ए प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी नां, नरकावासा पास । पृथ्वी प्रमुख जाव वणस्सइ, बहुकर्म बहुदुख तास ।। ७५. इम जिम जीवाभिगम संबंधी, नरक उद्देशे जाण । आख्यो तेम इहां कहि छै, जाव सप्तमी आण । लोक मध्य पद ७६. किहां प्रभुजी ! लोक तणो जे, मध्य आयाम कहाय । जिन कहै रत्नप्रभा पृथ्वीतल, आकाशांतर मांय ।। ७४. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरि सामंतेसु जे पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव , ""महावेदणतरा चेव ? ७५. एवं जहा नेरइयउद्देसए (सं० पा०) जाव अहेसत्तमा। (श०१३।४६) 'जहा नेरइयउद्देसए' (जीवा० ३३१२६) त्ति जीवाभिगमसम्बन्धिनि । (व०प०६०७) ७६. कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममझे पण्णत्ते ? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ओवा संतरस्स ७७. असंखेज्जइभार्ग ओगाहेत्ता, एत्य णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। (श० १३।४७) ७८. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णते? गोयमा ! चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए ओवासंतरस्स ७७. असंख्यातमो भाग उलंघी, जइयै तिहां पिछाण । लोक तणो आयाम मध्य इम, आखै श्री जगभाण ॥ ७८. किहां प्रभुजी ! अधोलोक नों, मध्य आयाम कहाय ? जिन कहै चौथी पंकप्रभा तल, आकाशांतर मांय ।। १.३११२५ लय : उस रघुपति के धर्म सुराजे १५६ भगवती जोड़ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. आधो जाझेरो लघी नैं, जइयै तिहां सुजाण । अधोलोक नो मध्य आयाम परूप्यो पूरण-नाण ।। ७९. सातिरेगं अद्धं ओगाहेत्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। (श० १३।४८) सोरठा ८०. रुचक थकी अवलोय, नवसौ योजन थी तलै । अधोलोक छै सोय, तसू मध्य पंकाकाश में। ८१. चौथी पंचमी बीच, आकाशांतर तेहनों। जाझो अर्द्ध समीच, लांघी जइयै अर्द्ध त्यां ।। ८०. 'चउत्थीए पंकप्पभाए' इत्यादि, रुचकस्याधो नव योजन शतान्यतिक्रम्याधोलोको भवति. लोकान्तं यावत् । (व०प० ६०७) ८१. स च सातिरेकाः सप्त रज्जवस्तन्मध्यभाग: चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेक मर्द्धमतिबाह्य भवतीति । (वृ०प०६०७) ८२. कहि णं भंते ! उड्डलोगस्स आयाममझे पण्णत्ते ? गोयमा ! उप्पि सणं कुमार-माहिंदाणं कप्पाणं हेट्ठि बंभलोए कप्पे ८३. रिट्ठविमाणे पत्थडे, एत्थ णं उड्लोगस्स आयाममझे पण्णत्ते । (श० १३१४९) ८२. *किहां प्रभजी! ऊर्द्धलोक नों, मध्य आयाम विचार? जिन कहै धुर चिउं कल्प ऊपरै, पंचम कल्प मझार ।। ८३. तीजै परतर रिष्ट विमाणज, तेहने पासे ताम । लोकांतिक सुर तणां विमानज, ऊर्द्ध लोक मध्य ठाम ।। सोरठा ८४. रुचक ऊपर जाण, नवसौ योजन अतिक्रमी। तस ऊपर पहिछाण, ऊर्द्धलोक कहियै अछै ।। ८५. उर्द्धलोक छै जेह, कांइक ऊणो सप्त रजु । तसु मध्य भाग कहेह, रिष्ट विमानज परतरे ।। ८६. *क्यां प्रभु ! तिरछा लोक तणो जे, मध्य आयाम कहाय । जिन कहै जंबू मंदरगिरि मध्य, देश भाग रै माय ।। ८७. ए रत्नप्रभा नां रत्नकांड में, सर्व थकी लघु जोय । एहवा दोय प्रतर छै तेहथी, ऊर्द्ध अधो वृद्धि होय ॥ ८८. ते ऊपरला प्रतर थकी जे, लोक तणी पहिछाण । ___ऊर्द्धमुखे जे वृद्धि जाणवी, समझे चतुर सुजाण ।। ८६. तेह हेठला प्रतर थकी जे, लोक तणी सूविधान । अधोमुखे जे वृद्धि जाणवी, लोकांत लगै पिछाण ।। ६०. उवरिम हेठिल्ल ए दोनई, लघु प्रतर तिण ठाम । तिर्यक लोक तणो मध्य आख्यो, पूरणज्ञानी स्वाम ॥ ६१. तिरछा लोक तणे मध्य भागे, अष्ट प्रदेशिक तेह । रुचक कह्यो ते सामर्थ्यपणां थी, तिर्यक लोक मध्य एह ॥ ६२. अष्टप्रदेशिक रुचक किसो छै? तेह रुचक थी जाण । दश दिशि चाली पूरव पहिली, अग्निकूण पहिछाण ।। ८४. तथा रुचकस्योपरि नवयोजनशतान्यतिक्रम्योर्द्धलोको व्यपदिश्यते लोकान्तमेव यावत् । (वृ०प०६०७) ८५. स च सप्त रज्जव : किञ्चिन्यूनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपादनायाह (वृ० प० ६०७) ८६. कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाममझे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्झ देसभाए ८७. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डग पयरेसु, उवरिमहिट्ठिल्लेसु खुड्डागपयरेसु' त्ति लोकस्य वज्रमध्यत्वाद्रत्नप्रभाया रत्नकाण्डे सर्वक्षुल्लकं प्रतरद्वयमस्ति। (वृ० ५० ६०७) ८८. तयोश्चोपरिमो यत आरभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः । (वृ० प० ६०७) ८९. 'हेट्ठिल्ले' त्ति अधस्तनो यत आरभ्य लोकस्याधोमुखा वृद्धिः तयोरुपरिमाधस्तनयोः। (वृ०प० ६०७) ९०. 'खुडागपयरेसु' त्ति क्षुल्लकप्रतरयोः सर्वलघुप्रदेशप्रतरबोः। (वृ० प० ६०७) ९१. एत्थ णं तिरियलोगमज्झे अट्ठपएसिए रुयए पण्णत्तं । ९२. किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुचकः ? (व०प० ६०७) जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा पुरत्थिमा पुरत्थिमदाहिणा।। ९३. एवं जहा दसमसए (श० १०॥१-७) जाव (सं० पा०) नामधेज्जे त्ति । (श० १३१५०,५१) ६३. इम जिम दशमा शतक तणो जे, प्रथम उद्देशक मांहि । आख्यो तिम इहां कहिवो यावत, नामधेय लग ताहि ।। *लय : उस रघुपति के धर्म सुराजे श० १३, उ०४, ढा० २७६ १५७ Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. लोक मध्य ए द्वार पंचमो, आख्यो तसु विस्तार । तेरम शतक उद्देश तुर्य नों, कह्यो देश अधिकार ।। ६५. दोयसौ नैं छोहतरमी, आखी ढाल विशाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल॥ ढाल : २७७ दिशि विदिशि प्रवह पद दूहा १. इंदा णं भंते ! दिसा किमादीया, किंपवहा, २. कतिपदेसादीया, कतिपदेसूत्तरा, किंपज्जवसिया, किसंठिया पण्णता? कतिपदेसिया, १. ऐंद्री पुरवदिशि प्रभु ! कवण आदि छ तास। किहां थी चाली प्रवर्ती, द्वितीय प्रश्न सुविलास ।। २. जेहनें आदि प्रदेश के, के प्रदेश वृद्धि जान । किता प्रदेशिक अंत किहां, अछे किसै संस्थान ? ३. ए साघुइ प्रश्न नां, उत्तर दै अरिहंत । श्रोता चित दे सांभलो, स्वाम वचन शोभंत ।। *जय-जय ज्ञान जिनेंद्र नों जशधारी। (ध्रुपदं) ४. ऐंद्री पूर्व दिशि तेहनै जशधारी, ___ रुचक आदि सुविशेष रे ! गोयम गणधार! रुचक थकी चाली अछ गुणधारी, आदि छै दोय प्रदेश रे गोयम गणधार ! ५. आगल दोय प्रदेश नी जशधारी, उत्तरोत्तर वृद्धि होय रे गो०। इम बे-बे प्रदेश नी गुणधारी, थेट ताई वृद्धि जोय रे गो० ॥ स्थापना रुचक थकी दिश चाली तेहनों यंत्र ४. गोयमा ! इंदा णं दिसा स्यगादीया, रुयगप्पवहा, दुपएसादीया, ५. दुपएसुत्तरा, - *लय : हूं तुझ आगल सी कहूं कनइया १५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. तास असंख प्रदेश छ जशधारी, लोक आश्री सुविशेष रे गो०। ६. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च तेह अलोकज आश्रयी गुणधारी, छै तसू अनंत प्रदेश रे गो० ॥ अणतपएसिया, ७. लोक आश्री ते सादिया जशधारी, छै बलि अंत-सहीत रे गो०। ७. लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च अलोक आश्री सादिया गुणधारी, कहिय अंतर-रहीत रे गो०॥ सादीया अपज्जवसिया, सोरठा ८. पूर्व रुचकज पास, आदि तास अवलोकिये। लोकज छेहड़े तास, अंत अछै इण न्याय सं ॥ ६. *दिशि पूर्व अलोकज आश्री जशधारी, आदि-सहित कहिवाय रे गो० ।। अंत-रहित तसुं आखियै गुणधारी, निसुणो तेहनों न्याय रे गो० ॥ सोरठा १०. लोक पास तसु आद, नहिं छै अंत अलोक नों। ते माटै इम लाध, अंत नहीं छै दिशि तणो॥ ११. *मुरज संठाण लोक आश्री जशधारी, ११. लोग पडुच्च मुरवसंठिया, अलोग पडुच्च सगडुद्धिते आभरण आकार विचार रे गो०। संठिया पण्णत्ता। (श० १३०५२) वलि अलोकज आश्री गूणधारी, गाडा नी ओधि आकार रे गो० ॥ सोरठा १२. लोक अंत नो जाण, परिमंडल आकार छ। १२,१३. लोकान्तस्य परिमंडलाकारत्वेन मुरजसंस्थानता मुरज तणे संस्थान, पूर्व दिशि आखो प्रभु ॥ दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तं । १३. लोकांत आधी एह, मूरज संस्थानपणे का । (वृ० प० ६०७) आगल न्याय कहेह, हिवै अलोक नै आश्रयी ।। १४. शकट ओधि आकार, अलोक नों जिन आखियो। १४,१५. 'अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिय' त्ति रुचके तु तुण्डं धर संकीरण धार, विस्तीर्ण उत्तरोत्तरे ।। कल्पनीयं आदौ संकीर्णत्वात् तत उत्तरोत्तरं विस्तीर्ण१५. रुचक विषे सुविचार, मस्तक नी कर कल्पना । त्वादिति । (वृ० ५० ६०८) तिण कारण धुर धार, संकीरण पाछै वृद्धी ।। १६. *आग्नेयि दिशि भगवंत जी ! हूं वारी, १६. अग्गेयी णं भंते ! दिसा किमादीया, किंपवहा, कवण अछै तमु आदि रे जयवंता स्वाम! . किहां थकी चालो अछैहूं वारी, तेह प्रवर्ती लाधि रे जयवंता स्वाम ! १७. आदि प्रदेश तसू केतला हं वारी, विस्तीर्ण बि.तरा प्रदेश रे जय० । १७. कतिपएसादीया, कतिपएसवित्थिण्णा, कतिपएसिया, के प्रदेशिक कुण अंत छैहूं वारी, किसै संठाण कहेस रे? जय० ॥ किपज्जवसिया, किंसंठिया पण्णत्ता ? १८. जिन भाखै सुण गोयमा ! जशधारी, १८. गोयमा! अग्गेयी णं दिसा रुयगादीया, दिशि आग्नेयि कहीज रे गो०। रुयगप्पवहा, रुचक आदि छै जेहनै गुणधारी, चाली रुचक थकीज रे गो० ।। १६. एक प्रदेश जसू आदि छै जशधारी, विस्तीर्ण एक प्रदेश रे गो० । १९. एगपएसादीया, एगपएसवित्थिण्णा- अणुत्तरा, आगल पिण ते विदिशि नों गुणधारी, वद्धि नथी लवलेस रे गो० ॥ *लय :हूं तुझ आगल सी कहूं कनइया श०१३, उ०४, ढा० २७७ १५९ Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. विदिशि तिका लोक आश्रयो गुणधारी, असंख्यात प्रदेश रे गो०। २०. लोगं पडुरूच असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च वलि अलोकज आश्रयी गुणधारी, अनंत प्रदेश कहेस रे गो०॥ अणंतपएसिया, २१. लोक आश्रयी आदि सहित छ जशधारी, २१. लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च अंत-सहित छ सोय रे गो०। सादीया अपज्जवसिया, अलोक आश्रयी सादि छै गुणधारी, अंत-रहित अवलोय रे गो० ।। २२. छेद्यो हार मोत्यां तणो जशधारी, ते संस्थान विचार रे गो०। २२. छिण्णमुत्तावलिसंठिया पण्णत्ता । एतले लड़ मोती तणी गुणधारी, आखी तसु आकार रे गो० ॥ २३. जम्मा दक्षिण दिशि कही जशधारी, पूर्व दिशि जम पेख रे गो०। २३. जमा जहा इंदा, नेरई जहा अग्गेयी। कहिवो नैरुत कूण नै गुणधारी, आग्नेयि जिम अशेख रे गो० ॥ २४. इम जिम पूर्व दिशि कही जशधारी, २४. एव जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि, जहा अग्गेई तिम कहिवी दिशि च्यार रे गो०। तहा चत्तारि विदिसाओ । (श० १३।५३) जिम आग्नेय विदिश कही गूणधारी, तिम चिउं विदिशि प्रकार रे गो० ।। २५. विमला ऊर्द्ध दिशि हे प्रभु ! बारी, २५. बिमला णं भंते ! दिसा किमादीया। कवण आदि इत्यादि रे जयवंता स्वाम! पुच्छा जहा अग्गेयीए (सं० पा०) जिम आग्नेय नीं पूछा करी हूं वारी, तिमहिज प्रश्न संवादि रे जयवंता स्वाम ।। २६. जिन कहै विमला दिश तिका जशधारी, २६. गोयमा ! विमला णं दिसा रुयगादीया, रुचक आदि जसु जोय रे गो०। रुयगप्पवहा, रुचक थकी विमला वली गुणधारी, चाली प्रवर्ती सोय रे गो० ।। २७. च्यार प्रदेश छै आदि में जशधारी, विस्तीर्ण दोय प्रदेश रे गो०। २७. चउप्पएसादीया, दुपएसवित्थिण्णा--अणुत्तरा, कहिये तसु चोड़ापणुं गुणधारी, हिव तसु न्याय कहेस रे गो० ।। सोरठा २८. रुचक ऊपजै जोय, च्यार-च्यार प्रदेश इम । करता जइयै सोय, एम ऊर्द्ध दिशि नीकली ।। २६. जिहां जोइये तेथ बे प्रदेश विस्तीर्ण छ । आदि अंत पिण एथ, वृद्धि नथीज प्रदेश नी ।। ३० *लोक पडुच्च इत्यादि जे गुणधारी, ३०. लोग पडुच्च सेसं जहा अग्गेयीए नवरं (सं० पा०) ___ आग्नेयी जिम छै शेख रे गो०। रुयगसंठिया पण्णत्ता । एवं तमा वि। (श. १३।५४) णवरं रुचक संठाणे कही जशधारी, इमज तमा पिण पेख रे गो० ॥ ३१. एम अधोदिशि जाणवी जशधारी, ऊर्द्ध दिशा जिम एह रे गो० । द्वार छठो ए दाखियो जशधारी, हिव सप्तम द्वार कहेह रे गो० ॥ लोक पद ३२. ए स्यूं प्रभु ! लोक कहिये इसो हूं वारी, ३२. किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ? तब भाखै जिनराय रे गो। गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पंचास्तिकायज एतलो जशधारी, लोक इसो कहिवाय रे गो० ॥ पवुच्च इ तं जहा३३. धुर धर्मास्तिकाय छै जशधारी, अधर्मास्तिकाय रे गो०। ३३. धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, जीव आगासस्थि जीवास्ति जशधारी, पुदगलास्ति कहिवाय रे गो० ॥ त्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। (श. १३॥५५) लय : हूं तुझ आगल सी कहूं कनइया १६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. हे प्रभु ! काय धर्मास्ति हूं वारी, ३४. धम्मत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? बहु जीवां रै एह रे जयवंता स्वा० । स्यं प्रवत्तै छै तिका? हं वारी, हिव जिन उत्तर देह रे जयवंता स्वा०॥ ३५. धर्मास्तिकाय करि जीव नैं गूणधारी, गमनागमन विशेख रे गो०। ३५. गोयमा ! धम्मत्थिकाएणं जीवाणं आगमण-गमण प्रगट वचन ते भाषा कही जशधारी, नेत्र व्यापार संपेख रे गो० ॥ भासुम्मेस भाषा-व्यक्तवचन"उन्मेष: ---अक्षिव्यापारविशेषः । (वृ० प० ६०८) ३६. योग मन वचन काया तणां जशधारी, बले अनेरा जाण रे गो०। ३६. मणजोग-वइजोग-कायजोगा, जे यावण्णे तहप्पगारा आगमनादिक सारिखा गुणधारी, चलण स्वभाव पिछाण रे गो० ।। चला भावा। सोरठा ३७. आख्या मन जोगादि, ते सामान्यज रूप छै । ३७,३८. इह च मनोयोगादयः सामान्य रूपा: आगम फुन जे आगमनादि, जोग तणोज विशेष छै॥ नादयस्तु तद्विशेषा इति भेदेनोपात्ताः, भवति च ३८. इम भेदे कर ख्यात, सामान्य ग्रहणे पिण वलि। सामान्यग्रहणेऽपि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थविशेष ग्रहण संजात, तास सरूप देखाड़िवा ।। मिति । (वृ० प० ६०८) ३६. *धर्मास्तिकाय छते प्रवत्त जशधारी, ते सगला व्यापार रे गो०। ३९. सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति । गइलक्खणे णं गति लक्षण धर्मास्ति गणधारी, ते माटै सुविचार रे गो० ॥ धम्मत्थिकाए। (श० १३१५६) ४०. अधर्मास्तिकाय जीवां तणे जशधारी, ४०. अधम्मत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं कि परत्तति ? स्यं प्रभुजी ! प्रवर्तत रे जय० । गोयमा ! जिन भाख सुण गोयमा ! गणधारी, आखू तास वृतंत रे गो० ।। ४१. अधर्मास्ति काये करो जशधारी, जीवां मैं कायोत्सर्ग हुँत रे गो०। ४१. अधम्मत्थिकाएणं जीवाणं ठाण-निसीयण-तुयट्टण, बेसवू नैं वली सूयवू गुणधारी, तेहनां सहाय्य थी मंत रे गो०॥ ठाणनिसीयणतुयट्टण' त्ति कायोत्सर्गासनशयनानि । (वृ० प० ६०८) ४२. अनेकपणे मन तेहने जशधारी, एकत्व थायवू ताय रे गो०। ४२. मणस्स य एगत्तीभावकरणता, तेह तणु करिवू जिको गुणधारी, सहाय्य अधर्मास्तिकाय रे गो० ॥ तथा मनसश्चानेकत्वस्यकत्वस्य भवनमेकत्वीभावस्तस्य यत्करणं तत्तथा। (वृ० प० ६०८) ४३. जे अत्य वलि एह सारिखा गुणधारी, ४३. जे यावण्णे तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते स्थिर स्वभाव सह तेह रे गो० । अधम्मत्थिकाए पवतंति । ठाणलक्खणे णं अधम्मत्थिअधर्मास्ति करि प्रवत्तँ जशधारी, लक्षण स्थान कहेह रे गो० ॥ काए । (श० १३१५७) ४४. हे प्रभ! काय आगासत्थि हूं वारी, जीव अजीव ने जाण रे गो०। ४४. आगासत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं अजीवाण य कि स्यं प्रवल छै सही? हूँ वारी, हिव भाखै जगभाण रे गो० ॥ पवत्तति ? ४५. जीव अजीवज द्रव्य नों जशधारी, भाजन कहितां ठाम रे गो० । ४५. गोयमा ! आगासस्थिकाए णं जीवदव्वाण य अजीव तेह सरीखी छै सही गणधारी, ए आगासस्थि ताम रे गो० ।। दवाण य भायणभूए - ४६. आशास्ति काय नों जशधारी, भाजन भाव पिछाण रे गो० । तेहिज हिव देखाड़ियै गणधारी, सुणजो चतुर सुजःण रे गो० ॥ ४७. जे एक प्रदेश आकाश नो जशधारी, इक परमाणु करेह रे गो०। ४७. एगेण वि से पुणे, पूरण कहितां ते भरयूं गुणधारी, वलि कहियै छै एह रे गो० ॥ 'एगेणवी' त्यादि, एकेन-परमावादिना 'से' त्ति असौ आकाशास्तिकायप्रदेश इति गम्यते 'पूर्ण:' (वृ०प०६०८) ४८. बिहं परमाण करि वलि जशधारी, पूरण भरियो ताय रे गो०। ४८. दोहि वि पुण्णे सयं पि माएज्जा। तेह पूरण भरिया विषे गुणधारी, परमाणु सौ पिण मांय रे गो०॥ तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यामसी पूर्णः। (वृ० १०६०८) *लय : हूं तुझ आगल सी कहूं कनइया श०१३, उ०४, ढा० २७७ १६१ ताण dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. सौकोड़ पूर्ण भरिया विषे जशधारी, कोड सहस्र पिण माय रे गो०। ४९. कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा ॥ परिणमवा नां भेद थी जशधारी, दृष्टांत वृत्ति में कहाय रे गो० ॥ परिणामभेदात् । (वृ०प०६०८) ५०. जिम एक ओरा नां आकाश में जशधरी, ५०. यथाऽपवरकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनापि पूर्यते। कीधे दीपक एक रे गो०।। (वृ० प० ६०८) तसु तेजे करि ओरड़ो गुणधारी, ताम भराय अशेख रे गो०।। ५१. द्वितीय दीपक कीधे छते जशधारी, तास तेज पिण जाण रे गो०। ५१. द्वितीयमपि तत्तत्र माति । (वृ० प०६०८) तिहां समावै छै सही गणधारी, प्रत्यक्ष ही पहिछाण रे गो० ।। ५२. इम शत सहस्र दीवा तणो जशधारी, तेज तिहांज समाय रे गो०। ५२. यावच्छतमपि तेषां तत्र माति। (व०प०६०८) पिण फूटी बार न नीसरै गुणधारी, वलि दूजो दृष्टांत कहाय रे गो० ॥ ५३. ओषधि विधि नां विशेष थी जशधारी, ५३,५४. तथौषधिविशेषापादितपरिणामादेकत्र पारदकर्षे टाल्यो पारा नो परिणाम रे गो०। सुवर्णकर्षशतं प्रविशति । (वृ०प०६०९) एक सोनइया भर एहवा गुणधारी, तेह पारा विषे ताम रे गो० ।। ५४. सुवर्ण सौ सोनइया जितो गुणधारी, करैतेह पारा में प्रवेश रे गो० । लोक कहै सुवर्ण भणी जशधारी, खाधो पारै अशेष रे गो० ॥ ५५. पारो एक सोनइया जितो जशधारी, ५५. पारदकर्षीभूतं च सदोषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य पिण ओषधि सामर्थ्य थी ताम रे गो०। कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात्पुद्गलसोनइया सौह तसु गणधारी, परिणामस्येति । (वृ० ५० ६०९) विचित्र पुद्गल-परिणाम रे गो० ॥ ५६. इण दष्टांते जाणवो जशधारी, एह आगासत्थिकाय र गौ०। ५६. अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए। (श०१३।५८) अवगाहन आश्रयपणो गणधारी, तास लक्षण कहिवाय रे गो० ॥ ५७. जीवास्तिकायपणे करी प्रभुजी ! जीव नैं स्यूं प्रवर्तत रे जय० । ५७. जीवत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? भाव प्रत्यय अंतरभूत छै प्रभुजी ! इम वृत्तिकार कहंत रे जय० । 'जीवत्थिकाएण' मित्यादि, जीवास्तिकायेनेति भन्त भूतभावप्रत्ययत्वाज्जीवास्तिकायत्वेन जीवतयेत्यर्थः । (वृ० प० ६०९) ५८. जिन कहै जीवास्तिकाये करी जशधारी, ५८. गोयमा ! जीवस्थिकाएणं जीवे अणंताणं आभिणि जीव विषे कहिवाय रे गो०। बोहियनाणपज्ज वाणं आभिनिबोधिक ज्ञान नां गुणधारी, प्रवर अनंत पर्याय रे गो० ।। ५६. अनंत पर्यव श्रत-ज्ञान नां गुणधारी, जिम बीजे शतकेह रे गो०। ५९,६०. अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अस्तिकाय उद्देश में जशधारी, आख्यो तेम कहेह रे गो०॥ (२।१३७) अस्थिकाय उद्देसए जाव (सं० पा०) ६०. जाव उपयोग प्रतै तिको गुणधारी, जाय प्राप्त हुवै ताय रे गो० । उवयोगं गच्छति । उवयोगलक्खणे णं जीवे । उपयोग-लक्षण जीव छै जशधारी, ते माटै कहिवाय रे गो० ॥ (श० १३१५९) ६१. प्रश्न पूदगलास्तिकाय नो गुणधारी, उत्तर दे जगभाण रे गो०। ६१-६३. पोग्गलत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं कि जे पुदगलास्तिकाय नों गुणधारी, बहु जीवां मैं जाण रे गो० ॥ पवत्तति ? ६२. औदारिक नैं वैक्रिय जशधारी, आहारक तेजस चीन रे गो० । गोयमा ! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं ओरालिय कार्मण द्रव्य पांचं इन्द्रिय गुणधारी, द्रव्य जोग वलि तीन रे गो० ॥ बेउव्विय-आहार-तेया कम्मा-सोइंदिय-चक्खिदिय६३. वलि उस्सास निस्सास नों जशधारी, ए पुद्गल नों ताय रे गो० । घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग - वइजोगग्रहण प्रवत्तै छै तसु गुणधारी, कायजोग-आणापाणूणं च गहणं पवत्तति । गहणग्रहण-लक्षण पुद्गलास्तिकाय रे गो० ॥ लक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए । (श० १३०६०) ६४. देश तेरम नां चोथा तणो गुणधारी, बेसौ सततरमी ढाल रे श्री देव दयाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी जशधारी, 'जय-जश' मंगलमाल रे श्री देव दयाल । १६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २७८ १. एगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहि धम्मत्थि कायपदेसेहिं पुढें? २. गोयमा ! जहण्णपदे तिहिं उक्कोसपदे छहि । धर्मास्तिकाय के प्रदेशों को स्पर्शना दूहा १. प्रभ ! धर्मास्तिकाय नों, एक प्रदेशज तेह। किता धर्मास्तिकाय नां, प्रदेश करि फर्शह ? २. जिन कहै जघन्यपदे करी, तीन करी फर्शत । उत्कृष्ट षट प्रदेश करि, तास फर्शवो हंत ।। ३. जघन्य तीन ते किम इहां? लोक तणे जे अंत । निष्कुट खूणां रूप ज्यां, अल्प फर्शना हंत ।। ४. जिम भूमि तणज नजीक छ, ओरा तणांज ताय। ___ खुणां नों जे देश छ, प्राये तिम कहिवाय ।। ५. ऊपर एक प्रदेश करि, बे प्रदेश बिहं पास । त्रिण प्रदेश करि फर्शणा, वांछित प्रदेश तास ।। ६. उत्कृष्ट षट प्रदेश करि, चिउं दिशि नां जे च्यार । इक ऊपर इक अधस्तन, इम षट करि अवधार ।। *सुगण नर ! वारू जिन वच हीर, सरध्यां रे भवदधि तोर । [ध्रुपदं] ७. इक प्रदेश धर्मास्तिकाय नों, अधर्मास्तिकाय नां जाण । केतलै प्रदेश करी, फर्श रे? ए प्रश्न पिछाण ।। ८. श्री जिन भाखै जघन्य जी, चिउं प्रदेश करि हंत । वलि उत्कृष्टपदे करी, सप्त प्रदेशज रे करि फर्शत ।। ३,४. 'जहन्नपए तिहिं' ति जघन्यपदं लोकान्तनिष्कुट रूपं यत्रकस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशस्यातिस्तोकरन्यः स्पर्शना भवति तच्च भूम्यासन्नापवरककोणदेशप्रायं । (वृ० प० ६१०) ५. इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्यां च पार्श्वत एको विवक्षितः प्रदेशः स्पृष्टः । (वृ० प० ६१) ६. 'उक्कोसपए छहिं' ति विवक्षितस्यैक उपर्येकोऽधस्तनश्चत्वारो दिक्षु इत्येवं षड्भिः । (वृ०प०६१०) ७. केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुठे? ८. जहण्णपदे चउहिं उक्कोसपदे सत्तहिं । सोरठा ६. तीन पूर्ववत जान, चोथो धर्मास्तिकाय नो। प्रदेश छै ते स्थान, प्रदेश अधर्मास्ती तणों। १०. षट दिशि नां षट जान, सप्तम धर्मास्ती तणो। प्रदेश छै ते स्थान, अधर्मास्ति नों प्रदेश छै ।। ११. *इक प्रदेश धर्मास्तिकाय नो, आगासत्थि नों तास । फरों किते प्रदेशे करी? जिन भाखै रे सप्त करि फास ।। ९. तथैव त्रयः, चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थानस्थित एवेति। (वृ० प० ६१०) १०. षड् दिक्षट्के, सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थ एवेति (वृ० प० ६१०) ११. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहि पुढे ? सहि । १२. आकाशप्रदेशः सप्तभिरेव, लोकान्तेऽप्यलोकाकाश प्रदेशानां विद्यमानत्वात् (वृ० प० ६१०) १३. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? अणंतेहिं । सोरठा १२. लोकांते पिण ख्यात, फर्श अलोक प्रदेश करि। ते भाटै कह्या सात, जघन्य उत्कृष्ट कह्या नथी।। १३. *इक प्रदेश धर्मास्तिकाय नों, जीवास्तिकाय नां ख्यात । फर्श किते प्रदेशे करी? जिन भाखै रे अनंत संघात ।। सोरठा १४. लोकांते पिण तेह, तीन प्रमुख दिशि नै विषे । अनंत जीव नां जेह, फर्श अनंत प्रदेश करि ।। *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १४. 'अणंतेहिं' ति अनन्तरनन्तजीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तत्रकधर्मास्तिकायप्रदेशे पार्श्वतश्च दिकत्रयादौ विद्यमानत्वादिति (वृ०प० ६१०) श०१३, उ०४, ढा० २७८ १६३ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहि पुटठे ? अणंतेहिं । १५. *इक प्रदेश धर्मास्तिकाय नों, पुद्गलास्ति नों ख्यात । फर्श किते प्रदेशे करी? जिन भाखै रे अनंत संघात ।। १६. एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि (वृ० प० ६१०) सोरठा १६. जीवास्ती नों जाण, न्याय कह्यो तेहनी परै। पुद्गल नों पहिछाण, कहिवो आलोची करी ॥ १७. *इक प्रदेश धर्मास्तिकाय नों, अद्धा समय अवदात । तस कितलै समये करी, फशैं रे हिव भाख नाथ ।। १८. कदाचित फशैं अछ, द्वीप अढाई माय । कदाचित फनहीं, अढी द्वीप में रे बारै न फर्शाय ।। १७. केवतिएहि अद्धासमएहि पुढे ? १६. जो फर्श तो निश्चै करी, अनंत समय फर्शत । अनादि अद्धा समय छ, अनंत समय करि रे इण न्याय कहत।। १८. सिय पुढे सिय नो पुट, अद्धासमय: समयक्षेत्र एव न परतोऽतः स्यात्स्पृष्टः स्यान्नेति, (व. प० ६१०) १९. जइ पुढे नियम अणंतेहि। (श० १३/६१) 'जइ पुछे नियमं अगंतेहि ति अनादित्वाददासमयानां (वृ०प० ६१०) २०. अथवा वर्तमानसमयालिगितान्यनन्तानि द्रव्याण्यनन्ता एव समया इत्यनन्तस्तैः स्पृष्ट इत्युच्यत इति (वृ०प०६१०) २०. तथा समय वर्तमान जे. द्रव्य अनंत ऊपर वर्तत । तिणसूं एकण नैं अनंता कह्या, अनंत समय करि रे इम फर्शत।। अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना २१. प्रभ! अधर्मास्तिकाय नों, इक प्रदेश छ तेह। कितै धर्मास्तिकाय ने, प्रदेश करिकै रे फर्श जेह ।। २२. श्री जिन भाखै जघन्य थी, च्यार करी फर्शत । सप्त प्रदेश करी बली, उत्कृष्ट रे फर्शणा हंत ।। २१. एगे भते ! अधम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थि कायपदेसेहि पुठे ? २२. गोयमा ! जहण्णपदे चउहि, उक्कोसपदे सहि । सोरठा २३. जिम इक धर्म-प्रदेश, अधर्म नां प्रदेश करि। फर्श न्याय अशेष, तिम ए लोकांत लोक मध्य ।। २३. अधर्मास्तिकायप्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशः स्पर्शना धर्मास्तिकायप्रदेशस्पर्शनाऽनुसारेणावसेया । (बृ०प० ६१०) २४. केवतिएहि अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? २५. जहण्णपदे तिहि, उक्कोसपदे छहि, २४. *एक प्रदेश अधर्मास्तिकाय नों अधर्मास्तिकाय नैं जाण। केतले प्रदेशे करी, फर्रु रे भाखो भगवान ! २५. जिन कहै जघन्यपदे करि, तीन करी फर्शत । उत्कृष्ट षट प्रदेशे करी, तेहनों रे फर्शवो हंत ॥ सोरठ २६. जिम इक धर्म-प्रदेश, फर्श धर्म-प्रदेश करि। लोक अंत मध्य देश, एपिण तिमहिज न्याय छै ।। २७. *शेष जेम धर्मास्तिकाय विषे आख्यात । तेम अधर्मास्तिकाय विषे, कहियो रे सर्व अवदात ॥ आकाशास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना २८. एक प्रदेश आकाश नों, धर्मास्ती नैं जाण । केतले प्रदेशे करी, फर्श रे? भाखो जगभाण ! २७. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । (श० १३/६२) २८. एगे भंते? आगासत्थिकायपदेसे केवतिएहि धम्म त्थिकायपदेसेहिं पुठे? *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १६४ मगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जिन भाखे फफदा, लोक आश्रयी ताय । कदाचित फर्गे नहीं, अलोक आथयी रे ते कहिवाय ॥ ३०. जो तो जघन्य थी, इक वे तीन संघात | उत्कृष्ट धर्मास्तिकाय नै, सप्त प्रदेशे रे करि फर्शात ।। वा०-- एक आगासत्थिकाय नों प्रदेश धर्मास्तिकाय नां एक-वे प्रदेशे करी फर्शे, तेहनों न्याय कहे छँ – कोई एक एहवोज लोकांतवर्त्ती धर्मास्तिकाय प्रदेश शेष धर्मास्तिकाय प्रदेश थकी नीकल्यो, तिर्णे धर्मास्तिकाय प्रदेशे करी एक अग्रभागवर्त्ती अलोकाकाश-प्रदेश स्पश्य तथा वक्रगत तेहिज आकाश-प्रदेश ते दो धर्मास्तिकाय - प्रदेश संघाते फर्थ्यो । जेह अलोकाकाश दंतक प्रदेश ने आगे तथा नीचं तथा ऊपर धर्मास्तिकाय नां प्रदेश छै, ते आकाशास्तिकाय प्रदेश तीन धर्मास्तिकायप्रदेशे करी फर्थ्यो । उक्कोसपदे सतह - उत्कृष्टपदे एक आकाशास्तिकाय- प्रदेश सात धर्मास्तिकाय नै प्रदेशे फर्सी, ते किम ? जेह लोकांत कोणगत आकाश-प्रदेश, ते एक धर्मास्तिकाप- प्रदेश अयवाही रह्यो छँ, ते संघाते स्पर्शे । अनेरो एक धर्मास्तिकाय प्रदेश ऊपरवर्ती अथवा धर्ती ते मांहि एक संच विवि ने विषे धर्मास्तिकाय प्रदेश, ते संघात स्पर्श - इम एक आकाशास्तिकाय ने च्यार धर्मास्तिकाय- प्रदेश संघाते स्पर्शना हुवै । तथा जे आकाशास्ति प्रदेश धर्मास्तिकाय नां प्रदेश संघाते ऊपर १, नीचे १. बिदिशि २ स्पर्श तेहने पंचप्रदेश नीं स्पा हु तथा वे बलि ऊपर-नीचे २ तथा तीनई दिशि नं विषे वर्तमान धर्मास्तिकायप्रदेशे करी] स्पर्श तेहने यह प्रदेश नी फना हुवें । हिर्व उत्कृष्टपदेस प्रदेश करिते इसमे आकाश-प्रदेश १, ऊपर १, चिउं दिशि ४, एक अवगाही रह्यो– इम उत्कृष्टपदे आकाशास्तिकाय न धर्मास्तिकाये स्पर्शना थयां सात प्रदेशे करी फर्थ्यो । सोरठा । प्रदेश धर्मास्तिकाय नों एक प्रदेशज नीकल्यो । अलोक नां आकाश नों अग्र भाग जे एक, प्रदेश में फश्यों अर्थ | ३३. गत व आकाश प्रदेश, ए दोय धर्मास्तिकाय ने। प्रदेश करि सुविशेष, फर्थ्यो एक आकाश नें ॥ ३४. वलि जे लोकाकाश, दंडक जेह प्रदेश नें । धर्म- प्रदेश छै ।। आगल अधो विमास, वलि ऊपर ३१. "किहो लोकांत कहाय, शेष प्रदेश भी साय, ३२. ते धर्म-प्रदेश करि पेख ३५. इम इक आकाश-प्रदेश, तीन धर्म- प्रदेश करि । फर्जी छ विशेष ए न्याय तीन प्रदेश नों ॥ ३६. लोकांत कोणगत जेह एक आकाश-प्रदेश जे। इक धर्म- प्रदेश कहे, अवगाह रह्यो तसु फर्मणा ॥ धर्म- प्रदेश ऊपर रह्यो । बिहु में इक फर्शणा ।। ३७. तथा अन्य वलि एक, तथा अधस्तन पेख, ए २९. गोवा सिव पुट्ठे सिनो पु 'सिप पुट्ठे' ति लोकमाश्रित्य 'यो पुट्ठे' ति अलोकमाश्रित्य ( वृ० प० ६११) २०. ज पुट्ठे जण एक्हेण वा दोहि वा ती वा उक्कसप सतह | वा. एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्यलोकाका प्रदेश : स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्वातोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्ति कायप्रदेश: स्पष्टः, यस्त्वेवं लोकान्ते कोणगतो व्योमप्रदेशो ऽस वेकेन धर्मास्तिकाय प्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्तिनायोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिगद्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुभिः यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्त्तमाने धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पञ्चभिः यः पुनरध उपरि च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवसंमानेन धर्मास्तिकायदेशेन पृष्टः स पद्मः यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभि म्रादेशः स्पृष्टो भवतीति (बु०प०६११) श० १३, ३०४, ढा० २७८ १६५ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. बलि बिहं दिशि रे मांय, रह्या धर्म-प्रदेश बे । ते साथे फर्शाय, इम चिउं प्रदेश करि फर्शणा ।। ३६. लोकांत कोणगत जेह, एक आकाश-प्रदेश जे। इक धर्म-प्रदेश कहेह, अवगायो तसु फर्शणा ।। ४०. तथा अन्य वलि एक, धर्म-प्रदेश ऊपर रह्यो। तथा अधस्तन पेख, ए बेहं नी फर्शणा ।। ४१. वलि बिहं दिशि रै मांय, रह्या धर्म-प्रदेश बे । ते साथे फर्शाय, पंच प्रदेश संघात इम ।। ४२. वलि एक आकाश-प्रदेश, त्यां रह्यो धर्म-प्रदेश इक । ऊपर एक विशेष, एक अधस्तन जाणवो । ४३. त्रिहं दिशि मांहे तीन, इम षट धर्म-प्रदेश करि । फर्श एम सुचीन, एक आगास-प्रदेश ते ॥ ४४. उत्कृष्ट सप्त संघात, एक आगास प्रदेश त्यां। धर्म-प्रदेश विख्यात, अवगाह रह्यो तसु फर्शणा ।। ४५. इक तल ऊपर एक, चिउं दिशि तणां प्रदेश चिउं । धर्म-प्रदेश विशेख, फर्श सप्त संघात इम' ।। (ज० स०) ४६. *एक प्रदेश आकाशास्तिकाय नों, अधर्मास्तिकाय ने जाण। प्रदेश करीनै फर्शवो, इणहीज रे रीत पिछाण ।। ४७. एक प्रदेश आगासस्थिकाय नों, आगासस्थिकाय नै ख्यात । फशैं किते प्रदेशे करी? जिन भाखै रे षट संघात ।। सोरठा ४८. इक प्रदेश लोकाकाश, तथा अलोकाकाश नों। रह्या छहूं दिशि पास, तास संघाते फर्शवो।। ४६. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि । ४७. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? छहि । ४८. 'छहिं' ति एकस्य लोका काशप्रदेशस्यालोकाकाशप्रदे शस्य वा षडदिग्व्यवस्थितैरेव स्पर्शनात् षड्भिरित्युक्तम् (वृ०प०६११) ४९. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहिं पुठे ? ४६. *इक प्रदेश आकाशास्तिकाय नों, जीवास्तिकाय नैं जाण । फर्श किते प्रदेशे करी? तब भाखै रे श्री जगभाण ।। ५०. कदाचित फ” अछ, ए लोकाकाश-प्रदेश । तास विवक्षा-वंछना, तिण आश्री रे फर्श विशेष ।। ५१. कदाचित फर्श नहीं, अलोक आकाश प्रदेश । तास विवक्षा-वंछना, कीजै रे तो फर्श नहि लेश ॥ ५०. सिय पुढे 'सिय पुढे' त्ति यद्यसौ लोकाकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः (वृ०प० ६११) ५१. सिय नो पुठे, 'सिय नो पुटठे' ति यद्यसावलोकाकाशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति (वृ० प० ६११) ५२. जइ पुढे नियमं अणंतेहिं । ५३. एवं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं बि, अद्धासमएहि वि। ५२. जो फर्श तो निश्चय थकी, अनंत जीव नां जाण । ___ अनंते प्रदेशे करी, फर्श रे प्रगट पहिछाण ॥ ५३. इक प्रदेश आगासत्थिकाय नों, पुद्गलास्तिकाय नै ख्यात। प्रदेश करि इम फर्शणा, इमहिज रे अद्धा समय संघात।। जीवास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना ५४. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, धर्मास्तिकाय नैं जेह । केतले प्रदेशे करी, फर्श रे प्रश्न करेह ? ५४. एगे भंते ! जीवत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थि काय पदेसेहिं पुठे ? *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. जहण्णपदे चउहि उक्कोसपदे सत्तहि । ५६,५७. जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शकप्रदेशानां चतुभिरिति, कथम् ?, अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवाबगाढ इत्येवं (वृ०प० ६११) ५८. एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशादी केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति, (वृ० प० ६११) ५९. 'उक्कोसपए सत्तहिं' ति पूर्ववत, (वृ० ५० ६११) त्य ६०. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहि वि । ६१. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुटठे ? सत्तहिं । ६२. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? अगतेहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । (श० १३/६४) ५५. जिन कहै च्यार जघन्यपदे, उत्कृष्ट सात संघात । धर्मास्ती नै प्रदेशे करी, फर्श रे तसु न्याय विख्यात ।। सोरठा ५६. लोकांत खूणे देख, जेह प्रदेश रह्या तिहां । धर्म-प्रदेशज एक, अवगाह रह्यो तसु फर्शणा ।। ५७. ऊपर अथवा हेठ, ए बिहुं माहै एक है। बिहं पासे वे नेठ, ए चिउं जघन्यपदे करी॥ ५८. एक आकाश-प्रदेश, तिहां रह्यो इक जीव नों। एक प्रदेश विशेष, समुद्घात केवल समय ।। ५६. उत्कृष्ट सप्त संघात, षट प्रदेश षट दिशि तणां। जीव-प्रदेश विख्यात, धर्म-प्रदेश इक त्यां रह्यो ।। ६०. *इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, अधर्मास्तिकाय नै ख्यात। जघन्य च्यार प्रदेशे करी, उत्कृष्ट रे सप्त संघात ।। ६१. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, आकाश-प्रदेश संघात । सप्त प्रदेश नी फर्शणा, पूर्ववत रे न्याय विख्यात ।। ६२. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, जीवास्तिकाय नै जाण । शेष धर्मास्तिकाय तणी परै, कहिवो रे सर्व पिछाण ॥ पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों को स्पर्शना ६३. इक प्रदेश पुद्गलास्तिकाय नों, धर्मास्तिकाय तणेह । केतले प्रदेश करी, फशैं रे इम प्रश्न करेह ।। ६४. जिम जीवास्तिकाय नै विषे कह्यं तिम न्हाल । कहिवू तेह इहां सहु, वारू रे न्याय विशाल । सोरठा ६५. अनंतरे प्रत्येक, एक-एक प्रदेश नै । कही फर्शणा शेख, धर्म प्रमुख प्रदेश नीं।। ६६. हिव आगल आख्यात, दोय प्रदेशिक आदि जे । खंध तणे अवदात, देखाडै छै फर्शणा ॥ ६७. *बे प्रदेश पुद्गलास्तिकाय नां, धर्मास्तिकाय तणेह । केतले प्रदेशे करी, फर्श रे इम प्रश्न करेह ? ६८. जिन कहै जघन्यपदे करी, षट प्रदेश संघात । वलि उत्कृष्टपदे करी, द्वादश रे प्रदेश फर्शात ।। सोरठा ६६. षट प्रदेश संघात, जघन्यपदे तसु न्याय इम । चूर्णिकार आख्यात, जे लोकांत विषे अछ । ७०. दोय प्रदेशिक खंध, एक प्रदेश विषे रह्यो। तेह-प्रदेश' प्रबंध, प्रति द्रव्य अवगाहक कह्यो ।। ७१. इण नय मत अनुसार, अवगाहक प्रदेश इक। भिन्नपणां थी धार, फर्श दोय संघात ते ॥ ६३. एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहि धम्मत्थि कायपदेसेहिं पुढें ? ६४. एवं जहेव जीवस्थिकायस्स। (श० १३/६५) ६५. धर्मास्तिकायादीनां पुद्गलास्तिकायस्य चैकैकप्रदेशस्य स्पर्शनोक्ता, (वृ० प०६११) ६६. अथ तस्यैव द्विप्रदेशादिस्कन्धानां तां दर्शयन्नाह (वृ० प० ६११) ६७. दो भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मस्थि कायपदेसेहिं पुट्ठा? ६८. गोयमा ! जहण्णपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहि ६९,७० 'दो भंते !' इत्यादि, इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं -लोकान्ते द्विप्रदेशिक: स्कन्ध एकप्रदेशसमवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेशः (वृ०प०६११) ७१. इति नयमताश्रयणेनावगाहप्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वाद द्वाभ्यां स्पृष्टः, (वृ०प०६११) *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १. आकाशास्ति नो प्रदेश । श०१३, उ०४, ढा० २७८ १६७ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२,७३. तथा यस्तस्योपर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, (वृ० प० ६११ ७४,७५. तथा पार्श्वप्रदेशावेकैकमणुं स्पृशतः परस्पर व्यवहितत्वाद् इत्येवं जघन्यपदे षड्भिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैद्वयं णुकस्कन्धः स्पृश्यते, (वृ०प० ६११) ७२. ऊपर अथवा हेठ, ग्रहिवो इक बिहुं मांहिलो। तेहनै पिण जे नेठ, बे प्रदेश फर्शवै करी ।। ७३. नय मत थकीज जोय, भिन्नपणां करिकै तसु । वंछयो थकीज सोय, फर्श बे प्रदेश करि ।। ७४. अथवा जे बिहं पास, बे प्रदेश छै तेह पिण। इक-इक अणु प्रतिफास, माहोमांहि व्यवहितपणे ।। ७५. जघन्यपदे इम जाण, धर्म-प्रदेशज षट करी। द्वि प्रदेश खंध माण, फर्श छै इह रीत सं ।। ७६. ए नय मत अवलोय, अंगीकार जो नहिं करै। तदा जघन्य थी जोय, च्यार प्रदेशिक फर्शणा ।। ७७. ऊपर तल वा एक, बिहं पासे बे मध्य इक । ए विउ फर्शण पेख, लोकांते ए जाणवो।। ७८. इम धर्म-प्रदेशज च्यार, तास संचाते फर्शणा। इम कह्यो चूर्णिकार, हिव वृत्तिकार निज मत कयूं । ७६.बे परमाणू पेख, दोय प्रदेश कह्या तसु। उर रह्या संग एक, परै रह्या संग एक फुन ।। ७६. नेयमतानङ्गीकरणे तु चतुभिरेव द्वयणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्यादिति (वृ०प०६११) ७८. वृत्तिकृता त्वेवमुक्तम् - (वृ० प० ६११) ७९. इह यविन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यं तत्र चार्वाचीनः परमाणुर्धर्मास्तिकायप्रदेशेनार्वाक्स्थितेन स्पृष्टः, परभागवर्ती च परतः स्थितेन एवं द्वौ, (व०प०६११) ८०. तथा ययोः प्रदेशयोर्मध्ये परमाणू स्थाप्येते तयोरग्रे तनाभ्यां प्रदेशाभ्यां तो स्पृष्टी (वृ०प०६११) ८१. एकेनको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारः (वृ० प० ६११) ८२,८३. द्वो चावगाढ़त्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट् । (वृ० प० ६११) ८०. तथा बे प्रदेश रै मांहि, थाप्या बे परमाणुआ। तास आगला ताहि, फर्श धर्म-प्रदेश बे।। ८१. एक संघाते एक, बीजो द्वितीय संघात जे। इम च्यारूं संपेख, धर्म-प्रदेशज फर्शता ॥ ८२. अनै परमाणु दोय, दोय धर्म-प्रदेश नं। रह्या अवगाही सोय, तास संघाते फर्शणा ।। ८३. कह्यो वृत्ति रै मांय, द्वयणुक खंध इम जघन्य थी। षट धर्मास्तिकाय-प्रदेश साथे फर्शणा॥ वा०-अनै वृत्तिकार तो इम कह्यो-तत्र उरै वर्तमान परमाणओ उरै रह्या प्रदेश संघाते फर्श अनै पेले पासे रह्यो परमाणुओ पेलै कानी रह्या प्रदेश नं फर्श । इम बिहं पासे बे तथा वे प्रदेश नं मध्ये परमाणु दोय स्थाप्या । तेहना आगला दोय प्रदेश करि बिडं फयों-एक संघाते एक, बीजो बीजा संघाते । इम च्यार अनै दोय परमाणुआ बे प्रदेश अवगाही रह्या छै। इम द्वयणुक स्कंध जघन्यपदे छह धर्मास्तिकाय-प्रदेश फर्श । एहनी स्थापना ८४. 'उक्कोसपए बारसहि' ति, कथं ? (वृ० प० ६११) ५४. उत्कृष्टपदे विशेष, दोय प्रदेशी खंध ते । द्वादश धर्म-प्रदेश, तेह संघाते फर्शणा ।। १ ते आकाशास्ति नां प्रदेश नै । २. दोय प्रदेश खंध नो इक-इक प्रदेश प्रति । ३. आकाशास्ति रा। १६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. बे प्रदेश अवगाह्य, रह्या दोय परमाणुआ। तास संघात कहाय, फा धर्म-प्रदेश बे।। ८६. दोय नोचला जोय, ऊपरला प्रदेश बे। दोय पूर्व दिशि होय, बे पश्चिम दिशि में रह्या ।। ८७. दक्षिण पासे एक, उत्तर पामे एक वलि। इम द्वादश सुविशेख, फर्श धर्म प्रदेश करि॥ दो परमाणुआ द्वादश प्रदेश फर्श तेहनी स्थापना ८५. परमाणुद्वयेन द्वौ द्विप्रदेशावगाढत्वात्स्पृष्ट। (वृ०प० ६११) ८६,८७. द्वौ चाधस्तनो उपरितनौ च द्वौ पूर्वापरपार्श्व योश्च द्वी दक्षिणोत्तरपार्श्वयोश्चकैक इत्येवमेते द्वादशेति (वृ० प० ६११) ८८. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि । ८९. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? बारसहि 'बारसहिं' ति इह जघन्यपदं नास्ति । (वृ० प० ६११) ८८. *बे प्रदेश पुद्गल तणां, अधर्म-प्रदेश साथ । फर्श षट इम जघन्य थी, उत्कृष्टा रे बार संघात ॥ ८६. पूछा आकास्तिकाय नी ? जिन कहै बार संघात । पूरवली पर जाणवो, नहि कहिवी रे जघन्योत्कृष्ट बात ।। सोरठा १०. लोकांते पिण जोय, जे आकाश-प्रदेश नां। विद्यमान थी सोय, तिणसू द्वादश फर्शणा ॥ ६१. *शेष जेम धर्मास्ति कह्यो, धर्मास्तिकाय संघात । कहिवो तिणहिजरीत सं, तेहन रे इम अर्थ आख्यात ।। ६२.बे प्रदेश पुदगल तणां, जीवास्तिकाय नै ख्यात । किते प्रदेश करि फर्शणा ? जिन भाखै रे अनंत संघात ।। ९०. लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तं (वृ० प०६११) ९१. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। (श० १३/६६) ९२. दो भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं जीवत्थिकायप्पएसेहिं पुट्ठा ? गोयमा ! अणंतेहिं । (वृ० प० ६११) ९३. एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि (वृ०प० ६११) ९४. अद्धासमयः स्यात् स्पृष्टौ स्यान्न, (वृ० प० ६११) ६३. इम बे प्रदेश पुद्गल तणां, पुद्गलास्तिकाय नैं जेह । __ अनंते प्रदेशे करी, फर्रु रे इम कहिवू तेह ।। १४. वलि अद्धा समये करी, फर्श तेह किवार। द्वीप अढाई नै विषे, नहि फर्श रे समयक्षेत्र - बार ।। ६५. जो फर्श तो निश्चय करी, समय अनंत संघात । पूर्व पाठ भलावियो, तेहनों रे ए अर्थ आख्यात ।। ६६. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय नां, तीन प्रदेश आख्यात । कित धर्मास्तिकाय नैं, फौँ रे प्रदेश संघात ? ६७. जिन कहै जघन्यपदे करी, अष्ट प्रदेशज साथ । वलि उत्कृष्टपदे करी, सतरै रे प्रदेश संघात ।। ९५. यदि स्पृष्टौ तदा नियमादनन्तैरिति (वृ०प०६११) ९६. तिण्णि भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? ९७. जहण्णपदे अट्ठहिं उक्कोसपदे सत्तरसहि । *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय श० १३, उ० ४, ढा० २७८ १६९ Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन पुद्गलास्तिकाय नां प्रदेश धर्मास्ति रा प्रदेश जघन्य आठ फर्शे, तेहनी स्थापना सोरठा ६८. जघन्य अष्ट करि जाण, तास न्याय इम लीजिये । पूर्व नय मत आण, त्रिधावगाढ प्रदेश ते ॥ ६६. रह्या इक प्रदेश रै मांय, त्रिण प्रदेश पुद्गल तणां । इक नैं तीन कहाम, चूर्णिकार नय मत करी ॥ १००. ऊपर अथवा हेठ, बिहु में इक नैं त्रिण कह्या । बिहुं पासे बे नेठ, इम अठ नय मत चूर्णिकृत ॥ १०१. नय मत विण इम चीन, तीन प्रदेश विषे रह्या । पुद्गल - प्रदेश तीन, त्रिण अवगाढ प्रदेश ते ॥ १०२. ऊपर तीन कहाय, तल पिण तीन कहोजिये । वे पासे विधाय इम अठ आख्या वृत्तिकृत ॥ , १०४. ऊपरला जे तीन त्रिण पूर्व दिशि लीन, १०५. दक्षिण दिशि में एक, १०३. उत्कृष्ट सतरै संघात, नय मत विण तसु न्याय इम । त्रिण अवगाह विख्यात बिहूं पासा नां बिहुं बली ।। तीन अधोदिशि नां बली । पश्चिम दिशि नां तीन फुन ॥ उत्तर दिशि में एक वली । इम सतरै करि पेख, तीन प्रदेश विषे रह्यो । १०६. इम सर्व जघन्यपद मांहि, वांछित जेह प्रदेश थी । दुगुणा कहिवा ताहि, दोय रूप अधिका वली ॥ १०७. उत्कृष्टपदे विचार, वांछित जेह प्रदेश थी । पंचगुणां अधिकाय, अधिक रूप वे फगिये | १०८. * इम अधर्मास्तिकाय नां, प्रदेश नैं पूर्ववत जे फर्शणा, कहियूँ रे सह १०६. तीन प्रदेश पुद्गल तण, आकास्तिकाय ने जाण किते प्रदेश करि फर्शणा ? जिन भाखे रे सतरं पिछाण ।। संघात | अवदात || १ ७ CEB २ ३ ४ ६ पं १० १२ १४ ५ ६ ७ १२ १७ २२ २७ *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १७० भगवती जोड़ १६ ३२ ३० ८ १८ ४२ | १० २० २२ जधन्यपदे ५२ उत्कृष्टपदे ९ ४७ ९८-१००. 'जहन्नपए अट्ठाह' ति कथं ? (० ० ६११,६१२) १०१,१०२. पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशास्त्रिधा अस्तमोऽयुपरितनोऽपि वा विधा हो राश्चंत इत्येवमष्ट ( वृ० प० ६१२) १०६. सर्व जयन्यपदे विधिपरमाणुभ्यो द्विगुणा द्विरूपाधिकारच स्पर्शकाः प्रदेशा भवन्ति, ( वृ० प० ६१२) १०७. उत्कृष्टपदे तु विवक्षितपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा द्विरूपाधिकारच ते भवन्ति, ( वृ० प० ६१२) १०. एवं अम्मादेव १०९ केहि आगासत्यिकारपदेहि पुढा ? सत्तरसहि । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ११२. एवं एएणं गमेणं भाणियब्वा जाव दस, ११३. नवरं-जहण्णपदे दोण्णि पक्खिवियव्वा, ११४. उक्कोसपदे पंच। सोरठा ११०. पुद्गल जे लोकत, आगासत्थि नां प्रदेश करि। छह दिशि नां फर्शत, जघन्योत्कृष्ट न ते भणी ।। १११. *शेष सर्व विस्तार जे, जिम धर्मास्तोकाय । तेह विष जिम आखियो, कहियो रे तिमहिज न्याय ।। ११२. इम इण आलावे करी, पुद्गल नां पहिछाण । जाव प्रदेश दशां लगै, कहिवो रे सर्व फर्माण ।। ११३. णवरं इतो विशेष छ, जघन्यपदे सुवि शेख । कह्या पाछिला ते विष, अधिका रे बे रूप संपेख ।। ११४. वलि उत्कृष्टपणां विषे, कह्या पाछिला मांय । पंच अधिक प्रक्षपवा, कहिवो रे इम सगले न्याय ।। ११५. च्यार प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्यपदे दश साथ । उत्कृष्ट बावोसे करी, फर्गी र प्रदेश संघात ।। ११६. पंच प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य वार संघात । ते उत्कृष्टपदे करी, फग रे सत्तावीस साथ ।। ११७. छह प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य चवदै साथ । ते उत्कृष्टपदे करी, फश रे बत्तीस संघात ।। ११८. सप्त प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य सोल रै साथ । ते उत्कृष्टपदे करी, फर्गे रे संतीस संघात ।। ११६. अष्ट प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य अठार संघात । ते उत्कृष्टपदे करी, फर्श रे बयालीस साथ ।। १२०. नव प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य बीस संघात । ते उत्कृष्टपदे करी, फश रे संतालीस साथ ।। १२१. दश प्रदेश पुद्गल तणां, जघन्य बावीस संघात । ते उत्कृष्टपदे करि, फग रे बावन साथ ।। १२२. ए धर्मास्तिकाय ना, प्रदेश करि फर्शत । इम अधर्मास्तिकाय नां, फगैं रे प्रदेश उदंत ॥ १२३. प्रदेश आगासत्थिकाय नां, कहिवा सगले स्थान । उत्कृष्ट होज कह्या तिके, आकाशज रे सगले विद्यमान ।। १२४. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय नां, संख्याता प्रदेश । कितै धम-प्रदेशे करी, फर्शी रे ए प्रश्न विशेष ? १२५. जिन कहै जधन्यपदे जिको, संख्याये विचारयो खंध । दुगुणां प्रदेश करी तसु, अधिका रे बे रूप प्रबंध ।। सोरठा १२६. इहां भावना एह, बीस प्रदेशिक खंध ते। रह्यो लोकांते तेह, एक आकाश-प्रदेश में । १२७. पूर्व नय मत तेह, इक अवगाढ प्रदेश ते। बीस प्रदेश कहेह, प्रतिद्रव्य अवगाहक थकी। ११५. चत्तारि पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे दसहि, उक्कोसपदे बावीसाए। ११६. पंच पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे बारसहिं उक्कोसपदे सत्तावीसाए। ११७. छ पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे चोद्दसहि, उक्कोसपदे बत्तीसाए। ११८. सत्त पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे सोलसहि, उक्कोसपदे सत्ततीसाए। ११९. अट्ठ पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे अट्ठार सहि, उक्कोसपदे बायालीसाए। १२०. नव पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे वीसाए, उक्कोसपदे सीयालीसाए। १२१. दस पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे बावीसाए, उक्कोसपदे बावन्नाए। १२३. आगासत्थिकायस्स सव्वत्थ उक्कोसगं भाणियव्वं । (श. १३/६७) १२४. संखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहि पुट्ठा ? १२५. जहण्णपदे तेणेव संखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं, १२६,१२७. इह भावना-विशतिप्रदेशिक: स्कन्धो लोकान्त एकप्रदेशे स्थितः स च नयमतेन विशत्याऽवगाढप्रदेशः (वृ० प० ६१२) *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय श० १३, उ०४, ढा० २७८ १७१ Jain Education Intemational ation Interational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८,१२९. विशत्यैव च नयमतेनैवाधस्तनपरितना प्रदेशः द्वाभ्यां च पार्श्वप्रदेशाभ्यां स्पृश्यत इति (वृ० प० ६१२) १२८. ऊपर अथवा हेठ, बिहुं में एक प्रदेश त । पूर्व नय मत नेठ, कहियै बोस प्रदेश तसु ।। १२६. थया एम चालोस, बे पासा नां बे वली। इम ए बंयालोस, प्रदेश साथे फर्शना॥ १३०. *ते उत्कृष्टपदे जिको, संख्याये विचारयो खध। तेहथी पंचगुणां करी, अधिका रे बे रूप प्रबंध ।। १३०. उक्कोसपदे तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहि एणं । १३१.उत्कृष्टपदे तु विशत्या निरुपचरित रवगाढप्रदेश., (वृ०प० ६१२) १३२,१३३. एवमधस्तनै २० रुपरितनै २० पूर्वाष पार्व योश्च विशत्या २० द्वाभ्यां च दक्षिणोत्तरपायस्थिताभ्यां स्पृष्टस्ततश्च विशतिरूपः संख्याताणुक. स्कन्धः पञ्चगुणया विंशत्या प्रदेशानां प्रदेशद्वयेन च स्पृष्ट इति (व०५०६१२) १३४. केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? एवं चेय । १३५. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहि ? १३६. तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं । १३७. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहि ? अणतेहिं । १३८. केवतिएहि पोग्गलत्थिकायपदेसेहि ? अणंतेहिं । सोरठा १३१. उत्कृष्ट पदे विशेष, बोस आकाश-प्रदेश में । रह्या बीस प्रदेश, तिहां धर्म-प्रदेश नी फर्शणा ।। १३२. ऊपर बीस जगीस, बीस अधस्तन करि बलि । पूर्व दिशि में बीस, पश्चिम दिशि में बीस फुन । १३३. दक्षिण दिशि में एक, इक उत्तर दिशि नै विषे । इकसौ दोय अवेख, तास सघाते फर्शणा॥ १३४. *इम अधर्मास्तिकाय नै, प्रदेश करि फर्शत । कही-धर्म प्रदेश नी फर्शणा, कहियो रे तिमज वतंत॥ १३५. कितै आगासत्थिकाय नै, प्रदेश करि फर्शत। इहां जघन्यपद छै नहीं, तिणसं रे उत्कृष्ट भणंत ।। १३६. तेही जे संख्याये करी, संख्यात-प्रदेशी खंध । तेहथी पंच गुणां करी, अधिका रे बे रूप प्रबंध ॥ १३७. कितै जीवास्तिकाय ने, प्रदेश करी फर्शत? जिन कहै अनंता जोव नां, फर्श रे प्रदेश अनंत ।। १३८, कितै पुद्गलास्तिकाय नै, प्रदेश करी फर्शत? जिन भाखै अनंते करी, फशैं रे तिण में नहि भ्रत ॥ १३६. कितै अद्धा समय करी? कदाचित फर्शत? कदाचित फशैं नहीं, जे फौं रे ते समय अनंत । १४०. संख्यात प्रदेश पुद्गल तणां, आख्यो तसु विरतंत। हिवै असंख प्रदेश नां, पूछ रे गोयम गुणवंत ।। १४१. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय ना, असंख्याता प्रदेश । कितै धर्म-प्रदेशे करी, फर्श रे? ए प्रश्न पूछेस ।। १४२. जिन कहै जघन्यपदे करी, तेहिज असंख प्रदेश । तेहथी दुगुणा करि वली, अधिका रे बे रूप विशेष ॥ १४३. ते उत्कृष्टपदे करी, तेहिज असंख प्रदेश । तेहथी पंचगुणा करी, अधिका रे बे रूप कहेस । १४४. कहिवो शेषज थाकतो, संख्यात विषे कह्यु जेम । जाव अनंत समय करी, फशैं रे निश्चै तेम ॥ १४५. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय नां, जेह अनंत प्रदेश। कितै धर्म-प्रदेशे करी, फर्श रे? भाखो प्रभु ! रेस ।। १४६. इम जिम असंख्याता कह्या, तिम अनंत अवलोय । सह विस्तार कहीजिय, सूत्रे रे आख्यो सोय ॥ *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १३९. केवतिएहि अद्धासमएहि ? सिय पुढे,, सिय नो पुढे, जइ पुढे नियम अणंतेहि। (श० १३/६८) १४१. असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? १४२. जहण्णपदे तेणेव असखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं १४३ उक्कोसपदे तेणेव असंखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहि एणं । १४४. सेसं जहा संखेज्जाणं जाव नियमं अणंतेहिं । (श. १३/६९) १४५. अणंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? १४६. एवं जहा असंखेज्जा तहा अणंता वि निरवसेसं (श. १३/७०) १७२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७. 'असंखेज्जा' इत्यादौ षट्सूत्री तथैव । 'अणंतरं भंते !' इत्यादिरपि षट्सूत्री तथैव (वृ० प० ६१२) १४८. नवरमिह यथा जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशाः । (वृ० १० ६१२) सोरठा १४७. वत्ति विषे इम वाण, असंखेज्ज इत्यादि जे। षट द्रव्य सूत्र पिछाण, कहिवा तिणहिज रीत सं ।। १४८. पिण इहां इतो विशेख, जेम जघन्यपद नै विषे । औपचारिका सुलेख, अवगाहका प्रदेश जे॥ __ वा. --- पुदगल नों जेतला प्रदेशियो खंध लोक रै अंत एक आकाशास्ति रा प्रदेश में रह्यो, ते एक आकाश-प्रदेश नं पूर्वोक्त चूर्णिकार नय नै मते जेतला पुद्गल खंध नां प्रदेश रह्या छ, तेतला गिणवा । अन तेहनै ऊपर एक प्रदेश तथा हेठे एक प्रदेश यां दोयां मांहिला एक प्रदेश में जेतला पुद्गल खंध नां प्रदेश कह्या, तेतला गिणवा । जिम असंख्यातप्रदेशियो खंध लोकांते एक आकाश-प्रदेश नै विषे रह्यो ते एक आकाश-प्रदेश नै असंख्याता प्रदेश गिणवा। अन ऊपरलो तथा हेठलो दोया माहिला एक प्रदेश नं असंख्याता गिणवा, ए औपचारिक कला, पिण साक्षात नहीं। तिम ही एक प्रदेश में अनंतप्रदेशी खंध रह्यो, तेहनै अनन्त पण औपचारिक गिणवा, पिण साक्षात-बास्तविक नहीं। केम ? समचो लोक असंख्य प्रदेशात्मक ही हुदै । १४६.तिम ही ए अविशेष, ऊपर अथवा हेठला । उत्कृष्टपदे अशेष, कहिवाए औपचारिका ।। १५०. निरुपचरित निःशेष, अनन्त प्रदेश हुवै नहीं। लोकाकाश अशेष, असंख्य प्रदेशात्मक हवै ।। १४९. अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि (वृ०प०६१२) १५०. नहि निरुपचरिता अनन्ता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । (वृ० प० ६१२) १५१. इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः __ (वृ० प० ६१२) १५२,१५३. "धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहन्नयपयम्मि । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ? ॥ (वृ० प० ६१२) १५१. वलि इह प्रकरणेह, बे गाथा वृद्ध उक्त छ । तास न्याय हिव जेह, कह्यो वृत्ति में ते सुणो ।। १५२. धर्मास्तीकायादि, तास प्रदेशज आश्रयी।। जघन्यपदे सुसमाधि, द्विप्रदेशादिक हवै। १५३. जघन्य विषे ते लाधि, दुगुणा बे रूपाधिका । दोय प्रदेशज आदि, तास फर्शवो किम हुवै ? १५४. तसु उत्तर इम होय, लोकांते ह जघन्य थी। तास विषे अवलोय, लोक आश्रयी फर्शणा ।। १५५. तथा स्तंभादि पिछाण, तेहना अग्रज भाग में । जघन्य फर्शणा जाण, वृद्धोक्त आख्यो वृत्तौ ।। अद्धा समय के प्रदेशों की स्पर्शना १५६. *एक अद्धा समयो प्रभु ! धर्मास्तिकाय तणेह । कितै प्रदेशे करि फर्शणा ? जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १५४,१५५. एत्थ पुण जहन्न पयं लोगते तत्थ लोगमालिहिउं । फुसणा दावेयव्वा अहवा खंभाइकोडीए ।। (वृ०प०६१२) १५६. एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहि धम्मत्थिकाय पदेसेहिं पुठे ? सत्तहि । १. वृत्ति में वृद्धोक्त दो गाथाओं की संस्कृत व्याख्या जयाचार्य को उपलब्ध हुई, उसे पादटिप्पण में रखा गया है धर्मास्तिकायादिप्रदेशानाश्रित्य जघन्यपदं द्विप्रदेशादि भवति ततश्च जघन्य पदे तेनैव द्विरूपाधिकेन द्विगुणादिप्रदेशादयः कथं नु स्पृशेयुः इति प्रश्नः । उत्तरं-अत्र पुनः जघन्यपदं लोकांते भवति तत्र च लोकमालिख्य स्पर्शना दापयितव्या अथवा स्तंभादिकोट्यां स्तंभाद्यग्रभागे जघन्यपदस्पर्शना दापयितव्या। *लय: रावण राय आशा अधिक अथाय श०१३, उ० ४, ढा. २७८ १७३ Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७. इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः (वृ० प० ६१२) सोरठा १५७. इहां समय वर्तमान, विशिष्ट परमाणु तिको। रह्यो अढी द्वीप मध्य जान, ग्रहिवो अद्धा समय ते ।। १५८. अढी द्वीप रे मांय, रह्यो थको परमाणओ। तेहिज इहां गिणाय, समय युक्त छै ते भणी ।। १५६. इम थाय फर्शणा सात, बीज अद्धा समय नैं। धर्मप्र-देश संघात, सप्त फर्शणा नहिं हवै ।। १६०. इहां जघन्यपद नांय, द्रव्य विषे उत्कृष्ट पद। सात फर्शणा थाय, तेहिज सप्तकहोजिये ।। १६१. जघन्यपदे लोकांत, तिहां काल नहि ते भणी। इहां जघन्य नहिं हंत, समय अढी द्वीपेज ह। १६२. इहां सात संघात, फ0 ते किण रीत सं? तास न्याय आख्यात, कहियै छै ते सांभलो ।। १६३. अढी द्वीप मध्य एस, रह्यो विशिष्ट परमाणओ। एक धर्म-प्रदेश, ते प्रति अवगाही रह्यो । १५९. अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात्, (व प० ६१२) १६४,१६१. इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्य वत्तित्वाददासमयस्य, जघन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति, (वृ. प. ६१२) १६२. तत्र सप्तभिरिति, कथम् ? (बृ. ५० ६१२) १६३,१६ ४. अद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्यमेकत्र धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिक्ष्विति सप्तेति, (वृ० प० ६१२) १६५. केवतिएहि अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? एवं चेव, १६६. एवं आगासत्थिकाएहि वि । १६४. इक प्रदेश इम हंत तेहनैं छह दिशि नैं विषे । षट प्रदेश फर्शत, सप्त करी इम फर्शणा ।। १६५. *एक अद्धा समयो प्रभु ! अधर्मास्तिवाय तणे। कितै प्रदेश करि फर्शणा ?जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १६६. एक अद्धा समयो प्रभु ! आगासस्थिकाय तणेह । कितै प्रदेश करि फर्शणा? जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १६७. एक अद्धा समयो प्रभ! जीवास्तिकाय तणेह। कितै प्रदेश करि फर्शणा? जिन भाखै रे अनंत गिणेह ।। सोरठा १६८. एक प्रदेश रै मांय, जे अनंत जीवां तणां। अनंत प्रदेशज पाय, तिणसं अनंत फर्शणा ।। १६६. *एक अद्धा समयो प्रभु! पुद्गल स्तिकाय तणेह । कितै प्रदेश करि फर्शणा ? जिन भाखै रे अनंत गिणेह ।। १६७. केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? अणतेहि । १६८. जीवास्तिकायप्रदेशैश्चानन्तै रेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्तत्वात्, (वृ० प० ६१२) १६९. एकोऽद्धासमयोऽनन्तः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च स्पृष्ट इति, (वृ०प० ६१२) सोरठा १७०. अद्धा समयो एक, विशिष्ट परमाण विषे । वत तेह विशेख, ममा कह्यो तर ते भणी।। १७१. इक पुद्गल द्रव्य स्थान, अथवा सम्पासे चली। पुद्गल अनंत पिछाण, अनंत तणां सद्भाव थो।। १७२. * एक अद्धा समयो प्रभु ! कितै अद्धा समयेण । फर्श छै. भगवंत जी? जिन भाख रे अनंत कहेण ।। १७०. अद्धासमयविशिष्टमणुद्रव्यमद्धासमयः, (वृ० प०६१२) १७१. एकद्रव्यस्य स्थाने पार्वतश्चानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात् (वृ० प० ६१२) १७२. ""अद्धासमएहि । (श० १३१७१) १. अढाई द्वीप बाहिरलो परमाणु समय युक्त नहीं, ते भणी धर्मास्ति नां एक प्रदेश संघात पिण फर्शणा नहि हुवै । लय* : रावण राय आशा अधिक अथाय १७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३,१७४. तथाऽद्धासमयरनन्तै रसौ स्पृश्यते अद्धासमय विशिष्टानामनन्तानामप्यणुद्रव्याणामद्धासमयत्वेन विवक्षितत्वात तेषां च तस्य स्थाने तत्पार्वतश्च सद्भावादिति । (वृ०प० ६१२) सोरठा १७३. अद्धा समय कहेह, विशिष्ट अनंत अण द्रव्य नैं। अद्धा समयपणेह, तसु वांछितपणां थकी। १७४. अद्धा समयज एक, तसु स्थाने वा पास बलि । अनंत अणु द्रव्य पेख, तसु सद्भाव थकी वृत्तौ।। १७५. 'टबा विषे इम जेह, विशिष्ट अणु द्रव्य अंत नै । अद्धा समयपणेह, वांछितपणां थकी कह्य। १७६. ते समय अनंता सोय, जे एक समय नै ठाम छ । अथवा पासे जोय, गय काल अनंता वरतिया।। १७७. तथा अनागत काल, अनंत वर्तस्यै ते भणी। तसु सद्भाव निहाल, एहवो कह्यो टवा मझै'।। (ज० स०) १७८. *शत तेरम देश चौथो कह्यो, दोयसी अठंतरमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थो, 'जय-जश' रे हरष विशाल । ढाल : २७९ धर्मास्तिकाय आदि की परस्पर स्पर्शना दूहा १. धर्मास्तीकायादि नी, प्रदेश थकी विमास । पूर्वे आखी फर्शणा, द्रव्य थकी हिव फास ॥ २. समस्त धर्मास्तिकाय प्रभु ! अन्य धर्मास्तिकाय । तास कितैज प्रदेश करि, फर्श इम पूछाय? ३. जिन कहै एक हि साथ पिण, फर्श नहींज लेस । सहु धर्मास्ती पूछवै, नहिं अन्य धर्म-प्रदेश ।। १. धर्मास्तिकायादीनां प्रदेशतः स्पर्शनोक्ताऽथ द्रव्यतस्तामाह (वृ० प० ६१२) २. धम्मत्थिकाए णं भंते ! केवतिएहि धम्मत्थिकाय पदेसेहिं पुठे ? ३. 'नत्थि एक्केण' वि। 'नथि एगेणवि' त्ति सकलस्य धर्मास्तिकायद्रव्यस्य प्रश्नितत्वात् तद्व्यतिरिक्तस्य च धर्मास्तिकायप्रदेशस्याभावादुक्तं नास्ति । (वृ०प० ६१२,६१३) ४. केवतिएहि अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? असंखेज्जेहिं । ४. कितै अधर्मास्तिकाय नैं, प्रदेश करि फर्शत ? जिन कहै असंख प्रदेश करि, फ» एह अत्यंत ॥ ५. अंतर रहित रह्या अछ, धर्म-प्रदेश अशेष । तसु मध्योज अछै सही, असंख अधर्म-प्रदेश ।। ५. धर्मास्तिकायप्रदेशानन्तर एव व्यवस्थितत्वादधर्मास्तिकायसम्बन्धिनामसंख्यातानामपि प्रदेशानामिति (वृ० प० ६१३) ६. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं ? असंखेज्जेहिं । ६. कितै आगासत्थिकाय नै, प्रदेश करि फर्शह ? जिन कहै असंख प्रदेश करि, फौँ अछज एह ।। ७. असंसेज्ज प्रदेश छ, लोकाकाश प्रमाण । ए धर्मास्तिकाय नैं, फर्श छै इम जाण ॥ ७. असंख्येयप्रदेशस्वरूपलोकाकाशप्रमाणत्वाद्धर्मास्तिकायस्य (वृ. प. ६१३) लय : रावण राय आशा अधिक अथाय श०१३, उ०४, ढा० २७८,२७९ १७५ Jain Education Intemational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. किसे जीव- प्रदेश करि, फर्से से प्रभु! तास ? जिन कहै अनंत प्रदेश करि, धर्मास्ती ने फास || ६. जीव अनंता तेहनां, अनंत प्रदेश कहाय । ते धर्मास्तिकाय नैं, व्यापी रह्याज ताय ॥ १०. कितै प्रभु पुद्गल त ! प्रदेश करि फह ? जिन कहै अनंत प्रदेश करि, जीव तणी पर एह ॥ ११. कितै अद्धा समये करी, फश छ प्रभु ! वाह ! कदा, समयक्षेत्र ₹ मांहि ॥ नहीं, द्वीप अढाई बार थी, अनंत संघात विचार || जिन भाखे फर्शे १२. कदाचित फर्गे जो फर्श तो नियम 1 * बलिहारी आप री जयकारी तुझ ज्ञान हो, प्रभुजी ! वाण सुधारस तुम तणी, जयकारी तुझ ध्यान हो, प्रभुजी ! [ ध्रुपदं ] १३. अधर्मास्तिकाय ते किते धर्म-प्रदेश हो, प्रभुजी ! तिण करिने कर्णे अर्थ ? गोयमा प्रश्न विशेष हो, प्रभजी ! १४. जिन भा सुण गोयमा असंख प्रदेश संघात हो, गोयम ! तसु भावना पूरव पर अवदात हो, गोयम ! १५. किर्त अधर्मास्तिकाय ने प्रदेश करि फर्शात हो, प्रभुजी ! जिन कहै इक ही संघात जे फर्णे नहि तिलमात हो, गोयम ! १६. शेष सह विस्तार जे, धर्मास्तिकाय जेम हो, गोयम ! अधर्मास्तिकाय नां, षट आलावा एम हो, गोयम ! १७. आकाशास्तिकाय नां, षट आलावा जाण हो, गोयम ! 3 1 वलि जीवास्तिकाय नां षट आलावा पिछाण हो, गोयम ! १८. पुद्गल अत्विकाय नो अद्धा समय तणां वली, १६. इम इण आलावे की, सगलाई आलावा षट एम हो, गोयम ! आलावा षट तेम हो, गोयम ! पहिछाण हो, गोयम ! स्व स्थानक कहिया नहीं, इक पिण कर्मणा जाण हो, गोयम ! २०. पर स्थानक त्रिहुं आदि जे, धर्म अधर्म ए तीनूं सूत्र ने विषे, असंख प्रदेश करि २१. जीवास्ति पुद्गल अद्धा, पछला सूत्र तास विषे फर्णे अछे, अनंत प्रदेश २२. सूत्र आकाश विषे इहां, कह्यो एतलो आस्यो अर्थ विषे तिको, कहिये २३. आगासत्थिकाय हे प्रभु! कितले तेह संघाते फर्शणा ? गोयम प्रश्न २४. जिन भावे कर्णे कदा, कदाचित न फर्गे तो निश्च करी असंख प्रदेश २५. कहिवूं इणहिज रीत सूं, अधर्मास्तिकाय यावत असा समय नो सूत्र लगे कहिवाय *लय : सीता ओलखावे सोकां भणी १७६ भगवती जोड़ आकास हो, गोयम ! फास हो, गोयम ! ए तीन हो, गोयम ! ए चीन हो, गोवम ! विशेष हो, गोयम ! न्याय अशेष हो, गोवन ! धर्म- प्रदेश हो, प्रभुजी ! अशेष हो, प्रभुजी ! फर्णात हो, गोयम ! संपात हो, गोवम ! हो, गोयम ! हो, गोयम ! ८. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहि ? अनंतेहि । ९. जीवपुद्गलप्रदेशैस्तु धर्मास्तिकायोऽनन्तः स्पृष्ट:, तद्व्याप्त्या धर्मास्तिकायस्यावस्थितत्वात्तेषां चानन्तत्वात् (बु० प० ६१३) कायदेहि ? तेहि । १०. के लिए ११. केवतिएहि अद्धासमएहि ? सिय पुट्ठे १२. सिय नो पुट्ठे, जइ पुट्ठे नियमा अनंतेहि । (श. १३ / ७२) १३. अधम्मत्किाए णं भंते! केवतिएहि धम्मत्थिकायपदे से हि पुट्ठे ? १४. असंखेज्जेहिं । १५. केवतिएहि अधम्मत्थि कायपदेसेहि ? नत्थि एक्केण वि १६-१८ से जहा धम्मत्थिकायस्स १९. एवं एएणं गमएणं सव्वे वि सट्टाणए नत्थि एक्केण वि पुट्ठा २०. परट्ठाण आदिल्लएहि तिहि असंखेज्जेहि भाणियव्वं २१. पति अनंता भाषियन्या २२. इह चाकाशसूत्रेऽयं विशेषो द्रष्टव्य: ( वृ० प० ६१३) धर्मास्तिकायादिप्रदेश: २३, २४. आकाशास्तिकायो , स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च तत्र यः स्पृष्टः सोऽसंख्येयैर्धर्माधर्मास्तिकाययोः प्रदेशैर्जीवास्तिकायादीनां त्वनन्तैरिति (बृ० प० ६१३) २५. जाव अद्धासमयो त्ति 'जान दासमओ' ति अदासमयसूत्रं यावत् मूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः ( वृ० प० ६१३) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६-२८. 'जाव केवइएहि' इत्यादी यावत्करणादद्धासमयसूत्रे आद्यं पदपञ्चकं सूचितं षष्ठं तु लिखितमेवास्ते (वृ०प०६१३) सोरठा २६. धुर पद पंच पूछेस, अद्धा समयो छै तिको। कितै धर्म-प्रदेश, के अधर्म करि फर्शणा? २७. कितै आकाश-प्रदेश, कितै जीव-प्रदेश करि। पुद्गल ना पूछेस, कितै प्रदेश करि फर्शणा? २८. जाव शब्द में तास, पुद्गल लग जे सूत्र है। कित समय करि फाश, सूत्र छठो कहिये हिवै ॥ २६. *जाव कितै अद्धा समय करि, फर्रु छै भगवान हो ? प्रभुजी ! जिन कहै इक पिण समय करि, नहीं तास फर्शाण हो, गोयम ! २९. जाव केवतिएहि अद्धासमएहिं पुठे ? नत्थि एक्केण वि। (श० १३/७३) ३०. तत्र तु 'नत्थि एक्केणवि' त्ति निरुपचरितस्याद्धा समयस्यैकस्यैव भावात् (वृ० प० ६१३)) ३१,३२. अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति ।। (वृ० प० ६१३) ३३. जत्थ णं भंते ! एगे धम्मत्थिकायपदेसे ओगाढे, तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? ३४. नत्थि एक्को वि सोरठा ३०. वृत्ति विषे इम न्याय, अद्धा समय तणोज जे। उपचय नहिं छै ताय, एक समय नां भाव थी। ३१. समय अतीत पिछाण, ते तो विणठो सर्वथा। समय अनागत जाण, ते अणऊपजब करी ।। ३२. समय जिको वर्तमान, तेह थकी जे समय अन्य । तास संघाते जाण, नहीं फर्शणा इम वृत्तौ ।। अवगाहना द्वार ३३. *प्रभु ! धर्मास्तिकाय नों, रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभुजी ! किता धर्म-प्रदेश त्यां? जिन भाखै सुविशेष हो, गोयम ! ३४. जिन कहै धर्म-प्रदेश ज्यां, रह्यो एक सुविशेख हो, गोयम ! अन्य धर्मास्तिकाय नों, रह्यो प्रदेश न एक हो, गोयम ! ३५. किता अधर्म-प्रदेश त्यां? जिन भाखै सुविशेष हो, गोयम ! एक धर्म-प्रदेश त्यां, एक अधर्म-प्रदेश हो, गोयम ! ३६. किता आकाश-प्रदेश त्यां? जिन भाखै सूविशेष हो, गोयम ! एक धर्म-प्रदेश त्यां, एक आकाश-प्रदेश हो, गोयम ! ३७. किता जीवास्तिकाय नां, प्रदेश त्यां भगवंत हो? प्रभुजी ! जिन कहै अनंत जीवां तणां, तिहां प्रदेश अनंत हो, गोयम ! ३८. किता पुदगलास्तिकाय नां?जिन कहै अनंत कहेस हो, गोयम ! इक-इक धर्म-प्रदेश त्यां, पुद्गल अनंत प्रदेश हो, गोयम ३६. किता अद्धा समया तिहां? तब भाखै जिनराय हो, गोयम ! कदाचित अवगाहिया, कदाचित नहिं अवगाय हो, गोयम ! ४०. जो अवगाहा छ तिके, मनुष्यक्षेत्र रै माय हो, गोयम ! अनंत समय अवगाहिया, पूरवली पर न्याय हो, गोयम ! ३५. केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को। ३६. केवतिया आगासत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को। ३७. केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ओगाढा ? अर्थता । ३८. केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा ? अणंता । ३९. केवतिया अद्धासमया ओगाढा ? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा ४०. जइ ओगाढा अणंता । (श. १३/७४) 'अणंता' त्ति, अद्धासमयास्तु मनुष्यलोक एव सन्ति न परतोऽतो धर्मास्तिकायप्रदेशे तेषामवगाहोऽस्ति नास्ति च, यत्रास्ति तत्रानन्तानां भावना तु प्राग्वत् । (व. प. ६१४) सोरठा ४१. इक-इक धर्म-प्रदेश, पुद्गल द्रव्य अनंत त्यां। समय एक वर्तेस, कह्या अनंता एक ने॥ *लय : सीता ओलखाव सोका भणी श.१३,उ०४, २७९ १७७ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. *प्रभ ! एक अधर्मास्तिकाय नों, रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभुजी ! धर्म-प्रदेश किता तिहां? जिन कहै एक कहेस हो, गोयम ! ओगाढे ४२. जत्थ णं भते ! एगे अधम्मत्थिकायपदेसे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को । ४३. केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? ४४. नत्थि एक्को वि ४५. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । ४३. प्रभु ! अधर्मास्तिकाय नों, रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभुजी ! अन्य अधर्मास्ति तणां, किता प्रदेश कहेस हो, प्रभुजी! ४४. जिन कहै इक पिण नहिं तिहां, अधर्मास्तिकाय हो, गोयम ! इकहिज छै दूजी नथी, ते माटै न कहाय हो, गोयम ! ४५. शेष थाकतो ते सहु, धर्म विषे कह्य जेम हो, गोयम ! तेम अधर्मास्ति विष, कहिवं सगलं एम हो, गोयम ४६. प्रभु ! एक आगासत्थिकाय नु, रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभुजी ! धर्म-प्रदेश किता तिहां ? अवगाह्या सुविशेष हो, प्रभुजी ! ४७. जिन कहै अवगाह्य कदा, लोकाकाशे तास हो, गोयम ! कदाचित न अवगाहियो, अलोक ने आकाश हो, गोयम ! (श० १३/७५) ४६. जत्थ णं भंते ! एगे आगासस्थिकायपदेसे ओगाडे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? ४७. सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा 'सिय ओगाढा सिय नो ओगाढ' त्ति लोकालोकरूपत्वादाकाशस्य लोकाकाशेऽवगाढा अलोकाकाशे तु न तदभावात् । (वृ०प० ६१४) ४८, जइ ओगाढा एक्को ४९. एवं अधम्मत्थिकायपदेसा वि। ५०. केवतिया आगासत्यिकायपदेसा? नत्थि एक्को वि। ५१. केवतिया जीवत्थिकायपदेसा? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा ५२. जइ ओगाढा अणंता ५३. एवं जाव अद्धासमया। (श. १३७६) ४८. जो अवगाहो तो तिहां, एक प्रदेश कहेस हो, गोयम ! एक आकाश-प्रदेश त्यां, इक ही धर्म-प्रदेश हो, गोयम ! ४६. एम अधर्मास्ति तणो, प्रदेश कहिवं अशेष हो, गोयम ! इक प्रदेश लोकाकाश नों, त्यां एक अधर्म-प्रदेश हो, गोयम ! ५०. किता आकाश-प्रदेश त्यां? जिन कहै इक पिण नांय हो, गोयम ! आगासस्थिकाय एक छ, दूजी नहिं कहिवाय हो, गोयम ! ५१. किता जीवास्तिकाय नां, प्रदेश त्यां अवगाहि हो, प्रभजी ! जिन कहै अवगाह्या कदा, कदाचित रह्या नांहि हो, गोयम ! ५२. जो अवगाह्या तो अनंत है, लोकाकाशे कहेस हो, गोयम ! तिहां अनंत जीवां तणां, रह्या अनंत प्रदेश हो, गोयम ! ५३. इम यावत अद्धा समय जे, त्यां लग कहिवा एह हो, गोयम ! पुद्गल नैं अद्धा समय जे, तिमज अनंत कहेह हो, गोयम ! ५४. जीवास्तिकाय नों प्रभु ! ज्यां रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभुजी ! धर्म-प्रदेश किता तिहां? जिन कहै एक कहेस हो, गोयम ! ५५. अधर्मास्तिकाय नों, प्रदेश इम कहिवाय हो, गोयम ! आकाशास्तिकाय नों, प्रदेश पिण इम ताय हो, गोयम ! ५६. जीव-प्रदेश किता तिहां? जिन भाखै सुण संत हो, गोयम ! ज्यां इक जीव-प्रदेश त्यां, अनंत जीवां रा अनंत हो, गोयम ! ५७. शेष धर्मास्ति विषे कह्यो, कहिवो तेम उदंत हो, गोयम ! ज्यां इक जीव-प्रदेश त्यां, पुद्गल समय अनंत हो, गोयम ! ५८. प्रभ! पुदगलास्तिकाय नों, ज्यां रह्यो एक प्रदेश हो, प्रभजी! त्यां धर्मास्तिकाय नां, किता प्रदेश कहेस हो? प्रभुजी ! ५६. जिम जीव-प्रदेश विषे कह्य, तिम पुद्गल नों अशेख हो, गोयम ! इक प्रदेश पुद्गल तणो, धर्म-प्रदेश त्यां एक हो, गोयम ! *लय : सीता ओलखाब सोका भणी ५४. जत्थ णं भंते ! एगे जीवत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को ५५. एवं अधम्मत्थिकायपदेसा वि, एवं आगासस्थिकाय पदेसा वि। ५६. केवतिया जीवस्थिकायपदेसा? अर्णता। ५७. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। (श. १३७७) ५८. जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलत्थिकायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? ५९. एवं जहा जीवत्थिकायपदेसे तहेव निरवसेसं । (श. १३७८) १७८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश - प्रदेश हो, गोयम ! अनंता कहेस हो, गोयम ! अवगाह्या वे प्रदेश हो, प्रभुजी ! धर्म-प्रदेश किता तिहां ? उत्तर देवे जिनेश हो, गोयम ! तिहां पाय हो, गोयम ! ६२. एक धर्म- प्रदेश त्यां, कदाचित कदा धर्म- प्रदेश बे, निसुणो तेहनों न्याय हो, गोयम ! सोरठा ६३. रह्यो । एक आकाश-प्रदेश, दोय प्रदेशिक बंध जे। धर्म-प्रदेश विशेष एकटीज पाव सिहां ॥ ६४. रह्यो दोय आकाश प्रदेश, दोय प्रदेशिक संध जे । धर्म- प्रदेश विशेष, तिहां दोष कहिये तदा ॥ ६५. इम अधर्मास्तिकाय पिण, आगासत्थि पिण एम हो, गोयम ! पुद्गल नां वे प्रदेश त्यो एक कदा ये तेम हो, गोयम ! ६०. एक अधर्म - प्रदेश छै, एक अनंत प्रदेश जीवां तणां, समय ६१. जहां प्रभुजी ! पुद्गल तणां, ६६. जंतु' पुद्गल समय जे, ए तीनूं रह्या शेष हो, गोयम ! धर्म-प्रदेश विधे कह्यो कहियो तिम संपेल हो, गोयम ! ६७. एक धर्म- प्रदेश स्वां जीव-प्रदेश अनंत हो, गोयम ! पुद्गल ने अद्धा समय जे जेम अनंत कहत हो, गोयम ! ६८. तिम बे प्रदेश पुद्गल तणां, अवगाह्या जे स्थान हो, गोयम ! ते स्थानक कि अनंत छे जीव प्रदेशादि जान हो, गोयम ! ६९. पुद्गलास्तिकाय नां प्रभु ! तीन प्रदेश विद्याण हो, प्रभुजी ! जे स्थानक अवगाहिया, त्यां धर्म-प्रदेशके जाण हो, प्रभुजी ! ७०. जिन कहै एक कदा तिहां, कदाचित वे प्रदेश हो, गोयम ! तीन प्रदेश हुवे कदा धर्मास्ति न कहेस हो, गोयम ! 1 सोरठा ७१. रह्यो एक धर्म - प्रदेश ७२. रो दोष धर्म-प्रदेश तदा ॥ आकाश-प्रदेश, तीन प्रदेशिक खंध जे । विशेष, एकहीज पा तदा ॥ आकास-प्रदेश तीन प्रदेशिक बंध जे । विशेष, विहां दोय कहियै ७३. रह्यो तीन आकाश-प्रदेश तीन प्रदेशिक खंध जे । धर्म-प्रदेश विशेष, तिहां तीन कहिये तदा ॥ ७४. *इम अधर्मास्तिकाय नां. आगासत्वि पिण एम हो, गोयम ! धर्म- प्रदेश इक वे त्रिण कला, अधर्म आकाश तेम हो, गोयम ! ७५. शेष जीव पुद्गल तणां, किता प्रदेश ते स्थान हो, प्रभुजी ! अद्धा समय किता वली ? ए त्रिहुं सूत्र पिछाण हो, प्रभुजी ! ७६. जिम दोय प्रदेश पुद्गल तणां, अवगाह्या ते ठाम हो, गोयम ! पुद्गल जीव समय त्रिहूं, कह्या अनंता ताम हो, गोयम ! *लय : सीता ओलखावै सोकां भणी १. जीव ६१. जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलत्थिकायदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? ६२. सिय एक्को सिय दोण्णि ६३. यदेकत्राकाशप्रदेशे द्व्यणुकः स्कन्धोऽवगाढः स्यात्तदा तत्र धर्मास्तिकायप्रदेश एक एव ( वृ. प. ६१४ ) ६४. यदा तु द्वयोराकाशप्रदेशयोरसाववगाढः स्यात्तदा तत्र द्वौ धर्मप्रदेशाववगाढी स्यातामिति (बृ. प. ६१४) ६५. एवं अधम्मत्थिकायस्स वि एवं आगासत्थिकायस्त वि एवमवगाहनानुसारेणाधर्मान्तिकायाकाशास्तिकापयोरपि स्यादेकः स्यादद्वाविति भावनीयम् (बु.प. ६१४) ६६-६८. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । (श. १३०७९) 'सेसं जहा धम्मत्थि कायस्स' त्ति शेषमित्युक्तापेक्षया जीवास्तिकापुस्तिका या धर्मास्तिकायप्रवेशक्तव्यतामुक्तं तथा प्रदेशद्वयवक्तव्यतायामपि, पुद्गलप्रदेशद्वयस्थाने तदीया अनन्ताः प्रदेशा अवगाढा इत्यर्थः । (बृ. प. ६१४) ६९. जत्थ णं भंते ! तिष्णि पोग्गलत्थि कायपदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? ७०. सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय तिण्णि । त्रयं ७९. यदा त्रयोऽप्यणव एकत्रावगाढास्तदा तत्रैको धर्माकामप्रदेशढ: । (बृ. प. ६१५) ७२. यदा तु द्वयोस्तदा द्वाववगाढी ( वृ. प. ६१५ ) ७३. यदा तु त्रिषु तदा त्रय इति ( वृ. प. ६१५ ) ७४. एवं अधम्मत्थिकायस्स वि एवं आगासत्थिकायस्स वि । ७५,७६. सेसं जहेव दोण्हं 'सेसं जहेव दोहं' ति 'शेषं' जीवपुद्गलाद्धासमयाश्रितं सूत्रत्रयं यथैव द्वयोः पुद्गलप्रदेशयोरवगाहचिन्तायामधीतं तथैव प्रदेश चिन्तायामप्यध्येय, (बृ. प. ६१५) श० १३, उ० ४, डा० २७९ १७९ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. तिम तीन प्रदेश पुद्गल तणां 3 त्यां जीव-प्रदेश अनंत हो, गोवम ! अनंता प्रदेश पुद्गल तणां समय अनंता हुंत हो, गोयम ! ७८. प्रदेश इक इक इह विधे, बधारवो सुविशेष हो, गोयम ! आदि त्रिहुं अस्तिकाय नां, इक इक वृद्धि प्रदेश हो, गोयम ! ७६. जिम पुद्गल तीन प्रदेश त्यां धर्म अधर्म आकास हो, गोयम ! एहिं नां प्रदेश नीं कहीं इक इक वृद्धि विमास हो, गोयम ! ८०. इम च्यार प्रदेश पुद्गल तणां आदि रह्या ते स्थान हो, गोयम ! एक-एक त्यां बधारवो, कहियै तेह सुजान हो, गोयम ! ८१. प्रभु ! प्यार प्रदेश पुद्गल तणां अवगाह्या ते ठाम हो, प्रभुजी ! धर्म अधर्म आकास नां, किता प्रदेशज पाम हो ? प्रभुजी ! J ८२. जिन कहै एक हुवै कदा, कदा दोय कदा तीन हो, गोयम ! कदाचित विउ प्रदेश में पुरवली पर चीन हो, गोयम ! ८३. शेष जीव पुद्गल तणां, किता प्रदेश ते स्थान हो, प्रभुजी ! अद्धा समय कितावली ? ए त्रिहुं सूत्र पिछान हो, प्रभुजी ! ८४. जिम दोय प्रदेश पुद्गल सणां, अवगाह्या ते ठाम हो, गोयम ! पुद्गल जीव समय हिं कह्या अनंता ताम हो, गोयम ! ८५. चिउं आदि प्रदेश पुद्गल तणां त्यां जीव- प्रदेश अनंत हो, गोयम ! हुंत हो, गोयम ! अनंत प्रदेश पुद्गल तणां, समय अनंता ८६. प्रभु ! प्यार प्रदेश पुद्गल तो ठाम हो, प्रभुजी ! त्यां] जीव- प्रदेश राकिला ? अवगाह्या ते अनंत कहै जिन स्वाम हो, गोयम ! ८७. अनंत प्रदेश पुद्गल तणां समय अनंता पाम हो, गोयम ! कहिवा पुरवली परं, वारू विधि अभिराम हो, गोयम ! यावत दण पुद्गल तणां अवगाह्या जे प्रदेश हो, प्रभुजी ! त्यां धर्म अधर्म आकाश नां, किता प्रदेश कहेस हो, प्रभुजी ! कदा दोव कदा तीन हो, गोयम ! शेष अनंता चीन हो. गोवम ! , ८. जिन कहै एक हुवे कदा जाव कदाचित दश हुवै, ६०. प्रभु ! संख प्रदेश पुद्गल तणां अवगाह्या जे ठाम हो, प्रभुजी ! धर्म अधर्म आकाश नां, किता प्रदेशज पाम हो, प्रभुजी ! ११. जिन कहै एक हुवे कया कया दोष कदा तीन हो, गोयम ! जाव कदाचित दश हुवै, कदा संख्याता चीन हो, गोयम ! ६२. प्रभु ! असंख प्रदेश पुद्गल 1 तणां अवगाह्या जे ठाम हो, प्रभुजी ! धर्म अधर्म आकाश नां, किता प्रदेशज पाम हो, प्रभुजी ! ६३. जिन कहै एक हुवै कदा, कदा दोय कदा तीन हो, गोयम ! जाव कदाचित संख हूं. कदा असंख्याता चीन हो, गोयम ! , १५० भगवती जोड़ ७७. पुलप्रदेशस्थानेता इत्येवमध्येयमित्यर्थः । जीवप्रदेशा अवगाढा (बृ. प. ६१५) ७८. एवं एमकेयन्य पदेशो आइएहि तिहि अत्किएहि ७९. यथा पुद्गलप्रदेशत्रयावगाहचिन्तायां धर्मास्तिकायादिसूत्रत्रये एकैकः प्रदेशो वृद्धि नीतः । ( वृ. प. ६१५ ) ८०. एवं पुद्गलप्रदेशचतुष्पाद्यमहचिन्तामामध्येक स्तत्र वर्द्धनीयः । ( वृ. प. ६१५) ८१. जत्थ णं भंते ! चत्तारि पुग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ? (बृ. प. ६१५) तिन्नि सिय चत्तारि (बु. प. ६१५) ८२. सिय एक्को सिय दोन्नि सिय इत्यादि, भावना चास्य प्रागिव ८३, ८४. सेसेहि जहेव दोपह 'सेसेहि जहेब चोहं' ति तेषु जीवास्तिकापादिषु त्रिषु सूत्रेषु पुद्गलप्रदेशचतुष्टयचिन्तायां तथा वाच्यं यथा तेष्वेव पुद्गलप्रदेशद्वयावगाहचिन्तायामुक्तं । (बृ. प. ६१५) ८६. जत्य णं भंते ! पत्तारि पोग्यसत्विकाययएसा ओगाढा तत्थ केवतिया जीवत्थि कायप्पएसा ओगाढा ? अनंता इत्यादि (बृ. प. ६१५) ८९. जाव दसहं सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय तिणि जाव सिय दस । ९०, ९१. संखेज्जाणं सिय एक्को, सिय दोण्णि जाव सिय दस, सिय संखेज्जा ९२, ९३. असंखेज्जाणं सिय एक्को जाव सिय संखेज्जा, सिय असंखेज्जा । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४. जेम असंख्याता का, तास भावार्थ पिछाणये, ६५. प्रभु ! अनंत प्रदेश पुद्गल तेम अनंता ताम हो, गोयम ! कहिये अति अभिराम हो, गोवम ! तणां धर्म अधर्म आकास नो ६६. जिन कहै एक हुवै कदा, जव कदाचित संख, १७. लूं ईज कहीजिये, एह पाठ भगवं नथी, ८. धर्म अधर्म लोकाकाश नां, असंख अनंत प्रदेश न तेनां ६६. एक अद्धा समयो प्रभु धर्म-प्रदेश किता सिंह अवगाह्या जे ठाम हो, प्रभुजी ! किता प्रदेशज पाम हो, प्रभुजी ! कदा दोय कदा तीन हो, गोयम ! कदा असंख्याता चीन हो, गोयम ! पिण कदा अनंत होय हो, गोयम ! तास न्याय इम जोय हो, गोयम ! प्रदेशज ११०. अधर्मास्ति असंख १००. एक अद्धा समयो प्रभु ! किता अधर्म-प्रदेश त्यां? १०१. एक अद्धा समयो प्रभु ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! जिन कहे एकज पास हो, गोयम ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! किता आकास-प्रदेश त्यो ? जिन कहे एकज पाम हो, गोयम ! १०२. एक अद्धा समयो प्रभु ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! जीव- प्रदेश किता तिहों ? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! १०३. एक अद्धा समयो प्रभु ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! किता प्रदेश पुद्गल तणो ? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! १०४. एक अद्धा समयो प्रभु ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! अद्धा समया किता तिहां ? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! अन्य प्रकार से अवगाहना द्वार हंत हो, गोयम ! तिणसू नका अनंत हो, गोयम ! ! अवगाह्यो जिण ठाम हो, प्रभुजी ! जिन कहै एकजपाम हो, गोवम ! ? 1 १०५. प्रभु ! धर्मास्तिकाय जे अवगाही सुविशेष हो, प्रभुजी ! त्यांकिता धर्मास्तिकाय नां, अवगाह्या छै प्रदेश हो, प्रभुजी ! १०६. श्री जिन भाखै एक ही अवगाह्यो नहि सोय हो, गोयम ! धर्मास्तिकाय एक है, पिण दूजी नहि कोय हो, गोयम ! १०७. धर्मास्तिकाय शब्दे करी, धर्मास्ती नां जाम हो, गोयम ! सर्व प्रदेश संग्रह थकी, पण दूजी नहि ताम हो, गोयम ! १०८. प्रभु ! धर्मास्तिकाय जे अवगाही जे ठाम हो, प्रभुजी ! किता अधर्म-प्रदेश त्यो ? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १०९ प्रभु धर्मास्तिकाय जे अवगाही जे ठाम हो, प्रभुजी ! किता आकाश-प्रदेश त्यां ? ! जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! सोरठा नां प्रदेश पिछाण, जाण, लोकाकास्ति काय नां । धर्मास्ती नजिता ॥ ९४. जहा असंखेज्जा एवं अनंता वि । अस्यायं भावार्थ: । (श. १३/८० ) (बृ. प. ६१५) ९५. ' जत्थ णं भंते ! अनंता पोरगलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मत्किायप्पसा ओगाढा ? (बृ. प. ६१५ ) ९६. सिय एक्को सिय दोन्नि जाव सिय असंखेज्जा (बृ. प. ६१५) ९७. एतदेवाध्येयं न तु 'सिय अनंत' त्ति (वृ प. ६१५ ) ९८. धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायलोकाकाशप्रदेशानामनन्ता नामभावादिति । ( वृ. प. ६१५ ) ९९ जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि कायपदेसा ओगाढा ? एक्को। १०. केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ? एक्को । १०१. केवतिया आगासत्थिकायपदेसा ? एक्को । १०२. केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ? अनंता । १०३,१०४. एवं जाव अद्धासमया । (४० १३०१) १०५. जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि कायपदेसा ओगाढा ? १०६. नत्थि एक्को वि । १०८. केवतिया अधम्मत्थि कायपदेसा ? असंखेज्जा । १०९. केवतिया आगासत्थि कायपदेसा ? असंखेज्जा । शि० १३, उ० ४, ढा० २७९ १८१ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११. केवतिया जीवत्थिकायपदेसा? अणंता । ११२,११३. एवं जाव अद्धासमया। (श. १३१८२) ११४. जत्थ णं भंते ! अधम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? असंखेज्जा। ११५. केवतिया अधम्मत्थि कायपदेसा ? नत्थि एक्को वि । ११६. सेसं जहा धम्मत्थि कायस्स । एवं सब्वे-सटाणे नत्थि एक्को वि भाणियव्वो ११७. परहाणे आदिल्लगा तिण्णि असंखेज्जा भाणियव्वा । ११८. पच्छिल्लगा तिणि अणता भाणियब्वा जाव अद्धा समयो त्ति ११९. जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा ? नस्थि एक्को (श. १३१८३) वि। १११. *प्रभु ! धर्मास्तिकाय जे, अवगाही जे ठाम हो, प्रभजी ! किता प्रदेश जीवां तणां? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! ११२. प्रभु ! धर्मास्तिकाय जे, अवगाही जे ठाम हो, प्रभुजी ! किता प्रदेश पुद्गल तणां ? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! ११३. प्रभु ! धर्मास्तिकाय जे, अवगाही जे ठाम हो, प्रभुजी ! अद्धा समय किता तिहां ? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! ११४. प्रभु ! अधर्मास्तिकाय जे, अवगाही जे ठाम हो, प्रभजी! धर्म-प्रदेश किता तिहां? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! ११५. प्रभु ! अधर्मास्तिकाय जे, रही जिहां अवगाहि हो, प्रभुजी ! किता अधर्म-प्रदेश त्यां?जिन कहै इक पिण नांहि हो, गोयम ! ११६. शेष धर्मास्तिकाय नी, अवगाहन कही तेम हो, गोयम ! कहिवी सगली स्वस्थानके, नहीं एक पिण एम हो, गोयम ! ११७. पर स्थाने त्रिहुं आदि जे, धर्म अधर्म आकास हो, गोयम ! ए तीन नां प्रदेश ते, असंखेज्ज सुविमास हो, गोयम ! ११८. त्रिहुं पछला जीव पोग्गला, अद्धा समय अनंत हो, गोयम ! जाव अद्धा समया लगै, भणवू एह उदंत हो, गोयम ! ११६. जाव अद्धा समया किता, अवगाया जिनराय हो ? प्रभुजी ! जिन कहै इक पिण समयही, अवगाहन तिहां नाय हो, गोयम ! सोरठा १२०. स्व स्थाने सहु ठाम, इक ही अवगाहक नथी। ते इकहिज छै ताम, बीजी नहिं तिण कारणे ।। जीवों को अवगाहना द्वार १२१ *पृथ्वीकायिक इक प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभुजी ! किता पृथ्वी अवगाहिया? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १२२. पृथ्वीकायिक इक प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभुजी ! किता तिहां अपकायिका? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १२३. पृथ्वीकायिक इक प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभु जी! किता तिहां तेउकायिका ? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १२४. पृथ्वीकायिक इक प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभुजी ! किता तिहां वाउकायिका ? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १२५. पृथ्वीकायिक इक प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभुजी ! वनस्पति तिहां केतला? जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! सोरठा १२६. जिहां इक पृथ्वी जीव, तिहां असंखेज्ज सूक्षम मही। इम अप तेज कहीव, सूक्षम वायु पिण असंख ।। *लय : सीता ओलखावै सोका भणी १२१. जत्थ णं भंते ! एगे पुढविक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविक्काइया ओगाढा ? असंखेज्जा। १२२. केवतिया आउक्काइया ओगाढा ? असंखेज्जा। १२३. केवतिया तेउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। १२४. केवतिया वाउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा । १२५. केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? अणंता । (श० १३।८४) १२६,१२७वीकायिकावामा अवगाढा १२६,१२७. 'जत्थ णं भते ! एगे पुढविक्काइए' इत्यादि, एकपृथिवीकायिकावगाहेऽसङ्ख्येयाः प्रत्येकं पृथिवीकायिकादयश्चत्वारः सूक्ष्मा अवगाढाः यदाह-'जत्थ १८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज' त्ति, वनस्पतयस्त्वनन्ता इति । (वृ० १०६१५) १२८. जत्थ णं भंते ! एगे आउक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविक्काइया ओगाढा ? असंखेज्जा । १२९. एवं जहेव पुढविक्काइयाणं वत्तव्वया तहेव सव्वेसि निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणस्स इकाइयाणं । १३०. जाब केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? अणंता । (श० १३॥८५) १२७. जिहां इक पृथ्वीकाय, तिहां वनस्पतिकायिका। कह्या अनंता ताय, सर्व लोकवर्ती सुहम ।। १२८. *इक अपकायिक हे प्रभु ! अवगाही ते ठाम हो, प्रभुजी ! किता तिहां पृथ्वीकायिका ? जिन कहै असंखिज्ज पाम हो, गोयम ! १२६. इम जिम पृथ्वीकाय नीं, वक्तव्यता कही सोय हो, गोयम ! तिमज सह नी वारता, जाव वनस्पति जोय हो, गोयम ! १३०. जाव प्रभु ! इक वणस्सइ, अवगाही जे ठाम हो, प्रभुजी ! त्यां किता वणस्सइकायिका ?जिन कहै अनंता पाम हो, गोयम ! सोरठा १३१. साधारण अपेक्षाय, अथवा सूक्ष्म अपेक्षया । जिहां इक वणस्सइकाय, अनंत तिहां इम संभवै ।। अस्तिकाय प्रदेशनिषीदन द्वार १३२. *प्रभ ! धर्मास्तिकाय नै विषे, वलि अधर्मास्तिकाय हो, प्रभुजी ! आकाशास्तिकाय जे, ए तीनूं विषे ताय हो, प्रभुजी! १३३. समर्थ छै कोइ बैसवा, मुवा समर्थ सोय हो, प्रभजी ! ऊभो रहिवा नैं चालवा, आडो तेढो होय हो, प्रभजी ! १३४. जिन कहै अथ समर्थ नहीं, पिण जीव अनंता तेम हो, गोयम ! अवगाही नै रह्या तिहां, प्रभु ! किण अर्थे कह्यो एम हो ? प्रभुजी ! १३५. जिन दष्टांत देई कहै, साला कूट-आकार हो, गोयम ! बाहर मांहि लीपी गुप्ति छ, गुप्त अछै तसु द्वार हो, गोयम ! १३६. जिम रायप्रश्रेणी सूत्र में, आख्यो ए दृष्टांत हो, गोयम ! यावत द्वार किमाड़ ते, साला नां ढांकत हो, गोयम ! १३७. ते कंटाकार साला विषे, बहुविध भूमि बिचाल हो, गोयम ! एक दोय तीन जघन्य थी, दीपक को उजवाल हो, गोयम ! १३८. उत्कृष्ट सहस्र दीवा प्रतै, उजवाल नर कोय हो, गोयम ! ते निश्चै करि गोयमा ! सांभल तूं अवलोय हो, गोयम १३६. लेश्या तेज दीवा तणो, ह संबंध मांहोमाय हो, गोयम ! अण्णमण्ण फर्श जाव ते, इक घट थइ रहवाय हो, गोयम ! १३२,१३३. एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय-अधम्मस्थिकाय आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? १३४. नो इणठे समठे, अणंता पुणत्थ जीवा ओगाढा। (श० १३०८६) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ? १३५. गोयमा ! से जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा। १३६. जहा रायप्पसेणइज्जे (सूत्र ७५५) जाव (सं. पा.) दुवारवयणाई पिहेइ। १३७. तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा। १३८. उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेज्जा । से नूर्ण गोयमा! १४०. हां स्वामी! गोतम कहै, तब भाखै जिनराय हो, गोयम ! समर्थ छै कांइ गोयमा ! ते दीप लेश्या विषे ताय हो, गोयम ! १४१. बैसण जाव लेश्या विषे, आडो होवा तत्थ हो, गोयम ! गोतम कहै भगवंत जी ! नहिं ए अर्थ समत्थ हो, प्रभुजी ! १४२. प्रभु कहै जीव अनंत ही, रह्या तिहां अवगाहि हो, गोयम ! तिण अर्थे इम आखियै, जाव ओगाढा ताहि हो, गोयम ! १३९. ताओ पदीवलेस्साओ अण्णमण्णसंबद्धाओ अण्णमण्ण पुढाओ अण्णमण्णसंबद्धपुटाओ अण्णमण्णघडताए चिठ्ठति ? १४०.हंता चिट्ठति । चक्किया णं गोयमा ! केई तासु पदीवलेस्सासु १४१. आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा ? भगवं! नो इणठे समठे। १४२. अणंता पुणत्थजीवा ओगाढा । से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव अणंता पुणत्थ जीवा ओगाढा । (श०१३।८७) *लय : सीता ओलखावै सोकां भणी श० १३, उ०४, ढा० २७९ १८३ Jain Education Intemational Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३. कहि णं भंते ! लोए बहसमे, कहि णं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? बहुसम द्वार १४३. प्रभु ! लोक अत्यंत समो किहां, हानि वृद्धि करि रहित हो, प्रभुजी ! किहां सर्व थी सांकड़ो, ते सर्व विग्रहिक' कहित हो ? प्रभजी! १४४. जिन कहै रत्नप्रभा पृथ्वी, तास विषे कहिवाय हो, गोयम ! ऊपरलो नै हेठलो, क्षुल्लक प्रतर विषे ताय हो, गोयम ! १४५. ऊपरलो जे प्रतर लघु, ते प्रति अवधि करेह हो, गोयम ! ऊंची प्रतर नी वृद्धि, प्रवृत्ता छै तेह हो, गोयम ! १४६. वली हेठलो प्रतर लघु, ते प्रति अवधि करेह हो, गोयम ! नीची प्रतर नी वृद्धि, प्रवृत्ता छ तेह हो, गोयम ! १४७ ए बिहु प्रतर छ तिके, शेष प्रतर नी पेक्षाय हो, गोयम ! नान्हा छै तिण कारणे, क्षुल्लक प्रतर कहिवाय हो, गोयम ! १४८. ते बिहु प्रतर छै तिके, रज्जु प्रमाण विचार हो, गोयम ! आयाम विक्खंभपणे तिको, आख्या वृत्ति मझार हो, गोयम ! १४६. मध्यवर्ती तिरछा लोक नै, नवसौ योजन हेठ हो, गोयम ! नवसौ योजन उर्द्ध छ, ते तिर्यक लोक मध्य नेठ हो, गोयम ! १५०. बह सम लोक इहां कह्यो, वृद्धि हानि करि रहित हो, गोयम ! वक्र सर्व थी सांकड़ो, ते पिण इहां कहित हो, गोयम ! १५१. किहां अछ भगवंत जी! लोक तणों अवलोय हो, प्रभूजी ! विग्रह विग्रहिक शरीर छ, वृद्धि हानि जिहां होय हो ? प्रभुजी! १४४. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम हेट्ठिल्लेसु खुड्डगपयरेसु । १४५. उपरिमो यमवधोकृत्योर्ध्व प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता। (वृ० प० ६१६) १४६. अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता। (वृ०प०६१६) १४७-१४९. ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवत्तिनोः। (व०प०६१६) १५२. जिन वहै विग्रहकंड ते, ब्रह्मकल्प नां पिछान हो, गोयम ! कूपर खूणो छै तिहां, प्रदेश नी बृद्धि हान हो, गोयम ! १५०. एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते। (श० १३।८८) १५१. कहि णं भंते ? विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते ? 'विग्गहविग्गहिए'त्ति विग्रहो---वक्रं तयुक्तो विग्रहःशरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः । (वृ० प०६१६) १५२. गोयमा ! विग्गहकंडए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते। (श०१३।८९) 'विग्गहकंडए' त्ति विग्रहो-वक्रं कण्डक-अवयवो विग्रहरूपं कण्डक-विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूपर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्धया हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं । (वृ०प०६१६) १५३. किसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठियसंठिए लोए पण्णत्ते । संस्थान द्वार १५३. प्रभू ! स्यं संस्थाने लोक छै? तब भाखै भगवान हो, गोयम ! सुप्रतिष्ठक संस्थिति, तास न्याय इम जान हो, गोयम ! सोरठा १५४. अर्थ विषे अवदात, सराव संपुट संस्थित । केयक इम आख्यात, कलस ऊपरै कलस जिम।। १५५. केइ कहै सराव तीन, तलै सराव अधोमुखी। ऊपर संपुट चीन, ऊर्द्धमुखो में अध:मुख ।। १५६. *हैठे विस्तीर्ण कह्यो, मध्य सांकड़ो न्हाल हो, गोयम ! जेम सातमा शतक मैं, प्रथम उद्देशे भाल हो, गोयम ! १५७. कयो सरूपज लोक नों, कहिवो तिणहिज रीत हो, गोयम ! जाव अंत कर दुख तणो, इतला लग सुवदीत हो, गोयम ! १. वक्र । *लय : सीता ओलखाब सोकां भणी १५६,१५७. हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते - जहा सत्तमसए पढमुद्देसे (सूत्र ३) जाव (सं० पा०) अंतं करेति । (श० १३।९०) १८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८. अधो तिर्यक ऊर्द्धलोक नै, हे भगवंत ! संपेख हो, प्रभुजी ! कुण-कुण थी अल्पबहुत्व है, तुल्ला अधिक विशेख हो ? प्रभुजी ! १५६. जिन कहै थोड़ो सर्व थी, तिरछो लोक पिछाण हो, गोयम ! अष्टादश सौ योजन तणो, जाडो बाहल्य जाण हो, गोयम ! १६०. तेह थकी ऊर्द्धलोक ते. असंख्यातगूणो जाण हो, गोयम ! __ सप्त रज्जु देश ऊण छ, ते ऊंचपणे पहिछाण हो, गोयम ! उडढलोगस्स य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा ? १५९. गायमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए। 'सव्वत्थोवे तिरियलोए' त्ति अष्टादशयोजनशतायामत्वात् । (व० प० ६१६) १६०. उड्डलोए असंखेज्जगुणे। 'उड्डलोए असंखेज्जगुणे'त्ति किञ्चिन्यूनसप्तरज्जूच्छितत्वात्। (वृ० प० ६१६) १६१. अहेलोए विसेसाहिए। (श० १३।९१) सेव भंते ! सेवं भते ! ति। [श० १३।९२] 'अहे लोए विसेसाहिए' त्ति किञ्चत्समधिकसप्तरज्जूच्छ्रितत्वादिति। (वृ० प० ६१६) १६१. तेह थकी अधोलोक ते, आख्यो अधिक विशेख हो, गोयम ! सप्त रज्जु जाझो ऊंच थी, सेवं भंते ! संपेख हो, प्रभुजी! १६२. तेरम शत चउथो कह्यो, बेसौ गुण्यासीमी ढाल हो, सुगणा ! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल हो, सुगणा ! त्रयोदशशते चतुर्थोद्देशकार्थः ।।१३।४॥ ढाल : २८० नरयिक आहार पद १,२. अनन्तरोद्देशके लोकस्वरूपमुक्तं तत्र च नारकादयो भवन्तीति नारकादिवक्तव्यतां पञ्चमोद्देशकेनाह (वृ० प० ६१६) १. चउथ उद्देशे आखियो, लोक स्वरूप विशाल । तिहां नारकादिक हुवै, विविध प्रकारे न्हाल ।। २. ते माटै नरकादि नीं, वक्तव्यता अवदात । कहियै छै ते सांभलो, जे दाखी जगनाथ ॥ ३.हे भगवान! स्यूं नारकी, सचित्त आहारी धार । तथा अचित्त आहारी अछ, अथवा मिश्र आहार? ४. जिन भाखै सुण गोयमा ! सचित्ताहारा नाय। अचित्ताहारा छै तिकै, मिश्राहार न पाय॥ ५. इहविध असुरकुमार पिण, पन्नवण पद पहिछाण । अट्ठावीसमां नो प्रथम, नरक उद्देशो जाण ।। ३. नेरइया णं भंते ! किं सचित्ताहारा ? अचित्ता हारा! मीसाहारा? ४. गोयमा ! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा। ५. एवं असुरकुमारा, पढमो नेरइयउद्देसओ। (पण्ण० २८.१-१०५) 'पढमो नेरइयउद्देसओ' इत्यादि, अयं च प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमस्याहारपदस्य प्रथमः । (वृ० प० ६१६) ६. निरवसेसो भाणियब्यो। (श०१३।९३) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। ६. ते समस्त कहिवो इहां, सेवं भंते ! स्वाम । शतक तेरमा नों कह्यो, पंचमुद्देशो ताम ।। त्रयोदशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१३॥५॥ श० १३, उ०४,५, ढा० २७९,२८० १८५ Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सान्तर-निरन्तर पक्ष *जिन वच महा जयकारी हे, सरध्यां थो शिव सारो हे। (ध्रुपदं) ७. राजगह जाव गोतम इम बोल्या, हे प्रभ ! नारक जीवा हे। समयादि अंतर-सहित ऊपजै, के अंतर-रहित कहीवा हे ? ८. जिन कहै नारक अंतर-सहित पिण, उपजै छै दुखकारा हे। ___ अंतर-रहित पिण नारक ऊपजै, इमहिज असुरकुमारा हे ।। ६. इम जिम गंगेय तिमज बे दंडक, यावत अंतर-सहीतो हे । वेमाणिया जे देव छ, वलि चवै अंतर-रहीतो हे ।। ७. रायगिहे जाव एवं वयासी-संतरं भंते ! नेरइया उववज्जति ? निरतरं नेरइया उवबज्जति ? ८. गोयमा ! संतरं पि नेरइया उबवज्जति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति । एवं असुरकुमारा वि । ९. एवं जहा गंगेये (श० ९।८०-८५) तहेव दो दंडगा जाव संतरं पि बेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयंति । (श० १३।९५) सोरठा १०. चवन विमानिक उक्त, ते सुर छै तिण कारण । चमर आवास प्रयुक्त, सुर अधिकार थकी हिवै ॥ चमर आवास पद ११. *किहां प्रभुजी ! चमर असुर नां, इंद्र तणो सुखदायो हे। चमरचंचा नामैं आवासज? हिव भाखै जिनरायो हे ।। १२. जंबूद्वीप नां मंदर गिरि थी, दक्षिण दिशि रै माहो हे । तिरछा असंख्याता द्वीप समुद्रे, अर्णोदधि कहिवायो हे। १३. इमहिज बीजा शतक तणो जे, सभा नाम उद्देशो है। वक्तव्यता कही ते सह कहिवी, णवरं इतलो विशेषो हे ।। १०. अनन्तरं वैमानिकानां च्यवनमुक्तं, ते च देवा इति देवाधिकाराच्चमराभिधानस्य देवविशेषस्यावासविशेष प्ररूपणायाह (वृ० प० ६१७) ११. कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते ? १२. गोयमा ! जंबुद्दीबे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं । तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे --- १३. एवं जहा बितियसए (सू० ११८-१२१) सभाउद्देसए वत्तव्वया सच्चेब अपरिसेसा नेयव्वा (पा० टि०) नवर-इमं नाणतं । १४. जाव तिगिच्छकूडस्स उप्पायपव्वयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपब्वयस्स अण्णे सिंच बहूणं । (पा० टि०) १५. सेसं तं चेव जाव तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं । (पा० टि०) १४. जाव तिगिच्छकूट गिरि उत्पातज, चमरचंचा रजधानी हे। चमरचंचा प्रासाद पर्वत न, अन्य बहु नो जानी हे ।। १५. शेष तिमज जाव साढा तेरै, आंगुल किंचि विशेखो हे। परिधि एतली तेह तणी छ, ए जिन कीधो लेखो हे ।। सोरठा १६. तीन लाख अवलोय, सोल सहस्र नैं दोयसौ। सत्तावीस वलि जोय, योजन इता कहीजिये ।। १७. गाऊ तीन समेर, धनुष एक सौ अष्टविंश । आंगुल साढा तेर, कांइक जाझी परिधि तसु।। १८. *ते चमरचंचा नामैं राजधानी नै, नैरुत कूण रै मांडो हे। छह सौ पचावन कोड़ योजन वलि, पैतीस लाख कहायो हे। १६. पचास सहस्र योजन अर्णोदय, समुद्रे तिरछो जइयै हे। इहां चमर नों आवास कह्यो छ, चमरचंच नाम कहिये हे ।। १६,१७. तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलगं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । (भ० श० ६७५) १८. तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपच्चत्थिमे णं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ 'पणतीसं च सयसहस्साइं। १९. पन्नासं च सहस्साइं अरुणोदगसमुदं तिरियं वीइ वइत्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते२०. चउरासीई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, दो जोयणसयसहस्सा पन्नटुिं च सहस्साई। २१. छच्च बत्तीसे जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । से णं एगेणं पागारेणं सब्बो समंता संपरिक्खित्ते। २०. सहस्र चउरासी योजन नों, ते लांबो चोड़ो जाणी हे। परिधि दोय लक्ष योजन नी छ, पैंसठ सहस्र पिछाणी हे ।। २१. छसौ बत्तीस योजन वलि किंचित, विशेष अधिक बखाणी हे। एक कोट पिण करि सगली दिशि, चउफेर बीटयो जाणी हे। *लय : बलियां सू केम १८६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. ते प्राकार दोढसय योजन, ऊंचपण अधिकारी हे। इम चमरचंचा नामैं रजधानी नीं, वक्तव्यता तिम धारी हे ।। २३. सभाविहूणा इहां सभा न भणवी, सौधर्मादि पांचोई है। यावत च्यार प्रासाद पंक्ति तसु, ते इहविध अवलोई हे ।। सोरठा २४. 'मूल प्रासाद विचार, ऊर्द्ध अढी सय योजने । तेहनै पासे च्यार, योजन सवासौ ऊर्द्ध ते । २५. तसु परिवारज सोल, योजन साढा बासठ जे। तसु पासे चोसठ चोल, ऊर्द्ध सवा इकतीस जे ।। २२. से णं पागारे दिवडढं जोयणसयं उड्ढे उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाए रायहाणीए वत्तव्वया भाणियव्वा । २३. सभाविहूणा जाव चत्तारि पासायपंतीओ। (श० १३।९६) 'सभाविहूणं' ति सुधर्माद्याः पञ्चेह सभा न वाच्याः (वृ० प० ६१७) २४,२५ सौधर्मवैमानिकानां " .... तदन्ये चत्वारस्तत् परिवारभूताः साढ़े द्वे शते प्रत्येकं च तेषां चतुर्णामप्यन्ये परिवारभूताश्चत्वारः सपादशतम् । एवमन्ये तत्परिवारभूताः सार्द्धा द्विषष्टिः । एवमन्ये सपादैकत्रिंशत् । (भ० ० ५० १४६) २६. तेह तणें परिवार, बेसौ छप्पन म्हैल है। पनरै योजन सार, पंच भाग ए ऊर्द्ध है। २७. त्रिण सय इकतालीस, सहु प्रासाद पंक्ती विषे। ___इहां अर्थ में दीस, जाव पंक्ति चिउं पाठ में ॥' [ज० स०] २८. *चमरचंच आवास विषे प्रभु ! चमर असुर इंद जेही हे । वास करै छै तिहां बस छै? अर्थ समर्थ न एही हे ।। २८. चमरे णं भंते ! असुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे वसहि उवेति ? नो इणठे समझें । (श० १३३९७) २९. से केणं खाई अह्रणं भंते ! एवं बुच्चइ-चमरचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे? ३०. गोयमा! से जहानामए-इहं मणुस्सलोगंसि उवगा रियलेणाइ वा २६. से केणं खाई अठेणं भंते! एवं वच्चइ तासो हे। ते किस ख्यात प्रसिद्ध अर्थ करि प्रभ! - कहिये चमरचंच आवासो हे ? ३०. जिन कहै गोयम ! यथा दृष्टांते, इण मनुष्यलोक रै मांही है। औपकारिक जे लयन कह्यो छ, तास अर्थ कहिवाई हे ।। ___ सोरठा ३१. उवगारिय सुलेण, ते प्रासादादिक तणो। पीठ सरीस कहेण, पीठ-बद्ध घर ए हुवै ॥ ३२. *वलि उद्यान विषे जे घर ते, जण उपकारिक जाणी हे। अथवा नगर प्रवेश विषे घर, मनहर अधिक बखाणी हे। ३१. 'औपकारिकलयनानि' प्रासादादिपीठकल्पानि । (वृ० प० ६१७) ३२. उज्जाणियलेणाइ वा । 'उज्जाणियलेणाइ व' ति उद्यानगतजनानामुपकारिक गृहाणि नगरप्रदेशगृहाणि बा। (वृ० प० ६१७) ३३. णिज्जाणियलेणाइ वा । धारावारियलेणाइ वा। 'णिज्जाणियलेणाइ वत्ति नगरनिर्गमगृहाणि ।' (वृ० प० ६१७) ३३. वलि णिज्जाणिय लेणाति वा नगर-निगम गह जाणी हे। धारावारिए लेणाति वा, तास अर्थ हिव ठाणी हे ।। सोरठा ३४. धारा ईज प्रधान, वारि तोय जेह नै विषे । ते धारावारिक जान, तेह लयन कहिये तसु॥ ३५. *तिहां बहु मनुष्य मनुष्यणी रहै छ, आसयंति अल्प कालो हे। सयंति ते बहु काल रहै छै, प्रथम अर्थ ए न्हालो हे ॥ ३४. 'धारिवारियलेणाइ वत्ति धाराप्रधानं वारि-जलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि लयनानि । (वृ० प० ६१७) ३५. तत्थ णं बहवे मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति सयंति । 'आसयंति' त्ति 'आश्रयन्ते' ईषद्भजन्ते 'सयंति' त्ति 'श्रयन्ते' अनीषद्भजन्ते। (वृ० प० ६१७) *लय : बलियां सू केम श०१३, उ० ६, डा०२८० १८७ Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. अथवा आसयंति अल्प काल सूवै ते, निद्रा लेवै अल्प कालो हे। ३६. अथवा 'आसयंति' ईषत्स्वपन्ति 'सयंति' अनीषसयंति ते बह काल निद्रा ले, द्वितीय अर्थ संभालो हे ।। स्वपन्ति । (वृ० प० ६१७) ३७. जिम रायप्रसेणी में कह्यो तिम कहिवो, जावत ही पहिछानो हे। ३७. जहा रायप्पसेणइज्जे (सूत्र १८५) जाव (सं० पा०) कल्याण फल वृत्ति विशेष भोगवता, विचरै जन पुन्यवानो हे। कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति । ३८. रामत क्रीड़ा करवा तिहां आवै, पिण न करै तिहां बासो हे। ३८, अण्णत्थ पुण वसहि उर्वति । अन्य स्थानके वास वसै छै, बहु मनुष्य मनुष्यणी तासो हे ॥ वा० --जहा रायपसेणइज्जेति इण वचने करी जे कह्य ते इम-चिट्ठति वा-जहा रायप्पसेणइज्जे' त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदंकहिता उर्द्ध स्थान करिक तेह. विषे रहै, निसीयंति कहितां वेस, तुयटति कहिता 'चिटठंति' ऊर्द्धस्थानेन तेषु तिष्ठन्ति 'निसीयंति' बैठा थका रहै, हसंति कहितां परिहास्य कर, रमंति कहितां पासादिक करिक रति उपविशन्ति 'तुयटति' निषण्णा आसते 'हसंति' करै, ललंति कहितां वांछित क्रिया विशेष प्रति कर, कीलंति कहितां काम-क्रीड़ा प्रति परिहासं कुर्वन्ति 'रमन्ते' अक्षादिना रति कुर्वन्ति कर, किड्डंति कहिता अंतर्भूत कारित अर्थपणां थकी अनेरा प्रति क्रीडा करावे, 'ललन्ति' ईप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'कीलंति' मोहयंति कहिता मोहन मिथुन प्रति सेवै । कामक्रीडां कुर्वन्ति 'किडुति' अन्तर्भूतकारितार्थत्वा___पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं ति । एहनी दन्यान् क्रीडयन्ति 'मोहयन्ति' मोहनं निधुवनं व्याख्या प्रागवत् । रायप्रश्रेणी में ए पाठ कह्या ते इहां जाव शब्द में कहिवा । तेहनों विदधति । ए अर्थ भगवती नी वृत्ति थी लिख्यो छ। पुरा पोराणाणं...""व्याख्या चास्य प्राग्वत् । ____ अनै रायप्रसेणी में देवता ना अधिकार माटै आसयंति आदि पाठ नों अर्थ (वृ० प० ६१७,१८) तिहां वृत्तिकार कियो ते सोरठा करी कहै छ सोरठा ३६. 'रायप्रश्रेणी माय, सुर अधिकारे वत्ति में। ३९. बहवः सूर्याभविमानवासिनो देवा देव्यश्च यथासुखम् आसयंति कहिवाय, अमर सुरी बेसै सुखे ॥ आसते। (राय० वृ० ५० १९९) ४०. सयंति ते सूवेह, काया दीर्घ पसारवै । ४०. शेरते-दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रा पिण सुर-योनि विषेह, निद्रा तणो अभाव छै ।। कुर्वन्ति तेषां देवयोनिकत्वेन निद्राया अभावात् । (राय० ७० प० १९९,२००) ४१. ऊर्द्ध स्थान कर जाण, चिट्ठति ऊभा रहै। ४१. तिष्ठन्ति--ऊर्ध्वस्थानेन वर्तन्ते, निषीदन्तिनिसीयंति पहिछाण, बेस ते अमरा सुरी।। उपविशन्ति । (राय० वृ० प. २००) ४२. तुयटति ते ताम, त्वग-वर्तन करतां तिहां । ४२. तुयटॅति- त्वग्वर्तनं कुर्वन्ति, वामपार्श्वतः परावृत्य दक्षिण अथवा वाम, पसवाड़ा में फेरता ।। दक्षिणपाइँनावतिष्ठन्ति, दक्षिणपार्श्वतो वा परावृत्त्य वामपार्श्वेनेति भावः । (राय० वृ०प० २००) ४३. हसंति करता हास, रमंति कहितां रति करै। ४३. रमन्ते --रतिमाबध्नन्ति । ललन्ति मनईप्सितं यथा ललंति मन नी तास, इच्छा पूरै ते सुरा ।। भवति तथा वर्तन्ते इति भावः । (राय० वृ०प० २००) ४४. कीलंति ते जाण, गमन विनोद करै सुखे । ४४. क्रीडन्ति—यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतवा गीत नत्यादिक माण, तिष्ठ तेह विनोद करि ।। नृत्यादिविनोदेन वा तिष्ठन्ति । (राय० वृ०५० २००) ४५. मोहंति अवलोय, मैथुन सेवा प्रति करै। ४५. मोहन्ति-मैथुनसेवां कुर्वन्ति इत्येवं । पुरा-पूर्व पूर्वभव कृत जोय, तेहिज पुराणा पुन्य जे॥ प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योग अत एव पौराणानाम् । (राय० वृ० प० २००) ४६. करणी रूडी कीध, भला पराक्रम थी जिके । ४६. सुचीर्णानां- सुचरितानां .... सुपराक्रान्तानां .... बंध्या पुन्य प्रसीध, शुभ कृत कर्म फल भोगवै ।। कल्याणरूपं फलविपाकं प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्तिआसते। (राय० वृ०५० २००) ४७. इहां रायप्रश्रेणी मांहि, सुर अधिकारे वृत्ति में। निद्रा दाखी नाहि, देव योनि छै ते भणी । १८८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. वर पंचम शतकेह', तुर्य उद्देशक नै विषे । दंडक चउबीसेह, निद्रा नै प्रचला कही ।। ४६. दर्शणावरणी तेह, उदै देव नैं ते भणी। अथवा किंचित लेह, निश्चै जाणे केवली ॥' [ज० स०] ५०. *इण दृष्टांते गोयम ! चमर नै, चमरचंच आवासे हे। केवल क्रीडा रति नै निमतै, आवै तिहां हलासे हे ।। ५०. एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार रणो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डा-रतिपत्तियं । सोरठा ५१. क्रीडा विषेज तास, रति आनंद क्रीडा रति। ए तत्पुरुष समास, तेह निमत आवै तिहां ।। ५२. अथवा द्वन्द्व समास, क्रीडा नं रति नियत त्यां। चमरचंच आवास, आवै छै ए शेष वच ॥ ५३. *अन्य स्थान वलि वासो वसै छ, तिण अर्थे करि ताह्यो हे। जाव आवासे नाम तास ए, चमरचंच सुखदायो हे ।। ५४. सेवं भंते ! एम कहीने, जाव गोयम विचरंतो हे। तेरमा शत षष्ठमुद्देश नं, आख्यो देश उदंतो हे ।। ५५. ढाल भली दोयसौ असीमी, चमर-आवास नी आखी है। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति राखी हे ।। ५१,५२. 'किड्डारइपत्तियं' ति क्रीड़ाया रतिः-आनन्द: कीडारतिः अथवा क्रीड़ा च रतिश्च क्रीड़ारती सा ते वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं तत्रागच्छतीति शेषः । (वृ० प० ६१८) ५३. अण्णत्थ पुण वसहि उवेति । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-चमर चंचे आवासे, चरमचंचे आवासे । (श० १३॥९८) ५४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १३।९९) ढाल : २८१ उदायन-कथा पद दहा १. पूर्व असुर तणी कही, वक्तव्यता सुविशेष । तिहां विराधक ऊपजै, व्रत सम्यक्त न पेख ।। २. ते माटै श्री वीर नां, तीरथ मेंज प्रपन्न । जे देखायै छै तिको, असुर विषे उत्पन्न । ३. जयवंता जिनराज प्रभु, ज्ञानवंत गुणहीर । श्रमण प्रभू तिण अवसरे, भगवंत श्री महावीर ।। ४ नगर राजगृह थी तदा, अन्य दिवस किणवार । गुणसिल नामा चैत्य थी, यावत करै विहार ।। ५. तिण काले नै तिण समय, नगरी चंपा नाम । __ वर्णक चैत्य अछै तिहां, पूरणभद्र सुठाम ।। ६. तिण अवसर महावीर प्रभु, अन्य दिवस किणवार । पूर्वानुपूर्वे मुखे, जाव विचरता सार ।। १,२. अनन्तरमसुरकुमारविशेषावासवक्तव्यतोक्ता, असुर कुमारेषु च विराधितदेशसर्वसंयमा उत्पद्यन्ते ततश्च तेषु योऽत्र तीर्थे उत्पन्नस्तदर्शनायोपक्रमते । (वृ० ५० ६१८) ३.४. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहियाजणवयविहारं विहरइ। (श० १३।१००) ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए-वण्णओ। ६. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदाइ पुवाणु पुचि चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे १. भ० श० ५७५ *लय : बलियां सूं केम श० १३, उ०६, ढा० २८०,२८१ १८९ Jain Education Intemational Private & Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. चंपा नगरी छ जिहां, त्यां आवै आवी करी, पति काले नै तिण समय रे, सिंधू नदी विशेष । तसु निकट देश सौवीर छ रे, तिण सूं सिंधू सौवीर देश ॥ पूर्णभद्र वन नाम । यावत विचरै स्वाम ॥ * भविक ! तुम्हें सांभलो रे । [ ध्रुपदं ] ९. गया ईति ने भय जिहां रे, पुर बाहिर ईशाण में रे, १०. ते वन सर्व ऋतु विषे रे, पुष्प फले समृद्ध छे रे, ११. इहां वीतिभय नगर नों रे, मोटा हेमवंत नी परै रे, १२. तेह उदायन राय ने रे, वर्णकयोग्य राणी हंती रे, १३. वलि उदायण राय नैं रे, १४. जाव उदायन राय थी रे, सुख विचरै पूर्वे संचिया रे, १५. तेह् उदायन राय नों रे, अंगज प्रभावती तणो रे, १६. करपत सुखमाल से रे, यावत चिंता राज नीं रे, १७. तेह उदायण राय नों रे, हंतो उदायन राय । वर्णक योग्य शोभाय ॥ पद्मावती विशाल कर पग तल सुखमाल ।। प्रभावती अभिधान । रूपवंती राणी हंसी रे, वर्णक अधिक व्याख्यान ।। विलसंती सोय । पुन्य भोगवती जोय ॥ सखर पुत्र सुविचार | अभीषि नाम कुमार ॥ जिम शिवभद्र कुमार । करती विचरं सार ॥ निज भाणेज निहाल । जाव स्वरूप सुखमाल ॥ जनपद सिंधु सौवीर। राज करें गुणहीर ।। फुन आगर पहिछाण । सुवर्णादिक उत्पत्ति जिहां रे, त्रिण सय त्रेसठ जाण ॥ केशी नाम कुमार थो रे, १८. तेह उदायन नरपती रे, आदि देइ सोलै देश नों रे, १६. नगर वीतिभय प्रमुख जे रे, २०. नगरस्याणं एहवो रे, क्वचित पाठ कहिवाय । त्रिण सय त्रेसठ नगर छँ रे, इहां आगर रव नांय ॥ नगर बीतिभय जान । मृगवन नाम उद्यान || *लय : करेलणा नी १९० भगवती जोड़ वर्णक योग्य विमास । नंदन वन सुप्रकास ॥ २१. महासेन नृप आदि दे रे, मुकुटबद्ध मोटा तिके रे, २२. दीधा ते राजा भणी रेल चामर रूप वालवीयणो रे, दश राजान सुदेख | मान आण अशेष || अधिक सुविशाल । एहवा दश भूपाल || ईश्वर तलवर मंत । जाव सार्थवाह प्रमुख नों रे, अधिपतिपणों करंत ॥ २३. अपर अन्य बहु राजवी रे, ७. जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव (सं० पा० ) विहरइ । (४० १३०१०१) ८.का समय सिधूसोवीरे जगवए 'सिधुसोबीरे' ति सिन्धुना भासन्ना: सौवीराजनपदविशेषाः सिंधुसौवीरास्तेषु । ( वृ० प० ६२० ) ९. वीतीभए नाम नगरे होत्था वण्णओ । तस्स णं बीतीभयस्स नगरस्य बहिया उत्तरपुरत्यिमे दिसीमाए, एत्थ णं मियवणे नामं उज्जाणे होत्या 'वीई भए' त्ति विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभयं । ( वृ० प० ६२१) १०. सोय-फलसमिद्धे बणओ। 'थ्योउयपुष्पफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पवासे' इत्यादीति । ( वृ० प० ६२१) ११. तत्थ णं वीतीभए नगरे उद्घायणे नामं राया होत्या महयामियंत यण्णओ। १२. तस्स णं उद्दायणस्स रण्णो पउमावती नामं देवी होत्या सुकुमारपाणिपायावष्ण - १३. तस्स णं उद्दायणस्स रण्णो पभावती नामं देवी होत्या वणव १४. जाव विहरइ । १५. तस्सगं उदायणस्स रग्गो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभीयी नामं कुमारे होत्या । १६. सुकुमाल जहा सिवभद्दे (श० १११५८) जाव (सं० पा० ) पच्चुवेक्खमाणे विहरइ । १७. तस्स णं उद्दायणस्स रण्णो नियए भाइणेज्जे केसी नाम कुमारे होत्या कुमालपाणिपाए जान सुरु १८. से गंगे रामा सिंधूसोवीरप्यामोक्षाणं सोलसहं जगवा १९,२०. वीती भयप्पामोक्खाणं तिन्हं तेसट्ठीणं नगरागरसयाणं 'नगरागरसयाणं' ति करादायकानि नगराणि सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानाम्याकरा नगराणि चाकराश्वेति नगराकरास्तेषां शतानि नगराकरशतानि तेषां 'नगरस्याणं' ति क्वचितपाठः । ( वृ० प० ६२१) २१.२२. महा दस राई बद्धमउडाण विदिन्नछत्त चामर वालवीयणाणं । 'विदिन्नछत्तचामरवालवीया ति ति वितीर्णानि छत्राणि चामररूपवालव्यजनिकाश्च येषां ते तथा तेषाम् । ( वृ० प० ६२१) २३, २४. अण्णेसि च बहूणं राईसर-तलवर जाब (सं०पा० ) सत्यवाप्यभि आहेबच्चं पोरवण्यं सामितं भट्टि आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. वलि तसु अग्रेश्वरपणों रे, जाव उदायण राय । करावतो पालतो छतो रे, सहु नैं आण मनाय ।। २५. श्रमणोपासक ते सही रे, जाण्या जीव अजीव । जाव मुनि प्रतिलाभतो रे, विचरै अधिक अतीव ।। २५. समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० १३।१०२) २६. शतक त्रयोदशमा तणो रे, षष्ठमुद्देश विशेष । तास देश ए आखियो रे, बाकी रह्यो उद्देस ।। २७. कही दोयसौ ऊपरै रे, इक्यासीमीं ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। हाल:२८२ उदायन की धर्म जागरणा १-२. तए णं से उद्दायणे राया अण्णया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, जहा संखे (श० १२१६) जावपडिजागरमाणे विहरइ। (श०१३।१०३) १. राय उदायन एकदा, छै जिहां पोसहसाल । तिहां आवै आवी करी, पोसह कियो विशाल ।। २. श्रमणोपासक शंख जिम, यावत विचरै जेह । धर्म ध्यान में तिह विधे, पोसह विषे वसेह ।। *शासणनाथ वस्या नप मन में, ए तो त्रिभुवनतिलक तीरथगण में । प्रभु मोरा शोभ रह्या शासन में ।।(ध्रुपदं) ३.तिण अवसर ते नपति उदायन, मध्य निशा अद्ध-समायन में।। ४. भाव निद्रा ते प्रमाद रहित चित, धर्म जागरिका जाग्रण में ।। ५. एहवो मन नों चितित यावत, उपनो महिपति नै मन में ।। ३. तए णं तस्स उद्दायणस्स रण्णो पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि । ६. आगर ग्राम नगर ते धन्य छ, धूड़ कोट ते खेडन में ।। ७. कव्वड मंडप द्रोणमुख फुन पाटण, आश्रम मठ रु संबाधन में ।। ८. वलि सन्निवेस प्रमुख इह ठामे, वीर प्रभु विचरै जन' में ।। ६. धन्य कृतार्थ तिके अवनिपति, ईश्वर ते युवराजन में ।। १०. तलवर तेह तलावटी कहिये, जाव सार्थवाह प्रमुखन में। ११. जेह श्रमण भगवंत वीर प्रति, वंदन स्तवना करत रमै ।। १२. नमस्कार करता शिर नामी, यावत चित पर्यपासन में ।। १३. धन्य-धन्य ग्रामादिक नां जन, नृपति आदि प्रभु नैं नमै ।। १४. वीर नां वचन सुणी दिल सरधै, तसु पूर्व संचित कर्म गमैं ।। १५. व्रत सम्यक्त्व अंगीकृत जिन पै, ते भव-सागर नांहि भमै ।। १६. चउनीस अतिसय धारक प्रभु ने, इंद्र नरिंद्र सुरिंद्र नमै ॥ १७. इंद्रशची निरखत नहि धापत, रोमराय उलसत तन में ।। लय : स्वामी मोरा शोभ रह्या मुनिगण में ४. धम्मजागरियं जागरमाणस्स ५. अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (स० पा०) समुप्प ज्जित्था । ६-८. धन्ना णं ते गामागर-नगर-खेड-कब्बड-मडंबदोणमुह-पट्टणासम-संबाहसण्णिवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहइ। ९,१०. धन्ना णं ते राईसर-तलवर जाव (सं० पा०) सत्थवाहपभितयो। ११.१२. ते णं समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति जाव पज्जुवासंति । १. जनपद श० १३, उ०६, ढा० २८१,२८२ १९१ Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. एहवा श्रमण तपस्वी मोटा, भगवंत ईश्वर सह जन में । १६. महावीर कर्म काटण शूरा, क्षमावंत उपसर्ग खमै ।। २०. पूर्वानुपूर्व चालता प्रभुजी, ग्रामानुग्राम जाव जन' में। २१. विचरंता प्रभुजी इहां आवै, समवसरै इह विपिनन में । २०,२१. जइ णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे इहमागच्छेज्जा इह समोसरेज्जा, २२,२३. इहेव वीतीभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता २४. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा, २५-३०. तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेज्जा नमंसेज्जा जाव पज्जुवासेज्जा। (श०१३।१०४) २२. एहिज वीतिभय नगर बाहिर जे, मृगवन नाम उद्यानन में ।। २३. यथाजोग्य अवग्रह प्रति ग्रही नै, आज्ञा ले प्रभु वागन में ।। २४. संजम तप कर आतम भावित, विचरै जे प्रभुजी वन में ।। २५. तो हूं भगवंत श्रमण वीर प्रति, वंदं वच-स्तुति तन में ।। २६. नमस्कार करूं शिर नामी, वलि सतकृत सनमानन में ।। २७. कल्याणकारी प्रभुजी कहिये, मंगल विघ्न-मिटावन में ।। २८. देवयं कहितां त्रैलोक्य अधिपति, देवाधिदेव पंच देवन में ।। २६. चित्त अहलादकारी प्रभु चैत्यं, सुप्रशस्त मन हेतु जन में ।। ३०. एहवा प्रभु नी सेव करूं हूं, आ हूंस घणी म्हारा मन में ।। ३१. एहवी भावना भावै महिपति, पोसह ले मध्य रात्रिन में ।। ३२. शतक तेरम अर्थ अनुपम, छठो उद्देशो देशन में। ३३. ढाल दोयसौ ऊपर दाखी, दोय असीमी उदायन में । ३४. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' सुख संपति गण में ।। ढाल २८३ वीतिभय में महावीर का आगमन दहा १. भगवंत श्री महावीर जी, पूरणज्ञानी देख । राय उदायन तेहनां, जाण्या भाव विशेख ।। २. प्रभ चंपा नगरी थकी, साथै बह परिवार । पूर्णभद्रज चैत्य थी, विहार कियो तिणवार ।। ३. पूर्वानुपूर्वे प्रभु! यावत विहार करंत । ज्यां सिंधु सौवीर छै, त्यां आवै भगवंत।। ४. जिहां वीतभय नगर छै, जिहां मृगवन उद्यान । त्यां आवै आवी करी, यावत विचरै जान ।। १. तए णं समणे भगवं महावीरे उद्दायणस्स रण्णो अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव (सं० पा०) समुप्पन्न वियाणित्ता २. चंपाओ नगरीओ पुण्णभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्ख मइ । ३,४. पुव्वाण पुदि चरमाणे गामाणुगामं जाव (सं० पा०) विहरमाणे जेणेव सिंधूसोवीरे जणवए जेणेव वीतीभये नगरे, जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० १३।१०५) ५. नगर वीतभय चंप बिच, कोस सात सय भाल । परंपरा मांहै कहै, नदी खाल गिरि न्हाल । ६. गोतम स्वामी आदि बहु, वारु संघ सुवृद । राय उदायन तारवा, आया देव जिणंद ।। १. जनपद १९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. तए णं बीतीभये नगरे सिंघाडग "जाव परिसा पज्जुवासइ। (श० १३।१०६) ८. तए णं से उद्दायणे राया इमीसे कहाए लठे समाणे ९. हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! १०. वीयोभयं नगरं सब्भितरबाहिरियं । ११. जहा कूणिओ ओववाइए (सूत्र ५५-६९) . ७. तब नगर वीतभय नैं विषे, संघाडग जन वन्द । यावत आवी परषदा, वंदी सेव करंद ।। उदायन को दीक्षा की स्वीकृति ८. *राय उदायन ताम, कथा एहवीज सुणी। लाधै अर्थ अमाम, पधारया तीर्थधणी। तीर्थधणीजी तसु कीत्ति घणी, अद्भुत संपति प्रभु वीर तणी। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, धीर गुण हीरमणी॥ ६. पायो हरष संतोष, पोष नप अति उमही। आज्ञाकारी पुरुष, सद्दावै तुरत सही। तुरत सही जी, नृप एम कही, देवानुप्रिया ! तुम्ह शीघ्र वही। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, करो ए कार्य लही।। १०, नगर वीतभय मांय, अनै पुर बार वली। कचर काढ जल ल्याय, करो शुद्ध गली-गली। . गली गली जी, पुल आज भली, जिनराज आयां थइ रंगरली। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, संपदा आय मिली। ११. सूत्र उवाई मांहि, कोणिक संबंध कह्यो। तेम इहां पिण ताहि, सर्व विस्तार लह्यो। विस्तार लह्यो जी, नृप अति उमह्यो, चतुरंग सेन ले वंदन गयो। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, आज दिन सफल भयो। १२. जाव करै पर्युपास, तास त्रिहं जोग सिरै। तन मन अति लहलीन, क्षीण अघनेज करै। अधनेंज करै जी, दुख-हेतु हरै, जगनाथ दर्श करि हरष धरै। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, नृपति वच इम उचरै ।। १३. पद्मावती प्रमुख, तिमज यावत सेवा । धर्म-कथा पीयूष, सरस जिन-वच मेवा। वच मेवा जो, भिन-भिन सेवा, प्रभु देव थकी अधिका देवा। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, स्वाम शिव सुख लेवा ।। १४. चिउ गति कारण च्यार-च्यार भाख्या स्वामी। शिव-मग च्यार उदार, कह्या जिन विधि धामी। विधि धामी जी, नर सुख कामी, बच हियै धार साता पामी। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, आप अंतरजामी ।। १५. जिम भवसागर रुले, दुकृत फल स्वाम कह्या। दुख संकट थी टलै, सुकृत फल तेह लह्या! तेह लह्याजी, गुण सुजन गह्या, जन बूझै तिम जिन भेद कहा। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, कृतारथ आज थया । १६. राय उदायन स्वाम, वयण सुण चित धरिया। हरष सतोष सुपाम, आज अघ-दल हरिया। अध-दल हरिया जी, वांछित फलिया, मुझ मंहमांग्या पासा ढलिया। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, प्रभू पारस मिलिया। १२. जाव पज्जुवासइ। १३. पउमावती पामोक्खाओ देवीओ तहेव (ओव० सू०७०) जाव पज्जुवासंति । धम्मकहा। (श० १३३१०७) पाम, बयण १६. तए णं से उद्दायणे राया समणस्स भगवओ महा वीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुझे सतोष अ *लय : स्वाम भिक्ष कहै एम, संजम सुख पावा दो श० १३, उ०६, ढा० २८३ १९३ Jain Education Intemational on Interational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं । तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं बयासी-एवमेयं भंते ! १८. तहमेयं भंते जाव (सं० पा०) से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु जं नवरं देवाणुप्पिया ! अभीयिकुमारं रज्जे ठावेमि। १७. ऊठी ऊभो थाय, वीर प्रति त्रिणवारं। जाव नमण कर एम, वदै वच हितकारं । हितकारं जी, हे जगतारं, इमहीज तुम्हारा वच सारं। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, मिल्या प्रभु सुखकारं ।। १८. तिमहिज एह वच स्वाम, जाव ए तुम्ह वाणी। एम करी नैं आम, जाव नवरं जाणी। नवरं जाणी जी, प्रभु गुणखाणी, अभीचकुमर नैं रज ठाणी। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, चरण शिव नींसाणी॥ १६. तदनंतर हूं स्वाम, देवानुप्रिया पासं । मंड थई मैं जाव, दीक्षा लेइस जासं। लेइस जासं जी, जिन कहै तासं, जिम सुख ह्व तेम करो फासं। अहो देवानुप्रियाज ! म कर प्रतिबंध पासं ।। २०. शत तेरम षष्ठमुद्देश, ढाल बेसौ उपरै। तीन असीमीं तंत, भिक्षु गण तिलक सिरै। गण तिलक सिर जी, भारीमाल वरै, ऋषिराय पसाय सुजश उचरै। म्हारै आज दिहाड़ो धिन्न, सुजश 'जय' हरष धरै। १९. तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । (श० १३।१०८) ढाल : २८४ केशीकुमार का राज्याभिषेक दहा १. राय उदायन तिण समय, निसुणी वीर वचन्न । हरष संतोष पायो घणो, तन मन थयो प्रसन्न । २. वीर प्रत वंदन करी, नमस्कार करि सोय। अभिषेक गज तेह प्रति, चढे चढी अवलोय ॥ ३. स्वाम तणाज समीप थी, मृगवन थकीज न्हाल । नगर वीतभय छै जिहां, आवंतो भूपाल ।। ४. *राय उदायन नैं तदा, विचारणा मन मांह्यो। यावत चित में ऊपनां, एहवा अध्यवसायो॥ ५. एक पुत्र ए मांहरै, अभीचि नाम कुमार । इष्ट कांत व्हालो घणो, मनगमतो अपार ।। ६. यावत दीठां हर्ष हुवै, सूणियां चित सोहरो। ऊंबर फूल तणी परै, तसुं दर्शण दोहरो।। ७. ते माटै अभीचिकुमार नें, राज देई वीर पास। __ मुंड थई व्रत आदरूं, दिख्या लेऊं हुलास ।। *लय : प्रभवो मन में चिन्तबै या सीता सती सुत जनमिया १. तए णं से उद्दायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुझे २. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तमेव आभिसेक्कं हत्थि द्रुहइ, द्रुहित्ता ३. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (श०१३।१०९) ४ तए णं तस्स उद्दायणस्स रण्णो अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था। ५. एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इ8 कंते पिए मणुण्णे । ६. जाव (सं० पा०) हिययनंदिजणणे उंबरपुष्फ पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? ७. तं जदि णं अहं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवभो महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता भगाराओ अणगारियं पव्वयामि, १९४ भगवती जोड़ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. तो अभिचिकुमार राज नै विषे, राष्ट्र फौज सुप्रयोग। यावत जनपद में विषे, मनुष्य में काम भोग ।। ६. मूच्छित गद्ध हुवै घणो, स्नेह-तंतु गूंथाय । एकाग्र प्रति पाम्यो थको, भ्रमण करै अधिकाय ।। १०. आदि अंत नहिं जेहनों, दीर्घ-काल अवधार । चिउंगति रूप अरण्य विषे, करिस्य भ्रमण संसार ।। ११. तो अभिचिकवर नैं राज दे, श्रमण भगवंत पास । प्रव्रज्या लेवी तिका, श्रेय नहीं मुझ तास ।। ८. तो णं अभीयीकुमारे रज्जे य रठे य जाव (सं० पा०) जणवए य माणुस्सएसु य कामभोगेसु ९,१०. मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियट्टिस्सइ। १२. केसीकुमार भाणेज छ, तेह प्रतै देइ राज। दीक्षा लेवी वीर पै, मुझ श्रेय समाज । १३. एहवी कर विचारणा, नगर वीतिभय आवै । नगर वीतिभय मध्य थई, ज्यां निज घर तिहां भावै ।। १४. उपस्थानसाला बारली, तिहां आवै नरिंद । ___ अभिषेक हस्ती विषे, ऊभो राखै अमंद ।। १५. अभिषेक हस्ती थकी, ऊतरै महाराय । जिहां सिंहासण छै तिहां, आवै आवी नैं ताय ॥ १६. वर प्रधान सिंहासणे, पूरव स्हामों राय । ___ मुख करनें बेठो तिहां, सेवग पुरुष बोलाय ।। १७. सेवग पुरुष बोलायन, महीपति वयण वदेह । ____ अहो तुम्है देवानुप्रिया ! शीघ्र कार्य करो एह ॥ १८. नगर वीतभय नै विष, वली नगर नैं बार । कचर काढ जल छांटन, जाव आज्ञा सूपै सार ।। ११. तं नो खलु मे सेयं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। १२. सेयं खल मे नियगं भाइणज्ज केसि कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए, १३,१४, एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव वीयीभये नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वीयीभयं नगरं मझमझेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आभिसेक्कं हत्थि ठवेइ, १५. आभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता १६. सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीइत्ता ___ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, १७. सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु प्पिया! १८. वीयीभयं नगरं सब्भितरबाहिरियं आसिय-समज्जि ओवलित्तं जाव सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाण त्तियं पच्चप्पिणह । १९. ते वि तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। (श० १३।११०) २०. तए णं से उद्दायणे राया दोच्चं पि कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी२१. खिप्पामेव भो देवाणप्पिया ! केसिस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं एवं रायाभिसेओ २२. जहा सिवभद्दस्स कुमारस्स तहेव भाणियब्बो १६. एह वचन राजा तणो, सेवग करि अंगीकार । सेवग सर्व कार्य करी, आज्ञा संप तिवार ।। २०. राय उदायन तिण समय, वलि बीजो वार जगीस। सेवग पुरुष बोलायने, हुकम करै अवनीस ।। २१. शीघ्रहीज देवानुप्रिया! केशीकुमार ने देख । ___ महाअर्थे इत्यादि जे, प्रवर राज अभिषेक ।। २२. शिवभद्र नाम कंवार नों, जिम शिवनपति निहाल । राज अभिषेक करावियो, तिम इहां सर्व संभाल । २३. जाव परम आयु पालजै, जन देवै आसीस । इष्ट मनुष्य संग परवरयो, कीज्यो राज जगीस ।। २४. सिंधु सौवीर नैं आदि दे, सोले देश नों राज । __ आप कीज्यो रूड़ी रीतसं, रैत' रिख्या शुभ स्हाज।। २५. नगर वीतिभय प्रमुख जे, तीन सय सुविशाल । ऊपर त्रेसठ जाणजो, नगरागर नों न्हाल ।। २६. महासेन प्रमुख दश राजवी, अन्य बह ईश्वर राय । जाव तास अधिपतिपणों करतो छतो सुखदाय ।। २३. जाव परमाउं पालयाहि, इट्ठजणसंपरिवुडे २४. सिंधूसोवीरपामोक्खाणं सोलसहं जणवयाणं २५. वीयीभयपामोक्खाणं तिण्णि तेसट्ठीणं नगरागर सयाणं २६,२७. महसेणपामोक्खाणं दसहं राईणं, अण्णेसि च बहूणं राईसर""कारेमाणे, पालेमाणे विहराहि त्ति १. प्रजा श० १३, उ०६, ढा०२८४ १९५ Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. सर्व प्रतै पालतो थको, तुम्है विचरजो स्वाम ! इम कही जय-जय शब्द नैं प्रजुकै जन ताम ॥ २८. हिव केसीकुंवर राजा थयो, मोटा हेमवंत जेम । वर्णक तेनुं जावं यावत विपरं प्रेम || २६. शत तेरम देश छठा तणो, बेसौ चउरासीमीं ढाल । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, 'जय जय' मंगलमाल || ढाल : २८५ उदायन का अभिनिष्क्रमण ब्रहा 1 हिव केसी प्रति पूछत मिलिया वीर महंत ॥ सेवग पुरुष बोलाय । अधिकारे कहिवाय ॥ बलै नगर रैबार । शुद्ध करावी सार ॥ दीक्षा मोच्छव देख आणी हरष विशेख || बहु गणनायक साथ । मोच्छब करत विख्यात ॥ तदा. सिंघासण बैसाण । स्नान करावे जान || * नृप चरण - महोत्सव रंगरलिया । [ ध्रुपदं ] १. ताम उदायन नृपति दीक्षा लेवां वांछां अम्है, २. तिण अवसर केसी नृपति, इम जिम जमाली वर्णे, ३. तिमहिज नगर अभ्यंतरे, कचर काढ जल छांटनें, ४. तिमहिज यावत ते सहु, सभ करावे राजवी, ५. तिण अवसर केशी नृपति, यावत परवरियो चको ६. नृपति उदायण नैं मुख पूरव सहामो करी, ७. एकसौ आठ सोनां नां कलशा, निर्मल जल करिने भरिया । जिम जमाली नां दीक्षा महोत्सव, तेम इहां सर्व उच्चरिया ॥ ८. आठसौ बोसठ कलम जलभरिया, तिण करनें मज्जन करिया । केशी प्रमुख हजारो जनब्द, पेखत नयन कमल ठरिया || ६. केशी नृपतिक भण स्वामी ! स्यूं दीजे गुण करि भरिया । प्रकर्षे करिने स्यूं दीजें, स्यूं तुझ वा मन वरिया ॥ १०. किण वस्तू सूं अर्थ तुम्हारे जे चाहने सो कहो रलिया। केशी महिपति अरज इसी विधि करत ठरत तन मन मिलिया ।। ११. तिण अवसर ते नृपति उदायन, केसी प्रति इम उच्चरिया । बांछू छू देवानुप्रिया ! हूं, त्रिलक्ष सुवर्ण नां दरिया || , *लय रायकुंवर चढ्यो हय वर हरिया १९६ भगवती जोड़ कट्टु जयजयस पति २८. तए सेकेसी कुमारे राया जाए जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । १. तए णं से उद्दायणे राया आपुच्छइ । २. तए णं मे केसी राया जहा जमालिस्स केसि रायाणं (० १२० ११३) कोडुंबियपुरिसे सहावेइ – एवं (०९०१००१०१ ) ३४. तव सब्भिरबाहिरियं तहेव जाव निक्खमणाभिसेयं उवटुवेंति । ( ० १२.११४) (० १२।१११) महाहिमवंत..... (४० १२।११२) ५. तए णं सेकेसी राया अणेगगणनायग जाव (सं० पा० ) संपरिवुडे सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे ६ उद्दायण राय निसीयावेति, निसीयावेत्ता ७८. अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं एवं जहा जमालिस (श० ९।१८२ ) जाव महया - महया निक्खमणाभिसेगेणं अभिचिति अभिसिपिता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं विजए बढावेति ९. वद्धावेत्ता एवं वयासीकिं पयच्छामो ? १०. किणा वा ते अट्ठो ? -भण सामी ! किं देमो ? (श० १२।११४) ११. तए णं से उद्दायणे राया केसि रायं एवं वयासीइच्छामि देवानुपिया ! - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. देवाधिष्ठत कुत्रिकापण थो ल्यावो पात्र धर्मध्वज वारु, १३. जेम जमाली तिम सह वर्णन, दोष लक्ष दे संहरिया । लक्ष एक नापितवरिया || णवरं एह विशेष लिया। अन केस पदमावती लेवे, प्रिय-विप्पयोग दुसह कहिया || १४. तिण अवसर ते केसी महिपति, उत्तर हामी मुख करिया । दूजी वार सिंघासण एहवो, ताम रचावै मन हरिया || १५. राय उदायन ने वलि राजा, सुवर्ण रूप कलश करिया । शेष जमाली जिम यावत नृप, बैठा सिविका अंतरिया || १६. इमहज धाय अमा पिण बैठी, हंस लक्षण पट्टशाट ग्रही नें णवर एह विशेष इहां । पदमावती बैठीज जिहां ॥ १७. शेष तिमज यावत नृपनायक, सिवगा हुंती उत्तरिया । श्रमण भगवंतमहावीर जिहां छे, तिहां आवत हरप धरिया ।। १८. श्रमण भगवंत वीर प्रभु ने तय, प्रदक्षिणा दे त्रिण विरिया । बंदी नमस्कार करि विधि सूं ईणाणकूण गमन करिया । १६. अलंकार आभरण माला प्रति, पोतं उतार अलग धरिया 1 कर सूं ग्रहण करें पदमावती आसूधारा संचारिया || २०. जाव कहे हे स्वाम ! सीभागी चरण विषं यत्ना करिया । जाव प्रमाद न करिस्यो स्वामी! एह अमोलक आदरिया || २१. केसी नृपति अने पदमावती, वीर प्रतेज हरप धरिया । नमस्कार वंदन करि विध सूं यावत निज घर संचरिया || २२. तिण अवसर ते नृपति उदायण, निज कर सूज उमंग बरिया । पंचमुष्टि लोचन करि प्रभु चरण अमलोक आदरिया || २३. शेष ऋषभदत्त नीं पर कहियो, जाव सर्व दुख क्षीण किया। कलकलीभूत संसार थी छूटा अजर अमर पद ने वरिया ।। २४. तेरम शत षष्ठम नों देश ए, बेसौ पच्यासीमी ढाल इहां । भिक्षु भारीमात ऋषिराम प्रसादे 'जय जय' संपत्ति रंगरलियां ॥ १२. कुत्तियावणाओं रयहरणं च पडिग्गहं च आणियं, कासवगं च सद्दावियं १२. एवं जहा जमालिस (श० २।१८४०१०९) नवपरमावती अग्नकेसे पछि पिविष्ययोनहा (० १२.११६) १४. तए णं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सहासमावेत १५. उदा राया-पीतहि कलह पहावेति हावेत्ता सेसं जहा जमालिस (श० ९।१९०-१९२ ) जाव सीयं दुहिता सोहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे सणसणे । १६. सहेब (०९।१९२.१९४) माती, नवरं पउमावती हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय उद्दायणस्स रण्णो दाहिने पासे भदासगवरंसि सपिणा । ० २।१९५-२०९) जाय रिस सहस्तवाहिणीओ सीयाली पन्नो पत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । १०. १५ समभवं महावीर तितो बंदर नमसद, बंदिता नमसित्ता उत्तरपुरत्थिम दिसोभागं अवक्कमइ । १९. अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ । ( ० १२।११७) तए गं सा परमावती.... अंमूणि विगम्यमाणी www. --- २०. उद्दायण राय एवं वयासी- -जइयव्वं सामी ! नो पमादेयध्वं । २१. केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । ( श० १३।११८ ) २२. तए णं से उद्दायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ । २३. सेसं जहा उसभदत्तस्स (श० ९।१५०, १५१ ) जाव सव्वदुक्ख पहीणे । ( ० १३।११९) श० १३, उ० ६, ढा० २८५ १९७ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २८६ अभोचिकुमार का आक्रोश दूहा १. तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अण्णदा कदाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि २. कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था । १. अभिचिकंवर तिण अवसरे, अन्य दिवस किणवार । __मध्य-रात्रि अद्धा समय, मन में करै विचार ।। २. कुटुंब-जागरणा जागतां, ते गृह-चित करंत। __मन में चिंतन एहवो, जाव तास उपजंत॥ *सुणो भव्य प्राणी रे, अभिचिकुंवर विचार करै दुख आणी रे । [ध्रुपदं] ३. अभिचिकवर मन चितवै रे, हं राय उदायन पूत । अंगज प्रभावती तणो रे, राखण सगला सूत ॥ ४. राय उदायन तिण समय रे, मुझ प्रति छांडी तेह। निज भाणेज केशी भणी रे, राज देई व्रत लेह ।। ३. एवं खलु अहं उद्दायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, ५. पूत्र छांड भाणेज नैं रे, राज दियै किण लेख। एहवो अकार्य तिण कियो रे, इम मन धरतो धेख। ६. मोटै अप्रीति भावे करी रे, मन नों विकार अपार । मानसीक दुख तिण करी रे, व्याप्यो थको तिणवार ।। ४. तए णं से उद्दायणे राया ममं अवहाय नियगं भाइणेज्ज केसि कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव (सं० पा) पव्वइए । ५,६. इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं "ति' अप्रीतिकेन 'अप्रीतिस्वभावेन मनसो विकारो मानसिकं...... यत्तन्मनोमनसिकं तेन' (वृ० प० ६२१) ७. अंतेउरपरियालसंपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए ८. वीतीभयाओ नयराओ निग्गच्छइ; निग्गच्छित्ता पुव्वाणुपुदि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे ९,१०. जेणेव चंपा नयरी, जेणेव कूणिए राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कूणियं रायं उवसंपज्जिताणं विहरइ। ७. अंतेवर ले आपरो रे, निज परिवार संघात । परवरियो थको चालियो रे, भंड मत्त उपकरण साथ। ८. नगर वीतिभय थी तदा रे, नीकलियो दुख पाम । पूर्वानुपूर्वे चालतो रे, ग्राम थकी बीजे ग्राम ।। ६.जिहां चंपा नगरी अछ रे, छै जिहां कणिक राय । मासी पुत्र भाई जाणनैं रे, आवै तिहां चलाय ।। १०. वलि कुणिक नृप मोटको रे, ते पिण जाण तिवार । अंगीकार करि विचरतो रे, चंपा नगर मझार ॥ ११. तिहां विस्तीर्ण भोग नी रे, समृद्धि पामी सोय । ते प्रति भोगवतो थको रे, विचरंतो अवलोय ।। १२. अभीचिकुंवर तिण अवसरे रे, श्रावक हुओ सुजाण । जाण्या जीव अजीव नैं रे, पुन्य पाप पहिछाण ॥ १३. जाव संत प्रतिलाभतो रे, विचरतो अधिकाय । उदायन राजऋषी विषे रे, वैरभाव छ्टो नांय ।। ११. तत्थ वि णं से विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि होत्था। १२. तए णं से अभीयीकुमारे समणोवासए यावि होत्था अभिगयजीवाजीवे । १३. जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, उद्दायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे यावि होत्था। (श० १३।१२०) १४. शत तेरम देश छठा तणो रे, बे सौ छयांसीमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' मंगलमाल । *लय : राजा राणी रंग थी रे १९८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २८७ व्रत-विराधना को परिणति ब्रहा १. तिण काले नैं तिण समय, छो ते पृथ्वी में विषे, २. असुरकुमार तणां तिहां, आख्या तसु आवास जे, ३. अभिचिकुंदर धावक रा व्रत पाले, पण निज अवगुण नहि संभाले रे । जीवादिक नो हुओ जाण प्रवीणो, राग-द्वेष न पाड्यो क्षीणो रे ॥ ४. सर्व जीव राशि खमावे तिण काले, जब राय उदाई ने टाले रे । याद आयो उल्टो द्वेष आवे रत्नप्रभा ए नाम । नरक समीपे ताम || चोसठ लक्ष विमास । अधिक मनोहर तास ॥ * समता रस विरला' । [ ध्रुपदं ] जश कीति पिग कोनां न सुहावे रे | ५. सम्मायक पोसो जद करणो, जब राग द्वेष परहरणो रे । पिण अभिचिकुंवर सामायक पोसा ६. म्हारो राज हुंतो ते भाणेजा ने दीधो, तिण सूं निरंतर हूं दुख पाऊं, ७. बाप तो हित बांधो धो बेटा रो, पिण बेटे न कियो विचारों रे। इसदो दगो मोसूं कीधो रे । तिनै हूं केम खमाऊं रे ? तिरै राज करण री थी मन मांही, मांही, उदाई ने खमावे नाही रे । तिणसूं संवली न सू कांई रे ॥ ८. इण रीते श्रावक नां व्रत पाले, और दोषण तो सगला टाले रे । पिण राय उदाई सूं अंतरंग धेषो, ते तो दिन-दिन अधिक विशेषो रे ।। ९. पन दिन रो संचारो आयो, जद पिण नहीं खमायो रे । ते श्री जिनधर्मं विराधी नैं मूओ, ते तो मर असुर देव हूओ रे ।। १०. हारयो विमानिक रा सुख भारी, ते बण गई द्वेष सूं खुवारी रे। ऊंच पदवी से नीची पदवी पामी, ११. इण रत्नप्रभा पृथ्वी विषे तास, पड़ी अनंत सुखां री खामी रे ।। कह्या नरक नैं पास रे । चउसठ लक्ष आयावा पेख, असुरकुंवार नां देख रे ।। सोरठा १२. इहां आयावा जाण, असुरकुमार भेद विशेष विद्याण, विशेष *लय आसण रा रे जोगी १. यह गीत आचार्य भिक्षु द्वारा विरचित है। तणांज जे । अर्थज एहनो || ॥ १. इमीसे रयणप्पा पुढबीए निरयपरितामंतेमु २. चोयट्ठि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता । ८. एणं से अभीपीकुमारे बहूई वासाई समणोबासग परियागं पाउणइ ९-११ अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेएइ, छेएत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए निरयपरिणामते चोवीए आयावाअरकुमाराबाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि आयावाअसुरकुमारावासंसि आयाबाअसुरकुमारदेवताए उपवण्णी । १२.१३ चोटी आपावा असुरकुमारावासेसु ति ह 'आयाव' त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति । ( वृ० प० ६२१ ) श० १३, उ० ६, ढा० २८७ १९९ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नहि मून थकी जणाय, इक आयावे ताय, १४. तिहां केयक पहिचान, टीकाकार को इसो असुर आवासे ऊपनो || असुरकुमारज देव नीं । एक पल्योपम जाण, स्थिती परूपी श्री जिने ॥ १५. एक पल्योपम जाण, आयु अभिची सुर तणो । पायो पुन्य प्रमाण, बिण आलोयां मर गयो । १६. * ते देव आउखो पूरो करि तेथ, ऊपजसी महाविदेह खेत रे । तिहां स्थविरां री वाणी सुणे साध थासी, करणी करे मोक्ष सिधासी रे ।। १७. एहवा द्वेष सूं सम्यक्त व्रत खोवै, केइ अनंत-संसारी होवे रे । कर्म थोड़ा तिणसूं ह्रगो निकालो, इ नहि तो इसे अनंत कालो रे ।। १८. इम सांभल नै उत्तम नर नारो, किण से द्वेष में राखो लिगारो रे । भूंडो डैरी कमाई जासी करसी जिसा फल पासी रे ।। १६. श्रावक नैं एहवो द्वेष न करणो, परभव सूं अहोनिशि डरणो रे । पण अभिचिकुमार सूं न हुओ टालो, ते कर्म तणो छै चालो रे ।। २०. सेवं भंते ! सेवं भंते! विशेष, शत तेरम षष्ठमुदेश रे । बेसौ सत्यासीमीं सुहाई, 'जय-जश' संपति पाई रे ॥ त्रयोदशशते षष्ठोद्देशकार्यः ॥ १३६ ॥ ढाल भाषा पद ढाल : २८८ वहा १. पूर्व उसे अर्थ जे, भाषा कर कहिवाय । ते माटे भाषा तणो, प्रश्नोत्तर सुखदाय || २. नगर राजगृह नैं विषे, जावत गोतम स्वाम | वीर प्रतै वंदन करी, इम भाखे सिर नाम ॥ स्वरूप भाषा न भविवम! ओलसो रे [भुपदं ] ३. आत्मा ते जीव प्रभु ! भाषा अछे रे, 1 भाषा आत्म थी अन्य कहीव रे ? जिन कहै आत्म जीव भाषा नहीं रे, भाषा आत्म थी अन्य अजीव रे ।। वा० - इहां गोतम प्रश्न पूछ्‌यो आया भंते! भासा इत्यादि । आत्मा कहितां जीव, ते भाषा छ ? एतले भाषा जीव नों स्वभाव छ ? जे भणी जीव हीज *लय आसण रा रे जोगी लय: श्री जिणवर गणधर २०० भगवती जोड़ १४. तत्थं णं अत्थेगतियाणं आयावगाणं असुरकुमाराण देवाणं एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, पण्णत्ता । १५. तत्थ णं अभीयिस्स वि देवरस एगं पलिओवमं ठिई (श० १२ १२१) सिज्झिहिति जाव सव्व(श० १३० १२२) १६. गोयमा ! महाविदेहे वासे दुखणं अंतं काहिति । २०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १३० १२३) १. य एतेऽनन्तरोद्देश केऽर्था उक्तास्ते भाषयान्ता भाषाया एव निरूपणाय सप्तम उच्यते । ( वृ० प० ६२१) २. रायगिहे जाव एवं वयासो ३. आया भंते ! भासा ? अण्णा भासा ? गोयमा ! नो आया भासा, अण्णा भासा । बा०-- ' आया भंते ! भास' त्ति आत्मा - जीवो भाषा जीवस्वभावा भाषेत्यर्थः यतो जीवेन व्यापार्यते जीवस्य च बन्धमोक्षार्था भवति ततो जीवधर्मत्वाज्जीव इति व्यपदेशार्हा ज्ञानवदिति, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते ते भाषा नों व्यापार करें छे अने ते भाषा जीव नॅ हीज बंध मोक्ष करावनारी छ, भणी जीव ना धर्मपणां थकी जीव इम कहिवा जोग्य हुवै ज्ञान नीं परै । I i अथवा जीव थकी अन्य भाषा, ते जीव नो स्वरूप नहीं श्रोत्रेंद्रिय नैं ग्राह्यपण करी, मूर्त रूपीपणे करी जे श्रोत्रेद्रिय नैं ग्राह्य ते रूपी छे। अने आत्मा ते अमूर्तिपण करी अरूपी कहिये । ते भणी भाषा आत्मा नों लक्षण नहीं, आत्मा थकी अनेरी छँ । इण कारण थकी गोतम प्रश्न पूछयो । तेह्नों उत्तर- ते भाषा आत्मरूप नहीं पुद्गलमय छँ ते भाषा आत्मा करिकै निसृज्यमानपणां थकी, तथाविध पाषाणादिक नीं परं । जिम कोई पाषाण नै न्हाखे तेहनीं परं जीव भाषा नै बाहिर काढ । अने जे का जीव पिण ऐकांतिक नहीं। जीव पिण जीव नों व्यापार देखवा अन दूजो हेतु - अचेतनपणां थकी आकाश नी परं । ब्यापार करें ते मार्ट भाषा जीव छै, ज्ञान नीं परं । ते थकी अत्यन्त भिन्न स्वरूपवाला दातरलादिक ने विषे थकी | जिम कोइ पुरुष दातरलादिक करी वनस्पति नें छेदै ते दातरलादिक ने विषे जीव नो व्यापार दीस, पिण ते दातरलादिक जीव नहीं । तिम भाषा जीव नां व्यापार थकी निकली, पिण ते भाषा जीव नहीं । तथा औदारिकादिक शरीर नै विषे जीव नों व्यापार दोस, पिण ते शरीर जीव नहीं । शरीर रूपी छ अनं जीव अरूपी छे ते माटै । तिम भाषा पिण जाणवी । ४. हे प्रभु ! भाषा ते रूपी अछे रे, के भाषा अरूपी कहिये स्वाम रे ? जिन कहे भाषा तो रूपी अच्छे रे, पिण भाषा अरूपी नहीं छै ताम रे ॥ 1 वा०-- रूवि भंते भासति हे भदंत ! रूपी भाषा कान ने अनुग्रह अन उपघातकारीपणां थकी । तथाविध कर्ण आभरणादिक नीं परै । जिम कोई कान नों आभरण कान नैं सुखकारक हुवै ते कान नैं अनुग्रहकारी कहिये अनें कोयक कान नो आभरण कान में दुखदाई हुवै ते उपपातकारी हुवे तेही परे 1 " अथ हि अरूपी भाषा छै, चक्षु नै अनुपलभ्यमानपणां थकी, चक्षु नै दृष्टि न ये भी धर्मास्तिकायादिकनी पर जिम धर्मास्तिकायादिक मैं दृष्टि न आवै तिम भाषा पिण चक्षु नै दृष्टि न आवं इण कारण भाषा अरूपी छँ । इसो प्रश्न पूछयो । तेहनों उत्तर- भाषा रूपी छँ, अरूपी नहीं । जे चक्षु ग्राह्यपणुं ते अरूपपणो हुवै, ते ऐकांतिक नहीं । परमाणु, वायु, पिशाचादिक चक्षु अग्राह्यपणे छे, तो पण ते रूपी कहिये पिन अरूपी न कहिये जे भणी धर्मास्तिकायादिक अरूपी छे, ते पिण चक्षु नें ग्राह्य न आवै । अनै परमाणु आदिक रूपी छँ, ते पिण चक्षु नैं ग्राह्य न आवै । ते माटै चक्षु ग्राह्य न आवै ते अरूपीज कहिये, एहवू एकांत पक्ष नहीं । जेहमें वर्णादिक पावे ते रूपी अनं जेहमें वर्णादिक न पाव ते अरूपी - ए रूपी - अरूपी नों लक्षण जाणवो अनैं भाषा पुद्गल छ । तेहने विषे वर्णादिक पाते भाषा में रूपी कहिये, पण अरूपी न कहिये । ५. हे प्रभु! भाषा सचित कहीजिये रे, जिन कहै भाषा सचित्त हुवै नहीं रे, L अथवा भाषा ते अचित्त कहाय रे ? भाषा ते अचित्त कहीजे ताय रे ।। अथान्या भाषा न जीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यवेन यत्मनो विलक्षणत्वादिति शत्रू अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं 'नो आया भास' त्ति आत्मरूपा नासौ भवती, पुद्गलमयत्वादात्मना च निसृज्यमानत्वात्तथाविधसोष्ठादिवत वत बच्चोक्तं जीवन व्यापामाणत्वाज्जीवः स्याज्ज्ञानयद का सिकं जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्वरूपेऽपि दात्रादौ दर्शनादिति । ( वृ० प० ६२१) ४. रूवि भंते ! भासा ? अरूवि भासा ? गोयमा ! रूवि भासा, नो अरूवि भासा । वा० - 'रूवि भंते ! भास' त्ति रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुग्रहोपघात कारित्वात्तथाविधकर्णाभरणादिवत् । अथारूपिणी भाषा चक्षुषाऽनुपलभ्यत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति शङ्का अतः प्रश्नः, उत्तरं तु रूपिणी भाषा, चक्षुरात्वमरूपत्वसाधनायो सदने कान्तिकं परमाणुवायुविशाचादीनां रूपयतामपि चक्षुराह्यत्वेनाभिमतस्यादिति । (० ० ६२१) यच्च ५. सचित्ता भंते ! भासा ? अचित्ता भासा ? गोयमा ! नो सचित्ता भासा, अचित्ता भासा । श० १३, उ० ७, ढा० २५८ २०१ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-- अनात्मा रूप पिण ए भाषा सचित्त छे जीवत-शरीरवत । जे जीव जीव छै, त्यां लग तेह्नों शरीर सचित्त कहिये । चित्त ते चेतन - जीव । तिणे करी सहित ते शरीर सचित्त कहिये । तिम भाषा पिण सचित्त कहिये । इण कारण ए प्रश्न पूछयो, उत्तर - जीव थी नोकल्या पुद्गल समुदायरूपपणां थकी ते भाषा नैं सचित्त न कहिये, अचित्त कहिये । ६. हे प्रभु । भाषा जीव कहीजिये रे, अथवा भाषा ते अजीव होय रे ? जिन कहै भाषा जीव हवे नहीं रे, भाषा ने अजीव कहिये सोय रे । वा० - जीवा भंते ! भासा इत्यादि - जीवै ते जीव, प्राण धारण स्वरूप भाषा छै के जीव लक्षण रहित अजीव भाषा है ? एहनों उत्तर ते भाषा जीव नहीं, भाषा नै उच्छ्वासादिक प्राण नां अभाव थकी । ७. हे प्रभु! भाषा जीवां रे अच्छे रे, के भाषा अजीवा रे कहिवाय रे । जिन कहै भाषा जीवां रे अरे, पिण भाषा अजीव त नहिं थाय रे ।। सोरठा ८. अक्षर १०. जे तणो कहेह तालु आदि व्यापार थी । ऊपजिया छै एह, जीवाश्रितपणां थकी ॥ ६. यद्यपि शब्द विमास, अजीव थी पिण ऊपजै । तो पिण भाषा तास, कहियै नहि तसु न्याय हिव ॥ भाषा पर्याप्ति, जीव तज हुवै अजीव नहि प्राप्ति, रै तिण सं जीवां रे ११. अजीव पी उत्पन्न, शब्द तिके भाषा अभाषापणं प्रपन्न, तसु अभिमतपणां १२. * बोल्यां पहिली भगवंत ! भाषा अछे रे, अछे । अछे । नथी। थकी ॥ के बोल तिण वेला भाषा होय रे ? कै भाषा बोल्यां नैं समय थयां पर्छ रे, भाषा ति बेला कहीजे सोय रे ? सांभरे,. १३. श्री जिन भाखे गोयम! बोल्या पहिली भाषा नहि होय रे । भाषां तो बोलंती वेला अछे रे, बोल्यां पाछे भाषा नहि कोय रे ॥ १४. बोल्यां पहिली प्रभु ! भाषा भेदिय रे, कै बोलंतां भाषा द्रव्य भेदाय रे ? भाषा समयो व्यतित या पर्छ रे, १५. जिनवर भात्रै गोतम ! सांभले रे, भाषा भेदावे थे जिनराय ! रे । भाषा निसर्ग समय घी जोय रे । पूर्व भाषा नां द्रव्य भेदे करी रे, भाषा भेदावे नहि छ कोय रे ।। *लय : श्री जिणवर गणधर २०२ भगवती जोड़ वा०—अनात्मरूपाऽपि सचित्तासौ भविष्यति जीवच्छरीरवदिति पृच्छन्नाह - ' सचित्ते' त्यादि, उत्तरं तु नो सचित्ता जीवनिसृष्टपुद्गल संहतिरूपत्वात्तथाविधलेष्ठवत् । (० ० ६२२) ६. जीवा भंते ! भासा ? अजीवा भासा ? गोयमा ! नो जीवा भासा, अजीवा भासा । धारणस्वरूपा भाषा वा० – 'जीवा भंते ! ' इत्यादि, जीवतीति जीवा - प्राणतक्षति प्रश्नः, अत्रोत्तरं नो जीवा उच्छ्वासादिशणानां तस्या अभावादिति । ( वृ० प० २२२ ) ७. जीवाणं भंते ! भासा ? अजीवाणं भासा ? गोयमा ! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा । ८. वर्णानां ताल्वादिव्यापारजन्यत्वात् ताल्वादिव्यापारस्य जीव ( वृ० प० २२२ ) ९. यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासो भाषा । ( वृ० प० २२२ ) १०,११. भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमतत्वादिति । (बृ० प० २२२) १२. पु िभंते! भासा ? भासिज्जमाणी भासा ? भासासमयवी तिक्कंता भासा ? १३. गोयमा ! नो पुब्वि भासा भासिज्जमाणी भासा, नो भासासमयवीतिक्कता भासा । १४. पुव्वि भंते! भासा भिज्जति ? भासिज्जमाणी भासा भिज्जति ? भासासमयवीतिक्कंता भिज्जति ? भासा १५. गोयमा ! नो पुब्वि भासा भिज्जति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बोलती वेला निसर्ग समय में रे, भाषा नां द्रव्य तिके भेदाय रे । इतर बोलतां द्रव्य भाषा तणां रे, भेद पामै छै तसु हिव न्याय रे ।। १६. भासिज्जमाणी भासा भिज्जति । भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा । (वृ०प० ६२२) १७. इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स चाभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति । (वृ० प० ६२२) १८. तानि च निसृष्टान्यसंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते। (वृ० ५० ६२२) १९. विभिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्द परिणामत्यागमेव कुर्वन्ति । (वृ० प० ६२२) २०,२१. कश्चित्तु महाप्रयत्नो भवति स खल्वादानविसर्ग प्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव विसृजति । (वृ०प० ६२२) सोरठा १७. इहां कोइक जन जाण, वक्ता मंद प्रयत्न हवै। अभिन्न हीज पहिछाण, भाषा द्रव्य प्रति नीसरै ।। १८. नीकलिया रव तेह, असंख द्रव्यात्मक भाव थी। वलि स्थूलपणां थी जेह, भाषा द्रव्य भेदाय छै॥ १६. भेदीजता द्रव्य तेह, संख्याता योजन जई। शब्द परिणाम तजेह, मंद वदै तसु न्याय ए॥ २०. अथवा कोइक जाण, वक्ता महाप्रयत्न ह। शीघ्र उच्च स्वर वाण, ते तो निश्चै करि तदा। २१. भाषा द्रव्य आदान, ग्रहण अने निसर्ग बिहं। प्रयत्ने करि जाण, द्रव्य भेदी – नीसरै। २२. सूक्ष्मपणां थी तेह, वलि ते बहुलपणां थकी। अनंत गुणां द्रव्य जेह, वृद्धि करी बधता थका ।। २३. ते षट दिशि रै मांय, लोक अंत पामै अछ। वृत्ति थकी ए न्याय, आख्यो छै म्हैं इहविधे ।। २४. तिणसं इम कहिवाय, जेह अवस्था में विषे। शब्द परिणाम छ ताय, भाष्यमान नो भाव तब ।। २५. *भाषा समयो जे व्यतिक्रम्यां पर्छ रे, भाषा भेदावै नहि छै कोय रे । भाषा परिणाम तज्या तिण सर्वथा रे, तिणसू काल अनागत भेद न होय रे ।। २६. हे प्रभु ! भाषा कितै प्रकार छ रे ? च्यार प्रकार कही जिनराय रे। सत्या असत्या नैं सत्यामृषा रे, असत्यामृषा ववहार कहाय रे ।। २२,२३. तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्धया वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति । (वृ०प०६२२) २४. अत्र च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसेयेति । (वृ० प० ६२२) २५. नो भासासमयवीतिक्कता भासा भिज्जति । _ (श० १३।१२४) 'नो भासासमयवोइक्कते' ति परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः। (वृ० ५० ६२२) २६. कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णता ? गोयमा ! चउव्विहा भासा पण्णत्ता, तं जहासच्चा, मोसा, सच्चामोसा, असच्चामोसा । (श० १३।१२५) दूहा २७. अनन्तरं भाषा निरूपिता, सा च प्रायो मनःपूर्विका भवतीति मनोनिरूपणायाह- (व०प०६२२) २७. पूर्वे भाषा नैं कही, बहुलपण तो तेह। मन नैं पहिला व अछ, तिणसुं मन कहेह ।। मन पद २८. “आत्मा हे भगवन ! मन कहियै अछ रे, के आत्मा थी अन्यज मन कहिवाय रे? जिन कहै गोतम ! आतम मन नहीं रे, आतम थी अन्य मन छै ताय रे ॥ २८. आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे? गोयमा! नो आया मणे, अण्णे मणे । लय : श्री जिणवर गणधर श० १३, उ०७, ढा०२८८ २०३ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जिम भाषा कही तिम कहिवो मन भणी रे. २९. जहा भासा तहा मणे वि जाव (सं० पा०) नो जाव अजीव तणै मन नांहि रे। अजीवाणं मणे । द्रव्य मन आश्री ए सह वारता रे, भावे मन आश्री नहिं छै ताहि रे ।। सोरठा ३०. 'द्रव्य मन पुद्गल होय, भावे मन तो जीव छ । जिन वच वारू जोय, देखो न्याय सिद्धांत नों॥ ३१. दश जीव परिणामी माय, जोग परिणामी जिन का। भाव जोग इण न्याय, दशमैं ठाणे' देखलो ।। ३२. शत बारम पंचमुद्देश', उट्ठाण कम्म बल वीर्य नैं। नहीं वर्णादिक लेश, पिण ए भावे जोग है। ३३. शत तेरम धुर उदेश', नोइंदिय नो अर्थ इम। चैतन्य रूप विशेष, भाव मन ते इम वृत्तौ ॥ ३४. शत बारम दशम उद्देश५, जोग आत्मा जिन कही। भाव जोग ए शेष, ज्ञान आत्मा तेम ए॥ ३५. ज्ञान दर्शण चारित्त, एहनै पिण आत्मा कही। ए जिम जीव कथित्त, जोग आत्म पिण जीव तिम ।। ३६. इत्यादिक बहु ठाम, भाव जोग तो जीव छ। पुद्गल नं परिणाम, द्रव्य जोग जिनजी क ह्यो।' (ज०स०) ३७. *हे प्रभु ! पहिलां मन कहियै अछ रे, ३७. पुचि भंते ! मणे ? मणिज्जमाणे मणे ? के मन ते प्रवर्तण लागो ताय रे। एतले वर्तमान काले तसु रे, मन नै कहीजै छै जिनराय रे ॥ ३८. इम जिम भाषा नों वर्णन कियो रे, ३८. एवं जहेब भासा । (श• १३।१२६) मन ने पिण कहिवो तिणहिज रीत रे। काल वर्तमान विषे मन में कां रे, अतीत अनागत नहिं संगीत रे॥ ३६. कितरै प्रकार प्रभु ! मन दाखियो रे ? ३९. कतिविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते ? जिन कहै मन है च्यार प्रकार रे। गोयमा ! चउब्विहे मणे पण्णत्ते, तं जहा-सच्चे, सत्य असत्य अनैं सत्यमोस छै रे, मोसे, सच्चामोसे, असच्चामोसे । (श० १३।१२७) चउथो असत्यामोस ववहार रे॥ सोरठा ४०. केवल एह कहिवाय, मनोद्रव्य समुदाय ते। ४०,४१. केवलमिह मनोद्रव्यसमुदयो मननोपकारी मनःचिंतन तणोज ताय, उपगारी ते द्रव्य है। पर्याप्तिनामकर्मोदयसम्पाद्यः। (वृ०प०६२२) ४१. तथा मन:-पर्याप्त, नाम कर्म नां उदय थी। पुद्गल तेहिज आप्त, इहविधि आख्यो वृत्ति में ।। ४२. ते मनोद्रव्य भेदाय, भाषा द्रव्य तणी पर। ४२. भेदश्च तेषां विदलनमात्रमिति। (व०प० ६२२) नहि संखेज योजन जाय, षट दिश वलि लोकत लग ।। १. ठाणं १०१८ २. श० १२।१११ ३. श० १३३३ ४. भ० वृ० ५० ५९९ ५. १२।२०२ *लय : श्री जिणवर गणधर २०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. अनन्तरं मनो निरूपितं तच्च काये सत्येव भवतीति कायनिरूपणायाह (वृ० प० ६२३) ४३. आख्यो मन स्वरूप, ते तो काय थकांज है। ते माटे तद्रूप, करै निरूपण काय नों।। काय पद ४४. *आतम भगवंत ! ते काया अछै रे, कै आतम थी अन्य काय कहिवाय रे ? जिन कहै आत्म पिण काया अछ रे, आत्म थी अन्य काय पिण थाय रे ।। ४४. आया भंते ! काये ? अण्णे काये ? गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि काये। सोरठा ४५. वृत्ति विषे इम वाय, आत्म काय इण न्याय है। ४५. आत्माऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकात् । किणहि प्रकारे ताय, आत्म काय थो भिन्न नथी ।। (वृ० प० ६२३) ४६. खोर नीर जिम जाण, तथा अग्नि लोह पिंडवत । ४६. क्षीरनीरवत् अग्न्यय स्पिण्डवत् काञ्चनोपलवद्वा । वलि कंचन पाषाण, तेम आत्म नै काय है। (वृ०प०६२३) ४७. काय स्पर्शना थाय, तो आतम नैं वेद । ४७. अत एव कायस्पर्श सत्यात्मनः संवेदनं भवति । ए नय बचने ताय, आत्म प्रति काया कही। (वृ० प० ६२३) ४८. जीव थकी अन्य काय, ते तो प्रत्यक्ष एहिज छ । ४८. अत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यते । ___जंतू परभव जाय, काया नों रहिवू इहां ।। (वृ० प० ६२३) ४६. जो जीव काया ह एक, तो तन् अंशज छेदवे । ४९. अत्यन्ताभेदे हि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छेदप्रसङ्गः। जीव अंश नो पेख, छेद तणोज प्रसंग ह ।। (वृ०प० ६२३) ५०. जो तनु नो व दाह, तो आत्म दाह प्रसंग है। ५०,५१. तथा शरीरस्य दाहे आत्मनोऽपि दाहप्रसंगेन जंतू-दाहे ताय, परलोक अभाव प्रसंग ह॥ परलोकाभावप्रसंग इत्यतः कथञ्चिदात्मनोऽन्योऽपि ५१. ते माटै कहिवाय, किणही प्रकारे करी। काय इति । (वृ०प० ६२३) आत्म थकी अन्य काय, वृत्तिकार इम आखियो ।। ५२. 'खंधक ने अधिकार', गुरु लघ जीव भणी कह्यो। ते धुर शरीर च्यार, तेह सहित जंतू लियो ।। ५३. तेम इहां कहिवाय, काया जीव सहीत ते। आतम कहिये ताय, नय वच ववहारे करी।। . ५४. काल वर्ण अवलोय, भमर कह्यो भगवंत जिम । नय ववहारे जोय, पंच वर्ण निश्चै नये ।। [ज० स०] ५५. *हे प्रभु ! रूपी कहिजे काय नैं रे, ५५. रूवि भंते ! काये? अरूवि काये ? अथवा अरूपी कहियै काय रे ? गोयमा ! रूवि पि काये, अरूवि पि काये । जिन कहै रूपी पिण ए काय छै रे, वलि काय अरूपी पिण कहिवाय रे ।। सोरठा ५६. रूपी पिण ए काय, औदारिकादिक चिहं तनु । ५६. 'रूवि पि काए' त्ति रूप्यपि काय: औदारिकादिकायस्थूल रूप पेक्षाय, काय भणी रूपी कही ।। __ स्थूलरूपापेक्षया। (वृ० प० ६२३) ५७. कार्मण तनु जे काय, अति सूक्षम रूपी भणी। ५७. अरूप्यपि कायः कार्मणकायस्यातिसूक्ष्मरूपित्वेनाकही अरूपी ताय, काय अरूपी इम वृत्तौ ।। रूपित्वविवक्षणात् । (वृ० प० ६२३) १. श० २०४६ *लय : श्री जिणवर गणधर श० १३, उ०७, ढा०२८८ २०५ Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-'जिम तेउ वाउ नै गति आश्री त्रस कह्या, पिण तिण में त्रस जीव रो भेद नथी । तथा जिम असन्नी मरी प्रथम नरके, असुर अनै व्यंतर में ऊपजै । तिहां विभंग अनाण न लाभ, तिहां लगै असन्नी कह्या, पिण तिणमें असन्नी जीव रो भेद नथी । तथा दशकालिक अध्येन आठ में अति सूक्ष्म माटै आठ सूक्ष्म कहा। पिण तिणमें सूक्ष्म जीव रो भेद नथी। तिम कार्मण शरीर अति सूक्ष्म, ते आधी काय अरूपी कही । पिण तिणमें अरूपी अजीव रो भेद नथी। कार्मण नै वृत्ति में अरूपी कह्यो ते इण न्याय नय वचने करी कहै तो कहण मात्र छ । पिण कार्मण शरीर में भेद तो रूपी अजीव रो छै'। [ज ० स०] ५८. हे प्रभु ! सचित्त कहिजे काय नैं रे, के अचित्त कहिलै छै ए काय रे? श्री जिन भाखै काया सचित्त रे, वलि काया ते अचित्त पिण कहिवाय रे ।। ५८. सचिने भंते ! काये ? अचित्ते काये ? गोयमा ! सचित्ते वि काये, अचित्ते वि काये। सोरठा ५६. कहियै सचित्त काय, जीवत अवस्था में विषे। सचित्त कही इण न्याय, चेतन सहितपणां थकी ।। ६०. तथा अचित्त पिण काय, मृत अवस्था नै विषे । अचित्त कही इण न्याय, जीव अभाव थकी वृत्तौ ।। ६१. *हे प्रभु ! जीव कहीजै काय नैं, ___ अथवा अजीव कहीजे काय रे ? जिन कहै जंतु पिण ए काय छै, वलि काय ते अजीव पिण कहिवाय रे ।। ५९. 'सचित्ते वि काए' जीवदवस्थायां चैतन्यसमन्वितत्वात् । (वृ० ५० ६२३) ६०. 'अचित्ते वि काए' मृतावस्थायां चैतन्यस्याभावात् । (वृ० प०६२३) ६१. जीवे भंते ! काये? अजीवे काये ? गोयमा ! जीवे वि काये, अजीवे वि काये । ६३. जीवाणं भंते ! काये ? अजीवाणं काये ? गोयमा! जीवाण विकाये, अजीवाण वि काये। सोरठा ६२. जीव सहित जे काय, जीव काय उपचार नय । जीव रहित तनु ताय, अजीव काय प्रत्यक्ष ही ।। ६३. *हे प्रभु ! जीव तणे ए काय ह, अथवा अजीव तणे ह काय रे। जिन कहै जीव तणें काया हवे, वलि काया अजीव तण पिण थाय रे ।। सोरठा ६४. जीव तणे पिण काय, काया सहित जीव जे। ते माटै ए न्याय, जीवां रै काया कही ।। ६५. अजीव नैं पिण काय, जिन प्रमुख नी स्थापना । काय शरीर कहाय, तनु आकारज इम वृत्तौ ।। ६६. आदि प्रमुख रै माय, नृपति प्रमुख नी स्थापना। अजीव नै कहिवाय, काय शरीर आकार जे। ६७. *काया प्रभु ! जीव थकी पहिला हुवै रे, के का इज्जमाण कहीजे काय रे । के काय समयो व्यतिक्रत थयां पछ रे, काय कहीजै छ जिनराय रे ? *लय : श्री जिणवर गणधर ६४-६६. 'जीवाणवि काये' त्ति जीवानां सम्बन्धी 'काय:' शरीरं भवति, 'अजीवाणवि काये' त्ति अजीवानामपि स्थापनार्हदादीनां 'काय:' शरीरं भवति शरीराकार इत्यर्थः। (वृ० ५० ६२३) ६७. पुवि भंते! काये? कायिज्जमाणे काये? काय समयवीतिक्कते काये? २०६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. गोयमा ! पुब्धि पि काये, कायिज्जमाणे वि काये, कायसमयवीतिक्कते वि काये । ६८. जिन कहै जीव संबंधी काय थी रे, पहिला पिण काय हुदै छ ताय रे । काइज्जमाणे पिण काया हुवै रे, काय समयो व्यतिक्रांत थयां पिण काय रे ।। ६९,७०. 'पुबिपि काए' त्ति जीवसम्बन्धकालात्पूर्वमपि कायो भवति यथा भविष्यज्जीवसम्बन्धं मृतदर्दुरशरीरं। (वृ• प० ६२३) सोरठा ६६. होस्य जीव संबंध, जिम मृत दर्दुर तनु तणें । तेहनीं परै प्रबंध, एह वचन लोकीक नों। ७०. प्रथम जीव थी काय, मुंआ डेडका नों तनु । लोक कहै ते मांय, जंतू आवणहार छ । ७१. वनस्पति रै मांही, कह्यो पोटपरिहार प्रभु। फूल जीव मर ताहि, हस्यै सप्त तिल सूंघणी ।। ७२. वर्ष चउवीस विचार, गर्भ विषे काया रहै। रही तिहां वर्ष बार, तेहिज तथा अन्य ऊपजै ॥ ७३. ते माटै ए वाय, जीव संबंधज काल थी। पहिला कहिये काय, जीव पछै तिहां ऊपजै ॥ ७४. काइज्जमाणे काय, जीव जिको काया प्रतै । चिणवा लागो ताय, गर्भ अवस्था काय पिण ।। ७५. जीव काय नै ताय, काय करण लक्षण समय। व्यतिक्रम पछज काय, मूआ कलेवर नी परे। ७४. 'काइज्जमाणे वि काए' त्ति जीवेन चीयमानोऽपि कायो भवति यथा जीवच्छरीरं। (वृ० ५० ६२३) ७५. 'कायसमयवीतिक्कतेवि काए' त्ति कायसमयो जीवेन कायस्य कायताकरणलक्षणस्तं व्यतिक्रान्तो यः स तथा सोऽपि काय एव मृतकडेवरवत् । (वृ०प० ६२३) ७६. पुवि भंते ! काये भिज्जति ? कायिज्जमाणे काये भिज्जति ? कायसमयवीतिक्कते काये भिज्जति ? ७७. गोयमा ! पुब्बि पि काये भिज्जति, कायिज्जमाणे वि काये भिज्जति, कायसमयवीतिक्कते वि काये भिज्जति। (श० १३३१२८) ७६. *प्रभु ! पहिला ए काय भेद पाम अछ रे, काइज्जमाणे काय भेदाय रे। के काय समयो व्यतिक्रांत थयां पछै रे, काया भेदावै छै जिनराय रे? ७७. जिन कहै पहिला काय भेदाय छ रे, काइज्जमाणे पिण काय भेदाय रे । काय समयो व्यतिक्रांत थयां पछै रे, काय भेदावै हिव तसु न्याय रे ।। सोरठा ७८. काय विषे जे जीव, उत्पत्ति समय थकी प्रथम । पामै भेद अतीव, मधु घटादिक न्याय करि। ७६. मधु घालण रै काज, कुंभ स्थाप्यो पिण जे मधु घाल्यो नहीं समाज, तो पिण मधु-कुंभ जन कहै । ८०. द्रव्य काय भेदाय, खिण-खिण प्रति पुद्गल तणो। हाण वृद्धि पिण थाय, चय उपचय नां भाव थी ।। ८१. काइज्जमाण भेदाय, जीव कायीक्रीयमाण पिण। काय भेदियै ताय, तिण ऊपर दृष्टांत हिव ॥ ७८-८०. 'पुवि पि काए भिज्जइ' त्ति जीवेन कायतया ग्रहणसमयात्पूर्वमपि कायो मधुघटादिन्यायेन द्रव्यकायो भिद्यते प्रतिक्षणं पुद्गलचयापचयभावात् । (वृ० ५० ६२३) ११. 'काइज्जमाणे वि काए भिज्जइ' त्ति जीवेन कायी क्रियमाणोऽपि कायो भिद्यते। (वृ०प० ६२३) *लय : श्री जिणवर गणधर श० १३, उ०७, ढा०२८८ २०७ Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. नदी कण समूह पिछाण, तेहनी मुष्टि ग्रहणवत । खिण-खिण पुद्गल जाण, परिसाटन नां भाव थी।। ८३. काय समय व्यतिक्रंत, कायपणों तेहनै अछ। भूत भाव तसु हुँत, गये काल तसु भाव थो॥ ८४. घत-कुंभ हंतो अतीत, तो पिण घृत-कुंभ नाम तसु । तद्वत भेद प्रतीत, पुद्गल तणां स्वभाब थी। ८५. चूर्णिकार कहेह, केवल कायज शब्द नों। शरीर अर्थ तजेह, अंगीकृत चय मात्र ते ।। ८६. काय शब्दए जाण, सगलाई भावां तणो। जे सामान्य पिछाण, शरीर उपचय मात्र है।। ८२. सिकताकणकलापमुष्टि ग्रहणवत् पुद्गलानामनुक्षणं परिशाटनभावात् । (वृ०प० ६२३) ८३,८४. 'कायसमयबीतिक्कतेवि काये भिज्जइ' त्ति काय समयव्यतिक्रान्तस्य च कायता भूतभावतया घतकुम्भादिन्यायेन, भेदश्च पुदगलानां तत्स्वभावतयेति । (वृ०प० ६२३) ८५,८६. चूर्णिकारेण पुनः कायसूत्राणि कायशब्दस्य केवलशरीरार्थत्यागेन चयमात्रवाचकत्वमङ्गीकृत्य व्याख्यातानि, यदाह-'कायसद्दो सवभावसामन्नसरीरवाई' कायशन्दः सर्वभावानां सामान्यं यच्छरीरं चयमात्रं तद्वाचक इत्यर्थः। (वृ० ५० ६२३) ८७. आत्माऽपि कायः प्रदेशसञ्चय इत्यर्थः तदन्योऽप्यर्थः कायप्रदेशसञ्चयरूपत्वादिति। (वृ० प० ६२३) ८८. रूपी कायः पुद्गलस्कन्धापेक्षया अरूपी कायो जीव धर्मास्तिकायाद्यपेक्षया। (वृ० प० ६२३) ८९. सचित्तः कायो जीवच्छरीरापेक्षया, अचित्तः कायोऽचेतनसञ्चयापेक्षया। (वृ० प० ६२३) ९०. जीवः कायः-उच्छवासादियुक्तावयवसञ्चयरूपः, अजीवः काय: तद्विलक्षणः। (व० ५० ६२३) ९१. जीवानां कायो-जीवराशिः, अजीवानां कायः-- परमाण्वादिरा शिरिति । (वृ० प० ६२३) ९२. एवं शेषाण्यपि । अथ कायस्यैव भेदानाह--- (वृ० प० ६२३) ९३. कतिविहे णं भंते ! काये पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे काये पण्णत्ते, तं जहा-ओरालिए, ओरालियमीसए, ८७. आत्म काय कहिवाय, प्रदेश नों संचय तसु । आत्म थकी अन्य काय, प्रदेश संचै तास पिण ।। ८८. रूपी काय कहाय, पुद्गल खंध अपेक्षया । अछ अरूपी काय, जंतू धर्मास्ति प्रमुख ।। ८६. सचित्त काय कहाय, जोवत तनू अपेक्षया । अछ अचित्त ही काय, पुद्गल-संचय पेक्षया ।। १०. जीव काय इण न्याय, उच्छवासादी युक्त जे। अवयव-संचय थाय, अजीव काय तसु विपरजय ।। ६१. जीवां नी जे काय, बह जीवांनी राशि जे। पुदगल-राशि कहाय, काय अजीवां नी तिका ।। १२. शेष अपर पिण भाव, कहिवा रूड़ी रीत सं । काय तणे प्रस्ताव, काय भेद कहियै हिवै।। ६३. हे प्रभु ! काय परूपी कतिविधै रे ? जिन कहै सात प्रकारे काय रे। भेद औदारिक पहिलो भाखियो रे, औदारिकमिश्र द्वितीय कहिवाय रे ।। १४. वैक्रिय अनैं मिश्र वैक्रिय तणो रे, आहारक अनै आहा रकमोस रे । सप्तम भेद कारमण जोग छ रे, ए सातूं काया नां जोग कहीस रे॥ सोरठा ६५. औदारिक तनू ईज, पुद्गल खंधपणां थकी। उपचयपणां थकीज, काया कही इण कारण ।। ६६. पर्याप्त में पाय, एहवं आख्यं वृत्ति में। पिण जोतां वर न्याय, अपर्याप्त में पिण हुवे ।। ६७. बांधी तनु पर्याय औदारिक कहिये तदा। ___अपर्याप्तो कहाय, सहु पर्याय बंधी नथी ।। १८. औदारिक नो मीस, हुवै कारमण साथ जे। ___ अपर्याप्तो कहीस, तेरम गुणस्थानक वलि । *लय : श्री जिणवर गणधर ९४. वेउम्बिए, वेउब्वियमीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए। (श० १३।१२९) ९५. 'ओरालिए' त्ति औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्ध रूपत्वादुपचीयमानत्वात्काय औदारिककायः । ९६. अयं च पर्याप्तकस्यैवेति । (बृ०.५० ६२४) ९८. 'ओरालियमीसए' ति औदारिकश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेत्यौदारिकमिश्रः, अयं चापर्याप्तकस्य । (वृ०प०६२४) २०८ भगवती जोड Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. पर्याप्त में धार, औदारिक तनु नों धणी। वैक्रिय कर तिवार, औदारिक नों मिश्र हूं। १००. करं आहारक ताम, पूर्ण आहारक नां हवो। ते वेला पिण पाम, औदारिक नों मिश्र जे ॥ १०१. वैक्रिय छै सुर मांय, तनु पर्या बांध्यां पछै । अपर्याप्त में पाय, तस् पर्याप्त में वलि ।। १०२. तथा पर्याप्त मांय, तिरि पंचेन्द्रिय मनुष्य में। वलि वायु में पाय, तास वैक्रिय रूप जे । १०३. वैक्रिय तणोज मीस, देव अनैं न रक तणें । अपर्याप्त कहीस, मिश्र कार्मण साथ जे।। १०१. 'वेउन्विय' त्ति वैक्रियः पर्याप्तकस्य देवादेः । (वृ० प० ६२४) १०३. 'वेउव्वियमीसए' त्ति वैक्रियश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेति वैक्रियमिश्रः, अयं चाप्रतिपूर्णवैक्रियशरीरस्य देवादेः। (वृ० प० ६२४) १०४. ऊपजतां अवधार, धूर समये कामण करी। आहार लियै तिण वार, मिश्र कार्मण साथ ते ।। १०५. पर्याप्त में धार, वायु मनुष्य तिर्यंच पिण । वैक्रिय करी तिवार, ते वैक्रिय तजतां थकां ।। १०६. ग्रहितां औदारीक, औदारिक नैं साथ जे। वैक्रिय मिश्र कथीक, वैक्रिय तणां प्रधान थी ।। १०७. तथा पर्याप्त मांय, नारक – बलि देवता । तसु तनु मूल कहाय, ते वैक्रिय भवधारणी।। १०८. उत्तर वैक्रिय रूप, करतां पूरण नां हुवै । कहिये तदा तद्रूप, भवधारण वैक्रियमिश्र ।। १०६. उत्तर वैक्रिय ताय, भवधारणि वैक्रिय मझे। प्रवेश करतो पाय, उत्तर-वैक्रिय-मिश्र जे ।। ११०. आहारक रूप करेह, श्रमण प्रमादी लब्धिधर । जघन्य समय इक जेह, उत्कृष्ट विरह छह मास नों। १११. एह हस्त नी काय, सर्वार्थसिद्ध सुर जिसो । रूप तास कहिवाय, कह्यो आहारक जोग तनु । ११२. ते आहारक पहिछाण, औदारिक में पेसतां । आहारक-मिश्रज जाण, प्रधानपण आहारक तणें ।। ११०. आहारसमय इक जेह, सर्वार्थसिद्ध जोग तनु ।। ११२. 'आहारगमीसए' त्ति आहारकपरित्यागेनौदारिक ग्रहणायोद्यतस्याहारकमिश्रो भवति मिश्रता पुनरौदारिकेणेति । (वृ० प० ६२४) ११३. 'कम्मए' त्ति विग्रहगतौ केवलिसमुद्घाते वा कार्मणः स्यादिति । (वृ० प० ६२४) ११३. योग कार्मण काय, वाटे वहितां ए हुवै। वलि तेरम गुण पाय, समुद्घात केवल तदा ।। ११४. आख्यो ए विस्तार, सूत्र पन्नवणा अर्थ में। तेह थकी सुविचार, काय जोग नों अर्थ ए।। ११५. *शत तेरम देश कह्यो सप्तम तणो रे, बेसौ अठ्यासीमी ए ढाल रे। भिक्षु गुरु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' संपति हरष विशाल रे ।। *लय : श्री जिणव र गणधर श०१३ उ०७. ढा० २८८ २०९ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल:२८९ मरण पद १. कही अनंतर ते माट कहिवाय, सोरठा काय, मरण तेहन त्यागे मरण है। तणां इज भेद हिव ।। १. अनन्तरं काय उक्तस्तत्त्यागे च मरणं भवतीति तदाह (वृ० प० ६२४) दहा २. कतिविहे णं भंते ! मरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णत्ते । २. कितै प्रकारे मरण जे, भाख्या हे भगवंत ? श्री जिन भाखै मरण नां, पंच प्रकार कहंत ।। _ *सुण गोयमा रे! (ध्रुपदं ३. प्रथम आवीचि मरण कहीव, समय-समय प्रति मरतो जीव । तेह निरंतरपणे मरंत, आवीचि नो हिवै अर्थ कहत ।। ३. आवीचियमरणे यतनी ४. आ कहितां समस्त प्रकार, वीचि किलोल नी पर धार। ४,५. आवीइयमरणे' त्ति आ समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयसमय-समय आउखो वेदंत, तिण सं समय-समय ए मरंत ।। मनुभूयमानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्द५. अपर-अपर आयू दल जाण, एहनां उदय थकी पहिछाण । लिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं । पहिला-पहिला आयु दल तास, च्यवन लक्षण अवस्था विमास ।। (वृ० प० ६२५) ६. अथवा अविद्यमान जे मांय, वीचि जिहां विच्छेद न थाय । ६. अथवाऽविद्यमाना वीचिः---विच्छेदो यत्र तदवीचिक कह्यो आवीचिक मरण, समय-समय आयु-दल क्षरण ।। अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तन्मरणं चेत्यावीचिक मरणं । (वृ० प० ६२५) ७. *दुजो अवधि मरण जे कहिवाय, अवधि कहितां मर्यादा पाय । ७. ओहिमरणे । ते मर्यादा करि मरण पामंत, तास न्याय निसुणो धर खंत ।। ८. नारकादि भवे करि जीव, आयु कर्म दलिक अतीव । भोगवी ने जेह मरंत, वर्तमान अद्धा विषे मंत ।। 8. वलि काल आगमिक माहि, तेहि आयु कर्म दल ताहि । भोगवी मरिस्यै नारकादि, तिको अवधि मरण संवादि' ।। वा०--अवधि मर्यादा ते अवधि करिकै मरण ते अवधि-मरण । नारकादि वा०—'ओहिमरणे' त्ति अवधिः-मर्यादा ततश्चावधिना भव निबंधनपण करी जे आयु कर्म दलिक भोगवी नै मरे । वलि जे तेहिज आयु कर्म मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनदलिक जे नारकादि भोगवी ने अनागत काले मरिस्य तदा ते अवधिमरण कहिये । तयाऽऽयु:-कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्ताते द्रव्य नी अपेक्षा करिक वली ते ग्रहण अवधि ज्यां लग जीव नै मृतपणां न्येवानुभूय मरिष्यते तदा तदवधिमरणमुच्यते । तद्रव्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधि यावज्जीवस्य थकी हवै । अनै गहीत उज्झित कर्म दलिक नों वलि ग्रहण करिबूते परिणाम नां मृतत्वात्, संभवति च गृहीतोज्झितानां कर्मदलिविचित्रपणां थकी। कानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्यादिति । (वृ० प० ६२५) *लय : खिण गई रे मेरी खिण गई १. गाथा ७ से ९ का प्रतिपाद्य वृत्त्यनुसारी है। फिर भी इनके सामने वृत्ति का पाठ उद्धत नहीं किया गया। इससे अगली वार्तिका के सामने उसे समग्र रूप से लिया गया है। २१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. आइंतिय नरकादि भवंत, आयु कर्म दल वेद मरंत । मूओ थको नरकायू तेह, भोगव नैं नहिं मरिस्यं जेह ।। ११. चोथो मरण कह्यो छ बाल, मरण अविरति नं ए न्हाल। पंचम पंडित मरण सुजाण, विरतिवंत नैं ए पहिछाण ॥ १२. कतिविध मरण आवीचिय भदंत ? जिन कहै पंच प्रकारे हंत । द्रव्य आवीचिय मरण समीचि, क्षेत्र काल भव भाव आवीचि ।। १३. प्रभु ! द्रव्य आवीचि मरण कतिविध ? जिन कहै च्यार प्रकार प्रसिध। नारक द्रव्य आवीचिक जाण, तिर्यंच द्रव्य आवीचि पिछाण ।। १४. मनुष्य द्रव्य आवीचिक जोय, देव द्रव्य आवीचिक होय । किण अर्थे प्रभु ! इम आख्यात, नारक द्रव्य आवीचिक घात ? १५. श्री जिन कहै जिण हेतु थी जान, नारक जीव द्रव्य वर्तमान । पामै मरण इसो जे जोग, अंत शब्द नों करिवो प्रयोग ।। १०. आतियंतियमरणे । 'आइंतियमरणे' त्ति अत्यन्तं भवमात्यन्तिकं तच्च तन्मरणं चेति वाक्यं, यानि हि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत इत्येवं यन्मरणं । (वृ०प० ६२५) ११. बालमरणे, पंडियमरणे। (श० १३।१३०) 'बालमरणे' त्ति अविरतमरणं 'पंडियमरणे' त्ति सर्वविरतमरणं । (वृ० प० ६२५) १२. आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे कालावीचियमरणे, भवावीचिय मरणे, भावावीचियमरणे। (श० १३३१३१) १३. दवावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-नेरइयदव्वा वीचियमरणे, तिरिक्खजोणियदब्वावीचियमरणे १४. मणुस्सदव्वावीचियमरणे, देवदव्वावीचियमरणे। (श० १३११३२) से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ–नेरइयदव्वावीचिय मरणे-नेरइयदब्बावीचियमरणे ? १५. गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइए दव्वे वट्टमाणा 'जण्ण' मित्यादि, 'यत्' यस्माद्धेतो रयिका नारकत्वे द्रव्ये नारकजीवत्वेन वर्तमाना भरन्तीति योगः । (वृ० प० ६२५) १६. जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई बधाई पुट्ठाई 'नेरइयाउयत्ताए' त्ति नैरयिकायुष्कतया 'गहियाई' ति स्पर्शनतः 'बद्धाइं' ति बन्धनतः 'पुढाई' ति पोषितानि प्रदेशप्रक्षेपतः (वृ० प० ६२५) १७. कडाई पट्टवियाई। 'कडाई' ति विशिष्टानुभागतः 'पवियाई' ति स्थितिसम्पादनेन । (वृ० प० ६२५) १८. निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई' 'निविट्ठाई' ति जीवप्रदेशेषु 'अभिनिविद्वाई' ति जीवप्रदेशेष्वभिव्याप्त्या निविष्टानि अतिगाढतां गतानीत्यर्थः (वृ. प० ६२५) १९. अभिसमण्णागयाई भवंति ताई दवाई। 'अभिसमन्नागयाई' ति अभिसमन्वागतानि-उदयावलिकायामागतानि तानि द्रव्याणि । (वृ० प० ६२५) २०. आवीचिमणुसमयं निरंतरं मरंति ति कट्ट 'अणुसमयं' ति अनुसमयं -प्रतिक्षणं..."निरंतरं मरंति' त्ति 'निरन्तरम्' अव्यवच्छेदेन सकलसमयेष्वि त्यर्थः म्रियन्ते विमुञ्चन्तीत्यर्थः (वृ० प० ६२५) २१. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ... नेरइय दव्बावीचियमरणे, एवं जाव देवदव्वावीचियमरणे । (श० १३।१३३) १६. नेरइया नारक आयूपणेह, द्रव्य ग्रह्या फर्शण थी एह। बंध्या ते बंधन थी विशेष, कीधा पुष्ट प्रक्षेप प्रदेश। १७. कडाईते कीधा कहिवाय, विशिष्ट जे अनुभाग थी पाय । पट्टवियाई कहितां जाण, स्थितिकरण थी एह पिछाण ॥ १८. निविदाई कहितां जेह, स्थाप्या जीव प्रदेश विषेह। अभिनिविट्ठाई जीव प्रदेश, अतिहि गाढा स्थाप्या विशेष ।। १६. अभिसमण्णागयाइं ताहि, उदय तणी आवलिका मांहि । आया हवै जे द्रव्य अतीव, समय-समय वेदै ते जीव ।। २०. आवीचि मरण कह्यो छै एह, अनुसमय खिण खिण प्रति जेह । अंतर-रहित समय मरेह, इण हेते नारक द्रव्यावीचि एह ।। २१. तिण अर्थे गोतम ! इम ख्यात, नारक द्रव्य आवीचिक घात । एवं जाव मरण ए जाण, देव द्रव्य आवीचि पिछाण ।। श० १३, उ०७, ढा०२८९ २११ Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. क्षेत्रावीचिक मरण कितै प्रकार? जिन कहै च्यार प्रकार उचार । नारक क्षेत्रावीचि कुमीचि, यावत देवत क्षेत्रावीचि ।। २३. किण अर्थे प्रभ ! इम आख्यात, नारक क्षेत्रावीचिक घात ? जिन कहै जे हेतू थी जान, नारक क्षेत्र विषे वर्तमान ।। २२. खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा–नेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देवखेत्तावीचियमरणे । (श० १३।१३४) २३. से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ-नेरइयखेत्तावीचिय मरणे-नेरइयखेत्तावीचियमरणे ? गोयमा ! जणं ने रइया नेरइयखेते वट्टमाणा २४. जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई २४. नारक जीव मरै इह जोग, अंतिम शब्द थकीज प्रयोग । ग्रहण किया जे द्रव्य जिवार, नारक आयपण तिवार ।। २५. इम जिम द्रव्यावीचि कुमीचि, तिमहिज कहिवो क्षेत्रावीचि । इम यावत कहिवो अवधार, भावावीचिक मरण विचार ।। २५. एवं जहेव दवावीचियमरणे तहेव खेत्तावीचियमरणे वि। एवं जाव भावावोचियमरणे । (श० १३।१३५) . सोरठा २६. इम जाव शब्द थी जोय, कालभवावीचिक मरण । तास पाठ इम होय, वृत्ति विषे इम आखियो। २७. *अवधि मरण प्रभु ! कितै प्रकार? जिन कहै पंच प्रकार उचार । द्रव्यावधि क्षेत्रावधि लद्ध, काल अनैं भव भाव अबद्ध ।। २८. प्रभु ! द्रव्य अवधि मरण कितै प्रकार ? जिन कहै च्यार प्रकार विचार । नारक द्रव्य अवधि मरण ताय, जावत सुर द्रव्य अवधि कहाय ।। जिन २६ इह यावत्करणात् कालावीचिकमरणं भवावीचिक मरणं च द्रष्टव्यं, तत्र चैवं पाठः। (वृ० प०६२५) २७. ओहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा --दव्वोहिमरणे खेत्तोहिमरणे, कालोहिमरणे भवोहिमरणे, भावोहिमरणे। (श० १३।१३६) २८. दव्वोहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते तं जहा -नेरइयदव्योहिमरणे जाव देवदव्वोहिमरणे । (श० १३।१३७) २९. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइयदब्वोहिमरणे नेरइयदव्बोहिमरणे? गोयमा ! 'जे णं' नेरइया नेरइयदब्वे वट्टमाणा ३०. जाई दबाई संपयं मरंति, ते णं' नेरइया ताई दव्वाइं अण।गए काले पुणो वि मरिस्संति । २६. किण अर्थ प्रभु ! इम आख्यात, नारक द्रव्य अवधि मरण पात ? जिन कहै जेह नेरइया जान, नारक द्रव्य विषे वर्तमान ।। ३०. जे नारक जे द्रव्य प्रति न्हाल, मरै करै क्षय सांप्रत काल । जे नारक ते द्रव्य प्रति भाल, वलि भोगव मरस्यै अनागत काल ।। सोरठा ३१. जे द्रव्य सांप्रत काल, वली अनागत काल, ते मरै करै क्षय नारकी। द्रव्य प्रति मरस्यै नरक ।। ३२. *तिण अर्थे गोतम ! इम ख्यात, नारक द्रव्य अवधि ए घात । एम तिर्यंच मनुष्य - देव, द्रव्य अवधि मरण नो भेव ।। ३३. इण आलावे करिने एम, क्षेत्र अवधि पिण कहिवो तेम। काल अवधि भव भाव अवधि, एह पंचविध कह्या प्रसिधि । ३१. नैरयिकद्रव्ये वर्तमाना ये नैरयिका यानि द्रव्याणि साम्प्रतं म्रियन्ते- त्यजन्ति तानि द्रव्याण्यनागतकाले पूनस्त इति गम्यं मरिष्यन्ते-त्यक्ष्यन्तीति यत्तन्नरयिकद्रव्यावधिमरणमुच्यत इति शेषः । (वृ० १०६२५) ३२. से तेणठेणं गोयमा ! जाव दब्बोहिमरणे । एवं तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवदव्वोहिमरणे वि। ३३. एवं एएणं गमेणं खेत्तोहिमरणे वि, कालोहिमरणे वि, भवोहिमरणे वि, भावोहिमरणे वि । (श० १३।१३८) ३४. आतियंतिय मरणे णं भंते !-पुच्छा । गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वातियंतियमरणे खेत्तातियंतियमरणे जाव भावातियंतियमरणे । (श० १३।१३९) ३४. प्रभु ! आत्यंतिक मरण कितै प्रकार ? जिन कहै पंच प्रकार विचार । द्रव्य आत्यंतिक मरण कहंति, क्षेत्र काल भव भाव आत्यंति ।। २१२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. द्रव्य आत्यंतिक प्रभु ! कतिविद्ध ? जिन कहै च्यार प्रकार प्रसिद्ध । नारक द्रव्य आत्यंतिक हुँत, तिरि मनु देव द्रव्य आत्यंत ।। ३६. किण अर्थ प्रभु ! इम आख्यात, नारक द्रव्य आत्यंतिक घात ? जिन कहै जेह ने रझ्या जान, नारक द्रव्य विषे वर्तमान ।। ३७. जे नारक जे द्रव्य प्रति न्हाल, मरै करै क्षय सांप्रत काल । ते नारकते द्रव्य प्रति भाल, वलि नहिं मरिस्यै अनागत काल ।। ३८. तिण अर्थे जावत इम ख्यात, एवं तिरि मनु देव विख्यात । क्षेत्रात्यंतिक मृत्यु पिण एम, काल अनै भव भावज तेम ।। ३६. बाल मरण प्रभु ! कितै प्रकार? जिन कहै द्वादशविध सुविचार । वलय मरण विलपात अनिष्ट, जिम खंधक जावत गध्रपृष्ठ । ४०. पंडित मरण प्रभ! कितै प्रकार ? दोय प्रकार कहै जगतार। पाओवगमन अचल तिष्ठंत, दूजो भतपचखाण कहंत ।। ३५. दब्वातियंतियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-नेरइयदव्वातियंतियमरणे जाव देवदव्वातियंतियमरण । (श० १३।१४०) ३६. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ.-नेरइयदव्वातियं तियमरणे-नेरइयदव्वातियंतियमरण ? गोयमा ! जे णं नेरइया नेरइयदब्वे वट्टमाणा ३७. जाई दवाइं संपयं मरंति, . 'ते णं' नेरइया ताई दव्वाइं अणागए काले नो पुणो वि मरिस्संति । ३८. से तेणठेणं जाव नेरइयदव्वातियंतियमरणे। एवं तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवदव्वातियंतियमरणे। एवं खेत्तातियंतियमरणे वि, एवं जाव भावातियंतियमरणे वि। (श० १३।१४१) ३९. बालमरणेणं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा- बलयमरणे जहा खंदए (श०२४९) जाव गद्धपढें । (श० १३.१४२) ४०. पंडियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पाओवगमणे य, भत्तपच्चक्खाणे य । (श०१३।१४३) ४१,४२. पाओवगमणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-नीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियम अपडिकम्मे । (श० १३३१४४) पण्डितमरणसूत्रे ‘णीहारिमे अणीहारिमे' त्ति यत्पादपोपगमनमाश्रयस्यैकदेशे विधीयते तन्निहारिम, कडेवरस्य निर्हरणीयत्वात्, यच्च गिरिकन्दरादौ विधीयते तदनिर्दारिम, कडेवरस्यानिहरणीयत्वात्, 'नियम अप्पडिकम्मे त्ति शरीरप्रतिकर्मवजितमेव । (व०प० १२५, १२६) ४३. भत्तपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-नीहारिमे य अनीहारिमे य । नियमं सपडिकम्मे । (श०१३।१४५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। (श० १३।१४६) ४१. पाओवगमन प्रभु ! कितै प्रकार ? जिन कहै दोय प्रकार उचार ।। नीहारिम जसं नीहरण होय, ग्रामादिक नैं विषे ए जोय ।। ४२. अनीहारिम जसु नीहरण नाहि, गिरि कंदरादिक रै मांहि । अप्रतिकर्म बिहं ए न्हाल, न करै तन नी सार संभाल ।। ४३. प्रभु ! कितै प्रकारै भतपचखाण ? जिन कहै ए पिण द्विविध जाण । नीहारिम अनीहारिम हुँत, सप्रतिकर्मज सेवं भंत ! ४४. तेरम शत सप्तम उद्देश, बेसय नव्यासीमी ढाल विशेष । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, _ 'जय-जश' संपति हरष सवाय ।। त्रयोदशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥१३॥७॥ श० १३, उ० ७, ढा०२८९ २१३ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म प्रकृति पद ढाल : २९० वहा १. पूर्व उद्देशे मृत्यु कह माटै कर्म स्थिति, २. कर्म प्रकृति प्रभु ! केतली ? अष्ट कर्म कर्म नीं नीं प्रकृति, ३. बंध स्थिति इण वचन करि, बंध स्थिति ते कर्म स्थिति । आयु-क्षय स्थिति रूप अष्टमुद्देश तद्रूप ॥ भाखं जिनराय । पद तेवीसम मांय ॥ कर्म बंध तसु स्थित्त । ते अर्थ उद्देश कथित्त ॥ तब ४. द्वितीय उदेक्षा में कह वाचनांतरे वृत्ति में, गाहा जिम सगलो विस्तार | में, गाहा संगहणी संग्रहणी धार ॥ इहां वाचनांतरे संग्रहणी गाथा पडणं भेठि बंधीवि य इंदियानुवाए णं । केरिसय जन्मदिं बंधइ उक्कोसि बाबि ।। वा० - कर्म प्रकृति नो भेद कहिवो ते इम कइ णं भंते! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा -- णाणावर णिज्जं दरसणाव रणिज्जमित्यादि तथा णाणावरणिज्जे गं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - आभिनिबोहियणाणावर णिज्जे सुअणाणावरणिज्जे' इत्यादि । तथा कर्म नी स्थिति केहवी ते इम णाणावर णिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जग्गेणं अंतो उनकोसे तीर्थ सागरोपमकोटाकोडील इत्यादि । तवा बंधोज्ञानावरणियादि कर्म नैं इंद्रिय अनुपाते करी कहिवो ते इम – एकेंद्रियादि जीव कुण केतली कर्म स्थिति प्रति बांधे ? इसो कहिवो इत्यर्थ ते इम एगिदिया णं भंते ! जीवा णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणेणं सागरोवमस्स तिन्निसत्तभागे पलिओवमस्स' असंखेज्जेणं भागेणं ऊणए उक्कोसेणं तं चेव पडिपुन्ने बंधति इत्यादि तथा केहवो जीव जघन्य स्थिति कर्म नीं तथा उत्कृष्ट स्थिति बांधने ते कहिवो ते इम णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जहन्नबंध के ? गोयमा ! अन्नयरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खवए वा एस गं गोमा ! णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स जहणट्ठिइबंधए तव्वइरित्ते अजहन्ने इत्यादि समस्त कहिवुं । १. एक सागर नां सातिया त्रिण भाग आवे ते पल्य नै असंख्यातमें भागे ऊणा जाणवा इत्यर्थः । २१४ भगवती जोड़ १. अनन्तरोद्देश के मरणमुक्तं तच्चायुष्कर्मस्थितिक्षयरूपमिति स्थितिप्रतिपादनाचष्ट उद्देशकः । 1 ( वृ० प० ६२६) २. कति णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ । ३. एवं बंध उसोभाषियो "एवं बंघटिउसन ति एवम् अनेन प्रश्नोत्तरक्रमेण बन्धस्य -- कर्म्मबन्धस्य स्थितिबंन्धस्थितिः कम्मंस्थितिरित्यर्थः तदर्थ उद्देशको बन्धरित्युद्देश को भणितव्यः । ( वृ० प० ६२६) ४. निरवसेसो जहा पण्णवणाए पद २३) । स च प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमपदस्य द्वितीयः, इह च वाचनान्तरे संग्रहणीगाथाऽस्ति ( वृ० प० ६२६ ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. रायगिहे जाव एवं वयासी ७. से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा 'केयाघडियं' ति रज्जुप्रान्तबद्धघटिकां । (वृ० प० ६२७) ८. एवामेव अणगारे वि भावियप्पा ९. केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं ५. सेवं भंते ! हे प्रभु ! सत्य तुम्हारी वाण । शतक तेरमें अर्थ ए, अष्टमुद्देशे जाण ।। त्रयोदशशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥१३॥८॥ भावितात्मविक्रिया पद *स्वामी गुणरसियो, जे रे सुगुण नर-नार तेहनै मन वसियो।। [ध्रुपदं] ६. नगर राजगह नै विषे रे सुरिजन, भगवंत गोतम स्वाम। वीर प्रत वंदन करी रे सुरिजन, इम भाखै शिर नाम । ७. यथादृष्टांत कोइ मानवी रे, डोरड़ियै करि जान । बांधी घटिका तेह प्रतै रे, ग्रही जाय किण स्थान । साधू गुणरसियो॥ ८. इण दृष्टांते जाणिय रे, लब्धिवंत अणगार । भावित आत्म नों धणी रे, फोड़ी लब्धि तिवार । गुण शब्दादिक जेह, तेहनों ए तृसियो॥ है. रासड़ी ना अंते करी रे, बांधी घटिका ताम । ते कार्य भाजन कर ग्रही रे, एहवो रूप करि आम ।। १०. आपणपे आतम करी रे, ऊंचो आकाशे जाय? जिन कहै हंता गोयमा रे! जाव सहू क हिवाय ।। ११. हे प्रभजी ! अणगार ते रे, भावित आत्म तदर्थ । केतला एहवा रूप में रे, वैक्रिय करण समर्थ ? १२. श्री जिन भाखै गोयमा ! रे, यथानाम दृष्टंत । यूवान पुरुष युवती प्रत रे, कर करि हस्त ग्रहंत ।। १३. इम जिम तीजा शतक नां रे, पंचमुद्देशे उक्त। तेम इहां कहिवो सहू रे, जाव नो चेव संपत्त ।। सोरठा १४. जंबू भरिवा शक्त, एहवा बहु रूपे करी। विषय मात्र छै उक्त, पिण त्रिहुं काले न करै इता।। १५. *निश्चै इति संपदा करी रे, वैक्रिय रूप विशाल । काल अतीत करी नथी रे, न करै वर्तमान काल ॥ १६. काल अनागत ने विषे रे, वैक्रिय रूप अत्यन्त । एता तो करिस्य नहीं रे, पिण समर्थ छै ते संत ।। १७. यथादष्टांते कोइ मानवी रे, हिरण रूपादि मंजस । ते प्रति ग्रही किण स्थानके रे, जाय लोभ वश लूंस ।। १८. एणेज दृष्टांते करी रे, भावित आत्म अणगार। रूपा तणी मंजूस रे, कृत्य कार्य कर धार ॥ १६. आपणी आत्माए करी रे, जावै गगन मझार । ___ शेष तिमज जंबूद्वीप नैं रे, भरण शक्ति अवधार ।। २०. एम सुवर्ण-मंजूसा प्रतै रे, रत्न-मंजूसा एम। __वज्र-मंजसा प्रति ग्रही रे, जावै गगने तेम ।। *लय : पंखी गुणरसियो १०. अप्पाणेणं उड्ड वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा। (श० १३।१४९) ११. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू केया घडियाकिच्चहत्थगयाइं रूवाई विउवित्तए? १२. गोयमा ! से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, १३. एवं जहा तइयसए पंचमुद्देसए (श० ३।१९६) जाव (सं० पा.) नो चेव णं संपत्तीए । १४. जंबुद्दीवं.... ........."करेत्तए"अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए। १५,१६. नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विउव्वति वा विउव्विस्सति वा । (श० १३।१५०) १७. से जहानामए केइ पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा, 'हिरन्नपेडं' ति हिरण्यस्य मञ्जूषां । (वृ० प० ६२८) १८. एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थ किच्चगएणं । १९. अप्पाणेणं उडढं वेहासं उप्पएज्जा ? सेसं तं चेव । २०. एवं सुवण्णपेलं एवं रयणपेलं, वइरपेलं, श० १३, उ० ८,९, ढा० २९० २१५ Jain Education Intemational & Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. वत्थपेलं, आभरणपेलं, २१. वस्त्र-मंजूसा कर ग्रही रे, आभरण-मंजूसा उक्त । हस्त ग्रही जाय गगन में रे, जंबू भरवा शक्त ।। २२. विदल तणो कट इह विधे रे, अर्द्धवंश कट एह ।। संब-वीरण नों कट वली रे, तृण विशेष नों जेह ।। २३. चर्म तणां कट नैं ग्रही रे, कंबल कट पहिछाण । एह ऊनमय आखियो रे, कर ग्रही गगने जाण ।। २२. एवं विलयकडं, सुंबकडं 'वियलकिलं' ति विदलानां वंशानिां यः कटः स तथा तं 'सुंबकिड्ड' ति वीरणकटं । (वृ०प०६८) २३. चम्मकडं, कंबलकडं, कंबलकिड्डं' ति ऊर्णामयं कम्बलं--जीनादि । (वृ० प० ६२८) २४. एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरण्णभारं, २५. सुवण्णभारं, वइरभारं । (श० १३।१५१) २४. एवं लोह नां भार नैं रे, तंब तरुआ नां भार । शीसा नां भार प्रति ग्रही रे, हिरण रूपा नां विचार ।। २५. सुवर्ण भार प्रतै ग्रही रे, वज्र भार ग्रही संत । गमन करे आकाश में रे, शक्ति जंबू नी हंत ।। २६. यथादृष्टांते वागली रे, वृक्षादिक तिष्ठेह । बिहुं पग ऊर्द्ध अधोमुखी रे, अवलंबी रहै जेह ।। २७. एणे दृष्टांते करी रे, भावितात्म अणगार । वागुली लक्षण ए इहां रे, कृत्य कार्य अवधार ।। २८. गति प्राप्त जेणे करी रे, ते तद्रूपपणेह । पोता आत्माए करी रे, गगने गमन करेह ।। २६. इम जिम विप्र गला विषे रे, घाल जनोइ चलंत । तिम मुनि पिण वैक्रिय करै रे, जाव जंबू न भरंत ।। ३०. यथादृष्टांत जलोक जे रे, उदक विषे निज काय । प्रेरी प्रेरी चालती रे, इहविधि जे मुनिराय ।। ३१. विकुर्वं रूप जलोक नां रे, वागुलि जिम ए न्हाल । शक्ति जंबू भरिवा तणी रे, पिण न भरै त्रिहुं काल ।। २६. से जहानामए वग्गुलो सिया, दो वि पाए उल्लंबिया___उल्लंबिया उड्ढंपादा अहोसिरा चिट्ठज्जा। २७,२८. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वग्गुलीकिच्च गएणं अप्पाणेणं उड्ढं वेहासं उप्पएज्जा ? 'वग्गुलीकिच्चगएणं' ति वग्गुलीलक्षणं कृत्यं--कार्य गतं-प्राप्तं येन स तथा तद्रूपतां गत इत्यर्थः । (वृ०प० ६२८) २९. एवं जण्णोवइयवत्तव्बया भाणियव्वा जाव विउव्विस्सति वा। (श० १३।१५२) ३०,३१. से जहानामए जलोया सिया, उदगंसि कार्य उविहिया-उविहिया गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं जहा वग्गुलीए। (श० १३।१५३) 'उविहिय' त्ति उद्भू ह्य-उद्बह्य उत्प्रेर्य-उत्प्रेर्य इत्यर्थः (वृ.प. ६८२) ३२. से जहानामए बीयंबीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे-समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा। 'समतुरंगेमाणे' त्ति समौ-तुल्यौ तुरंगस्य-अश्वस्य समोत्क्षेपणं कुर्वन् समतुरंगयमाणः समकमुत्पाटयन्नित्यर्थः। (वृ०५० ६२८) ३३. एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव। (श० १३।१५४) ३२. यथादृष्टांते शकुन पंखियो रे, बीजबीजक कहिवाय । बिहुं पग अश्व तणी परै रे, साथै उपाड़तो जाय ।। ३३. अणगार पिण इह रीत सं रे, वैक्रिय लब्धि प्रभाव। बीजबीजक रूप विकुर्वे रे, शेषं तं चेव कहाव ।। ३४. यथादष्टांते पंखियो रे, जाव विराल कहाय । रूंख थकी अन्य रूंख नैं रे, अतिक्रमतो ते जाय ।। ३४. से जहानामए पक्खिविरालए सिया, रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा । 'डेवेमाणे' त्ति अतिक्रामन्नित्यर्थः । (वृ०प० ६२८) ३५. एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव। (श०१३।१५५) ३५. एणे दृष्टांते करी रे, भावितात्म अणगार । विकुर्वं रूप विराल नों रे, शेष तिमज विस्तार ।। ३६. यथादृष्टांत शकुन पंखियो रे, जीवंजीवग कहिवाय । बिहुं पग अश्व तणी परै रे, साथै उपाड़तो जाय ।। ३७. अणगार पिण इह रीत सं रे, वैक्रिय लब्धि प्रभाव । जीवंजीवग रूप विकुर्वै रे, शेषं तं चेव कहाव । ३६. से जहानामए जीवंजीवगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे-समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा। ३७. एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव । (श० १३॥१५६) २१६ भगवती जोड़ Jain Education Intenational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. यथादृष्टांते पंखियो रे, तीर थकी अन्य तीर में रे, ३६. अणगार पिण इह रीत सूं रे, गमन करें आकाश में रे, ४०. यथादृष्टांते पंखियों रे, कल्लोल थीज कल्लोल नैं रे, हंस अछे जग मांय । रमतो बको ते जाय ॥ हंस रूप करि ताय । शेषं तं चैव कहाय ॥ समुदकाग कहिवाय । उलंघतो थको जाय ॥ कहियो ताय । ४१. अणगार पिण इस रीत सूं रे तिमहिज समुदकाग कृत्य गत करी रे, ऊर्द्ध आकाशे जाय || पुरुष कोइक पहिचान । जावै किनिक स्थान | गत हस्त चक्र कार्य समस्त || ४२. यथादृष्टांत करी वली रे. चक्र कृल्प हस्ते ही रे, ४३. भावितात्म मुनि इहविधे रे, केया घटिका जिम कही रे, कहियो ते प्रतं ४४. एम छत्र प्रति कर ग्रही रे, चमर लब्धि वैक्रिय मुनि फोड़वी रे, गगन ४५. यथादृष्टांत करी वली रे, केइ रत्न ग्रही नैं चालतो रे, शेष तिमज गमन थी जोव, ५०. जाव शब्द सोय, सुभग हस्तकं ५१. पुंडरीकहस्तक पेस, सतपत्रहस्तक देख पुरुष ४६. एवं वज्र रत्न प्रतिग्रही रे, प्रति एम यावत रिष्ट रत्न प्रतै रे, कहिवो पूरव जेम ।। सोरठा ४७. जाव शब्द थी जाण, लोहिताक्ष मसारगल्ल । हंसगर्भ पहियाण, पुलक सोगंधक सोगंधक जोतिरस | ४८. अंक रु अंजन रयण, जातरूप अंजनपुलक । फलिह जाव थी वयण मुनि पिण ए सह विकुर्वे ।। ४९. *उलहस्तक प्रतं रे कुमुदहस्तक प्रति कर ग्रही सोरठा ५२. * यथादृष्टांत करी वली रे, कमल सहस्रपण में यही रे, ५३. यथादृष्टांत करी वली रे, बिसं मृणाल कमल प्रतेरे, पिण एम करें तेम || जग मांय । कहिवाय ।। नलिणहस्तगं जाणवो । वलि सोगंधिक हस्तकं ।। वलि महापुंडरीकहस्तकं | जाव शब्द थी जाणवा ॥ । पद्महस्तक पिण एम रे एवं यावत तेम ॥ कोइ पुरुष कहिवाय । इम पूरववत न्याय ।। कोइ पुरुष जग मांय । तोड़ी-तोड़ी ने जाय ॥ ५४. अणगार पिण इह रीत सूं रे, मृणाल कृत्य गत हस्त । आपण आकाश में रे, कहिवो तिमज समस्त ॥ *लय : पंखी गुणरसियो ३८. से जहानामए हंसे सिया, तीराओ तीरं अभिरममाणेअभिरममाणे गच्छेज्जा । २९. एवमेव अणगारे वि भाविअप्पा हंसकिच्च गएणं अप्पाणेणं, तं चेव । (१२।१५०) ४०. से जहानाम समुद्द्वायसए सिया, वीईओ वीइं डेवेमाणं-डेवेमाणे गच्छेज्जा । 'बीइओ बीई' ति कल्लोलाको (बृ. प. ६२८) (स० १३० १५० ) ४१. एवामेव अणगारे, तहेव । ४२. से जहानामए केइ पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेज्जा । ४३. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा चक्कहत्यकिच्चगएणं अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए । ४४. एवं छत्तं एवं चम्मं । ( श० १३ । १५९ ) ४५. से जहानामए केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव । ४६. एवं वइरं वेरुलियं जाव रिट्ठं । ४७, ४८. 'वेरुलिय' इह यावत्करणादिदं दृश्यं --- लोहिमसारलं हंसगन्धं पुल सोगंधिय जोर अंक अंग रमणं जायस्वं अंजuye हिं (बु०प०६२८) ति । ४९. एवं उप्पलहत्य एवं पठमहत्यगं कुमुदहत्यगं एवं जान (सं० पा० ) , ५०. नलिणहत्थगं, सुभगहत्थगं, सुगंधियहत्थगं, यावत्करणादिदं दृश्यं । ५१. पोंडरीय हत्थगं, महापोंडरीयहत्थगं, ( वृ० प०६२८) सहस्वपत्तनं हाय ( ० १३ । १६० ) ५२. से जहानामए के पुरिसे गच्छेज्जा, एवं चेव । ५३. से जहानामए केइ पुरिसे भिसं अवद्दालिय- अवद्दालिय गच्छेज्जा | 'बिसं' ति बिसं - मृणालम् । ( वृ० प० ६२८) ५४. एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणेणं, तं चेव । ( श० १३ | १६१ ) श० १३, उ० ९, ढा० २९० २१७ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. यथादृष्टांते कमलिनी रे, उदक विषे निज काय । वृडारे मुख उघाड़ो करी रे, इम तिष्ठे जल मांव || ५६. अणगार पिण इह रीत सूं रे, शेष वागुली नीं परं सह रे, ५७. यथादृष्टांते करि वलि रे कृष्ण अंजन नीं परं तिको ५८. कृष्णईज अवभास छे रे, देखणवाला कमलिनी तो कर रूप । तिष्ठते तद्रूप ॥ कृष्ण वर्ण वन खंड । रे स्वरूपे करि ने जाण । प्रतिभास तेहनें कयुं रे, अथवा कृष्णप्रभ आण ॥ ५६. जाव णिकुरंबभूए कह्यो रे, जाव शब्द थी जेह सूत्र उववाई' थी कहूं रे, सांभलजो हिव तेह || सोरठा ६०. प्रदेश अंतर तास, नोल नील अवभास है । हरित हरित अवभास, किणइक प्रदेश नैं विषे ॥ ६१. *तत्र नीलो मोरिया नां गला सरिखो जाणियै । हरित हरियो आणियै ॥ इम भणें । वन तणें ॥ सूवटै नीं पांख सरिखो ६२. हरित ते हरिताल सम प्रभ वृत्ति थी ए वारता मैं, 1 इति बुद्धा कही वर्णन सोरठा ६३. शीत शीत अवभास, स्पर्श शीत अपेक्षया । वलि वृद्धा कहे तास, बल्यकांतपणां थकी ॥ ६४. निद्ध चीकर्णे तास, निज अवभास प्रभ । तीव्र तीव्र अवभास, गुण वर्णादिक अधिक से ६५. कृष्ण कृष्ण है छाय, को विशेषण ताय, मंड ॥ ६७. घणकडिय कडिच्छाय, मिलवा थकीज ताय, ६६. तेह विशेषण विशेषण केम, वर्णे कृष्ण छतोज ते । कृष्ण छायवत तेम, अन्य पदे पिण इमज है || मांहोमांहि शाखा तणां । घणी निरंतर छाय छे। १. ओववाइयं सू० ४ *लय पूज मोटा भांजे तोटा लय: पंखी गुणरसियो २१८ भगवती जोड़ कृष्णछाय नो धुर कृष्ण । पिण पुनरुक्तपणें नयी ॥ ६८. रम्मे अति रमणीक जाव शब्द थी ए सहु । कला अर्थ तहतीक, वनखंड नां वर्णन म ।। ६२. महामेष में सारिखो रे, पासादनीक तद्रूप अभिरूप प्रतिरूप ॥ ते वनखंड देखण योग्य छ रे, ५५. से जहानामए मुणालिया सिया, उदगंसि कार्य उम्म जिम्मा चिट्ठेा । 'गुणासि ति नलिनी कायम् कायमुन्मज्ज्य उन्मग्नं कृत्वा । ५६. एवामेव, सेसं जहा वग्गुलीए । ४७.५० से जहान मए वडे सिवा कहे किल्होमा 'किन्हे किन्होभासे' ति कृष्णः कृष्णजन वत्स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते द्रष्टृणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः । ( वृ० प० ६२८) (बु० ५० ६२० ) १९. जाय महामेनकु इह यावत्कारणादिदं दृश्यं । ६०. 'नीले नीलोभासे' त्ति प्रदेशान्तरे भासे' त्ति प्रदेशान्तर एव 'उम्मजिय सि ( वृ० प० ६२० ) ( ० १२०९६२) 'हरिए हरिओ( वृ० प० ६२८) ६१,६२. नीलश्च मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिय हरितालाभ इति च वृद्धाः । (बु०प०६२० ) ६३. 'सीए सीओ भासे' त्ति शीतः स्पर्शापेक्षया वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः । ( वृ० प० ६२८) ६४. 'निद्धे निदोभासे' त्ति स्निग्धो रूक्षत्ववर्जितः 'तिब्वे तिब्वोभावे' सि 'तीव्र वर्णादिगुणप्रकर्षवान् । (बु० ५० ६२० ) ६५. 'किण्हे किण्हच्छाए' त्ति इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छायः इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता । ( वृ० प० ६२८ ) कृष्णच्छायः - एवमुत्तरपदे ( वृ० प० ६२८ ) त्ति अन्योऽन्यं शाखानुइत्यर्थः । ( वृ० प० ६२८ ) (बु० ५० ६२० ) ६६. तथाहि — कृष्णः सन ष्वपि । ६७. 'घणकडियकडिच्छाए' प्रवेशाद्वलं निरन्तरच्छायः ६८. रम्मे ६९. पासादीए परिसणिजे अभिरू पडि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. एणे दृष्टांते करो दृष्टांते करो रे, भावितात्म अणगार । वनखंड कार्य गत थकी रे, जाय आकाश मकार ? ७१. मेषं तं चैव कहीजिये रे, जंबू पिण इतरा तो करें नहीं रे, काल ७२. यथादृष्टांत करी वली रे, पुष्करणी जे बावड़ी रे ७३. अनुक्रम रूड़ा नीपनां रे, मधुर स्वरे तिहां पंखिया रे, ७६. सूवा मयूर सुसाद', कोकिल हुक संवाद, ७७. वलि भरिवा शक्त । हिं में उक्त ।। । कमल सहित शुद्ध नीर चौखूणी सम तीर ॥ सोरठा नीपना । ७४. जाव शब्द थी जाण, अनुक्रम रूड़ा वप्र जिहां पहिछाण, गंभीर शोतल जल जिहां ॥ ७५. तथा इत्यादिक हुत, शब्द उन्नतिक मधुर स्वर । ज्यां पंखी जस्पति, इदमेव दृश्यं वृत्तौ ।। भगणसाल - मैना कही । कोज्भग भिंगारिक वली ॥ जावत शब्द उन्नत्ति । सुक्क मयूरादि वपत्ति ।। कोंडलक पेस, जीवजीवक पंखिया । नंदीमुख सुविशेख, मधुर स्वरे करि जपता ।। ७८. कविल पिंगल शुभ अंश, खग कारंड पंखी वलि । चक्रवाक कलहंस, सारस बोलता मधुर ॥ ७९. पंखी शकुनि अनेक तसु गण विरचित शब्द विशेस जाव जन तणें रे, ८०. *तेह पोखरणी देखवा योग्य अर्थ तिका ८१. एणे दृष्टांते करी रे, रूप पोखरणी नों करी रे, ८२. जिन कहै हंता गोयमा ! रूप किता पोखरणी तणां रे, *लय : पंखी गुणरसियो १. सुस्वर ८३. शेष तिमज कहिवूं सहु रे, पिण इतरा तो करें नहीं रे, ४. प्रभु! माई वैक्रिय करें रे, के जिन कहे माई विकुर्वे रे, । नां जे मिथुन नां शब्द में जाणो ॥ प्रतिरूप | अणगार । पासादीया तद्रूप । रे, अभिरूप भावितात्म जायै आकाश मकार ? रे, वलि गोतम पूछंत । करिवा समर्थ संत ? जंबू काल अमाई अमाई ८५. माई प्रमादी ते स्थान नैं रे, विण आलोयां मरंत । जिम तीजा शतक नैं चोथो कह्यो रे, जाव आराधना हुंत ॥ भरिवा शक्त । त्रिहुं में उक्त ॥ वैक्रिय करत ? नहि विकुर्वत || ७०. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वणसंडकिच्चगएणं अप्पा उ बेहास उपज्जा ? ५१. सेसं तं चैव । ( ० १२।१६३) सिया - चउक्कोणा ७२. से जहानामए समतीरा । पुक्खरणी ७२. प्यगंभीरसीला जास मरणादिया । ०४७५. वारकरणादेव दृश्यम् -'अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला' अनुपूर्वेण सुजाता वप्रा यत्र गम्भीरं जपत्र सा तचेत्यादि सलम रसरनाइय' त्ति इदमेवं दृश्यं । ( वृ० प० ६२८ ) ७६. सुववरहिणमय मसालको चकोइलको ७७. कोंडलकजीवजीवकनंदीमुह ७८. कविलपिंगलखगकारंडगचक्कवाय कलहंससारस (बु०प०६२८) ७९. अणे गणगणमिहुणविरइयसदुन्नइय महुरसरनाइय' त्ति । ( वृ० प० ६२८ ) पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । ८०. भिकारक ( वृ० प० ६२८) ( वृ० प०६२८) ८१. एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा पोक्खरणीकिच्चगए प्याजेण उद्धं बेहास उप्पएमा ? ८२. हंता उप्पएज्जा । ( श० १३० १६४ ) अणगारे णं भंते ! भाविया केवतियाई पभू पोखरणी कच्चयाई स्वाद वित्तिए ? ८३. सेसं तं चैव जाव विउव्विस्सति वा । (श० १३।१६५ ) ८४. से भंते ! किं मायी विउव्वति ? अमावी बिउव्वति ? गोयमा ! मायी विउव्वति, नो अमायी विउव्वति । ८५. मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइय एवं जहा तइयसए जाव (सं० पा० ) अत्थि तस्स उत्स आराहणा । श० १३, उ० ७ डा० २९० २१९ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६. पडिक्कते कालं करेइ, नत्थि तस्स आराहणा । ८७. अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ, अत्थि तस्स आराहणा। (श० १३।१६६) सोरठा ८६. माई मुनि ते स्थान, विण आलोयां पडिकम्यां । काल करै तज प्राण, नहिं छै तास आराधना ।। ८७. अमाई ते स्थान, आलोई नै पडिकमी। काल कियां सू जाण, तेहनै अछे आराधना ।। ८८. थयो दंड सन्मुख, तिणसुं अमाई कह्यो। पूर्व वैक्रिय दुःख, आराधक आलोवियां। ८६. *सेवं भंते ! विचरता रे, तेरम शत नों न्हाल । नवम उद्देशक नों कह्यो रे, अर्थ अनोपम भाल ।। त्रयोदशशते नवमोद्देशकार्थः ॥१३॥६॥ ८९. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श०१३।१६७) ९०,९१. अनन्तरोद्देशके वैक्रियकरणमुक्तं, तच्च समुद्घाते सति छद्मस्थस्य भवतीति छाद्मस्थिकसमुद्घाताभिधानार्थो दशमः । (बृ०प०६२९) ९२. कति णं भंते ! छाउमत्थियसमुग्धाया पण्णता ? गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता। ९३,९४. वेयणासमुग्घाए, एवं छाउमत्थियसमुग्धाया नेयव्वा, जहा पण्णवणाए (३६५.३) जाव आहारगसमुग्घायेत्ति । (श० १३।१६८) सोरठा छाअस्थिक समुद्धात पद ६०. पूर्व उद्देशे सोय, वैक्रिय कारण कयुं तिको । समुद्घात छते होय, ते तो ह छद्मस्थ नै ।। ६१. छानस्थिक अभिधान, अर्थे दशम उद्देशके । कहियै सखर सुजाण, निसुणो चित्त लगायनैं ।। *साधू गुणरसियो, गुण ज्ञानादि उदार तेह तणो तिसियो। ६२. हे प्रभुजी ! कितला कह्या रे, छद्मस्थ नां समुद्घात ? जिन भाखै छद्मस्थ नां रे, छह समुद्घात आख्यात ।। ६३. समुद्घात धुर वेदना रे, छाद्मस्थिका ताहि । समुद्घात कहिवू इहां रे, जेम पन्नवणा' मांहि ।। १४. छतीसमा पद नै विषे रे, समुद्घात अधिकार । जावत आहारक जाणवो रे, समुद्घात सुविचार ।। वा०--कति णं भंते ! छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता ? हे भगवन् ! छद्मस्थ नां समुद्घात केतला कह्या ? इति प्रश्न । उत्तर--हे गोतम ! छह छद्मस्थ नां समुद्घात कह्या । छमस्थ कहितां ज्या सुधी केवली नहीं थया, तेहनी समुद्घात छानस्थिक । समुग्घाएत्ति-हनन ते घात, सम-एकीभाव उत-प्रबलपण एतले एकीभावे करी प्रबलपण करी जे धात ते समुद्घात । हिवै किण संघाते एकीभाव ते कहिये छै-जे आत्मा वेदनादि समुदधात प्रतै गयो तिवारे वेदनादि अनुभव परिणतहीज हुवे, वेदनादि अनुभव ज्ञान संघाते एकीभाव हुवै । प्रबलपण घात किम कहिये ? जे कारण थकी वेदनादि समुद्घात परिणत घणां वेदनीयादि कर्मप्रदेश कालांतरे अनुभव योग्य, तेह प्रते उदीरणा करै, करी भोगवी निर्जर-आत्मप्रदेश संश्लिष्ट प्रते शातन करै इत्यर्थः । एतला माटै प्रबल घात कहिये । ते छह प्रकारे कह्या ते कहियै छ __ वेदणासमुग्घाए"..."वेदनासमुद्घात इत्यादि । एवं छाउमत्थिया समुग्घाया -इम छानस्थिक समुद्धात कहिवा । जहा पन्नवणाए----जिम पन्नवणा - छत्रीसमा *लय : पंखी गुणरसियो १. प०३६।५३ वा०-'कइण' मित्यादि, 'छाउमत्थिय' त्ति छद्मस्थ: -अकेवली तत्र भवाश्छाद्मस्थिका. 'समग्घाये' ति 'हन हिंसागत्योः' हननं घातः सम्-एकीभावे उत् ---प्राबल्ये ततश्चकीभावेन प्राबल्येन च घात: समुद्घातः । अथ केन सहकीभावगमनम् ? उच्यते यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः । प्राबल्येन घातः कथम् ?, उच्यते, यस्माद्वेदनादिसमुदघातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवनयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति--आत्मप्रदेशः सह संश्लिष्टान् सातयतीत्यर्थः अतः प्राबल्येन घात इति अयं चेह षविध इति बहुवचनं, तत्र 'वेयणासमुग्धाए' त्ति एकः, 'एवं छाउमथिए' इत्यादि अतिदेशः, 'जहा पन्नवणाए' त्ति इह षट्त्रिंशत्तमपद इति शेषः, ते च शेषाः पञ्चैवं-'कसायसमु २२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद नै विषे समुद्घात नों अधिकार कह्यो, तिम इहां पिण कहिवो । तेह शेष पंचहीज ते कहै छ-कसायसमुग्घाए मारणांतियसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्घाए तेयगसमुग्धाए आहारगसमुग्घाए। तिहां वेदना समुद्घात असातावेदनीय कर्म आश्रय । कषाय समुद्घात कषाय नामैं चारित्रमोहनीय कर्म आश्रय। मारणांतिक समुद्घात अंतर्मुहर्त आयुकर्म आश्रय । वैक्रिय, तेजस अन आहारक समुद्घात शरीर-नाम-कर्म आश्रय छ। तिहां वेवनासमुद्घात समुद्धत आत्मा वेदनीय-कर्म-पुदगल शातन करै। कषायसमुद्घात समुद्धत आत्मा कषाय-पुद्गल शातन करै। मारणांतिक समुद्घात समुद्धत आत्मा आयु पुद्गल शातन करै । वैक्रिय समुद्घात समुद्धत आत्मा प्रदेशां प्रतं शरीर थकी बाहिर काढी शरीर विष्कंभ बाहुल्यमात्र आयाम थकी संखेय योजन पंड प्रतै रचै, रची नै यथास्थूल वैक्रिय शरीर नाम कर्म-पुद्गला प्रतै परिशातन करै, यथासूक्ष्म पुदगला प्रतै ग्रहै । यथोक्तं—'वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरइ''"अहाबायरे पोग्गले परिसाडे इ, परिसाडेत्ता अहासुहमे पोग्गले परियायइ." ।' इम तैजस, आहारक समुद्घात पिण बखाणवा । ग्याए मारणंतियसमुग्धाए वेउब्वियसमुग्घाए तेयगसमुग्घाए आहारगसमुग्धाए त्ति । तत्र वेदनासमुद्घात: असद्वैद्यकश्रियः कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकमश्रियः मारणान्तिकसमुद्घात: अन्तर्मुहूर्त शेषायुष्ककर्माश्रयः वैकुविकतैजसाहारकसमुद्घाता: शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं. मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुष्ककर्म पुद्गलशातं वैकुविकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीरादबहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च संख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थ लान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रारबद्धान् सानयति सूक्ष्मांश्चादले, यथोक्तं "तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति । (वृ० प० ६२९) ९५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १३।१६९) ६५. सेवं भंते ! जाव विहरति रे, तेरम शतक नों आप्त । दशम उदेशो दाखियो रे, तेरम शतक समाप्त ।। ६६. दोयसौ – नेऊमी कहो रे, ढाल रसाल उदार । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' हरष अपार ।। गीतक छंद १. शत त्रयोदश नी जोड़ कृत म्है पूज्य पद सुप्रसाद ही। जिम अंधकार विषेज नर जे करै उद्यम अधिक ही ।। २. पिण जेह दीप विना जु वस्तूजात प्रति देखै नहीं। दीपक समा मुझ सुगुरु तास प्रसाद निर्णय कृत सही ।। १,२. त्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदप्रसादात् । न ह्यन्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं बिना पश्यति वस्तुजातम् ।। (वृ० प० ६२९) त्रयोदशशते दसमोद्देशकार्थः ॥१३॥१०॥ श०१३, 3०१०, ढा० २९० २२१ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश शतक Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषे, १. शतक तेरमा नैं अर्थ विचित्रज ते हिवै, २. धुर जे सूत्रपणां थकी, प्रथम उदेशो चरम है, चतुर्दश शतक ढाल : २९१ ३. उन्मत्त अर्थज कथन थी, तनु अर्थ कहिया थकी, ६. संसोि ४. पुद्गल नां कहिवा थकी, अग्नी उपलक्षित थकी, ५. कवण आहार इम प्रश्न किमाहार छट्टो कह्यो, गोयमा ! तसु उपलक्षित भाव दूहा ८. थी, केवलि धुर पद कहिण ए दस उद्देशा कला, ६. प्रथम उदेशक नों इहां, श्रोता चित दे सांभलो, लेश्यानुसारी उपपाद पद कह्या विचित्रज भाव । चवदम शत प्रस्ताव || उपलक्षित चर शब्द । प्रश्न आदि प्रारब्ध || द्वितीय अछे उन्माद । तृतीय शरीर साद ॥ पुद्गल चउथो नाम । अग्गि पंचमो ताम || नां, प्रवर वहां अंतर ७. पृथ्वी अंतर कहिण थी, अष्टम सार । वलि धुर पद अणगार थी, नवम अछे अणगार ।। उपलक्षित थी जाण । उदेश पिछाण ॥ म शब्द संसृष्ट । सत्तम संसृष्ट इष्ट ॥ थी, दशम केवली नाम | शतक चवदमें ताम || कहिये अर्थ सुजात । करो कचपच बात || १०. नगर राजगृह जाव इम, बोलै गोतम स्वाम । वीर प्रतं वंदन करी, कर जोड़ी शिर नाम ॥ ११. * भावितात्म अणगार भदंत ! देव आवास चरम व्यतिकंत । देव आवास परम असंपात, बीच मरण थी किण गति जात ? *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी १. व्याख्यातं विचित्रार्थं त्रयोदशं शतम्, अथ विचित्रार्थमेव कमावात चतुमारभ्यते, (१० प०६३०) २. चर तत्र 'चर' त्ति सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः । (बु०प०६३०) ३. उम्माद सरीरे 'उम्माय' त्ति उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीय: । 'सरीरे' त्ति शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः । ( वृ० प० ६३० ) ४. पोग्गल अगणी तहा 'माल' ति पुद्गलार्थाभिधायकत्वात्पूगलचतुर्थः । 'अगणी' त्ति अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः । ( वृ० प०६३०) ५. किमाहारे । 'किमाहारे' ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोपलक्षितत्वात्किमाहारः षष्ठ ( वृ० प०६३०) ६. संस 'संसिट्ठ' त्ति 'चिरसं सिट्ठोऽसि गोयम' त्ति इत्यत्र पदे यः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात् संश्लिष्टोद्देशक: ( वृ० प० ६३० ) ७. सप्तमः । मंतरे खलु अणगारे 'अंतरे' त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्त रोद्देशकोऽष्टमः । 'अणगारे' त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः । ( वृ० प० ६३० ) ८. केवली चैव ॥ 'केवलि' त्ति केवलीति प्रथमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति । ( वृ० प०६३०) ९. प्रथमो किञ्चिलिते ( ० प० ६३० ) १०. रायगिहे जाव एवं वयासी ११. अणगारे णं भंते! भावियप्पा चरम देवावासं वीतिक्कंते, परमं देवावासमसंपत्ते एत्थ णं अतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते ! कहि गती ? कहि उववाए पण्णत्ते ? श० १४, उ० १. डा० २९१ २२५. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२,१३. 'चरमम्' अर्वाग्भागवत्तिनं स्थित्यादिभिः 'देवावासं' सौधर्मादिदेवलोकं 'व्यतिक्रान्तः' लंधितस्तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षया (वृ० ५० ६३०) यतनी १२. चरम ते ऊलोकानी कथीन, सूर स्थित्यादिक करि हीन । सौधर्मादिक देवलोग, तेहथी अतिक्रम्यो प्रयोग ।। १३. सौधर्मादि विष विमास, उपपात हेतुभूत तास । लेश्या परिणाम नी अपेक्षाय, उलंध्यो ते अधिक अध्यवसाय ।। १४. परम ते पेलीकानी कहाय, स्थित्यादिक करि अधिकाय । ए तो सनतकुमारादि वास, तिहां तो नहिं पूगो तास ।। १५. सनतकूमारादिक विषे तेह, उपपात हेतुभूत जेह । लेश्या परिणाम अधिक सवाय, नहि पोंहतो तेणे अध्यवसाय ।। १४,१५. 'परमं' परभागवत्तिनं स्थित्यादिभिरेव 'देवावासं' सनत्कुमारादिदेवलोकं 'असम्प्राप्तः' तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षयव (वृ० ५० ६३०) सोरठा १६. प्रशस्त अध्यवसाय, तेह तणां स्थानक विषे । उत्तरोतर कहिवाय, तेह विषे जे वर्ततो।। १७. ऊलीकानी जाण, धुर कल्पे सुर-स्थिति प्रमुख । बंध योग्य पहिछाण, ते प्रति अतिक्रम्यो मुनि ।। १८. पेलीकानीं न्हाल, तृतीय कल्प सुर-स्थिति प्रमुख । __बंध योग्य सुविशाल, तेह प्रते पोहतो नथी।। यतनी १६. ते अध्यवसाय विचाल, वर्त्ततो थको कर गयो काल । किसी गति जाववो तास, तिहां ऊपजवो तसु वास ? २०. *जिन कहै चरम परम बिहुं पास, ए दोनूं थो नजीक वास । सौधर्म सनतकुमार बिचाल, ईशाण कल्पे उपजै न्हाल ।। १६. प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषूत्तरोत्तरेषु वर्तमानः (वृ. ५० ६३०) १७. आराद्भागस्थितसौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिबन्ध योग्यतामतिक्रान्तः। (वृ० प० ६३०) १८. परभागवत्तिसनत्कुमारादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यता चाप्राप्तः (वृ०प०६३०) २१. जे लेश्या नैं विषे वर्तमान, पाम्या साधु मरण प्रधान । जिका लेश्या जेहनै विषे होय, ते सुरवास विषे अवलोय ।। २२. ते अणगार तणी गति थाय, तिहां तास उपपात कहाय । जे लेश्या में मरण पामंत, ते लेश्या में उपजै संत ।। १९. 'एत्थ णं अंतर' त्ति इहावसरे 'कालं करेज्ज' त्ति म्रियते यस्तस्य क्वोत्पादः ? (वृ० प० ६३०) २०. गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ 'जे से तत्थ' त्ति अथ ये तत्रेति-तयोः चरमदेवावासपरमदेवावासयोः 'परिपार्वतः' समीपे सौधर्मादेरासन्नाः सनत्कुमारादेर्वाऽऽसन्नास्तयोर्मध्यभागे ईशानादावित्यर्थः (वृ० प० ६३१) २१. तल्लेसा देवावासा 'तल्लेसा देवावासा' त्ति यस्यां लेश्यायां वर्तमानः साधुमृतः सा लेश्या येषु ते तल्लेश्या देवावासाः । (वृ० प०६३१) २२. तहि तस्स गती, तहिं तस्स उववाए पण्णत्ते । 'तहिं' ति तेषु देवावासेषु तस्यानगारस्य गतिर्भवतीति, यत उच्यते--"जल्लेसे मरइ जीवे तल्लेसे चेव उववज्जई" त्ति (वृ०प०६३१) २३-२६. से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडि पडति 'से य' ति स पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवतिनि देवावासे गतः 'विराहिज्ज' त्ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत्तदा 'कम्मलेस्सामेव' त्ति कर्मणः सकाशाद्य लेश्या-जीवपरिणतिः सा कर्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु द्रव्य २३. ते अणगार वलो तिणवार, मध्यवर्ती सुरवास मझार। गयो ऊपनो थकोज ताम, जे लेश्या परिणामै आम ।। २४. भाव लेश्या छै ते परिणाम, तेह प्रत विराधै ताम। कर्म समीप थी ते कर्म लेश, ते जीव परिणत भाव लेश कहेस ।। २५. तेह थकी पड़ हीणो थाय, अतिहि अशुभ परिणामे जाय। द्रव्य लेश्या तो पड़े नहिं कोय, ए तो रहै पूठली सोय ।। *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी २२६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. सुर ने द्रव्य थकी कहिवाय, अवस्थित लेश्या छै ताय । ते माट न पड़े द्रव्य लेश, जो पड़े तो भाव लेश कहेस ।। २७. ते अणगार वली तिणवार, मध्यवर्ती सूरवास मझार। गयो ऊपनो थकोज ताहि, ते परिणाम विराधै नांहि ।। २८. तो तेहिज लेश प्रतैज कहेह, अंगीकार कर विचरै जेह। तीव्र अशुभ परिणाम न थाय, हिवै कहं छं एहनों न्याय ।। लेश्यायाः प्रतिपतति, सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्य तोऽवस्थितलेश्यत्वाद्देवानामिति । (वृ० प० ६३१) २७,२८. से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। (श. १४।१) 'से य तत्थे' त्यादि, 'स' अनगारः 'तत्र' मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि न विराधयेत्तं परिणामं तदा तामेव च लेश्यां ययोत्पन्नः 'उपसम्पद्य' आश्रित्य 'विहरति' आस्त इति । (वृ० प०६३१) सोरठा २६. 'इहां कही ए वाय, मध्यमवर्ती कल्प में। गयो थको मुनिराय, भाव लेश परिणाम करि॥ ३०. तास विराधे जेह, तीव्र अशुभ परिणाम में। आवै सुरवर तेह, इम पड़े भाव लेश्या थकी। ३१. जो न विराधै ताम, तीव्र अशुभ आवै नहीं। तो शुभ लेश्या परिणाम, अंगीकार करनै रहै ।। ३२. इहां इम न्याय जणाय, सुर तत्काल समुप्पनो। वंदै श्री जिनराय, सेव करै साचै मनै ।। ३३. चौथे ठाण कहाय, च्यार प्रकारे देव जे। मनुष्य लोक में आय, चिहुं प्रकार आवै नहीं।। ३४. काम-भोग गद्ध थाय, अतिहि आसक्त जो हवै। तो मनुलोके नहिं आय, जिन मुनि सेवा नहि करै।। ३३. ठाणं ४।४३३,४३४ ३४. अहणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिब्वेसु कामभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववणे, से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ, णो परियाणाति । (ठा० ४।४३३) ३५. ए प्रथम पाठ नों न्याय, लेश्या भाव विराध में। तीव्र अशुभ में जाय, ए काम-भोग में गद्ध अति ।। ३६. जो भोगे गृद्ध न थाय, तो आवी मनु-लोक में। जिन मुनि तपसी ताय, वंदनादिक सेवा करै। ३६. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु अमुच्छिते अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे तस्स णं एवं भवति–अत्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरिए ति वा "तं गच्छामि णं ते भगवते वदामि जाव पज्जुवासामि। (ठा० ४१४३४) ३७. ए द्वितीय पाठ नों न्याय, भाव लेश विराधै नथी। तीव्र अशुभ नहिं थाय, नहिं काम-भोग में गद्ध अति ।। ३८. ते जिन मुनि नां पाय, वंदी नैं सेवा करै। अधुनोत्पन्न पेक्षाय, एहवं न्याय जणाय छै ।। ३६. सुरवर जे पर्याप्त, जिन मुनि पै आया प्रथम । अशुभ लेश जे व्याप्त, ते न गिणी दीस इहां ।। ४०. तीव्र अशुभ परिणाम, तेहनां नहिं छै ते भणी। बहुलपणां थी ताम, अल्प अशुभ ते नहिं गिण्या। ४१. सूत्र पन्नवणा मांय, अठारमा पद में अख्यो। दर्शण अवधि सुहाय, काल केतलो ते रहै ? ४१,४२. ओहिदसणी णं भंते ! ओहिसणी ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाई सातिरेगाओ। (पण्ण० १८८७) ४२. छासठ सागर दोय, बीच अवधि नहिं होय, जाझेरो अद्धा कह्यो। अपर्याप्त पर्याप्त में ।। श० १४, उ० १, ढा० २९१ २२७ Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. ते अल्पकाल नहिं पाय, तेहनों कथन कियो नथी। तिम अल्प अशुभ अध्यवसाय, न गिण्या अधुनोत्पन्न तणां ।। ४४. चक्षुदर्शण ताय, रहै काल ते केतलो। सहस्र सागर अधिकाय, ए पिण बिचै हुवै नहीं ।। ४४. चक्खुदंसणी णं भंते ! चक्खुदंसणी ति कालमओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं । (पण्ण० १८१८५) लावा देख, आलावा जाणें केवल ४५. ते अल्प अद्धा न गिणाय, बहलपणां नी अपेक्षया। ए बेहुं नों ताय, काल संचिटण जिण कह्यो ।। ४६. तिम इहां पिण एम जणाय, अधुनोत्पन्न सुर अपेक्षया । जो तीव्र अशुभ नहिं थाय, अल्प अशुभ ते नां गिण्या ।। ४७. दोय आलावा देख, अधुनोत्पन्न सुर नां कह्या । ते आश्री संपेख, आलावा बे लेश नां ।। ४८. एहवू न्याय जणाय, ते पिण जाणे केवली। वलि बहुश्रुत मुनिराय, न्याय कहै तेहिज खरूं ।। ४६. अथवा अधुनोत्पन्न, सुरलोके अवधे करी । देखी मुनि श्री जिन, तिहां ही जाव वंदना करै ।। ५०. शुभ लेसे वतह, अल्पकाल सुरलोक में। ते आश्रय का एह, ते पिण जाणें केवली ॥'[ज.स.] ५१. *सामान्य देवावास आश्रयी, ए कह्यो मुनि सुर तणु। वलि विशेष थकीज तेहिज, सांभलो जे हिव भणुं ।। ५२. हे प्रभु ! भावितात्म अणगार, चरम ऊलीकानी अवधार । असुरकूमारावास विचार, ते प्रति अतिक्रम्यां तिणवार ।। ५३. परम पेलीकानीं राजेह, असुरकुमारावास प्रति तेह । अध्यवसाय बीच वर्तमान, एवं चेव पूर्ववत जान ॥ यतनी ५४. इहां भावितात्म अणगार, किम उपजै असूर मझार? पिण चरण विराधक हुँत, कोइ असुर विष उपजंत ।। ५१. इदं सामान्यं देवावासमाश्रित्योक्तं, अथ विशेषितं तमेवाश्रित्याह (वृ० प० ६३१) ५२. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कते, ५३. परमं असुरकुमारावास एवं चेव (सं० पा०) ५५. पूर्व काल तणी अपेक्षाय, भावितात्मपणु कहिवाय। अंतकाल विराधि चरित्त, कोइ असुर विषे उपपत्त ।। ५४. 'अणगारे ण' मित्यादि, ननु यो भावितात्माऽनगारः स कथमसुरकुमारेषुत्पत्स्यते विराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति । (वृ०प०६३१) ५५. पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम् अन्तकाले च संयमविराधनासद्भावादसुरकुमारादितयोपपाता। (वृ० ५० ६३१) ५६. बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति । (०प०६३१) ५७. एवं जाव थणियकुमारावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ। (श०१४।२) ५६. तथा बाल तपस्वी देख, भावितात्म कह्यो तसु लेख । कह्यो वृत्ति थी ए अधिकार, घर रहित माटै अणगार ।। ५७. *इम यावत थणियकुमारावासं, जोतिषि नां आवास प्रकाशं । वैमानीक आवासज एम, यावत विचरंता सुर तेम ।। सोरठा ५८. कही पूर्व सुर गत्त, गति अधिकार थकीज हिव। नारक गति आश्रित्त, प्रवर प्रश्न उत्तर सुणो॥ ' *लय : पूज मोटा भांजे टोटा लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी ५८. अनन्तरं देवगति रुक्तेति गत्यधिकारान्नारकगतिमाश्रित्याह (व०प० ६३१) २२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैरयिक आदि का गतिविषय पद ५६. *नारक ऊपजता में स्वाम! किसी शीघ्र गति छै तसु ताम । किसी शीघ्र गति विषय निहाल, गति हेतू ते कहियै काल ? ५९. नेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गती ? कहं सीहे गति विसए पण्णत्ते ? 'कहं सीहे गइविसए' त्ति कथमिति कीदृशः 'सीहे' त्ति शीघ्रगतिहेतुत्वाच्छीघ्रो गतिविषयो--गतिगोचर स्तद्धेतुत्वात्काल इत्यर्थः। (वृ० ५० ६३१) ६०. गोयमा ! से जहानामए–केइपुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव (सं. पा.) निउणसिप्पोवगए। ६०. श्री जिन भाखै गोयम ! जाण, यथादृष्टंत कोयक नर माण । तरुण बलवंत नैं युगवान, जाव निपुण शिल्प शास्त्र जाण ।। सोरठा ६१. तरुणे कहितां सोय, प्रवद्धमानज वय जसु । ते दुर्बल पिण होय, ते कारण थी हिव कहै । ६२. बलवं कहिता तेह, शरीर नो बल छै जसु । काल विशेष थी जेह, विशिष्ट हुवै ते हिव कहै। ६३. युगवं कहितां जेह, तुर्य अरा नो जनमियो। प्रशस्त विशिष्ट तेह, बल नो हेतूभूत जसु॥ ६१. 'तरुणे' त्ति प्रवर्द्धमानवयाः, स च दुर्बलोऽपि स्यादत __ आह . (वृ०प० ६३१) ६२. 'बलवं' ति शारीरप्राणवान्, बलं च कालविशेषाद्वि शिष्टं भवतीत्यत आह- (वृ० प० ६३१) ६३. 'जुगवं' ति युग---सुषमदुष्षमादिः कालविशेषस्तत् प्रशस्तं विशिष्टबलहेतुभूतं यस्यास्त्यसो युगवान् । (वृ० ५. ६३१) यतनी ६४. जाव शब्द थकी इम जान, वय-प्राप्त यूवान पिछान । अल्प आतंक रोग रहीत, अल्प शब्द अभाव संगीत ।। ६५,६६. पायपासपिटलतर च ६५. जेहनां स्थिर छ अग्रहस्त, सुलेखकवत प्रशस्त। दृढ पाणि-पाय छै जास, एहवो नर बलवंत विमास ।। ६६. बेहुं पासा पसवाड़ा जाण, वले पूठ नों अंतर पिछाण । उरू साथल ए सहु जन्न, पाम्या पूर्ण उत्तम संघयन्न ।। ६७. सम श्रेणि रह्या तरु ताल, तिके यूगल दोय सुविशाल । __ वलि अर्गला सदृस जास, दीर्घ सरल पुष्ट बाहु तास ।। ६४. यावत्करणादिदं दृश्यं-'जुवाणे' वयः प्राप्तः 'अप्पायंके' अल्पशब्दस्याभावार्थत्वादनातङ्कोनीरोगः । (वृ०प० ६३१) ६५,६६. 'थिरग्गहत्थे' स्थिराग्रहस्तः सुलेखकवत् 'दढपाणिपायपासपिठूतरोरुपरिणए' दृढं पाणिपादं यस्य पाश्वौ पृष्ठ्यन्तरे च उरू च परिणतेपरिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा उत्तमसंहनन इत्यर्थः (वृ० प० ६३१) ६७. 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहू' तली-तालवृक्षो तयोर्यमलं-समश्रेणीकं यद् युगलं-द्वयं परिघश्चअर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौदीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा। (व०प० ६३१) ६८. घन ते अतिसय करि तेह, अति निवड उपचय पाम्यो जेह। वलित नीं परै वलित सुसंध, वृत्त वाटला छै बिहुँ खंध' ।। ६६. चर्मष्ट शस्त्र विशेख, तिण शस्त्र करीनै देख । वलि दुघण ते मुद्गर करेह, वलि मुष्टिके करिनैं जेह ।। ७०. समाहत नित्य करत अभ्यास, निविड़ गात्र काय छै तास । गात्र ते खंध उर पृष्ठ आदि, तथाविध करि देह सुसाधि ॥ ७१. वले हृदय तणां बल युक्त, अंतर ओछाह वीर्य संयुक्त । लंघण पवण जइण व्यायाम, तेणे समर्थ छै अभिराम ॥ ७२. लंघण खाड प्रमुख उलंघेह, पवण ते कूदq कह्यं जेह । __जइण अतिही शीघ्र गति ताम, परिश्रम नै कहिय व्यायाम ।। *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी १. प्रस्तुत गाथा का आधार न तो मूल पाठ में है और न वृत्ति में है। अनुयोगद्वार के पाठान्तर में है । देखें सूत्र ४१६ पाटि, १० । ६९,७०. 'चम्मेद्वदुहणमुट्ठियसमाहयनिचियगायकाए' चर्मष्टया द्रुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि अभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि गात्राणि यत्र स तथाविध कायो यस्य स तथा। (वृ० प० ६३१) ७१,७२. 'ओरसबलसमन्नागए' आन्तरबलयुक्तः 'लंघणपवणजइणवायामसमत्थे' जविनशब्दः शीघ्रवचनः । (वृ०प० ६३१) श०१४, उ०१ढा० २९१ २२९ Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. 'छेए' प्रयोगज्ञ: 'दक्खे' शीघ्रकारी । (वृ०प० ६३१) ७४. 'पत्तठे' अधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः 'कुसले' आलोचितकारी। (वृ०प० ६३१) ७५. 'मेहावी' सकृतश्रुतदृष्टकर्मज्ञः। (वृ०५० ६३१) ७३. ए सर्व विषेज समर्थ, छै ए प्रयोग जान तदर्थ । तथा कला बोहितर सहीत, दक्ष कार्य विलंब रहीत ।। ७४. पत्तछे करिवा लागो जे काम, परिपूर्णपणुं तसु पाम । तथा प्रज्ञावान बुद्धिवान, कुशल करै आलोची जान ।। ७५. मेधावी ते सुण्या इक वार, ते कार्य तणो करणहार । तथा पूर्व अपर प्रत्यक्ष, वचने संध मेलवा दक्ष ।। ७६. जाव शब्द में ए सहु सीधा, सूत्र अनुयोगद्वार' थी लीधा । वलि जीवाभिगम में जोय, कोई पाठ प्रथम पछै होय ।। ७७. *पुरुष एहवो संकोची बांह, तेह प्रति लांबी कर त्यांह। तथा पसारी बांह प्रति धार, संकोचै ते पुरुष तिवार।। ७८. पसारी मुट्ठि प्रति ताम, संकोचै संहरैज आम । संकोची मुट्टि प्रति जेह, तास पसारै खोलै तेह ।। ७९. उघाड़ी चक्ष प्रति मिचाई, मींची आंख प्रतैज उघाड़े। एहवी उतावली गति होय, काकु-पाठ थी कहै जिन सोय ।। ७७. आउंटियं बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा बाहं आउंटेज्जा 'आउंटिय'ति संकोचितं। (वृ०प०६३१) ७८. विविखण्णं वा मुट्टि साहरेज्जा, साहरियं वा मुट्ठि विक्खिरेज्जा 'विक्खिन्न' ति 'विकीर्णा' प्रसारितां 'साहरेज्ज' त्ति 'साहरेत्' संकोचयेत् 'विक्खि रेज्ज' त्ति विकिरेत्-प्रसारयेत् । (वृ०प०६३१) ७९. उम्मिसियं वा अच्छि निम्मिसेज्जा, निम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेज्जा भवे एयारूवे? 'उम्मिसियं' ति 'उन्मिषितम्' उन्मीलितं 'निमिसेज्ज' त्ति निमीलयेत् 'भवेयारूवे' त्ति काक्वाऽध्येयं । (वृ०प० ६३१) वा०---काकूपाठे चायमर्थ: स्यात् यदुतैवं । (वृ० ५० ६३१, ६३२) ८०. मन्यसे त्वं गौतम ! भवेत्तद्रूपं भवेत्स स्वभावः शीघ्रतायां नरकगतेस्तद्विषयस्य च यदुक्तं विशेषण पुरुषबाहुप्रसारणादेरिति । (व०प०६३२) ८१. एवं गौतममतमाशंक्य भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, ____ अथ कस्मादेवमित्याह- (वृ०प० ६३२) ८२. नेरइया णं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति । वा०-भवे एयारूवे? ए काकु-पाठ थकी भगवान गोतम नां मन तणी आशंका करीने पूछयो। ८०. हे गोतम ! तूं इम मानै छ, एहवा शीघ्र गति तसु जानै छ। वलि तसं शीघ्रज गति विषय छ, बाह पसारणादिक सादृश छै ? ८१. इम प्रभु गोतम नां मन केरी, आशंका करिनें कहै फेरी। एह अर्थ समर्थ नहिं कोय, किसे कारण?ते हिव कहै सोय ।। ८२. नारक एक समय कर जान, अथवा दोय समय कर मान । अथवा तीन समय कर हुंत, इम विग्रहगति कर उपजत ।। यतनी ८३. इहां छै एहवो अभिप्राय, नारक नी गति कहिवाय । एक समय तणी तथा दोय, तथा तीन समय नी होय ॥ ८४. बाहु पसारणादिक गत, असंख्यात समय हवै तथ । तिण सुं पुरुष सरीखी सोय, गति नारक नीं किम होय ।। ८५. एक समय करी उपजंत, उववज्जंतो इति जोग हुंत । वा शब्द अछै इण ठाम, ते विकल्प अर्थे ताम ।। ८६. एक समय संघात प्रबंध, विग्रह शब्द सं नहि संबंध । विग्रह एक समय नी नांय, एक समय ऋजू गति थाय ।। १. सूत्र ४१६ २. जी० ३ सू० ११८ ३. वक्रोक्ति *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी २३० भगवती जोड़ ८३,८४. 'नेरइयाण' मित्यादि, अयमभिप्रायः-नारकाणां गतिरेकदित्रिसमया बाहुप्रसारणादिका चासंख्येयसमयेति कथं तादृशी गतिर्भवति नारकाणामिति । (वृ०प०६३२) ८५,८६. तत्र च 'एगसमएण व' त्ति एकेन समयेनोपपद्यन्त इति योग :, ते च ऋजुगतावेव, वाशब्दो विकल्पे, इह च विग्रहशब्दो न सम्बन्धितः, तस्यैकसामायिकस्याभावात् । (वृ०५० ६३२) Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७. 'दुसमएण व' त्ति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन विग्रहेणेति योग ः। (वृ०५० ६३२) ८८. एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण-वक्रेण । (वृ०प० ६३२) ८७. दोय समय विग्रह करि तेम, दोय समय संघाते एम। विग्रह शब्द सं संबंध थाय, विग्रह ते वक्र गति इहां पाय ।। ८८. इम तीन समय विग्रहेण, वक्र गति करि गमन करेण । पिण एक समय नीं विग्रह नांय, तिण सं विग्रह थी संबंध न थाय ।। सोरठा ८९. तिहां दोय समय विग्रहेण, भरत' पूर्व दिशि थी यदा। जे ऊपजै क्रमेण, नरके पश्चिम दिशि विषे ।। ६०. एक समय रै मांहि, अधो जाय तिण अवसरे । द्वितीय समय में ताहि, उत्पत्ति-स्थानक ऊपजै ।। ६१. तीन समय विग्रहेण, भरते अग्निकूण थी। नारक विषे क्रमेण, वायव्य-कूणे ऊपजै ।। ६२. एक समय रै मांय, अधो जाय सम श्रेणि कर। द्वितीय समय में जाय, तिरछो पश्चिम दिशि विषे ।। ६३. तृतीय समय में जान, तिरछो वायव्य-कूण में। उपजै उत्पत्ति स्थान, कह्यो न्याय ए वत्ति थी ।। ६४. इणे करि गति काल, आख्यो इम कहिवा थकी। जिसी शीघ्र गति न्हाल, तिसी शीघ्र जिनजी कही। ६५. *हे गोतम ! नारक नैं आखी, शीघ्र गति तसु एहवी दाखी। कह्यो तिसो शीघ्र गति नों काल, एवं जाव वैमानिक न्हाल ।। ६६. णवरं एकेंद्री उत्कृष्ट, च्यार समय विग्रह गति दृष्ट । तेहनं न्याय कयुं वृत्तिकार, कहियै छै हिव तसु अनुसार ।। ८९,९०. तत्र द्विसमयो विग्रह एवं-यदा भरतस्य पूर्वस्या दिशो नरके पश्चिमायामुत्पद्यते तदैकेन समयेनाधो याति द्वितीयेन तु तिर्यगुत्पत्तिस्थानमिति । (वृ०प० ६३२) ९१-९३. त्रिसमयविग्रहस्त्वेवं-यदा भरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नारकेऽपरोत्तरायां दिशि गत्वोत्पद्यते तदैकेन समयेनाधः समश्रेण्या याति द्वितीयेन च तिर्यक पश्चिमायां तृतीयेन तु तिर्यगेव वायव्यां दिशि उत्पत्तिस्थानमिति । (वृ०प०६३२) ९४. तदनेन गतिकाल उक्तः, एतदभिधानाच्च शीघ्रा गतिर्यादृशी तदुक्तमिति । (वृ०प० ६३२) ९५. नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । एवं जाव वेमाणियाणं । ९६. नवरं--एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे । यतनी ६७. त्रस नाडि थकी जे बार, अधोलोके विदिशि थी विचार । दिशि प्रतै समय इक जाय, सम श्रेणि गमन थी ताय ।। १८. द्वितीय समय पेस लोक मांय, तीजा समय में ऊंचो जाय। त्रस नाडि थी नीकल जान, समय चतुर्थ उत्पत्ति स्थान ।। ६६. वृत्तिकार कही वलि वाय, बहलपणां नी ए अपेक्षाय । अन्यथा पंच समय पिछान, विग्रह एकेंद्रिय तणें जान ।। १००. त्रस नाडि थकी जे बार, अधोलोके विदिशि थी विचार । समश्रेणि करी दिश जाय, ए तो एक समय रै माय ।। १०१. दूजे समये पेस लोक मांय, तीजे समये ऊंचो जाय । चौथे समय तिरछो पूर्वादि, दिशि प्रते गमन संवादि ।। १०२. पंचमे जाय विदिश पिछान, व्यवस्थित उत्पत्ति स्थान । इम कही वृत्ति रै मांहि, धर्मसी पिण मान्यो नांहि ।। १०३. 'वृत्ति में बहु बातां विरुद्ध, सूत्र थी अणमिलती अशुद्ध । ते अशुद्ध किण रीत मानीजै, मिलती है ते अंगीकार कीजै ।। १. भरतक्षेत्र । *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी ९७. सनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्ये केन, जीवानामनुश्रेणिगमनात् । (वृ०प० ६३२) ९८. द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति तृतीयेनोवं याति चतुर्थेन तु त्रसनाडीतो निर्गत्य दिग्व्यवस्थितमुत्पाद स्थानं प्राप्नोतीति । _ (वृ०प० ६३२) ९९. एतच्च बाहुल्यमंगीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि विग्रहो भवेदेकेन्द्रियाणां। . (वृ०प० ६३२) १००. सनाडया बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन (वृ०प० ६३२) १०१. द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनोवलोके चतुर्थन ततस्तिर्यक पूर्वादिदिशो निर्गच्छति ।(वृ०प० ६३२) १०२. ततः पञ्चमेन विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं यातीति, (वृ०प०६३२) श० १४, उ० १, ढा० २९१ २३१ Jain Education Intemational cation Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४. छद्यस्थ अणाहारि सोय सूत्र में कह्या समया दोय । तीन समय कह्या वृत्तिकार ए पिण पंच समय जिम धार ॥ १०५. तिसुं अणमिलती न मनाय, विरुद्ध बात बहु वृत्ति मांय । वर न्याय विचार वदीत, राखो सूत्र तणीज प्रतीत ।। ' [ ज.स.] १०६. * एकेंद्री विष दंडक उगणीस, नारक नीं पर कहिया जगीस। तीन समय नीं विग्रह तास, पूर्व नीं पर कहिवूं विमास ॥ दूहा गति आश्रयी, नरकादिक अनंतरोत्पन्न आदि हिव, द्वितीय दंडक १०७. अनंतरे नैरयिक आदि का अनंतरोपपन्नगादि पद १०८. * प्रभु ! नारक अनंतरोववन्ना, अथवा तिके परंपर-उत्पन्ना। अनंतर परंपर- उपपन्ना नांय ? श्री जिन भाखे तीनूं थाय ॥ आख्यात | अवदात ॥ १०६. किण अर्थे प्रभु ! इम कहिवाय, जाव अनंतर परंपर नांय ? जिन कहै गोतम ! सुण अवदात, न्याय त्रिहुं नारक नों ख्यात ॥ ११०. प्रथम समय न जे उपना, ते अनंत रोगवण्णा । उपनां समय थयो छे एक, ते नरक अनंतर उपनां पेख ॥ १११. प्रथम समय नां उपनां जाण, तेह नारक विण अन्य पिछाण । उपनां समय थया वे आदि, तेह परंपर उपनां वादि ॥ ११२. विग्रह गति प्रति वर्ते त्यांही ते अनंतर परंपर उपनां नांही । तिण अर्थे गोतम ! इम कहिये, यावत अणुववण्णगा लहिये || ११३. एवं अंतर-रहित विचार, जाव वैमानिक लग अवधार दंडक चवीसे सुविमास तीन-तीन विध कहिये तास ॥ 1 सोरठा । ११४. हिवे अनंतर आदि, आयु बंध तीनूं तणे प्रश्न तास संवादि, चित्त लगाई सांभलो ॥ ११५. *प्रभु! अनंतर उपनां जास, स्यूं नरकायु बंध तास । तिरि मन सुर आयु बंध होय ? जिन कहै इक पिण न बंधे सोय ।। *लय इण पुर कबल कोइय न लेसी २३२ भगवती जोड़ १०६. सेसं तं चैव । (स० १४१३) 'सेसं तं चेव' त्ति 'पुढविक्काइयाणं भंते ! कहं सीहा गई ?' इत्यादि सर्वं यथा नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः । ( वृ०प० ६३२) १०७. अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः, अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह( वृ०प० ६३२) १०८. नेरइया णं भंते! कि अणंतरोववन्नगा ? परंपरोववन्नगा ? अनंतर परंपर- अणुववन्नगा ? गोयमा ! नेरइया अनंत रोववन्नगा वि परंपरोववन्नगा वि, अनंतर परंपर- अणुववन्नगा वि । (श० १४०४) १०९. से केणट्ठणं भंते! एवं बुच्चद्द जाव (सं. पा.) बगंतर परंपर-अणुवन्नगा वि? गोयमा ! ११०. जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अतरोववन्नगा । 'अनंत रोववन्नग' त्ति न विद्यते अन्तरं समयादिव्यवधानं उपपन्ने – उपपाने येषां ते अनन्तरोपपन्नकाः । ( वृ०५० ६३३) १११. जे गं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा 'परंपरोववन्नग' त्ति परम्परा — द्वित्रादिसमयता उपपन्ने उपपाते येषां ते परम्परोपपन्नकाः । ( वृ०प० ६३३) ११२. जेणं नेरइया विग्गहग इसमावन्नगा ते णं नेरइया अगर-परंपर-अणुववन्नगा से तेषट्ठेष जान अनंतर परंपर- अणुववन्नगा वि । । एते च विग्रहगतिकाः, विग्रहगतौ हि द्विविधस्वादुत्पादस्याविद्यमानत्वादिति । ( वृ०१० ६३३) (२० १४१५) ११३. एवं निरंतरं जाव वेमाणिया । ११४. अथानन्तरोपपन्नादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह (बु०प०६२३) ११५. अनंत रोववन्नगा णं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकति ? तिरिखखमस्त देवाउ पकति ? -- गोमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति पकरेंति । जाव नो देवाउयं ( श० १४/६ ) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवसाय नां । चिहुं गति आउसो ॥ भव शेषायू रहे। समय में बंध किम ? आपू के जेहनों पर भव आयु बंध नहीं ॥ स्युं नरकायू बंधे तास । तिरि मनु सुर आयु बंध होय ? नारक नों ए प्रश्न सुजोय ॥ १२०. जिन कहै नरकायु न बंधंत, तिर्यंच आयु नों बंध हुंत । मनुष्यायु नों पिण बंध होय, सुर नो आयु बंधे न कोय ।। १२१. अनंतर परंपर उपनां नांय, तेह नारक ने स्यू बंध थाव ? जिन कहै चिहुं गति आयु न बंधाय, विग्रहगतिया छे इण न्याय ॥ ११२. *प्रभु! परंपर उपनो जास, ११६. तेह अवस्था मांहि, स्थान अभावे ताहि, न सोरठा ११७. सुर नारक षट मास, आयू बंध विमास, तो प्रथम ११५. तिरि मनुष्य रे पेख, निज धुर बे भागे देख, १२२. एवं जाव वैमानिक संच, नवरं मनुष्य पंचेंद्री तिर्यंच । चिहुं गति नो आयु बंध थाय, शेष पूर्वली पर कहिवाय ॥ तेहवा बंधे १२३. प्रभु ! नारक अनंतर-निर्गत सोय, अथवा परंपर- निर्गत होय । अनंतर परंपर-निर्गत नांय ? जिन कहै ए तीनूंइ थाय ॥ १२८. जेह नारकी हुंत, विग्रहगति वर्त्तत, निज १२४. किण अर्थे प्रभु ! इम आख्यात ? श्री जिन भाखै सुण अवदात । जे नरक नें निकल्यां समय थयो एक, तेह अनंतर निर्गत पेख ॥ १२६. जेह अनंतर भाव, सोरठा १२५. समय आदि कर जान बिच व्यवधान पड़यो नथी । वे अंतर-रहित पिछान, नरक थकी जे नीकल्या ॥ १२६. विहिज समय संपेख, अन्य स्थानके ऊपनां । देख, तेह अनंतर निर्गता || समय ए १२७. *नीकल्यां समय यया वे आदि, तेह परंपर-निर्गत वादि । विग्रहगति में वर्ती ज्यांही अनंतर परंपर-निर्गत नांही । प्रथम उत्पत्ति क्षेत्र न पाव, ते *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी सोरठा न नरक थकी जो नीकया। उत्पत्ति क्षेत्र ऊपनां ॥ तथा परंपर भाव कर । निश्चै नय निर्गत नथी ॥ ११६. तस्यामवस्थायां तथाविधाव्यवसायस्थानाभावेन सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात् । ( वृ० प० ६३३ ) ११७. परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः षण्मासे शेषे ( वृ० प० ६३३) ११८. स्वायुषस्त्रिभागादी च शेषे यन्धसद्भावात् ( वृ० प० ६३३) ११९ . परंपरोववन्नगा णं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? १२०. गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पि पकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति । ( श० १४ । ७ ) १२१. अनंतर परंपर- अणुववन्नगाणं भंते! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । १२२. एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववन्नगा चत्तारि वि आउयाई पकरेंति । सेसं तं चैव । (श० १४१८) १२३. नेरइया णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया ? परंपरनिग्गया ? अनंतर परंपर- अनिग्गया ? गोयमा ! नेरइया अणंतरनिग्गया वि, परंपरनिग्गया वि अनंतर परंपरअनिग्गया वि । (८० १४०९) १२४. से केणट्ठेणं जाव अनंतर परंपरअनिग्गया वि ? गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया । - १२५, १२६. अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादुद्वृत्तानां स्थानान्तरं प्राप्तानां प्रथमः समयो वर्तते । (बृ० प०६२२) १२७. जे नेरइया अपसमनिया ते पं नेरइया परंपरनिया के पं नेरया विग्गगतिसमावन्नगा ते णं नैरइया अनंतर परंपरअ निग्गया । १२. अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु ये नरकादुदुमाः सन्तो विगत वर्तन्ते न तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति । (२० ५० ६३३) १२९. तेषामनन्तरभावेन परम्परभावेन पोत्पादप्राप्तत्वेन निश्चयेनानिर्गतत्वादिति । (१० ५० ६२३) श० १४, उ० १, ठा० २९१ २३३ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०. ते नारक इण न्याय, अणंतर वलि परंपर। __ अनिर्गत कहिवाय, उत्पत्ति-क्षेत्र न पामिया ॥ १३१. *तिण अर्थे गोतम ! का एम, जाव अनिर्गता पिण छै तेम । एवं जाव वैमानिक भाव, इक-इक नां त्रिण-त्रिण आलाव॥ १३१. से तेणठेणं गोयमा ! जाव अणंतर-परंपर-अनिग्गया वि । एवं जाव वेमाणिया। (श०१४।१०) दूहा १३२. हिवै अनंतर-निर्गता, प्रमुख तीन जे ख्यात । ते आश्री बंध आयु नो, आगल ते अवदात ।। १३३. *हे भगवंत! नारक अवलोय, जेह अनंतर-निर्गता होय। नारक नो स्यूं आयू बांध, जाव देव नो आयू सांधै ? १३४. जिन कहै नरकायु न बंधंत, जाव देवायु नहिं पकरंत। पढम समय बंध आयु न कृत, तिणसुं अबंध अणंतर-निर्गत ।। १३५. हे भगवंत! नारक अवलोय, जेह परंपर-निर्गता होय। नारक नो स्यूं आयू बांध, यावत सुर आयू प्रति सांधै ? १३६. जिन कहै नरकायू पिण बांधै, यावत सुर आयू पिण सांधे। एह परंपर-निर्गता जोय, तिरि पंचेंद्री मनुष्य इज होय ।। १३२. अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह -- ___ (वृ० प० ६३३) १३३. अणंतरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? .१३४. गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति। (श० १४।११) १३५. परंपरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। १३६. गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि पकरेंति । (श० १४।१२) इह च परम्परानिर्गता नारकाः सर्वाण्यायूंषि बध्नन्ति, यतस्ते मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव च भवन्ति । (वृ०५० ६३३) १३७. ते च सर्वायुर्बन्धका एवेति । (वृ० ५० ६३३) १३७. ते तिर्यंच पंचेंद्री देख, अथवा जे वलि मनुष्य विशेख । ते चिहं गति नों आयू बांध, तिण कारण ए चिह गति सांधे।। १३८. वैक्रिय जन्म थकी सुविमास, अथवा ओदारिक थी तास । नीकलनेज मनुष्य हुवै कोय, अथवा तिरि पंचेंद्री होय ।। १३६. ते चिहं गति आयु बंध जोग्य, तिणरै चिहं गति बंध प्रयोग्य। चिहं गति आयु बंध कहीव, आयु बंध योग्य जे जीव ।। १४०. अणंतर-परंपर-निर्गत नाही, ते नारक नीं पूछा ज्यांही। जिन कहै नारक आयु न बंधै, यावत सुर आयू नहि संधै ॥ १३८,१३९. एवं सर्वेऽपि परम्परनिर्गता वैक्रियजन्मानः, औदारिकजन्मानोऽप्युवृत्ताः केचिन्मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्त्यतस्तेऽपि सर्वायूर्बन्धका एवेति । (वृ०प० ६३३, ६३४) १४०. अणंतरं-परंपर-अनिग्गया णं भंते ! नेरइया पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । १४१. निरवसेसं जाव वेमाणिया । (श० १४।१३) १४१. निविशेष ते विशेष रहीत, जावत वैमानिका कहीत । तीन-तीन आलावा प्रत्येक, पूर्वली पर कहिवा पेख ।। - सोरठा १४२. कह्या निर्गता एह, ते तो ऊपजता थका। सुखे करी उपजेह, तथा दुखे करि ऊपजै॥ १४३. दुखे करी उपजंत, ते आश्रो धुर सूत्र हिव । नारक तणोज हुँत, प्रश्नोत्तर तसु सांभलो॥ १४४. *हे प्रभु ! स्यूं नारक संपन्ना, कहिय अनंतर-खेद उपन्ना। समयादि अंतर-रहित आख्यातं, दुखे करी क्षेत्रे उपपातं ? १४२,१४३. अनन्तरं निर्गता उक्तास्ते च क्वचिदुत्पद्यमानाः सुखेनोत्पद्यन्ते दुःखेन वेति दुःखोत्पन्नकानाश्रित्याह (वृ० प० ६३४) १४४. नेरइया णं भंते ! कि अणंतरखेदोववन्नगा? 'अनंतरखेदोववन्नग' त्ति अनन्तरं-समयाद्यव्यवहितं खेदेन-दुःखेनोपपन्नं--उत्पादक्षेत्रप्राप्तिलक्षणं येषां ते । (वृ० ५० ६३४) *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी २३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५. के कहिये परंपर-खेद उपन्ना, बे आदि समय थया जे दुख जन्ना। के अनंतर-परंपर दुख अणुपन्ना, विग्रहगतिया एह संपन्ना ? १४६. जिन कहै हंता तीनइ थाय, ए अभिलापे करिने ताय। इमहिज दंडक कहिवा च्यार, खेद शब्द सुविशेषित धार । १४५. परंपरखेदोववन्नगा? अणंतर-परंपर-खेदाणुव वन्नगा ? 'अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नग' त्ति अनन्तरं परम्परं च खेदेन नास्त्युपपन्नकं येषां ते तथा विग्रहगतिवत्तिन इत्यर्थः । (वृ०प० ६३४) १४६. गोयमा ! नेरइया अणंतरखेदोववन्नगा वि, परंपर खेदोववन्नगा वि, अणंतर-परंपर-खेदाणुववन्नगा वि । एवं एएणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियन्वा। (श०१४।१४) 'ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियव्व' त्ति त एव पूर्वोक्ता उत्पन्नदण्डकादयः खेदशब्दविशेषिताश्चत्वारो दण्डका भणितव्याः । (वृ०प० ६३४) यतनी १४७. धुर खेद उपन्ना कहाय, दूजो तास आयु पूछाय। तीजो खेद निर्गता कहिये, चतुर्थो तसु आयू लहियै ॥ १४७. तत्र च प्रथमः खेदोपपन्नदण्डको द्वितीयस्तदायुष्क दण्डकस्तृतीयः खेदनिर्गतदण्डकश्चतुर्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति। (वृ० प० ६३४) १४८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ। (श० १४।१५) १४८. *सेवं भंते ! जाब विचरंत, शतक चवदमें वर्णन तंत। प्रथम उदेशा नों अर्थ उदार, श्री जिन वचन सूत्र अनुसार ।। १४६. वर्ष बावोस' मधु सुदि अष्टम न्हाल, दोयसो नै एकाणुमी ढाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय'पसाय, 'जय-जश'संपति हरष सवाय।। चतुर्दशशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१४॥१॥ ढाल : २९२ दूहा १. पूर्व उदेशे आखिया, जेह अनंतर आदि । नारक प्रमुखज ऊपनां, वक्तव्यता संवादि । २. तेह नारकादिक हुवै, मोहवंत असमाधि । ते मोह तो उन्माद है, तास परूपण आदि । १. अनन्तरोद्देशकेऽनन्तरोपपन्ननरयिकादिवक्तव्यतीक्ता । (व०प० ६३४) २. नैरयिकादयश्च मोहवन्तो भवन्ति, मोहश्चोन्माद इत्युन्मादप्ररूपणार्थो द्वितीय उद्देशकः । (वृ० प० ६३४) उन्माद पद ३. कितै प्रकारै हो प्रभु ! कह्यो उन्माद ? विविक्त-चेतना'-भ्रंश उन्मत्तपणो। जिन कहै बिहुविध हो उन्माद अगाध, यक्षावेश दूजो मोह उदै घणो॥ ३. कतिविहे णं भंते ! उम्मादे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं । 'उन्मादः' उन्मत्तता विविक्तचेतनाभ्रश इत्यर्थः । (वृ०प० ६३५) २. चैत्र मास *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी १. सं. १९२२ लिय : तोरण आयो हे सखी! ३. विवेक चेतना श० १४, उ० १, २, ढा० २९१,२९२ २२५ Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४. 'जक्खाएसे य'त्ति यक्षो-देवम्तेनावेशः-प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः । (वृ० प० ६३५) ४. यक्ष देव ए जान, तेहनों जे आवेश ते। जीव विषे अधिष्ठान, यक्ष अधिष्ठित प्रथम ए॥ ५. *मोह नी उन्माद नां, बे भेद इक मिथ्यात्व ही। तसु उदय थी सरधैज ऊंधो, दश बोलां में एक ही ।। ६. द्वितीय जे चारित्र-मोहनी, तसु उदयवर्ती छतो। विषय विष तुल्य जाणतो, अजाण नों परै वर्ततो॥ ७. तथा चारित्र-मोहनी जसु, वेद मोह विशेष है। तसु उदय थी अतिहि उन्मत्त', विषयरक्त अशेष है। ५. 'मोहणिज्जस्से' त्यादि तत्र मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्तदुदयवर्ती जन्तुरतत्त्वं तत्त्वं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं । (वृ० प० ६३५) ६. चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूपमजानन्निव वर्त्तते । (वृ०प० ६३५ ७. अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीय यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति । (व०प०६३५) ८. तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव। सुखेन मोहजन्योन्मादापेक्षयाऽक्लेशेन वेदनं-अनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतरः । (वृ० प० ६३५) ९. तत्थ णं जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव । (श० १४।१६) ८. बिहं उन्मत्त में हो यक्षावेश उन्माद, मोह जन्य उन्मत्त नी अपेक्षया । सुखे वेदवो हो क्लेश रहित संवाद, सुखे मूकायवो यक्ष नीकल गयां ॥ है. हिव जे बीजो हो मोहजनित उन्माद, यक्षावेश नी अपेक्षया जाणियै । अति दुखे वेदवो हो दुखे विमोचन व्याध, ___अधिक विस्तार टीका थी आणियै ।। १०. *दूखे वेदन जे अनंत संसार नां कारण हंती। संसार नो वलि दुःख वेदन, जन्म मरण प्रभाव थी। ११. इतर यक्षावेश फुन तसु वेदवो सुख सुं हुवै । इकभविक पिण व कदा इम, सुखे उपद्रव मुच्चवै ।। १२. तथा मोहनि-जनित उन्मत्त, इतरनीज अपेक्षया । अति दुखे करि मूकवो ह्व, तास मोह उदै थयां ।। १३. मंत्र विद्या सुर-अनुग्रह, वलि ए तीनूंई हुवै। असाध्यपणां थी मोह-जनित, उन्मत्त नै अणमुच्चवै ।। १४. यक्ष अधिष्ठित सुख विमोचन, मंत्र मात्र पिण तसु । निग्रहण वशकरण समरथ, सुख विमोचन इम जसु ।। १५. मंत्रवादी केवली पिण, जसु मिथ्यात्व उदै घणुं। तसु निग्रह करवा न समरथ, दुख विमोचन इम भणुं ।। १०. मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखवेदनतरो भवत्यनन्तसंसारकारणत्वात् , संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात् (वृ० प०६३५) ११. इतरस्तु सुखवेदनतर एव, एकभविकत्वादिति । (वृ० १० ६३५) १२. तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया दुःख विमोचनतरो भवति । (वृ० प०६३५) १३. विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुग्रहवतामपि वात्तिकानां तस्यासाध्यत्वात् । (वृ० प० ६३५) १४. इतरस्तु सुखविमोचनतर एव भवति यन्त्रमात्रेणापि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादिति । (वृ०प० ६३५) १५. सर्वज्ञमन्त्रवाद्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः? (वृ० प० ६३५) *लय : पूज मोटा भांजे टोटा १. उन्मत्तता के लक्षण : चितेइ टुमिच्छइ दीहं नीससइ तह जरे दाहे । भत्त अरोअग मुच्छा उम्माय न याणई मरणं ।। (वृ. प. ६३५) लिय : तोरण आयो हे सखी ! २३६ भगवनी जोड Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. इदं च द्वयमपि चतुर्विंशतिदण्डके योजयन्नाह . (वृ• ५० ६३५) १७. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहाजक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं । से केणठेणं भंते ! (श० १४।१७) १८. गोयमा ! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा। सोरठा १६. ए बेहूं उन्माद, दंडक चउवीसां विषे । कहियै छ संवाद, जिन वचनामृत प्रवर है। १७. *कितै प्रकार हो नारक नैं उन्माद ? जिन कहै दोय प्रकारे दाखियो। यक्षाधिष्ठित हो मोह कर्म वश व्याध, ते किण अर्थ प्रभु ! इम भाखियो ? १८. जिन कहै देवा हो नेरइया रै मांहि, पुद्गल अशुभ प्रक्षेप करै तदा। ते पुद्गल मैं हो प्रक्षेपवै ताहि, यक्षावेश उन्माद कह्यो यदा ॥ १६. मोह कर्म नैं हो उदय करी अधिकाय, मोहनी नो उन्माद कहीजिये। तिण अर्थे कर हो इम कहियै वाय, द्विविध उन्मत्त नरक लहीजिये ।। २०. प्रभु ! असुर नैं कतिविध है उन्माद ? इम जिम नारक नैं कह्यो तिमज ही। णवरं इतरो हो एह विशेष संवाद, यक्ष अधिष्ठित उन्मत्त में सही। २१. महद्धिक अतिहि हो देव असुर रै मांहि, पुद्गल अशुभ प्रक्षेप करै तदा । ते पुद्गल नै हो प्रक्षेपवै ताहि, यक्षावेश उन्माद कह्यो यदा ।। २२. मोह उदय नों हो शेष तिमज कहिवाय, तिण अर्थे कडं जाव उदय करो। एवं यावत हो थणियकुमार में ताय, द्विविध उन्मत्त इम जिन उच्चरी ।। २३. पृथ्वीकाय नैं हो जाव मनुष्य पर्यंत, उन्मत्त दोय नारक जिम आखिया। व्यंतर जोतिषी हो वैमानिक जे अंत, उन्मत्त दोय असुर जिम दाखिया ।। १९. मोहणिज्जस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा । से तेणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइनेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा-- जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं । (श०१४।१८) २०. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णते? एवं जहेव नेरइयाणं नवरं (सं० पा०) २१. देवे वा से महिड्डियतराए असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा । २२. मोहणिज्जस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिज्ज उम्मायं पाउणिज्जा । से तेणठेणं जाव उदएणं । एवं जाव थणियकुमाराणं । २३. पुढविक्काइयाणं जाव मणुस्साणं-एएसि जहा नेरइयाणं, वाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । (श० १४।१९,२०) सोरठा २४. अनंतरे कडें एह, वैमानिक जे देव नैं। मोह उदय नों जेह, उन्मत्त क्रिया विशेष जे॥ २५. हिव जे वृष्टीकाय करण-रूप क्रिया तिका। इंद्रादिक नैं थाय, ते देखाड़तो कहिये तिको॥ २४. अनन्तरं वैमानिकदेवानां मोहनीयोन्मादलक्षणः ___क्रियाविशेषः उक्तः । (वृ० ५० ६३५) २५. अथ वृष्टिकायकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् प्रस्तावनापूर्वकमाह (वृ० ५० ६३५) *लय : तोरण आयो हे सखी! श० १४, उ०२, ढा० २९२ २३७ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष्टिकायकरण पद २६. * हे प्रभु ! पर्जन्य हो तिको मेघ कहिवाय, कालवासी ते वर्षाकाल वरसतो । अथवा पर्जन्य हो इंद्र तिको पिण ताय, जिन जन्मादि काले पृष्टी पकरतो ? २७. श्री जिन भाखै हो हंता अत्थि ताम, घन जे वरसे ते तो प्रगट प्रसिद्ध ही । श-प्रवर्षण हो क्रिया प्रसिद्ध न आम तेह प्रश्नोत्तर हिव कहिये सही ॥ २८. हे प्रभु! शन हो बृष्टिकाय कहिवाय, उदक समूह करण नीं इच्छा धरै । ते किण रीते हो वृष्टि करे जिनराय ? उत्तर तास प्रभु हम उच्चरं ॥ २६. शक्र तिवारै हो वर्षाकामी होय, भितर परषद सुर ने सदावियं । से भितर न हो बोलाया छता ताम मध्यम परषद सुर बोलाविये ।। ३०. मध्यम परषद हो सुर बोलाया थका ताम, बाहिर परषद सुर तेड़ावियै । बाहिर परषद हो सुर बोलाया छता ताम, बाहिर बाहिरगा बोलावियै ॥ ३१. बाहिर बाहिरगा हो सुर बोलाया थका ताम, ते आज्ञाकारी सेवग सुर बोलाविये । । ते सेवा देवा हो बोलाया छता ताम वृष्टिकायिक सुरं प्रति तेड़ाविये । वा०-- इहां पाठ में कह्यो — तए णं तं अभिओगिया देवा सद्दावेंति तए णं ते जाव सद्दाविया समाणा इहां जाव शब्द में 'आभियोगिया देवा' एतला अक्षर जणाय छे ते सेवग देवता बोलाया छता एहवूं जोड़ में का, तिणसूं जाव शब्द न कहीं । ३२. वृष्टिकायिक हो सुर बोलाया पका ताम वृष्टिकाय जल-समूह प्रतै करे । इस निश्च करि हो शक्रमुरिंद्र सुरराज, वष्टि करे जिन-जन्मादि अवसरे || ३३. प्रभु! असुर पिण हो वृष्टिकाय पकरत? जिन कहै हंता अत्थि इम जाणियं । ते कि कारण हो प्रभुजी ! भाखो उदंत, असुर वृष्टि कर हेतु पिचानिये ॥ ३४. श्री जिन भारी हो जे अरिहंत भगवंत तास, जन्म नां महोत्सव अवसरे । दीक्षा केवल हो वलि निर्वाण नां हंत, असुर देव पिण वृष्टि करें जरे ॥ *लय : तोरण आयो हे सखी ! २३८ भगवती जोड़ २६,२७. अत्थि णं भंते ! पज्जपणे कालवासी वुट्ठिकार्य पकरेति ? हंता अत्थि । ( स. १४०२१) 'कालवासि' त्ति काले - प्रावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालवर्षी, इह स्थाने शक्रोऽपि तं प्रकरोतीति दृश्यं, तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणक्रियायां तत्स्वग्भाव्यतालक्षणो विधि: प्रतीत एव, शक्रप्रवर्षणक्रियाविधिस्त्वप्रतीत इति । (बृ० प०६२५) २०. जाणं भंते! सक्के देविदे देवराया बुद्धिकार्य काउकामे भवइ से कहमियाणि पकरेति ? २९. गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया अति परिसर देवे सद्दावेइ । तए णं ते अब्भितरपरिसगा देवा साविया समागा मन्यिमपरिसए देने सदावेति । ३०. तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरि देवे सद्दावेति । तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे साति ३१. तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगए देवे सहावेंति । तए णं ते अभिओगिया देवा साविया समाणा बुद्धिकाइए देवे सहावेति । ३२. तए णं ते वुट्टिकाइया देवा सद्दाविया समाणा बुद्धिका पति एवं गोमा के देविदे देवराया वुट्टिकायं पकरेति । ( श० १४।२२ ) ३३. अत्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा वुट्ठिकार्य पकरेंति ? हंता अत्थि । (१० १४०२३) किपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा वुट्ठिकार्य पकरेंति ? २४. गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो एएस गं जम्मगमहिमा वा निश्वमगमहिमासु वा नानुष्यायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा । - Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. इम निश्चै कर हो असुरा घन वर्षावंत, एवं नाग जाव थणियकुमार ही। व्यंतर ज्योतिषी हो वैमानिक इम हंत, हिव सुर क्रियाधिकार थी अपर ही ।। ३५. एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा बुट्टिकायं पकरेंति । एवं नागकुमारा वि, एवं जाव थणियकुमारा। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया एवं चेव । (श० १४१२४) देवक्रियाऽधिकारादिदमपरमाह- (वृ०प० ६३६) ३६. जाहे णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति ? ३७. गोयमा ! ताहे चेव णं से ईसाणे देविदे देवराया अभितरपरिसए देवे सद्दावेति । तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा तमस्कायकरण पद ३६. प्रभु ! ईशाणज हो सुरिंद सुर नों राय, तमसकाय करवा नी इच्छा धरै। ते किण रीते हो तमस्काय करै ताय ? तास उत्तर जिनजी इम उच्चरै ।। ३७. यदा ईशानज हो देव-इंद्र सुरराय, तमस्काय करवानी इच्छा करै। परषद भितर हो तेहनां सुर लै बोलाय, ते भितर नां सुर आव्या थका तरै ॥ ३८. जेम शक नी हो वक्तव्यता कही तेम, जाव सेवग सुर बोलाव्या छता। तमस्कायिक सुर हो बोलावै धर प्रेम, ते बोलाव्यां तमस्काय करता रता ।। ३६. इम निश्चै करि हो ईशाणेंद्र सुरराय, तमस्काय करै वलि शिष्य पूछिये । प्रभु ! असुरा पिण हो करै तमस्काय ताय? हंता अत्थि इम जिन उत्तर दियै ।। ४०. प्रभु ! किण कारण हो असुर करै तमस्काय? श्री जिन भाखै क्रीड़ा रति कारणे। क्रीड़ खेलवू हो रति ते काम कहाय, अथवा क्रीड़ा रूप रति तसु धारणे ॥ ३८. एवं जहेव सक्कस्स जाव तए तए णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे सद्दावेति । तए णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्कायं पकरेंति । ३९. एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविदे देवराया तमुक्कायं पकरेति । (श० १४१२५) अत्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति ? हंता अत्थि । (श. १४।२६) ४०. किंपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति ? गोयमा ! किड्डा-रतिपत्तियं वा। 'किड्डारइपत्तियं' ति क्रीडारूपा रतिः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा च-खेलनं रतिश्च-निधुवनं क्रीडारती सैव ते एव वा प्रत्ययः—कारणं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं । (वृ०प० ६३६) ४१. पडिनीयविमोहणट्ठयाए वा गुत्तीसारक्खणहेउं वा अप्पणो वा सरीरपच्छायण?याए, एवं खलु गोयमा! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति । 'गुत्तीसंरक्खणहेउं व' त्ति गोपनीयद्रव्यसंरक्षणहेतोर्वेति । (वृ०प० ६३६) ४१. वलि शत्रु नैं हो विमोह करण नैं काम, तथा गोपवण योग्य वस्तु रक्षण भणी। तथा पोता नी हो देह छिपाडण ताम, इम खलु तमस्काय असुरा तणी॥ वा०-इहां किणहि परत में 'जाव वेमाणिए' कह्यो ते देव दंडक आश्री जाणवो । पूर्वे कह्यो असुरादि देवता मेह वर्षावै तेहिज देवता इहां जाव शब्द में जाणवा, पिण अनेरा दंडक न जाणवा । ४२. इम वैमानिक हो, सेवं भते ! स्वाम, ____ चउदम शतक उद्देशे दूसरे। ढाल दोयसौ हो बाणूंमी अभिराम, भिक्षु भारीमाल नृप 'जय-जश' सुख वरे॥ ४२. एवं जाव वेमाणिया । (श० १४१२७) सेव भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ । (श. १४॥२८) चतुर्दशशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१४॥२॥ श० १४, उ० २, ढा० २९२ २३९ Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २९३ १. द्वितीयोद्देशके देवव्यतिकर उक्तः: तृतीयेऽपि स एवोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् । स्येदमादिसूत् । ० ६३६) १. द्वितीय उदेशे देव नों, व्यतिकर कह्यो विशेख । तेहिज तृतीय उदेशके, सांभलजो संपेख ॥ *हं बलिहारी हो वीर नीं, भाख्या हो प्रभ भिन-भिन भेव के। धन्य शिष्य प्रश्न पूछिया, उत्तर दीधा जिन स्वयमेव के।। (ध्रुपदं) विनयविधि पद २. हे प्रभुजी ! जे देवता, महाकाय जसु बहु परिवार के। महा-शरीर छ जेहनों बृहततन् ते सूर अवधार के । ३. भावितात्म अणगार नै, बिचै थई मैं ते सुर जाय के ? जिन कहै कोइक जावै अछै, कोइक सूरवर जावै नाय कै। ४. किण अर्थे प्रभ ! इम कह्यो, कोइ जाय कोइक नहिं जाय कै । श्री जिन भाखै गोयमा ! देवा दोय प्रकार कहिवाय कै।। २. देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे 'महाकाय' त्ति महान् बृहन् प्रशस्तो वा कायोनिकायो यस्य स महाकायः, महासरीरे' त्ति बृहत्तनुः । (वृ० प० ६३६) ३. अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्यंगतिए नो वीइवएज्जा। (श० १४१२९) ४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा? गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, ५. तं जहा-मायीमिच्छादिट्टीउववन्नगा य, अमायी सम्मदिवीउववन्नगा य । तत्थ णं जं से मायीमिच्छदिट्ठीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, ६. पासित्ता नो वंदइ, नो नमसइ, नो सक्कारेइ, नो सम्माणेइ, ७. नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । ५. मायी-मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अमायी-समदृष्टि उत्पन्न के। इहां मायी-मिथ्यादृष्टि देवता, देखी भावितात्म मुनि जन्न कै॥ ६. वांदै नहि ते मुनि भणी, नमस्कार न करै सिर नाम के। वलि सत्कार करै नहीं, वलि सन्मान दियै नहिं ताम कै॥ ७. कल्याणकारक ते मुनि, विघ्न मिटावण मुनि मंगलीक के। धर्मदेव जाणी करी, यावत सेव करै न सधीक के। ८. ते भावितात्म अणगार नै, मध्योमध्य थई मैं जाय कै। __ नीकलै मुनि रै बिच थई, ते देव आसातन सूं डरै नाय कै॥ ६. अमायी-समदृष्टि ऊपनों, ते सुर मुनि प्रति देख उदार के। वंदै शिर नामै वलि, यावत मेव करै सुखकार के। १०. ते भावितात्म अणगार नै, मध्ये मध्य करी नहिं जाय कै। तिण अर्थे इम आखियो, कोइ जाय कोइ नहिं जाय ताय कै॥ ८. से णं अणगारस्स भावियप्पणो मझमज्झेणं वीइवएज्जा । ९. तत्थ णं जे से अमायीसम्मद्दिट्ठीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता वंदइ नमसइ जाव (सं. पा.) पज्जुवासइ । १०. से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं नो वीइवएज्जा । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइअत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। (श० १४।३०) ११. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अण गारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं वीइवएज्जा ?एवं चेव । १२. एवं देवदंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिए । (श०१४॥३१) 'एवं देवदंडओ भाणियब्वो' त्ति नारकपृथिवीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्यासम्भवाद् देवानामेव च ११. हे प्रभु ! असुरकुमार ते, महाकाय ते घणो परिवार के। महाशरीरी मुनि बिचै, एवं चेव पूर्ववत धार के॥ १२. ईम देव दंडक भणवो सह, जाव वैमानिक लग कहिवाय के। नारक पृथव्यादिक तण, ए कार्य नो असंभव थाय के। *लय : हूं बलिहारी हो जादवां २४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवाद्देवदण्डकोऽत्र व्यतिकरे भणितव्य इति । (वृ०प० ६३६,६३७) सोरठा १३. पूर्वे सुर नों जाण, मध्य गमन अविनय कह्यो । हिव नरकादि पिछाण, विनय विशेष प्रतै कहै ।। १४. *हे प्रभु ! छै नारक तौँ, मांहोमांहि करिवो सत्कार के। विनय योग्य नैं वंदना-प्रमुख आदर नों करवो धार के ।। १५. अथवा प्रवर वस्त्रादि नों देवं तेह कह्यो सत्कार के। सक्कारो पवर वत्थमाइहिं, इति वचनात टीका में धार के ।। १६. सनमान तथाविध प्रतिपत्ति, योग्य भक्ति नों करिवू जाण के। कृतिकर्म ते वंदना अथवा कार्य न करिवं पिछाण के।। १७. गौरव योग्य देखी करी, आसण नो तजिवो अब्भुट्ठाण के। हस्त बिहु नो जोड़वो, अंजलिपग्गहे कहिवं जाण के ।। १८. गौरव योग्यज बैसतां, पहिला आसण आणवं ताम के। बैसो इत्यादिक कहै, आसणाभिग्गहे तेहनों ताम कै॥ १३. प्राग देवानाश्रित्य मध्यगमनलक्षणो दुविनय उक्तः, ___ अथ नैरयिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाह---- . (वृ. प. ६३७) १४. अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं सक्कारे इ वा ? 'सक्कारेइ व' त्ति सत्कारो-विनयाहेषु वन्दनादिनाऽऽदरकरणं। (व. प. ६३७) १५. प्रवरवस्त्रादिदानं वा 'सत्कारो पवरवत्थमाईहिं' इति वचनात् । (वृ. प. ६३७) १६. सम्माणे इ वा? कि इकम्मे इ वा? 'सम्माणे इ व' त्ति सन्मानः-तथाविधप्रतिपत्तिकरणं 'किइकम्मेइ व' ति कृतिकर्म-वन्दनं कार्यकरणं वा। (वृ. प. ६३७) १७. अब्भुट्टाणे इ वा ? अंजलिपग्गहे इ वा? 'अब्भुट्ठाणे इ व' त्ति अभ्युत्थानं-गौरवाईदर्शने विष्टरत्याग: 'अंजलिपग्गहेइ व'त्ति अलिप्रग्रहःअञ्जलिकरणम् । (वृ. प. ६३७) १८. आसणाभिग्गहे इ वा ? 'आसणाभिग्ग हेइ व' त्ति आसनाभिग्रहः-तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वकमुपविशतेति भणनं । (वृ. प. ६३७) १९. आसणाणुप्पदाणे इ वा ? 'आसणाणुप्पयाणेइ व' त्ति आसनानुप्रदानं गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसञ्चारणं । (वृ० प०६३७) २०. एंतस्स पच्चुग्गच्छणया? ठियस्स पज्जुवासणया ? 'इंतस्स पच्चुग्गच्छणय' त्ति आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं 'ठियस्स पज्जुवासणय' त्ति तिष्ठतो गौरव्यस्य सेवेति । (वृ० प०६३७) २१. गच्छंतस्स पडिसंसाहणया? नो इणठे समठे। (श० १४।३२) 'गच्छंतस्स पडिसंसाहणय' त्ति गच्छतोऽनुव्रजनमिति, अयं च विनयो नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्वादिति । (वृ०प० ६३७) २२. अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया १६. गौरव योग्य नै आश्रयी, आसण नोंज अनेरै स्थान के। लेइ जायवो ते अछ, आसणाणुप्पदाणे अभिधान के।। २०. आवता सन्मुख जायवो, एतस्सपच्चुग्गच्छणया जेह के। बैठां नी सेवा करै, ठियस्स पज्जुवासणया जेह के। २१. जातां ने पहंचाड़िवो, गच्छंतस्स पडिसंसाहणया जाण के ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, नारक नैं नहिं विनय विनाण के ।। २२. छै प्रभु ! असुरकुमार नें, सत्कार में देवो सन्मान के। जाव जातां पहुंचाड़िवो? जिन कहै हंता अत्थि जान के।। वा? २३. इम यावत थणियकुमार नें, पृथ्वी जा चउरिद्री पेख के। नारक नीं पर सर्व नैं, कहि ए विस्तार अशेख के। हंता अस्थि । २३. एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं जाव चरिदियाणं एएसिं जहा नेरइयाणं । (श० १४॥३३) *लय :हूं बलिहारि हो जादवां श० १४, उ० ३, ढा०२९३ २४१ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २४. छै प्रभु ! पं. - तिर्यंच नैं सत्कारादि जाव पहुंचाय के ? जिन भाव हंता अत्वि, पिण दोय बोल नहि कहिया ताय के || २५. पहिला आसनों आणवो आसण पहुंचावे अन्य स्थान के मांहोमांहि तिर्यथ है, दोय बोल वर्ज्या भगवान के || २६. मनुष्य व्यंतर नें ज्योतिषी, वैमानीक तणें सुविचार कै । असुरकुमार तथी परे, कहियो सगलो ही विस्तार के। २७. कि प्रभु देवता जिन भाखै सुण गोयमा ! एह अर्थ २५. समद्धक प्रभु ! देवता, समद्धिक सुर मध्य थइ जाय के । जिन है अर्थ समर्थ नहीं, ते देव प्रमत्त हूँ तो जाय ताय के || २६. ते प्रभु ! स्यूं शस्त्रे करी, के हणियां विन समर्था ? ३०. शस्त्र प्रहार करी तदा हणिनें जावा समर्थ होय कै । हिव जिन उत्तर भाव सोय के जावा में समर्थ के छै जेह । सस्त्र प्रहार कियां विना, जावा समर्थ नहीं छं तेह के ॥ ३१. इम इण अभिलापे करी, जेम दशम शतके आख्यात कै । तीजा उदेशा नैं विषे कहिवुं इमज सर्व साख्यात के || ३२. व्यार दंडक कहित्रा तिहां एक-एक में तीन-तीन आलाव के जा महद्धक विमाणिणी, अल्पद्धिक विमाणिणी भाव कै ॥ सोरठा ३२. कहिया तीन-तीन ३४. पहिलो दूजो ३५. तृतीय चोथो ३६. अल्पविक अधिकार, दंडक दंडक च्यार, ते दंडक दंडक महढक देव विच यह जाय के ? समर्थ नहि थाय के || दंडक 1 पेख, देख, ताम, इक इक दंडक नें विषे । आलावा छै तिहां ॥ देव अनैं वलि देव नों। तणो ॥ नों । तणो । थई । जाणवो ॥ बिच पाम, देवी अरु देवी सुर ताहि, महद्धिक सुर जावा समर्थ नांहि, प्रथम आलावा ३७. समदिक सुर ताहि जावा समर्थ नाहिं, ३८. शस्त्र आक्रमी आम, समद्धिक र विच तसु प्रमत्तपणां में जाय जावा समर्थ ए विण आक्रम्यो ताम, जावा समर्थ ते ३६. प्रथम शस्त्र हणि पेज, जावा समर्थ पिण प्रथम जई सुविशेष प शस्त्र कर ४०. महद्धिक सुर ताय, अल्पविक जे सुर मध्य थई नैं जाय ? जिन कहै हंता देव अने देवी देवी नो अरु देव थई । कुन ॥ अछे । नहीं ॥ से प्रभु! नहि ह । तर्णे । जाय छै ॥ ४१. ते शस्त्रे करि ताम हणि जावा समर्थ प्रभु ! तथा हयां विण आम, जावा समर्थ देव छ ? २४२ भगवती जोड़ २४. अत्थि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा ? हंता अत्थि । २५. नो चेव णं आसणाभिग्गहे इ वा, आसणाणुप्पयाणे इ वा । (श. १४१३४ ) २६. मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं । हंता अस्थि । वाणमंतर - जो इस वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । (श. १४ । ३५ ) २७. अपिडिए णं भंते! देवे महिड्डियस्स देवस्स मज्मणं वी इवएज्जा ? नो इणट्ठे समट्ठे । (श. १४ / ३६ ) २८. समिढिए णं भंते ! देवे समिडियस्स देवस्स मज्झमझे बीएला ? मोट्ठे समट्ठे पमत्तं पुण वीश्वएज्जा । (. १४०३७) २९. से णं भंते ! कि सत्थेणं अक्कमित्ता पभू ? अणक्कमित्ता पभू ? ३०. गोयमा ! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू । (श. १४१३८) ३१. एवं एएणं अभिलावेणं जहा दसमसए आइड्डी उद्देसए तहेव निरवसेसं । ३२. चारि दंडगा भागिवव्या जाव महिड्डिया बेमागिणी अपट्टियाए मानिथीए (स. १४०३९) ३३. 'चत्तारि दंडगा भाणियव्व' त्ति तत्र प्रथमदण्डक उक्तालापकत्रयात्मकः । (बृ. प. ६२८) ३४. देवस्य देवस्य च द्वितीयस्त्वेवंविध एव नवरं देवस्य च देव्याश्च । ( वृ० प० ६३८ ) ३५. एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च देवस्य च चतुर्थोऽप्येवं नवरं देव्याश्च देव्याश्चेति । ( वृ० प० (३०) ४०. महट्टिए गं भते ! देवे अपयिस्स देवस्थ म मणं वीजा ? हंता बीएला । (बु०प०६३७) ४१. से णं भंते! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता (बु० ५० ६२७) प Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. जिन कहै शस्त्र प्रहार करि जावा समर्थ पिण । अणहणिये पिण धार, जावा समयं देव है । आलावा आखिया । आलाव छै । सुरी विमाणिणी । ते पिण वैमाणिक सुरी ॥ पूर्वोक्तज अनुसार त्रिहुं त्रिहुं आलावा तास विपर्यय अति तसु अधिकार कहूं हिंवे ॥ करि । तिके ॥ दुखी। ४३. प्रथम दंडक नां एह, तीन इम च्यारूं दंडकेह, ४४. छेहलो एह एह बालाब अल्पद्धिक बिच भाव, ४५. इत्यादिक कहिवाय, इक इक दंडक मांय, ४६. कह्या अनंतर देव, तेह नारकी भेव, तीन-तीन महदिक ४७. * प्रभु ! रत्नप्रभा नां नेरइया, केहवा पुद्गल नां परिणाम के । भोगवता विच अर्थ ? श्री जिन भाखे अनिष्ट तमाम के || ४८. यावत अति मन नहि गमैं, एवं जाव सप्तमी ताम क । ए सातू पृथ्वी नारइया भोगवे पुद्गल नुं परिणाम के ।। ४९. इस पुद्गल परिणाम ते भोगवे, तिमहिज सप्तम नरक नां जीव कै । वेदना नां परिणाम ने अनुभव अणगमता अतीव कै ॥ ५०. इम जिम जीवाभिगम में, द्वितीय नारक उद्देशे आम के बी बोल तिहां आखिया, कहियै ते बीसां रा नाम कै ॥ ५१. जाब सातमी नां नेरइया, केहवा परिग्रह संज्ञा परिणाम के यावत भोगवता थका, विचरै छै ते भाखो स्वाम ! कै ॥ ५२. श्री जिन भाखे अनिष्ट छे, यावत अणगमता छै अत्यन्त कँ । कहिवो वच इतरा लगे, सेवं भंते ! सेवं भंत ! के ॥ ५३. चवदम शतके तीसरो, दोयसौ तीन नेऊमीं ढाल के । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, 'जय जय' संपति हरष विशाल के ।। चतुर्दशशते तृतीयोद्देशकार्यः || १४ | ३ || * लय हूं बलिहारि हो जादवां १. जीवा० ३।३।१२८ गाथा १,२ पोग्गल परिणामे वेयणा य लेसा य नामगोए य । अरइभए य सोगे खुहा पिवासा य वाही य ॥ उसासे अणुतावे कोहे माणे य माया लोभे य । चत्तारिय सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामं ॥ ४२. गोयमा ! अक्कमित्तावि पभू अणक्कमित्तावि पभू । (बु० १०६३७) ४६. अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, अथैकान्तदुःखितत्वेन तद्विपर्ययभूता नारका इति तद्वक्तव्यतामाह ( वृ० प० ६३८ ) ४७. रयणम्यमविरइया भंते केरिस पोग्गलपरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहति ? गोवमा ! अणि । ४८. जाव (सं. पा.) अमणामं । एवं जाव असत्तमापुढविरइया | (२० १४०४०) ४९. एवं वेदणापरिणामं ( सं . पा.) । ' एवं वेयणापरिणाम' ति पुद्गलपरिणामवत् वेदनापरिणामं प्रत्यनुभवन्ति नारकाः । ( वृ० प० ६३८ ) ५०. एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए । जीवाभिगमस्तानि तानि पदानि । (बु०प०६२८) (२० १४०४१) महेसत्तमापुढविनेरयाणं भंते! केरियं परिण्णापरिणामं पचमाणा विहरति ? ५२. गोयमा ! अणिट्ठे जाव भ्रमणामं । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ५१. जाव (श. १४/४२ ) ( श. १४ । ४३ ) श १४ उ० ३ ० २९३ २४३ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २९४ दूहा १. तृतीय उदेशा में कह्या, पुद्गल नां परिणाम वलि, पुद्गल जीव- परिणाम पद २. * पुद्गल हे भगवान! रे परमाणु तिको, पुद्गल तुर्य काल अतीत अनंत रे अपरिमाण थी, अथवा खंध कह्यो नकी ए ॥ ३. ते काल समय रे मांय रे एक समय लगे, नां परिणाम । उदेशे ताम ॥ शाश्वत अक्षयपणां थकी ए । फर्श थकी लूखो तिको ए ॥ समय अलूखो धाय रे एक समय लगे, स्निग्धवंत हुवी जिको ए , ४. आस्था ए पद दोय रे परमाणु विषे बंध विषे बलि भने ए ।। बंध विषे इज पाय रे तीजी पद तिको, न्याय सहित कहियै हि ए। ५. तथा समय में रूक्ष रे अथवा निद्ध, खंध अपेक्षाए कह्यो । बंध द्वि-प्रदेशिकादिरे लूखो देश *लय एक दिवस शंख राजान रे २४४ भगवती जोड़ ६. ए युगपत समकाल रे रूक्ष स्निग्ध बे फर्श तणो संभव तिहां ए । को इहां वा शब्द रे समुदायार्थ ते, जे पुद्गल एहवो इहां ए ॥ ७. स्यूं अनेक वर्णादिरे परिणामे करी, जेह परिणामी ने रहे ए ।। वली एक वर्णादि रेतसु परिणाम है, ए प्रश्न पूछतो शिष्य कहे ए ।। ८. इक वर्णादि परिणाम रे तेहथी प्रथम जे, पछे दोय करणे करी ए । 3 देश विषे जे निद्ध रह्यो ए॥ प्रयोग करण पहिछाण रे वलि ए विस्रसा, ए दो करणे वली ए ॥ ९. वर्ण अनेक विचार रे रूप अनेक ही, तेह परिणम सहो ए वर्ण काल नीलादि रे रूप अनेक ते, गंध फर्श रस प्रति लही ए । १०. ठाण भेद करि तेह रे परिणाम पर्याय नं तेह परिणमे चं जिहां ए काल अतीत आख्यात रे तिसुं परिणम्यो, एहवो शब्द अछे इहां ए ॥ १. तृतीयोद्देशके नारकाणां पुद्गलपरिणाम उक्त इति, चतुर्थीशकेऽपि पुद्गलपरिणामविशेष एवोच्यते । (बु.प. ६१०) २. एस णं भंते ! पोग्गले तीतमनंतं सासयं ' पुग्गले' त्ति पुद्गलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च 'तीतमनंतं सासयं समयं' ति विभक्तिपरिणामादतीते अनन्ते अपरिमाण त्वात् शाश्वते अक्षयत्वात् । (बृ. प. ६३०) ३. समयं लुक्खी ? समय अलुम्बी ? 'समयं सुखी'ति समयमेकं यावदुक्षस्पर्शसद्भावाक्षी, तथा समयं अलुक्खी' त्ति समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावाद् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव । (बृ. प. ६३,६३९) ४. इदं च पद्वयं परमाणौ स्कन्धे च संभवति । (बृ. प. ६२९) ५. समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा । तथा 'समयं लुक्खी वा अलुक्खी व त्ति समयमेव रूक्षश्चारूक्षश्च रूक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव, इदं च स्कन्धापेक्षं यतो चकादिस्कन्धे देशो रुखो देशश्चारुक्षो भवति । (बृ. प. ६३९) वाशब्दी चेह ६. इत्येवं युगपद्र्क्षस्निग्धस्पर्शसम्भवः समुच्चयार्थी । (वृ. प. ६३९ ) ७. एवंरूपश्च सन्नसौ किमनेकवर्णादिपरिणामं परिणमति पुनश्चेकवर्णादिपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह-(बु. प. ६३९) ८-१०. पुव्वि च णं करणेणं अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणमइ ? 'पूर्व च' एकवर्णादिपरिणामात्प्रागेव 'करणेन' प्रयोगकरणेन विश्रसाकरणेन वा 'अनेकवर्ण' कालनीलादिवर्णभेदेनानेकरूपं गन्धरसस्पर्श संस्थानभेदेन 'परिणाम' पर्यायं परिणमति अतीतकालविषयत्वादस्य परिणतवानिति द्रष्टव्यं । (पू. ६३९) Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ११. जे परमाणू पेख, तदा समय भेदे करी। ११. स च यदि परमाणुस्तदा समयभेदेनानेकवर्णादित्वं थयो वर्णादि अनेक, एहवं आख्यो वत्ति में ।। परिणतवान् । (वृ. प. ६३९) १२. एक समय रै मांय, अनेक वर्ण हवे नहीं। तिण कारण ए वाय, समय भेद कर परिणम्यो । १३. यदि खंध संपेख, ते तो युगपत काल कर। १३. यदि च स्कन्धस्तदा यौगपद्येनापीति । परिणमै वर्ण अनेक, इमहिज रूप अनेक ही। (वृ. प. ६३९) १४. *अथ ते परमाणनांज रे अथवा खंध नां, १४. अहे से परिणामे निज्जिणे भवइ, तओ पच्छा एगवर्णादि परिणाम ते ए। वण्णे एगरूवे सिया? क्षीण थयां तिणवार रे ह इकवर्ण ते, वलि इकरूपज पाम ते ए? १५. जिन कहै हंता एह रे पुद्गल छै तिको, १५. हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीतमणंत सासयं काल अतीत विषे रह्यो ए। समयं । तिमज जाव इकरूप रे ए पुद्गल हुवो, तं चेव जाब एगरूबे सिया। (श. १४।४४) प्रश्न जेम उत्तर कह्यो ए॥ वा०-अथ-अनन्तर ते एक-एक परमाणु नां तथा एक-एक खंध नां अनेक वा०-'अह से' त्ति 'अथ' अनन्तरं सः--एष परमाणो: वर्णादि परिणाम निर्जर-क्षीण हुवै, अन्य परिणाम-आधायक कारण उपनिपात नां स्कन्धस्य चानेकवर्णादिपरिणामो 'निर्जीर्ण:' क्षीणो वश थकी। तिवारै ते निर्जरयां पछ एकवर्ण हुवै, अन्य वर्ण नां अभाव थी। अनै भवति परिणामान्तराधायककारणोपनिपातवशात् 'ततः एकरूप ते वंछित गंधादिक पर्याय नी अपेक्षा करिक, पर पर्याय नां त्याग थी। सिया पश्चात्' निर्जरणानन्तरम् 'एकवर्णः' अपेतवर्णान्तरकहितां एहवो पुद्गल हुवो अतीत काल नां विषयपणां थकी। ए प्रश्न छै ते माट त्वादेकरूपो विवक्षितगन्धादिपर्यायापेक्षयाऽपरपर्यायासिया शब्द नो अतीत काल नो अर्थ कियो। णामपेतत्वात 'सिय' ति बभूव अतीतकालविषयस्वादस्येति प्रश्नः । (वृ. प. ६३९) १६. ए प्रभु ! अद्धा वर्तमान रे शाश्वत समय में, १६. एस णं भंते ! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं लुक्खी? एवं चेव अहीजियै ए। एवं चेव । (श. १४।४५) एम अनागत काल रे, तेह अनन्त पिण, एस णं भंते ! पोग्गले अणागयमणंतं सासयं समयं तिको शाश्वत समय लहीजिये ए॥ लुक्खी ? एवं चेव। (श. १४।४६) वा०-वर्तमान नैं शाश्वतो कह्यो ते सदाईज ते वर्तमान नां भाव थी। जद वा०–'प्रत्युत्पन्ने' वर्तमाने 'शाश्वते' सदैव तस्य भावात् पूछे जद वर्तमान लाध, ते माट। इहां समय काल नो वाचक छ तेहनै विषे । एवं 'समये' कालमात्रे 'एवं चेव' त्ति करणात्पूर्वसूत्रोक्तचेव- इम कहिवा थकी पूर्व सूत्र कह्यो ते ए जाणवो-समयं लुक्खी समयं अलुक्खी मिदं दृश्य-समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा इत्यादि । लुक्खी वा अलुक्खी वा' इत्यादि । (वृ०५० ६३९) सोरठा १७. अद्धा अतीत मांय, काल अनागत में वलि । १७,१८. यच्चेहानन्तमिति नाधीतं तद्वर्तमानसमयस्यानन्त अनंत शब्द कहाय, वर्तमान में नहिं कह्यो ।। त्वासम्भवात्, अतीतानागतसूत्रयोस्त्वनन्तमित्यधीत १८.समय एक नों एह, वर्तमान अद्धाज छै । तयोरनन्तत्वसम्भवादिति । (वृ० ५० ६३९) तिण कारण थी जेह, अनंत शब्द कह्यो नथी।। १६. पुद्गल तणो स्वरूप, अनंतरे जे आखियो। १९. अनन्तरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं, पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि तसु जे खंध तद्रूप, आगल कहियै छै हिवै। भवतीति पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपय न्नाह (वृ०प० ६३९) *लय : एक दिवस शंख राजान रे श.१४,०४, ढा. २९४ २४५ Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. "हे भगवंत | ए बंध रे अनंत अतीत में, एवं चैव सुजाणियै ए । खंध पिण पुद्गल जेम रे कहियो छे शहां पुद्गल बंध पिद्याणिये ए ।। २१. पूर्वे अपेक्षया । खंधज ख्यात, स्वप्रदेश तिको जीव पिण बात, कहिये जीव-स्वरूप हिव ॥ सोरठा २२. प्रत्यक्ष ए प्रभु ! जीव रे अनंत अतीत जे, * शाश्वत समय विषे फिरी ए । एक समय में एह रे दुखी हुबो अर्थ दुख हेतु योगे करी ए ॥ २३. एक समय है मांय रे अदुखी ए वो सुख हेतु योगे करी ए ॥ समय विषेज कहाय रे दुखी सुखी हुवो, बिहुं हेतु योगे वरी ए । सोरठा ॥ २४. स्यूं अनेक भाव परिणाम, परिणत कर वलि भाव इकपरिणत स्वाम! इस पूछतो शिष्य कहे ॥ छै २५. * एक भाव परिणाम रे तेहथी प्रथम जे, करण विशेष करी यदा ए । शुभ अशुभ कर्म बंध रे हेतुभूत जे क्रिया करण करी तदा ए ॥ २६. अनेक भाव पर्याय रे सुख दुख रूप जे, जेहनें विषे अछे वही ए । तथा तेन प्रकारेण रे जेह अनेक ही, भाव परिणाम प्रते सही ए ॥ २७. अनेकभूत कहाय रे बहु भाव परिणाम थी, अनेक रूप परिणाम रे स्वभाव परिणनं, निश्च कर इहविध वही ए। २५. ए परिणाम स्वभाव रे जंतु परिणम्यो, ए अनेकभूत लह्यो सही ए ॥ अतीत विषेपणां थकी ए । अथ ते दुखितत्वादिरे अनेक भाव नों, हेतुभूत कर्म नकी ए ॥ *लय एक दिवस शंख राजान रे २४६ भगवती जोड २६. ते कर्म वेदनी जाण रे उपलक्षण थकी, ज्ञान दर्शनावरण रे आदिक अप राहु 2 वृत्ति थकी पहचाणियै ए ॥ शेष कर्म पिण जाणियै ए । २०. एस णं भंते! खंधे तीतमणंतं सासयं समयं लुक्खी ? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले । ( ० १४०४७) २१. स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया जीवोऽपि स्यादितीत्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह- (बु० ५० ६३९) जीवे तीतमणतं सासयं समयं २२. एस णं भंते ! दुखी ? एस णं भंते ! जीवे इत्यादि, एषः प्रत्यक्षो जीवोऽतीतेऽनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी दुःखहेतु( ० ५० ६३९) योगात् । २३. समयं अदुक्खी ? समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा ? समयं चादुःखी सुखहेतुयोगाद् बभूव । दुःखी च सुखी च तद्धेतुयोगात् । ( वृ० प० ६३९ ) २४. एवंरूपश्च सन्नसौ स्वहेतुतः किमनेकभावं परिणाम परिणमति पुनश्चैकभावपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह(१० ५० ६३९) २५. पुव्वि च णं करणेणं । 'पूर्व च' एकभावपरिणामात्प्रागेव भावादिकारणसंवलिततया २६. अगभावं करणेन कालस्व ( वृ० प० ६३९ ) अनेको भावः - पर्यायो दुःखित्वादिरूपो यस्मिन् स तथा तमनेकभावं परिणाममिति योगः । (बु०प०६३९) २७. अग परिणामं परिणम ? 'अगभूम' ति अनेकमावस्यादेवानेकरूपं परिणाम स्वभावं । ( वृ० प० ६३९ ) २०. 'परिणाम' ति अतीतकालविषयत्वादस्य परिणतवान् प्राप्तवानिति । ( वृ० प० ६३९) अहे से 'वह से 'ति अथ 'तत्' दुःखितत्वाद्यनेकभावहेतुभूतं । ( वृ० प० ६४० ) २९. वेयणिज्जे 'वेयणिज्जे' त्ति वेदनीयं कर्म्म उपलक्षणत्वाच्चास्य ज्ञानावरणीयादि च । ( वृ० प०६४०) Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. ते कर्म हुवै सहु क्षीण रे तदनंतर पर्छ, एक भाव शिव सुख हुवै ए। सांसारिक सुख जेह रे विपर्यय तेह थी, आत्मिक सुख अनुभवै ए॥ ३१. तेहिज छै इकभूत रे एकपणो लही, हवै इसो शिष्य पूछवै ए? जिन कहै गोतम ! हंत रे ए जंतू यावत, एकभूत शिव अनुभवै ए।। ३२. एम अद्धा वर्तमान रे शाश्वत समय में, अनंत शब्द इहां नाणिय ए॥ एम अनागत काल रे अनंत शाश्वता, समय विषे इम जाणिय ए॥ ३०. णिजिण्णे भवइ, तओ पच्छा एगभावे । 'निर्जीण' क्षीणं भवति ततः पश्चात् 'एगभावे'त्ति एको भावः सांसारिकसुखविपर्ययात् स्वाभाविकसुख रूपो यस्यासावेकभावः (वृ० प० ६४०) ३१. एगभूए सिया ?हंता गोयमा ! एस णं जीवे तीतमणंतं सासयं समयं जाव एगभूए सिया। 'एकभूतः' एकत्वं प्राप्तः। (वृ०प० ६४०) ३२. एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं, एवं अणागयमणंतं सासयं समयं । (श० १४।४८) सोरठा ३३. पूर्व खंध कहाय, पुद्गल खंध नो नाश ह। इम परमाणु पिण थाय, इसी आशंका कर कहै ।। ३३. पूर्व स्कन्ध उक्तः, स च स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशी भवति, एवं परमाणुरपि स्यान्न वा ? इत्याशङ्कायामाह (व०प० ६४०) ३४. परमाणुपोग्गले ण भंते ! कि सासए ? असासए ? गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए । (श० १४१४९) ३५. से केणठेणं भंते ? एवं वुच्चइ-सिय सासए, सिय असासए? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासए । ३६,३७. तया द्रव्यार्थतया शाश्वत: स्कन्धान्तविऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात् प्रदेशलक्षणव्यपदेशान्त रव्यपदेश्यत्वात् । (वृ० प० ६४०) ३४. *परमाणु भगवंत ! रे पुद्गल शाश्वतो, तथा अनित्य अशाश्वतो ए। तब भाखै जिनराय रे कदाच शाश्वतो, __ कदा अशाश्वत थावतो ए? ३५. किण अर्थे भगवंत ! रे कदाच शाश्वतो, कदा अशाश्वत आखियो ए। भाखै तब भगवत रे द्रव्यार्थपणे करी, ___ शाश्वतपणूंज दाखियो ए॥ सोरठा ३६. खंध रै अंतर भाव, तो पिण परमाणपणो। विनष्टपणो न थाव, तसू प्रदेश लक्षण अछै ।। ३७. खंध तणोज प्रदेश, तेहिज परमाणू अछै । तिण कारण सुविशेष, द्रव्यार्थ करि शाश्वतो॥ ३८. *वर्ण पर्याय करेह रे यावत फर्श नां पर्यव करि अशाश्वतो ए। तिण अर्थे यावत रे कदाच शाश्वतो, कदा अशाश्वत भावतो ए॥ सोरठा ३६. परमाणू विस्तार, तसु अधिकार थकीज वलि । कहिये तास विचार, चित्त लगाई सांभलो ।। ४०. *परमाणू भगवंत ! रे स्यूं ए चरम छै, कै अचरम ए आखियो ए। द्रव्यादेश प्रकार रे ते द्रव्य आश्रयी, चरम नहीं अचरम कह्यो ए॥ *लय : एक दिवस शंख राजान रे ३८. वण्णपज्जवेहिं जाव (सं.पा.) फासपज्जवेहिं असासए । से तेणट्टेणं जाव (सं. पा.) सिय सासए सिय असासए। (श० १४१५०) ३९. परमाण्वधिकारादेवेदमाह -- (वृ० प० ६४०) ४०. परमाणुपोग्गले णं भंते ! कि चरिमे? अचरिमे ? गोयमा ! दब्वादेसेणं नो चरिमे अचरिमे । श०१४, उ०४, ढा०२७४ २४७ Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४१. जेह विवक्षित भाव, तेह थकीज चव्यो थको। फुन ते भाव न आव, ते भाव अपेक्षा चरम छै ।। ४१. 'चरमे'त्ति यः परमाणुर्यस्माद्विवक्षितभावाच्च्युतः सन् पुनस्तं भावं न प्राप्स्यति स तद्भावापेक्षया चरमः । (वृ० ५० ६४०) ४२. एतद्विपरीतस्त्वचरम इति । (व० प० ६४०) ४२. तेह थकी विपरीत, अचरम तेह कहीजिये। गोयम प्रश्न संगीत, तसु उत्तर जिनजी कह्यो । ४३. द्रव्य आश्रयी तेह, न मिट परमाणपणो । जो ह खंधपणेह, चव्यो परमाणु इज हुवै ॥ ४३. स हि द्रव्यतः परमाणुत्वाच्च्युतः संघातमवाप्यापि ततश्च्युतः परमाणुत्वलक्षणं द्रव्यत्वमवाप्स्यतीति । (वृ०प०६४०) ४४. खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे । ४४. *क्षेत्र आश्रयी जाण रे कदाचि चरम है, अचरम कदा कहीजिये ए। काल आश्रयी जाण रे कदा चरम हुवै, अचरम कदा लहीजियै ए।। सोरठा ४५. जेह क्षेत्र में जाण, समुद्घात गति केवली। तिण क्षेत्रे परमाण, जे अवगाढ रह्यो हुँतो ।। ४६. तेहिज क्षेत्रे देख, तेहिज केवली कर वलि । समुद्घात थी पेख, कदापि नहिं अवगाहसै॥ ४७. तास गमन निर्वाण, तिण सं क्षेत्र थकीज इम । परमाणू पहिछाण, चरम को इण कारण ।। ४८. केवली समुदघात, तास विशेषित क्षेत्र थी। अन्य क्षेत्र आख्यात, अचरम तास अपेक्षया ।। ४६. जिण काले इम ख्यात, पूर्व दिवसादिक विषे। केवली समुद्घात, कीधो जे अद्धा विषे। ५०. तिणहिज काले थात, परमाणू नां भाव कर। जे परमाण जात, तेहिज काल विशेष प्रति ।। ५१. केवली समुद्घात, तेह विशेषित प्रति वलि । परमाणू नहिं पात, अद्धा आश्रयी चरम इम ॥ ५२. जिन समुद्घात विण अन्न, काल तणीज अपेक्षया। अचरमपणुं प्रपन्न, अचरम इम परमाणुओ। ५३. *भाव आश्रयी जाण रे ते परमाणुओ, चरम हवै क अचरम सदा ए? भाव वर्णादि विशेष रे ते लक्षण प्रकार थी, कदा चरम अचरम कदा ए॥ सोरठा ५४. विवक्षित जे साधि, समुद्घात केवल तदा। जे पुद्गल वर्णादि, परिणत भाव विशेष प्रति ॥ ५५. ते वांछित वर्णादि, समुदघात केवलि तिको। विशेषित संवादि, वर्ण परिणत पेक्षा ' चरम ।। लय : एक दिवस शंख राजान रे ४५. यत्र क्षेत्र केवली समुद्घातं गतस्तत्र क्षेत्रे यः परमाणुरवगाढोऽसौ। (वृ० प० ६४०) ४६. तत्र क्षेत्रे तेन केवलिना समुद्घातगतेन विशेषितो न कदाचनाप्यवगाहं लप्स्यते। (वृ० प० ६४०) ४७. केवलिनो निर्वाण गमनादित्येवं क्षेत्रतश्चरमोऽसाविति । (वृ० प• ६४०) ४८. निविशेषणक्षेत्रापेक्षया त्वचरमः । (वृ० प० ६४०) ४९. यत्र काले पूर्वाह्लादो केवलिना समुद्घातः कृतः । (वृ०प०६४०) ५०,५१. तत्रैव यः परमाणुतया संवृत्तः स च तं काल विशेष केवलिसमुद्घातविशेषितं न कदाचनापि प्राप्स्यति तस्य केवलिनः सिद्धिगमनेन पुनः समुद्घाताभावादिति तदपेक्षया कालतश्चरमोऽसाविति । (वृ० प० ६४०) ५२. निविशेषणकालापेक्षया त्वचरम इति । (वृ० प० ६४०) ५३. भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे । (श० १४१५१) 'भावाएसेणं' ति भावो--वर्णादिविशेषस्तद् विशेषलक्षणप्रकारेण 'स्याच्चरम' कथञ्चिच्चरमः । (वृ०प०३४०) ५४. विवक्षितकेवलिसमुद्घाताबसरे यः पुदगलो वर्णादिभावविशेष परिणतः। (वृ० प० ६४०) ५५. म विवक्षितकेवलिसमुद्घातविशेषितवर्णपरिणामापेक्षयाः चरमः। (वृ०प० ६४०) २४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. यस्मात्तत् केवलिनिर्वाणे पुनस्तं परिणाममसी न प्राप्स्यतीति । (वृ० प० ६४०) ५६. जे केवलि शिव पाम, फून परिणत वर्णादि ते। लहिस्यै नहिं परिणाम, भाव थकी इम चरम है।। ५७. वर्णादिक परिणाम, समुद्घात केवलि विना। पूर्वे पाम्या ताम, वलि लहिस्य अचरम तिको । ५८. आख्यो ए विस्तार, चूर्णिकार नै मत करी। एम कह्यो वृत्तिकार, द्रव्यादिक नां न्याय ए॥ ५६. परमाण चरमादि, कह्या लक्षण परिणाम तसु । हिव परिणाम संवादि, तास भेद अभिधान कर ।। ५८. इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति । (वृ० प०६४०) ५९. अनन्तरं परमाणोश्चरमत्वाचरमत्वलक्षणः परिणाम: प्रतिपादितः, अथ परिणामस्यैव भेदाभिधानायाह (वृ०प०६४०) ६०. कतिविहे णं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा--जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियव्वं । (श० १४।५२) ६०. *प्रभु ! कतिविध परिणाम रे ? द्विविध जिन कहै, प्रथम जीव परिणाम जे ए। एवं अजीव जाण रे पद परिणाम जे, तेरम पन्नवणा पाम जे ए॥ सोरठा ६१. परिणमवो जे पाम, अन्य अवस्था द्रव्य नीं ६१. तत्र परिणमनं-द्रव्यस्यावस्थान्तरगमनं परिणामः । गमन करे ताम, ते परिणाम कहीजिये ।। (वृ० प० ६४१) वा०–परिणाम ते अन्य अर्थ प्रति पहुंच-सर्वथा रहिवू नथी अन सर्वथा वा०-परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । विनाश नथी, ते परिणाम । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः । ६२. दशविध जीव परिणाम, गति इंद्रिय कषाय फुन । ६२,६३. जीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? लेश योग वलि ताम, फून उपयोग परिणाम छै ।। गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा---गइपरिणामे, ६३. ज्ञान अने दर्शन, चरित्त अने वलि वेद फुन । इंदियपरिणामे एवं कसायलेसा जोगउवओगे जीव परिणाम कथन, जीव राशि में जाणवा ।। नाणदंसणचरित्तवेदपरिणामे इत्यादि । (वृ०प०६४१) ६४. वलि दशविध पहिछाण, अजीव परिणामज कह्या। ६४,६५. अजीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? बंधण गति संठाण, भेद वर्ण गंध रस फरस ।। गोयमा! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-बंधणपरिणामे ६५. अगुरुलघू नै शब्द, अजीव परिणामज दस । १. गइपरिणामे २. एवं संठाण ३. भेय ४. वन्न ____ अजीव राशे लब्ध, इत्यादिक कहि इहां ।। ५. गंध ६. रस ७. फास ८. अगुरुलहुय ९. सद्द परिणामे १०." इत्यादि । (वृ०प०६४१) ६६. *सेवं भंते ! स्वाम रे गोतम इम कही, ६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । यावत विचरै उमह्यो ए। (श० १४१५३) शत चवदम नो ताम रे आख्यो अर्थ थी, तुर्य उदेश पूरण थयो ए॥ ६७. आखी ढाल रसाल रे बसौ ऊपरै, च्यार नेऊमो अति भली ए। भिक्षु भारीमाल रे ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जश' आनंद रंगरली ए॥ चतुर्दशशते चतुर्थोद्देशकार्थः॥१४॥४॥ *लय : एक दिवस शंख राजान रे श० १४, उ० ४, ढा० २९४ २४९ Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल २९५ १. तुर्य उद्देशक नै विषे, आख्या छै परिणाम । हिव विचित्र परिणाम जे, पंचमुद्देशे पाम ॥ १. चतुर्थोद्देशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकारा दव्यतिव्रजनादिकं विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह । (वृ०प०६४१) अग्निकाय अतिक्रमण पद *चित धरले प्राणी ! वाणी जिन तणी जी। (ध्रुपदं) २. नारक प्रभुजी ! अग्नि रै कांइ, मध्योमध्य थइ जाय ? जिन कहै केंइक जाय छै जी, केयक जावै नाय । ३. किण अर्थे प्रभु ! इम कयो कांइ, कोई नारक जाय । केइक तो जावै नहीं जी! हिव जिन भाखै न्याय ॥ ४. द्विविध नारक दाखिया कांइ, विग्रहगति आपन्न । अविग्रहगतिया वली जी, उत्पत्ति क्षेत्र जन्न ।। २. नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मझमज्झेणं वीइवएज्जा? गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। (श०१४।५४) ३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ? ४. गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गह गतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावन्नगा य। ५. तत्थ जे से विग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झण वीइवएज्जा । ६. से णं तत्थ झियाएज्जा ? नो इणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । ५. तिहां विग्रहगति पाम्या जिके कांइ, अग्निकाय रे जाण । मध्य थई नै नोकलै जी, वाटे वहितां माण ।। ६.ते अग्निकाय माहै बलै कांइ, अर्थ समर्थ न एह । विग्रहगतिया जीव ने जी, शस्त्र नहीं प्रणमेह ।। सोरठा ७. विग्रहगतिया जीव, कार्मण तनुपण करी। वलि सूक्ष्मपणां थकीव, अग्न्यादि शस्त्र नाक्रम ।। ७. विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र 'शस्त्रम्' अग्न्यादिकं न कामति । (वृ०प० ६४२) ८. तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमझेणं नो वीइवएज्जा। से तेणद्वैणं जाव नो वीइवएज्जा। (श० १४१५५) ८. *तिहां अविग्रहगति नारका काइ, अग्निकाय रै माय। मध्य थई नहिं नीकल जी, तिण अर्थे ए वाय ॥ सोरठा ६. इहां अविग्रह जाण, उत्पत्ति क्षेत्रे ऊपनो। कहियै तेह पिछाण, ते अग्नि विषे न करै गमन ॥ १०. फुन ऋजुगति समापन्न, तसु अधिकार इहां नथी। गमन करतो मन्न, ते पिण जावै अग्नि में ।। ११. नारक क्षेत्रोत्पन्न, अग्नि मध्य जावै नहीं। बादर तेऊ जन्न, नारक क्षेत्र विषे नथी॥ ९,१०. अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात् । (वृ०५० ६४२) ११. स चाग्निकायस्य मध्येन न व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात् । (वृ०प० ६४२) १. इस प्रसंग में किसी आदर्श में उद्देशकार्थ-संग्रह गाथा है । वृत्तिकार ने उसे उद्धृत किया हैनेरइय अगणिमझे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे । पव्वयभित्ती उल्लंघणा य पल्लंघणा चेव ।। *लय : अब लगजा प्राणी ! चरणे साध र जी २५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही । में ॥ १२. मनुष्य क्षेत्र है मांव, बादर तेऊ काय नां । स्थान कह्या जिनराय, फुन बे ऊर्द्ध कपाट में || १३. दग्ध हुताशन मांय, पूर्व मांय, पूर्वे बार अनंत मृगापुत्र कहिवाय, उत्तराज्येन मुनीस १४. जे द्रव्य अग्नि सरीस, तेह तणीज आखी अग्नि जगीस, पुद्गल उष्णज एह है । ताय, शक्तियंत जे द्रव्य फुन । तेजुलेश्या द्रव्यवत | अपेक्षया । १५. ज्वालनरूपज अचित्त का जिनराय, १६. *असुरकुमार विषे प्रभु ! कांइ, जिन कहै कोइक जाय छै जी, १७. किण अर्थे प्रभु ! अग्नि में कांइ, जाव कोइक नहि जाय । जिन कहै असुरा द्विविधा जी गति विग्रह अविग्रह ताय ।। अग्नि प्रश्न पूछाय । कोई मध्य न जाय ॥ १५. असुरा विग्रहगतियुता कोइ नारक जैम कहाय । जाव शस्त्र नहि आक्रमैजी, हिवै अविग्रह आय || १२. अविग्रहगतिया जिके कांइ, केई अग्नि मध्य जाय । केई असुर जावे नहि जी, कहिये तेहनों न्याय || २०. जे मनुष्य लोक में आय, क्षेत्र मनुष्य नहि पाय, सोरठा अग्नि मध्य कोइ नीकलै । निश्चै नहिं ते अग्नि मध्य ।। २१. *जे निकले ते त्यां दग्ध ह्र कांइ ? अर्थ समर्थ न थाय । निश्च शस्त्र न आक्रमै जी, तिण अर्थे इम वाय || सोरठा २२. सूक्षमपणां थकीज, वैकिय दग्ध हवे नहीं । अथवा वली कहीज, गति नां शीघ्रपणां थकी ।। २३. एवं असुर तणी परं कांइ, बावत भणियकुमार । एगिदिया जिस नारका जी, कहिया सर्व विचार ॥ सोरठा २४. वृत्ति विषे इम वाय, विग्रहगतिका अपि जिके । एगिदिया जे ताय, अग्नि मध्य ताय, अग्नि मध्य कर नीकले ॥ २५. सूक्षमपणां थकीज, अग्नि विषे ते नहि बलं । आगल हिव हिवे कहीज, अविग्रहगतिका तणो ॥ * लय : अब लगजा प्राणी ! चरणे साध र जो १२. मनुष्यक्षेत्रे एव तद्भावात् । ( वृ० प० ६४२ ) १२. उत्तराध्ययनादिषु भूयते वास जमि अगसो । ( वृ०प० ६४२ ) १४,१५.दयान्तरापेक्षयाऽयसेयं संभवन्ति प तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति । " (बु०प०६४२) १६. सुमारे ते अगणिकायस्त म वीइवएज्जा ? गोषमा ! अरगतिए वीश्वएक्शा, अत्येतिए नो वीवएन्ना । (१० १४०५६) १०. से गट्ठे जातो मीइएमा । गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाविगहगतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावन्नगा 1 य । अनुरकुमारे १८. तने से दिग्गगतिमान से गं-- एवं जहेव नेरइए जाव कमइ । १९. रायगंजे से अविम्मगतिसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्भंमज्झेणं वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा । २०. अतिस्तु कोयम्नेमध्ये व्यतिव्रजेत् यो मनुष्यलोकनागच्छति यस्तु न समागच्छति असी न व्यतिव्रजेत् । ( वृ० प० ६४२) २१. जेणं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? नो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्यं कमइ । से तेपदडे | २२. यतो न खलु तत्र शस्त्रं क्रमते सूक्ष्मत्वाद्वै क्रियशरीरस्य शोवाच तद्गवेरिति । ( वृ० प० ६४२ ) २३. एवं कुमारा एगिदिया जहा नेरवा । (०१४०५७) २४, २५. यतो विग्रहे तेऽप्यग्निमध्येन व्यतिव्रजन्ति सूक्ष्मत्वान्न दह्यन्ते च । (२०१०६४२) श० १४, उ० ५ ० २९५ २५१ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अविग्रहगतिसमापन्नाकाश्च तेऽपि नाग्नेमध्येन व्यतिब्रजन्ति स्थावरत्वात् । (वृ०प०६४२) २६. अविग्रहगतिका जोय, ते पिण अग्नी मध्य थई। गमन करै नहिं कोय, स्थावरपणां थकीज ते॥ २७. तेऊ वायू जंत, गति त्रस अग्नी मध्य कर । गमन तास दीसंत, ते नहिं वंछयो छै इहां ।।' वा०-वलि जे वायु नै गति त्रसपण करि अग्नि मध्य कर जायवो दीस छै, ते इहां न वंछयो, एहवू जाणिय छ। स्थावर मात्र हीज वंछितपणां थकी । स्थापरपणां – विषे किणही प्रकार करिकै तेउ वाउ नों गति अभाव छ, जे गति नां अभाव अपेक्षा करि स्थावर कहिये । अन्यथा स्थावरपणां नां व्यपदेश नों निष्प्रयोजनपणों हुवै । २८. अथवा पर योगेह, पृथव्यादिक नो अग्नि मध्य। प्रत्यक्ष गमन दीसेह, ते पिण नहिं वंछयो इहां ।। २६. स्ववश करने जाय, तेहिज बंछयो छै इहां । _वृत्ति विषे ए वाय, आख्यो तिण अनुसार थी। ३०. वलि कहै चूर्णीकार, एगिदियाणं गइ नथी। गति एकेंद्रिय ने नांय, तिणसं ते जावै नथी ।। ३१. वाय प्रमुख पर ताय, तसु प्रेरणा थये छते । अग्नि मध्य केइ जाय, तेहनी विराधना हुवै ॥ ३२. *बेइंदिया प्रभु ! अग्नि रै कांइ, मध्य थईनै जाय । जेम असुर आख्या अछ जी, तिम बेइंद्री कहाय ।। ३३. णवरं जावै अग्नि में कांइ, ते बलै अग्नि रै मांय ? जिन कहै तेह बलै तिहां जी, शेष तिमज कहिवाय ।। ३४. इम यावत चउरिंद्री लगै कांइ, बेइंद्री जिम ख्यात । पंचेंद्री तिर्यंच नों जी, अग्नि प्रश्न अवदात ।। ३५. जिन कहै कोइक नीकलै कांइ, कोइ अग्नि में न जाय । किण अर्थे ? तब प्रभु कहै जी, सांभल इणरो न्याय ।। ३६. तिरि पंचेंद्री द्विविधा कांइ, गति विग्रह अविग्रह । विग्रहगति जिम नारका जी, जाव शस्त्र नाक्रमेह ।। वा०-तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्नेमध्येन व्यतिव्रजनं यद् दृश्यते तदिह न विवक्षितमिति सम्भाव्यते, स्थावरत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात, स्थावरत्वे हि अस्ति कथञ्चित्तेषां गत्य भावो यदपेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधिकृतव्यपपदेशस्य निर्निबन्धता स्यात् । २८,२९. तथा यद्वाय्वादिपारतन्त्र्येण पृथिव्यादीनामग्नि मध्येन व्यतिव्रजनं दृश्यते तदिह न विवक्षितं, स्वातन्त्र्यकृतस्यैव तस्य विवक्षणात् । (वृ० प० ६४२) ३०. चूर्णिकार: पुनरेवमाह-एगिदियाण गई नत्थि' त्ति तेन गच्छन्ति । (वृ० प० ६४२) ३१. 'एगे वाउक्काइया परपेरणेसु गच्छंति विराहिज्जति य' त्ति । (वृ० प० ६४२) ३२. बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा? जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि । ३३. नवरं-जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हंता झियाएज्जा । सेसं तं चेव । ३४. एवं जाव चउरिदिए। (श० १४१५८) पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायस्स (सं० पा०) पुच्छा। ३५. गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, मत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। से केणठेणं? (श० १४१५९) ३६. गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावन्नगा य । विग्गहगतिसमावन्नए जहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। ३७. अविग्गहगतिसमावन्नगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–इडिढप्पत्ता य, अणिड्ढिप्पत्ता य। 'इढिप्पत्ता य' त्ति वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः । (वृ०प०६४२) ३८. तत्थ णं जे से इढिप्पत्ते पंचिदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो बीइवएज्जा । ३७. अविग्रहगति द्विविधा कांइ, ऋधि वैक्रिय लब्धि सहीत । ऋद्धि प्राप्त नहि दूसरा जी, वैक्रिय लब्धि रहीत ।। ३८. तिहां ऋद्धिप्राप्त पंचेंद्रिया कांइ, तिरिख-जोणिया ताहि। केइ अग्नि मध्य नीकलै जी, केयक नीकलै नांहि ।। सोरठा ३६. तिरि पंचेंद्री केय, मनुष्य लोकवर्ती तिके। वैक्रिय संपन्नेय, अग्नि मध्य के नीकलै ।। १. इस गाथा के सामने टीका उद्धृत नहीं की है, वह आगे वार्तिका के सामने है। *लय : अब लगजा प्राणी ! चरणे साध र जी ३९. अस्त्येककः कश्चित् पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिको यो मनुष्य लोकवर्ती स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्येन व्यतिव्रजेत् । (वृ० प० ६४२) २५२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. मनुष्य लोक थी बार, वैक्रिय संपन्न पं.-तिरि। गति नहिं अग्नि मझार, बादर तेऊ नहिं तिहां ।। ४१. मनुष्य क्षेत्र रै मांय, ते पिण केयक पं.-तिरि । __ अग्नि मध्य नहिं जाय, सामग्री नां अभाव थी। ४२. *जे नीकलै ते दग्ध ह कांइ ? तब भाखै जिनराय। एह अर्थ समर्थ नहीं जी, शस्त्र आक्रमै नाय ।। ४३. ऋद्धि न पाम्या जे तिहां कांइ, तिरि पंचेंद्री जंत । अग्नि मध्य केइ नीकलै जी, केयक नहिं निकलंत ॥ ४०. यस्तु मनुष्यक्षेत्राबहिन सावग्नेमध्येन व्यतिव्रजेत्, अग्नेरेव तत्राभावात् । (वृ० प० ६४२) ४१. तदन्यो वा तथाविधसामग्र्यभावात्। (वृ० प० ६४२) ४२. जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? णो इणठे समझें । नो खलु तत्थ सत्थ कमइ । ४३. तत्थ णं जे से अणिडिढप्पत्ते पंचिदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्यंगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। ४४. जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हता झियाएज्जा। ४५. से तेणठेणं जाव नो वीइवएज्जा। ४६. एवं मणुस्से वि । वाणमंतर- जोइसिय- वेमाणिए जहा असुरकुमारे । (श० १४।६०) ४४. जे अग्नि विषे जावै तिके कांइ, तेऊ मांहि बलंत? जिन भाख हंता बलै जी, बहुलपणे वच मंत ।। ४५. तिण अर्थे कर इम कह्यो कांइ, पंचेंद्री तिर्यंच । केइ अग्नि माहै बलै जी, केयक न बलै रंच ॥ ४६. एम मनुष्य पिण जाणवा कांइ, व्यंतर ज्योतिषी सोय । वैमानिक सुर ने वली जी, जेम असुर तिम जोय ।। । इति प्रथम द्वार। वलि दश स्थान नों बीजो द्वार प्रत्यनुभव पद ४७. दश स्थानक प्रति नारकी कांइ, भोगवता विचरंत । शब्द अनिष्ट अजोग्य छै जी, रूप अनिष्ट अकंत ॥ ४८. गंध अनिष्ट दुर्गंध छै काइ, अनिष्ट रस अरु फास । अप्रशस्त विहायोगति जी, लहि नाम उदय थी तास ।। ४६. अनिष्ट ठिती सातमों कांइ, नरक अवस्थान रूप । अथवा जे नारक तणो जी, आयु अनिष्ट कूप ।। ४७. नेरइया दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-अणिट्ठा सद्दा, अणिट्ठा रूवा ४८. अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा रसा, अणिट्ठा फासा, अणिट्ठा गती 'अणिट्ठा गई' त्ति अप्रशस्तविहायोगतिनामोदय सम्पाद्या नरकगतिरूपा वा,। (वृ० प०६४३) ४९. अणिट्ठा ठिती 'अणिट्ठा ठिति' त्ति नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा वा। (वृ० प०६४३) ५०. अणिटठे लावण्णे, अणिठे जसे कित्ती, 'अणिठे लावन्ने' त्ति लावण्यं-शरीराकृतिविशेषः । (वृ० ५० ६४३) ५०. अनिष्ट लावण्य आठमों कांइ, तनु आकार विशेख । अनिष्ट जश कीत्ति कहीजी, तास अर्थ इम पेख । सोरठा ५१. सर्व दिशि व्यापी ताय, तथा पराक्रम कर थयो। तेहनै यश कहिवाय, ए कीत्ति थी अधिक है। ५२. इक दिशि व्यापी ताम, तथा दान फलभूत जे । कीति तेहनों नाम, अनिष्ट यश कीर्ते तसु।। ५३. *अनिष्ट तास उठाण छै कांइ, कम्म बल वीर्य कहीज। पूरिसकार में परक्कमे जी, कुत्सितपणों लहीज ।। ५१,५२. यशसा सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरूपेण पराक्रमकृतेन वा सह की तिः एकदिग्गामिनी प्रख्यातिर्दानफलभूता वा यश: कीत्तिः अनिष्टत्वं च तस्या दुष्प्रख्यातिरूपत्वात्। (वृ० प० ६४३) ५३. अणिठे उट्ठाण-कम्म - बल-वीरिय - पुरिसक्कारपरक्कमे । (श० १४।६१) अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति । ( प० ६४३) ५४. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा ५४. असुरा दश स्थानक प्रतै काइ, भोगवता विचरंत । इष्ट शब्द गमता घणां जी, गमता रूप अत्यंत ।। *लय : अब लगजा प्राणी! चरणे साध रेजी श०१४, उ. ५, ढा० २९५ २५३ Jain Education Intemational Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. यावत इष्ट उठाण छै कांइ, कम्म बल वीर्य विचार । पूरिस्कार नै परक्कमैं जी, यावत थणियकुमार ।। ५६. पृथ्वी षट स्थानक प्रतै कांइ, भोगवता विचरंत । इष्टानिष्ट फर्श ने गती जी, इम जाव पराक्रम मंत ।। ५५. जाव इठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार परक्कमे । एवं जाव थणियकुमारा । (श० १४।६२) ५६. पुढविक्काइया छट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति तं जहा-इट्ठाणिट्ठा फासा, इट्ठाणिट्ठा गती, एवं जाव पुरिसक्कार-परक्कमे । सोरठा ५७. दश मांहे चिहं देख, शब्द रूप गंध रस तणी। विषय नहीं संपेख, चिहुं इंद्री नहिं ते भणी॥ ५७. पृथिवीकायिकानामेकेन्द्रियत्वेन पूर्वोक्तदशस्थानकमध्ये शब्दरूपगन्धरसा न विषय इति स्पर्शादीन्येव षट् (वृ०प० ६४३) ५८. सातासातोदयसम्भवात् शुभाशुभक्षेत्रोत्पत्तिभावाच्च । (वृ० प० ६४३) ५९. 'इट्ठाणिट्ठा गई' त्ति यद्यपि तेषां स्थावरत्वेन गमन रूपा गतिर्नास्ति स्वभावतः। (वृ० प० ६४३) ६०. तथापि परप्रत्यया सा भवतीति । (वृ०प० ६४३) ५८. साता और असात, ए बिहु ना संभव थकी । क्षेत्र शुभाशुभ जात, तसु उत्पत्ति नां भाव थी। ५६. इष्टानिष्ट कहाय, गति दाखी षट बोल में । स्थावर पृथ्वीकाय, स्वभाव थी नहिं गमन गति ।। ६०. तथापि तेहने जोय, वाऊ आदि प्रयोग करि। ____ गति पृथ्वी नी होय, गमनरूप गति इम हुवै ॥ ६१. अथवा यद्यपि जाण, पापज रूपपणां थकी। गति तिर्यंच पिछाण, अनिष्ट ईज हुवै अछै ।। ६२. तथापि सिद्धसिल तेण, अपइट्राणा आदि दे। क्षेत्रोत्पत्ति द्वारेण, इष्टानिष्ट गति इम वृत्तौ ।। ६३. जाव परक्कमे जाण, इण वचने करनें तसु। इष्टानिष्ट पिछाण, स्थिति ते अगति कहीजिये। ६४. इष्टानिष्ट लावण्य, पाषाणादिक नैं विषे । पृथ्वी आकृति जन्य, गमता अणगमता हुवै ।। ६५. इष्टानिष्ट कहाय, यशोकीर्ती पिण तसु। मणी प्रमुख मैं ताय, गुण अवगुणकारी कहै ।। ६६. इष्टानिष्ट उठाण, जाव पराक्रम पिण कडें । स्थावरत्वात पिछाण, उहाणादिक नहीं तसु ॥ ६७. पिण पूर्वे भव पेख, उढाणादिक अनुभव्यो। इष्ट अनिष्ट विशेख, तसु संस्कार वश थी वृत्तौ। ६८. *पृथ्वीकाय तणी परै कांइ, जाव वणस्सइकाय । इष्ट अनिष्टज फर्श छ जी, जाव पराक्रम ताय । ६६. सप्त स्थान बेइंदिया कांइ, भोगवता विहरेम। इष्टानिष्ट रसा तसू जी, शेष एकेंद्री जेम ।। ___सोरठा ७०. गति तेहनै त्रसत्वात, गमन रूप छै द्विविधा। तिर्यगरूप आख्यात, तास विशेषण करि उभय ।। ७१. भव गति तिर्यगरूप, उत्पत्ति स्थान विशेषणं । तिण करिकै तद्रूप, इष्टानिष्ट इति वृत्तौ ॥ ६१. अथवा यद्यपि पापरूपत्वात्तिर्यग्गतिरनिष्टव स्यात् । (वृ०प०६४३) ६२. तथाऽपीषत्प्रारभाराप्रतिष्ठानादिक्षेत्रोत्पत्तिद्वारेणेष्टा___निष्टगतिस्तेषां भावनीयेति। (वृ० प० ६४३) ६३. एवं जाव परक्कमे' त्ति वचनादिदं दृश्यम्-'इट्ठाणिट्ठा ठिई' सा च गतिवद्भावनीया। (वृ० ५० ६४३) ६४. 'इट्ठाणिठे लावन्ने' इदं च मण्यन्धपाषाणादिषु भावनीयम् । (वृ० प० ६४३) ६५. 'इटाणिठे जसोकित्ती' इयं सत्प्रख्यात्यसत्प्रख्याति रूपा मण्यादिष्वेवावसेयेति । (वृ. ५० ६४३) ६६. 'इट्ठाणिठे उट्ठाणजावपरक्कमे' उत्थानादि च यद्यपि तेषां स्थावरत्वान्नास्ति। (वृ० प० ६४३) ६७. तथाऽपि प्राग्भवानुभूतोत्थानादिसंस्कारवशात्तदिष्ट मनिष्टं वाऽवसेयमिति । (वृ० ५० ६४३) ६८. एवं जाव वणस्सइकाइया। (श० १४॥६३) ६९. बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा रसा, सेसं जहा बेइंदियाणं । (श० १४१६३) ७०. गतिस्तु तेषां त्रसत्वाद्गमनरूपा द्विधाऽप्यस्ति । (वृ० प० ६४३) ७१. भवगतिस्तूप्पत्तिस्थानविशेषेणेष्टानिष्टाऽवसेयेति । (वृ० प० ६४३) *लय : अब लगजा प्राणी ! चरणे साध र जी २५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. *अष्ट स्थान तेइंदिया कांइ, भोगवता विहरेम । इष्टानिष्ट गंधा कह्या जी, शेष बेइंद्री जेम ।। ७३. नव स्थानक चउरिदिया कांइ, भोगवता विहरेम । इष्टानिष्टज रूप छै जी, शेष तेइंदिया जेम ।। ७२. तेइंदिया अट्ठट्ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेइंदियाणं । (श० १४१६५) ७३. चउरिदिया नबढाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं । (श० १४.६६) ७४. पंचिदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पच्चणुब्भव माणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा सद्दा जाव पुरिसक्कार-परक्कमे। ७५. एवं मणुस्सा वि, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। (श० १४॥६७) ७४. तिरि पं. दश स्थानक प्रतै कांइ, भोगवता विचरंत । इष्टानिष्टज शब्द छ जी, जाव पराक्रम हंत ॥ ७५. एम मनुष्य पिण जाणवा कांइ, व्यंतर देव विचार । ज्योतिषि वैमानिक सुरा जी जिम छै असुरकुमार ।। देव उल्लंघन पद ७६. महद्धिक सुर भगवंत जी ! कांइ, जाव महेश्वर जेह । भवधारण तनु थी जुदा जी, पुद्गल अणलीधेह ।। ७७. ते तिरिछा परवत प्रतै काइ, चालता नै तत्थ । मार्ग नों रोधक तिको जी, ए तिरछो परवत्त ।। ७८. अथवा तिरछी भीत नैं कांइ, ते प्राकार वरंड । प्रमुख तणो जे भीत नै जी, अथवा पर्वत-खंड ।। ७६. देवे णं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू 'बाहिरए' त्ति भवधारणीयशरीरव्यतिरिक्तान् 'अपरियाइत्त' त्ति अपर्यादाय-अगृहीत्वा । (वृ० १० ६४३) ७७. तिरियपव्वयं वा , 'तिरियपव्वयं' ति तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं । (वृ० ५० ६४३) ७८. तिरियभित्ति वा 'तिरियं भित्ति व' त्ति तिर्यग्भित्ति-तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिकादिभित्ति पर्वतखण्डं वेति । (वृ० प० ६४३,४४) ७९. उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? नो इणठे समझें। (श० १४१६८) 'उल्लंघेत्तए' त्ति सकृदुल्लङ्घने 'पल्लंघेत्तए व' त्ति पुनः पुनर्लङ्घनेनेति । (वृ०प०६४४) ८०,८१. देवेणं भंते ! महिड्ढीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरियपव्वयं वा तिरियभित्ति वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? हंता पभू । (श० १४०६९) ८२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १४७०) ७६. एक बार उल्लंधिवा कांइ, वार-वार वलि ताहि । उलंधिवा समर्थ अछै जी? जिन कहै समर्थ नांहि ॥ ८०. महद्धिक सुर भगवंत जी ! कांइ, जाव महेश्वर जेह । भवधारण तनु थी जुदा जी, पुद्गल ग्रही नैं तेह ॥ ८१. ते तिरछा पर्वत थकी कांइ, यावत वारूंवार । उल्लंघवा समर्थ अछे जी? जिन कहै हंता धार ।। ८२. सेवं भंते ! स्वाम जी कांइ, शतक चवदमें सार । पंचमुदेशक नों भलो जी, आख्यो अर्थ उदार ॥ ८३. ढाल दोयसौ ऊपरै कांइ, पंचाणुंमी पेख । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, ___ 'जय-जश' हरष विशेख ॥ त्रयोदशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१४॥५॥ *लय : अब लगजा प्राणी । चरणे साध* जी श० १४, उ० ५, ढा०२९५ २५५ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २९६ हा १. पंचमुदेशक नारका प्रमुख छट्ठे पिण तेहिज हिवै, नैरयिक आदि का आहारादि पद २. नगर राजगृह नं विषे इम बोले भी वीर प्रति श्री २. हे प्रभु! नेरइया आहार कियां किम यावत तिके, गोतम स्वाम कर जोड़ी सिर नाम ।। आहार करे स्यूं जान ? परणमै स्यूं तसु उत्पत्ति स्थान ? 1 ४. स्यूं स्थितिका ते स्वाम जी अवस्थान हेतू ५. *जिन भाखं हो सुण गोतम ! बात, गोतम! बात, नारक दुःख मांहे रमे। पुद्गल नों हो कर आर विख्यात, स्थिती तिका कहिवाय? ! अछे ? ए चिहं प्रश्न सुहाय ॥ जीव अधिकार । सांभलजो धर प्यार ।। आर विख्यात, पुद्गल पिण तसु परिणमे ।। ६. जेह पुद्गल हो शीतादिक फास, उत्पत्ति स्थानक ते तणुं । शीत-योनिक हो उष्ण विमास, पुद्गलयोनिक इम भणुं ॥ ७. पुद्गल - ठितिया हो आयु कर्म नां जाण, नारक स्थिति हो हेतुपणां थी आण, ८. किण कारण थी जेह, प्यार पदे करि तेह २. ज्ञानावरणी हो प्रमुख कर्म बंधन द्वारे हो करिनें पामंत, *लय : ऋषि धन्नो रे चिन्तव २५६ भगवती जोड़ पुद्गल नी स्थिति जेहनें। सोरठा आयु कर्म स्थिति तेहनें ॥ १०. कर्म निदानं हो नारकपणें निमित्त, तथा कर्मबंध निमित्त जेहनें । कर्म पुदगल हो जेहनी तम् स्थित, कह्या कम्म- ठितिया तेहने ।। ते पुद्गल ठितिया हुवे । उत्तर कहिये ये तसु ॥ त पुद्गलरूप तिने लह्या । कम्मोवगा तिणसुं कह्या ॥ । ११. वलि कर्मज हो हेतुभूतेन " विपरियास अन्य पर्याय नैं । अपर्याप्ता हो पर्याप्तादि येन इम पुद्गल-स्थितिक पाय नै । , १. पञ्चमोद्देशके नारकादिजीववक्तव्यतोक्ता षष्ठेऽपि संवोच्यते । (१० १०६४४) २. रायगिहे जाव एवं क्यासि ३. नेरइया णं भंते ! किमाहारा, किपरिणामा, किनोजिया, 'किजोणीय' त्ति का योनिः उत्पत्तिस्थानं येषां (बु०प०६४४) ते ४. किंठितीया पण्णत्ता ? स्वितिश्च वयस्थानहेतुः । ( वृ० प० ६४४) ५. गोयमा ! नेरइया गं पोम्पलाहारा पोलपरिणामा ६. पोल 'ग्गजोगीय' ति पुद्गताः शीतादिरुपया योनी येषां ते तथा, नारका हि शीतयोनय उष्णयोनयश्चेति । ( वृ० प० ६४४) ७. पोली 'पोग्गलट्ठिय' त्ति पुद्गला - आयुष्ककर्मपुद्गलाः स्थितिर्येषां नरके स्थितिहेतुत्वात्ते तथा ( वृ० १०६४४) , - ८. अकस्मात् स्थितयो भवत ( वृ० प० ६४४) ९. कम्मोवगा 'कम्मोवगे' त्यादि कर्म्म- ज्ञानावरणादि पुद्गलरूपमुपगच्छन्ति बन्धनद्वारेणोपयन्तीति कर्मोपगाः । (बु०प०६४४) १०. कम्मनियाणा कम्मद्वितीया । कर्म्मनिदानं-नारकत्वनिमित्तं कर्म्म बन्धनिमित्तं वा येषां ते कम्मनिदान तथा कम्र्म्मणः कम्लेभ्यः सकाशात्स्थितिषां ते कर्मस्थितयः । ( वृ० प० ६४४) ११. कम्मुणामेव विप्परिया समेंति । -- कर्मणैव हेतुभूतेन मकार आगमिक विपर्यासंपर्यायान्तरं पर्याप्तपर्याप्तादिकमायान्ति प्राप्नुवन्ति अतस्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीति । ( वृ० प० ६४४) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ एवं जाव वेमाणिया। आहारमेवाश्रित्याह-- (श० १४१७१) (वृ० प० ६४४) १२. ओतो भाख्यो हो नारक अधिकार, एवं जाव वेमाणिया। वलि कहिये हो आहार नोंज विचार, ते निसणो भवि-प्राणिया! १३. गोयम पूछ हो प्रभु ! नारक जीव, आहार करै वीचि-द्रव्य नों। कै अवीची हो द्रव्य नोंज कहीव?श्री जिन भाखै उभय नों।। १३. नेरइया णं भंते ! कि वीचीदव्वाइं आहारेंति ? अवीचीदव्वाई आहारेति ? गोयमा ! नेरइया वीचीदव्बाई पि आहारेंति, अवीचीदवाई पि आहारेति । (श० १४१७२) .. सोरठा १४. वांछित द्रव्य विशेख, ते द्रव्य तणो अवयव वली। परस्परे कर पेख, पृथक जुदो वीचा कह्यो। १५. तेह विषे अवधार, वीचि प्रधान द्रव्य जे। ___ एक आदि सुविचार, प्रदेश करिकै ऊण जे ।। १६. एह निषेध थकीज, द्रव्य अवीची जाणवा । इहां ए भाव कहीज, चित्त लगाई सांभलो॥ १७. जितरा द्रव्य समुदाय, तिण कर आहारज पूरियै । ते एकादी ताय, प्रदेशोन वीची कह्यो। १८. परिपूर्ण फुनधार, द्रव्य अवीची जाणवा। इम कहै टीकाकार, चूर्णिकार नों मत हिवै ।। १६. आहार द्रव्य अधिकार, सर्वोत्कृष्टज आहार द्रव्य । ___ तास वर्गणा धार, कहियै तिका अवीचि द्रव्य । २०.जे एकादि प्रदेश हीन तिका छै वीचि द्रव्य । आख्यो एह विशेष, चूर्णिकार तणोज मत । २१. किण अर्थे हो प्रभ ! इम कहिवाय, नरक वीची द्रव्य आहरै। बलि अवीची हो द्रव्य आहरै ताय, हिव जिन उत्तर वागरै।। २२. जेह नारक हो ऊणो एक प्रदेश, द्रव्य प्रतै ते आहरै। तेह नारक हो वीची द्रव्य विशेष, तेह प्रतैज आहार करै।। २३. जे नारक हो प्रतिपूरण जान, द्रव्य प्रत जो आहरै। तेह नारक हो अवीची पहिछान, द्रव्य तणोज आहार करै।। २४. तिण अर्थे हो गोतम ! इम ख्यात, नारक आहार उभय करै। इम यावत हो वैमानिक जात, वीची अवीची आहरै। १४. 'वीइदव्वाई' ति वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण पृथगभावः ।। (वृ० प० ६४४) १५. तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि __एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः। (वृ० प० ६४४) १६. एतन्निषेधादवीचिद्रव्याणि, अयमत्रभावः (वृ० प० ६४४) १७. यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्याण्युच्यते। (वृ० प० ६४४) १८,१९. परिपूर्णस्त्ववीचिद्रव्याणीति टीकाकारः, चूणि कारस्त्वाहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येदं व्याख्यातवान् तत्र च याः सर्वोत्कृष्टाहारद्रव्यवर्गणास्ता अवीचिद्रव्याणि । (वृ० प० ६४४) २०. यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति । (वृ० ५० ६४४) २१. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-- नेरइया बीची दवाई पि आहारेति अवीचीदव्वाइं पि आहारेति ? २२. गोयमा ! जे णं नेरइया एगपएसूणाई पि दवाई आहारेति, ते णं नेरइया वीचीदव्वाई आहारेति । २३. जे णं नेरइया पडिपुण्णाई दब्वाई आहारेति, ते णं नेरइया अवीचीदव्वाई आहारेंति। २४. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ--नेरइया वीची दव्वाई पि आहारेंति, अवीचीदव्वाई पि आहारेंति । एवं जाव वेमाणिया। (श० १५१७३) २५. अनन्तरं दण्डकस्यान्ते वैमानिकानामाहारभोग उक्तः अथ वैमानिकविशेषस्य कामभोगोपदर्शनायाह-- (वृ० प० ६४५) २५. दिंडकांत वैमानिक तणो, उभय आहार भोग पूर्वे कह्यो। हिव काम भोगज तास कहिये, अर्थ जिन वच थी लयो। देवेन्द्र-भोग पद २६. *प्रभु ! शक्रज हो सुर इंद्र जिवार, देव संबंधी अनुभव। भोगविवा हो योग्य भोग्य उदार, भोगविवा नीं वंछा हुवै ॥ २७. किण रीते हो ते प्रवत्तै स्वाम? जिन कहै शक वंछा तदा। विकू हो इक मोटो ताम, नेमिप्रतिरूपक यदा॥ *लय : ऋषि धन्नो रे चिन्तव लिय: पूज मोटा भांजे तोटा २६. जाहे णं भते ! सक्के देविदे देवराया दिब्वाई भोग भोगाई भुंजिउकामे भवइ। भोगार्हा भोगा भोगभोगाः। (वृ०प०६४५) २७. से कहमियाणि पकरेंति? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविदे देवराया एग महं नेमिपडिरूवगं विउव्वइ । श०१४, उ० ६ ढा० २९६ २५७ Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. नेमि कहियै सोय, तेह जोग थी जोय, २६. ते प्रतिरूपक देख, स्थान इति पद शेख, ३०. *लक्ष योजन हो लांबो चोड़ो सोरठा चक्र तणी धारा कहियै नेमि चक्र वृत्तपर्णं ते पिछाण, परिधि त्रिलक्ष योजन लही। इम यावत हो अर्धांगुल जाण, किंचि विशेषज अधिक ही ॥ भणी । पिग ।। सारिखो। एहवो स्थानक विकुर्वे ।। सोरठा ३१. जाव शब्द थी जाण, सोल सहस्र नें दोय सौ । सत्तावीस पिछाण, इतरा योजन आखिया ॥ ३२. कोस तीन अवलोय, इक सय अठावीस धनु । आंगुल तेरे होय, जाव शब्द मांहे कह्या ॥ बाटुला स्थानक ऊपरे । जाव फलं मणिनां सिरे ॥ " ३३. "ते नेमि न हो प्रतिरूप सरीख, घणुं सरोखो हो भूमिभाग रमणीक ३४. म भोम वर्णन तेहनों ते यथादृष्टति सही । आलिंग-पुक्खर मुरज- मुखपट, प्रवर तदवत सम लही ।। ३५. फुन तथा छाया सहित ते, बलि प्रभा सहित विद्याणिये । वर मरीचि ते उद्योत सहितज, भूमिभाग वखाणियै ॥ ३६. नानाविधे जे पंच वर्णे, मणी कर उपशोभितं । शुद्ध वर्ण गंध रस फर्म ते मणि नॉज वर्णन भाषितं ॥ 3 ३७. "तेह नेमि हो प्रतिरूपज ताम, वह मध्य देश भागे सही । एक मोटो हो प्रासाद अमाम, विकुर्वे मुकुट समान ही ॥ ३८. तेह ऊंची हो पंच सय योजन, योजन असे विषम ही। अब्भुगय हो ऊंचो तास वर्णन, जाव प्रतिरूप लग कही ॥ सोरठा ३६. वर प्रासाद पिछाण, वर्णक तास बखाणिये । ते पूरववत जाण, हिव कहिये ऊपर तलो ।। ४०. * प्रासादज हो अवतंस नों रूप उल्लोए ऊपरलो तलो । वर पद्मज हो फुन लता तद्रूप, भांति करी विचित्रज भलो ॥ *लय : ऋषि धन्नो रे चितव +लय पूज मोटा भांजे तोटा २५८ भगवती जोड़ ४१. फूल जावत हो प्रतिरूप पिछाण जाय शब्द में जाणवो। प्रासादनीक हो देखवा जोग्य जाण, अभिरूप पाठ आणवो ॥ २८, २९. नेमि: - चक्रधारा तद्योगाच्चक्रमपि नेमि:तत्प्रतिरूपकं वृत्ततया तत्सदृशं स्थानमिति शेषः । ( वृ० प० ६४५) २०. एवं जोपसपसह आयामविवखंभेणं, तिष्णि जोयणसहस्साइं जाव अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहियं परिवखेवेणं । २१. वात्करणादिदं दृश्यं सोलस व जोपणसहसा दो य सयाई सत्तावीसाहियाई । ३२. कोसतियं अट्ठावीसाहियं धणुसय ति । ( वृ० प० ६४५) तेरस य अंगुलाई ( वृ० प० ६४५) ३३. तस्स मिडियमस्य उपरि बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो । ३४. भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो यावन्मणीनां स्पर्शवर्णक आलिंगपोखरे इत्यर्थः स चायं से जहा नामए 1 ( वृ० प० ६४५) उन्होएहि । ( वृ० प० ६४५) ३६. नाणाविपचवन्नेहि मणीहि उवसोहिए तंजहाकिटेहि ५ इत्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शको मीना वाच्य इति । (बु०प०६४५) ३७. तस्स मिडियगस्स बहुमज्भदेखभागे, एत्व णं महं एवं पासायवडेंसगं विउव्वइ । २०. पंच जोवनमा उ उच्चत्तंग अद्वाइ जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गय मूसिय-पहसियमिव वण्णओ जाव पडिरूवं । वा मुइंगपोक्खरेइ वा' इत्यादि । २५. सच्चा सप्पभेहि समरोह पूर्ववत् ३९. दि प्रासादवर्षको वाच्य इत्यर्थः स ( वृ० प०६४५) ४०. तस्स णं पासायवडेंसगस्स उल्लोए पउमलया भत्तिचित्ते । 'उल्लीए' त्ति उल्लोक: उल्लोचो वा — उपरितलं.... ...भक्तिभि :- विच्छित्तिभिश्चित्रो यः स यथा । ( वृ० प० ६४६ ) ४१. जाव पडिरूवे । यावत्करणादिदं दृश्यं 'पासाइए अभिरूवे' त्ति । दरम ( वृ० प०६४६) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. अवतंसक हो प्रासाद रै मांय, बहु सम रम्य भूमी विषे । जाव मणि नां हो फर्श महा सुखदाय, मणिपीठिका तिहां अखै ।। ४३. अष्ट योजननी हो मणिपीठिका तेह, लांबी चोड़ी जाणिय । वैमानिक नीं हो संबंधिनी जेह, व्यंतरादि सम नाणियै ।। ४२. तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे जाव माणीणं फासो। ४३. मणिपेढिया अदुजोयणिया जहा वेमाणियाणं । यथा वैमानिकानां सम्बंधिनी न तु व्यन्तरादिसत्केव । (वृ० प० ६४६) ४४. तस्या अन्यथास्वरूपत्वात् । (वृ०प०६४६) सोरठा ४४. वृत्ति विषे इम वाय, अन्य प्रकार करी तसु । स्वरूपपणां थी ताय, इम वैमानिक सारखी ।। ४५. ते बहु सम रमणीक, भूमि-भाग ने मध्य बहु । इक महा इहां सधीक, मणिपीठिका विकुर्वे ।। ४६. योजन अष्ट प्रमाण, लांबी नैं चोड़ी कही। चिहुं योजन नी जाण, बाहिर ते जाडी अछ ।। ४५. 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं मणिपेढियं विउव्वइ, (वृ० १०६४६) ४६. सा णं मणिपेढिया अट्ट जोयणाइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं । (वृ० प० ६४६) ४७. सव्वरयणामई अच्छा जाव पडिरूव' त्ति। (वृ० प० ६४६) ४८. तीसे णं मणिपेढियाए उवरि मह 'एगे देवसयणिज्जे' विउन्वइ, सयणिज्जवण्णओ जाव पडिरूवे । ४७. सर्व रत्न रै मांय, आछी अति सुंदरपणें । जावत इहां कहाय, प्रतिरूप पहिछाणियै ।। ४८. *मणिपीठिका हो ऊपर महा एक, विकुर्वै देव-शय्या सही। शय्या नों हो वर्णक सुविशेख, यावत प्रतिरूपे कही ।। सोरठा ४६. शय्या वर्णक एव, सुर नी शय्या नों इसो। वर्णावास कहेव, वर्णक व्यास विस्तार इम।। ४९. 'सयणिज्जवन्नओ' त्ति शयनीयवर्णको वाच्यः, स चैवं---'तस्स णं देवसयणिज्जस्स इमेयारूवे वन्नावासे पण्णत्ते' वर्णकव्यास:-वर्णकविस्तरः । (वृ० प० ६४६) ५०. वर्ण श्लाघा जाण, यथावस्थित स्वरूप नों। ___कीर्तन तास वखाण, वर्ण कहीजे तेहनें ।। ५१. तसु आवास निवास, ग्रंथज पद्धति रूप जे। वर्णावास विमास, वर्णक निवेश इम अरथ ।। ५२. नाना मणि रै मांहि, प्रतिपाया तेहनां अछ । सुवर्ण पाया ताहि, ते शय्या नां शोभता ।। ५३. नाना मणी मझार, पागा ऊपरला मोगरा। इत्यादिक अवधार, वर्णन शय्या नों घणो।। ५४. *तिण अवसर हो शक्र देवेंद्र राय, आठुई अग्रमहीषियां। ते संघाते हो प्रासाद रै मांय, स्व परिवार करी तिहां ॥ ५५. बे अनीकज हो ते सेन्य सधीक, नाचणनोंज अनीक ही। वलि गंधर्व हो गावण नों अनीक, ते संघात सुरेंद्र ही ।। ५२,५३. त जहा---'नाणामणिमया पडिपाया सोवन्निया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई' इत्यादिरिति । (वृ० प० ६४६) ५४. तत्थ णं से सक्के देविदे देवराया अट्टहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहिं। ५५. दोहि य अणिएहि-नट्टाणिएण य गंधवाणिएण य सद्धि । सोरठा ५६. नाटक कारक जाण, अनीक ते जन समूह छै। गंधर्व अनीक माण, इणहिज रीते जाणवो॥ ५६. 'नट्टाणीएण य' त्ति नाट्यं-नृत्यं तत्कारकमनीकं जनसमूहो नाट्यानीकं, एवं गन्धर्वानीकं नवरं गन्धर्व-गीतं । (वृ०प०६४६) *लय : ऋषि धन्नो रे चिन्तव श०१४ उ०६ द्वा० २९६ २५९ Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. महयाहयनट्ट जाव (सं० पा०) दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। (श० १४१७४) ५७. *मोटो आहत हो नृत्य जावत सार, देव संबंधी पवर ही। भोगविवा हो योग्य भोग उदार, भोगवतो विचरै सही ।। ___सोरठा ५८. जाव शब्द थी न्हाल, गीत अनै वाजिंत्र वलि । तंती नैं तल ताल, प्रमुख वाजंत्र रव करी ।। ५६. *ईशाणज हो देव-इंद्र जिवार, देव संबंधिया सरस ही। जिम आख्यो हो शक नों अधिकार, तिमज ईशाण नों सर्व ही। ५८. गीय-वाइय-तंती-तल- ताल-तुडिय- धणमुइंगपडुप्प वाइयरवेणं ! ५९ जाहे ईसाणे देविदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिउकामे भवइ से कहमियाणि पकरेति ? जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं । ६०. एवं सणंकुमारे वि, नवरं–पासायवडेंसओ छ जोयणसयाइं उड़ढं उच्चत्तेणं, तिण्णि जोयणसयाई विक्खंभेणं, ६१. मणिपेढिया तहेव अट्ठजोयणिया। तीसे णं मणि पेढियाए उवरिं, एत्थ णं महेगं सोहासणं विउव्वइ, ६२. सनत्कुमारदेवेन्द्रः सिंहासनं विकुरुते न तु शक्रेशानाविव देवशयनीयं । (वृ० प० ६४६) ६३. स्पर्शमात्रेण तस्य परिचारकत्वान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः। (वृ० प०६४६) ६४. सपरिवार भाणियव्वं । तत्थ णं सणंकुमारे देविदे देवराया बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीहि । ६०. वलि कहिवो हो इम सनतकुमार, णवरं प्रासादवडंस ही। छसौ योजन हो ऊंचपणे अवधार, तीनसौ योजन विखंभ ही। ६१. मणीपीठिका हो तिहिज सुरंग, योजन अष्ट तणी हुवै। तिण ऊपर हो इहां मोटो सुचंग, एक सिंहासण विकुर्वै ॥ सोरठा ६२. सनतकुमार सुरिंद, सिंघासण प्रति विकुर्वै । पिण शय्या न करिंद, शक्र ईशाण तणी परै। ६३. स्पर्श मात्रज एह, तस् परिचारपणां थकी। शय्या तणोज जेह, तास प्रयोजन छै नथी । ६४. *वलि भणवो हो पोता नों परिवार, तिहां सनतकुमार सुरिंद नैं । सामानिक हो सुर बोहित्तर हजार, ते सुर साथै प्रसन्नमर्ने । ६५. जाव चौगुणा हो आत्मरक्षक ख्यात, __ बहु तृतीय कल्पवासी सही। वैमाणिक हो देव देवी संघात, परिवरयो यावत विचर ही ॥ ६६. ओ तो आख्यो हो जिम सनतकुमार, तिम जाव पाणत इंद ही। वलि अच्युत हो इंद्र लग अधिकार, णवरं एतलो विशेष ही ।। ६७. जको भाख्यो हो जेहनों परिवार, ते तेहनोंज कहीजिये। पूर्वे आख्यो हो तोजा नों अधिकार, हिव अन्य एम लहीजियै ॥ सोरठा ६८. सामानिक सुविचार, सित्तर सहस्र माहेंद्र नै । आत्मरक्षक सार, चतुर्गुणा चिहुं दिशि विषे।। ६६. साठ सहस्र ब्रह्म सार, सहस्र पचासज लंतके । ___शुक्र चालीस हजार, तीस सहस्र सहसार नैं ।। *लय : ऋषि धन्नो रे चन्तर्व ६५. जाव चउहि य बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि य बहूहि सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिवुडे महयाहयनट्ट जाव विहरइ। ६६. एवं जहा सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अच्चुओ, नवरं ६७. जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियब्वो। ६८. एवं माहेन्द्रस्य तु सप्ततिः सामानिकसहस्राणि चतस्रश्चाङ्गरक्षसहस्राणां सप्ततयः । (वृ० प० ६४६) ६९. ब्रह्मणः षष्टिः सामानिकसहस्राणां लान्तकस्य पञ्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारस्य त्रिंशत् । (वृ० प० ६४६) २६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. आणत पाणत जोय, नवमा दशमा कल्प नों । एक इंद्र अवलोय, बीस सहस्र सामानिका || ७१. आरण अच्युत सार, ग्यारम बारम कल्प नों । एक इंद्र अवधार, सामानिक दश सहस्र छै ॥ ७२. सामानिक ए ख्यात, आत्मरक्षक सर्व विषे अवदात, अन्य ७२. पण जे हो प्रासाद ने सोय, चउगुणां । स्थान थी आखियो || विमाण न हो ऊंचपणो अवलोय, तेह सरीखी ७४. उंचपणां थी हो अर्द्ध-अर्द्ध विस्तार, निज निज कल्प विषे जिको । जाव अच्चु न हो नबसौ योजन सार, तिकोj ॥ ए चोड़ापणं कहीजिये । *लय ऋषि धन्नो रे चिन्तर्व : ७५. बलि योजन हो सादा चिसो विखंभ, ऊंचपर्णेज लहीजिये ॥ सामानिक हो दश सहस्र अदंभ, अच्युत देवेंद्र छ तिहा सोरठा ७६. सनत माहेंद्र जान, ॥ खसी योजन विहं तणां । ऊंचापण विमान प्रासाद पिण ऊंचा इता || ७७. ब्रह्म लंतके धार, ऊंचा योजन सप्त सय । शुक्र अनैं सहसार, आख्या योजन अष्ट सय ।। ७८. पाणत इंद नें पेख, अच्युत इंद्र तणै वलि । नव सय योजन लेख, विमाण ने प्रासाद बिहुं ॥ ७६. ऊंचपणों आख्यात, चोड़ा विस्तारे करी । अर्द्धपण अवदात, तेह विसंभ कहीजिये ॥ प्रमुख कल्पना अधिप ईद । निज परिवार सहीत जे ॥ जायै तेह समक्ष पिण । ते अविरुद्धपणां थकी || सामानिकादिक सहित जे । नेमि प्रतिरूपक विषे ॥ करे काय परिचारणा । विरुद्धपणां थी मंद, लज्जा योग्य तेगे करी ।। ४. नृत्य गंधर्व अनीक, तेह संपात सुरिद वे तनु परिचार सधीक, नेमि प्रतिरूपक ८०. इहां जे सनतकुमार, सामानिकाज सार, १ नेमि प्रतिरूपेह स्पर्श आदि करेह, २. अने ईशाण, नहिं जाये ते स्थान ८३. ते समक्ष इंद न विषे ॥ यावत विचरं छं जिहां ॥ ७०. प्राणतस्य विंशतिः ७१. अच्युतस्य तु दश सामानिकसहस्राणि । (बु०प०६४६) ७२. सर्वत्रापि च सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा इति । ( वृ० प०६४६) ७३. पासायउच्चत्तं जं सएसु-सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चतं । ( वृ० प० ६४६ ) ७४. अद्धद्धं वित्थारो जाव अच्चुयस्स नवजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं । ७५. अद्धपंचमाई जोयणसयाई विक्खंभेणं । तत्थ णं अच्चुए देविदे देवराया दर्साह सामाणियसाहस्सीहि जाव विहरइ । ७६. सनत्कुमार माहेन्द्रयोः षड् योजनशतानि प्रासादस्योचचत्वं । (बु०प०६४६) ७७. ब्रह्मलान्तकयोः सप्त शुक्रसहस्रारयोरष्टौ । ( वृ० प०६४६) ७८. प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति ( ० ० ६४६ ) ८०,८१. इह च सनत्कुमारादयः सामानिकादिपरिवारसहितास्तत्र नेमिप्रतिरूपके गच्छन्ति, तत्समक्षमपि स्पर्शादिप्रतिवारणाया अविद्धत्वात्। ८२. शक्रेशानी तु न तथा । ८३. सामनिकादिपरिवारसमक्षं लज्जनीयत्वेन विरुद्धत्वादिति । ( वृ० प०६४६) ( वृ० प० ६४६) काय प्रतिचारणाया ( वृ० प० ६४६ ) श० १४, उ०६, ढा० २९६ २६१ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५. सेस त चेव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १४१७५) (श० १४१७६) ८५. *सेसं तं चेव हो सेवं भंते ! स्वाम, चवदमा शतक तणो कह्यो । उद्देशो हो ओ तो छठो अमाम, अर्थ अनूपम म्है लह्यो । ८६. दोयसौ नै हो छन्नूमी ढाल, भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी। सुख संपति हो 'जय-जश' सुविशाल, गण वृद्धि तास पसाय थी। चतुर्दशशते षष्ठोद्देशकार्थः ॥१४॥६॥ ढाल : २९७ दहा १. षष्ठोद्देशकान्ते प्राणताच्युतेन्द्रयो गानुभूतिरुक्ता, सा च तयोः कथञ्चित्तुल्येति तुल्यताऽभिधानार्थः सप्तमोद्देशकः । (वृ०प०६४६) १. कह्या अनंतरुद्देशके, पाणत अच्युत भोग । किणहि प्रकारे तुल्य ते, सप्तम तुल्य प्रयोग ॥ गोतम-आश्वासन पद २. नगर राजगह नै विषे, यावत परषद जान । जिन वंदी पाछी वली, पहुंची निज-निज स्थान ।। ३. वृत्ति विषे इहविधि कह्यो, गोतम ने भगवान । केवलज्ञान अप्राप्ति ते, खेद-सहित प्रभु जान ।। २. रायगिहे जाव परिसा पडिगया। ३-५. तत्र किल भगवान् श्रीमन्महावीरः केवलज्ञानप्राप्त्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनायात्मनस्तस्य च भाविनी तुल्यतां प्रतिपादयितुमिदमाह (वृ०प०६४७) ४. गोतम स्वामी नैं तदा, आश्वासना निमित्त । आमंत्री तेड़ी करी, आखै वाण उचित्त ।। ५. आपण नै गोतम तणे, होणहार तुल्य भाव । कहिवा नैं अर्थ प्रभु, आखै इण प्रस्ताव ।। +जिनेश्वर भाखै जी, शीस प्रति दाखै जी, होजी म्हारा देव जिनेंद्र दयाल । गोयम नी जोड़ी जी, धर्म नां धोरी जी ।। [ध्रपदं] ६. हे गोतम! इहविध प्रभु कांइ, आमंत्रण करि ताय । भगवंत श्री महावीर जी कांइ, गोतम प्रति कहै वाय ॥ ७. चिर संसिटोसि मे गोयमा! कांइ, घणां काल लग ताय । तथा अतोत अद्धा विषे कांइ, चिर काले कहिवाय ।। ८. स्नेह थकी संबद्ध हुतो कांइ, मुझ सं थारे जाण । ___ अथवा म्हारै तुझ थकी कांइ, स्नेह अधिक पहिछाण । *लय : ऋषि धन्नो रे चिन्तवै लय : पायल वाली पदमणी ६. गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी७. चिर संसिट्ठोसि मे गोयमा ! 'चिरसंसिट्ठो सि' त्ति चिरं बहुकालं यावत् चिरे वा–अतीते प्रभूते काले (वृ०प०६४७) ८. संश्लिष्ट:-स्नेहात्सम्बद्धश्चिरसंश्लिष्ट: 'असि' भवसि 'मे' मया मम वा त्वं हे गौतम ! (वृ० प० ६४७) २६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. चिरसंथुये मे गोयमा ! काइ, अद्धा घणे अतीत । स्नेह थकी प्रसंसियो काइ, तन मन सूं धर प्रीत ।। १०. चिरपरिचिते मे गोयमा ! कांइ, घणी काल लग हित । पुनः पुनः दर्शन करी कांइ, मुझ सेतो परिचित ।। ११. चिरजसिए मे गोयमा! कांइ, अद्धा घणे अतीत । सेव्यो प्रतीतज पात्र छै काइ, तुझ मुझ अधिकी प्रीत ।। ९. चिरसंथुओसि मे गोयमा ! 'चिरसंथुओ'त्ति चिरं-बहुकालम् अतीतं यावत् संस्तुतः-स्नेहात्प्रशंसितश्चिरसंस्तुतः । (वृ० प० ६४७) १०. चिरपरिचिओसि मे गोयमा ! "चिरपरिचिए' त्ति पुनः पुनदर्शनतः परिचितश्चिरपरिचितः । (वृ० ५० ६४७) ११. चिरजुसिओसि मे गोयमा ! "चिरजुसिए'त्ति चिरसेवितश्चिरप्रीतो वा। (वृ० ५० ६४७) १२. चिराणुगओसि मे गोयमा ! 'चिराणुगए'त्ति चिरमनुगतो ममानुगतिकारित्वात् । (वृ० प० ६४७) १३. चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! 'चिराणुवत्तीसित्ति चिरमनुवृत्तिः--अनुकूलवर्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः। (वृ०प० ६४७) १२. चिराणुगतेसि मे गोयमा ! कांइ, घणा काल लग ख्यात। अनु पश्चात गमन कियो, मम अनुगतिकारित्वात ॥ १३. चिराणवित्तिसि मे गोयमा! कांइ, घणां काल सुविशाल । मम अनुवर्तन तूं कियो, अनुकूल वर्तवो न्हाल ।। १४. इदं च चिरसंश्लिष्टत्वादिकं क्वासीत् ? इत्याह (वृ० प० ६४७) १५. अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए भवे।। अनन्तरं-निर्व्यवधानं । (वृ० ५० ६४७) सोरठा १४. ए पूर्वे आख्यात, चिर स्नेहादिक पद जिके । ते किण स्थानक थात, कहियं छै आगल तिको ।। १५. *अंतर रहितज जाणवो कांइ, देवलोक रै माय । अंतर रहित मनु भव विषे कांइ, तुझ मुझ प्रीति सवाय ।। सोरठा १६. इम निश्चै भगवान, त्रिपृष्ठ नां भव नै विषे । गोतम सारथि जान, चिर स्नेहादिक सह हंता ।। १७. अन्य भवे पिण एम, पद सगलाई संभवै । गाढपणें करि प्रेम, स्नेह रूप मुझ साथ तुझ ।। तुल्यता पद १८. स्नेह प्रतापे सोय, केवलज्ञान न ऊपजै । ___ स्नेह क्षये अवलोय, तुझ नैं पिण केवल हुस्यै ॥ १६. ते माटै मन मांय, अधति प्रति म करो तुमे । वृत्ति विषे ए वाय, आख्यो तिण अनुसार थी। २०. *किं बहुना कहियै घणुं कांइ, मरण थकी सुविचार । तनु नां भेद हेतू थकी कांइ, सुण आगल समाचार ।। १६. तत्र किल त्रिपृष्ठभवे भगवतो गौतमः सारथित्वेन चिरसंश्लिष्टत्वादिधर्मयुक्त आसीत् । (वृ. ५० ६४७) १७,१८. एवमन्येष्वपि भवेषु संभवतीति, एवं च मयि तव गाढत्वेन स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते भविष्यति च तवापि स्नेहक्षये। (वृ० प० ६४७) १९. तदित्यधृति मा कृथा इति गम्यते । (वृ० प० ६४७) २१. एह मनुष्य नां भव थकी काइ, चव ने आपे दोय । हुसां सरीखा तुल्य तिहां कांइ, किंचित फर न होय ।। २०. किं परं मरणा कायस्स भेदा । किं बहुना 'पर'ति परतो 'मरणात्' मृत्योः, किमुक्त भवात ? कायस्य भेदाद्धेतोः। (वृ०प०६४७) २१. इओ चुता दो वि तुल्ला 'इओ चुय' त्ति 'इतः' प्रत्यक्षान्मनुष्यभवाच्च्युतौ 'दोवि'त्ति द्वावप्यावां तुल्यौ भविष्याव इति योगः । तत्र तुल्यो समानजीवद्रव्यौ। (वृ०प०६४७) २२. एगट्ठा। 'एकट्ट' त्ति 'एकार्थी' एकप्रयोजनावनन्तसुखप्रयोजनत्वात् एकस्थो वा-एकोत्राश्रितौ सिद्धिक्षेत्रापेक्षयेति। (वृ० प० ६४७) २२. क्षेत्रज एक विषे रह्या कांइ, सिद्ध-क्षेत्र पेक्षाय । ___ एक प्रयोजन बिहुँ तणे कांइ, अनंत सुख नों ताय ।। *लय : पायल वाली पदमणी श०१४, उ०७, ढा० २९७ २६३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Onity Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. विशेष रहितज जिम हुवै कांइ, नानापणां रहीत । हुस्यै ज्ञानादि पर्याय ते कांइ, बिहुं नां तुल्य प्रतीत ॥ २४. 'भगवंत श्री महावीर जी कांइ, गोतम नैं इह रीत । दाखी बात दयाल जी कांइ, वारू अर्थ वदीत ॥ २५. दशमें उत्तराध्येन में कांड, गौतम ने कहै वीर स्नेह छांड करि आतमा कांद, शरदि कुमुद जिम नीर ॥ २६. स्नेह तणां प्रताप सूं कांइ, गोतम गणधर ताम । केवलज्ञान न पामिया कांइ, एहवो स्नेह निकाम ॥ २७. स्नेह राग संसार में कांइ, तिणमें धर्म परूपियो कांड, २८. वीर प्रभू नां तनु तणां कांइ, मोटो माया जाल । अंध अज्ञानी बाल ॥ पुद्गल सूं जे राग । तिणसं केवल नां लह्या कांइ, गोतम जी महाभाग || २६. तो असंजती नो तनु थकी कांइ, करै राग मन मांय । पंखे तेहनों जीवणो कांद, तिणमें धर्म न धाय ॥ ३०. इम जाणी उत्तम नरां कांइ, स्नेह राग ए पाप । दशमो जिनजी दाखियो कांइ, तिणमें धर्म न थाप ॥ ' [ ज.स.] ३१ देश चदम सप्तम तणो, बेसौ सत्ताणूमी डाल । भिक्षु भारीमात ऋषिराय थी, सुख 'जय जय' हरष विशाल || ढाल : २९८ हा ! १. भावि तुल्यता आपणी, जिम से प्रभुवर । तेह अन्य पिण जानें तो भलूं इम गोयम पूछेह ॥ भावी तुल्यता-परिज्ञान पद * जय जय ज्ञान जिनेंद्र नों, जयवंता गोतम गणधर गुणनिला, प्रभु पास एह अर्थ आपां जाणां देखां अछां, वारू रीत विधान ॥ २. भावि तुल्यता आपणी, भगवान । २. केवलज्ञान करी तुम्हे, तुझ उपदेश थकी अम्हे 1 "लय सोता दे रे ओभो २६४ भगवती जोड़ वीर ! [ ध्रुपदं ] वजीर ॥ जाणो साख्यात । जाणां जगनाथ ! २३. अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो । ( श० १४।७७) 'अविसेसमणाणत्त 'त्ति 'अविशेषं' निर्विशेषं यथा भवत्येवम् 'अनानात्वा' तुल्यज्ञान दर्शनादिपर्यायाविति । ( वृ० प० ६४७ ) २५. उत्तरा० १०।२८ १. एवं भाविन्यामात्मतुल्यतायां भगवताऽभिहितायां 'अतिप्रियमद्वेष' मितिकृत्वा दान्योवेनमर्थं जानाति सदा साधुर्भयतीत्यनेनाभिप्रायेण गौतम एवाह( वृ० प० ६४७ ) २. जहा णं भंते ! वयं एयमट्ठ जाणामो पासामो । 'एतमर्थम्' आयोभवितुल्यतासवाणं । ( वृ० प० ६४७ ) ३. नत्र यूयं केवलज्ञानेन जानीय वयं तु भवदुपदेशात्। ( वृ० प० ६४७) Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.तिम अनुत्तरोपपातिका, एह अर्थ उदार । ___ जाणे छै भगवंत जी! वलि देखै सार? ५. जिन कहै हता अम्है तुम्है, जाणां देखां ए अर्थ । तेम अनुत्तर नां सुरा, जाणे देखै तदर्थ ॥ ६. किण अर्थे जाव देखता ? तब भाखै स्वाम। अनुत्तरोपपातिक तणे, अवधिज्ञान अमाम ।। ७. मनोद्रव्य नी वर्गणा, अनंती अवधार । विशिष्ट अवधि करी सूरा, जाण देखै उदार ।। ८. मनोद्रव्य वर्गणा विषे, जसू विषय विख्यात । एहवो अवधिज्ञान जेहनें, लद्धाओ लब्धिमात ॥ ४. तहा णं अणुत्तरोववाइया वि देवा एयम8 जाणंति पासंति ? ५. हंता गोयमा ! जहा णं वयं एयम8 जाणामो-पासामो, तहा णं अणुत्तरोववाइया वि देवा एयम? जाणंतिपासंति । (श० १४१७८) ६,७. से केणठेणं जाव (सं. पा.) पासंति ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अणंताओ मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति। ८. 'मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ' त्ति मनोद्रव्यवर्गणा लब्धास्तद्विषयावधिज्ञानलब्धिमात्रापेक्षया । (वृ०प० ६४८) ९. 'पत्ताओ' त्ति प्राप्तास्तद्रव्यपरिच्छेदतः । (वृ० प० ६४८) १०. 'अभिसमन्नागयाओ' त्ति अभिसमन्वागताः तद्गुणपर्यायपरिच्छेदतः । (वृ० प० ६४८) ६. पत्ताओ ते मनोद्रव्य नैं, जाणवै करि सोय। पामी छै प्रगटपणे, लब्धिमात्र न कोय ॥ १०. अभिसमणागयाओ तिको, मनोद्रव्य नां जेह । गुण पर्याय नैं जाणवै, सन्मुख थइ तेह ।। सोरठा ११. यद्यपि गुण पर्याय, अभेद छै तो पिण इहां । सहभावी गुण थाय, क्रमभावी पर्याय है। १२. सहभावी इक साथ, क्रमभावी अनुक्रम हस्य । इण लक्षण करि ख्यात, कह्यं भेद पर्याय गुण ।। १३. *विशिष्ट अवधिज्ञाने करी, मनोद्रव्य जाणंत । देखै अवधि दर्शण करी, तिण अर्थे ए हुंत ॥ सोरठा १४. इहां भावार्थज एह, अनुत्तर विमाण नां सुरा। विशिष्ट अवधिज्ञानेह, जाणे मनोद्रव्य वर्गणा ।। १३. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव (सं. पा.) पासंति । (श० १४१७९) १५. ते मनोवर्गणा धार, आपां री अणदेखवै । अयोगि अवस्था मझार, मुक्ति गमन जाणे तदा ।। १६. तिण कारण सुर तेह, भावि तुल्यता आपणी। जाणे देखै जेह, एहवं आख्यो वृत्ति में । १७. पूर्व तुल्यता पेख, तास प्रक्रम थकी हिवै। तुल्यहीज सुविशेख, कहियै छै निसुणो हिवै। तुल्यता पद १८. कतिविध तुल्य कह्यो प्रभु ! जिन कहै छह प्रकार । द्रव्य तुल्य ते द्रव्य थी, तुल्य कहियै विचार ।। १४. अयमत्र गर्भार्थ:-अनुत्तरोपपातिका देवा विशिष्टावधिना मनोद्रव्यवर्गणा जानन्ति पश्यन्ति च । (वृ०प० ६४८) १५. तासां चावयोरयोग्यवस्थायामदर्शनेन निर्वाणगमनं निश्चिन्वन्ति । (वृ०प० ६४८) १६. ततश्चावयोर्भावितुल्यतालक्षणमर्थ जानन्ति पश्यन्ति चेति व्यपदिश्यत इति । (वृ० प० ६४८) १७. तुल्यताप्रक्रमादेवेदमाह- (वृ० प० ६४८) १८. कतिविहे णं भंते ! तुल्लए पण्णत्ते ? गोयमा ! छबिहे तुल्लए पण्णत्ते, तं जहा----- दव्वतुल्लए। १९. खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए संठाणतुल्लए। (श० १४।८०) १६. क्षेत्र तुल्य काल तुल्य हि, भव तुल्य पिछाण । भाव तुल्य ए पंचमो, वलि तुल्य संठाण ॥ *लय : सीता दे रे ओलुंभड़ो शा० १४, उ०७, द्वा० २९८ २६५ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-दव्वतुल्लए दव्वतुल्लए। २१. गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले। २२. परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दव्वओ नो तुल्ले । २३. दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले । २४. दुपएमिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले । २५. एवं जाव दसपएसिए । २०. किण अर्थे भगवंत जी! इम कहिये एह । द्रव्य तुल्य द्रव्य तुल्य जे? जिन भाखै तेह ॥ २१. परमाणु पुद्गल तिको, परमाणु पुद्गल पेख । द्रव्य थकी सरिखो अछ, द्रव्य तुल्य ए देख । २२. तथा पुद्गल परमाणुओ, परमाण थी ताहि। अन्य पुद्गल द्रव्य तेहन, द्रव्य थी तुल्य नांहि ।। २३. दोय प्रदेशिक खंध ते, द्विप्रदेशिक नैज । द्रव्य थकी ए सारिखो, द्रव्य तुल्य कहैज ॥ २४. दोय प्रदेशिक खंध ते, द्वि प्रदेशिक थीज। अन्य खंध नैं द्रव्य थी, सरीखो न कहीज ।। २५. इम यावत दश प्रदेशिया, खंध लग कहिवाय । सरिखो तुल्य कहीजिये, असदृश्य तुल्य नाय ।। २६. तुल्य संख्यात प्रदेशियो, दूजो तुल्य संख्यात । प्रदेशिक जे खंध नैं, द्रव्य थी तुल्य थात ।। २७. तुल्य संखेज प्रदेशियो, दूजो तुल्य संख्यात । तेह थकी जे अन्य में, तुल्य नहीं कहात ।। २८. इम तुल्य असंख प्रदेशियो, इम वलि तुल्य कहत । अनंत प्रदेशिक खंध नों, पूरववत वृतंत ॥ २६. तिण अर्थे करि गोयमा ! इम कहिये जगीस । द्रव्य तुल्य द्रव्य तुल्य ए, वलि पूछ शीस ।। ३०. किण अर्थे भगवंत जी! इम कहिये बात । क्षेत्र तुल्य क्षेत्र तुल्य ए? तब भाखै नाथ ।। ३१. एक प्रदेश अवगाहिया, पुद्गल अवलोय । एक प्रदेश अवगाढ नैं, क्षेत्र थी तुल्य होय ।। ३२. एक प्रदेश अवगाढ ते, दूजो एक प्रदेश । अवगाह्या थी अन्य नैं, क्षेत्र तुल्य न लेश ।। ३३. एवं जावत जाणिय, दश आकाश प्रदेश । अवगाह्या पुद्गल तिके, पूर्व रीत कहेस । ३४. तुल्य संख्यात आकाश नां, प्रदेश पिछाण । अवगाह्या पुद्गल तणो, पूर्व रीत वखाण ।। २६. तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले । २७. तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियवइरि तस्स खंधस्स दवओ नो तुल्ले । २८. एवं तुल्लअसंखे ज्जपएसिए वि, एवं तुल्लअणंतपएसिए वि। २९. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-दव्बतुल्लए दव्वतुल्लए। ३०. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-खेत्ततुल्लए खेत्ततुल्लए? ३१. गोयमा ! एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तमओ तुल्ले। ३२. एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ नो तुल्ले । ३३. एवं जाव दसपएसोगाढे । ३४. तुल्लसंखेज्जपएसोगाढे पोग्गले तुल्लसंखेज्जपएसो गाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले, तुल्लसखेज्जपएसोगाढे पोग्गले तुल्लसंखेज्जपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ नो तुल्ले । ३५. एवं तुल्लअसंखेज्जपएसोगाढे वि । ३५. एवं तुल्य आकाश नां, असंख्यात प्रदेश । अवगाह्या पुद्गल अपि, कहिवा सुविशेष ।। ३६. ते तिण अर्थे जाव ही, क्षेत्र तुल्य संवेद । किण अर्थे कहिये तिको, काल तुल्य संभेद ।। ३७. पुद्गल एक समय स्थिति, वलि द्वितीय कहीज। एक समय स्थितिक तिणे, तुल्य काल थकीज ।। ३८. पुद्गल एक समय स्थिति, वलि दूजो कहाय । घणां समय नी स्थितिक नैं, काल थी तुल्य नाय ।। ३६. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ--खेत्ततुल्लए खेत्ततुल्लए । से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-कालतुल्लए कालतुल्लए? ३७. गोयमा ! एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयठितीयस्स पोग्गलस्स कालओ तुल्ले ।। ३८. एकसमयठितीए पोग्गले एगसमयठितीयवइरित्तस्स पोग्ग लस्स कालओ नो तुल्ले । २६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. एवं जावत जाणिय, दश समय स्थितीक । तुल्य संख्यात समय स्थिति, एवं चेव कथीक ।। ४०. तुल्य असंख समय स्थितिक, एवं चेव कहाय । तिण अर्थे जाव काल थी, तुल्य कहिये ताय ।। ४१. किण अर्थे भगवंत जी! भव तुल्य कहाय ? जिन भाखै सुण गोयमा ! भव तुल्य नों न्याय ।। ४२. नेरइयो द्वितीय नारक तिणे. भवार्थे तुल्य थाय । नेरइयो अनारक तिणे, भवार्थे तुल्य नांय ।। ४३. इमहिज तिर्यंच जोणियो, एम मनुष्य अवदात । __ सुर पिण कहिवो इह विध, तिण अर्थे आख्यात ॥ ३९. एवं जाव दससमयठितीए, तुल्लसंखेज्जसमयट्ठितीए एवं चेव । ४०. एवं तुल्लमसंखेज्जसमयद्वितीए वि । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-कालतुल्लए-कालतुल्लए। ४१. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-भवतुल्लए भवतुल्लए ? गोयमा ! ४२. नेरइए नेरइयस्स भवट्ठयाए तुल्ले, नेरइयवइरित्तस्स भवट्ठयाए नो तुल्ले। ४३. तिरिक्खजोणिए एवं चेव, एवं मणुस्से, एवं देवे वि । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-भवतुल्लए भवतुल्लए। ४४. से केणठेणं भंते! एवं बुच्चइ--भावतुल्लए भावतुल्लए? गोयमा ! ४५. एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले। ४६. एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालावइरित्तस्स पोग्ग लस्स भावओ नो तुल्ले । ४७. एवं जाव दसगुणकालए, ४८. एवं तुल्लसंखेज्जगुणकालए पोग्गले, ४४. किण अर्थे भगवंत जी! भाव तुल्य कहाय ? जिन भाख सुण गोयमा ! भाव तुल्य नों न्याय ।। ४५. पुद्गल इक गुण कृष्ण जे, वलि द्वितोय कहीज । पुद्गल इक गुण कृष्ण ने, तुल्य भाव थकीज ।। ४६. पुद्गल इक गुण कृष्ण जे, वलि द्वितीय कहाय। बहु गुण कृष्ण पुद्गल तणे, भाव थी तुल्य नाय ।। ४७. इम जावत दश गुण कृष्ण हि, दश गुण कृष्ण साथ । भाव तुल्य कहिये तसु, अन्य गुण थी न थात ॥ ४८. तुल्य संख गुण कृष्ण ते, तुल्य संख गुण काल । भाव तुल्य सम गुण थकी, अन्य गुण थी म न्हाल ।। ४६. तुल्य असंख गुण कृष्ण हि, तुल्य असंख गुण साथ । भाव थी तुल्य कहीजिय, अन्य गुण थी न थात ।। ५०. तुल्य अनंत गुण कृष्ण हि, तुल्य अनंत गुण काल । भाव तुल्य कहियै तसु, अन्य गुण थी म न्हाल ।। ५१. कृष्ण वर्ण जिम आखियो, नील लोहित एम । पीत शुक्ल इमहीज छ, सुगंध दुर्गंध तेम ।। ५२. एवं तिक्त जाव मधुर ही, इम कर्कश फास । इम जाव लूक्ष फर्श लगै, पूर्व रीत प्रकाश ।। ५३. उदय भाव उदय भाव नैं, भाव थी तुल्य थाय । उदय भाव अन्य भाव न, भाव थी तुल्य नांय ।। ४९. एवं तुल्लअसंखेज्जगुणकालए वि, ५०. एवं तुल्लअणंतगुणकालए वि । ५१. जहा कालए, एवं नीलए, लोहियए, हालिद्दए, सुक्किलए। एवं सुब्भिगंधे, एवं दुब्भिगंधे । ५२. एवं तित्ते जाव महुरे । एवं कक्खडे जाव लुक्खे। ५३. ओदइए भावे ओदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, ओदइए भावे ओदइयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले। ५४. एवं ओवसमिए, खइए, खओवसमिए, पारिणामिए । ५४. इम उपशम क्षायक कह्यो, क्षयोपशम जाण । परिणामिक ए पंचमो, पूर्व रीत पिछाण ।। ५५. सन्निपात सन्निपात नैं, इमहिज कहिवाय । तिण अर्थ इम आखियो, भाव तुल्य नं न्याय ॥ वा०-उदय ते कर्म नो विपाक, तेहिज क्रिया मात्र अथवा उदय करी नीपनो ते उदय भाव-नारकत्वादि पर्याय विशेष । ते औदयिक भाव नै नारकत्वादि भाव थकी भावतुल्ले-भाव सामान्य आश्रयी - तुल्य–सरीखो । एवं उदइये । ओदयिक भाव ओदयिक भाव थी व्यतिरिक्त-अनेरा नै भाव थी तुल्य नहीं। ५५. सन्निवाइए भावे सन्निवाइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, सन्निवाइए भावे सन्निवाइयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-भावतुल्लए-भावतुल्लए। वा०-'उदइए भावे' त्ति उदयः-कर्मणां विपाक: स एवौदयिक:-क्रियामात्रं अथवा उदयेन निष्पन्नः औदयिको भावो-नारकत्वादिपर्यायविशेषः औदयिकस्य भावस्य नारकत्वादेर्भावतो-भावसामान्यमाश्रित्य तुल्यः समः, श० १४, उ०७, ढा० २९८ २६७ Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं उवसमिए - भोपशमिक भाव पिण इमहिज कहिवो तथाहि उवसमिए भावे उवसमियस्स भावस्स भावओ तुल्ले तथा उवसमिए भावे उवसमियवइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले । इम शेष नैं पिण कहिवो तिहां उपशम ते उदय आव्या कर्म नों क्षय अने उदय नाव्या तेहनों थांभिवो ते औपशमिक । अथवा उपशमे करी नीपनी ते औशमिक सम्यदर्शनादिक । खइए-क्षय ते कर्म नों अभाव तेहिज क्षायिक अथवा क्षये करी नीपनो ते क्षायक केवलज्ञानादि । खउवसमिए उदय प्राप्त कर्म ने विनाशे करी सहित शेष नो उपशम ते क्षायोपशमिक, क्रिया मात्र हीज । अथवा क्षयोपशमे करी नीपनों ते क्षायोपशमिक मतिज्ञानादि पर्याय विशेष । इहां कोई एक पूर्व-तहां ओपशमिक क्षायोपमिक ने महो स्यूं विशेष ? बिहुं नैं विषे उदीर्ण नां क्षय अनें अनुदीर्ण नां उपशम नो सद्भाव छँ ते मार्ट । इहां उत्तर - क्षयोपशमिक नै विषे विपाक वेदवो न छँ पिण प्रदेशे वेदवो छ हीज । ओपशमिक नैं विषे प्रदेशे पिण वेदवो नहीं छँ, ए विशेष । इविधि आख्यात | कहिये जगनाथ ! परिमंडल जान कहिये समान || संठाण साथ । ५६. किन अर्थ भगवंत जी संठाण थी जे तुल्य खै ? ५७. जिन कहै परिमंडल तिको, सुल्प अछे संठाण थी तुल्य ५८. परिमंडल संठाण जे अन्य तुल्य नहीं संठाण भी इम आर्य नाथ || ५२. एवं बट्ट संठाण वट्ट संठाण ही, तंस ने चउरंस । आयत पिण इण रीत सूं कहियो सुप्रशंस || ६०. समपउरंस संठाण जे समचउरेंस साथ । तुल्य संठाण थकी कह्यो, वारू रीत विख्यात ॥ ६१. समचउरंस संठाण जे अन्य संठाण साथ । तुस्य सरीखो नहि तिको, संठाण भी ख्यात ॥ ६२. एवं जावक लगे तिण अर्थ ए वाप जाव संठाण थी तुल्य ते, वारू वर न्याय || वा० - संठाण ते आकार विशेष । ते संठाण बे प्रकारे जीव अन अजीव नां भेद थकी । तेहने विषे अजीव संठाण पंच प्रकारे कहे छे - परिमंडल, वृत्त, त्र्यंस, चउरंस, आयत । तिहां परिमंडल संठाण ते बाहिर थकी वृत्त ते गोल आकार मध्य नैं विषे पोलाड़ ते चूड़ी नी परे ते परिमंडल नां बे प्रकार धन परिमंडल ने प्रतर परिमंडल । 1 दूजो वृत्त संठाण ते परिमंडल जिम बाहिर गोल कुंभार नां च नीं परं । एवृत्त पिण बे प्रकारवलि एक-एक नां बेबे भेद सम संख्या प्रदेश नै विषम २६८ भगवती जोड अने बिच में पोलाड़ रहित -घन वृत्त अनैं प्रतर वृत्त । संख्या प्रदेश नैं भेद थकी । एवं उवसमिए' त्ति औपशमिकोऽप्येवं वाच्यः, तथाहि - 'उवसमिए भावे उपसमियरस भावस्य भावओ तुल्ले उवसमिए भावे उवसमियवइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले' त्ति, एवं शेषेष्वपि वाच्यं, तत्रोपशमः उदीर्णस्य कर्मणः क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भतोदयत्वं स एवोपशमिक:- क्रियामात्रं उपशमेन वा निर्वृत्तः औपशमिक: सम्यग्दर्शनादिः । 'खइए' त्ति क्षय:-- - कर्माभाव: स एव क्षायिकः क्षयेण वा निर्वृत्तः क्षायिकः - केवलज्ञानादिः । 'खओवसमिए' त्ति क्षयेण - उदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमो - विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः स एव क्षायोपशमिकः - क्रियामात्रमेव क्षयोपशमेन वा निर्वृत्तः क्षायोपशमिक:- मतिज्ञानादिपर्यायविशेष : : । नन्वोपशमिकस्य क्षायोपशमिकस्य च कः प्रतिविशेषः, उभयत्राप्युदीर्णस्य क्षयस्यानुदीर्णस्य चोपशमस्य भावात् उच्यते क्षायोपशमिक विद्यावेदनमेव नास्ति प्रदेशवेदनं पुनरस्त्येव, अपशमिके तु प्रदेशवेदनमपि नास्तीति । ( वृ० प०६४९) ५६ से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ संठाणतुल्लएसंठाणतुल्लए ? ५७. गोयमा ! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणभ तुल्ले परिमंडले संठाणे । ५८. परिमंडल संठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले । ५९. एवं वट्टे, तसे, चउरसे, आयए । ६०. समचउरंसठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले समचउरंसे संठाणे । ६१. समच उरंस संठाणव इरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले । ६२. एवं परिमंडले वि, एवं जाव (सं० पा० ) हुंडे | से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ संठाणतुल्लएसंठातुल्लए । (श० १४१८१) बा० 'ठाए ति संस्थानंाकृतिविशेष: तच्च द्वेधा जीवाजीवभेदात तत्राजीवसंस्थानं पञ्चधा । तत्र 'परिमंडले संठाणे' त्ति परिमण्डल संस्थानं बहिस्ताद्वृत्ताकारं मध्ये सुषिरं यथा वलयस्य, तच्च द्वेधापनप्रतरभेदात् । 'वट्टे' त्ति वृत्तं परिमण्डलमेवान्तः सुपिररहितं यथा कुलालचक्रस्य, इदमपि द्वेधा - घनप्रतरभेदात्, पुनरेक द्विधा - समसंख्य विषमसंख्य प्रदेशभेदात् । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं व्यंस अन चतुरंस । नवरं एतलो विशेष-व्यंस ते त्रिकोण सिंघाडा नीं पर । चउरंस-चउखूणो नारक नै उपजवा नां स्थानक नीं परै अथवा बाजोट नीं एवं व्यत्रं चतुरस्र च, नवरं 'त्यस्रत्रिकोण शृंगाटकस्येव चतुरस्रं तु चतुष्कोणं यथा कुम्भिकायाः। परै । आयत ते दीर्घ दंड नी परै । आयत तीन प्रकार-श्रेणी आयत, प्रतर आयत और घन आयत । वलि एक-एक नां बे-बे भेद–सम संख्या प्रदेश अनें विषम संख्या प्रदेश ।ए पांच प्रकार नां अजीव संठाण विधसा ते स्वभाव करिक प्रयोगसा ते जीव नां व्यापार करके हुवै।। वलि जीव संस्थान ते संठाण नाम कर्म नी उत्तर प्रकृति नां उदय थकी पाम्यो जीव सहित शरीर नों आकार । ते छह प्रकार । तिहां प्रथम समचउरंस ते तुल्य आरोह-परिणाह, सम्पूर्ण अंग नां अवयव–पोता नी आंगुल थी एकसौ आठ आंगुल ऊंचो । समचउरंस-तुल्य आरोहपरिणाहपणे करी समपणां थकी पूर्ण अवयवपणे करी चउरंसपणां थकी ते संस्थान नै समचउरंसपणो संगत छै। इम निगोहपरिमंडल पिण । जिम समचउरंस कह्यो तिम न्यग्रोध परिमंडल पिण कहिवू । न्यग्रोध नाम बड़ वृक्ष नों छै । तेहनी परै परिमंडल-नाभी थकी ऊपर चउरंस लक्षण युक्त अनैं नाभी नै हेठे ऊपरला रै अनुरूप नहीं हुवै - ऊपरला प्रमाण थकी अतिही हीन हुवै । एवं जाव हुंडक । इहां जाव शब्द कहिवा थकी 'साइखुज्जेवामणे' पिण कहिवा। तिहां सादी-नाभी थकी हेढ़ चतुरस्र लक्षण युक्त अनं नाभी ने ऊपर तेहनै अनुरूप नहीं। अनै खुज्ज कहितां कुब्ज ते गाबड़ आदि नै विषे अनै हाथ पग नै विषे चतुरस्र लक्षण युक्त । अन्य मध्य भाग संक्षिप्त अनै विकृत रूप । वामन ते मध्य तो लक्षण युक्त अनै ग्रीवादिक तथा हाथ पग नै विषे आदि लक्षणे करि हीन । हुंडक ते बहुलपणे सर्व अवयव नै विषे आदि लक्षण विसंवाद सहित-एतले मूल लक्षणे करी हीन । जे अवयव नै विषे जेहवा लक्षण चाहिजे तेहवा नथी। ६३ चवदम शत देश सप्तमों, बेसौ अठाणूंमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरश विशाल ।। आयतदीर्घ यथा दण्डस्य, तच्च त्रेधा-श्रेण्यायतप्रतरायतघनायतभेदात्, पुनरेकै द्विधा-समसंख्यप्रदेशभेदात् । इदं च पंचविधमपि विस्रसा प्रयोगाभ्यां भवति, जीवसंस्थानं तु संस्थानाभिघाननामकर्मोत्तरप्रकृत्युदयसम्पाद्यो जीवानामाकारः, तच्च षोढा, तत्राद्यं 'समचउरसे' त्ति तुल्यारोहपरिणाहं सम्पूर्णागावयवं स्वांगुलाष्टशतोच्छ्यं समचतुरस्रं, तुल्यारोहपरिणाहत्वेन समत्वात् पूर्णावयवत्वेन च चतुस्रत्वात्तस्य, चतुरस्र सङ्गतमिति पर्यायो । एवं 'परिमंडलेवि' त्ति यथा समचतुरस्रमुक्तं तथा न्यग्रोधपरिमण्डलमपीत्यर्थः, न्यग्रोधो-वटवृक्षस्तद्वत्परिमण्डलं नाभीत उपरि चतुरस्रलक्षणयुक्तमधश्च तदनुरूपं न भवति–तस्मात्प्रमाणाधीनतरमिति । 'एवं जाव हुंडे' त्ति इह यावत्करणात् 'साई खुज्जे वामणे' त्ति दृश्यं तत्र 'साइ' त्ति सादि नाभीतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवति । 'खुज्जो' त्ति कुब्ज ग्रीवादी हस्तपादयोश्चतुरस्रलक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्यं । वामणे' त्ति वामनं लक्षणयुक्तमध्यं ग्रीवादी हस्तपादयो रप्यादिलक्षणन्यूनं। 'हुंडे' त्ति हुण्डं प्रायः सर्वावयवेष्वादिलक्षणविसंवादोपेतमिति । (वृ० ५० ६४९,५०) ढाल २९९ दूहा १. वक्तव्यता संठाण नी, पूर्वे भाखी पेख। हिव संठाणजवंत जे, मुनि नी बात विशेख ।। भक्तप्रत्याख्यात-आहार पद २.भक्त तणां पचखाण प्रभ ! कीधा जे मुनि धन्न । आहार विषे मूच्छित तिको, जावत अध्युपपन्न ।। १. अनन्तरं संस्थानवक्तव्यतोक्ता, अथ संस्थानवतोऽनगारस्य वक्तव्यताविशेषमभिधातुकाम आह (वृ० ५० ६५०) २. भत्तपच्चक्खाए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव (सं० पा०) अज्झोववन्ने आहारमाहारेति । श० १४, उ०७, ढा० २९८,२९९ २६९ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा स्नेह रूप गडिए ' आसक्त अतृप्ति आहार विषे ३. जाव शब्द थी जान, अशने अध्यवसान, ते ४. गुद्ध प्राप्त जे आहार, तथा आकांक्षा धार, तंतू करी । कहीजिये | भाव करि । वांछा घणी ।। वहा , ५. अध्युपपन्न अप्राप्त जे, आहार विषे अतिचित । एहवो अणसणियो मुनि, तेह तणो वृत्तंत ॥ ६. तीव्र क्षुधा जे वेदनी, उदय थकी असमाधि । तेह मिटावण ने अरथ, भोगवतो अशनादि । ७. अथ हिब आहार कियां पछे करें स्वाभाविक काल । समुद्घात मारणांतिकी, काल शब्द अर्थ म्हाल ॥ ८. मारणांतिक समुद्घात थी, पछे अमूच्छित तेह। जाव अध्युपपन्न रहित, आहार प्रतै आहा रेह' ? ९. जिन कहै हंता गोयमा अगसणियो अणगार । ! तिमहिज पुरवली परे, कहियो सह अधिकार ॥ १०. ते कण अर्थ हे प्रभु! इहविध कहिये सोय भत्त पच्चक्खाण कियो तिको, अन्य तिमज अवलोय ? ११. जिन है. भत्त पचखाण मुनि, मूच्छित अति अवलोय । जावत अध्युपपन्न ते, आहार विषे जे होय || १२. हिवे स्वभावे काल करि पर्छ अमूच्छित जाव आहारविषे तिण अरथ, जाव आहार कृत साव ॥ १३. प्रश्न अर्थ तिमहीज ए अंगीकृत्य प्रभु कीध किणहिक अणसनिया तणो अशुभ भाव ते लीध ॥ , वा० -भत्तपच्चवखाए णं कहितां अणसण कीधो ते अणगार, मृच्छिए कहित ऊपनी मूच्र्च्छा - ऊपनो आहार संरक्षण अनुबन्ध अथवा ते आहार नां दोष नैं विषे मूढ थयो । 'मूर्च्छा मोहसमुछ्राययोः' इति वचनात् । इहां मूर्च्छा धातु मोह अर्थ नैं विषे ते मूढता समुछ्राय ते वृद्धि अर्थ नै विषे ते आहार संरक्षण नां परिणाम नी वृद्धि | जाव शब्द थी इम जाणवो 'गढिए गिद्धे' । गढिए कहितां आहार के विषे स्नेह रूप तंतु करिकै गूंथणो । 'ग्रंथ श्रंथ सन्दर्भे' इति वचनात् — ग्रन्थ धातु अथ धातु ए दोनूं सदर्भ ते गूंथणा अर्थ के विषे । गिद्धे कहितां पाम्या आहार नैं विषे आसक्त अथवा अतृप्तपण करी ते आहार नी आकांक्षावान् । 'गृधु अभिकांक्षायां' इति वचनात् —- गृधु धातु वांछा अर्थ विषे । १. अंगसुत्ताणि में 'गिद्धे' पहले है 'गढिए' बाद में है। जोड़ में पाठ आगे-पीछे है । कुछ आदर्शों में पाठ का यह क्रम रहा होगा । २. प्रस्तुत ढाल में गाथा ३ से ८ तक की जोड़ पाठ और वृत्ति दोनों के आधार पर की गई है । फिर भी जोड़ के सामने केवल पाठ ही उद्धृत किया गया है । क्योंकि गाथा १३ से आगे का वार्तिक वृत्ति के आधार पर लिखा हुआ है । - इसलिए वृत्ति का वह अंश अविकल रूप से वहीं पर उद्धृत किया है । २७० भगवती जोड़ ३. गढिए ४. गिद्धे ५. अज्भोववन्ने ७. अब कालं करे । ८. तपच्छा अमूहिए लगि गरिएको वयन्ने बाहारमाहारेति ? ९. हंता गोयमा ! भक्त्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चैव (सं० पा० ) (१० १४८२) १०. से केणट्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ - भत्तपच्चक्खायए ०पा०) ११. गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे मुच्छिए जाव (सं० पा० ) आहारे भवइ । १२. अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए जाव (सं० पा० ) आहारे भवइ । १२. से गोवमा ! बाब आहारमाहारेति । (१० १४००३) वा० 'भत्ते' त्यादि, तत्र 'भत्तपच्चक्खायए णं' ति अनशनी 'मूच्छितः सञ्जातमूच्र्छ:- जाताहारसंरक्षणानुबन्धः तद्दोषविषये वा मूढः 'मुच्छ' मोहसमुच्ययोः इति वचनात् । यावत्करणादिदं दृश्यं – 'गढिए ' प्रमिताहारविषयस्नेहतन्तुभिः संदर्भित: 'ग्रन्थ श्रन्थ संदर्भ' इति वचनात् । 'गिद्धे' गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा तदाकाङ्क्षावान् 'गृधु अभिकाङक्षायाम् इति वचनात् । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झोववन्ने कहितां अणपाम्या आहार नी चितवणा अधिकपणे करी रुपनी। आहार ते वायु, तेल चोपड़णादिक अथवा ओदनादिक नो भोगवणो । तीव्र क्षुधा वेदनीय कर्म ना उदय थकी असमाधि छते ते क्षुधा वेदनीय उपशमावा नै अर्थ आहार करै--भोगवै। अहेणं कहिता अथ हिवै आहार कियां पछ, वीससाए कहिता स्वभाव थकीज, कालं कहितां मरण ते काल नी पर काल कहियै मारणांतिक समुद्घात तेहनै काल कहिये, एतल मारणांतिक समुद्घात करीनै । तो पच्छा कहितां मारणांतिक समुद्घात पछै तेह थकी निवृत्त मूर्छादि विशेषण रहित आहार कर प्रशांत परिणाम नां सद्भाव थकी इति प्रश्नः । अत्र उत्तरं-हंता गोयमा ! इत्यादि, अज्झोववन्ने' त्ति अध्युपपन्न:-अप्राप्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः । आहारं वायुतैलाभ्यङ्गादिकमोदनादिकं वाऽभ्यवहार्य तीव्रक्षुद्वेदनीयकर्मोदयादसमाधौ सति तदुपशमनाय प्रयुक्तम् 'आहारयति' उपभुङ्क्ते । अहे णं' ति 'अथ' आहारानन्तरं "विस्रसया' स्वभावत एव 'कालं' ति कालो-मरणं काल इव कालो मारणांतिकसमुद्घातस्तं करोति' याति 'तओ पच्छ' त्ति ततो--मारणान्तिकसमुद्घातात् पश्चात् तस्मान्निवृत्त इत्यर्थः अमूच्छितादिविशेषणविशेषित आहारमाहारयति प्रशान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः, अत्रोत्तरं-'हंता गोयमा !' इत्यादि, अनेन तु प्रश्नार्थ एवाभ्युपगतः, कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य सद्भावादिति । (वृ० ५० ६५०) इण उत्तरे करी वलि प्रश्नार्थहीज अंगीकार कियो, एतले गोतम जे अर्थ पूछ्यो तिकोहीज प्रभु उत्तर दियो। किणही भक्त-प्रत्याख्यान वाला रै पिण इसा भाव नां सद्भाव थकी। १४. अनन्तरं भक्तप्रत्याख्यातुरनगारस्य व्यक्तव्यतोक्ता, स च कश्चिदनुत्तरसुरेषूत्पद्यत इति तद्वक्तव्यतामाह (वृ० प० ६५०) सोरठा १४. अनंतरे अवदात, अणसणिया मुनि नो कह्यो । अनुत्तरे उपपात, को शुद्ध अणसणी तास हिव ॥ लवसत्तम देव पद *चरण रयण सुध किरिया, आ तो ज्ञान सहित अनुसरिया जी, चरण रयण सुध किरिया। तिण सू सव्वदसिद्ध संचरिया जी, चरण रयण सुध किरिया। शिव एक भवे अवतरिया जी, चरण रयण सुध किरिया ।। (ध्रुपदं) १५. प्रभ! छे लवसत्तम देवा? जिन कहै सुर छ सुखमेवा। वा०-लव-शाल्यादिक नां करला लूणवा नी प्रमाणे क्रिया नै काल नों विभाग, सत्तम ----सात-सात नी संख्याए मान प्रमाण जे काल ते लवसत्तम । ते लवसत्तम काल लगै आउखे अछते शुद्ध अध्यवसाय वर्ततां छतां सिद्धि न गया पिण देव नै विषे ऊपनां ते लवसत्तमा । ते सर्वार्थसिद्ध नामा अनुत्तर विमान नां वासी। १६. किण अर्थे प्रभु! इम कहियै, लव-सप्तम देव सुलहियै जी? १७. जिन भाखै दे दृष्टतो, कोइ पुरुष तरुण बलवंतो जी। १८. जाव निपुण चतुराई, वलि शिल्प कला अधिकाई जी। १६. शाल तणां कंड जाणी, अथवा ब्रीही तणां पिछाणी जी। २०. तथा गोहं नां सोयो, अथवा जव नां अवलोयो जी। २१. वलि जव-जव धान्य विशेख, पाका सह नां संपेखं जी। २२. परिआयाणं कहिवाया, लवनोय अवस्था पाया जी। १५. अस्थि णं भंते ! लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा ? हंता अस्थि । (श० १४१८४) वा०-लवा:-शाल्यादिकवलिकालवनक्रियाप्रमिताः कालविभागाः सप्त-सप्तसंख्या मान-प्रमाणं यस्य कालस्यासौ लवसप्तमस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति सति ये शुभाध्यवसायवृत्तयः सन्त: सिद्धि न गता अपि तु देवेषुत्पन्नास्ते लवसप्तमाः, ते च सर्वार्थसिद्वाभिधानानुत्तरसुरविमाननिवासिनः । (वृ० १०६५१) १६. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा? १७. गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे १८. जाव निउणसिप्पोवगए १९. सालीण वा वीहीण वा २०. गोधूमाण वा जवाण वा २१. जवजवाण वा पक्काणं २२. परियाताणं परियायाणं' ति 'पर्यवगतानां' लबनीयावस्था प्राप्तानां। (वृ० प० ६५१) २३. हरियाणं 'हरियाणं' ति पिङ्गीभूतानां। (वृ० ५० ६५१) २३. हरिताणं पाठ उदारी, ते पीला थया अपारी जी। *लय : सेव मुनी नों कीजे श०१४, उ०७, ढा० २९९ २७१ Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. ते पण पीत पिण होई, तिणसुं आगल अवलोई जी। २५. हरितकंटा भालो, थइ सह नीं पीली नालो जी । २६. तीखे दातरले ताही, तेहनैं नवी पाण चढाई जी ॥ २७. सांकड़ी बखरी नालो बाहू करिग्रही ततकालो जी । । २८. मुट्टि ग्रहिये करि तास, संक्षेपी नैं सुविमासं जी । २६. जाव इणामेव इत्यादि, तसु लवण क्रिया संवादि जी । ३०. तसु शीघ्रपणो देखायो, कहै हिवड़ां लूंणूं ताह्य जी । ३१. इम कहितो चिठी बजाई, करे काय क्रिया अधिकाई जी । । । ३२. शाल्यादिक नाल सलाहिये, मूंठियो तास लब कहिये जी । ३३. ते लव प्रति लूणै ताह्यो, लूणतां सप्त लव थायो जी। ३४. हे गोतम ! सुण हिव लेखो, ३५. द्रव्य देवपण जे साधु ३६. तो तिणहिज भव सीता, ३७. ऊमो आयु सप्त 'लव स्याही, ३८. स्थिति में लवसत्तमा ३९. कह्युं वृत्तिकार इम ४०. तिण अर्थ गोयम ! हुवै इतरो आयु शेषो जी । मनु भवे चरण आराधु जी 1 जावत दुध अंत करता जी। तिणसुं गया सव्वट्टसिद्ध मांही जी । शिष्टं छट्ठे सूगडांगे इष्टं जी । भेवा, स्थिति परम अनुत्तर देवा जी । इम लहिये, लय सप्तम देवा कहिये जी । सोरठा ४१. लव-सप्तम करी । आख्यात, ते अनुत्तर उपपातिका । देव अनुत्तर जात, कहिये वे सूत्रे अणुतरोपपातिक देव पद ४२. हे भगवंत ! स्वयमेवा अनुत्तरोपपातिक देवा जी ? छै ४३. हंता अस्थि जिन भाखै, वलि गोतमजी इम दाखे जी । ४४. किण अर्थे प्रभु ! इम कहेवा, अनुत्तरोपपातिका देवा जी । *लय : सेव मुनी न कीजं २७२ भगवती जोड २४. ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्तीत्याह - ( वृ० प० ६५१ ) २५. हरिकंडा 'हरियड' ति पिङ्गी ( वृ० प० ६५१) २६. तिक्खेणं नवपज्जणएणं असिअएणं 'नवपज्जणंएणं' ति नवं प्रत्यग्रं 'पज्जणयं' ति प्रतापितस्यायोघन कुट्टनेन तीक्ष्णीकृतस्य पायनंजलनिबोलनं यस्य तन्नवपायनं तेन 'असियएणं' ति दात्रेण । (० ० ६५१) २०. पडिसाहरिया पढिसाहरिया 'पहिरिति प्रतिसंहृत्य विकीर्णनाला बाहुना संगृह्य (बु०प०६५२) २८. पडिसंखिविया - पडिसंखिविया 'पडिसंखिविय' त्ति मुष्टिग्रहणेन संक्षिप्य । २९-३१. 'जाव इणामेव इणामेव' त्ति कट्टु ( वृ० प० ६५१ ) 'जाव इणामेवे' त्यादि प्रज्ञापकस्य लवनक्रियाशीघ्रवोपदर्शनपटिकादिहस्त व्यापारसूचक वचनं । ( वृ० प० ६५१) ३२, ३३. सत्तलवे लुएज्जा । 'सत्तलवे' त्ति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्टयस्तान् लवान् जति सुनीया (बु०प०६५१ ) ३४. जदि णं गोयमा ! तेसि देवाणं एवतियं कालं आउए पप्प ३५. 'तेसि देवाणं' त्ति द्रव्यदेवत्वे साध्ववस्थायामित्यर्थः । (१० ५० ६५१) ३६. तो णं ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्यंता जाव (सं० पा० ) अंतं करता । ४०. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - लवसत्तमा देवा, लवसत्तमा देवा । (श० १४/८५) ४१. नवसप्तमा अनुत्तरोपपातिका इत्यनुत्तरोपपातिक देवप्ररूपणा यमभिधातुमाह ( वृ० प०६५१) ४२. ४३. हंता अत्थि । ४४. से अतरोववाइया देवा अगुत्तरो ( ० १४०९) भंते! एवं बुवद-अगुत्तरोपवाइया देवा, अणुत्तरोववाइया देवा ? ववाइया देवा ? Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. तब जिन भाख गोयम नैं, अनुत्तरोपपातिक सुर में जी। ४६. अनुत्तर शब्द सुहाया, वलि रूप अनुत्तर पाया जो। ४७. जाव अनुत्तर फासा, तिण सं तन मन हुवै हुलासा जी। वा०-अनुत्तर कहिलं सर्व प्रधान, अनुत्तर शब्दादिक विषय नां योग यकी उपपात जन्म ते अनुत्तरोपपात । ते अनुत्तर शब्दादि उपपात छ जे देवता नै ते अनुत्तरोपपातिका कहिये। ४८. तिण अर्थे एम कहेवा, अनुत्तरोपपातिका देवा जी। ४५. गोयमा! अणुत्तरोबवाइयाणं देवाणं ४६. अणुत्तरा सद्दा अणुत्तरा रूवा ४७. जाव सं० पा०) अणुत्तरा फासा । वा० 'अणुत्तरोववाइय' त्ति अनुत्तरः-सर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगात् उपपातो-जन्म अनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः ।। (वृ०प० ६५१) ४८. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अणुत्तरोववाइया देवा, अणुत्तरोववाइया देवा। (श०१४।८७) ४९,५०. अणुत्तरोववाइया णं भंते ! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना ? ५१,५२. गोयमा ! जावतियं छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति । ५३. एवतिएणं कम्मावसेसेणं । ५४. अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना। (श० १४।८८) ५५. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति। (श० १४।८९) ४६. प्रभु ! देव अनुत्तर देखो, कितै कर्म रह्या अविशेखो जी ? ५०. अनुत्तरोपपातिका तेहो, सुरपणे ऊपनां जेहो जी? ५१. तब भाखै श्री भगवंतो, जे श्रमण मूनी निर्ग्रन्थो जी। ५२. जिता छठ भक्त रै मांह्यो, ओ तो कर्म निर्जरै तायो जी। ५३. इता कर्म रह्या अवशेखो, इतले अणखपिय लेखो जी। ५४. अनुत्तर उपपात सुरपण, उपनां इम प्रभुजी पभणें जी। ५५. सेवं भंते ! सुविशेषो, शत चवदम सप्तमुदेशो जी। ५६. बेसी नव नेऊमीं ढालं, आ तो आखो बात रसालं जी। ५७. भिक्खु भारीमाल ऋषिराया, 'जय-जश' सुख हरष सवाया जी। चतुर्दशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥१४॥७॥ ढाल: ३०० १. सप्तमे तुल्यतारूपो वस्तुनो धर्मोऽभिहितः, अष्टमे त्वन्तररूपः स एवाभिधीयते। (वृ०प० ६५१) दूहा १. तुल्य रूप वस्तू तणो, धर्म सप्तमें ख्यात । तेहिज अतररूप हिव, कहिये छै अवदात ।। अबाधा-अन्तर पद _ *चतुर नर सांभलजो विस्तार । (ध्रुपदं) २. प्रभु ! रत्नप्रभा ए पृथ्वी तण रे, सक्करप्रभा मही जाण । अबाधाए करि कह्यो रे, कितो अंतर जगभाण? ३. श्री जिन भाखै गोयमा रे, योजन असंख हजार। अबाधाए अंतरो रे, आख्यो ते अवधार ।। सोरठा ४. बाधा माहोमांहि, पीड़न ते संश्लेष थी। __बाधा पीड़न नाहि, तेह अबाधा जाणजो॥ ५. अंतर शब्द कहाय, मध्य आदि जे अर्थ में। ते टालण नै ताय, अर्थ इहां व्यवधान छ । *लय : राम पूछ सुग्रीव नैं रे २. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णते? ३. गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । (श० १४।९०) ४. बाधा-परस्परसंश्लेषतः पीडनं न बाधा अबाधा। (वृ० प० ६५२) ५. इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तद्व्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहणं। (वृ०प० ६५२) श०१४, उ०८, ढा० २९९,३०० २७३ Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. जोजन इहां पिछाण, प्राय प्रमाणांगुल' निष्पन्न | पर्वत पृथ्वी विमाण, प्रमुख प्रमाणांगुल करी ॥ दाख्यो छे तिण कारणै । ७. ए अनुयोगजद्वार, अंतर ए अवधार, जोजन प्रमाण अंगुले ॥ ८. नमादो ग्रहण पकीज, रवि प्रकाशादिक तणुं । प्रमाण अंगुलहीज, योजन मिगनुं छे तमु । 5. । ९. अधोलोक जे ग्राम, प्राप्ती विहां प्रकाश नीं। आत्मगुल नहि ताम, तास अनियतपणें करी ॥ १०. उच्छेद अंगुल नांहि ते अतिलघुपर्णे करी प्रमाणांगुले ताहि, जोजन मिणवं क्षेत्र नुं ॥ ११. सिद्धशिला थी जह लोक अंत नों अंतरो । उत्सेधांगुल तेह, योजन प्रमित जणाय छ । १२. ते जोजन ने जाण, छट्ठ भाग पिछाण, १३. त्रिण सय ने तेतीस वलि सिद्धां तणी जगीस, १४. अवगाहना गिणेह, ते इस अंतर पिग एह वा०-सिद्धि शिला रे अने यांगुल संभवे इस वृत्तिकार कहा वृत्ति उपरितन इक क्रोस ₹ । सिद्ध तणी अवगाहणा || अंगुल बत्तीस ही । उत्कृष्टी अवगाहणा ॥ उत्सेधांगु करी । यकी ए आखियो । अलोक रै देश ऊणो जोजन आंतरो ते उत्सेअन अनेरा अंतर प्रमाणांगुले जापा । १५. सक्करप्रभा पृथ्वी वर्णे रे, अबाधाए अंतर कितो रे ? वालुप्रभा नाथ ! ₹ चैव कहात ॥ एवं १६. एवं जाव तमा वर्णे रे, सप्तमी धार । अधो ए बिहु बिच अंतर तिको रे, जोजन असंख हजार ॥ १७. प्रभु ! सातमीं महि तणै रे, अलोक नैं बलि न्हाल | अबाधाए अंतर कितो रे ? दाखो दीनदयाल ! १८. जिन भाखे सुण गोयमा ! रे, जोजन असंख हजार अबाधाए अंतरो रे, ए वारू न्याय विचार ॥ १६. ए रत्नप्रभा पृथ्वी तणै रे, ज्योतिषी ने भगवान । अबाधाए अंतरो रे, केतलो कहिये जान ? २०. जिन कहै जोजन सातसौ रे. अबाधाए अंतरो रे, शंका २१. जोतिषी ने भगवंतजी ! ऊपर नेऊ जाण । मूल म आण || में ईशान । अंतर कितरो आखियो रे, कृपा करो गुणखान ! रे, सुधर्म १. ऋषभदेव भगवान री एक आंगुल, तिण नैं प्रमाण आंगुल कहिये । २. अयोग सूत्र ३००, ४१० *लय राम पूछे सुग्रीव ने रे २७४ भगवती जोड़ ६. इह योजनं प्रायः प्रमाणाङ गुलनिष्पन्नं ग्राह्य 'मढविविमाणामिणसु पमाणं लेणं तु ।' (० ० ६५२) ८. इत्यत्र नगादिग्रहणस्योपलक्षणत्वादन्यथाऽऽदित्यप्रकाशादेरपि प्रमाणयोजनाप्रमेयतां स्यात । ( वृ० प०५५२) ९. तथा बाधकामे तत्प्रकाशाप्राप्तिः प्राप्नोत्या रमा गुलस्यानिवत्येनाव्यवहाराङ्गता रविप्रकाशस्योच्छ्रययोजनप्रमेयत्वात् । ( वृ० प०६५२) १०. तस्य चातिलघुत्वेन प्रमाणयोजनप्रमितक्षेत्राणामव्याप्तिरिति । ( वृ० प० ६५२ ) ११. बच्चेयाग्भारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं च्याङ गुलनिष्यन्नयोजनप्रमेयमित्यनुमीयते । ( वृ० प०६५२) योजनस्योपरितन कोशस्य षड्भागे (२००६५२) १२. यतस्तस्य सिद्धावगाहना । १३. धनुस्त्रिभागयुक्तयस्मिदधिकधनुः मिहिता शतत्रयमाना (बु०प०६५२) १४. सापयोजनात एव युज्यत इति । (बु० प० ६५२) वा० 'देसूणं जोयणं' ति इह सिद्धयलोकयोदेशोनं योजनयन्तरमुक्तं । ( वृ० प० ६५२ ) १५. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वालुयप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? एवं चेव । १६. एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य । (१० १४०९१) १७. अहे समाए णं भंते! बुडबीए अलोगस्स व केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? १५. गोयमा ! असा जोगसहस्वाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । (१० १४९२) १९. इमीस णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स केवतिए अबहाए अंतरे पण्णत्ते ? सत्तनउए जोयणसए २० गोयमा ! पण्णत्ते । २१ जोतिसरणं भंते! सोहम्मीसाणा haतिए अब हाए अंतरे पण्णत्ते ? अबाहाए अंतरे (१० १४०९३) य कप्पा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. श्री जिन भाखै गोयमा ! रे, जोजन असंख हजार । अबाधाए कर कह्यो रे, इतरो अंतर धार ।। २३. सुधर्म अरु ईशाण नै रे, सनत्कुमार माहिंद । अबाधाए अंतरो रे, एवं चेव कहिंद ।। २४. सनत्कुमार महेंद्र नै रे, अबाधाए अंतरो रे, ब्रह्मलोक ने ताय । एवं चेव कहाय ।। २२. गोयमा ! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। (श०१४१९४) २३. सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणंकुमार-माहिंदाण य केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? एवं चेव । . (श० १४।९५) २४. सणकुमार-माहिंदाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? एवं चेव । (श० १४१९६) २५. बंभलोगस्स णं भंते ! लंतगस्स य कप्पस्स केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? एवं चेव । (श० १४१९७) २६. लतयस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? एवं चेव । एवं महासुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य । २७. एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं । २५. ब्रह्मलोक देवलोक नै रे, लंतक - वलि फेर। अबाधाए अंतरो रे, एवं चेवज हेर ॥ २६. लंतक नैं महाशुक्र नैं रे, अंतर ते इम हीव । महाशुक्र सहसार नै रे, एवं चेव कहीव ।। २८. एवं आणय-पाणयाणं आरणच्चुयाण य कप्पाणं । २९. एवं आरच्चुयाणं गेवेज्जविमाणाण य । २७. सहसार देवलोक नै रे, आणत पाणत नैंज। इमहिज अंतर जाणवो रे, जोजन सहस्र असंखेज ।। २८. आणत पाणत कल्प नै रे, आरण अच्चु नैं धार । एवं अंतर जाणवो रे, जोजन असंख हजार ।। २६. आरण अच्चु कल्प नै रे, वलि ग्रैवेयक विमान । अबाधाए अंतरो रे, एवं चेव पिछान । ३०. इम ग्रैवेयक विमाण नै रे, वलै अनुत्तर विमाण। . सहस्र असंख जोजन तणो रे, अंतर इमज पिछाण ।। ३१. प्रभु ! अनुत्तर विमाण नै रे, पृथ्वी ईसिपब्भार । कितो विचालै अंतरो रे? जिन कहै जोजन बार ॥ ३० एवं गेवेज्ज विमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य। (श० १४।९८) ३१. अणुत्तरविमाणाणं भंते ! ईसिंपन्भाराए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुवालस जोयणे अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । (श०१४।९९) ३२. इसिपब्भाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! देसूर्ण जोयणं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । (श० १४११००) ३२. ईसिपब्भारा मही तणे रे, अलोक नैं प्रभु ! पेख । अंतर पूछयां जिन कहै रे, देसूण जोजन एक॥ ३३,३४. अनन्तरं पृथिव्याद्यन्तरमुक्तं तच्च जीवानां गम्यमिति जीवविशेषगतिमाश्रित्येदं सूत्रत्रयमाह (वृ० प० ६५२) सोरठा ३३. अनंतरे अवदात, पृथव्यादिक अंतर कह्यो। ते जीवां नैं ख्यात, तिण कारण हिव आगलै ।। ३४. जीव विशेषज ताय, गति आश्रयी नै ए इहां । सूत्र तीन कहिवाय, श्रोता चित दे सांभलो ।। वृक्षों का पुनर्भव पद ३५. *साल रूंख ए स्वामजी ! रे, रवि प्रमुख तापेन । प्रगट हणाणो अधिकही रे, तृषाई व्यापेन ।। ३६. दव नी अग्नी आकरी रे, तसु ज्वालाए जाण । एह हणाणो अति घणो रे, साल रूंख पहिछाण ।। ३७. काल मास काल समय नै रे, काल करीनै ताम । जास्य किण गति जीवड़ो रे, ऊपजस्ये किण ठाम ? ३५. एस णं भंते ! सालरुक्खे उण्हाभिहए तण्हाभिहए ३६. दवग्गिजालाभिहए। ३७. कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति । *लय : राम पूछ सुग्रीव ने रे श०१४, उ०८, ढा० ३०० २७५ Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिती। ३९,४०. से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारिय सम्माणिए दिव्वे । ३८. जिन भाखै इणहिज पुरे रे, राजगृह नगर जगीस । शालज वृक्षपणे सही रे, उपजस्यै सूण शीस । ३६. ते तिहां चंदनादिक करी रे, अचित अधिक जणेण । वंदित स्तवनाए करी रे, पूजित पत्रादिकेण ॥ ४०. सत्कार ते वस्त्रादिके रे, सन्मानित कर जोड़। दिव्य प्रधान हस्य तरू रे, जश कीत्ति बहु ठोड़ ।। ४१. सच्चे सत्यवादी तिको रे, सच्चोवाये तास । सेव करै तसु फल दिय रे, सेव सफल सुविमास ॥ ४१. सच्चे सच्चोवाए। 'सच्चोवाए' त्ति सत्यावपातः सफलसेवः । (वृ०प० ६५३) ४२. कस्मादेवमित्यत आह (वृ०प०६५३) ४२. कस्मात किण कारण थकी रे, एहवो तरुवर ताय । अचित पूजत आदि छै रे, निसुणो तेहनों न्याय ।। ४३. सण्णीहिय कीधो पछै रे, पाडिहेर प्रतिहार्य । कीधो प्रतिहार्य कर्म में रे, सान्निध्य तसु सुर आर्य ।। ४३. सन्निहियपाडिहेरे। 'सन्निहियपाडिहेरे' त्ति संनिहितं-विहितं प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म सांनिध्यं देवेन यस्य स तथा। (वृ० प० ६५३) ४५. लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ । (श० १४११०१) ४४. इतर पूरव भव तणो रे, सान्निध्य मित्री देव । सेवा सफल करै तिको रे, पूरै चिंतित भेव । ४५. ते वक्षपीठ लीप्यो छतो रे, धोल्यो पूज्यो पेख । एहवो ए तरुवर हस्यै रे, वलि शिष्य पूछ शेख ।। ४६. ते प्रभु ! तरु नो जीवड़ो रे, तिहां थकी पहिछान । नीकल किण गति जायस्यै रे, ऊपजस्यै किण स्थान ? ४७. जिन कहै क्षेत्र विदेह में रे, एह सीझस्य शीस ! जावत सगला दुख तणो रे, करिस्यै अंत जगीस ।। ४८. द्वितीय प्रश्न पूछ बली रे, प्रभु ! शाल वृक्ष छै एह । हणाणी तसु लाकड़ी रे, रवि प्रमुख तापेह ।। ४६. जाव हणी दव ज्वाल थी रे, काल समय करि काल । जास्य ऊपजस्यै किहां रे? हिवै दाखै दीनदयाल ।। ५०. एहिज जंबू भरत में रे, विजगिरि नैं जाण । पायमूल कहितां थकां रे, अतिहि नजीक पिछाण ।। ५१. महेस्सरी नगरी तिहां रे, सामली रूंखपणेह । ऊपजस्यै तिहां तिका रे, अचित वंदित जेह ।। ५२. यावत ते तरुपीठ ने रे, लीपित धवलित जान। पूजित ते तरुवर हुस्यै रे, हिव गोतम कहै वान ।। ५३. अंतर रहित तिहां थकी रे, नीकल ने हे भंत ! शेष साल तरु जिम सहू रे, जावत करिस्यै अंत ।। ४६. से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता कहि गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? ४७. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं काहिति। (श० १४।१०२) ४८,४९. एस णं भंते ! साललट्ठिया उण्हाभिया तण्हा भिहया दवग्गिजालाभिया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? ५०. गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरि पायमले ५१. महेसरिए नगरीए सामलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय ५२. जाव (सं० पा०) लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ। (श० १४११०३) ५३. से णं भंते ! तमोहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता कहि गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं काहिति । (श० १४११०४) ५४. एस णं भंते ! उंबरलट्ठिया ५४. तृतीय प्रश्न पूछ वली रे, प्रत्यक्ष हे भगवान ! ऊपरली ए लाकड़ी रे, शाल तरू नी जान ।। ५५. उष्ण तृषा दव थी हणी रे, काल मास कर काल । जास्यै ऊपजस्यै किहां रे? हिव जिन उत्तर न्हाल । ५५. उण्हाभिहया तण्हाभिया दवग्गिजालाभिया काल मासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववज्जिहिति? २७६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. एहोज जंबू भरत में रे, पाडलीपुत्त नगरेह । पाडली रूखपण तिको रे, तिहां उपजस्य एह ।। ५७. अचित वंदित ते तिहां रे, जाव होस्यै पूजनीक । सुर सान्निध्यकारी हुस्ये रे, पूरववत रमणीक ।। ५८. अंतर रहित तिहां थकी रे, नीकल नै भगवंत! शेष तिमज जावत तिको रे, करिस्यै दुख नो अंत ।। ५६. गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पाडलिपुत्ते नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति । ५७. से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय जाव (सं० पा०) भविस्सइ। (श० १४।१०५) ५८. से णं भंते ! तओहितो अणतरं उव्वट्टित्ता सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) अंत काहिति । (श० १४११०६) ____सोरठा ५.६. शाल वृक्षादिक माय, यद्यपि जीव अनेक ह। प्रथम जीव पेक्षाय, सूत्र तीन इम वृत्ति में। ५९. इह च यद्यपि शालवृक्षादाबनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रत्रयमभिनेतव्यं । (वृ०प० ६५३) ६०. एवं विधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इत्यवसेयमिति । (वृ०प० ६५३) ६०. इह विधि प्रश्न पिछाण, वणस्सइ जीवपणां प्रते। श्रोता अश्रद्धान, तसु पेक्षा शिष्य प्रश्न कृत।। ६१. *चवदम शत देश अष्टमो रे, तीनसौमी ए ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : ३०१ अम्मड अन्तेवासो पद १. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि । २. एवं जहा ओववाइए (सू० ११५-११७) जाव आराहगा। (पा. टि. ५) १. तिण काले नै तिण समय, अमड़ नाम परिव्राज । तेहना चेला सात सय, ग्रीष्म समय अतिसाज ।। २. इम जिम उववाई विषे, जाव आराधक होय । ते संक्षेप थकी इहां, कहियै छे अवलोय ।। +शीस अमड़ नां रे, श्रमणोपासग साचा। कष्ट पड्यो पिण नेम न खंड्यो, जत्न रत्न व्रत जाचा ।। (ध्रुपदं) ३. ग्रीष्मकाल समये इक दिवसे, गंगा नां पहिछाणी। उभयकूल थी कांपिलपुर थी, चाल्या उत्तम प्राणी ।। ४. पुरिमतालपुर प्रति चाल्या ते, पैठा अरण्य जिवारै। पूर्वे ग्रह्यो ते उदक पीवंतां, क्षीण थयो जल त्यारै॥ ३. जेट्ठामूलमासमि गंगाए महानदीए उभओकूलेणं कपिल्लपुराओ नगराओ ४. पुरिमतालं नयरं संपट्ठिया विहाराए ।(श० १४.१०७) तए णं तेसि परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुब्बग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुजमाणे झीणे । (श० १४।१०८) ५. तए णं ते परिवाया झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणा-पारब्भमाणा उदगदातारमपस्समाणा ५. तृषाऽऽक्रांत अतिहि तनु पीड़ित, उदक तणां दातारं । __ आज्ञा देणवालो अणलाधे, मन मांहे करै विचार ।। *लय : राम पूछ सुग्रीव ने रे लय : जयवर गणपति रे मनड़ो तुम सूं श० १४, उ०८, ढा० ३००,३०१ २७७ Jain Education Intemational Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. माहोमांहि एकठा मिलने, इम बोल्या तिणवारं। अरण्य विषे जल पीतां खूटो, देखो हिव दातारं ।। ६. अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! से"पुव्वग्गहिए उदए अणुपुव्वेणं परिभुंजमाणे झीणे। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठ पडिसुणेति। ७. उदक तणां दातार तणी तब, सह दिशि विदिशि मझारं। गवेषणा कीधी अति अधिकी, देख्यो नहि दातारं ।। ८. दूजी वार माहोमां तेड़ी, इम बोल्या गुणधारं । अहो देवानुप्रिया ! इण अरण्ये, दीसै नहिं दातारं ।। ६. निश्चै कर अमनैं नहि कल्प, अणदीधुं जल लेवू । अदत्त भोगवू पिण नहि कल्पै, अडिगपणे हिव रहिवं । १०. हिवड़ा रखे आपदा काले, अदत्त उदक लिवराई। अणदी, जल प्रति भोगवियां, रखे व्रत भंग थाई ।। ७. ""उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता उदगदातारमलभमाणा ८. दोच्चं पि अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-इहण्णं देवाणुप्पिया ! उदगदातारो नत्थि । ९. तं नो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं गिण्हित्तए, अदिण्णं साइज्जित्तए । १०. तं मा णं अम्हे इयाणि आवइकालं पि अदिण्णं गिण्हामो, अदिण्णं साइज्जामो मा णं अम्हं तवलोवे भविस्सइ। ११. तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! तिदंडए य कुंडियाओ ___ य कंचणियाओ य १२. करोडियाओ य भिसियाओ य छण्णालए य अंकुसए ___य केसरियाओ य १३. पवित्तए य गणेत्तियाओ य ११. तो श्रेय कल्याण निश्चै करि अमनै देवानुप्रिय न्हाल । त्रिदंड कमंडल एगंत एडो, वली रूद्राक्ष नी मालं ।। १२. माटी तणो अछ जे भाजन, पाटली वलि बेसेवा । त्रिकाष्टका अंकुश फल लेवा, चीवर खंड पूंजेवा। १३. तांबा तणी पवित्रो ते तो, अंगुली आभरण कहिये । कलाचिका ते कर नों आभरण, एकंत ते परठवियै ।। १४. मस्तक धरवा नो वलि छत्रज, वाहण पग नां तलिया। काष्ठ पावड़ी गेरू रंग्या वस्त्र तजे मनरलिया। १५. एकंते ए सहु न्हाखी नैं, गंगा विषे उतरी नैं। वेल तणो साथरो करने, भात पाणी पचखी नैं। १४. छत्तए य वाहणाओ य धाउरत्ताओ य १५. एगते एडित्ता गंगं महानई ओगाहित्ता वालुयासंथारए संथरित्ता संलेहणा-झूसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खि याणं १६. पाओवगमन काल अणवंछत, विचरां एम कही नै । __ अन्यो अन्य समीप सुणी, त्रिदंडादिक न्हाखी नैं। १७. गंग विषे उतरी नै वेल-संथारो संथर नैं। ___ बेसै वेलू तणै साथरै, पूर्व दिशी मुख करनँ ।। १६. पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए त्ति कट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तिदंडए य कुंडियाओ य... .."एगते एडेंति । १७. एडेत्ता गंगं महानई ओगाहेंति, ओगाहेत्ता वालुया संथारए संथरंति, संथरित्ता वालुयासंथारयं दुरुहंति, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहा १८. संपलियंकनिसण्णा करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासीनमोत्थु णं अरहंताणं जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं । १९. नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपा विउकामस्स। १८. संपल्यंक आसण बैसी नै, बे कर जोड़ी ताह्यो। सिद्धां प्रतै नमोत्थुणं धुर, गुणियो हरष सवायो ।। १६. भगवंत श्री महावीर प्रतै वलि, नमोत्थणं विधि रीतं । जावत मुक्ति जावा रा कामी, विचरंता सुवदीतं ।। २७८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. नमोत्थु णं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरि यस्स धम्मोवदेसगस्स २०. नमस्कार होयजो अम्मड़, परिव्राजक नैं पहिछाणी। म्हारा धर्म आचार्य धर्म उपदेशक छै तसु जाणो।। सोरठा २१. 'संन्यासी नों धर्म, धर्माचार्य तेहनों। तास धर्म नो मर्म, उपदेशक पिण ते हंतो।। २२. तिण सं लोकिक हेत, नमस्कार तिण ने कियो। जिन आज्ञा नहिं तेथ, धर्म नहीं छै तेह में ।। २३. जिन धर्म पिण तिण पास, पाम्यो तो पिण तेहथी। पूरव तांतो तास, तुटो नहि तिण कारण ।। २४. पहिला पिण तसु तेह्, नमस्कार करता हुता। अंतकाल पिण एह, पक्ष न तूटो ते भणी ।। २५. उष्ण उदक परिहार, सचित्त उदक वहितो लिये। ते पिण दीधो धार, ते पिण पक्षज मत तणी।। २६. गुरु चेलां री रीत, नमस्कार करता हुंता। अंतकाल संगीत, तेहिज विधि त्यां साचवी ।। २७. सिद्ध अरिहन्त नैं जाण, नमस्कार लोकोत्तरे । अम्मड़ प्रति पहिछाण, नमस्कार लोकीक मग ।। २८. सिद्ध अरिहंत ने सार, नमस्कार जिन आण है। अम्मड़ ने नमस्कार, तिणमें जिन आज्ञा नथी ।। २६. सिद्ध अरिहंत में सार, सामायिक पोसा मझे। नमस्कार थी धार, कर्म निर्जरा पुन्य बध ।। ३०. अम्मड़ ने नमस्कार, सामायिक पोसा मझे। करै कोई अवधार, तो भागै व्रत तेहनों ।। ३१. सिद्ध अरिहंत ने सार, नमस्कार निरवद्य छ । अम्मड़ नै नमस्कार, कीधां सावज जोग है। ३२. श्रावक पासे कोय, धर्म पाय व्रत आदरया। सामायिक में जोय, नमस्कार न करै तसु ।। ३३. सामायिक में जाण, त्याग जोग सावज तणां । तिण कारण पहिछाण, सावज जाणी ए तज्यो ।। ३४. सामायिक रै माय, नमस्कार गहि नै करै। व्रत भंग तसु थाय, तिमहिज अम्मड़ ने कियां ।। ३५. अम्मड़ नैं नमस्कार, संथारो कीधां प्रथम । पाप तणों परिहार, नहिं कीधो तिण अवसरे॥ ३६. त्याग्या पाप अठार, तठा पछै शिष्य अम्मड़ नां। निज गुरु नै नमस्कार, न कियो तेह विचारजो।। ३७. केइ अज्ञानी तास, एहवी करै परूपणा। धर्म पायो जिण पास, नमस्कार करवो तसु ।। ३८. सरधै तिण में धरम, तो सामायिक पोसा मझे। ते उपगारी परम, किम नमस्कार तसु नहि करै।। ३६. ए जाण निरवद्य जोग, तो सामायिक नै विषे। निरवद्य तणो प्रयोग, ते तो त्याग्यो छै नथी ।। श० १४, उ०८, ढा० ३०१ २७९ Jain Education Intemational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. जो सावज जोग जाणेह, । तिण सुं सामायिक विषे। नमस्कार न करेह, खुलो किया पण धर्म नहीं । ४१. सम्यक्त व्रत दातार, उपगारी जाणें परम || तो पिण तसु नमस्कार, मुनि विण कीधां धर्म नहीं ॥ ४२. भेषधारी प ताय, वलि पछाकड़ा श्रावक करें । मुनि दंड लेई शुद्ध थाय, पिण नमस्कार न करै तसु ॥ ४३. इम आयो यवहार' प्रथम उदेशाने विषे । इम भाख्यो जगतार, अंतर न्याय आलोचिये ॥ ४४. पद आराधक सार, पायो पछाड़ा थकी । बलि द्रव्यलिंगी थी धार पिण नमस्कार न करे तसु । ४५. धर्म लह्यो जिण पास, नमस्कार घात | तेहने लेख विमास, सिर देणो पग ने ४६. ठाकुर चाकर पास, देश विरत तेहने लेख विमास, चाकर नैं ४७. धनवंत रंकज पास, समझी नैं तेहनें लेस विमास, रंक तणें ४८. सेठ वाणोत्तर पास देश विरत तेहने लेख विमास, नमणां वाणोत्तर पगे ॥ ४६. पिता पुत्र ने पास, देश विरत सम्यक्त्व लह्यां तेहने लेख विमास, पुत्र तणें पग लागवो ॥ ५०. सासू बहु ने पास, धर्म अपूरव पामियां । तेह लेख विमास बहू तणें पग ५१. इत्यादिक अवलोय, धर्म पामियो जे कनें । लेख सोय, पगे लाग नमो तसु ॥ रंक विचार, वाणोत्तर सुत ने बहु एह भणी अवधार, पगे लगावै नृप प्रमुख ॥। आदरचा । लागवो || सम्यक्त लह्यो । । लागणो ॥ । ५३. तो पूरो अवनीत तेहने लेख तेहनें ५२. चाकर बड़ा श्रावक ते धार, पर्छ ठाकुर ५६. तसु लेखे सुविमास, पगे J 1 पायो धर्म ५४. केई वदै छै तसु । प्रतीव पगे लगाये तास किम ॥ इम वाय, विनय मुनी नो मुनि करै । तिम धावक पिण ताय, बड़ां तणो करवो विनय ॥ ५५. तो चाकर आदि विचार पहिला विरतज आदरयां । १. १।३३ प्रमुख थयां ॥ करिखूं विनय । लाग गुनि ज्यू रीत प्रकाश, न किया ते अवनीतढ़ा ॥ ५७. सावज विनय थापंत, प्रश्न पूर्व पूछयां तसु । पग-पग में अटकत बुद्धिवंत न्याय विचारिये ॥ ५८. तिम कारण अवलोय, विनय करे भावक तणो । २८० भगवती जोड़ समकत पग व्रत 1 विषे ॥ लह्या । लागवो || पग जिन आशा नहि कोय, धर्म नहीं आज्ञा विना ॥ आज्ञा ५६. अम्मड़ नैं नमस्कार, नेल कीधोछे रहीं। ए लोकिक आचार, तसु हंतो जिसो जिन भाखियो || ' ( ज० स० ) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *चतुर विचार करीनै देखो। (ध्रुपदं) ६०. संख नै पोखली जीमण कीधो, ते तो आपण छांदै रे। तिणनै सरावै मूढ अग्यानी, कर्म तणां पंज बांधे रे ।। ६१. तिण जीमण नैं माठो जाणी, पोसो कर दियो त्यागी रे । पक्खी रै दिन पाप नै पचख्यो, संख बड़ो वैरागी रे ।। ६२. उपला श्रावका पोखली घर आयां, विनय कियो शीस नमायो रे । ते तो छांदो आपणो जाण्यो, ते भगवंत नहीं सिखायो रे।। ६३. नमस्कार अम्मड़ – कियो चेलां, ते सूत्र उववाई में चाल्यो रे। भगवंत भाव दोठा जिम भाख्या, जिण धर्म में नहिं घाल्यो रे ॥ ६४. नवकार नां पद पंच परूप्या, श्रावक नै दियो टालो रे। जिन आगन्या नहिं गृहस्थ वांदण री, भगवंत वचन संभालो रे ।। ६५. माहोमां विनय वियावच कीधां, वीर तो नहीं वखाण्या रे। गृहस्थ रा कार्य सावज्ज दीठा, मन कर नैं भला नहिं जाण्या रे। ६६. पूर्वे पिण म्है अमड परिव्राजक, पास अणुव्रत धरिया। स्थूल प्राणातिपात म्है पचख्या, जावजीव आदरिया ।। ६७. स्थूल मृषा नै स्थूल अदत्तज, सर्व मिथुन पहिछाणं । स्थूल परिग्रह ए सगलाई, जावजीव पचखाणं ।। ६८. हिवडा पिण भगवंत श्रमण, महावीर समीप सूसाखं । सर्व प्राणातिपात पचखां छां, जावजीव अभिलाखं ।। ६६. जावत सर्व परिग्रह पचखां, सर्व क्रोध अरु माणं । माया लोभ पेज्ज अरु द्वेषज, कलह अनैं अब्भक्खाणं ।। ६६. पुब्बि णं अम्हेहिं अम्मडस्स परिब्वायगस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, ६७. मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, सब्बे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए। ६८. इयाणि अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। ६९. सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं कलहं अब्भक्खाणं ७०. पेसुण्ण परपरिवायं अरइरई मायामोसं मिच्छादसण सल्लं अकरणिज्ज जोगं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। ७१. सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं-चउम्विहं पि आहारं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। ७२. जं पि य इमं सरीरं इठें कंतं पियं मणुण्णं ७०. पेसुण परपरिवाद अरति-रति, मायामोस पिछाणं । मिथ्या-दर्शणशल पचखां छां, जावजीव लग जाणं ।। ७१. सर्व अशन पाणं अरु खादम, स्वादम चउविध आहारं। तेहनां म्है पचखाण करां छां, जावजीव लग सारं। ७२. ए तनु म्हारो छै ते पिण मुझ, वल्लभ इष्ट वखानं । कांत कमनीय प्रिय सुंदर मनगमतो अति पहिछानं ।। ७३. अतिमनगमतो धज्ज विश्वास तणं हेतू ए जानं । करणहार कार्य नों ए तनु, तिणसू सम्मत मानं ॥ ७३. मणामं पेज्जं वेसासिय संमयं *लय : चतुर विचार करी नै देखो १. सू० ११७ २. पद्य संख्या ६० से ६५ तक आचार्य भिक्षु द्वारा रचित है। लिय : जयवर गणपति रै मनड़ो तुम सं श० १४, उ०८, ढा० ३०१ २८१ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. बहुमत बहु नैं इष्टपणां थी, तथा बहु कार्य कृतानं । अनुमत बिगड़या कार्य नै, पिण एह सुधारै जानं ॥ ७५. आभरण तणां करंडिया सरियो, रखे शीत मुझ लागे । रखे उष्ण पिण लागे मुझ नैं, जत्न करां धर रागे ॥ ७६. रखे क्षुधा ने तृषा मुझ लागे, रखे सर्प चटकावे । तसकर रखे दिये दुख मुझ में रखे दंस मंस खावे || ७७. रखे वाय पित्त श्लेषम कफ, सन्निपात त्रिदोषज सोय । विविध रोग आतंक परीसह, उपसर्ग परिसह कोय | ७८. एहवो तनु पिण चरम उस्सास निस्सासे करि वोसिरावां । इम कहि लेखणा तनु दुर्बल भूषणा सेवन भावां ॥ ७८. भात पाणी पचखी पाजवगमन, अणसण ज्यां लोधा । विचरै काल मरण अणवंछता, अडिगपर्णे मन कीधा ॥ ८०. परिव्राजका तिके तिण अवसर, घणां भक्त नां धामी । अणसण छेदं आलोवी, पड़िकमी समाधिज पासी ॥ ८१. काल करी ने पंचम कल्पे, देवपर्णेज उपन्ना । दश सागर स्थिति वर परलोक तणां आराधक जन्ना || ८२. शत चवदम अष्टम नुं नाम ए, ढाल तीन सय एकं । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय - जश' हरष विशेखं ॥ ढाल : ३०२ अम्मड चर्या पद परूपणा अवदात ॥ १. हे प्रभु ! बहु जन अण्णमण्ण, एहवा वच आख्यात | भाखे ने पन्न बली, २. अम्मद इम निश्चै करी, कंपिलपुर में सौ घरां परिवाजक पहिचाण । जिम उबवाई जान || तणी, जावत दडपइन्न । क्षेत्र विदेह सुचिन्न ॥ इहां कहीजे लेश । गोतम सुण पूछेस ॥ आहार प्रति आहरंत । ए सम काल करंत ॥ ३. वक्तव्यता अम्मड़ करिस्यै अंतज दुःख नौं, ४. विस्तर उववाई विषे, कंपिलपुर में जन कनै ५. अम्मड़ सौ घर में विषे, सौ घर वसवो सूयवो, २५२ भगवती जोड़ दूहा ७४. बहुम अनुम ७५. भंड-करंडग- समाणं मा णं सीयं मा णं उन्हं, ७६. मा णं खुहा, मा णं पिवासा, माणं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, ७७. माणं वाइय-पित्तिय-सिभिय-सन्निवाइय विविहा रोगा का परीसहोवसग्गा फुसंतु ७८. त्ति कट्टु एयंपि णं चरिमेहि ऊसासनीसासेहि वोसिरानिति कट्टु नेणा-या ७९. भत्तपाण- पडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवकखमाणा विहति । तणं ते परिव्वाया बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेंति, सेदिता आलोय-पतिसमाहिता ८१. कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए ८०. उववण्णा । तेसि णं भंते! देवाणं दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा ? हंता अत्थि । (१० १४० १०९) १. बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ । २. एवं खलु धम्म परिव्यय कंपिल्सपुरे नगरे घरसए एवं जहा ओववाइए ३. अम्मडस्स वत्तव्वया जाव (सं० पा० ) दढपइण्णो अंतं काहिति । ४५. एवं जहे' त्यादिना यत्सूचितं तदर्थतो सेशेनैवं दृश्यं - भुङ क्त वसति चेति एतच्च श्रुत्वा गौतम आह— Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. हे प्रभुजी ! ते किम अछै? तब भाख भगवान । हे गोतम ! ए सत्य वच, हूं पिण इम आख्यान ।। ७. किण अर्थे प्रभु ! एह वच? तब भाखै जिनराज । अम्मड़ परिव्राजक प्रकृतिभद्रिक विनय समाज ।। ८. छठ-छठ तप आतापना, प्रवर शुभ परिणाम । प्रशस्त अध्यवसाय फुन, लेश विशुद्धज पाम ।। ६ से कहमेयं भंते ? एवं खलु गोयमा ! .... "सच्चे णं एसमठे अहंपि णं गोयमा ! एवमाइक्खामि..." (श० १४।११०) ७. से केण→णं भंते ! एवं वुच्चइ"..." गोयमा ! अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स पगइभद्दयाए "विणीययाए। ८. छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झ वसाणेहि लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं ९. अण्णया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओव समेणं ईहापुह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स वीरिय लद्धीए १०. वेउब्वियलद्धीए ओहिनाणलद्धी समुप्पण्णा... ६. कर्म तदावरणी तणो, क्षयोपशम कर खंत । करतां भली विचारणा, वीर्य लब्धि उपजंत ।। १०. वैक्रिय-लब्धि समुप्पनी, अवधिज्ञान नी जाण ।। लब्धि अमड़ नैं ऊपनी, तिण करने पहिछाण ।। ११. जन विस्मय उपजायवा, कपिलपुर रै माय । सौ घर भोजन आचरयो, सौ घर वासो ठाय ।। १२. आप कनें अम्मड़ प्रभु ! लेस्य संजम भार ? जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं, वर द्वादश व्रत धार ।। ११. जणविम्हावणहेउ कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमा हरेइ, घरसए वसहि उवेइ। (श० १४।१११) १२. पहू णं भंते ! अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्व इत्तए? नो इणठे समठे। गोयमा! अम्मडे णं परिव्वायए समणोवासए' सीलव्वय-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० १४.११२) १३. इत्यादिक विस्तार बहु, मास तणो संथार । थइ आराधक कल्प ब्रह्म, दश सागर स्थिति सार ।। १४. चवी विदेहे दिप्त कुल, दडपइन्नो नाम । चरण ग्रही केवल लही, वरस्यै शिवपद धाम ।। १५. पूर्वे शिष्य अम्मड़ तणां, देवपणे उत्पन्न । हिव उद्देश समाप्ति लग, सुर अधिकार कथन्न । अव्याबाध-देवशक्ति पद *जिन-वाण सुधारस जाणियै ।।[ध्रुपदं] १६. छै प्रभु ! अव्याबाधा देवा ?जिन कहै हंता जाणियै । अबाधा पीड़ा अनेरा नैं न करे, लोकंतिक में माणियै ।। १४. ततश्च्युतश्च महाविदेहे दृढप्रतिज्ञाभिधानो महद्धिको भूत्वा सेत्स्यतीति । (वृ० प० ६५३) १५. अयमेतच्छिष्याश्च देवतयोत्पन्ना इति देवाधिकारादेववक्तव्यतासूत्राण्युद्देशकसमाप्ति यावत् । (वृ० ५० ६५३) १६. अस्थि णं भंते ! अब्वाबाहा देवा, अव्वाबाहा देवा ? हंता अत्थि । (श० १४.११३) 'अव्वाबाह' त्ति व्याबाधन्ते-परं पीडयन्तीति व्याबाधास्तन्निषेधादव्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगता द्रष्टव्याः । (वृ० प० ६५४) सोरठा १७. नव लोकांतिक एह, तेह विषे जे सातमों। अव्याबाध कहेह, ते सुर नों अधिकार ए॥ *लय : बलिहारी भीखणजी स्वाम की श०१४, उ०८, ढा० ३०२ २८३ Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. *किण अर्थ प्रभु ! अव्याबाधा, देवा इम कहिवाणियै ? जिन कहै इक इक अव्याबाध सुर समर्थ ते पहिछाणियै ॥ १६. इक इक पुरुष आंख नां, इक इक भांपण ऊपर ठाणियै । दिव्य प्रधान जे देव संबंधी, ऋद्धिप्रतं पहिछाणियै ॥ २०. दिव्य देवद्युति दिव्य देवअनुभाव प्रती वलि आणियै । देव संबंधी बत्तीस प्रकारे नाटक विधि प्रति ठाणिये ॥ २१. नाटक जेह देखाड़वा समर्थ, तेह पुरुष ने जाणियै । किंचित बहुत बाधा न पमावे', इस निश्वे दिल आणिये ॥ २२. अथवा छेद छवी नो न करें, देव शक्ति करि जाणियै । एवो सूक्षम जेम हुवे तिम, नाटक विधि प्रति ढाणिये ॥ २३. एहवा नाटकविध प्रति देखाड़ण, समयं ते सुर माणियै । तिण अर्थे जावत ते देवा, अव्याबाध बखाणियै ।। शकशक्ति पद २५. ते सिर छेद कमंडलु माहे, जिन कहै हंता समर्थ छै ते २६. श्री जिन भाखे छेदी- छेदी नें, कूष्मांडादिक नीं पर सूक्षम २४. समर्थ छै प्रभु ! शक सुरिंद्र, सुरां तणो राजा सही । पुरुष तणां मस्तक प्रति छेदै स्वहृत्य खड़ग प्रत ग्रही ॥ [ बलिहारी हो स्वाम तभी सही ।] प्रक्षेपवा समर्थ सही ? केम प्रक्षेप करें वही ? क्षुरप्रादिक करनें वही । खंड करीनैं प्रक्षेपही || २७. भेदी भेदी विदारी- विदारी, कपड़ा नीं पर ए कही। ऊर्द्ध फाड करीने पाछे कमंडलू मांहे प्रक्षेपही ॥ 2 २८. वलि तेहनों शिर कूटी-कूटी नें, जेम ऊखलादिक मही । तिल प्रमुख ने कूटै तिम कूटी, कमंडलु मांहे प्रक्षेपही ।। २६. चूरी-चूरी नें चूर्ण करनें, जेम सिलादिक नैं मही । चूरण द्रव्य तणी पर कर नें कमंडलु मांहे प्रक्षेपही ॥ ३०. तेह कमंडलु मां प्रक्षेपण कियां पर्छ जे शीघ्र ही । ते शिर पाछो मेल करि एकठं पुरुष नैं पीड़ हुवै नहीं ॥ *लय : बलिहारी भीखणजी स्वाम की १. जोड़ में आवाहं पबाहं—इन दो शब्दों की व्याख्या है । अंगसुत्ताणि भाग २ में बाहं के स्थान पर वाबाहं पाठ है। वहां पबाहं को पाठान्तर में लिया गया है । २०४ भगवती जो १०. से एवं वृषभव्यवाहा देवा, अव्वाबाहा देवा ? गोयमा ! पभू णं एगमेगे अव्वाबा देवे १९. एगमेगस पुरिसरस एवमेसि असि दिव्यं देविड्ढि २०,२१. दिव्वं देवज्जुति, दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं बत्तीसविविनविहिताए । नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाह वा उप्पाएइ 'आबाहं व' त्ति ईषद्बाधां 'पबाहं व' त्ति प्रकृष्टबाधां 'वाबा'ति स्वचित् यत्र तु 'ब्यावायां' विष्टामाबाधां । (बु०प०६५४) २२, २३. छविच्छेयं वा करेइ, एसुमं च णं उवदसेज्जा । से वेगद्वेगं गोपमा ! एवं पुष्पद अव्यावहादेवा अव्वाबाहा देवा । (०१४०११४) २४, २५. पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया पुरिसस्स सीस पाषिणा असणाचिदिता कमंडलुं पक्खिवित्तए ? ( श० १४ । ११५ ) हंता पभू । से कमदाणि पकरेति ? २६. गोयमा ! छिदिया- छिदिया च णं पक्खिवेज्जा । 'दिवाविति छियाछिया दुरादिना कूष्माण्डादिकमिव मण्डीमेवर्थः । ( वृ० प० ६५४ ) २७. भिदिया- भिदिया च णं पक्खिवेज्जा । 'मिदिप'ति विदायपाटन शाटकादिकमिव । (२००६५४) २८. कोडिया-कोडिया च मे परिधवेच्या । 'कुट्टिय' तिकुवाउनाहादिकमिव । ( वृ० प० ६५४ ) २९. वाणिया 'चुन्नियति चूर्णयित्वा शिलाया शिलापुकादिना गन्धद्रव्यादिकमिव । (बु०प०६५४) ३०. तो पच्छा खियामेव पडिपाएजा | 'ततो पच्छ' ति कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तरमित्यर्थः परिसंघाएन' त्ति मीलयेदित्यर्थः । (बु०प०६५४) Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. किंचित अथवा बहु तसु बाधा, निश्चै नहीं उपजावही । विच्छेद पुण हे इम सूक्षम करि कमंडलेज प्रक्षेपही ॥ भक देव पद ३२. छं भगवंत जी कुंभक देवा ? जिन कहे हंत कहीजिये । for अर्थे प्रभु! भक देवा, ए वचन इसो सलहीजिये ॥ [ जयकारी हो जिन वच पीजिये।] ३३. जिन कहै जृंभक देव सदाई, प्रमुदित हरष धरीजिये । प्रकृष्ट क्रीड़ प्रत जे करता, तो कंदर्प अति रति भीजिये ।। ३४. मोहन मिथुन तणो शील छै जसु, स्वच्छंद चेष्टा करीजिये । तिर्यग लोक तणां ए वासी, तो व्यंतर देवा वदीजिये || ३५. भग कोप्या वा जसु देखे, दृष्टि करूर करीजिये । मोटो अनर्थ अश ते पाने, तास प्रभाव लहीजिये || ३६. जे सुर तुष्ट थका देखे जसु, महा जरा अर्थ पामीजिये। तिण अर्थ करिनें हे गोतम ! कुंभक देव कहीजिये || सोरठा । ३७. वृत्तकार कहि वाय, पैर स्वामीवत जाणजो अनुग्रह सराप ताय, बिहुं करिया समर्थ थकी ॥ ३८. अनुग्रह सराप जाण, ते जुंभक देवां तां । शील स्वभाव पिछाण, ते माटै जश अजश ह्वै ॥ ३९. *कतिविध हे प्रभु ! जृंभक देवा ? । जिन कहै दशविध ग्रहीजिये। अन्नजृंभगा ते भोजन विषये, ते सुर एम कहीजिये || सोरठा साव, ४०. अन्न तो करें अभाव, अथवा वलि सद्भाव तसु । अल्प बहुत्यज सरसपण नीरसपणं ॥ ४१. इत्यादिक पहिछाण, करिया नी चेष्टा करें। ते अन्नजंभक जाण, पाण प्रमुख कहिवा इमज ॥ ४२. *पाणजृंभका ते उदक सरस अरु, निरस प्रमुखज करीजिये । निरस आदि इम लीजिये ॥ वस्त्रकुंभका ते वस्त्र सरस अरु, *लय : बलिहारी भीखणजी स्वाम की ३१. नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाह वा उपपाएज्जा, छविच्छेयं पुण करेइ, एसुहुमं चणं पक्खिवेज्जा । ( ० १४० ११६) ३२. अत्थि णं भंते ! जंभगा देवा, जंभगा देवा ? हंता अत्थि । (० १४११७) मे सेषणट्ठेषां भंते! एवं यच्च जंभगा देवा, जंभगा देवा । ३३, ३४ गोयमा ! गंगा देवा निष्यं पमुदितपक्कीलिया कंदप्परतिमोहणसीला, 'पमुइयपक्कीलिय' त्ति प्रमुदिताश्च ते तोषवन्तः प्रक्रीडिताच प्रकृष्टाः प्रमुदितप्रक्रीडिताः 'कंदपरइ' त्ति अत्यर्थं केलिरतिकाः 'मोहणसील' त्ति निधुवनभीताः । (बु.प. ६५४) ३५. पासेसे पुरसे महंत अपसं - पाउणेज्जा । 'असं' ति उपलक्षणत्वादस्यानर्थं प्राप्नुयात् । ३६. जे णं ते देवे तुट्ठे पासेज्जा, से पाठ से तेचट्ठे दोषमा जंभगा देवा, जंभगादेवा । २७,२५. वैरस्वामिवत् शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छीलत्वाच्च तेषामिति । ( वृ० प०६५४) ( वृ० प० ६५४ ) णं महंतं जसं एवं बुच्चद ( ० १४।११८) ३९. कतिविहा णं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा - अन्नजंभगा । 'अन्नजंभये' त्यादि अन्ने - भोजनविषये । ४०, ४१. तदभावसद्भावात्पत्वबहुत्वस रसत्वनी रसत्वादि करतो जुम्मन् विभन्ते तथा एवं पानादिष्वपि वाच्यं । (बु० १०६५४) ४२. पाणजंभगा, वत्थजंभगा, श० १४, उ० ८ ढा० ३०२ २८५ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. लेणजभगा, सयण भगा, पुप्फजंभगा, फलजंभगा, 'लेणं' ति लयनं-गृहम् । (वृ०प०६५४) ४३. लेणāभका ते घर नैं सरस अरु, निरस प्रमुख इम गहीजिये । सयणमुंभका फूल नां जुंभक, फल नां जंभक लीजिये ।। ४४. फूल फल एह उभय नां जंभका, पूर्व रीत वदीजिये। पुफ्फ फल स्थाने मंतज़ंभगा, वाचनांतरे कहीजिये ।। ४४. पुष्फ-फल-जंभगा। 'पुप्फफलजंभग' त्ति उभयज़म्भकाः एतस्य च स्थाने 'मंतजंभग' त्ति वाचनान्तरे दृश्यते । (वृ०प०६५४) ४५. विज्जाजंभगा, अवियत्तिजंभगा। (श०१४।११९) ४५. विद्याज़ंभक ते पर विद्या, ऊणी अधिक करीजिये । नाटकप्रमुख बिगाड़े सुधार, ते अव्यक्तāभगा लीजिये। सोरठा ४६. किणही स्थान संवाद, दीसै अहिवइ-जंभका। ते अधिपति राजादि, नायक विषये जूभका ।। ४७. *हे भगवंत जी! जंभक देवा, ते किण स्थान वसीजिये ? श्री जिन भाखै दीर्घ वैताढज, सर्व विषेज रहीजिये । ४८. चित्र विचित्र जंभक गिर ऊपर, कंचनगिरि वलि लीजिये। एह विषे वसै जंभक देवा, हिव विस्तार कहीजिये ।। ४६. क्वचित्तु 'अहिवइजंभग' त्ति दृश्यते तत्र चाधिपतीराजादिनायकविषये जृम्भका ये ते तथा । (वृ० ५० ६५४) ४७. जंभगा णं भंते ! देवा कहि वसहि उवेंति ? गोयमा ! सव्वेसु चेव दोहवेयड्ढेसु । ४८. चित्त-विचित्त-जमगपव्वएसु, कंचणपव्वएसु य, एत्थ णं जंभगा देवा वसहि उवेति । (श०१४।१२०) सोरठा ४६. दीर्घ वैताढ उदार, इकसौ नैं सित्तर विषे । ___ जंभक वास विचार, कर्मभूमि ए पनर में ।। ४९. 'सव्वेसु चेव दीहवेयड्ढेसु' त्ति सर्वेषु प्रतिक्षेत्रं तेषां भावात् सप्तत्यधिकशतसंख्येषु ।। (वृ० प० ६५४) ५०. पंच विदेह संपेख, विजय एकसौ साठ में । पंच भरत में देख, पंच एरवत नैं विषे ।। ५१. चित्र विचित्र विचार, वलि यमक वैताढ वृत्त। ए कुण क्षेत्र मझार, निर्णय कहिये तेहनों। ५२. देवकुरू रै मांय, सीतोदाज नदी तणें । उभय पास कहिवाय, चित्र विचित्र वैताढ वृत्त ।। ५३. तथा उत्तरकुरु जान, उभय पास सीता तणें । यमक नामज मान, ते बिहं पर्वत ने विषे ॥ ५४. कंचनगिरि पर जाण, उत्तरकूरु सीता नदी। तास संबंधे माण, नीलवंतादिक पंच द्रह ।। ५२. देवकुरुषुष शीतोदानद्या उभयपार्वतश्चित्रकूटो विचित्रकूटश्च पर्वतः। (वृ०प० ६५४) ५३. तथोत्तरकुरुषु शीताभिधान नद्या उभयतो यमक समकाभिधानौ पर्वतौ स्तस्तेषु । (वृ० प० ६५४,५५) ५४. 'कंचणपब्बएसु' ति उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पञ्चानां नीलवदादिह्रदानां क्रमव्यवस्थितानां । (वृ०प०६५५) ५५. प्रत्येक पूर्वापरतटयोर्दश दश काञ्चनाभिधाना गिरयः सन्ति ते च शतं भवन्ति । (वृ०प०६५५) ५६. एवं देवकुरुष्वपि शीतोदानद्याः सम्बन्धिनां निषदह्रदादीनां पञ्चानां महाहदानामिति । (व० प० ६५५) ५५. तेहनें पूरव जन्न, वलि पश्चिम दिशि नै विषे। दश-दश गिरि कंचन्न, उत्तरकुरु इम सौ थया ।। ५६. देवकुरु रै मांय, नाम सीतोदा महानदी। तास संबंध कहाय, निषद द्रहादिक पंच है। ५७. तेहनै पूर्वे जन्न, वलि पश्चिम दिशि नै विषे । दश-दश गिरि कंचन्न, देवकुरू इम सौ थया । *लय : बलिहारी भोखणजी स्वाम को २८६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. इमहिज धातकीखंड, अर्द्धपुखर वर में विषे । मुंभक वसै सुमंड, कहिवो सर्व विचार नै । ५६. *जंभक देव तणी हे भगवंत ! स्थिति केतला काल की? जिन कहै एक पल्योपम स्थिति छै सेवं भंते ! कृपाल की। ५८. एवं धातकीखण्डपूर्वार्धादिष्वप्यतस्तेष्विति । (वृ० प० ६५५) ५९. जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता। (श० १४।१२१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १४११२२) ६०. चवदम शतक ने अष्टमुदेशक, ढाल तीन सौ दोय विशाल की। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' गण गुणमाल की। चतुर्दशशते अष्टमोद्देशकार्थः ॥१४॥८॥ ढाल : ३०३ १. अनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रेषु देवानां चित्रार्थविषयं सामर्थ्यमुक्तं । (वृ० ५० ६५५) २. तस्मिश्च सत्यपि यथा तेषां स्वकर्मलेश्यापरिज्ञान सामर्थ्य कथञ्चिन्नास्ति। (वृ०प० ६५५) ३,४. तथा साधोरपीत्याद्यर्थनिर्णयार्थों नवमोद्देशकोऽभिधीयते । (वृ० ५० ६५५) १. पूर्व उदेशक अंत में, देव तणे सुविचार । विचित्र अर्थज विषय जे, सामर्थपणं उचार ।। २. तेह समर्थपणे छते, स्व कर्म लेश्या ताहि । किणहि प्रकार करी तिका, जाणण समर्थ नांहि । ३. इम साधू पिण आपरी, किणहि प्रकारे ताय । कर्म लेश प्रति जाणवा, सामर्थपणुं न पाय ।। ४. इत्यादिक जे अर्थ नां, निर्णय नवम उदेश । गोयम ने श्री वीर नं, प्रश्नोत्तर सूविशेष ।। सरूपी सकर्म लेश्या पद +प्रभुजी नहिं जाणें नहिं देखत, प्रभुजी री वाणी अमिय समाणी। प्रभजी रा शीस अमोलक जाणी॥[ध्रुपदं] ५. हे प्रभजी ! अणगार ते जी, भावित आतम हुंत । __ आपरी कर्म लेश्या प्रतै जी, नहिं जाणे नहिं देखंत ।। ६. तं पुण ते वलि जीवड़ो जी, रूप शरीर सहीत । कर्म लेश्या करि सहित नैं जी, जाण देखै प्रतीत ? ७. जिन कहै हंता गौयमा ! जी, भावितात्म अणगार। पोता नी जाव देखै अछ जी, पूछयो तिम उत्तर धार ।। ५. अणगारे णं भते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइ न पासइ । ६. तं पुण जीवं सरूवि सकम्मलेस्सं जाणइ-पासइ? ७. हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव (सं० पा०) पासइ । (श० १४११२३) *लय : बलिहारी भीखणजी स्वाम की लिय : पंथोड़ो बोले अमृत वाण श. १४, उ०८,९, ढा० ३०२,३.३ २८७ Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ८. आख्यो वृत्ति विषेह, भावितात्म अणगार ए। संजम भावपणेह, वासित अंतःकरण तसु ।। ६. निज आतम नी जेह, कर्म योग्य लेश्या जिका। कृष्णादिक कहेह, कर्म लेश तेहनें कही ।। १०. तथा कर्म न ताय, लेश संबंध अछै तिका। कर्म लेश कहिवाय, द्वितीय अर्थ इम वृत्ति में ।। ११. तेह प्रतै अणगार, जाणे नहीं विशेष थी। सामान्य थी पिण धार, देखै नहिं मुनिवर तिको । वा-प्रथम अर्थ कर्म योग्य लेश्या वृत्ति में कही तेहनै प्रथम ओलखाविगै ८. अनगार: 'भावितात्मा' संयमभावनया वासितान्त:करणः । (वृ० १०६५५) ९,१०. आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मणो योग्या लेश्या कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या । "लिश श्लेषणे' इति वचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या । (वृ० प०६५५) ११. तां न जानाति विशेषतो न पश्यति च सामान्यतः । (वृ०प०६५५) १२. 'जेह थी कर्म बंधाय, कर्म योग्य लेण्या तिका। जीव तणां अध्यवसाय, भाव लेश ए जाणवी।। १३. चवदम शतके पेख, प्रथम उदेशा नैं विषे। कर्म लेश नै देख, भाव लेश आखी अछ ।। १४. कर्म लेश कहिवाय, उत्तराध्येन चउतीसमें। आत्म परिणाम ताय, कर्म बंध छै तेहथी। १५. पुन्यकर्ता धर्म लेश, पाप तणी कर्ता तिहां । अधर्म लेश विशेष, भाव लेश कहिये तस्॥ १६. तेम इहां पिण ताम, कर्म लेश आखी तिका। जीव तणां परिणाम, भाव लेश इम आखियै ।। १७. ते पोता नी जेह, कृष्णादिक लेश्या प्रतै । छद्मस्थ मुनिवर तेह, जाणें नहिं देखै नहीं। १८. सतरम पद के मांहि, तृतीय उद्देशा नै विषे। कृष्ण लेण में ताहि, च्यार ज्ञान पावै अछ।। १६. कृष्ण लेश संक्लिष्ट, मनपज्जव अति विशुद्ध ते । किण रीते ए इष्ट, वृत्ति विषे तसु न्याय इम ।। १८. कण्णलेस्से णं भंते ! जीवे कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होज्जा। (पण्ण० १७.११२) १९. ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते कृष्णलेश्या च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मनःपर्यायज्ञानसंभव: ? उच्यते (पण्ण० मलयवृ० प० ३५७) २०. इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्य ध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते । (पण्ण० मलयवृ० ५० ३५७) २०. असंख लोकाकाश, तास प्रदेश परमाण ते। कृष्ण लेश नां तास, स्थानक अध्यवसाय नां ।। २१. कृष्ण लेश नां स्थान, मंदज अध्यवसाय में। ह मनपज्जव ज्ञान, पन्नवण वृत्ति विषे का ॥ २२. आख्या अध्यवसाय, तिणसं भावे कृष्ण ए। पावै मनपर्याय, न्याय दष्टि करि देखिये ।। २३. जे छठे गुणठाण, भावे लेश्या षट अछ । तीन कहै कर ताण, तास विरुद्ध परूपणा ।। २४. अवध्यादिके रहीत, निज कर्म लेश जाणें न ते। देखै नहिं सुवदीत, ए लेश्या भाव कहीजिये ।। २८८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. तो किन कारण स्पात, २५. जीव तणां परिणाम, दृष्टि अगोचर ते भगी। देखे नहिं ए ताम, पिण जाणें निज परिणाम प्रति ।। निज कर्म लेश जाणें नहीं ? तास न्याय अवदात, आगल कहियै छे हिवे || २७. सर्व पर्याय करेह, जानें नहि परिणाम निज । अथवा नहिं जाणेह, अनुपयुक्त छद्मस्थ मुनि ॥ २८. अथवा अवधिज आदि, सर्व भाव पर्याय कर । निज परिणाम कृष्णादि, जाणं नहि देखे नहीं ॥ वा० - हिवै कर्म लेश्या नों दूजो अर्थ कर्म नों संबंध इम टीका में किय तेहनुं न्याय कहै छै - २६. द्वित्तीय अर्थ कर्म ख्यात भावे लेश्या तेहथी। पिण कर्म लेश कही कर्म ने ॥ अवधि आदि जे रहित मुनि । बलि देखे नहि निज कर्म प्रति ।। सर्व भाव पर्याय कर बंध कर्म नों यात 1 ३०. अतिही सूक्षम तेह, प्रत्यक्ष नहि जाणेह, ३१. परम अवधिवंत संत निज कर्म द्रव्य प्रति मंत, ३२. एह जाणे नहि देखे नहीं ॥ श्वाय जणाय वलि बहुत आखेतिको । निर्मल छेवर न्याय सूत्रे कर अविरुद्ध जे || ३३. इहविध निज कर्म लेश, जाणे नहि छद्मस्य मुनि देखे नहि सुविशेष हिव जाणं देवं ते कहूं ॥ ३४. जीव शरीर सहीत, कर्म लेश कर सहित प्रति । जाणें मुनी वदीत देखे ते छग्रस्थ मुनि ॥ ३५. इहां एहवो अभिप्राय, शरीर चक्षु ग्राह्य है । 1 वा० जीव तणी जे काय ते जाणे देखे मुनि ।' [ज०स०] -रूप ते शरीर सहित अने कर्म लेश्या सहित जीव प्रतं जाणें देखे । ए संसारी जीव शरीर सहित कर्म लेश्या सहित छे, ते प्रतं जाण देखे । जीव नों शरीर प्रत्यक्ष दीस ते माटै। रूप सहित जीव प्रतै जाण देखे कह्यो । अरूप शरीर रहित अने कर्म या रहित सिद्ध है, ते प्रतस्थ मुनि न जान देखें । ते माटे रूप सहित जीव नों प्रश्नोत्तर कह्यो । ३६. * हे भगवंत ! अछे जिके जी, रूप वर्णादि सहीत | जे कर्म लेश सहोत नां जो पुद्गल बंध वदीत || ३७. प्रकाश पुद्गलतिकेजी, जाव प्रभासं ताय ? जिन भाखे हंता अत्थि जी, वलि शिष्य पूछे न्याय || ३८. कुण प्रभु ! रूप सहीत नां जी कर्म लेश्या करि सहीत । पुद्गल अवभासन करे जी जाय प्रभासं प्रतीत ? ३६. जिन भाखं शशि रवि तणां जी, प्रगट विमाण भी पेस , , तेज समूह बारे नोकल्यो जी, तेह प्रकाश विशेष ॥ ४०. एतला मार्ट ते गोवमा ! जी, रूप कर्म लेश्या सहित पोग्गला जी, दीपे *लय पंथीड़ो बोलं अमृत वाण शरीर सहीत । प्रकाश प्रतीत ॥ वा० - 'सरूवि' ति सह रूपेण - रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते योऽसौ समासान्तविधेः सरूपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव 'सकलेश्य' कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाज्जीवस्य च कथंचिच्छरीराव्यतिरेकादिति । ( वृ० प० ६५५) सकम्मलेस्सा पोग्गला भासेति ? ( ० १४१२४) ३६, ३७. अत्थि णं भंते! सरूवी भाति उज्जति तयेति हंता अत्थि । ३८. कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति जाव पभासंति ? ३९ गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ भ 1 ४०. एए णं गोयमा ! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओोभासेति उयोति सति भासेति । (श० १४ । १२५) २८९ श० १४, उ० ९, ढा० ३०३ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१-४३. इह च यद्यपि चन्द्रादिविमानपुद्गला एव पृथिवीकायिकत्वेन सचेतनत्वात्सकर्मलेश्यास्तथाऽपि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां तद्हेतुकत्वेनोपचारात्सकर्मलेश्यत्यमवगन्तव्यमिति । (वृ०प० ६५५) ४४. पुद्गलाधिकारादिदमाह--- (वृ० प. ६५५) अता पोग्गला? अणत्ता ४५. नेरइयाणं भंते ! कि पोग्गला? सोरठा ४१. यद्यपि पुद्गल मांय, कर्म लेश तो छै नथी। तथापि पृथ्वीकाय, रवि शशि तणां विमाण छै ।। ४२. तेह सचेतन जाण, कर्म लेश करि सहित छै । तेहथी निर्गतमाण, पुद्गल तणो प्रकाश छै ।। ४३. पृथ्वी संबंध थीज, तसु हेतुक भावे करी । ए उपचार थकीज, सकर्म लेशपणं कर्तुं ।। ४४. पुद्गल नों अधिकार, आख्यो तिण प्रस्ताव थी। पुद्गलनोंज प्रकार, कहियै छै हिव आगलै ॥ अत्त-अणत्त पुद्गल पद ४५. *हे प्रभु ! स्यूं नारक तणे जो, अत्ता पूदगल होय । के कहिये अण्णता पोग्गला जी? तास अर्थ इम जोय।। सोरठा ४६. आ अभिविधि करि ताय, दुःख थकी राखै जसु। अथवा सुख उपजाय, ते अत्ता पुद्गल कह्या ॥ ४७. अथवा आप्ता जेह, एकंत हित रमणीय ते । व्याख्या वृद्धज एह, कह्या अणत्ता विपर्यय ।। ४८. *जिन भाख सुण गोयमा ! जी, अत्ता पुद्गल नांय । अछ अणत्ता पोग्गला जी, कहियै महादुखदाय ।। ४६. स्यूं प्रभु ! असुरकुमार ने जी, अत्ता पुद्गल सार । अथवा अणत्ता पोग्गला जी ? गोयम प्रश्न उदार ।। ५०. जिन कहै अत्ता पोग्गला जी, दुख त्राता सुखकार । नहीं अणत्ता पोग्गला जी, इम जाव थणियकुमार ।। ५१. पूछा पृथ्वीकाय नी जी, जिन कहै दोनइ होय । एवं यावत मनुष्य में जी, सुख दुखदायक सोय ॥ ४६. 'अत्त' ति आ-अभिविधिना त्रायन्ते -दुःखात संर क्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः । (वृ० प०६५६) ४७. आप्ता वा-एकांतहिताः, अतएव रमणीया इति वृद्धाख्यातं । (वृ० प० ६५६) ४८. गोयमा ! नो अत्ता पोग्गला, अणत्ता पोग्गला। (श० १४।१२६) ४९. असुरकुमाराणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला? अणत्ता पोग्गला? ५०. गोयमा ! अत्ता पोग्गला, नो अणत्ता पोग्गला । एवं जाब थणियकुमाराणं । (श० १४।१२७) ५१. पुढविकाइयाणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला? अणत्ता पोग्गला? गोयमा ! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि पोग्गला । एवं जाव मणुस्साणं । ५२. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं । (श० १४।१२८) ५२. वाणमंतर में ज्योतिषी जी, विमानीक वलि जान । जिम कह्या असुरकुमार में जी, तिम कहिवं पहिछान॥ इष्ट-अनिष्ट आदि पुद्गल पद ५३. स्यूं प्रभुजी ! नेरइया तणें जी, पुद्गल वल्लभ इष्ट । कै वल्लभ पुद्गल नहीं जी, कहिये तास अनिष्ट ? ५४. जिन कहै इष्ट पुद्गल नहीं जी, जिम अत्ता आख्यात । कहिवा इष्ट पिण तिण विधै जी, इमहिज कांत विख्यात।। ५५. प्रियकारी पिण पोग्गला जी, मनोज्ञ गमता मन्न । भणवा अत्ता नीं पर जी, पंच दंडक इम जन्न ।। ५३. नेरइयाणं भंते ! किं इट्ठा पोग्गला ? अणिट्ठा पोग्गला? ५४. गोयमा ! नो इट्टा पोग्गला, अणिट्ठा पोग्गला। जह। अत्ता भणिया । एवं इट्टा वि, कंता वि । ५५. पिया वि, मणुण्णा वि भाणियव्वा । एए पंच दंडगा। (श० १४।१२९) ५६. पुद्गलाधिकारादेवेदमाह-- (वृ०५० ६५६) सोरठा ५६. पुद्गल नों विस्तार, पूर्वे आख्यो तेहथी। पुदगलनोंज प्रकार, कहिय छ हिव आगलै। *लय : पंथीड़ो बोल अमृत वाण २९० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवभाषा सहस्र पद ५७. *हे प्रभु ! महद्धिक देवता जी, जाव महा ऐश्वर्यवान । सहस्ररूप प्रति ते सही जी विकुर्वी ने पिछान ॥ ५८. भाषा सहस्र प्रति बोलवा जो, समर्थ छै ते स्वाम ? जिन भाखे हंता प्रभु जी, वलि शिष्य पूछे ताम ॥ ५२. स्यूं प्रभु ! भाषा इक हुवे जो अथवा सहस्रज होय ? जिन कहै भाषा एक छे जी निश्च सहस्र न कोय ॥ , सोरठा ६०. एक जीव ते जाण, इक उपयोगपणां पकी । एक काल में माग, एकहीज उपयोग बं ॥ ६१. ते माटै सत्यादि, इक भाषा चिहुं मांहिली । वर्त्ते छे संवादि, न्याय कह्यो ए वृत्ति में ॥ वहा ६२. पुद्गल नां अधिकार थी, तेहिज हिव कहिवाय । प्रश्न गोयम वर पूछिया, उत्तर दे जिनराय ॥ सूर्य पद ६३. *तिण काले नै तिण समय जी, भगवंत गोतम स्वाम । ऊगता बाल सूर्य प्रतं जी, देख्यो रत्न तमाम ॥ रूख ६४. जामना नामे न जी, फूल-पुंज नो प्रकाश । एहवो लाल रवि देखने जी, प्रवर्त्ती श्रद्धा तास ॥ ६५. जाव कोतूहल ऊपनो जी, ज्यां भगवंत महावीर । स्पां आवे आवो करी जी, जाव ६६. यावत गोतम इम कहै किस्वरूप तेनों जी, ६७. अथवा ए सूर्य शब्द नों जी, ए बे प्रश्न पूछियां जी, ६८. जिन कहै सूर्य शुभ अछे जी, नमी गुणहीर ॥ जी, भालो स्यूं छै सूरज वस्तू एह । भगवंत जेह ॥ अर्थ भगवान ! उत्तर दे जगभान ॥ शुभ सूर्य नुं अर्थ | सूत्र विषे इतरोज छे जी हिव टीका में तदर्थ ।। सोरठा ते ६६. सूर्य वस्तु जाण, तसु शुभ स्वरूप इह विधे ते रवि तणो विमान पृथ्वी कायिका ॥ ७०. नाम कर्म नी जाण, त्राणं प्रकृति माहिती। आतप पुन्य पिछाण, तसु उदयवत्तपणा थकी ॥ ७१. लोक विषे पण एह प्रशस्त प्रसिद्धपणां थकी बलि शुभ वस्तु कहेह, ज्योतिषि इंद्रपणां थकी ॥ ७२. अथवा शुभ ये एह अर्थ सूर्य जे शब्द नों तिणे प्रकार करे, कहिये हिव आगले ॥ छे *लय पंथीडो बोलं अमृत वाण : ५७, ५८. देवे णं भंते ! महिड्डिए जाव महेसक्खे रुवसह वित्ता पशु भासासहस्सं भातिए ? हंता पत्र (श० १४० १३०) ५९. साणं भंते! कि एगा भासा ? भासासहस्सं ? गोमा ! गाणं साभासा, नो खलु तं भासासहस्सं । ( श० १४ । १३१) ६०. एकस्य जीवस्यैकदा एक एवोपयोग इष्यते । ६१. ततश्च यदा सत्याद्यन्यतरस्यां तदा नान्यस्यामित्येकैव भाषेति । ६२. पुद्गलाधिकारादेवेदमाह ( वृ० प० ६५६ ) भाषायां वर्त्तते (बु०प०६५६) ६३, ६४. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरजामणाकुसुमयका लोहित पास पासिता जायस ( वृ० प० ६५६ ) ६५. जाव समुप्पन्नको उहेल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव (सं० पा० ) नमसित्ता ६६,६७. जाव (सं० पा० ) एवं वयासी - किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठे ? ६८. गोमा ! सुभे सूरिए सुभे सुरियस्स अट्ठे ( श० १४ । १३२ ) ७२. तथा शुभः सूर्यशब्दार्थस्तथाहि । ६९,७०. 'मुझे रिएति शुभस्वरूप सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामातपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयति त्वात् । (बु०प०६५६) ७१. लोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतत्वात् ज्योतिष्केन्द्रत्वाच्च । ( वृ० प० ६५६ ) ( वृ० प० ६५६) श० १४; उ० ९, ढा० ३०३ २९१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३. सूरेभ्य:-क्षमातपोदानसंग्रामादिवीरेभ्यो हितः । (वृ० ५० ६५६) ७४. सूरेषु वा साधुः सूर्यः। (वृ० प० ६५६) ७३. सूर तण जे अर्थ, क्षमा दान तपसा बलि । संग्रामादि तदर्थ, वीर भणी हित सूर्य ते।। ७४. अथवा वली विमास, सूर विषे साधू भलो। सूर्य कहिये तास, सूर्य शब्द नों अर्थ ए॥ ७५. *हे प्रभु ! ए सूर्य तणो जी, किसं स्वरूप छै ताय । स्यूं प्रभु! प्रभा सूर्य तणी जी, एवं चेव कहाय ।। ७६. एवं छाया रवि तणी जी, ए शोभा कहिवाय । अथवा प्रतिबिंब तेहनों जी, लेश्या वर्ण इम थाय ।। ७५. किमिदं भंते ! सूरिए? किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा ? ७६. एवं चेव एवं छाया एवं लेस्सा । (सं० पा०) (श० १४।१३३-१३५) छाया-शोभा प्रतिबिम्ब वा लेश्या-वर्णः । (वृ० १०६५६) ७७. शत चवदम देश नवमां तणो जी, तीन सौ तीजी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' मंगलमाल ।। ढाल: ३०४ दहा १. लेश्याप्रक्रमादिदमाह (वृ० प० ६५६) १. लेश्या नां प्रक्रम थकी, लेश तणो अधिकार । ते सुखरूपज देश थी, सुणिय तसु विस्तार ।। श्रमणों को तेजोलेश्या पद २. हे प्रभुजी ! जे ए प्रत्यक्ष, आर्यपणे विचरंत । बाह्यभूत जे पाप थी, आर्य तेह कहंत ।। ३. अथवा अज्ज एहनुं अरथ, अद्य अद्धा वर्तमान । तेहपणे विचरै मुनि, श्रमण निग्रंथ सुजान ।। २,३. जे इमे भंते ! अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति । 'जे इमे' इत्यादि, ये इमे प्रत्यक्षाः 'अज्जत्ताए' त्ति आर्यतया पापकर्मबहिर्भूततया अद्यतया वाअधुनातनतया वर्तमानकालतयेत्यर्थः । (वृ०प०६५६, ५७) ४. ते णं कस्स तेयलेस्सं वीइवयंति ? ४. इतलै मुनि दीक्षा ग्रही, वर्तमान विचरंत । केहनी तेजोलेश प्रति, अतिक्रमै ते संत ? ५. तेजोलेश्या नों अरथ, सुख-प्राप्ति कहिवाय । तेजोलेश्या आदि जे, प्रशस्त कहियै ताय ।। ६. तसु उपलक्षण थी तिका, सुख-प्राप्ति नी हेतु। कारण विषेज कार्य नों, उपचारात् अधेतु ।। ७. तेजोलेश्या शब्द करि, सूख-प्राप्ति अवलोय । तेह तणी वांछा इहां, वृत्ति विषे इम जोय ।। ८. इतलै मुनि वर्तमान जे, केहवो सुख छै ताय । केहना सुख नैं अतिक्रमै? तब भाखै जिनराय ।। ५,६. 'तेयलेस्स' ति तेजोलेश्या-सुखासिका तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात्तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति। (वृ०प०६५७) *लय : पंथीड़ो बोले अमृत बाण २९२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *सयाणां स्वाम वच सुखकारिया रे ।। [भुपदं ] ६. मास पर्याय तो श्रमण निग्रंथ, होजी ए तो व्यंतर सुख उलंघंत । संतोष सुख अधिकाय || होजी त्यांरा सुख नों सुणो वृतंत ॥ १०. तेजोलेश्या सुखरूप कहाय, होजी इन ११. वे मास पर्याय श्रमण निर्बंध, १२. अदि वर्जी भवणपति देवा, होजी ए तो तसु सुख यो अधिकेवा ।। १३. इण आलाव करीनें कहिवु, होजी ओ तो आगल इहविध लहिवुं ।। १४. श्रमण त्रिमास तणी पर्याय, होजी इणने असुर थी सुख 'अधिकाय ॥ १५. च्यार मास पर्याय सुतंत होजी ओ तो श्रमण मुनि निग्रंथ ॥ १६. नक्षत्र ग्रह तारांनां सुख सेती, होजी ओ तो अधिक चिद्धं मास सुखेती ॥ १७. पंच मास नीं पर्याय पाली, होजी मुख रवि शशि थी अति न्हाली ।। १८. रवि शशि इंद्र भी सुख अधिकाया, होजी ए तो चरण पंच मास पाया ॥ १६. सौधर्म ईशाण सूर सुखरासं होजी तेही अधिक चरण पट मासं ॥ २०. सुख सनत्कुमार माहिंद्र नां देवां, होजी तेही अधिक मास सप्त लेवा ।। २१. अष्ट मास पर्याय ओपंत, होजी ए तो भ्रमण निग्रंथ शोभंत ।। २२. सुख ब्रह्म तक थी अधिकाया, होजी ओ तो चरण मास अठ पाया ॥ २३. सुख महाशुक्र अमर सहसारं, होजी तेहथी अधिक मास नव धारं ॥ २४. आणत पाणत आरण अच्चु, होजी तेहची अधिक मास दश सच्च ॥ २५. मास इम्पार तणी पर्याय होजी सुख नव ग्रैवेयक थी सवाय ॥ २६. सुख अनुत्तर विमाण थकी अधिकाय, होजी ओ तो वर्ष चरण मुनिराय ॥ लेश्या देवां नीं, होजी मुनि अतिक्रमे गुणखानी ॥ २७. तेजोलेश्या सुख २८. वर्ष पर्याय थकी उपरंत, होजी ओ तो श्रमण निग्रंथ शोभत ।। *लय आज अंबा जी रं नोपत ९,१०. गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवा तेलेर बीईय ११.१२. मारिया समते निम्मं असुरिदवज्जिया भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । १३. एवं एएण अभिलावेणं १४. तिमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ | १५,१६. चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गहगण-नक्खत्ततारारूवाणं जोतिसवाणं देवाण तेयले सं वीईars | १७.१५. पंचमासपरियाए सम निम्मचे मंदिमसूरियाण जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं तेयलेस्सं वीईवयइ । १९. म्मासपरिवार सम निग्ांचे सोहम्मीसागानं देवानं तेयलेस्सं वीईवयइ | २०. सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सणकुमार- माहिंदाणं देवाले वीई २१,२२. अट्टमासपरियाए समणे निग्गंथे बंभलोग- लंतगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयई । २३. नयमारियाए समनि महासुक-सहत्यारा देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । २४. दसमासपरियाए समणे निग्गंथे आणय पाणय- आरपन्चुवाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । २५. एक्कारसमा सपरिवार समणे निचे गेवेनगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । २६,२७. बारसमासपरियाए सम निम्मं अगुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ । २८, २९. तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति । शि० १४, उ० ९, ढा० ३०४ २९३ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. शुक्ल शुक्ल अभिजात पई नं. होजी ओ तो सी परम ज्ञान लही नैं | ३०. शुक्ल नाम ते अमच्छरमाणं, होजी ओ तो कीधा उपगार नुं जाणं ॥ होजी कांइ तेह शुक्ल अभिसंध ।। होजी ओ तो शुक्ल निरतिचार चरणं ॥ ३१. सदारंभी ने हित अनुबंध, ३२. अन्य आचार्य इम करे वरणं, ३३. परम शुक्ल ते शुक्ल अभिजात्य ३४. शोभन आगम विशुद्ध प्रतक्ष, होजी हिव एहिज कहूं अवदात्य ।। ३५. धमण भाव प्रति वर्त्ते बेह होजी ओ तो परम प्रकृष्ट सुलक्ष ॥ ३६. ते श्रमण भाव वर्ष थी उपरंत, होजी ओ तो निश्च गुणमणी गेह ॥ ३७. जे संत विशेष ते आधी ए भारुपो, होजी ओ तो सर्वथा शुक्ल कहंत || ३८. वृत्ति विषे इहविध सुविशेषं, होजी पिण सर्व मुनि नो न आथयो । ३१. परम शुक्ल भई पाछे सीत २९४ भगवती जोड़ होजी ओ तो आपो है न्याय अशेष ॥ होजी कांइ जान करें दुख अंत ॥ होजी ए तो जावत विचरै महंत ॥ होजी ओ तो अर्थ रूप सुविशेषं ॥ ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ४१. चवदमा शतक नों नवमो उदेशं, ४२. मुनि सुख वर्णन डाल विशाली, ४३. भिक्षु भारीमात ऋषिराम प्रसाद, होजी आ तो तीनसी चउथी न्हाली ॥ होजी ए तो 'जय-जश' चित अहलादं ॥ चतुर्दशशते नवमोद्देशकार्यः ॥१४६॥ हा १. कह्या अनंतर शुक्ल ते, अछे केवली दशम हिव, ढाल : ३०५ तत्व थकी तो जेह । केवली प्रमुख कहेह || २०,३१. ''ति शुक्तो नामाभिन्नवृत्तोमारी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति । ( वृ० प० ६५७ ) ३२. निरतिचारचरण इत्यन्ये । ( वृ० १०६५७) ३३. 'सुक्काभिजाइ' ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः । ( वृ० प० ६५७) ३४-३६. आकिञ्चन्यं मुख्यं ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम् । सर्वं शुक्लमिदं खलु नियमात्संवत्सरादूर्द्ध वम् । ( वृ० प० ६५७ ) ३७. एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते न पुनः सर्व एवै - वंविधो भवतीति । ( वृ० प० ६५७ ) (२० १४।१३६) ३९. जाव (सं० पा० ) अंतं करेति । ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । (स० १४१३७) , १. अनन्तरं शुक्ल उक्तः स च तत्त्वतः केवलीति केवलप्रभृत्यप्रतिबद्ध दशम उद्देशकः । (५० ५० ६५०) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. घमस्थ प्रति अन् । वलानी, जाम में दखल को २. केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणइ-पासइ? हता जाणइ-पासइ । (श० १४११३८) केवली पद *प्रश्नोत्तर गोयम जिनजी नों। (ध्रुपदं) २. छद्मस्थ प्रति प्रभ ! केवलज्ञानी, जानें नैं देखंत जी? जिन कहै हंता जाणे-देखै, वलि गोयम पूछंत जी। सोरठा ३. इह केवली शब्देन, ग्रहिवा भवस्थ केवली। आगल जे कथनेन, सिद्ध प्रश्न छै ते भणी ।। ४. *जेम केवली छद्मस्थ प्रति जे, जाणे-देखै भदंत जी ! जाणे-देखै तिम छद्म प्रति सिद्ध ? हंता जाणे-देखंत जी। ३. इह केवलिशब्देन सिद्धग्रहणादिति । भवस्थकेवली गृह्यते उत्तरत्र (वृ०प० ६ ७) ४. जहा णं भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि छउमत्थं जाणइ-पासइ? हंता जाणइ-पासइ । (श० १४।१३९) ५. केवली णं भंते ! आहोहियं जाणइ-पासइ ? एवं चेव । ५. हे भगवंत! केवली छ ते, अधो अवधि ज्ञानवंत जी। तेह प्रत जाणे नै देख? एवं चेव कहंत जी ।। सोरठा ६. प्रतिनियत जे खेत, जाणें तेह अधो अवधि । परम अवधि थी एथ, अधः हेठ तिण कारण ।। ७. *एवं परम अवधिज्ञानी प्रति, केवली प्रति पिण एम जी। सिद्ध प्रत पिण इमहिज कहिवो, जाणे-देखे तेम जी ।। ८. यावत जिम प्रभु ! केवलि सिद्ध प्रति, जाणें नैं देखंत जी। तिम सिद्ध सिद्ध प्रति जाण-देखै ? हंता जाण-पेखंत जी ।। है. केवली प्रभु ! भाखै नैं वागरे ? हंता कहै जिनराय जी। अणपूछयां बोलै ते भाषा, पूछ्यां वागरणाय जी।। १०. जेम केवली भाख-वागरे, तेम सिद्ध पिण जेह जी। भाखै नै वागरै प्रभुजी? अर्थ समर्थ न एह जी। ६. 'आहोहिय' ति प्रतिनियतक्षेत्रावधिज्ञानं । (वृ०प०६५७) ७. एवं परमाहोहियं, एवं केवली, एवं सिद्धं । 'परमाहोहियं' ति परमावधिकं । (वृ० प०६५७) ८.जाव (श०१४।१४०) जहा णं भंते ! केवली सिद्धं जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि सिद्ध जाणइ-पासइ? हंता जाणइ-पासइ। (श० १४।१४१) ९. केवली णं भंते ! भासेज्ज वा? वागरेज्ज वा? हंता भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा। (श०१४।१४२) 'भासेज्ज व'त्ति भाषेतापृष्ट एव, वागरेज्ज' त्ति प्रष्टः सन् व्याकुर्यादिति। १०. जहा णं भंते ! केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? नो इणठे समझें। (श० १४।१४३) ११. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहा णं केवलो भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा? १२. गोयमा ! केवली णं सउट्टाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसक्कार-परक्कमे। १३. सिद्धे णं अणुट्ठाणे जाव (सं० पा०) अपुरिसक्कार परक्कमे । से तेणठेणं जाव (सं० पा०) वागरेज्ज वा। (श० १४।१४४) १४. केवली णं भंते ! उम्मिसेज्ज वा? निम्मिसेज्ज वा ? हंता उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा ।(श० १४११४५) १५. जहा णं भंते ! केवली उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा? नो इणठे समठे । एवं चेव । ११. किण अर्थे प्रभुजी! इम कहिये, जेम केवली ताहि जी। भाखै-वागरै तेम सिद्ध जे, भाखै-वागरै नांहि जी? १२. श्री जिन भाखै भवस्थ केवली, उट्ठाण कर्म सहीत जी। बल वीर्य नैं पुरिसकार वलि, परक्कम करी वदीत जी।। १३. सिद्ध उट्ठाण रहित छै यावत, परक्कम करि नैं रहीत जी। तिण अर्थे करि जाव वाग़रै, पूर्व पाठ प्रतीत जी॥ १४. केवलज्ञानी हे भगवंत जी ! मींची चक्खु खोलंत जी। उघाडी आंख प्रतै वलि मींचै? श्री जिन भाखै हंत जी ।। १५. जेम केवली मींचे चक्ख, मींची नै खोलंत जी। तेम सिद्ध पिण मींच-खोले ? जिन कहै एम न हुँत जी। *लय : कनकमंजरी चतुर श० १४, उ० १०, ढा० ३०५ २९५ Jain Education Intemational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. इमहिज संकोच ने पसारे, ठाणं एम कहेह जी। ऊर्द्ध थायवो तथा बेसवो, तथा सूयवो जेह जी ।। १७. सेज्ज ते शय्या वसति प्रति, निसीहियं इम हुँत जी। अतिहि अल्प काल वसति प्रति, केवलज्ञानी करंत जी ।। १८. प्रभ! केवली रत्नप्रभा प्रति, रत्नप्रभा छै एह जी। इहविध ते जाणें - देखे ? जिन कहै हंता जेह जी ।। १६. जिम प्रभु ! केवली रत्नप्रभा प्रति, जाणै नैं देखत जी। तिम सिद्ध पिण जाण नैं देखै ? श्री जिन भाखै हंत जी। २०. प्रभु ! केवली सक्करप्रभा प्रति, जानें देखत जी? ___ एवं चेव इमज जावत वलि, अधः सप्तमी हुंत जी ।। १६. एवं आउंटेज्ज वा पसारेज्ज वा, एवं ठाणं वा 'ठाणं' ति उर्द्ध वस्थानं निषदनस्थानं त्वग्वर्तनस्थानं चेति । (वृ० प० ६५७) १७. सेज्ज वा निसीहियं वा चेएज्जा। 'सेज्ज' ति शय्या-वसति 'निसीहियं' ति अल्पतरकालिका वसति 'चेएज्ज' त्ति कुर्यादिति । (वृ०प०६५७) १८. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभा पुढवीति जाणइ-पासइ? हंता जाणइ-पासइ। (श० १४११४७) १९. जहा गं भंते ! केवली इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि इमं रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणइपासइ? हंता जाणइ-पासइ। (श०१४।१४८) २०. केवली णं भंते ! सक्करप्पभं पुढवि सक्करप्पभा पुढवीति जाणइ-पासइ? एवं चेव । एवं जाव अहेसत्तम। (श० १४११४९) २१. केवली णं भंते ! सोहम्मं कप्पं सोहम्मकप्पे त्ति जाणइ-पासइ ? हंता जाणइ-पासइ एवं चेव। २२. एवं ईसाणं, एवं जाव अच्चुयं । (श० १४।१५०) केवली णं भंते ! गेवेज्जविमाणं गेवेज्जविमाणे त्ति जाणइ-पासइ ? एवं चेव । २३. एवं अणुत्तरविमाणे वि। (श. १४३१५१) केवली णं भंते ! ईसिंपन्भारं पुढवि ईसिंपन्भारपुढवीति जाणइ-पासइ ? एवं चेव। (श० १४।१५२) २४. केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गले त्ति जाणइ-पासइ ? एवं चेव । २५. एवं दुपएसियं खंध, एवं जाव- (श० १४११५३) जहा णं भंते ! केवली अणंतपएसियं खंध अणंतपएसिए खंधे त्ति जाणइ-पासइ। २६. तहा णं सिद्धे वि अणंतपएसियं खंध अणंत पएसिए खंधे त्ति जाणइ-पासइ? हंता जाणइपासइ। (श० १४११५४) सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति। (श०१४।१५५) २१. हे प्रभु ! केवली सौधर्म कल्प प्रति, सूधर्म कल्प छै एह जी। इणविध जाणे-देखै ? हंता, एवं चेव कहेह जी। २२. इम ईशाण जाव इम अच्युत, ग्रैवेयक भगवंत जी ! केवलज्ञानी जाणे-देखे? एवं चेव उदंत जी।। २३. एम अनुत्तर पवर विमाणज, केवली हे भगवंत जी! सिद्धशिला प्रति जाणें-देखै ? एवं चेव कहंत जी॥ २४. प्रभु ! केवली परमाणु प्रति, परमाण छै एह जी। ___ एम केवली जाणें-देखै ? एवं चेव कहेह जी। २५. दोय प्रदेश खंध इम जावत, जिम प्रभु ! अनंतप्रदेश जी। अनंतप्रदेशिक ए इम केवली, जाण-देखे अशेष जी। २६. तेम सिद्ध पिण अनंतप्रदेशिक, जाणें-देखै तंत जी? हंता जाण नैं देख छै, सेवं भंते ! सेवं भंत ! जी॥ २७. चवदम शतक नों दशम उद्देशक, अर्थ अनोपम ख्यात जी। चवदम शत पिण थयो संपूरण, विविध प्रश्न अवदात जी। २८. संवत उगणीस बावीस, प्रथम जेठ सुदि बीज जी। सहर लाडणूं दीख्या मोच्छव, वलि अणसण महोत्सव चोज जी। २६. उदयराज तपस्वी तपसा रा, बावीसमें दिन जेह जी। संथारो पचख्यो अति हठ सू, गुणपचासम दिन एह जी।। ३०. संत संताली सौ समणी रो, मेळो तीरथ च्यार जी। संथारा नो जबरो महोत्सव, देख्यां हरष अपार जी॥ २९६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. तीनसौ पंचमी ढाल कही ए, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय जी। तीर्थ संपती सखर साहिबी, 'जय-जश' हरष सवाय जी ।। गीतक छंद १. चउदम शत नीं जोड़ कृत सद्गुरु प्रसाद थकी मया। जन भव्य ने कल्याण सिद्धी वर स्वभाव सुगुरु दया ।। २. ते परम उपकारक सुगुरु नी जय विजय थावो सदा । सम्यक्त्व चरण सुबुद्धि पाई तसु प्रसाद थकी मुदा ॥ १,२. चतुर्दशस्येह शतस्य वृत्ति र्येषांप्रभावेण कृता मर्यषा। जयन्तु ते पूज्यजना जनानां कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः। (वृ०प० ६५७) श.१४,७०१०, ढा० ३०५ २९७ Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश शतक गोशालक Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश शतक गोशालक पद दूहा १. चउदम शतके केवली, जाणे रत्नप्रभादि । इम का ते परिज्ञानतो, आत्म संबंधि संवादि ।। २. जिम भगवंत प्रगट कियो, गोतम अथे धार । स्व कुणिष्य गोसाल नों, गति नरकाऽधिकार ।। १. अनन्तरशते केवली रत्नप्रभादिकं वस्तु जानातीत्युक्तं तत्परिज्ञानं चात्मसंबन्धि । (वृ०प० ६५९) २. यथा भगवता श्रीमन्महावीरेण गौतमायाविर्भावितं गोशालकस्य स्वशिष्याभासस्य नरकादिगतिमधिकृत्य (वृ० प० ६५९) ३. तथाऽनेनोच्यते इत्येवं संबंधस्यास्येदमादिसूत्रम् । (व०प०६५९) ४. नमो सुयदेवयाए भगवईए । ३. तिण कारण इण पनरमां, शतके करी सुजोय । कहिय छै ते सांभलो, अर्थ थकी अवलोय ॥ ४. नमस्कार थावो हिवै, श्रुतदेवता भणीज । पूज्यनीक जे भगवती, धुर मंगलीक सहीज।। वा० ---- श्रुत देव तीर्थकर ते अर्थ नां कर्ता ते माट। अनै सूत्र थकी श्रुतदेव गणधर, ते सूत्र का कर्ता ते माट। तथा तीर्थंकर की वाणी तेहनै श्रुतदेव कहे तो ते पिण गुण अनै गुणी नां अभेदोपचार थकी ते तीर्थकर न हीज नमस्कार हवै। णमो सुयदेवयाए भगवतीए' एहनों अर्थ इहां वृत्तिकार न कियो। बलि वृत्तिकार सम्बन्ध मिलायो तिहां कह्यो-आदि सूत्र कहियै छ, इम कही तेणमित्यादि--'तेणं कालेणं तेणं समएणं' ए आदि सूत्र कह्यो । पिण 'णमो सुयदेवयाए भगवतीए' ए आदिसूत्र वृत्तिकार न कह्यो । ते माटे ए मंगलाचरण वाक्य नों न्याय बुद्धिवंत विचारी लीजो । ५. तिण काले नै तिण समय, नगरी सावत्थी नाम । हुंती अति रलियामणी, वर्णक कहि ताम ।। ६. तेह सावत्थी बाहिरे, ईशाण कूण मझार । कोष्ठक चैत्य तिहां हंतो, वर्णक अति विस्तार ।। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नाम नगरी होत्था -वण्णओ। ६. तीसे णं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, तत्थ णं कोट्ठए नामं चेइए होत्था वण्णओ। ७. तत्थ णं सावत्थीए नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी आजीविओवासिया परिवसति । ८, अड्ढा जाव बहुजणस्स अपरिभूया, आजीवियसमयंसि लट्ठा ९. गहियट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा ७. तिहां सावत्थी नगरीए, हालाहला जु नाम । __कुंभारी गोसाल नीं, बसै श्राविका ताम ।। ८. ऋद्ध प्रतिपूर्ण जाव ही, अपरिभूत कहेह। गोसालक नां समय में, लाधा अर्थ जिणेह ।। ६. वले ग्रह्या छ अर्थ जिण, पूछया अर्थ जिणेह । विशेष करिकै अर्थ प्रति, निश्चय करचा तिणेह ।। १०. हाड अनैं हाड मांहिली, मीजी लगै कहेह । प्रेमानुरागे करी रंगाणी छै जेह ।। ११. अन्य भणी ते इम कहै, अहो आउखावंत ! गोसालक नों समय जे, एहिज अर्थ सुतंत ।। १२. परम अर्थ एहीज फुन, शेष सर्व पहिछाण । अनर्थभूत इसी कहै, बहु जन आगल वाण ।। १०. अट्ठिमिजपेम्माणुरागरत्ता, ११. अयमाउसो ! आजीवियसमये अछे, १२. अयं परमठे, सेसे अणठे त्ति, १. सिद्धांत भ० श.१५ ३.१ Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आजीवक गोसाल नां, सिद्धांते करि ताम । निज आतम प्रति भावती, विचरै छै तिण ठाम ।। १४. तिण काले नै तिण समय, गोशालक अभिधान । मंखलि नाम डाकोत नों पुत्र तेह पहिछान ।। १३. आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ । (श० १५१) १४. तेणं कालेणं तेणं समएणं गोसाले मंखलिपुत्ते 'मंखलिपुत्ते' त्ति मंखल्यभिधानमंखस्य पुत्रः । (वृ०प० ६५९) १५. चउव्वीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए 'चउवीसवासपरियाए' त्ति चतुर्विशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्यापर्यायः । (वृ० प० ६५९) १६. कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिडे १५. वर्ष चउबीस परिमाण ही, प्रव्रज्या पर्याय । हालाहला जु नाम ही, कुंभकारिका ताय ।। १६. तेह कुंभ करिवा तणां, आपण हाट विषेह । गोसालो निज संघ ही, साथ परिवरयो जेह ।। १७. आजीवक समये करी, निज आतम प्रति जान । ___भावित ते वासित छतो, वि रै छ तेह स्थान ।। १८. तब ते गोसालक तण, मंखलिसुत ने पास । कदाचित अन्य दिवस ही, आगल कहिये जास ॥ १६. प्रगट थया आव्या कन्है, दिशाचरा षट धार । कहियै छै तसु नाम जे, सान कलंद कणियार ॥ २०. अछिद्र चउथो जाणवू, अग्निवेशायन हूंत। छट्टो अर्जुन नाम तसु, ए गोमायू-पूत ।। वा०-दिश नै विष चरै-गमन करै। मन में मान-अम्हे भगवंत नां शिष्य छां ते दिशाचर, भगवंत नां शिष्य पासत्था थया- ढीला पड्या, इति टीकाकार नो मत अन चूर्णिकार कहै पार्श्वनाथ ना संतानिया । २१. तब ते छहूं दिशाचरा, अष्ट प्रकार निमित्त । ते इम दिव्य उत्पात फुन, आंतरिक्ष सुकथित्त ।। २२. भूकंपादी भौम फुन, अंग स्वर लक्षण जाण । व्यंजन ए अठ पूर्वगत पूर्व माहिला माण ।। १७. आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० १५५२) १८. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णदा कदायि १९. इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउभवित्था, तं जहा साणे, कलंदे, कण्णियारे, २०. अच्छिदे, अग्गिवेसायणे, अज्जुणे गोमायुपुत्ते । (श० १५५३) वा---'दिसाचर' त्ति दिशं - मेरां चरन्ति-यांति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिकचरा: देशाटा वा, दिकचरा भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकार: 'पासावच्चिज्ज' त्ति चर्णिकारः । (वृ० प० ६५९) २१,२२. तए णं ते छ दिसाचरा अट्ठविहं पुव्वगयं अष्टविधं-अष्टप्रकारं निमित्तमिति शेषः, तच्चेदंदिव्यं १ औत्पातं २ आंतरिक्षं ३ भौमं ४ आंगं ५ स्वरं ६ लक्षणं ७ व्यंजनं ८ चेति, पूर्वगतं--पूर्वाभि धानश्रुतविशेषमध्यगतं। (वृ० प० ६५९) २३. मग्गदसमं तथा मार्गौ--गीतमार्गनृत्यमार्गलक्षणो संभाव्येते 'दसम' त्ति अत्र नवमशब्दस्य लुप्तस्य दर्शनान्नवमदशमाविति दृश्यं । (वृ०प०६५९) २४. सरहि-सएहि मतिदंसणेहिं निज्जूहति 'निज्जूहंति' ति निर्वृथयंति पूर्वलक्षणश्रुतपर्याययूथानिर्धारयन्ति उद्धरन्तीत्यर्थः। (वृ० प० ६५९) २५,२६. निज्जूहित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवट्ठाइंसु । (श० १५१४) 'उवढाइंसु' त्ति उपस्थितवन्तः आश्रितवन्त इत्यर्थः । (वृ०प० ६५९) २७. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अलैंगस्स महा निमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं 'अलैंगस्स' त्ति अष्टभेदस्य 'केण इ' त्ति केनचित्तथाविधजनविदितस्वरूपेण 'उल्लोयमेत्तेणं' ति उद्देशमात्रेण । (वृ० ५० ६५९, ६०) २३. मार्ग कहितां गीत नृत्य, नवमो दशमो एह । दशम शब्द कह्यु पाठ में, नवम लुप्त दीसेह ।। २४. निज-निज मति' दर्शन' करी, इतल प्रति जाणेह । पूर्व श्रुत पर्याय जे, तेह थकी उद्धरेह ॥ २५. निज निज मति दर्शन करी, उद्धरी पूर्व थकीज। मंखलिसुत गोसाल प्रति, आश्रयी रह्या सहीज ॥ २६. अम्है तुम्हारा शिष्य छां, एम कही पट जेह । गोसाला पासे रह्या आथितवंत कहेह ।। २७. मंखलिसुत गोसाल तब, अष्टंग अठ भेदेह । महानिमित्त नै किणहि इक, उपदिश मात्र करेह ।। १. बुद्धि २. दर्शन ते प्रमेय नै परिच्छेदन ३०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. सर्व प्राण सहु भूत में, सर्व जीव नै जाण । २८. सम्वेसि पाणाणं, सन्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सर्व सत्व नैं एह षट, अव्यभिचारि पिछाण ।। सव्वेसि सत्ताणं इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई 'इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई' ति इमानि षड़ अनतिक्रमणीयानि-व्यभिचारयितुमशक्यानि ।। (वृ०प०६६०) २६. पूछयां छतांज वागरे, ते षट कहिये जेम । २९. वागरणाई वागरेति, तं जहा---लाभं अलाभं सुह ___ लाभ अलाभ हि सुख रु दुख, जीवित मरिवं तेम ।। दुक्खं जीवियं मरणं तहा। (श० १२५) 'बागरणाई' ति पृष्टेन सत्ता यानि व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते तानि व्याकरणानि । (वृ०प० ६६०) ३०. मंखलिसूत गोसाल तब. तेणे अष्टांगे जेह । ३०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अलैंगस्स महामहानिमित्त नैं किणहि इक, उपदिश मात्र करेह ।। निमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं ३१. नगरी सावत्थी – विष, अजिन छतोज समील । ३१. सावत्थीए नगरीए अजिणे जिणप्पलावी हूं जिन छं इम आत्म प्रति, कहिवा नं जसु शील ।। वा०--अजिणे जिणप्पलावी-अजिणे कहितां अवीतराग छतो, जिणप्पलावी वा०—'अजिणे जिणप्पलावि' ति अजिन:-अवीतरागः कहितां जिन वीतराग, आत्मा प्रतै प्रकर्ष करिकै कहै, इम एहवू शील ते जिनप्रलापी। सन् जिनमात्मानं प्रकर्षण लपतीत्येवंशीलो इम अनेरा पिण पद जाणवा । जिनप्रलापी, एवमन्यान्यपि पदानि वाच्यानि । (वृ० प० ६६०) दहा ३२. अरहत नहिं अरहंत हं, इसो प्रलाप करेह । ३२. अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली केवलिप्पलावी, अकेवली हं केवली, इसो प्रलापी जेह ।। ३३. नहिं सर्वज्ञ सर्वज्ञ हूं, इसो प्रलापी तेह । ३३. असवण्णू सव्वण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई पगासेअजिन छतो जिन शब्द प्रति, प्रकाशतो विहरेह ।। माणे विहरइ। (श० १५५६) ३४. तिण अवसर ते सावत्थी नगरी विषे कहाय । ३४. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-जाव (सं० पा०) शृंघाटक त्रिक जाव ही, महापंथ रै माय ।। महापहपहेसु ३५. बह जन माहोमांहि जे, इम कहै जावत जेह । ३५. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव (सं० पा०) एम परूपै इम खलु, अहो देवानुप्रियेह ।। ___एवं परूवेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! ३६. मंखलिसुत गोशाल ते, जिन जिन-प्रलापी मंत । ३६. गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव (सं०पा०) जावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाशतो विहरंत ।। पगासेमाणे विहरइ। ३७. ते किम ए वच मानिये ? इम कहै माहोमांहि । ३७. से कहमेयं मन्ने एवं ? (श० ११७) मण्णे पाठ नं अर्थ जे, वितर्क अर्थे ताहि ।। ३८. तिण काले नै तिण समय, स्वामी श्री वर्द्धमान । ३८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा समवसरचा जावत वंदी परषद गई निज स्थान ।। पडिगया। (श० १०८) ३६. तिण काले नै तिण समय, श्रमण भगवंत महावीर । ३९. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ तेह तणं जे शिष्य बड़ो, इंद्रभूति गुणहीर ।। महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती नामं अणगारे । ४०. गोतम गोत्र तणो धणी, जावत छठ-छठ जाण । ४०,४१. गोयमे गोत्तेणं....."छठंछठेणं......."अडमाणे इम जिम बीजा शतक नां, पंचमद्देश पिछाण ।। बहुजणसह निसामेइ। ४१. नियंठ उद्देशक' नाम तस्, जाव गोचरी काज। 'एवं जहा बितियसए नियंठुद्देसए' त्ति द्वितीयशतस्य फिरतां रव बहु जन तणं, निसणी महामुनिराज। पंचमोद्देशके। (वृ० ५० ६६१) ४२. बहु जन इम कहै परस्पर, वलि इहविध भाखेह। ४२. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं इम पन्नवै फुन इहविधे, करै परूपण जेह ।। पण्णवेइ, एवं परूवेइ४३. इम निश्च देवानुप्रिय! मंखलिसूत गोशाल । ४३. एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिन-प्रलापी जाणवू, जिन छतं जिन कहै न्हाल ।। जिणप्पलावी। १. भगवती श० २।१०६-१०९ भ० श०१५ ३०३ Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रते ४४. जावत ही जिन शब्द प्रति प्रकाश करतो जेह विचरै ते किम एह वच मानिये एम कहेह ? ४५. भगवंत गोतम तिह समय बहुजन समीप एह । अर्थ सांभली हि घरी जाव' जातवद्ध जेह ॥ ४६. जाव भात पाणी देखा गुणगे । जाव सेव करतो तो इहविध वयण वदे ॥ ४७. इम निश्च भगवंत! हूं पारणें जान तिमहिज बहुजन परस्पर, वदैजु इहविध वान ॥ ४८. जावत ही जिन शब्द प्रति प्रकाश करतो जेह । विचरै छै गोशाल ए कहियूँ इहां लगे ॥ ४६. हिव गोतम पूछा करै वीर प्रतं तिणवार । ते क्रिम हे भगवंतजी ! एवच इम अवधार ॥ ५०. ते हूं बांधू हे प्रभु! गोशालक नुं ताम | मंखलित नुं जन्म थी, चरित्र कहो सहु स्वाम || वा० उद्वाणपरियाणियं परिकहियेाग कहता उत्पान जन्म तिहां थकी आरंभी नै पारियाणियं कहितां विविध व्यतिकर-चरित, परिकहियं कहितां ते कहो भगवंत ! एतलं गोशाला नो जन्म थीं चरित्र कहो, हूं सांभलवा वांछू । ५१. हे गोतम ! इम आमंत्री, श्रमण भगवंत महावीर । कहै सुरगिर धीर ॥ बहु जन मांहोमांय | हम कहे इम भावे इम पन्नवे परूपे वाय ॥ जे भगवंत गोतम प्रतै, इम ५२. जेह भणी हे गोयमा ! , मंलि अंगज एह । प्रकाशतो हिरेह ॥ पिण गोतम जाण । एम परूपं वाण ॥ ५३. इम नि गोशालको जिन जिन प्रलापी जान ही, ५४. ते मिथ्या झूठो कहै एम हूं जावत वली, हूँ ५५. इम खलु ए गोशाल नुं मंखलित नं जोप मंखलि नामै भिक्षुक, पिता हूंतो अवलोय || नैं न्हाल | सुकुमाल || भद्रा नार । वाचली नामे ये पता होत्या मंनि महिला मंचन तो हो नाम छँ तिको अनं मंखे कहितां चित्राम रा पाटिया लियां फिरे, एहवो भिक्षुक विशेष एस डाको नीं जाति ते गोशाला नुं पिता ५६. तेह मंखली मंख जे, भिक्षु डाकोत भद्रा नामे भारिया हुंती तनु ५७. जावत ही प्रतिरूप ते, तब ते कदा अन्यदा ते हुई, गर्भवती ५८. तिण काले नैं तिण समय, सरवण एहवै नाम । सब्णिवेस तो तदा भमित अभिराम ॥ ऋद्ध ५२. जावत ही सुरलोक सम से जेहलूंज प्रकाश । पासादीयाजु च्यार पद, देखण योग्य उजास || ६०. तिहां सरवण सणवेश में, गोबल एवं नाम । विप्रवसे ते ऋद्धि करि, परिपूरण से ताम || तिहवार || १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० १५ १३ में जायसड़ढे से पहले जाव नहीं है । ३०४ भगवती जोड़ ४४. जाव जिणे जिणसद्दं पगामेमाणे विहरइ । से कहमे मन्ने एवं ? (श० १५/१२) ४५. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमट्ठ सोचा निसम्म जायस ४६. जाव भत्तपाणं पडिदंसेइ जाव (सं० पा० ) पज्जुवासमाणे एवं वयासी ४७. एवं खलु अहं भंते ! छट्ठ तं चेव ! ४५. जाव (सं० पा० ) जिस पायेमाणे विद ४९. से हमे भंते । एवं? ५०. तं इच्छामि णं भंते! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उद्वाणपरियाणियं परिकहियं । (श० १५।१३ ) वा० 'उद्वाणपरियाणियं' ति परियानं विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियानिकं चरितम् उत्थानात् -जन्मन आरभ्य पारियानिक उत्थानपारियानिक तत्परिकथितं भगवद्भरिति गम्यते । (बु०प०६६१) ५१. गोयमादी ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी ५२. जण्णं गोयमा ! से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, एव भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ५३. एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिथे निगस पगातेमाणे विहर। ५४. तमिच्छा अहं पुण दोषमा एव माइक्यामि जाव परूवेमि ५५. एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलीपुत्तस्स मंखली नाम मंखे पिता होत्या । वा० 'मंखे' त्ति मंख: -- चित्रफलकव्यग्रकरो भिक्षाक(पु०प०६६१) विशेषः । ५६. तस्स णं मंखलिस्स मंखस्स भद्दा नामं भारिया होत्था-सुकुमालपाणिपाया ५७. जाव पडिरुवा । तए णं सा भद्दा भारिया अण्णदा कदायि गुव्विणी यावि होत्था । ( श० १५।१४) ५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे नामं सण्णिवेसे होत्या-रिमियसम ५९. जाव नन्दनवण-सन्निभप्पगासे, पास। दीए दरिसणिज्जे अभिरू परुिवे | ६० तत्थ णं सरवणे सण्णिवेसे गोबहुले नाम माहणे परिवसइ अड्ढे Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. जावत अपरिभूत है. ऋग वेदादिक जाव सुपरिनिष्ठित भाव ॥ रहिया नीं शाल ब्राह्मण तणां सिद्धांत में, ६२. ब्राह्मण ते गोबल ने गत ठाण सहित बाड़ो तमु ते ६२. तब ते मंखलि भिक्षुको, अन्य भद्रा भार्या गर्भिणी, तसु ६४. चित्रफलग जसु हाथ में, एवो छतूंज जेह । भिक्षाचरपणे आत्म प्रति भावित छतंज तेह || ६५. पूर्वानुपूर्व जिको, चालतोज थकोज । वलि ग्रामानुग्राम प्रति उस्तो खतोज ॥ तो तिकाल ॥ दिवस हिबार । संघाते धार ॥ 1 ६६. जहां सरवण मणिवेस, जिहां गोवल तणीज । गउ रहिवा नीं शाल छै, तिहां आवै आवीज ।। ६७. गोबहुल नामा विप्र नीं, गउ नीं शाल विषेह । इक देशे निज भंड प्रति मूके मूही तेह ॥ ६८. सरव सन्निवेस में जब नीच मभिमेह 7 प्रकार करेह | कुल में पर समुदायणी भिक्षावर्या जेह ॥ ६६. ते भिक्षाचर्या विषे, फिरतो छतोज तेह | पोते जे रहिवा तणो, वसति स्थानक जेह || ७०. जे सगली दिशि नैं विषे सर्व मार्गण - गवेषणा करें, इतले ७१. रहिया स्थानक सहू दिशे सर्व मार्गण अनैं गवेषणा, करतो ७२. जे अनेरे स्थानके, ते जायेह ॥ तब तेहिज गोबहुल जे ७२. गौ रहिवानी वर्षाकाल निर्वाहवा ७४. तब ते भद्रा भार्या, प्रकार करेह | छतोज जेह || वसति अणलाभंत । ब्राह्मण तणीज मंत ॥ जेइक देण विषेह करतो वास प्रतेह ॥ गयां सवा नव मास । बालक जनम्यो जास ॥ J मृदु जावत प्रतिरूप जे, ७५. तिण अवसर ते बाल नां, मात पिता धर मन । दिन इग्यार व्यतिक्रम्ये, जाव बारमें दिन ।। ७६. ए एहवे रूपे तसु, गुणवंत गुणे निप्पन्न । करे नाम जिह कारण, ए अम्ह बाल सुन्न || ७७. ब्राह्मण जे गोबहुल नीं, गउशाला में जात । तिसुं धावो बाल नों नाम गोशाल विख्यात ॥ ७८. गउ नीं शाला ते भणी, गोशालो इम न्हाल । मात-पिता ते बाल नां, नाम दिये गोशाल || ७६. गोशालो बालक तदा, बालभाव मूकाण । परिणत मात्र विज्ञान जे जोवन पाम्यो जान || ८०. पोतेहोज पिता तणां फलग बकी भिन्न जेह करें चित्र नां पाटिया, ताम करोनें तेह ॥ ६१. जबजस्त अपरिभूए, रिउमेद जाय भए परिव्वायएस य नयेसु सुपरिनिट्टिए यावि होत्था । ६२. तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्था । ( श० १५/१५) ६३. तए णं से मंखली मंखे अण्णया कदायि भद्दाए भारिया गुब्विणीए सद्धि ६४ चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे ६५. पुापुरमा गामागाम माणे ६६. जेणेव सरवणे सण्णिवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ६७. गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करे, करेता ६८. सरवणे सण्णिवेसे उच्च-नीय मज्झिमाई कुलाई परसमुदाणा भियायरियाए ६९. मागे सीए ७०. सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेइ । ७१. वसहीए सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेमाणे ७२. अण्णत्थ वर्साह अलभमाणे माहणस्स ७३. गोसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए । ( ० १२.१६) ७४. तसा भद्दा भारिया नवहं मासाणं बहुपडि - पुण्णाणं अट्टमाण य राइंदियाणं वीतिक्कंताणं सुकुमालपाणिपायं जाव पडिरूवगं दारगं पयाया । ( ० १२ १०) ७५. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीतिक्कते संपत्ते बारसमे दिवसे । ७६. अयमेवं गुणनिष्पन्नामधेयं करोतिजम्हा णं अम्हं इमे दारए ७७. गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए जाए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं गोसाले गोसाले ति । ७८. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो नामधेज्जं करेंति गोसाले ति । (१० १५/१८) ७९. तए णं गोसाले दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते ८०. सयमेव पाडिएवकं चित्तफलगं करेइ, करेत्ता तदेव गोमलस्स भ० श० १५ ३०५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-स्वयमेव पोतैज एकलो आत्मा थई नैं एतले पिता थी अलगो थई नै वा०-'पाडिएक्क' ति एकमात्मानं प्रति प्रत्येक पितु चित्रफलग करै। फलका भिन्नमित्यर्थः। (वृ० ५० ६६१) ८१. चित्रफलग छै हस्त जसु, भिक्षाचर भावेह । ८१. चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावमाणे निज आतम प्रति भावतो, गोशालो विचरेह ।। विहरइ। (श० १५।१९) भगवान विहार पद ८२. तिण काले नै तिण समय, हे गोतम ! गुणगेह । ८२. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! तीसं वासाई तीस वर्ष लग हूं तदा, वसि गृहवास मझेह ।। अगारवासमझावसित्ता ८३. देवपणं माता-पिता, पाम्यो छतो सुजाण । ८३. अम्मा-पिई हिं देवत्तगएहिं समत्तपइण्णे एवं जहा इम जिम भावनझयण में, आख्यो तिम पहिछाण ।। भावणाए वा०–आचारंग ना दूजा श्रुतखंध ना पनरमा अध्ययन नै विषे, ते इम- वा०-'एवं जहा भावणाए' त्ति आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य माता पिता जीवतां दीक्षा न लेतूं, इसो अभिग्रह पूर्ण थयां । पञ्चदशेऽध्ययने, (१५।२६-२९) अनेन चेदं सूचितं'समत्तपइन्ने नाहं समणो होहं अम्मापियरम्मि जीवंते' त्ति समाप्ताभिग्रह इत्यर्थः। (वृ०५० ६६३) ८४. जावत इक सुर-दूस ग्रहि, मंड थई गह छंड।। ८४. जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ वर अणगारपणां प्रतै, पडिवज्यो महिमंड ।। अणगारियं पब्वइए। (श० १।२०) ८५. तिण अवसर हूं गोयमा ! चरण लिय धुर वास । ८५. तए णं अहं गोयमा ! पढमं वासं अद्धमासं अद्धमासेणं अर्द्धमास-अर्द्धमास तप, करते छते विमास ॥ खममाणे ८६. अस्थिक ग्राम नेश्राय जे, पढमं अतर वास । ८६. अट्ठियगामं निस्साए पढम अंतरवासं वासावासं वर्षाकाल चउमास ही, रहिवा आव्यु तास ।। उवागए। वा०--पढ़मं अंतरवासं वासावासं उवागए। पढमं अतरवासं--अंतर अवसर वा०—'पढमं अंतरावासं' ति विभक्तिपरिणामादेव प्रथमेअर्थात् पहिलो मेघ वृष्टि नों अवसर । वासावासं—वर्षाकाल नै विषे वसियो, चउ ऽन्तरं-अवसरो वर्षस्य -बष्टेयंत्रासावन्तरवर्षः मासे रहिवो, ते वर्षावास । अथवा अंतरे जाइवा वांछ्यो जे क्षेत्र, ते प्रतै अणपाम्यो अथवाऽन्तरेऽपि --जिगमिषतक्षेत्रमप्राप्यापि यत्र सति पिण, बर्षा छता साधु अवश्य आवास करै ते अंतरावास । अंतराबास ते वर्षाकाल- साधुभिरवश्यमावासो विधीयते सोऽन्तरावासो-वर्षाचउमास, ते प्रति उपागत आश्रित । कालस्तत्र 'वासावासं' ति वर्षासु वास: - चातुमासिकमवस्थानं वर्षावासस्तमुपागतः- उपाश्रितः । (वृ० प० ६६३) ८७. मास-मास द्वितीय वर्ष, करतो छतोज ताम । ८७. दोच्चं वासं मासं मासेणं खममाणे पुब्वाणुपुव्वि पूर्वानुपूर्वी चलत, लंधित ग्रामानुग्राम ।। चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे 'दोच्चं वास' ति द्वितीये वर्षे। (वृ०प०६६३) ८८. नगर राजगृह छै जिहां, नालंद पाड़ो जेथ । ८८. जेणेव रायगिहे नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, तंतुवाय-शाला जिहां, हं चलि आव्यो तेथ ।। जेणेव तन्तुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, ८९. तिण ठामें हं आयनै, यथायोग्य प्रतिरूप । ८९. उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हामि, अवग्रह प्रति म्है ग्रह्यं तदा, अवग्रह ग्रही तद्रूप ।। ओगिण्हित्ता १०. तंतुवाय-शाला तण, एक देश रै मांहि । ९०, तन्तु वायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए। इक खूण चउमास ही, आश्रय रह्यूज ताहि । (श० १।२१) प्रथम मासखमण पद ६१. तिण अवसर हूं गोयमा ! मासखमण धुर न्हाल । अंगीकार करिने तदा, विचरूं वणगर-शाल ।। ६२. मंखलिसुत गोशाल तब, चित्रफलग करि जास । भिक्षाचर भावे करी, भावित आतम तास ।। ९१. तए णं अहं गोयमा ! पढमं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । (श० १५।२२) ९२. तए णं से गोसाले मंख लिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे ३०६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. पूर्वानुपूर्वी चलत, जाव उल्लंघतो तेथ । जिहां राजगृह नगर छै, नालंद पाड़ो जेथ ।। ६४. तंतुवाय-शाला जिहां, आवै तिहां चलाय। तिहां आवी तिण शाल रै, एक देश रै माय ।। ६५. भंड मुकै मूकी करो, नगर राजगह मांहि । ऊंच नीच मज्झिम कुले, फिरतां थकांज ताहि ।। ९३. पुवाणुपुति चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालंदाबाहिरिया ९४. जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तन्तुवायसालाए एगदेसंसि ९५. भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता, रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खाय रियाए अडमाण ९६. अण्णत्थ कत्थ वि वसहि अलभमाणे तीसे य तन्तुवायसालाए एगदेसंसि ९७. वासावासं उवागए, जत्थेव णं अहं गोयमा ! (श०१५।२३) ९८. तए णं अहं गोयमा ! पढम-मासक्खमणपारणगंसि तन्तुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता. ६६. किहांई अन्य स्थानक विषे, वसती अणलाभेह । तेहिज वणगर-शाल नैं, जे इक देश विषेह ।। १७. वर्षाकाल चउमास ही, आय रह्यो तिहां वास । जिहांज हूं छू गोयमा ! ते इक देश विमास ।। १८. तिण अवसर हूं गोयमा ! प्रथम मास नैं जोय । पारण वणगर-शाल थी, निकल्यं निकली सोय ।। ६६. नालंदा पाड़ा तणे, मध्योमध्य थईज। नगर राजगह छै जिहां, तिहां आव्यु आवीज ।। १००. नगर राजगृह उच्च नीच, जाव अटन कर तेह । विजा नाम गाथापति, पइठो हूं तसु गेह ।। ९९. नालंदं बाहिरियं मझमझेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता १००. रायगिहे नगरे उच्चनीय जाव (सं० पा०) अडमाणे विजयस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविठे। (श० १५।२४) १०१. तए णं से विजए गाहावई ममं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ठ जाव (सं० पा०) १०२. खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता पाय पीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता १०३. पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता १०४. अंजलिम उलियहत्थे ममं सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ, १०१. ताम विजय गाथापति, मुझ में आवत देख । देखी नै हरष्यो वलि, लघु संतोष विशेख ।। १०२. शीघ्रहीज आसण थकी, ऊठ ऊठी तेथ । पादपीढ थी ऊतरै, उतरी हरष समेत ।। १०३. मूकै पग नी पादुका, मूकी नैं तिहवार । फुन उत्तरासण एकपट करै करी धर प्यार ।। १०४. अंजलि नां मुकुलित करौ, शिर चाडै कर जोड़। मत-अठ पग मुझ सांमुहो, आवै धर अति कोड़। १०५. इम सन्मुख आवी करी, फुन मुझ प्रति त्रिण वार । आ दाहिण पासा थकी, करै प्रदक्षिण सार ।। १०६. करी प्रदक्षिण इहविधे, मुझ प्रति ते वंदेह । नमण करै शिर नाम मुझ वंदी नमी शिरेह ।। १०७. मुझ प्रति विस्तीरण घणु, असणादिक चिउं आहार । हं प्रतिलाभिस एहवं, चितवी हरयो सार ।। १०८. वलि प्रतिला तो छतो, मन में हरषत थाय । फुन प्रतिलाभी नैं पछै, लॉ हरष अधिकाय ।। १०६. विजय गाथापति ने तदा, ते द्रव्य-शुद्ध' करेह । वलि दातार-शुद्ध' करी, फुन लेणहार शुद्धेह ।। १०५ अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ १०६. करेत्ता ममं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता १०७. ममं विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभे स्सामित्ति तुटठे, १०८. पडिलाभेमाणे वि तुझे, पडिलाभिते वि तुझे । (श० १२५) १०९. तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धणं पडिगाहगसुद्धणं १. उद्गम आदि दोष रहित । २. आशंसा अदि दोष रहित । भ० श०१५ ३०७ Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते त्रिविध करि द्रव्य पूर्व का ए त्रिविध शुद्ध, प्रथम ११०. तिविहे दायक लेवाल अर्थ ए न्हाल || १११. अथवा तिविणं तिको, करण करावण अनुमति ११२. त्रिकरण शुद्धे त्रिविध विभेदे शुद्ध । द्वितीय अर्थ अविरुद्ध || कह्यो, मन वच काया जोय करी अवलोय || ए तीनूंई जोग तसृ, शुद्ध ११३. इम ए त्रिविध त्रिकरण शुद्ध, एहवे दान करेह । मुझ प्रति प्रतिलाभ्यो छतो, बद्ध सुरायू जेह ॥ ११४. कृत संसार परित तिण, तसु घर विषेजु एह । प्रगट थया दिव्य पंच ही, ते जिम तिमज कहेह || ११५. द्रव्य रूप धारा तणी, धारा तणी, वृष्टि थई तिहार । पंच वर्ण फूलां तभी, घई वृष्टि सुखकार ।। ११६. गगने वस्त्र तणी ध्वजा, तथा वस्त्र नीं वृष्टि । देव बजावी दुंदुभि, ए सुर वार्जित्र सृष्टि || ११७. अंतर पिण आकाश में, अहो दान इम वान । देव करे उदघोषणा, ए पंचम दिव्य ज्ञान ॥ ११८. नगर राजगृह में तथा शृंघाटक त्रिक ताहि जाव जाव महापथ नैं विषे, राजमारग रे मांहि || ११. बहुजन मांहोमांहि मिल, इम कहै जावत जेह । परूपं इहविधे, अति उचरंग धरेह || १२०. धन्य ए देवानुप्रिया ! विजय गाथापति एह । कृतार्थ देवानुप्रिया ! विजय गाथापति जेह ॥ १२१. कृतपुन्य हे देवानुप्रिया ! विजय गाथापति जान कृतलक्षण देवानुप्रिया ! विजय गाथापति मान ॥ १२२. कया णं लोक देवानुप्रिय, शुभ फल कीधा सार । इहभव ने परभव तणां विजय भणी हितकार | १२३. भ ल देवानुप्रिय ! फल मनु भवे उदार जन्म अनं जीवित तणं, विजय नोंज सुखकार ।। १२४. जे तणां घर में विषे, तहारुवे तथाविद्ध। व्रत न जाण्या जेनां एहवं भ्रमण प्रसिद्ध ॥ १२५. साधू नो आकार जसु प्रतिलाभ्येज छतेह | प्रगट हुआ दिव्य पंच ए, ते जिम तिमज कहेह ॥ 1 १२६. वृष्टि द्रव्य धारा तणी, जावत ही आकाश । अहो दानं अहो दानं सुर उद्घोषण जास ।। १२७. ते भजी ए धन्य छ वली कृतारथ जाण । छै, कृतपुग्य कृतलक्षण जिणे कृतानुलोक पिठाण 11 १२८. भलं कर्तुं मनु भव विषे, जन्म जीवित फल सार । विजय गाथापतिनूंज इम, जन कहै बारंबार ॥ ३०८ भगवती जोड़ ११०. तिवि 'तिविहेणं' ति उक्तलक्षणेन विविधेन। (१० ५० ६६३) १११. अथवा त्रिविधेन कृतकारितानुमतिभेदेन । (००६६२, ६४ ) ११२. किरण त्रिकरणशुद्धेन मनोवाक्कायन ( वृ० प०६६४) ११२. लाभिए समादेवाउए निवडे, ११४. संसारे परितीकए, गिहंसि य से इमाई पंच दिव्वाई तं पाठम्वाई जहा ११५. वसुधारा बुट्टा, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए ११६. देव ११७. अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो दाणे ति ( श० १५/२६ ) पुडे । ११८. तए णं रायगिहे नगरे सिवाडग जाव (सं० पा० ) पहेसु ११९. (सं० पा०) १२०. धन्ने णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावई, कयत्थे णं देवापिया | विजये गाहाव अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जाव १२१. कयपुण्णे णं देवाशुप्पिया ! विजये गाहावई, कपल देवापिवा । विजये महावई १२२. कया णं लोया देवाणुप्पिया ! विजयस्स गाहावइस्स, 'कपा गं लोग' ति कृतो शुभफलोअप समुदायोपचारात् लोकौ इहलोकपरलोकी ( वृ० प० ६६४ ) १२२. देवागुणिया ! माणूस्सए जम्मजीवले विजयस्स गाहावइस्स १२४. जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू 'तथारूपे' तथाविधे अविज्ञातव्रतविशेष इत्यर्थः । (बु०प०६६४) १२५. साधुवे पहिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाई पापा तं जहा 'साधु साध्वाकारे । ( वृ० १०६६४) १२६. वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे अहो दाणे त्ति घुट्टे । १२७ पुणे कपलभखणे या पं लोया, १२८. सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, विजयस्स गाहावइस्स । (श० १५।२७) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९. मंचलित गोशाल तब बहु जन समीप एह अर्थ सुणी हृदये घरी, उपनुं संशय जेह ॥ १३०. कोतुहल मन ऊपनुं, जिहां विजय नुं गेह | तिहां आये आभी करी, विजय घरे देवेह || 1 ३१. बुष्टि द्रव्य धारा सणी पंच वर्ण न जाण फूलां नों ढिगलो पड़यो, अति अद्भूत पिछाण ॥ १३२. विजय तां घर थोज मुझ. नोकलता प्रति देख | देखी नै हरष्यो घणुं, लह्युं संतोष विशेख ॥। १३३. जिहां म्हांरोज समीप छे, तिहां आवै आवीज । तीन वार जे मुझ प्रत, दक्षिण पासा थीज ।। १३४. करै प्रदक्षिण इम करी, मुझ प्रति ते वंदेह | शिरनामे बंदी नमी मुझे प्रति एम कहेह ॥ १३५. हे भगवन ! थे मोहरा, धर्माचारज सार धर्मांतवासी प्रभु ! हूं १३६. तिण अवसर हे गोयमा! मंखलित गोशाल । तेह तणां ए वचन नें, आदर न दियो न्हाल ॥ १३७. मन में भलो न जाणियो, रह्यो मून तिहठाम । प्रथम मास नां पारणो, आस्यो ए अभिराम ॥ वा०--' इहां तीर्थंकर केवल । थारो अवधार ॥ ऊपना पहिला छद्मस्थपणे कोई नैं उपदेश न देव, शिष्य न करें एहवी अनादिया रीत छ । ते भणी भगवंत गोशाल ने अंगीकार न कियो । ठाणांग ठाणे ९ के अर्थ में एहवी गाथा कही छे । ते लिखिये छेन परोवएसविसया, न य छउमत्था परोवएस पि । दिसि न व सीसवमा दिक्ांति जिणा जहा सब्वे ॥ 1 वा० - छद्यस्थ तीर्थकर अनेरा ने उपदेश थकी प्रवत्त नहीं अन अनेरा नैं उपदेश देव पिण नहीं । वलि शिष्य वर्ग नै दीक्षा न दिये । ठाणांग नवमें ठाणे बड़ा टबा में कह्यो तीर्थकर छद्मस्थ थकां उपदेशे न चाले, छद्मस्थ थकां वखाण न करें, शिष्य नैं दीक्षा न दिये, ते माटै छद्मस्थपणे तीर्थंकर ने दीक्षा देवा नीं रीत नथी । ते भणी भगवान गोशाला ने अंगीकार न कियो।' (अ.स.) द्वितीय मासखमण पद १३८. ति अवसर हूँ गोयमा ! निकली नालंद-पाड़ ने नगर राजगृह धीज मध्योमध्य थईज || १३६. तंतुवाय - शाला जिहां, तिहां आव्यो आवीज । द्वितीय मास अंगीकरी, विचरूं ध्यान धरीज ॥ १४०. तिण अवसर हूं गोयमा ! द्वितीय मास नें जेथ । पारणे वणकर- शाल थी निकल्युं निकली तेथ ॥ १४१. नालंदा पाड़ा तणें, मध्योमध्य भईज । नगर राजगृह छै जिहां जावत फिरतांहीज || 1 १२९. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म समुप्पन्नसंसए, १३०. समुप्पन्नको उहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ विजयस्स गाहावइस्स गिहंसि १३१ वसुहारं वुद्धं, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं । १३२. ममं च णं विजयरस गाहाव इस्स गिहाओ पडिनिक्खममा पास पासिता १३३, १३४ जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता ममं एवं वयासी १३५. ममं धम्मादरिया बहण भ धम्मंतेवासी । (० १५.२० ) १६. अगोमा ! enerate r एम गो आदामि, १३७. नो परिजाणामि, तुसिणोए संचिट्ठा मि । १३८. तए णं अह गोयमा ! रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि पांडेनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरिय मज्भमज्भेण निग्गच्छामि । १३९. निग्गच्छित्ता जेणेव तन्तुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता दोच्चं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं बिरामि । (श० १५.३०) १४०. तए णं अहं गोयमा ! दोच्च-मासखमणपारणगंसि तन्तुवायसालाओ हिनिमाथि पडिनिम्बमित्ता १४१. नाल बाहिरियं मम निगच्छामि निया छिता व रायगिहे नगरे जाब ( ० पा०) अडमाणे भ० श० १५ ३०९. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२. आणंद गाथापति तणें, घर पेठो सुविशेख । तब आणद गाथापति, मुज प्रति आवत देख ।। १४२. आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविढे । (श० १५१३१) तए णं से आणंदे गाहावई ममं एज्जमाणं पासइ। १४३. एवं जहेव विजयस्स नवरं १४४. ममं विउलाए खज्जगविहीए पडिलाभेस्सामित्ति तुट्ठः 'खज्जगविहीए' त्ति खण्डखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारेण (वृ० प० ६६४) १४३. इम जिम आख्य विजय न, तिम कहिव अधिकार । णवरं इतो विशेष ते, आहार विष अवधार ।। १४४. मुझ प्रति विस्तीरण घणो, खंड खाजादिक आहार । प्रतिलाभिस इम चितवी, हरष्यो हिया मझार ।। तृतीय मासखमण पद १४५. शेष तिमज कहिवो सह, जावत तीजो मास । अंगीकार करिनैं तदा, विचरूं ध्यान विलास ।। वा०—जिम पहिला मासखमण के पारणे गोशाले कह्यो-थे म्हारा धर्माचार्य, हूं थारो धर्मातेवासी शिष्य, ते इहां पिण जाव शब्द में पाठ कहिवो। तिवार भगवान गोशाला का वचन नै आदर दियो नहीं, मन में भलो जाण्यो नहीं, मूंन राखी । दीक्षा देवा री रीत नहीं, तिणसूं अंगीकार न कियो। १४६. तिण अवसर हूँ गोयमा ! तृतीय मास में जोय । पारण वणकर-शाल थी, निकल्यं निकली सोय ॥ १४५. सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) तच्च मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि । (श० १५॥३२-३७) १४६. तए णं अहं गोयमा ! तच्चमासखमणपारणगंसि तन्तुबायसालाओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्ख मित्ता १४७. तहेव जाव (सं० पा०) अडमाणे सुणंदस्स गाहाव इस्स गिहं अणुपविठे। (श० १५॥३८) १४८ तए णं से सुणंदे गाहावई एवं जहेव विजयगाहावई १४७. तिमज जाव फिरतां थका, गाथापती सुनंद । तेह तणां घर मैं विष, कियो प्रवेश अमंद ।। १४८. गाथापती सुनंद तब, इम जिम विजय आख्यात । णवरं इतो विशेष ते, आहार विषे अवदात ।। १४६. मुझ प्रति ते तब सर्वही, रसमय भोजन सार । वर अभिलाषित रस करी, निपर्नु छै जे आर ।। नवरं १४९. सव्वकामगुणिएणं 'सव्वकामगुणिएणं' ति सर्वे कामगुणा-अभिलाषविषयभूता रसादयः सञ्जाता यत्र तत्सर्वकामगुणितं तेन । (वृ०प० ६६४) चतुर्थ मासखमण पद १५०. आहार इसो प्रतिलाभियो, शेष तिमज सह न्हाल । तूर्य मास अंगीकरी, विचरच वणकर-शाल ।। १५०. भोयणेणं पडिलाभेइ। सेसं तं चेव जाव (सं० पा०) चउत्थं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं बिहरामि । (श०१५।३९-४४) बा-अवशेष तिमहिज कहिवं, इण वचने करी इहां पिण गोशाल कह्योआप म्हारा धर्माचार्य, हूं आपरो धर्मातेवासी शिष्य। तब भगवान गोशाला रा वचन नै आदर न दियो, मन में पिण भलो न जाण्यो। मून धारी रह्या । इहां ए अभिप्राय-जे छद्मस्थपणे दीक्षा देवा री रीत नहीं, ते माटै अंगीकार न कियो। १५१. ते नालंदा पाड़ में, दूर निकट बहु नांहि । इहां कोल्लागज नाम ही, सन्निवेस थो ताहि ।। १५२. तेहनों वर्णक जाणवो, कोल्लाग सन्निवेस । ब्राह्मण बहल वसै तिहां, ते ऋद्धवंत विशेष ।। १५३. जावत अपरिभूत छै, प्रथम वेद ऋग जाव । ब्राह्मण संबंधि शास्त्र में, सुपरिनिष्ठित भाव ।। १५१. तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते, एत्थ ___णं कोल्लाए नाम सण्णिवेसे होत्था । १५२. सण्णिवेसवण्णओ। तत्थ णं कोल्लाए सण्णिवेसे बहुले नामं माहणे परिवसइ-अड्ढे १५३. जाव बहुजणस्स अपरिभूए, रिउव्वेय जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठिए यावि होत्था। (श० १५/४५) १५४. तए णं से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासिय पाडिवगंसि १५४. बहल ब्राह्मण तिण अवसरे, कात्तिक मास तणीज । च उमासी छै तेहनी, पडिवा विषे कहीज ।। ३१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ विस्तीरण कहितां पणुं मधु घृत सहित सुहाय । परमान्न क्षीर संघात ही, विप्र जिमाया ताय ।। वा - मधु कहितां मीठो ते खांड अथवा मधु कहितां दूध 1 १५६. शुद्धपर्य 'बलु' कराविया हूं गोयम ! तिह वार , मासखमण चउथा तर्णं १९५७. तंतुवाय- शाला तंतुवाय शाला की, १५८. नालंदा पाड़ा तणें, निकली ने कोल्लाग जे १५६ तिहां आयं आवी करी तिहां उच्च नीच जाय ही, १६०. ब्राह्मण बहुल त घरै पारण दिन सुविचार ॥ थकी हूं निकल्युं अवधार । निकली कियो बिहार ॥ थई मध्य मध्येह | सन्निवेस छै तेह || कोलाग सन्निवेस फिरतां तां विशेष ।। हूं पेटो सुविशेत्र । विप्र बहुल तिह अवसरे, मुझ प्रति आवत देख ॥। १६१. तिमहिज जावत मुझ प्रतं विपुल विस्तीर्ण स्वात । ते मधु घृत संयुक्त हो, परमाग्न क्षीर संपात ।। १६२ हूं प्रतिलाभ एवं चितवि हरथ्यो चित्त । शेष कयू जिम विजय ने तिमहिज बहुल कथित ।। १६३. जावत ब्राह्मण बहुत ही दीखूं मोटो दान करता बहुविध जान ॥ मंखलिपुत्र कहाय । अणदेखतो ताय ।। सहितज बार J मुझ प्रति सह दिशि ने विषे सर्व प्रकारे धार ॥ वार-वार गुणग्राम तसु १६४. तिण अवसर गोशाल ते, मुझ प्रति वणकर-शाल में १६५. नगर राजगृह ने विषेभ्यंतर १६६. मार्गण - गवेषणा करें, मांहरो किणही स्थान । श्रुति वा खुति वा प्रवृति अणलाभतो जान ॥ 1 वा० -ममं कवि सुति वा खुति वा पर्वात्त वा अलभमाणे । ममं - मांहरो, कत्थवि किहांई, सुति-शब्द मात्र सांभलं ते श्रुति । आंखे अणदेखीवो जे अर्थ ते शब्द करि निश्चय करें ते माटै श्रुति नो ग्रहण, खुति छींक कृत । एणे पण अदृश्य मनुष्यादिक नीं गमिता हुवै एतला मार्ट छींक नों ग्रहण कीधो ते छींक मात्र अथवा पवत्ति वार्त्ता पिण अणलाभतो थको । १६७. जिहां वणकर नीं शाल है, तिहां आवै आवीज । वस्त्र पहिरवा नां तदा, उत्तरीय वस्त्र कहीज || १६८. अथवा भाजन - कुंडिका, क्वचित भंडिका मान । भाजन रांधण प्रमुख नांवली पानही जान ॥ १६. वली चित्र नां पाटिया, ए वस्त्रादिक धार । आप ब्राह्मण नैं तदा, आपी ने तिहवार ॥ १२५. बिउले मषय माहणे परमगं 'परमन्ने' ति परमन्नेन००९६४) १५६. आयामेत्था । (श० १५०४६) तए णं अहं गोयमा ! चउत्थमासखमणपारणगंसि १५७. तंतुवायसालाओ पडिनिक्खिमामि पडिनिक्ख मित्ता १५८. नालंदं बाहिरियं मज्झमज्भेणं निग्गच्छामि, निम्गच्छिता जेणेव कोल्हा सि १५९. तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता कोल्लाए सणिवेसे उच्चनीय जात्र (सं० पा० ) अडमाणे १६०. माहूरस निहं अणुपविट्ठे । ( ० १५/४७) तए णं से बहुले माहणे ममं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता १६१. तहेव जाव ममं विउलेणं महुघय संजुत्तेणं परमण्णणं । १६२. पडिलाभेस्सामीति तुट्ठे सेसं जहा विजयस्स । १६३. जाव बहुले माहणे २ । ( ० १५४०-५०) १६४ए से मोसाले मंखलितं ममं तंतुवायसालाए अपासमा १६. रायगि नगरे समितरबाहिरियाए ममं सव्यमो समंता १६६. करे मम त्वयि सुतिनाति वा पर्वात्त वा अलभमाणे वा० - 'सुई व त्ति श्रूयत इति श्रुतिः शब्दस्तां चक्षुषा किल अदृश्यमानोऽर्थः शब्देन निश्चीयत इति श्रुतिग्रहणं 'खुई व' त्ति क्षवणं क्षुतिः छीत्कृतं ताम्, एषाऽप्यदृश्य मनुष्यादिगमिका भवतीति गृहीता, 'पर्वात्त व' त्ति प्रवृत्ति वार्त्ता । ( वृ० १०६६४) १६७. जेणेव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता साडियाओ य पाडियाओ य 'साडियाओ' त्ति परिधानवस्त्राणि 'पाडियाओ' त्ति उत्तरीयवस्त्राणि | (२०१०६६४) १६८. कुंडियाओ य वाहणाओ' य । १६९. चित्तफलगं च माहणे आयामेइ, आयामेत्ता १. पाठान्तर में 'पाहणाओ' शब्द लिया गया है । भ० श० १५ ३११ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०. दाढी मूंछ सहीत ही, नापित पासे तेह । मुंड करावै तिह समय, मुंडन करावी जेह ।। १७१. तंतुवाय-शाला थकी, निकले निकलो जेह । नालंदा पाड़ा तणे, थई मध्य मध्येह ।। १७२. निकले निकली - जिहां, कोल्लाग एहवै नाम । सन्निवेस अछै तिहां, आवै आवी साम ।। १७३. तिण अवसर कोल्लाग ते, सन्निवेस रे बार। बह जन इम कहै परस्पर, जाव परूपै धार ।। १७४. धन्य छ हे देवानुप्रिय ! ब्राह्मण बहुल उदार । तिमज जाव जीवित सुफल, बहुल विप्र नै सार ।। गोशालक का शिष्य रूप स्वीकरण पद १७५. बार-बार जन इम वदै, तिण अवसर रै मांहि । मंखलिसुत गोशाल ते, बहु जन समीप ताहि ॥ १७६. एह अर्थ निसुणी करी, धारी हृदय मझार । ए एहवे रूपे तदा, आत्म विषे अवधार ।। १७७.जावत संकल्प ऊपनों, जेहवी जे सलहीज । मांहरा धर्माचार्य नी, धर्मोपदेशक नीज।। १७८. श्रमण भगवंत महावीर नी, द्युति कांति सुपरम्म । जश बल वीर्य छै वली, पुरिसकार परक्कम्म ।। १७६. लब्ध प्राप्त सन्मुख थयो, नहि छ तेहवी सार । अन्य किणही तथारूप जे, श्रमण ब्राह्मण नी धार । १७०. सउत्तरोठं भंड' कारेइ, कारेत्ता 'सउत्तरोट्ठ' ति सह उत्तरोष्ठेन सोत्तरौष्ठं-सश्मश्रुकं यथा भवतीत्येवं 'मुंड' ति मुण्डनं कारयति नापितेन । (वृ० प० ६६४) १७१. तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरियं मझमझेण १७२. निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव उवागच्छइ। (श० १५/५१) १७३. तए णं तस्स कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्ख इ जाव परूवेइ । १७४. धन्ने णं देवाणुप्पिया ! बहुले माहणे, तं चेव जाव (सं० पा०) जीवियफले बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स माहणस्स। (श. १५/५२) १७५ तए णं तस्स गोसालस्स मखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं १७६. एयमट्ठ सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए १७७. जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था जारिसिया णं मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स १७८. समणस्स भगवओ महावीरस्स इड्ढी जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे १७९. लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए नो खलु अस्थि तारिसिया अण्णस्स कस्सइ तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा १८०. इड्ढी जुती जाव (सं० पा०) परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए. १८१. तं निस्संदिद्धं णं एत्थ ममं धम्मायरिए धम्मोव देसए १८२. समणे भगवं महावीरे भविस्सतीति कटु कोल्लाए सण्णिवेसे सब्भित रबाहिरिए १८३. ममं सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ। १८०. ऋद्धि द्युति जावत परक्कमे, लाधै पामै ताहि । वलि तेह सन्मुख थयु, अन्य तणु ए नांहि ।। १८१.ते माटै संशय रहित, इह स्थानक अवलोय । धर्माचारज मांहरा, धर्मोपदेशक सोय ॥ १८२. श्रमण भगवंत महावीर जी, हुस्यै एम अवधार । सन्निवेस कोल्लाग रै, भ्यंतर सहितज बार ॥ १८३. मुझ प्रति सहु दिशि विदिश में, सर्व प्रकार करेह । मार्गण-गवेषणा तदा, करै अधिक धर नेह ।। १८४. मुझ प्रति सर्व थकी तदा, सर्व प्रकार करेह । मार्गण अनैं गवेषणा, करतो छतोज तेह । १८५. कोल्लाग सन्निवेस रै, बाहिर महि रमणीक । मुझ संघात सन्मुख थयो, आय मिल्यो तहतीक ।। १८६. तिण अवसर गोशाल ते, मंखलिसुत अवधार। हरष संतोष लडं छतुं, जे मुझ प्रति त्रिण वार || १८७. आ दाहिण पासा थकी, प्रदक्षिणा प्रति देय। जावत ही नमस्कार करि, इहविध वयण कहेय ॥ १८४. ममं सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणे १८५. कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स बहिया पणियभूमीए मए सद्धि अभिसमण्णागए। (श० १५/५३) १८६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हट्ठतुठे मम तिक्खुत्तो १८७. आयाहिण-पयाहिणं जाव (सं० पा०) नमंसित्ता एवं वयासी१. 'भंड' धातु का प्रयोग क्षुर-मुंडन के अर्थ में हुआ है। पाठान्तर में 'मुंडं' शब्द लिया गया है। ३१२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८. हे भगवन ! थे मांहरा, धर्माचार्य जगीस। १८८. तुब्भे णं भते ! मम धम्मायरिया, अहण्णं तुभं हूं धूं आप तणो सही, धर्मातेवासी शीस ।। ___ अंतेवासी। (श० १५/५४) १८६. तिण अवसर हं गोयमा! मंख लसुत गोशाल । १८८ तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तेह तणां ए अर्थ प्रति, अंगीकरूं तिहकाल । एयमझैं पडिसुणेमि । (श० १५/५५) वा०---इहां वृत्तिकार कह्यो-इसा अयोग्य नै पिण अंगीकार न करिवू ते वा०-यच्चतस्यायोग्यस्याप्यभ्युपगमनं भगवतस्तदअक्षीण रागपण करी परिचय करिक, थोड़ी सी स्नेह सहित अनुकंपा सद्भाव क्षीणरागतया परिचयेनेषत्स्नेहगनुिकम्पासद्भावात् । थी । ते भणी ए अयोग्य नै अंगीकार कियो। ते कार्य केवली नी आज्ञा माहिला किम कहिये ? जे अक्षीण रागपणां थी परिचय थी, स्नेह अनुकंपा थी, जे काय कर, ते कार्य भलुं किम कहिये ? वले थोड़ी स्नेह-अनुकंपा कही। जो भलो कार्य है तो थोड़ी स्नेह अनुकंपा किम कहै ? थोड़ो क्रोध, थोड़ो मान, थोडी माया, थोड़ो लोभ भलो नहीं, तिम थोड़ी स्नेह अनुकंपा सहित कार्य कियो ते भलो नहीं । वले वृत्तिकार कह्यो-छद्मस्थपणे करी अनागत दोष नां अजाणवा थी छद्मस्थतयाऽनागतदोषानवगमादवश्यंभावित्वाच्चैतअन निश्च होणहार थी एहव का । जो ए कार्य प्रशंसा करिवा योग्य हुव ता स्यार्थस्येति भावनीयमिति । (वृ० ५० ६६४) छद्मस्थपणे करी, अनागत दोष नां अजाणवा थी अनै निश्चै होणहार थी इम क्यू कहै ? जे छद्मस्थपणे तीर्थकर नै दीक्षा देवा री रीत नहीं अन यां दीधी। ते मार्ट अक्षीण रागपणां थी परिचय मोह अनुकंपादिक थी ए कार्य कियो, इम जाणवू । १६०. तिण अवसर हं गोयमा! मंखलिसूत गोशाल । तेह तणे संघात ही, पणित भूमि थी न्हाल । १९०. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि पणियभूमीए १६१. जे षट वर्ष लग सही, लाभ अलाभ विचार । ९९१. छब्वासाई लाभं अलाभं सुख दुख मैं सत्कार ही, असत्कार फुन धार ॥ सुहं दुक्खं सक्का१६२. ए षट भोगवतो थको, अनित्य चितवणा सार । रमसक्कारं तेह प्रतै करतो छतो, हं विचरयो अवधार ।। १९२. पच्चणुब्भवमाणे अणिच्चजागरियं विहरित्था । (श० १५॥५६) तिल-स्तम्भ पद १६३. तिण अवसर हं गोयमा, अन्य दिवस किहवार । १९३. तए णं अहं गोयमा! अण्णया कदायि पढमसरदकालप्रथम शरद अद्धा तणां, समय विषे सुविचार ।। समयंसि वा०-पढमं सरदकालसमयंसि-समय-भाषा करिक मृगशिर पोस वा०-'पढमसरयकालसमयंसि' ति समयभाषया ए बिहुं मास नै शरदकाल कहिये । तिहां 'प्रथम शरद काल समय' मृगशिर मार्गशीर्षपोषौ शरदभिधीयते तत्र प्रथमशरत्कालसमये जाणवू । मार्गशीर्षे । (वृ० प० ६६५) १६४. अल्प वृष्टि काय - विषे, मंखलिसुत गोशाल । ते साथे सिद्धार्थ जे, ग्राम नगर थी न्हाल ।। १९४. अप्पवुट्टिकायंसि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धि सिद्धत्थगामामओ नगराओ १६५. कूर्म ग्राम जे नगर प्रति, चाल्यो करण विहार । १९५. कुम्मगाम नगरं संपट्रिए विहाराए । तस्स णं तिहां सिद्धार्थ ग्राम फुन, कूर्म ग्राम बिच धार ।। सिद्धत्थगामस्स नगरस्स कुम्मगामस्स नगरस्स य अंतरा १६६. इहां मोटो तिल-थंभ इक, पत्र फूल करि सहीत । १९६. एत्थ णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुप्फिए हरियगहरितपणे करि अतिहि ते, विराजमान कथीत ॥ रेरिज्जमाणे। 'रेरिज्जमाणे' त्ति अतिशयेन राजमान इत्यर्थः । (वृ०प० ६६५) १. सूत्र नी भाषा। २. इहां अल्प शब्द ते अभाववाची जाणवो। अविद्यमान वर्षा एतले नहीं छै वर्षा ते काल । भ० श०१५ ३१३ Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७. श्री लक्ष्मी शोभा करो, अतीत अतीव धार । उपशोभमान छतो जिहां, तिष्ठे-रहै तिवार । १६८. मंखलिसुत गोशाल तब, ते तिल-बूटो देख। देखी नै जे मुझ प्रतै, वंदै नमै विशेख ।। १९६. वंदी शिर नामी करी, मुझ प्रति बोल्यो वाय । हे भगवंत ! तिल-थंभ ए, स्यं नोपजस्य ताय ? २००. किं वा नीपजस्यै नहीं? एह सप्त अवलोय । तिल पुप्फ तेहनां जीव जे, मरी-मरी नै सोय ॥ २०१. जास्य उपजस्यै किहां, तब हूं गोयम ! तेह। मंखलिसुत गोशाल प्रति, इहविध वयण वदेह ।। २०२. गोशाला ! तिल-थंभ ए, सही निपजस्य जाण । नहीं निपजस्यै इम नहीं, प्रगटपणे पहिछाण ।। २०३. एह सप्त तिल पुष्प नां, जीवा मरि-मरि ताहि । एहिज तिल थंभ नै विषे, इक तिल-संगलो' मांहि ।। २०४. ऊपजस्यै सप्त तिलपण, तिण अवसर रै माय। मंखलिसुत गोशाल ते, मुझ इम कहित वाय ।। नहा । १९.. सरीए अतीव अतीव उसोभेमाणे-उवसोभेणेम चिट्ठइ। (श० १५।५७) १९८. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते तं तिलथंभंग पास इ, पासित्ता मम वंदइ नमसइ १९९. वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एस णं भते ! तिलथंभए कि निप्फज्जिस्सइ? :००. नो निप्फज्जिस्सइ ? एए य सत्ततिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता २०१. कहिं गच्छिहिति ? कहिं उबवजिहिति ? तए णं ____ अहं गोयमा ! गोसाल मखलिपुन एव वयासी२०२. गोसाला ! एस णं तेलयंभए निप्फज्जिस्सइ, नो न निप्फज्जिस्सइ। २०३. एते य सत्ततिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्द। इत्ता एयस्स चेव तिलथंभस्स एगाए तिलसंगलियाए २०४. सत्त तिला पच्चायाइस्सति । (श १५४५८) तए णं से गोसाले मखंलिपुत्ते मम एवं आइक्ख माणस्स २०५. एयमठें नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयट्ठ असद्दहमाणे, २०६. अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, ममं पणिहाए अयं ण मिच्छावादी भवउ 'ममं पणिहाए' त्ति मां प्रणिधाय-मामाश्रित्याय मिथ्यावादी भवत्विति विकल्पं (वृ०प०६६५) २०७. त्ति कटु मम अंतियाओ सणिय-सणियं पच्चो सक्कइ २०८. पच्चोसक्कित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं तिलथंभंग २०९. सलेढुयायं चेव उप्पाडेइ, उप्पाडेता एगते एडेइ । २०५. एह अर्थ सरध्या नहीं, प्रतोत आंणी नांहि । रोचविया नहीं ए अरथ, अणश्रद्धंतो ताहि ॥ २०६. प्रतीत अणकरतो थको, अणरोचवतो जेह । मुझ आश्रयी वच एहनुं झूठो थावो एह ।। २०७. इम मन चितवणा करी, मुझ पासा थो ताम । हलवै-हलवै प्रच्छन्न ही, पाछो ऊसरै आम ॥ २०८. हलवै पाछो ऊपरी, जिहां तिल-बंटो जेह । तिहां आवै आवी करी, ते तिल-थंभ प्रतेह ।। २०६. समूल माटी सहित हो, तुरत उपाइँ आय । तुरत उपाड़ी मैं तदा, एकत न्हाखै ताय ।। २१०. ते एकांत न्हाखी करी, तिणहिज क्षेत्र विषेह । तिणहिज वेला गोयमा ! थयं तिको निसुणेह ।। २११. दिव्य उदक नों बादलो, प्रगट थयो जे मेह। तब ते जल-बादल अतिहि, शीबहीज गाजेह ।। २१०. तक्खणमेत्तं च णं गोयमा ! २११. दिव्वे अब्भवद्दलए पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, 'पतणतणायइ' त्ति प्रकर्षेण तणतणायते गर्जतीत्यर्थः । (वृ० ५० ६६५) २१२. खिप्पामेव पविज्जुयाति, २१२. शीघ्रहीज अति गाज नै, शीघ्रहीज अधिकाय । चमकै विज्जु सौदामिनी, ते चमकी में ताय ।। २१३. शीघ्रहीज नहि अति उदक, नहिं अति कर्दम होय । स्तोक-स्तोक जल बिदुआ, विरली छांटां सोय ।। २१३. खिप्पामेव नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं 'नच्चोदगं' ति नात्युदकं यथा भवति 'नाइमट्टियं' ति नातिकमं यथा भवतीत्यर्थः 'पविरलपप्फुसियं' ति प्रविरलाः प्रस्पृशिका-विग्रुषो यत्र तत्तथा । (व० प० ६६५) १. तिल की फली ३१४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४. पवनप्रजोगे नभवत्त, ते तो धूल रेणू कहितां भूमि स्थित २१५. इम ए रज रेणू तणो, दिव्य उदक शीतादि सम २१६. जिणे मेघ करिनं ययं विलन्यूटो थिर तेह | विशेषे स्थिर वली, उपनुं प्रगटपणेह || पड़यो जिहां थी ह थाणो थिर थयुं तेह ॥ २१७. कुन बद्धमूल रहयुं छतं तिणहि ठामें जई रयुं, रज कहिवाय | साथ || ही विणासकारी मंत एह मेह बरसंत ॥ २१८. सप्ततिके तिल पुष्प नों, जीवा मरि-मरि ताहि । तेहिज तिल नो भनी एक फली रं मांहि ॥ २१६. सप्त तिलपर्णं समुपन्ना, तिण अवसर अवदात । हूं गोतम गोशाल जे मंखलित संघात || वैश्यायन बालतपस्वी पद २२०. ज्यां कूर्म्मग्राम नामै नगर, तिहां हूं आव्यो धार । तिण अवसर में जे कूम्र्म-ग्राम नगर में वार ॥ | २२१. नाम बेसियायण जसृ बाल तपस्वी जेह छट छठ अंतर रहित ही तप करिये करि तेह || २२२. ऊंची बांह करी-करी आतापन भू मांहि । रवि सम्मुख आतापना, सेतो विचर ताहि ॥ २२३. रवि तेजे आतप लही, ते षटपदी तिवार । पास पास नीसरै, सर्व थी समस्त प्रकार ।। २२४. प्राण भूत जीव सत्य नीं दया अर्थ ही एह । भूम पड़ी जूंआं प्रते, वलि वलि त्यांज ठवेह || २२५. ललित गोशाल तब बाल तपस्वी प्रति तदा २२६. ए मांहरा पासा थकी, तब ते पाछो ऊसरे पाछो २२७. जिहां वेसियायण अर्थ बाल तिहो आवे आवी करी २२८. स्यूं तूं मुनि तपसी ययुं मुणिक तत्व तो जाण छे बेसियायण जसु नाम । देख देखी ताम || हलवे हलवै होय । उसरी सोय ॥ तपस्वी जेह । ते प्रति एम वदेह अथवा मुनि यति जान । वा कदाग्रही पिछान ? २२. अथवा तूं जूं तणो, सेज्यातरियो सोग ? तब ते वेसियायण तिको, बाल तपस्वी जोय || २१४,२१५. रयरेणुविणासगं दिव्वं सलिलोदगं वासं वासति, 'रयरेणुविणासगं ' ति रजो—वातोत्पाटितं व्योमवत्त रेणवश्च भूमिस्थित शिवस्तद्विनाशनं तदुपशम कं, 'सलिलोदवाति सलिला: गीतादिमहानद्यस्ता सामिव यदुदकं - रसादिगुणसाधम्र्म्यादिति तस्य यो वर्ष: स सलिलोदकवर्षोऽतस्तं ( वृ० प० ६६५) २१६ जेण से तिलथंभए आसत्ये पच्चायाते २१७. बद्धमूले, तत्थेव पतिट्ठिए । 'तत्थेव पट्ठिए' त्ति यत्र पतितस्तत्रैव प्रतिष्ठितः । (बु० १०६६५) २१.तिलपुष्पजीवा उदाता उदाइता तस्सेव तिलगंग गाए गिलिपाए २१९. सत्त तिला पच्चायाता । (श. १५ । ५२ ) लए गं अहं गोषमा गोसाले मंलिपुत्ते सिद्धि २२० लए पं अहं जेणेव मयामे नगरे तेथेय कुम्मग्गामे उवागच्छामि, तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया २२१. वेसियायणे नामं बालतवस्सी छट छट्ठेणं अणिविखतेणं तवोकम्मेणं २२२. परिगिभिम सूराभिमु आयावणभूमी आवामा विहर। २२३. आइच्चतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सब्बओ समंता अभिनिस्सवंति । २२४. पाण-भूव जीव-सत्ताए णं पडियाओपडिया त्वेव तत्येव भुज्जो भुज्जो पचोरुभे । (१० १२०६०) २२. गोसाले मंलिपुत्ते या बालतपस पासित्ता पासइ, २२६ ममं अतियाओ सणियं सनियं पच्चीसक्कइ, पत्ता २२७. जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सिं एवं वयासी२२८. कि ? ए ? 'किं भवं मुणी मुणिए' त्ति किं भवान् 'मुनिः' तपस्वी जात: 'मुनिए' त्ति ज्ञाते तत्त्वे सति ज्ञात्वा वा तत्त्वम्, अथवा किं भवान् 'मुनी' तपस्विनी 'मुणिए' त्ति मुनिक:- तपस्वीति अथवा किं भवान् 'मुनिः ' यतिः उत 'मुणिकः' ग्रहगृहीतः । (१० प० ६६८) २२९. उदा जुवासेनायरए ? ( श० १५/६१ ) तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी भ० श० १५ ३१५ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०. मखलिसुत गोशाल नां, एह अर्थ प्रति जोय । आदर नवि दोधो बलि, भलो न जाण्यो कोय ।। २३१. साझी मून रह्यं तदा, मंखलिसुत गोशाल । वेसियायण ज बाल ही, तपस्वो प्रतै निहाल ।। २३२. बोजी तोजी वार पिण, इम कहै स्यू तू जोय । मुनि मुणिको जावत वली, जू-सिज्यातर होय ।। २३३. वेशियायण नामे तदा, मंखलिसुत गोशाल । बीजी तीजी वार पिण, इम कछतेज न्हाल ।। २३४. शीघ्रहीज कोप्यो तदा, जाव मिसिमिसेमाण । आतापन नी भूमि थी, पाछो उसरै जाण ॥ २३५. इहविध पाछो ऊसरी, तेजस समुद्घात । तेणे करी समोहण, इहविधि करी विख्यात ।। २३६. सात आठ पग पाछो वले, पाछो वली तिवार । प्रयत्न विशेष अर्थ ही, मींढा नी पर धार । २३०. गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमद्वं नो अढाति, नो परियाणति, २३१. तुसिणीए संचिट्ठइ । (श०१५॥६२) तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते वेसियायण बालतवस्सि २३२. दोच्च पि तच्च पि एवं वयासी किं भवं मुणी? मुणिए ? उदाहु जूयामेज्जायरए ? (श० १५१६३) २३३. तए णं से वेसियायणे बालतबस्सी गोसालेण मंखलि पुत्तेणं दोचं पितच पि एव बुत्ते समाणे २३४. आसुरुते जाव (सं० पा०) मिसिमिसेमाणे आयावण भूमीओ पच्चोरुभइ, २३५. पच्चोरुभित्ता तेयासमुग्घाएणं समोहण्णइ, समो हणित्ता २३६ सतपथाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता 'सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ' ति प्रयत्नविशेपार्थमुरभ्र इव प्रहारदानार्थमिति । (व०प०६६८) २३७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरइ। (श. १५२६४) २३८. तए णं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अणु कंपणट्ठयाए २३१. वेसियायणस्स बालावस्सिस्स उसिणतेयपडि साहरणट्ठयाए २४०. एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयले सं निसिरामि । २६७. मंखलिसुत गोशाल ने, हणवा काजै जाण । काढे तेज शरीर थी, ए उष्ण तेज पहिछाण ।। २३८. तिण अवसर हूं गोयमा ! गोशालक नी जेह । तेह मंखलिपुत्र नीं, अनुकंपा अर्थेह ।। २३६. वेसियायण नामे तिको, बाल तपस्वी जेह । तेह तणांज तेज प्रति, दूर हरण अर्थह ।। २४०. वेसियायण गोशाल रै, इहां बिचालै न्हाल । शीतल तेजूलेश प्रति, म्है मूंकी तिणकाल ।। यतनी २४१. जा मुझ शोतल तेजूलेशं, तिण लेश्या करिनै सुविशेषं । तेह वेसियायण नी जाणी, ऊन्ही तेजूलेश हणाणी ॥ २४२. वेसियायण नामे तिह अवसर, मुझ शीतल तेजूलेश्या कर। पोता नी जे उष्ण पिछाणी, तेजूलेश हणाणी जाणी॥ २४३. गोशाला नां तनु नैं कांई, थोड़ी विशेष बाधा ज्यांही। देख्यं छविच्छेद अणकरतो, ते उष्ण तेजलेश्या संहरतो।। २४१. जाए सा ममं सीपलि तेय लेस्साए वेसियाय गस्स बालतवस्सिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया। (श० १५५६५) २४२. तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता २४३. गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स किचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, दूहा २४४. उष्ण तेज प्रति संहरी, मुझ प्रति इम कहै वाय । जाण्या भगवन ! आपने, जाण्या जाण्या ताय ।। २४५. आप तणांज प्रसाद थी, दग्ध हुओ नहि एह । संभ्रम थी गत शब्द नैं, बार-बार उचरेह ।। २४४ पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं भगव : गत-गतमेयं भगवं ! (श० १५१६६) २४५. यथा भगवतः प्रसादादयं न दग्धः, सम्भ्रमार्थत्वाच्च गतशब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम्। (वृ० प० ६६८) ३१६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमकोश (अभिवानचिन्तामणि) ३३३३ उत्तर०२२.१८ णाया० ११९:४२ णाया. १६१६१८२ अतगडो ३९६,३१४१ णाया० ११११५९, ११११७२ वा०-इहां वृत्तिकार कह्य-भगवंते गोशाला नी रक्षा कीधी ते सरागभावे करी। सरागभावे करी जे कार्य की— तेह में धर्म किम कहिये ? वले दया नां एकरसपणां थी कह्यो ते पिण सरागभावे स्नेह सहित अनुकम्पा करी । ते स्नेह-सहित अनुकम्पा कहो भावे दया कहो, ए मोह रूप दया जाणवी । अनुकम्पा, दया, अनुक्रोश, करुणा इत्यादिक दया रा नाम हेम-कोष में कह्या छ । ते माटै ए मोह-सहित अणुकम्पा दया सावज्ज छ । उत्तराध्ययन अध्ययन २२ में जे नेमनाथ भगवान आपरो पाप टालवा जीवां ने देखी नै पाछा फिरया । तिहा अनुक्रोश-सहित पाठ में कह्य । तिहां अवचूरी नै विषे अनुक्रोश - अर्थ करुणा कह्य छ, ते माट ए दया करुणा निरवद्य छ। ज्ञाता अध्येन ९ में 'जिनरक्खियं समुप्पन्न-कलुणभावं' एह पाठ छ । जे जिनरिख नै रत्न-द्वीप नी देवी रे ऊपरै करुण भाव ऊपनां, एहवं का। ए करुणा दया सावज्ज छ। वलि ज्ञाता अध्येन प्रथम गजभव मेधकुमार सुसला री अनुकम्पा करी संसार परित्त कियो ए अनुकम्पा निरवद्य छ। अने अंतगडे कृष्णे वृद्ध नी अनुकम्पा अर्थ हस्ती खंध बैठा ईंट ऊपाड़ उण रै घरै मूकी, एहवं कह्य । ते अनुकम्पा सावज्ज छ । वलि सुलसा नी अनुकम्पा अर्थ हरिणेगमेषी देवता देवकी रा छह पुत्र सुलसा रे म्हैल्या, ते पिण अनुकम्पा सावज्ज छ, आज्ञा बाहिर छ। वलि ज्ञाता अ० एक अभयकुमार नी अनुकम्पा करतो थको देवता आवी धारणी नो दोहलो पूरयो, ए पिण अनुकम्पा सावज्ज छ। वलि गर्भ नीं अनुकम्पा अर्थे धारणी राणी मनगमता असणादिक भोगव्या, ए पिण अनुकम्पा सावज्ज छ । तथा उत्तराध्ययन अ० १२ हरिकेशी नी अनुकम्पा करिके ब्राह्मणां नै जक्ष अनेक जाब देई छात्रा नै ऊंधा पाड्या, ए पिण सावज्ज । इत्यादिक अनेक-अनेक अनुकम्पा कही । पिण जेहनी केवली आज्ञा न देव ते अनुकम्पा–दया सावज्ज। अनै केवली आज्ञा देव ते अनुकम्पा - दया निरवद्य छ। जे दया नों नाम करुणा हेमकोश में कह्यो छ तो जे नेमनाथ जो नै जीवां री अनुक्रोश, करुणा, दया कही ते तो निरवद्य छ। अनै जिन रखिया ने रैणादेवी री करुणा ऊपनी कही, ते करुणा दया सावज्ज छ । इण परै गोशाला नों संरक्षण भगवान कियो ते सराग-भाव स्नेह मोह सहित दया सावज्ज जाणवी । अनै वृत्तिकार कह्य-दोय साधां नै न वचावस्यै ते वीतराग भावे करी । लब्धि नां फोड़वा थकी तो दयावंत भगवान जद अधिक हंता पिण बीतराग थयां पछै मोह रूप दया नथी, तिणसू वीतरागपणे करी कह्या । वलि लब्धि अणफोडिववा थी कह्या ते वीतरागी थयां पछै लब्धि फोड़वै नहीं। एहनों पिण न्याय विचारी जोईजै । जे भगवान छद्यस्थपणे सराग भावे लब्धि फोड़वी, तेह में धर्म किम कहिये ? कोइ कहै गोशाला ने बचायो ते अनुकम्पा अर्थ कह्यो छै, तेहनो उत्तरकृष्ण वृद्ध नी अनुकम्पा करी १, हरिणेगमेषी देवता सुलसा री अनुकम्पा करी २, देवता अभयकुमार नी अनुकम्पा करी ३, धारणी गर्भ नी अनुकम्पा करी ४, यक्षे हरिकेशी नीं अनुकम्पा करी ५, जिनरक्षिते रत्नद्वीप नी देवी नी करुणा करी, ए पाछै कही ते अनुकम्पा करुणा सावज्ज छ।। तिमहिज भगवान छद्मस्थपणें गोशाला नी अनुकम्पा अर्थे शीतल तेजोलेण्या लब्धि फोड़वी ने बचायो ते लब्धि फोड़िवा नों कार्य निरवद्य किम हबै? इण शतक उत्तरा० १२।२४ इह च यद्गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः । यच्च सुनक्षत्रसर्वानुभूतिमुनिपुङ्गवयोर्न करिष्यति तद्वीतगगत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यंभाविभावत्वाद्वेत्यवसेयमिति । (वृ० प०६६८) भ० श०१५ ३१७ Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणा ३६७०-७७ भगवई श० २०१७ में हीज पूर्व भगवान कह्यो -हे गोतम ! वेसियायण बाल तपस्वी तो उष्ण ते जो ने। मुकी अन म्है गोशाला नी अनुकम्पा अर्थे शीतल तेजोलेश्या मूकी । ते माहरी शीतल तेजोलेश्या करिक ते वेशियायण बाल तपस्वी नी उष्ण तेजोलेश्या हणाणीएहवी वार्ता प्रगट पाठ में छ। ते माटै उष्ण अनै शीतल ए बिहं तेजोलेश्या और ते बाल-तपस्वी उष्ण तेजोलेश्या फोड़िवी अने भगवान शीतल तेजोलेश्या फोड़िवी। छद्मस्थपणे तो ए कार्य कियो अनै केवल ऊपनां पछ पन्नवणा पद ३६ में कह्यो-आहारक लब्धि फोड़व्यां जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया लागे । इमहिज वैक्रिय लब्धि फोड़व्यां जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया लागै, इमज तेजु लब्धि फोड़व्यां जघन्य ३ उत्कष्ट ५ क्रिया लागै । इम कह्यो तो जोवो नीं, केवल ऊपनां पछै तो तेजु लब्धि फोडव्यां जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया कही। अनै छद्मस्थपणे पोते तेजोलेश्या फोड़वी तो जे केवल ऊपना पछै जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया कही ते वचन प्रमाण कीज के छद्मस्थपणे कार्य कीबूं ते प्रमाण कीजै। न्याय दृष्टि करि विचारी जोइज्यो। जे याहारीक वैक्रिय तेजू लब्धि फोड़वेला तेहनै जघन्य ३ उत्कृष्ट ५ क्रिया लाग हीज पिण इम न कह्यो छद्मस्थपणे तीर्थंकर अथवा गणधर त्यां नैं तो न लागै अनै बीजा लब्धि फोड़व तो लाग-एहवू वचन नथी। भगवती शतक २० में जघा विद्या चारण लब्धि फोड़वं ते थानक बिना आलोयां मरै तो विराधक कह्यो। तिहां वृत्ति में पिण लब्धि नुं फोडिवू निश्चय प्रमाद कह्यो। तथा भगवती शतक १६ उ०१ आहारक लब्धि फोडब्यां आहारक शरीर निपजायां प्रमाद आश्री अधिकरण कह्यो। तथा भगवती शतक ३ उ० ४ मायी वैक्रिय कर ते बिना आलोयां मरै तो विराधक । इम अनेक ठामें लब्धि फोड़वणी सूत्र में वर्जी छ । ते माटै भगवान छद्मस्थपण शीतल तेजोलेश्या फोड़वी ते सरागभावे करी ए कार्य कियो। तेहमें धर्म किम कहिये ? कोइ कहे-च उदै पूर्वधर चउनाणी भगवान हुंता, ते किम खलावै ? तेहनों उत्तर--दशवकालिक अ०८ गाथा ५० मी दृष्टिवाद नों जाण वचन में खलाय जाणो ते प्रत और साधु नै हसणो नहीं। तथा उपासगदशा अ० १ चउनाणी चउदै पूर्वधारी गोतम चउदै हजार साधां रा शिर सेहरा प्रथम गणधर ते पिण आणंद नै घरै वचन में खलाया। ते मार्ट चउदै पूर्वधर चउनाणी वचन में खलावै तेहनों कारण नहीं। छद्मस्थपणे भगवान छठ गुणस्थान हंता, तिहां प्रमाद आथव अनै कषाय आश्रव हूंतो। ते प्रमाद कषाय आश्रयी समय-समय सात-सात कर्म लागता, छद्मस्थपणे तो दश सुपना देख्या, तिहां प्रथम स्वप्ने पिशाच प्रति जीतो-ए पिण भाव सावज्ज जाणवो, वलि छद्मस्थपणे गोशाला नै दीक्षा दीधी, तिल बतायो, तेजोलेण्या सिखाई, शीतल तेजोलेश्या फोड़वी-ए सर्व कार्य छद्मस्थपणां थी किया, पिण जे कार्य नी केवली आज्ञा न देवं, तेहनै निरवद्य किम कहिये ? ज्ञान नेत्रे करी विचारी जोईज्यो। इहां तो वृत्तिकार पिण गोशाला नै बचायो, ते सरागभावे करी का अनै दोय साधां - न वचावस्यै ते वीतराग भावे करी का । ज्ञान नेत्रे करी विचारी जोईज्यो । भगवती वृ०प० ७९५ भगवई श० १६।२३,२४ भगवई श० ३।१९२ दसवै० ८।५० उवासग० ११७९ ३१८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छंद २४६. कडं वृत्ति में गोशाल नों, भगवंत संरक्षण कियो। सरागभावे करि प्रभ, इक दया रस थी राखियो। जे उभय मूनि नवि राखस्यै, ते वीतरागपणे वृत्ति । फुन लब्धि अणफोड़ण थकी, वलि अवश्यभावी भाव थी।। २४७. गोशालो तिण अवसरे, मुझ प्रति इम कहै वाय । जु-सिज्यातरियो किस, तूज प्रति भाख ताय ।। २४८. जाण्या भगवंत! तो भणी, जाण्य-जाण्या ताय । तब गोयम ! गोशाल प्रति, हं इम बोल्यो वाय ।। २४७. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयामी-किणं भंते ! एस जयासिज्जायरए तुब्भे एवं वयासी--- २४८. से गतमेयं भगवं ! गत-गतमेयं भगवं ! (श० १५१६७) तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी२४९. तुमं गं गोसाला! वेपियायणं बालतवस्सि पाससि, पासित्ता २५०. ममं अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कसि, जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी २५१. किं भवं मुणी ? मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए ? २५२. तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तव एयमट्ठ नो आढाति, नो परिजाणति, तुसिणीए संचिट्ठइ । २४६. हे गोशाला! तूं इहां, वेशियायण नामेह। बाल तपस्वी प्रति तदा, देखो नेत्र करेह।। २५०. धीरे-धीरे ऊसरी, मुझ पासा थी ताय । जिहां वेशियायण तिहां, जइ बोल्यो इम वाय ॥ यतनी २५१. स्यूं तूं मुनि तपस्वी थयं सोई, - अथवा मुनि ते यति छै कोई । के तू मुणिको तत्व नो जाण, के कदाग्रही जुआ रो स्थान ? २५२. वेशियायण तपस्वी तिवारं, तुझ वच आदर न दिये लिगारं । मन मांहे भलो नहिं जाणे, रह्यो मून धरी तिह टाणें ।। २५३. अहो गोशाला ! तूं तब हेर, तिण बाल तपस्वी प्रति फेर । इम बे त्रिण बार उच्चरियो, तूं मुनि के जाव ज-सेज्यातरियो। २५४. वेशियायण बाल तपस्वी क्विार, तुम्ह इम को बेत्रिण वार । आसुरत्ते जाव अवलोय, पाछो ऊसर ऊसरी सोय ।। २५५. तुझ हणवा तेज मूकेह, तब हूं तुझ अनुकंप अर्थह। ' तिणरी उष्ण तेज हणवा न्हाल, मूकी शोतल तेजु अंतराल । २५३. तए णं तुमं गोसाला! वेसियायणं बालतवस्सि दोच्चं पि तच्च पि एवं वयासी-कि भवं मुणी ? मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए ? २५४. तए णं से वेसियायणे बालतबस्सी तुम दोच्चं पि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव पच्चोसक्कति, पच्चोसक्कित्ता २५५. तब वहाए सरीरगंसि तेयलेस्सं निस्सिरइ। तए णं अहं गोसाला! तव अगकंपणयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणतेयपडिसाहरणट्ठयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि । २५६. जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहयातव य सरीरगस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा २५७. छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं भगवं ! गत-गतमेयं भगवं! (श० १५६८) २५६. बाल तपस्वी चित्त ठाणी, उष्ण तेजु हणाणी जाणी। कांइ थोड़ी पीड़ पिण देह, अथवा विशेष पीड़ प्रतेह ।। २५७. अथवा छविच्छेद न देखेह, उष्ण तेजोलेश्या संहरेह । इम मूझ प्रति बोल्यो वाय, जाण्या-जाण्या हे भगवान! ताय ।। भ० श०१५ ३१९ Jain Education Intemational Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा २५८. मंखलिसुत गोशाल तब, सुण ए वच मुझ पास । बीहनों जावत पामियो, अतिही भय मन त्रास ।। २५६. मुझ प्रति वंदी नमण करि, इम बोल्यो अवलोय । संक्षिप्त विस्तीर्ण प्रभु ! तेजलेश किम होय ।। २६०. तिण अवसर हं गोयमा ! गोशाला प्रति ताय । तेह मंखलीपुत्र प्रति बोल्यो इहविध वाय ।। २६१. हे गोशाला! मुष्टि इक उड़द रु उष्ण जलेह । ___ इक पुसली तप छ8-छट्ट, अंतर रहित करेह ।। २५८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमलैं सोच्चा निसम्म भीए जाव (सं० पा०) संजायभए २५९. ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीकहण्णं भंते ! संखित्तविउलतेयलेस्मे भवति ? (श०१५।६९) २६०. तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी२६१. जेणं गोसाला! एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासयेणं छठंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं २६२. उड्ढे बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरई। से गं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ। (श० १५१७०) २६३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमलै सम्म विणएणं पडिसुणेति । (श० १५७१) १५२ की बस पर माता का कोई न को २६२. ऊंची बाह आतापना, सूर्य सन्मुख लेह । तसु छेहडै षट मास रै, तेज लेश व तेह ।। २६३. गोशालक तिण अवसरे, ए मुझ अर्थ प्रतेह । अंगीकार कयूं तदा, सम्यक विनय करेह ।। तिलस्तम्भ-निष्पत्ति और गोशालक-अपक्रमण पद २६४. तिण अवसर हूं गोयमा ! गोशालक संघात । अन्य दिवस कूर्म-ग्राम जे नगर थकी विख्यात ।। २६५. सिद्धार्थ फुन ग्राम जे, नगरे आवत ताम । जे तिल-थंभ मुझ पूछियो, झट आव्या ते ठाम ।। २६६. तब गोशालो मुझ प्रतै, बोल्यो एहवी वाय । मुझ में प्रभु ! तुम जद का, तिल नीपजसी ताय ।। २६७. तिमज सप्त पुफ-जीव वच, एक संगणी मांय । हुस्यै सप्त तिल तेह वच, मिथ्या प्रत्यक्ष दिखाय ।। २६८. ते तिल-स्थंभ न नीपनों, सप्त पुष्प ना जीव । चवी सप्त तिल नहिं थया, इक संगणी अतीव ।। २६४. तए णं अहं गोयमा ! अण्णदा कदायि गोसालेणं ___ मंखलिपुत्तेणं सद्धि कुम्मगामाओ नगराओ २६५. सिद्धत्थग्गाम नगरं संपट्ठिए विहाराए। जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिलथंभए । २६६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते मम एवं वयासी तुब्भे णं भंते ! तदा ममं एवमाइक्खह जाव परूवेहगोसाला ! एस णं तिलथंभए निप्फज्जिस्सइ नो न निप्फज्जिस्सइ, २६७. एते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलखंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चाया इस्संति, तण्णं मिच्छा। २६८. इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ --एस णं से तिलथंभए नो निप्फन्ने, अनिप्फन्नमेव । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया। (श० १५७२) २६९. तए णं अहं गोयमा! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुम णं गोसाला! तदा मम एवमाइक्ख माणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमढें नो सद्दहसि, २७०. नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयमढं असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, २७१. मम पणिहाए अयण्णं मिच्छावादी भवउ त्ति कट्ट ममं अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कसि पच्चोसक्कित्ता २६६. तिण अवसर हूं गोयमा ! गोशालक प्रति वाय । बोल्यो तें मुझ जद वचन, श्रद्धा नहि मन मांय ।। २७०. प्रतीतिया नहि रोचव्या, एह अर्थ अवलोय । अश्रद्धतो अप्रीततो, अणरोचवतो सोय ।। २७१. ए मिथ्यावादी हुवो, इम मन करी विचार । मुझ थी पाछो ऊसरयो, धोरै-धीरै धार । ३२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२. जिहां तिल- थंभ तिहां आपने म्हातोज उपाड़ ने हे यावत एकांत ठाम । गोशालक ! ताम || २७३. ततखिण बादल अभ्र दिव्य, प्रगट तब ते दिव्य अभ्र बदल भट, तिमहिज २७४ तेहिज तिल नां यंभ नीं, एक सिंगली मांहि । तदा ऊपनां सप्त तिल, जेम कयूँ तिम ताहि ॥ २७५. हे गोणाला ! तेह एह तिल नों बंभ निप्पन्न । नयी तेह अणनीपनो, निश्वं करी इम जन्न ॥ २७६. ते सप्त तिल पुफ-जीव मरि ए तिल थंभ नीं जाण । एक सिगली में विषे थया सप्त तिल आण || थयो गोशाल । यावत न्हाल ॥ २७७. इम निश्चै गोशालका ! वनस्पती रे मांय । पट्ट- परिहार कर तिके, मरि-मरितसु तनु आय ॥ या०वगस्पति कहितां वनस्पति नां जीव के परिवृत्य-मरीमरी ने एहि वनस्पति ना शरीर तो परिहार परिमोन परिभोग ते तिहां ईन उपज से परिवृत्य - परिहार कहिये ते प्रति परिहरति - करं । 1 २७८. मंखलित गोशाल तब मुझ इस कहये छतेह। एह अर्थ श्रर्द्ध नहीं, न प्रतीत न रुचेह || २७६. एह अर्थ अणधद्धतो जाय रोचवतो नांय जिहांज ते तिल-धंभ . आये तिहां पलाय ॥ २८०. जिहां तिस-यंत्र विहां आय ने ते तिल वंभ थकीज ते तिल तणी फली प्रतं तोड़े ततखिण हीज । २१. ते तिल-संगल तोड़ने करतल विषेज सोय । सप्त तिल फोड़े तदा, प्रगटपणें अवलोय ॥ २२. तिण अवसर गोमाल नं. सप्त तिल गिणतां एह 7 1 एहवं रूपै आत्मनि, जाब समुत्पन्न जेह ॥ २८३. इम निश्चै सहु जीव पिण, पउट्ट परिहार करेह । हे गोतम! गोशाल नों पउट्ट जाणवूं एह ॥ २८४. हे गोतम ! गोशाल नों मुझ पासा थी जेह । आत्माई करिकै तसुं पड़िबू जुदो कहेह वा० - वृत्तिकार आयाए पाठ नां बे अर्थ किया । भगवंत कहे- मांहरा पासा थी आयाए कहितां आत्माई करी अपक्रमण ते जुदो पड़यो -- नीसरघो अथवा आयाए कहितां आदाय तेजोलेश्या नों उपदेश ग्रहण करी नैं जुदो पड़यो । तेजोलेश्या उत्पत्ति पद २५. मंखलित गोशाल तब इक मुष्टी इक पुसली उष्णोदके, छटु छटु तप उड़देह | करेह ॥ २७२. जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता तं तिसरं भगं सदुपायं व उप्पादेसि उप्पाता एतते एसि । २७३. तक्खणमेतं गोसाला ! दिव्वे अब्भवद्दलए पाउब्भूए । तए णं से दिव्वे अब्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, खप्पामेव तं चैव जाव (सं० पा० ) २७४. तस्स चैव तिलयंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्ततिला पच्चायाया । २७५ तं एस णं गोसाला ! से तिलथंभए निष्फन्ने, नो अनिफन्नमेव । २७६. ते पुण्फनीया उदाइता उदाइता एयस्स वेव तिलभयस्य एमाए तिलियाए सतिसा पच्चायाया । २७७. एवं खलु गोसाला! वणस्सइकाइया पउट्टपरिहारं परिहरति । (१० १२००३) वा 'बगरसइकाइयाओ पट्टपरिहारं परिहति ति परिवृत्त्य - परिवृत्त्य-मृत्वा मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः परिभोगस्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्य परिहारस्तं परिहरन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः । ( वृ० प०६६०) २७८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स जाय परमाणस्स एवम मी सह नो पतिव नो रोएइ । २०९. एम असहमाणे अपसिपमाणे बरोएमाणे जेणेव से तिल भए तेणेव उवागच्छर, २८०. उवागच्छित्ता ताओ तिलथंभयाओ तं तिलसंगलियं बहुद्द २८१. खुड्डित्ता करयलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ । (श० १२०७४) २८२. लए गं तस्स बोसातस्स मंचलितस्स ते सतिले गणमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव (सं० पा० ) समुपज्जत्था । २०३. एवं खलु सजीवा वि पट्टपरिहारं परिहरतिएस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्टे । २०४ एस गोपमा मोसाnee मनिपुत्तरस ममं अंतिया आयाए अवक्कमणे पण्णत्ते । (श० १५/७५) २८५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य विवासएवं खट्ठट्ठे अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं भ० श० १५ ३२१ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६. उड्ढबाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय जाव (सं० पा०) विहरइ । २८७. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अंतो छहं मासाणं संखित्तविउलतेयलेसे जाए। २८८. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउब्भवित्था । २८९. तं जहा-साणे तं चेव सव्वं २८६. ऊंची बाह करी-करी, यावत ही विचरेह । तेज लेश उपजायवा, एहवं कष्ट धरेह । २८७. मंखलिसुत गोशाल तब, ते षट मासज अंत । संक्षिप्त विस्तीर्ण तिका, तेज लेशवंत हंत ।। २८८. तिण अवसर गोशाल पै, पार्श्वनाथ नां जोय । षट साधू भागल हुँता, आवी मिलिया सोय ।। २८६. गोशाला में गुरुपण, पड़िवज रहिता जेह । ते साणे तिमहिज सहु, पूर्व कह्यू तिम लेह ।। २६०. यावत ए अजिन छतो, पिण जिन शब्द उचार । प्रकाशमान छतोज ए, विचरै छै इहवार ।। २६१. ते माटे हे गोयमा! मंखलिसूत गोशाल । निश्चै नहि ए जिन छतो जिन-प्रलापी न्हाल ।। २६२. जावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाश करतो जोय । विचरै छै इह अवसरे, जिन बाजै छै सोय ।। २६३. अजिन छतो गोशालको, जिन-प्रलापी एह। यावत जे जिन रव प्रतै, प्रकाशमान विहरेह ।। २६४. तिण अवसर महापरिषदा, मोटो तसु विस्तार । जिम शिव' चरित्र विषे कयूं, जाव पडिगया धार ।। २९०. जाव (सं० पा०) अजिणे । २९१. त नो खलु गोयमा ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी, २९२. जाव (सं० पा०) जिणसई पगासेमाणे विहरइ। २९३. गोसाले णं मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव (सं० पा०) पगासेमाणे विहरइ। (श० १५१७७) २९४. तए णं सा महतिमहालया महच्चपरिसा जहा सिवे (भ० १११७४) जाव (सं० पा०) पडिगया। (श० १५७८) गीतक छंद गोशालक-अमर्ष पद २६५. तिह समय नगरी सावत्थी शृंघाटके यावत वही, बह जन परस्पर इम वदै फुन जाव एम परूपही, देवानुप्रिय ! गोशालको मंखलीपुत्र जिको मही, जिन जिन-प्रलापी जाव विचरै तेह झूठो छै सही ।। २९५. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव (सं० पा०) बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ । जण्णं देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणे जिणसद्द पगासेमाणे विहरइ तं मिच्छा। २९६. समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परूवेइ । २९७. एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नामं मंखे पिता होत्था । २९८. तए णं तस्स मंखस्स एवं चेव तं सव्वं भाणियव्वं २६६. श्रमण भगवंत महावीरजी, ते इहविध आख्यात । यावत एम परूपही, गोशालक नी बात ।। २६७. मंखलिसुत गोशाल नों, इम निश्चै करि जोय । मंखलि नाम पिता हंतो, ए भिक्षाचर सोय । २६८. तब ते भिक्षाचर तणे, हंती भद्रा नार। इत्यादिक इम तिमज ही, भणिवू सहु अधिकार ।। २६६. यावत अजिन छतोज ए, जे जिन शब्द प्रतेह । प्रकाश करतो विचरही, पेखो प्रगटपणेह ।। ३००.ते माटै निश्चै नहीं, मंखलिसुत गोशाल । जिन जिन-प्रलापी जाव ही, विचरै एह निहाल । ३०१. अजिन छतो गोशाल जे, जिन-प्रलापी एह । यावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाशमान विहरेह ।। २९९. जाव अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरइ । ३००. तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ। ३०१. गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ। १. शिव राजऋषि । ३२२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२. समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरइ। (श० ११७९) ३०२. श्रमण भगवंतमहावीर प्रभु ! जिन जिन-प्रलापी एह। यावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाशमान विहरेह ।। गीतक छंद ३०३. तिह समय ते गोशालको बहु जन कन्है ए अर्थ ही, निसुणी हृदय धर शीघ्र कोप्यो । जाव मिसिमिसेमान ही, आतापना महि थीज पाछो वली नगरी बिच थई, हालाहला कभकारिका नों हाट त्यां आव्यं वही। ३०४. हालाहला कभकारिका नों कभ करिवा नों जिको, आपणे आजीविका तणां संघ साथ परवरियो थको, मोटाज अमरस प्रतै वहतो एम अहंकारे वही, अति कोप चिह्न देखाड़तो छतु तेह जावत विचर ही। ३०३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिय एयमट्ठ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव (सं० पा०) मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता सावत्थि नगरि मझमझणं जेणेव हाला हलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, ३०४. उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं चावि विहरइ। (श० १५८०) 'एवं वाविपत्ति एवं चेति प्रज्ञापकोपदीमानकोपचिह्नम्, (व०प०६६८) दूहा गोशालक आक्रोशप्रदर्शन पद ३०५. तिण काले नैं तिण समय, श्रमण भगवंत महावीर । तस् अंतेवासी प्रवर, आणंद नाम सुहीर ।। ३०६. स्थविर प्रकृतिभद्रक भलु, जावत अतिही विनीत । छठ-छठ अंतर रहित तप, करिव करि सुरीत ।। ३०७. संजम अन तपे करी, आतम प्रति शुभ ध्यान। वसावतो विचरै तदा, महामुनी गुणखान ।। ३०८. तिण अवसर आनंद ते, स्थविर छट्ठ नां ताय । पारणके धुर पोहर में, कीधी प्रवर सझाय ।। ३०६. इम जिम गोयम स्वाम तिम, वीर प्रतै पूछेह । तिमहिज यावत उच्च नीच, मज्झिम जाव अटेह ।। ३१०. कुंभारी हालाहला, तसु कुंभकार हाटेह । नहि अति दूर न टूकड़ो, गमन करै गुणगेह ।। ३११. तिण अवसर गोशालको, आणंद स्थविर प्रतेह । गमन करंतो देख ने, इहविध वयण वदेह ।। ३०५. तेणं कालेणं तेणं सम एणं समणस्स भगवओ महा वीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम ३०६. थेरे पगइभद्दए जाव विणीए छठें छठेणं अणिक्खि तेणं तवोकम्मेण ३०७. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० १५८१) ३०८. तए णं से आणंदे थेरे छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए ३०९. एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेव जाव उच्चनीयमज्झिमाई जाव (सं० पा०) अडमाणे ३१०. हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइवयइ। (श० १२८२) ३११. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी३१२. एहि ताव आणंदा ! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि । (श० १५२८३) तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे ३१३. जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेब गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ । (श० १५८४) ३१४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! इत्तो चिरतीयाए अद्धाए ३१२. आव प्रथम आनंद ! इहां, सुण इक महादृष्टंत । तब ते आणंद स्थविर इम, गोशालै कह्य हुंत ।। ३१३. जिहां कुंभारी हालाहला, कुंभकार-हट ताय । मंखलिसुत गोशाल ज्यां, आवै तिहां चलाय ।। ३१४. आणंद प्रति गोशाल तब, बोल्यो एहवी वाय । इम निश्चै आणंद चिर-अतीत अद्धा मांय ।। वल्मीक दृष्टांत पद ३१५. उत्तम मध्यम वणिक के, अर्थी अर्थ तणांज । अथ तणां फुन लालची, अर्थ-गवेषि समाज ।। ३१५. केइ उच्चावया वणिया अत्थत्थी अत्थलुद्धा अत्थ गवेसी भ. श०१५ ३२३ Jain Education Intemational Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६. वांछक अर्थ तणां वली, अर्थ पिपासा तास । अर्थ गवेषण कारणें, चाल्या आण हुलास ॥ ३१७. नाना विध विस्तीर्ण बहू, पणित तिको व्यवहार । तसु अर्थ जे भंड प्रति ग्रहण करी ने सार ॥ ३१८. शकट अनें फुन समूह तसु ते शाकट कहिवाय । अतिबहु भत्त जल संबलो, ते प्रति ग्रहि नैं ताय ॥ ३१. मोटी एक अकामिका' उदक रहित अबलोय । तिहां साधेनुं आवियूं विच्छेद पाम्यूं सोय ।। । ३२० मोटो मारग जेनों, एहवी अटवी मांय प्रवेश प्रति करता हुवा ते अटवी दुखदाय || ३२१. तिण अवसर जे वणिक ने ते अटवी रे मांहि कोइक देश प्रतं तिके, अणपामंता ताहि ॥ ३२२. पूर्व ग्रह जल अनुक्रमे, भोगवतां वयं तृषा करी तब वाणिया, पराभव्या अति ३२३. ताम वणिक ते परस्पर, तेड़ावी कहै वाय । श्म निश्वे देवानुप्रिय ! अम्ह इण अटवी मांय ॥ क्षीण दोन ॥ तेह। ३२४. कोई देश अणपामते, पूर्व ग्रह जल अनुक्रम भोगवतां छतां परिक्षीण धवं जेह ॥ ३२५. तिण सूं श्रेय देवानुप्रिय ! अम्ह नैं अटवी मांहि । जल नीं मग्गण - गवेषणा, सहु दिशि करवी ताहि ॥ ३२६. इम कही नैं इक - एक नैं समीप अर्थज एह । अंगीकार करी ने तदा तेह अरण्य विषेह ॥ ३२७. मार्ग- गवेषण उदक नीं, सर्व धकीज करेह गवेषणा करतांज इक महा बनखंड पामेह || ३२८. कृष्ण वर्ण वनखंड ते, कृष्ण प्रभा फुन तास । जावत निकुरंबभूत छै, जोवा योग्य विमास ॥ २२. ते न विषे बहू मध्य देश भागेह 1 देख्यो महावल्मीक इक ढिग माटीनों जेह ॥ ३३०. जीव उदेही तेहनों, घर स्थानक सुविचार | ते वल्मीक कहीजिये, वणिके दीठ तिवार ।। ३३१. ते वल्मीक तणां चिहुं वपु – शरीर विशेख । इतरे एतमु शिखर चिहूं ऊंचा निकल्या देख ॥ १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० १५८५ में 'अगामियं' पाठ है। वहां 'अकामियं' को पाठान्तर में लिया है । ३२४ भगवती जोड ३१६. अत्थकंखिया अत्यपिवासा अत्थगवेसणयाए २१७. नाणाविविउलपाणिवादाए ३१८. सगडी सागडेणं सुबहु भत्तपाणं पत्थयणं गहाय 'भत्तपाणपत्थयणं' ति भक्तपानरूपं यत्पध्यदनंशम्बलं तत्तथा, ( वृ० प० ६७१.७२) २१९. एवं महं गामियं अोहियावा 'अगोहिय' ति अविद्यमानजीविकाम् छिन्नवार्य' तिव्यन्निसा पोषाखापाताम् (५० प० ६७२) ३२०. दीमद्धं अडवि अणुष्पविट्ठा । (श० १५/८५) ३२१. लए सिणिया तीसे अगामियाए अपोहियाए हिन्वायाए दौडाए अटवीए fafe दे - प्पत्ताणं समाणाणं ३२२. से पुग्वगहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुज्ज माणे-परिमुज्जमाने भी । ( ० १२०६) तए णं ते वणिया भीणोदगा समाणा तण्हाए परब्भमाणा 7 ३२३. अण्णमण्णे सद्दार्वेति मद्दावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अडवीए ३२४. किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुव्वगाहिए उदए अणुपुवेणं परिभुज्नमाणे- परिभुज्जमा कीणे, ३२५ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेत्तए ३२६. अमर अंतिए एमगठ्ठे पढिनुति परिसुता ती अनामिवाए जाव अडवीए ३२७. उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणा एगं महं वणसं आसादेति । ३२८. किन्होमा जान महामेहनिकुरंबभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं । ३२९. तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महेगं वम्मीयं असादेति । २२१. तरतणं वम्मीयस्य चत्तारि बप्पूओ जग्मुगाओ, अभिनिसढाओ 'बो' ति वपुंसि शरीराणि शिवराणीत्यर्थः 'अब्भुग्गयाओ' त्ति अभ्युद्गतान्य श्रोद्गतानि वोच्चानीत्यर्थः । (००६०२) - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२. तिरछा विस्तीरण चिहं, अधो पन्नगार्द्ध रूप । छिन्न उदर पुच्छ ऊर्द्ध कृत, ते संठाण तद्रूप ।। ३३३. देखण योग्यज जाव जे, वलि प्रतिरूपज तेह । देखी हरष्या वाणिया, मन संतोष लहेह ।। ३३४. माहोमांहे जाव ते, तेडावी कहै वाय । इम निश्चै देवानुप्रिया ! अम्ह इण अटवी मांय ।। ३३२. तिरिय सुसंपग्गहियाओ, अहे पन्नगद्धरूवाओ, पन्नगद्धसंठाणसठियाओ, 'अहे पणगद्धरूवानो' ति सार्द्धरूपाणि यादृशं पन्नगस्योदरच्छिन्नस्य पुच्छत ऊर्द्ध वीकृतमर्द्धमधो विस्तीर्णमुपर्युपरि चातिश्लक्ष्णं भवतीत्येवंरूपं येषां तानि तथा। (वृ०प० ६७२) ३३३. पासादियाओ जाव (सं० पा०) पहिरूवाओ। (श०१५२८७) तओ णं ते वणिया हट्ठतुट्ठा ३३४. अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमीसे अगामियाए अडवोए ३३५. उदगस्स सम्बओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणेहिं इमे वणसंडे आसादिए-किण्हे किण्होभासे । ३३६. इमस्स णं वणसंडस्स बहुमझदेसभाए इमे वम्मीए असादिए इमस्स णं वम्मीयस्स चत्तारि वप्पूओ ३३७. अब्भुग्गयाओ जाव (सं० पा०) पडिरूवाओ। ३३५. करतां उदक-गवेषणा, पाम्यो ए वनखंड। कृष्ण वर्ण थी जाणवो, काली प्रभा सुमंड। ३३६. ए वनखंड तणे घणु, मध्य देश भागेह । देख्यो ए वल्मीक तसु, च्यार वपू छै जेह ।। ३३७. वपु-तनु शिखर कहीजिय, कूट आकार अनूप । ते तनु ऊंचा नीकल्या, जावत ही प्रतिरूप ।। ३३८. ते माट देवानुप्रिया ! आपां ने इहवार । प्रथम शिखर वल्मीक न, श्रेय भेद सार ।। ३३९. कदा उदारज दग रतन, जल में उत्तम जेह । नीकलस्यै जो ते प्रतै, आदरसां धर नेह ।। ३४०.तिण अवसर ते वाणिया, अन्नमन्न इक-इक पास । एह अर्थ अंगीकरै, अंगीकार कर तास ।। ३४१. ते वल्मीक तणो तदा, प्रथम शिखर भेदंत । निमल पथ्य संस्कार रहित, हलुओ जल पामंत॥ ३४२. फटिक सरीखो वर्ण जसु, वर दग रत्न पामेह । उत्कृष्ट जल नी जाति में, तिणसू रत्न कहेह ।। ३३८. तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पु भिदित्तए। ३३९. अवियाई ओराल उदगरयणं अस्सादेस्सामो । (श० १५८८) ३४० तए णं ते वणिया अण्णमण्णस्स अंतियं एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ३४१. तस्स वम्मीयस्स पढमं वप्पु भिदंति । ते णं तत्थ अच्छं पत्थं जच्चं तणुयं 'अच्छं' ति निर्मलं 'पत्थं' ति पथ्यं-रोगोपशमहेतुः 'जच्च' ति जात्यं संस्काररहितं 'तणुयं' ति तनुकं सूजरमित्यर्थः। (व०प०६७२) ३४२. फालियवण्णाभं ओरालं उदगरयणं आसादेति । 'फालियवण्णाभं' ति स्फटिकवर्णवदाभा यस्य तत्तथा, अत एव 'थोरालं' ति प्रधानम् 'उदगरयणं' ति उदकमेव रत्नमुदकरत्नं उदकजातो तस्योत्कृष्टत्वात् । (व०प० ६७२) ३४३. तए णं ते वणिया हट्टतुट्ठा पाणियं पिबंति, पिबित्ता वाहणाई पज्जेंति। 'वाहणाई पज्जति' त्ति बलीवर्दादिवाहनानि पाययंति । (वृ०प०६७२) ३४४, पज्जेत्ता भायणाई भरेंति, भरेत्ता दोच्चं पि अण्णमण्णं एवं वदासी३४५. एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, ३४६. तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स दोच्चं पि वप्पु भिदित्तए। ३४३. तिण अवसर ते वाणिया, हरष संतोष लहंत। जल पीवै पीवी करी, वृषभादिक पावंत ।। ३४४. वृषभादिक प्रति पाय 4, भाजन प्रतै भरंत । द्वितीय वार फुन परस्पर, इहविध वयण वदंत ।। ३४५. इम निश्चै देवानुप्रिया ! ए वल्मीक तणूंज । प्रथम शिखर भेद्यां लां, वर जल रत्न धणूंज ।। ३४६. ते माटे आपां भणी, अहो देवानुप्रियेह ! ए वल्मीक तणुं द्वितीय शिखर भेदवू श्रेय ।। भ० श०१५ ३२५ Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७. कदाचित निश्चय करी, सुवर्ण रत्न उदार । उत्कृष्ट सुवर्ण जाति में, तेह पामियै सार ।। ३४८. तिण अवसर ते वाणिया, अन्योऽन्य इक-इक पास । एह अर्थ अंगीकर, अंगीकार करि तास ।। ३४६. ते वल्मीक तणो तदा, द्वितीय शिखर पिण ताम । भेदै तत्र लह्यो तिणे, सुवर्ण अति अभिराम ।। ३५०. तेह निर्मल अकृत्रिम, फुन सहै ताप प्रति जेह । महाप्रयोजन महामूल्य, मोटा योग्य सुलेह ।। ३४७. अवियाई एत्थ ओराल सुवण्णरयणं अस्सादिस्सामो। (श० १०८९) ३४८ तए णं ते वणिया अण्णमण्णस्स अंतियं एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ३४९. तस्स वम्मीयस्स दोच्चं पि वप्पु भिदंति । ३५०.ते ण तत्थ अच्छं जच्चं तावणिज्जं महत्थं महग्धं महरिहं 'अच्छ' ति निर्मलं 'जच्चं' ति अकृत्रिमं 'तावणिज्ज' ति तापनीयं तापसहं 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं 'महग्यं' ति महामूल्यं 'महरिहं' ति महतां योग्यं । (वृ० प० ६७२) ३५१. ओरालं सुवण्णरयणं अस्सादेति । ३५१. पवर उदारज एह, सुवर्ण रत्न लहेह । उत्कृष्ट सुवर्ण जाति में, तिणसं रत्न कहेह ।। ३५२. तिण अवसर ते वाणिया, हरष संतोष पामेह । भाजन भरै भरी करी, शकटी शकट भरेह ।। ३५३. शकटी शकट भरी करी, तृतीय वार पिण तेह । माहोमांहे इम कहै, अहो देवानुप्रियेह ! ३५४. इम निश्चै करिने अम्है, ए वल्मीक तणूंज । प्रथम शिखर भेद्यां लघु, वर जल रत्न घणूंज ।। ३५५. द्वितीय शिखर भेद्यां लघु, सुवर्ण रत्न उदार । ते माटै देवानप्रिय ! निश्चै करि इह वार ।। ३५६. तृतीय शिखर पिण भेदवं, आपण भणीज श्रेय । ___'थ' पूर्ण' लहियै वली, वर मणि रत्न प्रतेह ।। ३५२. तए णं ते वणिया हट्ठतुट्टा भायाणाई भरेंति, भरेत्ता पवहणाई भरेंति, ३५३. भरेत्ता तच्चं पि अण्णमणं एवं वयासी-एवं खल देवाणुप्पिया ! ३५४. अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, ३५५. दोच्चाए वप्पूए भिन्नाए ओराले सुवण्णरयणे अस्सादिए, ३५६. तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वम्मीयस्उ तच्चं पि वप्पु भिदित्तए, अवियाई एत्थं ओरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो। (श०१५९०) ३५७. तए णं ते वणिया अण्णमण्णस्स अंतियं एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ३५८. तस्स वम्मीयस्स तच्चं पि वप्पु भिदंति । ३५९. ते णं तत्थ विमलं निम्मलं नित्तलं निक्कलं महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं मणिरयणं अस्सादेति । ३५७. तिण अवसर ते वाणिया, अन्नमन्न इक-इक पास । एह अर्थ अंगीकरै, अंगीकार करि तास ।। ३५८. ते वल्मीक तणो तदा, तृतीय शिखर पिण ताम । भेदै तत्र लह्या तिणे, वर मणि रत्न अमाम ।। ३५९. त्यां विमल निमल नित्तल निक्कल, महाअर्थ महामूल्य । मोटा योग्यज एहवा, जे मणि रत्न अतुल्य ।। वा०- गयो छ आगंतुक मल जेह थी ते विमल । स्वाभाविक मलरहित ते निर्मल । अनिवृत बाटलो ते निस्तल, त्रसादि रत्न दोष रहित ते निष्कल । महाप्रयोजन ते महार्थ। ३६०. तिण अवसर ते वाणिया, हरष संतोष लहेह । भाजन भरै भरी करी, शकटी शकट भरेह ।। ३६१. शकटी शकट भरी करी, तुर्य वार पिण तेह । अन्योऽन्य प्रतै वली, इहविध वयण वदेह ।। ३६२. इम निश्चै देवानुप्रिय ! ए वल्मीक तणूंज। प्रथम शिखर भेद्ये लघु, वर जल रत्न घणूंज ।। ३६०. तए णं ते वणिया हट्ठतुट्ठा भायणाई भरेंति, भरेत्ता पवणाइं भरेंति, ३६१. भरेत्ता चउत्थं पि अण्णमण्णं एवं वयासी ३६२. एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए, १. कुछ आदर्शों में 'एत्थं' के स्थान पर 'थ' पाठ लिया है। ३२६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३. द्वितीय शिखर भेथे लयुं सुवर्ण रत्न उदार तृतीय शिखर भेद्ये लह्या वर मणि रयण सुसार ॥ ३६४. तिणसूं निश्चं अम्ह भणी. ए वल्मीक नुं तुर्य पिण, ३६५. कवा ध पूर्ण उत्तम ही मोटा योग्य उदार वर, ३६६. तिण अवसर ते वणिक नों हित वंछक ते कष्ट नुं ३६७. सुख ते आनंद रूप प्रति 1 तेहनुं वांछक जेह । पथ्य इव पथ्य आनंद नुं, कारण वस्तु वांछेह || ३६. अनुकंपा धरतो तसु, निस्सेसिए सुलेह | विपत्ति थकी मूकायवू, ते विपत्तिमोक्ष वांछेह || ३६. अधिकृत वणिक तणां प्रगट किणही प्रकार करी हिवै, ३७०. हित सुख मोक्ष विपत्ति नीं, बहु वायां प्रति ते वणिक ३७१. इम निश्वे देवानुप्रिय ! प्रथम शिखर भेद्यां अम्हे, २७२. जावत तीजा शिखर प्रति उदार जे मणि रत्न प्रति, ३७३. ते माटै होवो अलं, पर्याप्त संपूरण वलि, ३७४. प्रतिषेधक वाचकपणें, अहो देवानुप्रियेह ! शिखर भेदवूं श्रेय ॥ महामूल्य फुन जेह वज्र रत्न पामेह ॥ एक वणिक अवधार अभाव वांछणहार ॥ ३७५. आपण नें ए तुर्य ही, प्रत्यक्ष चउवा शिखर ते 1 पूर्व कह्या गुणगेह । युगपत योग्य कहेह || ए त्रिहुं प्रति वांछेह । इहविध वयण वदेत् ॥ ए वल्मीक तगूंज । वर जल रत्न लह्यूज || भेथे छते सुयोग्य पाम्या पुनः प्रयोग्य ॥ सरो शब्द ए त्रिहुं शब्द पिछाण । अतिही निषेध अर्थ ही विहं रव आख्या जाण ।। 1 ३७६. ति अवसर ते वाणिया, हित-वाचक जेवली, ३७७. जावत हित सुख विपत्ति नीं इम कहतां जावत वली, ३७८. एह अर्थ पूरो थावो जेह । तीनूई एह || शिखर म भेदो कोय । उपसर्ग सहितज होय ॥ तेह वणिक नां जोय सुख-बांधक पिण सोय ॥ मोक्ष नुं वांछक तेह | परूपता नै जेह || नहीं, जाव रोचर्व एह अर्थ जे वचन ने अणभयंता नांहि । ताहि ॥ ३६३. दोच्चाए बए भिन्नाए भोराले वारवर्ष अस्सादिए, तच्चाए वप्पूए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए, ३६४ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स चउत्थं पि वप्पुं भित्तिए, ३६५. अवियाई उत्तमं महग्धं महरिहं ओरालं वइररयणं अस्सादेस्सामो । ( ० १५९१) ३६६. तए गं तेसि वणिया एमे वणिए हिमकामए 'हिकामए' त्ति इह हितं -अपायाभावः । ३६७. सुहकामए पत्थकामए ३६८. आणुकंपिए निस्से सिए , 'सुहकामए' त्ति सुखं - आनन्दरूपं 'पत्थकामए' त्ति पथ्यमिव पथ्यं आनन्दकारणं वस्तु । ( वृ० प० ६७२ ) ३६९. अधिकृतयोरेव गुण 'आणुकंपिए' त्ति अनुकम्पया चरतीत्यानुकम्पिकः 'निस्सेमसिए' ति नियमं नैःश्रेयसिकः । यत्यक्षमिच्छतीति (१० १० १०२) विद्यगपद्योग(बृ० प० ६७२) ३७०. हिय सुह- निस्सेसकामए ते वणिए एवं वयासी माह (बृ० प०६७२) २०१. एवं देवाप्पिया! अम्हे इमस्स यम्मीवस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए गोरासे उदगरयणे बरसादिए, ३७२. जाव (सं० पा० ) तच्चाए वप्पूए भिन्नाए ओराले मणिरमणे अस्तादिए। ३७३. तं होउ अलाहि पज्जत्तं णे । - ३७४. 'तं होउ अलाहि पज्जतं णे' त्ति तत्तस्माद् भवतु अलं पर्याप्तमित्येते शब्दाः प्रतिषेधवाचकत्वेनैकार्था आत्यन्तिक प्रतिषेधप्रतिपादनार्थमुक्ताः । ( वृ० प० ६७२ ) ३७५. एसा चउत्थी वप्पू मा भिज्जउ, चउत्थी णं वप्पू सउवसग्गा यावि होत्था । ( श० १५/९२ ) ३७६. तए णं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगस्स मुहकामगस्थ ३७७. जाव (सं० पा० ) हिय-सुह-निस्सेसकामगस्स एव माइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स 1 २७८. एमो सद्दति नो पतियंति नो रोमंति मट्ठे असद्दहमाणा भ० श० १५ ३२७ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९. जाव अरोषवता थका | तुर्य शिखर भेदेह तेह तिहां विकराल अही वर्णन जास कहेह ॥ २८० ते सर्प उपविष नों धणी, दुर्जर विष छे तास फुन चंडविष ते नर तनु, डस्यां भटव्यापै विषराश ।। ३८१. परंपरा करिके जिको सहस्र भणी पिण सोय । हणवा समर्थ जेह छ घोरविसं ते जोय ॥ ३८२. जंबूद्वीप प्रमाण तनु, व्यापन समर्थ जेह छे 1 1 ३८३ शेष अहि प्रति अतिक्रम फुन तेहि महाकाय छै, ३८४. मी ते कज्जल समी, तापन - भाजन सारिखो, २०६. अंजन-पुंज तो जिको, दीप्तिपणुं छे जेहनुं, ३८७. रक्तचक्षु जेहनी, युगल उभय चंचल यथा, ३८५. नयन दृष्टिविष तिण करि बलि ते रोष करेह पूर्ण भरो छँ ते पन्नग, दृष्टिविष कयूं एह ॥ निकर समूह प्रकाश एहवूं सर्प विमास ।। ३८८. वेणीभूत महितल विषे, केश बंधनों पर तिको, ३८. दीर्घपणां नां वलि जिके, पश्चाद्भागपणां तणां ३०. उत्कट ते बलवंत छे, स्फुट तेह भणी पिण जाण । महाविसं ते माण ॥ ३६१. जटिल स्कंध देशे तसु, अहि में पिण केशरि तणां ३२८ भगवती जोड़ कहिये ते अतिकाय । कर्मधारय कहिवाय ॥ मूसा ते सुवर्णादिकृष्ण वर्ण संवादि || मृदुपणां नां माण साधर्म्य श्री पहिचान | अन्य जीपी न सकेह ते प्रयत्न सहित छे, वक्र सरूपपणेह ॥ । जमल बरोबर लीह । अतिही चपल सुजीह ॥ वनिता तणां विशाल । कृष्णपणा नां म्हाल ॥ केशरी तणी परेह । सद्भाव बकी कहेह ॥ ३७९. जाव (सं० पा० ) चउत्थं पि वप्पुं भिदति । ३८०. से णं तत्थ उग्गविसं चंडविसं 'उग्गविसं' ति दुर्जरविषं 'चंडविसं' ति दष्टकनरकायस्य झगिति व्यापकविषं । ( वृ० प० ६७२) ३८१. घोरविसं 'घोरविसं' ति परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसमर्थ विषं । ( वृ० प० ६७२ ) ३८२. महाविसं ३८३. अतिकायं महाकायं 'महाविसं' ति जम्बूद्वीपप्रमाणस्यापि देहस्य व्यापनसमर्थविषम् । ( वृ० प० ६७२ ) ३८४ मसिसाकल 'अइकायमहाकार्य' ति कावा ऽतिकायोऽत एव महाकायस्ततः कर्म्मधारयः । बरोएमाणा तस्य वम्मीयस् पाहीनामति 'महाकाल' तिमी पाचसुवर्णादितापनभाजनविशेषस्ते इव कालको यः स तथा ( वृ० प० ६७२) तं । २८४. नयणविसरोपुष्पं 'नयणविसरोसपुन्नं' ति नयनविषेण दृष्टिविषेण रोषेण च पूर्णो यः स तथा तम् । ( वृ० प० ६७२) ३०६. अंजणपुंज - निगरण्यासं (१० १०६७२) 'अंजनपुंजतिगरपास' ति अनजाना निकरस्येव प्रकाशी- दीप्तिर्यस्य स तथा तं । ( वृ० प० ६७२) ३८७ तच्छं जमलजुयलचंचल चलतजो ३९०. उक्कड फुड-कुटिल 'जमलजुयलचंचलचलंतजीहं' ति जमलं सहवत्त युगलं द्वयं चञ्चलं यथा भवत्येवं चलन्त्योः अति पयोजिह्वयोर्यस्य स तथा तं । ( वृ० प० ६७२) ३८८, ३८९. धरणितलवेणिभूयं ३९१. जडल 'धरणितलवेषिभूति धरणीतलस्य गीत-वनिताशिरसः केशबन्धविशेष इव यः कृष्णत्वदीर्घत्वश्लक्ष्णपश्चाद्भागत्वादिसाधम्र्म्यात्स तथा तम् । ( वृ० प० ६७२, ७३ ) उत्कट भाज्येनाध्वंसनीयत्वात् स्फुटो व्यक्तः प्रयत्नविहितत्वात् कुटिलो — वस्तत्स्वरूपत्वात् । ( वृ० १०६०३) जटिल प्रदेशे केशरिणामिवाहीना केसरद्धावात् ।. ( वृ० प०६७३) Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. कस ते निष्ठुर वली, फण नां जे आटोप प्रति ३६३. लोह आगर में अग्नि करी, धमधमाय रव धमण नों, ३४. अनाकलित अप्रमेय थे. विकट विस्तीर्ण जेह करिया डाहो तेह ॥ चंड तीव्र जसु रोष अतिही तीव्र रोष तसु, अधिक कोप नों कोष || तपावतां अय जास । तेहवो घोषज तास ॥ ३५. स्वान तणां मुख जिम त्वरित, चपल रु शब्द धमंत । करतो दुष्टीविष इसो, ते अहि प्रति संघर्टत ॥ ३६६. तिण अवसर ते दृष्टिविष अहि तसु काय विशाल । ते वणिक संघटय छते, कोप्यो शीघ्र कराल || ३९७. जाव मिसमिसायमान वयं धीरे-धीरे उठ । धीरे-धीर उठने, दृष्टीविष महादूठ ।। ३५. सर सर सर ते सर्प नुं गति अनुकरण विचार । ते वल्मीक तणां शिखर, तल प्रतं चढे तिवार ।। ३६६. शिखर तला प्रति चढी करी, रवि सन्मुख देखेह | रवि सन्मुख देखी करी, रोष भरचो अधिके ।। ४०० ते वाणिया प्रति अही अनिमिष नेत्र करेह । समस्त प्रकार थकी तदा, कोप करी देखेह || ४०१. तिण अवसर ते वाणिया, तिण दृष्टिविष सर्पेण । अनिमिष नेत्रे सर्व थी, देख्या छतांजु तेण ॥ ४०२. शीघ्र हीज निज भंड मत्त, उपगरण मात्र संघात । एकज भस्मीकरण जे तेह प्रहारे स्वात ॥ , ४०३. कूट तिको पाषाणमय, महायंत्र करि जेम । हणें तिम समकाल सहू, भस्मराशि थया तेम || ४०४. तत्र जिको ते वाणियों, ते वायां नों ताम । हित बांक यावत वली, हित सुख निस्सेयसकाम || ४०५. तेह वणिक नीं नाग सुर, अणुकंपा करि ताय । भंड मात्र उपकरण सहित निज नगरे पहुंचाय ॥ ४०६. एणे दृष्टांत करी हे आणंद ! सुजोय तांहरो, धर्मोपदेशक 1 | तोय ॥ धर्माचार्य ३९२. कक्खडविकडफडाडोवकरणदच्छं कर्कशो— निष्ठुरो बलवत्त्वात् विकटो --- विस्तीर्णो यः स्फटाटोप : फणासंरम्भस्तत्करणे दक्षो यः स तथा तं । ( वृ० प० ६७३ ) ३९३. लोहागर - धम्ममाण- धमधमेंतधोसं लोहाग रधम्ममाणधमधमेंत घोसं' ति लोहस्येवाकरे ध्मायमानस्य - अग्निना ताप्यमानस्य धमधमायमानो - धमधमेतिवर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः - शब्दो यस्य स तथा तम् । ( वृ० प०६७१) ३९४. अणागलियचंडतिव्वरोसं 'अणानलियडतिस्वरोस' ति अनिति अनि वारितोऽनाकलितो वाऽप्रमेयश्चण्डः तीव्रो रोषो यस्य स तथा तं । ( वृ० प० ६७३ ) २९७ समुचवलं धर्मतं विद्वीविस सप्पं संघट्टेति । 'समुहियतुरियचवलं धमंतं' ति शुनो मुखं श्वमुखं तस्येवाचरणं श्वमुखिका - कौलेयकस्येव भषणं तां त्वरितं च चपलमति चटुलतया धमन्तं शब्दं कुर्वन्तमित्यर्थः । ( वृ० प० ६९३) ३९६. तए णं से दिट्ठीविसे सप्पे तेहि वणिएहि संघट्टिए समाणे सुरु ३९७. जाव (सं० पा० ) मिसिमिसेमाणे सणियं सनियं उट्ठे उता ३९८. सरसरसरस्स वम्मीयस्स सिहरतलं द्रुहति 'सरसरसरसरस्स' ति सर्पगतेरनुकरणम् । ( वृ० प० ६७३ ) ३९९. दुहिता आदिच्चं निज्भाति, निज्झाइत्ता ४०० ते वणिए अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वलो समंता समभितोएति । ( श० १५/९४ ) ४०१. तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं सप्पेणं अणिमिसाए दिडीए सम्मको समता समभितोइया धमाणा ४०२. खिप्पामेव सभंडमत्तोवग रणमायाए एगाहच्च 'एगाहच्च' ति एका एव माहत्या आहननं प्रहारो यत्र भस्मीकरणे तदेकाहत्यं तद्यथा भवत्येवं । (40 40 (107) ४०३. कूडाहच्चं भासरासी कया यावि होत्था । 'कूडाहच्चं ' ति कूटस्येव पाषाणमयमारणमहायन्त्रस्येवाहत्या महननं यत्र कूटात्वं तचचा भवतीत्येवं । ( वृ० प० ६१३) ४०४. तत्थ णं जे से वणिए तेसि वणियाणं हियकामए जाव (सं० पा० ) हिय - सुह- निस्सेसकामए । ४०५. से णं आणुकंपियाए देवयाए सभंडमत्तोवग रणमायाए नियगं नगरं साहिए । (० १५०९५) ४०६. एवामेव आणंदा ! तव विधम्माय रिएणं धम्मो वएसएणं भ० श० १५ ३२९ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७. समणेणं नायपुत्तेण ओराले परियाए अस्मादिए, 'परियाए'त्ति पर्यायः-अवस्था । (वृ०५० ६७३) ४०८. ओराला कित्ति-वण्ण-सद्द-सिलोगा ४०७. श्रमण ज्ञातपुत्रे प्रगट, जेह उदार प्रधान । पर्याय ते अवस्था प्रतै, पामी अधिक सुजान ।। ४०८. जेह उदार प्रधान छै, कीर्ती वर्ण विचार। शब्द अनें श्लाघा घणी, ए च्यारूं अवधार ॥ वा०-इहां वृद्ध व्याख्या-सर्वदिग्व्यापी साधुवादः-ते सर्व दिशि साधु कहितां भलो वद कहितां वदवू-कहिवू ते कीत्ति । एक दिशि व्यापी वर्ण । अर्ध दिशि व्यापी शब्द । तिण स्थानकहीज श्लोक ते श्लाघा । ४०६. सुर मनु असुर सहित जे, जीवलोक तिहां सोय। पुवंति गमन करै वली, गुव्वंति व्याकुली होय ।। वा०-इह वृद्धव्याख्या-सर्वदिग्व्यापि साधुवादः कीत्ति एकदिव्यापी वर्ण : अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एव श्लोकः श्लाघेति यावत् । (वृ० प० ६७३) ४०९. सदेवमणुयासुरे लोए पुन्वंति, गुब्वंति' 'सदेवमणुयासुरे लोए' ति सह देवैर्मनुजैरसुरैश्च यो लोको-जीवलोकः स तथा तत्र, 'पुव्वंति' त्ति 'प्लवन्ते'. "गच्छंति 'गुव्वंति' गुप्यन्ति व्याकुली भवन्ति । (वृ० १० ६७३) ४१०. इति खलु समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरे ४११. तं जदि मे से अज्ज किचि वि वदति तो णं तवेणं तेएणं 'तवेणं तेएणं' ति तपोजन्यं तेजस्तप एव वा तेन 'तेजसा' तेजोलेश्या 'जहा वा वालेणं' ति यथैव 'व्यालेन' भुजगेन । (वृ०प०६७३) ४१२. एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेमि, ४१०. इति खलु ए श्रमण फुन, भगवंत श्री महावीर। दोय वार ए शब्द है, पाठ विषे गुणहीर ॥ ४११. ते माटै जो मुझ भणी, ते किंचित कहै आज । तो तप थी थयुं तेज ते, लेश्या तेज समाज ।। ४१३. जहा वा वालेणं ते वणिया । ४१२. तिणज तेजोलेश्या करी, एक प्रहारे जेम । हणिवू फुन महायंत्र करि, भस्मराशि करूं तेम।। ४१३. जिम वा ते निश्चै करी, ते बहु वणिक प्रतेह । सर्प भस्म किया तिमज, हं पिण भस्म करेह ।। ४१४. तुम्ह प्रति हे आणंद ! हं, दाह भय थी राखीस । गोपवसू ते खेम नें, स्थानक पहुंचाड़ीस ॥ ४१५. तिम निश्चै ते वणिक इक, बहु वाण्यां नु ताम । हित-वांछक यावत तसु, हित सुख निस्सेस काम॥ ४१६. अनुकंपा करि नाग सुर, सभंड मात्र करेह । जाव पहुंचायो निज नगर, तिम हूं तुझ राखेह । ४१७. ते माटै जावो तुम्हे, हे आणंद ! सुणेह । धर्माचारज धर्म नां उपदेशक प्रति जेह ।। ४१८. श्रमण ज्ञातसुत तेहनें, एह अर्थ प्रति जाण । कहिजै समस्त प्रकार करि, अम्है कही ते वाण ।। आनन्द स्थविर द्वारा भगवान को निवेदन पद ४१६. तिण अवसर आनंद स्थविर, गोशाले अवदात । इम को छतेज डरपियो, यावत अतिभय जात ।। ४२०. गोशाला नां पास थी, हालाहला कहीज । कभकारिका नों जिको, कुंभकारावण थीज ।। ४२१. निकले निकली नै तदा, शीघ्र त्वरित गति पंच। सावत्थी मध्योमध्य थई, निकलै निकली संच ।। ४१४. तुमं च णं आणंदा ! सारक्खामि संगोवामि 'सारक्खामि' त्ति संरक्षामि दाहभयात् 'संगोवयामि' त्ति संगोपयामि क्षेमस्थानप्रापणेन । (व०प०६७३) ४१५. जहा वा से वणिए तेसि वणियाणं हियकामए जाव निस्सेसकामए ४१६. आणुकंपियाए देवयाए सभंड जाव (सं० पा०) साहिए। ४१७. तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तव धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स ४१८. समणस्स नायपुत्तस्स एयमझें परिकहेहि । (श० १५५९६) ४१९. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव संजायभए ४२०. गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ ४२१. पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरिय सावत्थि नगरि मज्झमज्झणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता १. अंगसुत्ताणि भाग २ में गुव्वंति के बाद थुब्वंति पाठ है, पर उसको जोड़ नहीं है। ३३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२. जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ४२३. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं ४२२. जिहां जे कोटग बाग छ, जिहां श्रमण भगवंत । महावीर स्वामी तिहां, आवै आवी मंत॥ ४२३. श्रमण भगवंत महावीर नैं, तीन बार धर प्यार । दक्षिण नां पासा थकी, आरंभी मैं सार ।। ४२४. प्रदक्षिण देई करी, वंदै स्तुती करेह । नमस्कार शिर नाम नै, एम कहै गुणगेह । ४२५. इम निश्चै भगवंत ! हं, छट पारण ताहि । जे तुम्ह नी आज्ञा छते, नगरी सावत्थी मांहि ।। ४२६. उच्च नीच मज्झिम कुले, यावत फिरतां जाण । हालाहलाजु नाम करि, कुंभकारिका माण ।। ४२७. कुंभकारि आपण थकी, जावत हं तिण ठाम । जातां तब गोशाल जे, पुत्र मंखली आम ।। ४२८. मुझ प्रति जे हालाहला, कुंभकारिका ताय । जावत ही देखी करी, इहविध बोल्यो वाय ।। ४२६. आव इहां आणंद ! तूं, सुण इक महादृष्टंत । तब हूं जे गोशालके, इम को छतेज मंत ।। ४२४. पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी४२५. एवं खलु अहं भंते ! छट्ठक्खमणपारणगंसि तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए ४२६. उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए ४२७. कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइवयामि, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते ४२८. ममं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूर सामंतेणं वीइवयमाणं पासित्ता एवं बयासी४२९. एहि ताव आणंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि । तए णं अहं गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे ४३०. जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते ४३१. तेणेव उवागच्छामि। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते मम एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! इओ चिरातीयाए अद्धाए ४३२. केइ उच्चावया वणिया एवं तं चेव सव्वं निरवसेसं भाणियब्वं जाव नियगं नगरं साहिए। ४३३. तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तव धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स जाव (सं० पा०) परिकहेहि । (श० १५॥९७) ४३४. तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं 30 ४३०. जिहांज जे हालाहला, कुभकारिका तास । कंभकार आपण अछै, जिहां गोशाल विमास ।। ४३१. तिहां हूं गयो गोशाल तब, मुझ इम बोल्यो वाय । इम निश्चै आणंद ! चिर अतीत अद्धा मांय ।। ४३२. उच्च नीच के वाणिया, इम तिम सहु विस्तार । कहिवं यावत निज नगर, पहुंचायो धर प्यार ॥ ४३३. ते माटे आणंद ! जा, धर्माचारज जेह। धर्मोपदेशक प्रति तुम्है, यावत सर्व कहेह ॥ ४३५. एगाहच्च कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए ? ४३४. ते माटै भगवंत जी! मंखलि-सुत गोशाल । प्रभु ते समर्थ छै तिको, तप तेजे करि न्हाल । ४३५. जिम ते एक प्रहार करि, हणिवू फुन यंत्रेह । तेम भस्म नी राशि प्रति, करिवा समर्थ एह ॥ वा०-इहां माणंद पूछयो—प्रभु कहितां समर्थ छ हे भगवंत ! गोशालो मंखलि-पुत्र तप थकी ऊपनों तेज ते तेजोलेश्या तिणे करी। जिम एक प्रहारे हणिवू हुवै तिम तथा पाषाणमय महायंत्रे करी हणिवू हुवै तिम भस्म नी राशि प्रत करिवा समर्थ छै? इति एक प्रश्न । समर्थपणो बे प्रकारे-एक तो विषय मात्र अपेक्षया, दूजो ते भस्म करवा नी अपेक्षया । ए बे प्रकारे करी आणंद स्थविर वली पूछ छै४३६. मंखलिसुत गोशाल नु, विषय छ हे भगवान ! जाव भस्म करिवा तणुं, ए धुर विकल्प जान ।। ४३७. समर्थ छै भगवंत जी! मंखलिसुत गोशाल । यावत करिवा भस्म प्रति, दूजो विकल्प न्हाल? वा०-'पभुति प्रभविष्णुर्गोशालको भस्मराशि कर्तुम् ? इत्येकः प्रश्नः, प्रभुत्वं च द्विधा-विषयमात्रापेक्षया तत्करणतश्चेति पुनः पृच्छति-'विसए ण' मित्यादि, अनेन च प्रथमो विकल्पः पृष्टः, 'समत्थे ण' मित्यादिना तु द्वितीय इति। (वृ० प० ६७५) ४३६. विसए णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए? ४३७. समत्थे णं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए? भ० श. १५ ३३१ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८. जिन भाखै आणंद ! सुण, समर्थ छै गोशाल । तप तेजे करि जाव ही, करिवा भस्म कराल ।। ४३६. हे आणंदा! विषय छै, गोशाला नं जोय । जावत करिवा भस्म प्रति , विषय मात्र ए होय ।। ४४०. छै समर्थ आणंद ! ए, मंखलिसुत गोशाल । जावत करिवा नैं भसम, करण थकी ए न्हाल ।। ४४१. पिण अरिहंत भगवंत नै, निश्चै करिके एह । भस्मराशि नहिं करि सक, पुण परिताप करेह ।। गीतक-छंद ४४२. जेतलं हे आणंद ! छै तप तेज जे गोशाल नं। तप तेज एह थी गुण अनंत विशिष्टतर मुनि माल नुं । पिण क्रोध निग्रह करी खमै अणगार भगवन प्रवर ही। कह्य सूत्र में तप तेज ए सामान्य साधु नों वही। ४३८. पभू णं आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्च भासरासि करेत्तए । ४३९. विसए णं आणंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए । ४४०. समत्थे णं आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेत्तए, ४४१. नो चेव णं अरहते भगवंते, पारियावणियं पुण करेज्जा। ४४३. जेतलु हे आणंद ! छै तप तेज जे मुनि मेर नुं । तप तेज एहथी गुण अनंत विशिष्टतर बहु थेरन । पिण क्रोध निग्रह करी खमै स्थविर भगवन समचितं । इह सूत्र में आचार्य आदि सुत्रिविध स्थविर नै भाषितं॥ ४४४. जेतलं हे आणंद ! छै तप तेज स्थविर महंत नं । तप तेज एहथी गुण अनंत विशिष्टतर अरहंत नुं । पिण क्रोध नैंज अभाव करिकै खमै अरिहंत भगवता। चिहुं घातिया अघ भूर ते चकचूर तीर्थंकर कृता ।। ४४२. जावतिए णं आणंदा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवे तेए, एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतराए चेव तवे तेए भणगाराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अणगारा भगवंतो। 'अणगाराणं' ति सामान्यसाधूनां 'खंतिक्खम' त्ति क्षान्त्या-क्रोधनिग्रहेण क्षमन्त इति क्षान्तिक्षमाः । (वृ० प० ६७५) ४४३. जावइए णं आणंदा अणगाराणं भगवंताणं तवे तेए एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतराए चेव तवे तेए थेराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण थेरा भगवंतो। 'थेराणं' ति आचार्यादीनां-वयः-श्रुतपर्यायस्थविराणां। (वृ० प०६७५) ४४४. जावतिए णं आणंदा! थेराणं भगवंताणं तवे तेए एत्तो अणंतगुणविसिट्ठतराए चेव तवे तेए अरहंताणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरहंता भगवंतो। दूहा ४४५. तं पभू णं आणंदा ! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं जाव (सं० पा०) करेत्तए । ४४६. विसए णं आणंदा ! जाव (सं० पा०) करेत्तए। ४४७. समत्थे णं आणंदा ! जाव (सं० पा०) करेत्तए। ४४५. ते माटै आणंद ! प्रभु मंखलिसुत गोशाल । तप तेजे करि जाव ही, भस्म करेवा न्हाल ।। ४४६. हे आणंदा ! विषय छ, गोशालक नुं सोय । जाव भस्म नी राशि प्रति, करिवा न अवलोय ॥ ४४७. समर्थ छै आणंद ! ए, मंखलिसुत गोशाल । जाव भस्म नी राशि प्रति, करिवा में तत्काल ।। ४४८. पिण अरिहंत भगवंत नै, निश्चै करिनैं एह । भस्मराशि नवि करि सक, पुण परिताप करेह ।। गोतम आदि को अनुज्ञापन पद ४४६. ते माटै जाओ तुम्है, हे आणंद ! अबार । गोतमादि जे श्रमण नै, निग्रंथ में सविचार ॥ ४५०. समस्तपणे करी तिको, एह अर्थ कहो जाय । अभिप्राय इहां एह छै, सांभलजो चित ल्याय ।। ४५१. गोशाले तुझ मैं कही, तेह सर्व ही बात । गोतम आदि भणी कहो, धुर हुंती अवदात ।। ४४८. नो चेव णं अरहते भगवते, पारियावणियं पुण करेज्जा । (श० १५१९८) ४४९. तं गच्छ णं तुम आणंदा ! गोयमाईणं समणाणं निग्गंथार्ण ४५०. एयमट्ठ परिकहेहि। ३३२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को गोशाल प्रवेह | निष्ठर वच मति देह ।। ते पिण मती करेह । निंदा न करो जेह ॥ म करो प्रत्युपचार। तथा धर्म उपकार करि, म करो धर्म उपकार ॥ ४५२. हे आर्यों! तुम्ह मत करो धर्म पदिचोयण करी, ४५३. धर्म पड़िसारणा करी, इतने तेहनां मत तणी, ४५४. धर्म प्रति उपचारे करी, ४५५. मंखलिसुत गोशालके, श्रमण निर्गंथ संघात । म्लेच्छ अनार्य भाव प्रति पड़िवजियो साक्षात ॥ 3 ४५६. स्थविर आनंद सिंह अवसरे, श्रमण भगवंत महावीर । इम कये छते प्रभु प्रतं वंदे नमे सुधीर ॥ ४५७. प्रभु वंदी शिर नामनें जिहां गोतम आदेह । श्रमण निर्गंध तिहां आयने आमंत्रे तेह ॥ ४५८. आमंत्री ने इम कहै, वाण ॥ इम निश्चै करि जाण । हे आर्यो ! हूं छठ तणां पारण विषे पिछाण ॥ ४५८. भ्रमण भगवंत महावीर प्रभु, आज्ञा दिये छते । नगरी सावत्थी ने विषे, उच्च नीच मज्झिमेह ॥ ४६०. तिमहिज सगलो जान ही, ज्ञातपुत्र प्रति जाण । एह अर्थ सहु तूं कहे, गोशाले कही वा० - इहां आणंद स्थविरे गोशाले जे दृष्टांत देईनें का ते तो समाचार जाव शब्द में आया । एतलं गोशाले जे वार्त्ता कही, तिका बात आनंद थविरे गोतमादिक नैं सर्व कही। पिण जे भगवान कनें आणंद थविर आयो, भगवान नं प्रश्न पूछया, ते जाव शब्द में न आया । ते मार्ट ते बात गोतमादिक नैं न कही ते विचारी जोयजो । वलि आणंद थविर गोतमादिक ने कह्यो ते लिखिये छैको गोशाल प्रवेह । निष्ठुर वचन मति देह || पड़िवजियो गोशाल । श्रमण अ निग्रंथ थी, भाव अनारज न्हाल ॥ | ४६१. तिण आय! मति करो, धर्म पड़िचोयणा करी, ४६२. जावत म्लेच्छ भाव प्रति, वा०- 'इहां आणंद थविरे कह्यो - गोशाला प्रति धर्मचोयणा कीजो मती, गोशाले श्रमण निर्बंध सूं म्लेच्छ भाव पड़बग्यो, ते मार्ट ए आणंदे कही। पिण इमन को मौने भगवान म्हेल्यो, ए समाचार तूं गोतमादिक नैं कहीजे । तिणसूं हूं कहूं छू, इम भगवान रो नांम लेई न कह्यो, ए भाव जाणवो । गोशाला नां कना थी आयने हूं भगवान कनै गयो, इम आणंद गोतमादिक नैं कह्योएहवो पिण पाठ में नथी। तो भगवान ए समाचार कहिवाया छे तिणसूं हूं थाने कहूं. ए किम हुने ? सूत्र देख विचार सीजो। I कोई पूछे -- गोशाले आणंद स्थविर नैं वार्त्ता कही तिका बात तो गोतमादिक ४५२. मा णं अज्जो ! तुब्भं केई गोसाल मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ । ४५३. धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ । ४५४. धम्मिए पोधारेण पोवारे | 'पडीयारेणं' ति प्रत्युपचारेण प्रत्युपकारेण वा 'पडोयारेउ' 'प्रत्युपचारयतु' ' प्रत्युपचारं करोतु एवं प्रत्युपकारयतु वा । ( वृ० प० ६७५) ४५५. गोसाले णं मंखलिपुत्ते समणेहि निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ने । (NO (KIRR) 'मिच्छं विपडिवन्ते' त्ति मिथ्यात्वं म्लेच्छ्यं वाअनार्यत्वं विशेषतः प्रतिपन्न इत्यर्थः । (बृ० प०६०२) ४५६. तए णं से आणंदे ! थेरे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ ४५७. वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव गोयमादी समणा निग्गंथा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोयमादी समणे निग्गंथे आमंतेति ४५८. आमंतेत्ता एवं वयासी एवं खलु मणपारणगंसि - अज्जो ! छटुक्ख ४५९. समणेण भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सावत्वीए नगरीए उच्च-नी-महिमालाई ४६० तं चैव सव्वं जाव गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमहं परिकहि । ४६१. बो! तुमं केई गोसाल मंलिपु धमिवाए पडिचोपणाए पडिए । ४६२. जाव (सं० पा० ) मिच्छं विप्पडिवन्ने । (१० १५।१००) भ० श० १५ ३३३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नै आणंद कही। अनं हूं भगवान कन्है आयनं सगला समाचार गोशाले कह्या ते भगवान नै हैं कह्या। वली भगवान नै प्रश्न पूछया, ए समाचार गोतमादिक ने कह्या पाठ में चाल्या नथी, ते किण कारण ? तेहनों उत्तर-आणंद स्थविर मैं गोशाले बात कही, तिका बात तो सगली गोतमादिक ने कही। गोशाले कह्यो छ-'गोशाला सू धर्म पडिचोयणा, धर्म पडिसारणा, धर्म प्रति उपचार कीजो मती।' गोशाले श्रमण निग्रंथ सूं म्लेच्छ भाव पड़िवज्यो छै। इम कहते छते भगवान विराज्या, तिहां गोशालो आय गयो। तिणसू आणंद स्थविर भगवान कन्है आय गयो । गोशाला रा समाचार कह्या, प्रश्न पूछया, ते बात गोतमादिक नै कहि सक्यो नहीं । एहवू न्याय संभवै ।' (ज.स.) गोशालक द्वारा स्वसिद्धान्त निरूपण पद ४६३. जितले आणंद थविर जे, गोतमादि मैं न्हाल । एह अर्थ कहै तेतले, मखलिसुत गोशाल ।। ४६४. कुंभारी हालाहला, तसु आपण थी ताम । निकली आजीविक तणां, संघ संघाते आम ।। ४६५. निज संघ साथे परवरयो, महाअमरिस अभिमान । तिण करिके वहितो छतो, शीघ्र त्वरित ही जान ।। ४६६. जाव सावत्थी मध्य थई, जिहां छै कोट्ठग बाग । जिहां श्रमण भगवंत छ, महावीर महाभाग ।। ४६३. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईण समणाणं निग्गंथाणं एयमट्ठ परिकहेइ, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ४६४. हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्ख मइ, पडिनिक्खमित्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे ४६५. महया अमरिसं वहमाणे सिग्धं तुरियं ४६६. सावत्थि नगरि मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे ४६७. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा ४६८. समणं भगवं महावीरं एवं वदासी ४६७. तिहां आवै आवी करी, श्रमण भगवंत महावीर । तसु नहिं अलगो टूकड़ो, एम रही प्रभु तीर।। ४६८. श्रमण भगवंत महावीर प्रति, इहविध बोले वाय । वचन ओलंभा रूप ते, गोशालो कहै ताय ।। ४६६. सुठु णं कहितां भलो, हे आउखावंत ! हे कासप ! तूं मुझ प्रतै, एह वच आखंत ।। ४७०. गोशालक सुत-मंखलि, धर्मातेवासी मोय । वार-वार तूं इम कहै, तिणसूं पाठ बे वार सुजोय ।। ४७१. जे तुझ शिष्य गोशालो हुँतो, ते सूको शुष्क सरीस । बह रुधिर अने मांसे करी, शुष्क थई सुजगीस ।। ४७२. काल अवसरे काल करि, कोइक सुरलोकेह । देवपणे ते ऊपनों, हिव मुझ विगत सुणेह ।। वा०---कोई कहै-भगवान गोशालो नै दीक्षा न दीधी, तेहनो उत्तरइहां भगवान ने गोशाले कह्यो-मुझ मैं तूं कहै गोशाले मंखलि-पुत्र माहरो धर्मातेवासी शिष्य, ते तो तन सूकावी, काल करी देवता थयो । इम गोशाले पिण कह्यो, ते माट भगवान गोशाला नै दीक्षा दीधी। ४७३. हं तो उदाई नाम जे, कुंडियायण गोत्री तास । तिण अर्जुन गोतमपुत्र नां, तनु प्रति तज्यूं विमास ।। ४७४. अर्जुन तनु प्रति तजि करी, मंखलिसुत गोशाल । तेह तणां जे तनु विष, प्रवेश कीधू न्हाल ॥ ४६९. सुठु णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी साहू णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी४७०. गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी गोसाले ____ मंखलिपुत्ते ममं धम्मतेवासी। ४७१. जे णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्काभिजाइए भवित्ता ४७२. कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने । ४७३. महण्णं उदाई नाम कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोयम पुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि ४७४. विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरयं अणुप्पविसामि ३३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational ation Intermational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५. गोशाला रा तनु विषे, प्रवेश करी सुजोय । सप्त पउट्ट परिहार ए, अम्है करूं छू सोय ।। ४७६. जे पिण आयुषमंत ! फुन, रे कासव ! सुण बात । जेह अम्हारा शास्त्र में, सीझ्या केई सुजात ।। ४७७. वा सीझै वलि सीझस्यै, ते सगला ही सोय । महाकल्प चउरासी लख, ते क्षय करी सजोय ।। वा०—'ते सगलाई'-गोशाला नां सिद्धांत नों अर्थ विरुद्ध ते भणी व्याख्यान न कीधो । चूर्णिकार कहै-संदेह भणी तेहनां अर्थ लिख्या नहीं तथापि शब्द अनुसारे कोइक लिखिय छै-खपावी नै इति योगः। तिहां कल्प कहितां काल विशेष तेह लोक प्रसिद्ध पिण हुवै ते व्यवच्छेद नै अर्थ चउरासी लाख महाकल्प कह्या। ४७८. सप्त देव नां भव प्रते, सप्त संजथ आख्यात । तेह निकाय विशेष छ, सन्नी गर्भ फुन सात ॥ वा०-सात संज्ञि गर्भ एतले मनुष्य गर्भ वसती प्रत, तेहन मते मोक्ष गामी नां सात सांतर हुवै छ, तेहनै आगे स्वयमेव कहिस्य । ४७५. अणुप्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहार परिहरामि। ४७६. जे वि आई आउसो कासवा ! अम्हं समयंसि केइ सिज्झिसु वा ४७७. सिझंति वा सिज्झिस्संति वा सव्वे ते चउरासीति महाकप्पसयसहस्साई। वा०-'जेवि आई' ति...'चउरासीइं महाकप्पसयसहस्साई' इत्यादि गोशालकसिद्धान्तार्थः स्थाप्यो, वृद्धैरप्यनाख्यातत्वात्, आह च चूर्णिकार:संदिद्धत्ताओ तस्स सिद्धतस्स न 'लक्खिज्जइ' ति तथाऽपि शब्दानुसारेण किञ्चिदुच्यते-चतुरशीतिमहाकल्पशतसहस्राणि क्षपयित्वेति योगः, तत्र कल्पा: -कालविशेषाः, ते च लोकप्रसिद्धा अपि भवन्तीति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तं महाकल्पा-वक्ष्यमाणस्वरूपास्तेषां यानि शतसहस्राणि-लक्षाणि तानि तथा । (वृ० प०६७६) ४७८. सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत्त सण्णिगब्भे । 'सत्त संजूहे' त्ति सप्त संयूथान् -निकायविशेषान् । (वृ० प० ६७६) वा०-'सत्त सन्निगन्भे' त्ति सज्ञिगर्भान्-मनुष्यगर्भवसतीः, एते च तन्मतेन मोक्षगामिनां सप्तसान्तरा भवन्ति वक्ष्यति चैवैतान् स्वयमेवेति ।। (वृ०प० ६७६) ४७९. सत्त पउट्टपरिहारे पंच कम्मणि सयसहस्साई सट्टि ___ च सहस्साई छच्च सए तिण्णि य । ४८०. कम्मसे अणुपुम्वेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझति बुज्झति मुच्चंति ४८१. परिनिन्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा। ४८२. से जहा वा गंगा महानदी जओ पवूढा, जहिं वा पज्जुवत्थिया 'जहिं वा 'पज्जुवत्थिय' त्ति यत्र गत्वा परिसामस्त्येन उपस्थिता-उपरता समाप्ता इत्यर्थः । (वृ०प०६७६) ४६३. एस णं अद्धा पंचजोयणसयाई आयामेणं अद्धजोयणं विक्खंभेणं, पंच धणुसयाइं उव्वेहेणं । ४६४. एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगामो सा एगा महागंगा। ४८५. सत्त महागंगाओ सा एगा सादीणगंगा। सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मदुगंगा। ४८६. सत्त मदुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा । सत्त लोहियगंगाओ सा एगा आवतीगंगा । भ० श० १५ ३३५ ४७६. सप्त पउट्ट परिहार फुन, कर्म विषे लख पंच। साठ सहस्र छसौ वली, ऊपर तीन विरंच ॥ ४८०. अंश भेद ए कर्म नां, अनुक्रम सर्व खपाय । ___ तठा पछै सीझै वली, बूझै कर्म मूकाय ।। ४८१. हुवै शीतलीभूत फुन, सहु दुख तणोज अंत । कियो कर करस्यै वली, हिव महाकल्प कहंत ।। ४८२. जिम गंगा जिहां थी चली, जिहां समाप्ती होय । अद्धा मारग तेहनों, आगल कहियै सोय ॥ ४८३. लांबी जोजन पांचसै, चोड़ी अद्ध जोजन । धनुष पांच सय जेह गंग, ऊंडी तास कथन ।। ४८४. ए गंगा नों मान करि, एहवी गंगा सात । तसु एकठ कीधे छते, इक महागंगा थात ।। ४८५. सात महागंगा तणो, सादीण गंगा एक । सप्त सादीण गंगा तणी, इक मृत्यु-गंगा पेख ॥ ४८६. सप्त मृत्यु-गंगा तणी, लोहित-गंग इक चंग। सप्त लोहित-गंगा तणी, एक आवती-गंग ।। Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७. सप्त आवती-गंग नीं, परमावती-गंग एक। ए पूर्व कही धुर सहित, अपर सहु गंग लेख ।। ४८८. इक लख सतरै सहस्र फुन, षटसौ गुणपच्चास । सह गंगा हुवै एतली, अम्ह समये कही तास ।। ४८६. ते गंगा नां वालुका-कण नां दोय उद्धार । उद्धरवू उद्धार ते, कहिये ते अधिकार ॥ ४६०. सूक्षम बोंदि-कलेवरा, सूक्षम न्हाना जेह । बोंदी ते आकार छ, कलेवरा कण लेह ।। ४६१. एहवा जे वेलू तणां, सूक्ष्म खंड नुं सोय । उद्धरत उद्धार ते, प्रथम भेद ए होय ।। ४६२. बादर बोंदि-कलेवरा, बादर मोटा जेह। बोंदी ते आकार छै, कलेवरा कण लेह ।। ४८७. सत्त आवतीगंगाओ सा एगा परमावती। एवामेव ___सपुव्वावरेणं ४८८. एगं गंगासयसहस्सं सत्तर सहस्सा छच्च अगुण पन्नं गंगासया भवंतीति मक्खाया । ४८९. तासि दुविहे उद्धारे पण्णत्ते, तं जहा 'तासि दुबिहे' इत्यादि, तासां गंगादीनां गंगादिगतबालुकाकणादीनामित्यर्थः द्विविधः उद्धारः उद्धरणीयद्वैविध्यात्। (वृ०प०६७६) ४९०,४९१. सुहुमबोंदिकलेवरे चेव । 'सुहुमबोंदि कलेवरे चेव' त्ति सूक्ष्म बोन्दीनिसूक्ष्माकाराणि कलेवराणि-असंख्यात्खण्डीकृत बालुकाकणरूपाणि यत्रोद्धारे स तथा ।(वृ. ५० ६७६) ४९२. बायरबोंदिकलेवरे चेव। 'बायरबोंदिकलेवरे चेव' ति बादरबोन्दीनिबादराकाराणि कलेवराणि-वालुकाकणरूपाणि यत्र तथा। (वृ०प० ६७६) ४९३. तत्थ णं जे से सुहुमबोंदिकलेवरे से ठप्पे । 'ठप्पे' त्ति न व्याख्येयः इतरस्तु व्याख्येय इत्यर्थः । (वृ०प०६७६) ४९४. तत्थ णं जे से बायरबोंदिकलेवरे तओ णं वाससए गए, वाससए गए एगमेगं गंगाबालुयं अवहाय ४९५. जावतिएणं कालेणं से कोठे खीणे । 'से कोठे' त्ति स कोष्ठो-गङ्गासमुदायात्मकः । (वृ. ५०६७६) ४९६. णीरए निल्लेवे निट्ठिए भवति सेत्तं सरे सरप्पमाणे । निष्ठितः निरवयवीकृत इति । (वृ०प०६७६) ४६३. तिहां सूक्षम बोंदि-कलेवरे, बखाणवं नहि तेह । तिण कारण थाप्यो तिको, द्वितीय भेद हिव लेह ।। ४६४. तिहां बादर बोंदि-कलेवरे, तेह थकी इम लेख । सौ-सौ वर्ष गये छते, काढे कण इक-एक ।। ४६५. जितले काले करि जिके, गंगा नां समुदाय । तेह रूप कोठो तिको, क्षीण वेलु-कण थाय ।। ४६६. नीरए ते रज रहित है, लेप रहित हजाण । नीठो अवयव रहित ही, ते, सर काल प्रमाण ।। वा०-एतले एक लाख सतर सहस्र छह सौ उगणपचास एतली नदी नों आयाम विष्कंभ ऊंडपणुं ए सर्व मेली तिण प्रमाण कोठो कीज ते वेलू नै कणे भरी ते मांहि थी सौए वर्षे एक-एक काढतां जेतले काले ते ठालो थावै तेतले काले एक सर कहिये । ४६७. मानस नामै सर तिको, ते सर मान करेह । तीन लाख जे सर गयां, महाकल्प इक लेह ।। ४६८. लख चउरासी एहवा, महाकल्प अवलोय । एक महामानस तसु, कहिवाय इम जोय ।। वाल-एतले चउरासी लाख महाकल्प परूप्या । हिवै सात भव देवादिक परूपै छै ४९७. एएणं सरप्पमाणेणं तिण्णि सरसयसाहस्सीओ से ___एगे महाकप्पे । ४९८. चउरासीति महाकप्पसयसहस्साइं से एगे महामाणसे । वा०-यदक्तं चतरणीतिर्महाकल्पशतसम्राणीति तत प्ररूपितम, अथ सप्तानां दिव्यादीनां प्ररूपणायाह (वृ०प०६७६) ४९९. अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चइत्ता ४६६. जेह अनंत संजुथ थकी, जीव चवन करि जोय । अथवा चयं शरीर प्रति, छांडी नै अवलोय।। वा०-अणंताओ संजूहाओ कहितां अनत जीव समुदाय रूप निकाय थकी चयं कहितां चवन प्रतै चइत्तां करीनै अथवा चयं कहितां देह प्रतै चइत्ता कहितां त्यजी ने । वा-'अणंताओ संजूहाओ' त्ति अनन्तजीवसमुदायरूपा निकायात् 'चयं चइत्त' त्ति च्यवं च्युत्वा च्यवनं कृत्वा चयं वा-'देहं चइत्त'त्ति त्यक्त्वा । (वृ० प० ६७६) ३३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५००. ऊपरला माणस तणां, । माणस तणां संयुध देव पिछाण तेह विषे जे ऊपजै, अनंत काय थी आण ॥ वा० - ऊपरलो, बिचलो और नीचलो ए तीन मानस नां सद्भाव थकी ते माहिलो ए दोष रामवा ने अर्थ ऊपरलो इस क माणसेत्ति गंगादि प्ररूपणा थकी पूर्वोक्त स्वरूप सर नैं विषे युक्त इत्यर्थः । सर प्रमाण आउखा " , संजूहेत्ति निकायविशेष देव तेहने विषे देवपण ऊपजं ए पहिलो देव भव कह्यो । महामाणस संजूह संख्या एतली सर्व नदी हुवै, दोय हजार नव सौ उस कोटाकोडि, पचहत्तर लाख कोड़ि अडतालीस हजार कोड़ि एली नदी जाणवी । ५०१. तिहां देव संबधिया, भोग भोगवी ताम । विचरी ते सुरलोक थी, आउ क्षय करि आम ॥ ५०२. भव स्थिति क्षये अंतर रहित, तनु प्रति तजी तिवार प्रथम सन्नि गर्भ मनुपणे उपजे जीव जिवार ॥ ५०३. तेह जीव ते भव चकी निकले अणंतरेह । मज्झिम माणस संयुधे, देवपणे वा० - जे सन्नी गर्भज मनुष्यपणो ऊपनों ते उपजेह ॥ जीव ते मनुष्य नां भव थकी अंतर रहित नीकली नैं मज्झिम कहितां बिचले मानस प्रमाण आउखा युक्त संयुथ ते निकाय विशेष देव नैं विषे ऊपजै । ५०४. तिहां देव संबंधिया, भोग ते सुरलोक यकी तदा, जाब विचरेह आयू जाव चवेह || ५०५. द्वितीय सन्नि गर्भजपणे तेह जीव ते भव थकी, ५०६. निकली हेठला मानसे, मनुष्यपणें उपजेह | अनंतरं निकले ह || प्रमाण आयू युक्त। संयुथ देवपणे तिको, उपजे एहबू उक्त ॥ ५०७. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी ने जान । तृतीय सग्निगर्भ मनुपर्ने, ५०८. तेह वहां भी जान ही महामाणस संयुय विषे वा० - महामानस पूर्वोक्त महाकल्प प्रमित आउखावंत नैं विषे, जे पूर्वे प्रथम महामानस अपेक्षाये इसो जीव ऊपने आण ॥ निकल ऊपर लेह देवपणे ऊपजेह ॥ कह्य ं चउरासी लाख महाकल्प खपावी नैं ते देखवूं । अन्यथा महामानस त्रिण नैं विषे ते कल्प घणां थावे ते मार्ट एहनां तीन भेद - उपरिला, मध्यम, हेठला । ते मांहि ऊपरला महामानस प्रमाण आउखायुक्त तीन हीज संयूथ तीन देव भव ने विषे ऊपजै । ५०६. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी नें जाण । तुर्यसन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ।। ५१०. तेह जीव ते भव थकी, निकली अणंतरेह | उपजेह || मध्यम महामाणस संयुथ, देवपणें ५००. उवरिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्जति । वा० - 'उवरिल्ले' त्ति उपरितनमध्यमाधस्तनानां मानसानां सद्भावात् तदन्यस्यायोपरितने इत्युक्तं 'माणसे' ति गङ्गादिप्ररूपणत प्रागुक्तस्वरूपे खरसि सरः प्रमाणाते इत्यर्थः 'संजू'त्ति निकायविशेषे देवे 'उववज्जइ' त्ति प्रथमो दिव्यभवः । (बु०प०६०६) ५०१. से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, विहरिता ताम्रो देवलगाओ ५०२. भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता पढमे सणिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५०३. से णं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता मज्झिल्ले माणसे संजू हे देवे उववज्जइ । ५०४. से पं तत्य दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरद विहरिता ताली देवमोगाओ उरणं जाव (सं० पा० ) चइत्ता । ५०५. दोच्चे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । ५०६. से णं तमोहितो अनंतरं उब्वट्टित्ता हेट्ठिल्ले माणसे संजू देवे उबवज्जइ । ५०७. से णं तत्थ दिव्वाइं भोग भोगाई जाय चइत्ता तच्चे सण्णिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५०० से मोहित जाव उच्चट्टिता उपरि माणुसुत्तरे संजू हे देवे उबवज्जइ । बा० मानसोत्तरे' ति महामानसे पूर्वोक्तमहाकल्पप्रमितापुष्कवति यच्च प्रागुक्तं चतुरशीति महाकल्यान् शतसहस्राणि परिवेति तत्प्रथम महामानसापेक्षयेति द्रष्टव्यं अन्यथा त्रिषु महामानसेषु बहुतराणि तानि स्युरिति एतेषु चोपरिमादिभेदात् त्रिषु मानसोत्तरेषु श्रीप्येव संयानि श्रयश्य देवभवाः । " 7 (२०१०६७६) ५०९. से णं तत्थ दिव्वाइं भोगभोगाई जाव चइत्ता चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । ५१०. से णं तओहितो अनंतरं उब्वट्टित्ता मज्झिल्ले माणुसुत्तरे संजू हे देवे उववज्जइ । भ० श० १५ ३३७ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११. से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई जाव चइत्ता पंचमे सण्णिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५१२. से णं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता हिट्ठिल्ले माणु सुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ । ५१३. से णं तत्थ दिव्वाइं भोगमोगाई जाव चइत्ता छठे सण्णिगब्भे जीवे पच्चायाति । ५१४. से णं तओहितो अणंतरं उम्बट्टित्ता-बंभलोगे नाम से कप्पे पण्णत्ते । ५१५. पाईणपडीणायते उदीणदाहिणविच्छिण्णे । ५११. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी ने जाण । पंचम सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ॥ ५१२. तेह जीव ते भव थकी, निकली अणंतरेह । हेठिल महामाणस संयूथ, देवपणे उपजेह ।। ५१३. ते तिहां देव संबंधिया, जाव चवी ने जाण । छठा सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ।। ५१४. तेह जीव ते भव थकी, निकली अणंतरेह । ब्रह्मलोक' नामे इसो, कल्प परूप्यो तेह ।। ५१५. लांबपणे पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण जोग । विस्तीर्ण चोड़ापणे, ते पंचम सुरलोग ।। ५१६. सूत्र पन्नवणा दूसरे, ठाण पदे जिम ख्यात । जाव पंचम अवतंसका, आख्या तेह कहात ।। ५१७. अशोक अवतंसक प्रथम, यावत ही प्रतिरूप । ते तिहां सुर में ऊपज, पामै सुख अनूप ।। ५१८. ते तिहां दश दधि देव नां, जाव चवी – जाण । ___ सप्तम सन्नि गर्भ मनु विषे, जीव ऊपजै आण ।। ५१९. तेह तिहां नव मास लग, बहु प्रतिपूरण लेह । साढा सातज रात्रि दिन, ए अतिक्रम्ये छतेह ।। ५२०. तनु सुकुमालज जेहनों, भद्रक मूर्ती जास । मृदु दर्भ कुंडल नीं पर, कुंचित केश विमास ।। ५२१. मृष्ट गंड-तल ने विषे, कर्णाभरण विशेख । देवकुमारज सारिखी, छै तनु प्रभा सुरेख ।। ५२२. जन्म्या बालक एहवो, रे काश्यप ! सुण बात। हूं इज ते बालक हुँतो, आगल सुण अवदात ।। ५२३. तिवार पछै हे आयुष्मन ! अहो कासवा ! जाण । म्है बालपण दीक्षा ग्रही, कुमार वय पहिछाण ।। ५२४. फुन कुमार वय नै विषे, ब्रह्मचर्य वसिवेह । कान बिंधाया पिण नथी, कुश्रुति-शिलाक करेह ।। ५१६ जहा ठाणपदे (२।५४) जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा५१७. असोगव.सए जाव पडिरूवा-से णं तत्थ देवे उववज्जइ । ५१८. से णं तत्थ दस सागरोवमाई दिब्वाई भोगभोगाई जाव चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । ५१९. से गं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वीतिक्कंताणं ५२०. सुकुमालगभद्दलए मिउ-कुंडल कुंचिय-केसए ५२१. मट्ठगंडतल-कण्णपीढए देवकुमारसप्पभए ५२२. दारए पयाति । से णं अहं कासवा ! ५२५. कुश्रुति विण सुण्ये बाल वय, प्रव्रज्या विष पिछाण । संखा कहितां बुद्धि ते, म्है लाधी सुविहाण ।। ५२३. तए णं अहं आउसो कासवा ! कोमारियपव्य ज्जाए ५२४. कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए 'अविद्धकन्नए चेव' त्ति कुश्रुतिशलाकयाऽविद्धकर्ण:अव्युत्पन्नमतिरित्यर्थः। (वृ०प०६७८) ५२५. चेव संखाणं पडिलभामि । तस्यां प्रव्रज्यायां विषयभूतायां संख्यानं-बुद्धि प्रतिलेभ इति योगः। (वृ०प०६७८) ५२६. पडिलभित्ता इमे सत्त पउट्टपरिहारे परिहरामि, तं जहा५२७. (१) एणेज्जस्स (२) मल्लरामस्स (३) मंडियस्स (४) रोहस्स (५) भारद्दाइस्स । ५२८. (६) अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स (७) गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स। ५२६. इम बुद्धि लाभी मैं किया, आगल कहिस्यै जेह । सप्त पउट्ट परिहार प्रति, कहियै छै हिव तेह ।। ५२७. एणक फुन मल्लराम नों, मंडित रोह नों संच। भारदाइ नों पंचमो, निज-निज नामे पंच ।। ५२८. अर्जुन गोतम-पुत्र नों, गोशालक अवलोय । तेह मंखलिपुत्र नों, एह सप्तमों होय । १. आदि थकी सात संयूथ, छह देव भव अन सातमों देव भव ब्रह्मदेवलोक नै विषे । ते संयूथ न हुवै सूत्र के विषे संयूथपणे करी नथी वांछयो ते भणी । ३३८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०--इहां एणकादिक पच नाम थकी कह्या अन दोय छेहला पिता ने नामे करी सहित कह्या। वा०—'एणेज्जस्से' त्यादि इहैणकादयः पञ्च नामतोऽभिहिताः द्वौ पुनरन्त्यो पितृनामसहिताविति । (वृ०प०६७८) ५२९. तत्थ णं जे से पढमे पउट्टपरिहारे से णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडिकुच्छिसि चेइयंसि ५३०. उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता ५३१. एणेज्जगस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता बावीसं वासाई पढम पउट्टपरिहारं परिहरामि । ५३२. तत्थ णं जे से दोच्चे पउट्टपरिहारे से णं उदंडपुरस्स नगरस्स बहिया चंदोयरणंसि चेइयंसि ५३३. एणेज्जगस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता ५३४. एकवीसं वासाइं दोच्च पउट्टपरिहारं परिहरामि । ५३५. तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंपाए नगरीए बहिया अंगमंदिरंसि चेइयंसि ५३६. मल्लरामस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता मंडियस्स सरीरगं अणुप्पविणमि, अणुप्पविसित्ता ५३७. वीसं वासाइं तच्चं पउट्टपरिहारं परिहरामि । ५२६. तिहां प्रथम पउट्ट परिहार ते, नगर राजगृह बार । ___ मंडिकुक्षि नामे भल, बाग विषे अवधार ।। ५३०. नाम उदाई गोत्र तसु, कुंडियायन सुविचार । म्है छांडय तनु तेहनो, ते छांडी तिहवार ।। ५३१. एणीक तणे शरीर हूं, पैठो पैसी धार । वर्ष बावीस रह्यो तिहां, ए प्रथम पउट्ट परिहार ।। ५३२. तिहां द्वितीय पउट्ट परिहार ते, नगर उदंडपुर बार। चंद्रोतर नामे भलो, बाग विषे सुविचार ।। ५३३. एणीक तनु म्है मूकियो, मूकी ने तिण ठाम । मल्लराम नां तनु विषे, पैठो पेसी ताम ।। ५३४. मल्लराम नां तनु विषे, रह्यो वर्ष इकबीस । द्वितीय पउट्ट परिहार ए, म्है की● सुजगीस ।। ५३५. तिहां तृतीय पउट्ट परिहार ते, चंपानगरी बार। अंगमंदर नामे भलो, बाग विष सुविचार ।। ५३६. मल्लराम नां तनु प्रतै, मूक्यो मूकी ताम । मंडित तणां शरीर में, पैठो पैसी आम ।। ५३७. मंडित नां तनु नै विषे, रह्यो वर्ष हं बीस । तृतीय पउट्ट परिहार ए, मैं कीधू सजगीस ।। ५३८. तिहां तुर्य पउट्ट परिहार ते, नगरी वाणारसी बार। काम महावन प्रवर ही, चैतन्य विषे सुविचार ।। ५३६. मंडित तणां शरीर प्रति, मूक्यो मूकी सोय । रोह तणां तनु नै विषे, पेठो पैसी जोय ।। ५४०. रोह तणां तनु नैं विषे, रह्यो वर्ष उगणीस । तुर्य पउट्ट परिहार ए, म्है कीवू सुजगीस ॥ ५४१. तिहां पंचम पउट्ट परिहार ते, नगरो आलंभिका बार। प्राप्त काल नामे भलो, बाग विषे सुविचार ।। ५४२. रोह तणां शरीर प्रति, मूक्यो मूकी ताम । भारदाई नां तनु प्रतै, पैठो पैसी आम ।। ५४३. भारदाई नां तनु विषे, हूं रह्यू वर्ष अठार । पंचम पउट्ट परिहार ए, मै कोळू तिहवार ।। ५४४. तिहां षष्टम पउट्ट परिहार ते, नगरी विशाला बार। कुंडियायण नामे भलो, बाग विषे अवधार ।। ५४५. भारदाई नां शरीर प्रति, मूक्यो मूकी सोय। अर्जुन गोतम-पुत्र तनु, पैठो पैसी जोय ।। ५४६. अर्जुन गोतम-पुत्र तनु, हूं रह्यं सतरै वास । षष्टम पउट्ट परिहार ए, म्है की— सुविमास ।। ५४७. सप्तम पउट्ट परिहार ते, नगरी सावत्थी एह । हालाहला कुंभकारी ना, कुंभकार हाटेह ।। ५३८. तत्थ णं जे से चउत्थे पउट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावणंसि चेइयंसि ५३९. मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता रोहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि , अणुप्पविसित्ता ५४०. एकूणवीसं वासाई चउत्थ पउट्टपरिहारं परिहरामि । ५४१. तत्थ णं जे से पंचमे पउपरिहारे से णं आल भियाए नगरीए बहिया पत्तकालगंसि चेइयंसि ५४२. रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पज हिता भारद्दाइस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता ५४३. अट्ठारस वासाई पंचमं पउट्टपरिहारं परिहामि । ५४४. तत्थ णं जे से छठे पउट्टपरिहारे से णं वेसालीए नगरीए बहिया कोंडियायणंसि चेइयंसि ५४५. भारद्दाइस्स सरीरं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता ५४६. सत्तरस वासाइं छठें पउट्टपरिहारं परिहरामि । ५४७. तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्रपरिहारे से णं इहेव सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि भ० श०१५ ३३९ Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८. अर्जुन गोतम-पुत्र नों, तनु मूक्यो मूकीज। मंखलिसुत गोशाल नां, शरीर प्रति देखीज ।। ५४६. ते तन अतिही स्थिर सुध्रव, धारण योग्य विचार । शीत उष्ण फुन भूख नों, सहणहार तनु धार ।। ५४८. अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं ५४९. अलं थिरं धुवं धारणिज्जं सीयसहं उण्हसहं खुहासह 'अलं थिर' ति अत्यर्थं स्थिरं। (वृ० ५० ६७८) ५५०. विविहदंसमसगपरीसहोव सग्गसहं ५५०. विविध प्रकार तणां वली, दंश मंशक अधिकेह । परिसह - उपसर्ग तणो, सहणहार तनु जेह ।। ५५१. एहवं थिर संघयण जे, तसु इम करिने सोय ! प्रवेश कीबूं ते तनु, प्रवेश करी सुजोय ।। ५५२. मंखलि-सुत गोशाल तनु, हूं रहूं सोलै वास । सप्तम पउट्ट परिहार ए, तनु परावर्त विमास ।। ५५३. हे आयुष्मन ! कासवा ! इण प्रकार करि धार । इक सय तेती वर्ष कृत, ह सप्त पउट्ट परिहार ।। ५५४. इसो अम्हारे शास्त्र कह्यु, ते माटै कहूं तोय । हे आयुष्मन कासवा! भलो कहै इम मोय ।। ५५५. हे आयुष्मन कासवा ! रूडूं कहै मुझ न्हाल । धर्मातेवासी मांहरो, मंखलिसुत गोशाल ।। ५५६. धर्मांतेवासी मांहरो, मंखलिसुत गोशाल । बार-बार तूं मुझ प्रतै, इम कहै तसु तनु न्हाल । गोशालकवचन प्रतिकार पद ५५७. श्रमण भगवंत महावीर तब, कहै गोशाल प्रतेह । तेह यथादृष्टांत इम, हे गोशाल ! सुणेह ॥ ५५८. जे तस्कर होई तिको, ग्राम तणे लोकेह । पूठे वाहरू तिण करी, पराभवियोज छतेह ।। ५५६. वलि तेहथी बीहतो छतो, किहांइक गर्ता जेह। वा दरी ते स्यालादि नां, कृत जे भू-विवरेह ।। ५५१. थिरसंघयणं ति कटु तं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता ५५२. सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि। ५५३. एवामेव आउसो कासवा! एगेण तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंति । ५५४. इति मक्खाया, तं सुट्ठ णं आउसो कासवा ! मम एवं वयासी५५५. साहू णं आउसो कासवा ! ममं एवं बवासी गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, ५५६. गोसाले मंखलिपुत्ते मम धम्मंतेवासी। (श० १५॥१०१) ५५७. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-गोसाला ! जहानामए ५५८. तेणए सिया, गामेल्लएहिं परब्भमाणे ५६०. वा दुर्ग तिको जावू दुखे, वन गहनादि कहेह । अथवा निम्न जले करी, सूको सर आदेह ।। ५६१ अथवा गिरि वा विषम फुन, अणपामंतो स्थान । इक मोटे जे ऊन नैं, लोमे करी पिछान ।। ५६२. अथवा सण में लोम करि, अथवा कपास जेह । तेह तणे पस्मे करी, अथवा तृण अग्रेह ।। ५५९. परब्भमाणे कत्थ य गड्डं वा दरिं वा 'दरि' ति शृगालादिकृतभूविवरविशेषं । (वृ०प०६८३) ५६०. दुग्गं वा णिण्णं वा 'दुग्गं' ति दुःखगम्यं वनगहनादि 'निन्न' ति निम्न शुष्कसरःप्रभूति । (व०प०६८३) ५६१. पव्वयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उण्णालोमेण वा ५६२. सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणसूएण वा 'तणसूएण व' त्ति 'तृणसूकेन' तृणाग्रेण । (वृ० १०६८३) ५६३. अत्ताणं आवरेत्ताणं चिट्ठज्जा, से णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, ५६४. अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मण्णइ, अणि लुक्के णिलुक्कमिति अप्पाणं मण्ण इ, ५६५. अपलाए पलायमिति अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुमं पि गोसाला! ५६३. निज आतम ढांकी करी, तस्कर ते तिष्ठेह । ते निज तनु अणढाकिये, ढाक्यो इम मानेह ।। ५६४. अप्रच्छन्न छतूं आतम प्रति, प्रच्छन्न इसो मानेह । अणलुकियो निज आतम प्रति, लुकियो माने तेह ।। ५६५. अणओलावणो आतम प्रति, ओलावणो मानेह । तूं पिण इण दृष्टांत करि, हे गोशाला ! जेह ॥ ३४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६. अन्य अणछतूंज आतम प्रति, अन्य इम देखाड़ेह । . ते माटे तूं इम म कर हे गोशाल ! सुणेह ।। ५६७. तुझ इम करिवा योग्य नहीं, हे गोशाला ! जोय । तेहिज छाया तांहरी, नथी अनेरी कोय ।। गोशालक का पुनः आक्रोश पद ५६८. मंखलि-सुत गोशाल तब, प्रभु इम कह्य छतेह । कोप्यो शीघ्र उतावलो, पंच पाठ इहां लेह ।। ५६६. अणण्णे संते अण्णमिति अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला! ५६७. नारिहसि गोसाला ! सच्चेव ते सा छाया नो अण्णा। (श० १५३१०२) ५६६. श्रमण भगवंत महावीर प्रति, उच्च अवच वचनेह। जे आक्रोसज वच करी, अतिही आक्रोसेह ।। ५७०. उच्च अवच वचने करी, आक्रोसी नै ताम । तू मूओ इत्यादि जे, वचन कहीने आम । ५७१. उच्च अवच वचने करी, उद्धंसण करिकेह। उद्धसै कुलहीण तं, इत्यादिक वचनेह ।। ५६८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाण ५६९. समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहि आओसइ, ५७०,५७१. उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति, 'उच्चावयाहिं' ति असमञ्जसाभिः 'आउसणाहिं' ति मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्वचन. आक्रोशयति शपति 'उद्धंसणाहिं' ति दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनार्थंर्वचनैः 'उद्धसेइ' त्ति कुलाद्यभिमानादधः पातयतीव। (वृ० प०६८३) ५७२. उच्च अवच वचने करी, उद्धंसी नै ताम । वलि भंडा वच वीर प्रति, बोलै अधिक विराम ।। ५७३. उच्च अवच वचने करी, निभ्रंच्छन करिकेह। निभ्रंछ तुझ साथ मुझ, नथी प्रयोजन एह ।। ५७४. उच्च अवच वचने करी, निभ्रंछी मैं सोय । वलि गोशालो वीर प्रति, बोलै कुवचन जोय ।। ५७५. उच्च अवच वचने करी, निच्छोड़णा करिकेह । निच्छोड़े त्यज मांहरो, तीर्थंकरपणुं एह ।। ५७६. उच्च अवच वचने करि, निच्छोड़ी गोशाल । वीर प्रतै वलि इम कहै, दुष्ट वचन विकराल । ५७७. पोता नां आचार थी, नष्ट थयो तूं सोय । कदाचि वितर्क अर्थ ए, हूं इम मानूं तोय ॥ ५७३,५७४. उच्चावयाहिं निम्भंछणाहिं निभंछेति, 'निभंछणाहिं' ति न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिभिः परुषवचन: 'निभंच्छेइ' त्ति नितरां दृष्टमभिधत्ते । (वृ०प०६८३) ५७५,५७६. उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, निच्छोडेत्ता एवं वयासी'निच्छोडणाहिं' ति त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालङ्कारानित्यादिभिः । (व०प०६८३) ५७७. नठे सि कदाइ, 'नठे सि कयाई' त्ति नष्ट: स्वाचारनाशात् 'असि' भवसि त्वं 'कयाइ' त्ति कदाचिदिति वितर्थिः अहमेवं मन्ये यदुत नष्टस्त्वमसीति । (वृ० ५० ६८३) ५७८. विणछे सि कदाइ, "विणठेसि' ति मृतोऽसि । (प० वा० ६८३) ५७९. भट्ठे सि कदाइ, 'भटठोसि' त्ति भ्रष्टोऽसि-सम्पदः व्यपेतोऽसि त्वं । (वृ० प० ३८३) ५८०. नट्ठ-विणट्ठ-भट्ठे सि कदाइ, धर्मत्रयस्य योगपद्येन योगात नष्टविनष्टभ्रष्टोऽसीति। (वृ०प० ६८३) ५७८. थयो विनष्ट रु तूं मुओ, कदाचित फुन ताम । वितर्क अर्थ शब्द ए, हूं इम मानूं आम ।। ५७६. भ्रष्ट थयो संपद थकी, कदाचित वच तेम । वितर्क अर्थे शब्द ए, हूं मानूं तुझ एम ॥ ५८०. नष्ट विनष्ट रु भ्रष्ट तूं, हूं मानू तुझ हीन । समकाले त्रिहुं धर्म नां, जोग थकी पद तीन ।। वा.-नष्ट, विनष्ट, भ्रष्ट-ए तीनू बोल समकाले थापवा नों जोग यकी ए तीनू पद भेला किया। भ. श०१५ ३४१ Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१. अज्ज न भवसि, नाहि ते ममाहितो सुहमत्थि । (श० १५/१०३) ५८१. वलि तूं आज नहीं अछ, फुन मुझ थी अवलोय । निश्चै सुख नहिं तो भणी, इम वच बोल्यो सोय ।। सर्वानुभूति-भस्मराशिकरण पद ५८२. तिण काले नै तिण समय, श्रमण भगवंत महावीर । तसु अंतेवासी सुशिष्य, गुणवंत अधिक गंभीर ।। ५८३. पूरव देशे ऊपनो, सर्वानुभूति नाम । वर अणगार सुहामणो, सरल भलो अभिराम ।। ५८२. तेण कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी ५८३. पाईणजाणवए सव्वाणुभूती नाम अणगारे पगइ भद्दए 'पाईणजाणवए'त्ति प्राचीनजानपदः प्राच्य इत्यर्थः । (वृ० ५० ६८३) ५८४. जाव (सं० पा०) विणीए धम्मायरियाणुरागेणं ५८४. जाब विनीत मुनी जिको, धर्माचारज सार । तेह तणे अनुराग करि, अधिक प्रीत अवधार ।। ५८५. एह अर्थ अणश्रद्धतो, ऊठ ऊठी साहि । जिहां गोशालो छै तिहां, आवै आवी ताहि ।। ५८६. मंखलिसुत गोशाल प्रति, बोलै एहवी वाय । जे पिण हे गोशालका! तावत प्रथम कहाय ।। ५८७. तथारूप जे श्रमण वा, माहण पासे उदार। इक पिण आर्य धर्ममय, सुवचन धारै सार ।। ५८८. ते पिण तावत ते प्रतै, वंदै करै नमस्कार । जाव कल्याणकारी तिको, मंगलीक सुविचार ।। ५८६. दैवत ते धमदेव फुन, चित्त अह्लादक तेह । चैत्य कहीजै ते भणी, तसु पर्युपास करेह ।। ५६०. तो स्यूं हे गोशाल ! तुझ, भगवंत प्रव्रज्या दीध । फून भगवंत निश्चै करी, मुंडन कियो प्रसीध ।। ५६१. भगवंते निश्चै करी, सेव्यो व्रतीपणेह । भगवंत निश्चै सीखव्यो, तेज लेश आदेह ।। ५८५. एयमढें असद्दहमाणे उठाए उठे इ, उठेत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ५८६. गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-जे वि ताव गोशाला! ५८७. तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति । ५८८. से वि ताव वंदति नमसति जाव (सं० पा०) कल्लाणं मंगल ५८९. देवयं चेइयं पज्जुवासति । ५९०. किमंग पुण तुमं गोसाला ! भगवया चेव पव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, ५९१. भगवया चेव सेहाविए, भगवया चेव सिक्खाविए 'सेहाविए' त्ति व्रतित्वेन सेधितः व्रतिसमाचारसेवायां तस्य भगवतो हेतुभूतत्वात् 'सिक्खाविए' त्ति शिक्षित स्तेजोलेश्याद्युपदेशदानतः । (वृ० प० ६८३) ५९२. भगवया चेव बहुस्सुतीकए, भगवओ चेव मिच्छ विप्पडिवन्ने ५९३. तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! ५६२. फून भगवंत निश्चै करी, बहुश्रुत तुझ प्रति कीध । भगवंत थकीज पड़िवज्यो, भाव अनार्य प्रसीध ।। ५६३. तिणसू मा गोशाल ! इम, करिवा योग्य न कोय । हे गोशाला ! तुझ भणी, भाव अनारज जोय ।। ५६४. प्रकृति छाया तांहरी, निश्चै करी तेहीज। पिण अन्य छाया छै नथी, इम मुनि वच सुकहीज ।। ५६५. मंखलिसुत गोशाल तब, सर्वानुभूति संत। इहविधि वचन कह्य छते, आसुरुत्ते हुंत ।। ५६६. सर्वानुभूति मुनि प्रतै, तप तेजे करि सोय । जिम जे एक प्रहार करि, हणवू जेहनूं होय ।। ५६७. महायंत्र पाषाणमय, तिण करि हणि जास । तिह विधि ते मुनिवर तणी, करै भस्म नीं राश ।। ५९४. सच्चेव ते सा छाया नो अण्णा । (श० १५५१०४) ५९५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते " ५९६. सव्वाणुभूति अणगारं तबेणं तेएणं एगाहच्च ५९७. कूडाहच्च भासरासि करेति । (श० १५३१०५) ३४२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational cation International Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८. मंखलिसत गोशाल तब, सर्वानुभूति तास । तप तेजे करि जाव ही, करी भस्म नीं राश ५६६. द्वितीय वार पिण प्रभु प्रतै. असमंजस वचनेह । आक्रोसै आक्रोस करि, जावत सुख नहि लेह ।। सुनक्षत्र-परितापन पद ६००. तिण काले नै तिण समय, श्रमण भगवंत महावीर। तसु अंतेवासी सुशिष्य, गुणे करी गंभीर ।। ६०१. अयोध्या देशे ऊपनों, सनक्षत्र नाम अणगार। प्रकृति स्वभावे भद्र ते, जाव विनीत उदार ।। ६०२. ते मुनि धर्माचार्य नां, अनुरागे करि मन्य । जिम सर्वानुभूति तिमज, जाव ते छाय न अन्य ।। ५९८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सव्वाणुभूति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेत्ता ५९९. दोच्च पि समणं भगवं महाबीरं उच्चावयाहि आओसणाहिं आओसइ जाव (सं० पा०) सुहमत्थि । (श० १५२१०६) ६००. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा वोरस्स अंतेवासी ६०१. कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए 'कोसलजाणवए' त्ति अयोध्यादेशोत्पन्नः ।। (वृ०प०६८३) ६०२. धम्मायरियाणुरागेणं जहा सव्वाणुभूती तहेव जाव (सं० पा०) सच्चेव ते सा छाया नो अण्णा । (श० १५२१०७) ६०३ तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सुनक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते... ६०४. सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेइ । (श० १५१०८) ६०५. तए णं से सुनक्खत्ते अणगारे गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे ६.६. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो ६०७. वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाई आरुभेति, आरुभेत्ता ६०८. समणा य समणीओ य खामेइ, खामेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते आणुपुव्वीए कालगए। (श०१०१०९) ६०३. मखलिसुत गोशाल तब, सुनक्षत्र अणगार। इहविधि वचन को छते, आसुरुत्ते धार ।। ६०४. सनक्षत्र अणगार प्रति, तप थी उपनं तेज । तेहिज तेजोलेश करि, परितापना करेज ।। ६०५. सुनक्षत्र अणगार तब, मंखलिसुत गोशाल । तप थी उपनुं तेज करि, परिताप्ये छते न्हाल ।। ६०६. ज्यां श्रमण भगवंत महावीर त्यां, आवै आवी सार । श्रमण भगवंत महावीर प्रति, तीन वार तिहवार ।। ६०७. वंदै शिर नामै तदा, पोतेहीज पिछाण । पंच महाव्रत ऊचरै, जाम ऊचरी जाण ।। ६०८, बहु मुनि अज्जा खमाय ने, दोष आलोवै न्हाल । पडिकमी लघु समाधि प्रति, अनुक्रम कीधो काल ।। ६०६. सोल करोड़ सुवर्ण तजी, सुंदर सोल तजेह । वंदू सुनक्षत्र मुनि, ऋषिमंडल मेलेह ।। भगवान पर तेजोलब्धि प्रयोग पद ६१०. मंखलिसुत गोशाल तब, सूनक्षत्र अणगार । ते प्रति तप तेजे करी, परितापी तिहवार ।। ६११. तृतीय वार पिण प्रभु प्रतै, असमंजस वचनेह । आक्रोसण करिक तदा, आक्रोस वलि तेह ।। ६१२. सगल कहि पूर्ववत, तिमहिज जावत जाण। सुख नहिं मुझ थी आज तुझ, बोल्यो इहविधि वाण ।। ६१३. श्रमण भगवंत महावीर तब, मंखलिसुत गोशाल । तेह प्रतै इम वागर, हे गोशाला ! न्हाल ।। ६१४. तथारूप जे श्रमण प्रति, माहण प्रतै विमास । तिमहिज जावत जाणवू, करै तास पर्युपास ।। ६१५. तो स्यूं हे गोशाल ! तुझ, मैंज प्रव्रज्या दीध । जावत वलि मैं तुझ प्रतै, निश्चै बहुश्रुत कीध ।। ६१०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेत्ता ६११. तच्चं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ। ६१२. (सं० पा०) सव्वं तं चेव जाव सुहमत्थि । (श० १५२११०) ६१३. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मखलिपुत्त एवं वयासी-जे वि ताव गोसाला ! ६१४. तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा तं चेव जाव (सं० पा०) पज्जुवासति । ६१५. किमंग पुण गोसाला ! तुम मए चेव पव्वाविए जाव (सं० पा०) मए चेव बहुस्सुतीकए । भ० श.१५ ३४३ Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६. मुझ सेती पडिवज्यो भाव अनारज ताय । तिणसं मा गोशाल ! इम, जाव नथी अन्य छाय ॥ ६१७. मंखलित गोशाल तब श्रमण भगवंत महावीर । इम को शीघ्र कोपियो क्रुध वश ययुं अधीर ॥ ६१८ तेज समुद्घाते करी, करें करी अवलोय । सत्त-आठ पग पाखो वले, पाछो उसरी सोय ६१६. श्रमण भगवंत महावीर ने तनु थी कार्ड तेज प्रति ते ६२०. उत्कलिका जे वायरो, वा मंडलिया वायरो वध अर्थ पहिचान यथादृष्टांते जाण ॥ रही रही वाजेह | आकारेह | मंडल ६२१. शेल तिको पाषाण करि अथवा जे फूटे करी ६२२. आवरिज्माणी तिका, निवारिज्जमाणी तिका ६२३. तिका वातोत्कलिका प्रमुख तत्र शैलादि विषेह अतिक्रमे नहि ते वली ६२४. इण दृष्टांते गोशाल नों, पराभवं नहि जेह ॥ प्रभु वधवा तप तेज' । ते तत्थ नातिक्रमेज | तनु पी जे कार छते 1 अथवा थंभ करेह | वा यूमे करि जेह ॥ चलना प्रति पामेह निवर्त्स्यमाना जेह ॥ ६२५. वलि विशेष न अतिक्रमै, एक वार जावेह | आयोजोवार पुन, इम उरहोयरहो फिरेह ॥ ते तप तेज तिहां थकी ६२८. पाचो वलतो तेज ते ६२६. इम उरहो- परहो फिरी, श्रमण भगवंत प्रतेह | दक्षिण नां पासा थकी, प्रदक्षिणाज करेह || ६२७. विधि प्रदक्षिणा करी, ऊंचो नभ उछलेह । प्रतिहत पयुंज जेह ॥ मंललित गोशाल । बालतो छतो न्हाल ॥ पाछेकियो प्रवेश । में, पैठी तेजूलेश || जे निज तेज करेह । प्रभु प्रति एम वदेह् । मम तप तेज करेह | पट मासे अंतेह || तसुतनु बालंतो छतो, ६२९. मांहे माहे तेज ते इतले कुशिष्य शरीर ६३०. मंखलित गोशाल तब व्याप्यं पराभव्युं छतुं ६३१. तू आयुष्मन कासवा! व्याप्यं पराभव्युं छतुं, १. तेजोलेश्या ३४४ भगवती जोड़ ६१६. ममं चेव मिच्छं विप्पडिवन्ने ? तं मा एवं गोसाला ! जाव (सं० पा० ) नो अण्णा । ( ० १५०१११) ६१७. तणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेण भगवया महावीरेण एवं वृत्ते समाणे मुस् ६१८. तेयासमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता सत्तट्ठ पाई पोसक पच्चीस किता " ६१९. समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति से जहानामए ६२०. वाउक्कलिया इ वा वायमंडलिया इवा 'वाउक्कलियाइ व' त्ति वातोत्कलिका स्थित्वा स्थित्वा यो वातो वाति सा वातोत्कलिका 'वायमंडलियाइ व' त्ति मण्डलिकाभिर्यो वाति । ( वृ० प० ६०३) ६२१. सेलंसि वा कुड़डंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा ६२२. आवारिज्जमणी वा निवारिज्जमाणी वा 'आवारिज्जमाणि' त्ति स्खल्यमाना 'निवारिज्जमाणि' (बु०प०६०३) त्ति निवर्त्त्यमाना । ६२३. सा णं तत्थ नो कमति नो पक्कमति । ६२४. एवामेव गोसालस्स वि मंखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरी रगंसि निसिट्ठे समाणे से णं तत्थ नो कमति, ६२५. नो पक्कमति, अंचियंचि करेति । 'अंचितांचि ' ति अञ्चिते सकृद्गते अञ्चितेन वासकृद्गतेन देशेनाचिःपुनर्गमनमपिताः अथवा अञ्च्या—गमनेन सह आञ्चिः आगमनमच्याञ्चिर्गमागम इत्यर्थः तां करोति । (बृ० प०६०३) ६२६. करेत्ता आयाहिण-पयाहिणं करोति, ६२७. करेत्ता उड्ढे वेहासं उप्पइए से णं तओ पsिहए ६२८. पतिमाणे तमेव गोसालरस मंचषिपुत्तस्स सरीरमाणे माने ६२९. तो तो अणुपविट्ठे । ( श० १५।११२ ) ६३०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं तेएणं अण्णा इटट्ठे समाणे समणं भगवं महावीरं एवं वयासी६३१. तुमं णं आउसो कासवा ! ममं तवेणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे अंतो छहं मासाणं Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२. पित्त ज्वर करि परिगत तनु, दाह ज्वर आक्रमेह । ___ तूं छद्मस्थ थको सही, पामिस मरण प्रतेह ।। ६३३. श्रमण भगवंत महावीर तब, कहै गोशाल प्रतेह । हूं गोशाला ! तोहरे, तप तेजे व्यापेह ।। ६३२. पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि । (श० १५५११३) ६३३. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-नो खलु अहं गोसाला! तव तवेणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे ६३४. अंतो छण्हं जाव (सं० पा०) कालं करेस्सामि । . ६३४. षट मसवाड़ा अंत जे, जाव करूं नहि काल । निश्चै करि ए जाणवू, इम कहै परम दयाल ।। ६३५. हं अन्य सोलै वर्ष लग, जिन जीत्या रागादि । सुहस्ती जिम विचरसं, गंध गज जेम संवादि ।। ६३५. अहण्णं अण्णाई सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि । 'सुहत्थि' त्ति सुहस्तीव सुहस्ती। (व०प०६८३) ६३६. तुम णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स ६३७. पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि । (श० १५३११४) ६३८. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव (सं०पा०) पहेसु ६३९. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्ख इ जाव एवं परूवेइ६४०. एवं खलु देवाणुप्पिया ! सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेइए दुवे जिणा संलवंति६४१. एगे वदंति तुमं पुचि कालं करेस्ससि, एगे वदंति तुमं पुब्वि कालं करेस्ससि । ६४२. तत्थ णं के पुण सम्मावादी ? के मिच्छावादी? ६३६. गोशाला ! पोतैज फुन, तं निज तेज करेह । व्याप्यं पराभव्यु छतुं, सप्त रात्रि अंतेह ।। ६३७. पित्त ज्वर करि परिगत तनु, दाह आक्रमे न्हाल । जे छद्मस्थ थकोज तूं, निश्चै करसी काल ।। श्रावस्ती में जनप्रवाद पद ६३८. तिण अवसर जे सावत्थी, नगरी विषेज ताहि । Qघाटक आकार जे, जाव महापथ मांहि ।। ६३६. बहु जन मांहोमांहि जे, इक-इक मैं कहै एम । जाव परूपै इह-विधे, ते सूणजो धर प्रेम ।। ६४०. इम निश्चै देवानुप्रिय ! नगर सावत्थी बार । कोट्ठग बागे उभय जिन, इम कहै बारंबार ।। ६४१. इक कहै तूं मरसी प्रथम, बली कहै इक वाय । काल करेसी तूं प्रथम, इम कहै माहोमांय ।। ६४२. इह बिहुँ जिन छै ते विषे, कुण सत्यवादी होय । मिथ्यावादी कवण जे. झूठाबोलो जोय ? ६४३. तत्र यथा सुप्रधान जन, जे मुख्य जन कहै वाय । श्रमण भगवंत महावीर जी, सत्यवादी सुखदाय ।। ६४४. मंखलिसुत गोशाल ते, मिथ्यावादी जाण । झूठाबोलो प्रत्यक्ष ही, ए उत्तम जन वाण ।। गोशालक के साथ श्रमणों के प्रश्नोत्तर पद ६४५. हे आर्यो ! इहविध कही, श्रमण भगवंत महावीर । श्रमण निग्रंथ आमंत्रि में, एम वदै गुण हीर । ६४६. आर्यो ! यथादृष्टांत ते, तृणपुंज ते तृणराश । अथवा काष्ठ तणूंज पुंज, फुन पत्रपुंज विमास ।। ६४७. अथवा छाल तणूंज पुंज, अथवा तुस-पुंज होय । अथवा भुस नों पुंज जे, वा गोमयपूज जोय ।। ६४८. कचरा तणीज राशि फुन, ए सह पुंज प्रतेह । बाल्यु अग्नि करी बली, सेव्यु अग्नि करेह ।। ६४६. अग्नि करीने परिणम्य, पूर्व स्वभाव त्यजेह । तेज हणाणो तेह नों, धूल प्रमुख करि तेह ।। ६४३. तत्थ णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादी, ६४४. गोसाले मंखलिपुत्ते मिच्छावादी । (श० १५।११५) ६४५. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गथे आमंतेत्ता एवं वयासी६४६. अज्जो ! से जहानामए तणरासी इ वा कट्टरासी इ वा पत्तरासी इ वा ६४७. तयारासी इ वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा गोमयरासी इ वा। ६४८. अवकररासी इ वा अगणिझामिए अगणिझूसिए 'अगणिझामिए'त्ति अग्निना ध्मातो-दग्धो 'अगणि झूसिए' त्ति अग्निना सेवितः। (वृ० प०६८३) ६४९. अगणिपरिणामिए हयतेए अगणिपरिणामिए' त्ति अग्निना परिणामितः पूर्वस्वभावत्याजनेनात्मभावं नीतः ततश्च हततेजा धूल्यादिना। (वृ०प०६८३,६८४) भ० श०१५ ३४५ Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० वली गयुं छे तेज भ्रष्ट तेज धयुं तेनुं ६५१. विनष्ट तेज धुं तदा तसुं नष्ट तेज पुन तास । लुप्त तेज फुन जास ॥ सत्य रहित कहिवाय । एकार्थ कहाय ॥ जुआ जुआ इस अर्थ ए वा मंसलिपुत्रे न्हाल । थी तेज निकाल | तेज कुन ताय । जावत तेज विनष्ट ही, तेज रहित ए थाय ॥ ६५४. तं छते भणी स्व अभिप्राय करेह । हे आर्यो ! गुणगेह ॥ जिम इच्छा हूं तुम्ह तणी, ६५२. इण दृष्टांत गोशाल पिण, मुझ वधवा में अर्थ ही, ६५३. तेज हणाणो तेहनों, गधुं तनु ६५५. मंचलित गोशाल प्रति, तु धर्ममय जेह | प्रतिचोयणा तिण करी, पड़िचोयणा करेह || ६५६. करी धर्म पड़ियोयणा, वलि धर्ममय जेह प्रतिसारणा तिण करी, प्रतिसारणा देह ६५७. देईने प्रतिसारणा, वली धर्ममय जेह । प्रत्युपकार तिथे करी, प्रत्युपकार करेह || ६५०. प्रत्युपकार करो वली, अर्थ करीने ॥ जाण । वली प्रवर हेतु करी, प्रश्ने ६५६. वली प्रवर कारण करी, पूछयां नों उत्तर दिये, ६६०. णिष्प-पसिण वागरण फुल, उत्तर नावे तेहने ६६१. तदा श्रमण निग्रंथ बहु, इक छते प्रभु प्रतै , करी पिछाण ॥ फुन व्याकरण' करेह । व्याकरण कहिये जेह || पूछयां तणूंज जेह एहबू तुम्हे तुम्है करेह ॥ श्रमण भगवंत महावीर । वंदे नमै सुधीर ॥ ६६२. प्रभु बंदी सिर नामनें जिहां पुत्र मंखली छै तिहां, आवै ६६३. मंखलिसुत गोशाल प्रति, पड़ियोयणा तिण करी, ६६४. करि धर्म पड़िचोयणा, प्रतिसारणा तिण करी, ६६५. करो धर्म प्रतिवारणा, गोशालक जोय । आवी सोय ॥ जे धर्ममय हंत । पश्चिोपणा करत ॥ वलि धर्ममय मंत । पड़िसारणा करत ॥ वली धर्ममय हंत | प्रत्युपकार करत ।। अर्थ हेतु करि मंत एहवूं तास करत ।। श्रमण निर्ग्रथे जेह । पड़ियोयण कीह ॥ करतां छतां जिवार । आसुरले शीघ्र ही, कोप चढ्यो तिहार ।। १. अंगसुत्ताणि भाग २ में पहले 'वागरणेहि' और फिर 'कारणेहि' है । ३४६ भगवती जोड़ प्रत्युपकार तिथे करी, ६६६. प्रत्युपकार करी वली, जाव प्रश्न उत्तर रहित ६६७. मंखलिसुत्त गोशाल तब, धर्म पविचोषणा करी ६६८. जाव प्रश्न उत्तर रहित ६२० गते नए भट्टते सुते ६५१. ए जाए. विनष्टतेजा निःसत्ताकीभूततेजाः एकार्था वैते शब्दाः । ( वृ० प० ६८४ ) ६५२ एवामेव गोसाले मंसिपुते ममं बहाए सरीरमंसि तेयं निसिरित्ता ६५३. हयतेए गयतेए जाव (सं० पा० ) विणठते ए जाए, ६५४. तं छंदेणं अज्जो ! 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः । ( वृ० प० ६८४) ६५५. तुम्भे गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, ११. धम्मियाए पडिवारणाए पसारे, ६५०. धम्मिए पहोणारे पोपाह ६५८. अट्ठेहि य हेऊहि य पसिणेहि य ६५९. वागरणेहि य कारणेहि य ६६०. निष्पट्ठपसिणवागरणं करेह । (श० १५०११६) ६६१. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेण भगवया महावीरेण एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति नर्मसंति, ६६२. दिशा नसता जेणेव गोसाले मंसिमेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ६६३. गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएंति, ६६४. धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेंति, ६६५. धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति, ६६६. अट्ठेहिय हेऊहि य जाव (सं० पा० ) वागरणं करेंति । (श० १२ ११७ ) ६६० ले मंचलिते समणेहि निहि धम्मियाए पडिचोयणाए पडिन्रोइज्जमाणे, ६६८. जाब (सं० पा० ) निष्पटुपसिणवावरणे कीरमाणे आसुरुते, Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९. जाय मिसिमिसेमान ययुं तनु ने कांई पिण तदा, ६७०. अथवा बहु बाधा प्रतै, वा तनुच्छेदज करण नें, गोशालक संघमेव पद श्रमण निर्बंध नां सोय । थोड़ी बाधा जोय ॥ उपजावा नैं धार । समरथ नहीं लिगार ॥ ६७१. तब आजीविक नां स्थविर, जे गोशाल प्रतेह श्रमण निर्ग्रथे धर्ममय, पड़िचोयणा करेह ॥ वा०-हिवे आजीविक नां स्थविर श्रमण निग्रंथे गोशाला ने प्रश्न पूछयां तेहनां जाब न आया, एहवो देख्यो ते कहै छै - ६७२. पचिण करतां वां वली धर्ममय जाण । 1 प्रतिसारणा विणे करी ६७३. धर्म प्रति उपकार करि अर्थ करी अथवा बसी ६७४. जावत प्रश्न तथा जिके, प्रतिसारतां पिछाण ।। करता प्रत्युपकार। हेतु करोतिवार ।। उत्तर रहित जिवार एहवो गोशालक भणी, देख लियो तिहार ।। वा० - वली आजीविया नां स्थविर गोशाला नैं कोप चढ्यो देख्यो, पिण श्रमण निग्रंथ नैं दुख अणउपजावतो देख्यो, ते कहै छै - ६७५. आसुरुते गोशाल जे, जाव मिसिमिसेमान । वली श्रमण निग्रंथ नां शरीर में पहिचान || ६७६. थोड़ी वा बाधा घणी, वा तनुच्छेद प्रतेह | अणकरतो गोणाल ने देखे देखी जेह ॥ -- वा०-हिवे आजीविया नो स्थविर गोशाला ने छोड़ने भगवान ने अंगीकार किया, ते क ६७७. मंखलिसुत गोशाल नां, समीप थी अवधार । के स्थविर आत्मा करी धायें दूर तिवार ।। ६७. तेही दूर पई जिहां, श्रमण भगवंत महावीर तिहा आवे आदी करी, भगवंत प्रत सुधीर ॥ ६७६. तीन वार दक्षिण तणां, पासा थी गुणगेह । प्रदक्षिणा देई करी, वंदे शिर नामेह ॥ ६८०. बंदी शिर नामी करी, श्रमण भगवंत महावीर । विचरं गुणमणि हीर ॥ गोशालाज प्रतेह | अंगीकार करनें तदा, विचरै मतपक्षेह || गोशालक प्रतिगमन पर तेह प्रतं अंगीकरी ६०१ को आजीविक ना स्थविर, ६८२. मंखलिसुत गोशाल तब, जे प्रभु हणवा अर्थ | उतावतो आथ्यो हतो, असाधतोज तदर्थ | ६८३. लांबी दृष्टे दश दिशे, देखतो तिहवार । लांबा उष्ण निसास फुन म्हातोज विचार ॥ ६६९. जाब (सं० पा० ) वितिमिमानो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आबाहं वा ६७०. वाबाहं वा उप्पाएत्तए, छविच्छेदं वा करेत्तए । (२०१५।११८) ६७१ तर ते आजीविया मेरा गोसाल मंसि समणेहि निषेधिमिया पडिपोषणाए ६७२. पडिचोएज्जमाणं, पडिसा रिज्जमाणं, धम्मियाए पडिसारणाए ६७३. धम्मिएणं पडोयारेणं य पडोयारेज्जमाणं, अट्ठेहि य ऊहि य ६७४. जाव (सं० पा० ) य निष्पट्ट्पणियागरण कीरमाणं ७७५. आसुरुतं जाव (सं० पा० ) मिसिमिसेमाणं समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स ६७६. किंचि आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति, पासित्ता ६७७ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ मायाए अवक्कमंति ६७८. अवक्कमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छति उपागच्छता सम भगवं महावीरं ६७९. तो आपाहि पाहि करेति, करेता बंदति नमसंति, ६८०. वंदित्ता नमसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । ६८१. अत्थेगतिया आजीविया थेरा गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । ( श० १५।११९ ) ६८२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्सद्वाए हव्वमागए तमट्ठे असाहेमाणे, ६०३. रुंदाई पलोएमाणे दीडव्हाईनीसमाणे । 'दाई पलोमा' ति दीर्घा दृष्टीदि प्रतिपन्नत्यर्थः : । (बु०प०६०४) भ० श० १५ ३४७ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४. दाढी नां जे केश प्रति, उपाड़तो अवधार । हिड़बची-गाबर प्रति वलि, खुजालतोज गिवार ।। ६८५. पुत प्रदेश प्रस्फोटतो, मसलंतो बिहुँ हाथ । बिहं पग करि धरती प्रते, कूटंतोज कुपात ।। ६८४. दाढियाए लोमाइं लुचमाणे, अवर्ल्ड कंडूयमाणे, 'अवड्ड' ति कृकाटिकां । (वृ०५०६८४) ६८५. पुलि पप्फोडेमाणे, हत्थे विणिद्धणमाणे, दोहि वि पाएहिं भूमि कोट्टेमाणे, 'पुलिं पप्फोडेमाणे' त्ति 'पुततटीं' पुतप्रदेशं प्रस्फोट (वृ०प०६८४) ६८६. हा हा अहो ! हओहमस्मि त्ति कटु यन् । ६८६. हा! हा! वच खेदे करी, अहोत्ति आश्चर्यह। हतो हणाणूं हूं अछु, एम करीने तेह ।। ६८७. श्रमण भगवंत महावीर नां, समीप थी अवलोय । कोटग नामा बाग थी, निकले निकली सोय ।। ६८८. छै जिहां नगरी सावत्थी, हालाहलाजु नाम । कुंभकारिका नों जिहां, कुंभकारावण ठाम॥ ६८६. तिहां आवै आवी करी, हालाहलाज जेह । कुंभकारिका नों जिको, कुंभकार-हाटेह ॥ वा०-पोता नी तेजोलेश्या स्यूं ऊपनो जे दाध ज्वर, ते उपशमावा नै अर्थे आंबा - फल हाथ में राखै छ, ए भाव। कुमका ६६०. कर अंबफल छै जेह नै, पीवंतो मद्यपान । बार-बार फन गावतो, गीत प्रतैज अजान ।। ६६१. बार-बार ही नाचतो, बार-बार फन सोय । हालाहला कुंभारि प्रति, कर जोड़तो जोय ।। वा०-ए गावणो, नाचणो, कुंभारी नै हाथ जोड़वो-ए मद्यपान कृत विकार जाणवू । ६६२. शीतल माटी मिश्र जल, तिण करि तनु सींचेह । हछै ते सामान्य पिण, तिणसू हिवै कहेह ।। ६६३. कुंभकार भाजन रघु, तिण मृद-मिश्र जलेह । गात्र प्रत सींचतो थको, इण रीते विहरेह ।। नाना सिद्धान्त प्ररूपण पद ६६४. हे आर्यो ! इहविधि कही, श्रमण भगवंत महावीर । श्रमण निग्रंथ आमंत्रि नैं, इम कहै सुरगिर धीर ।। ६६५. हे आर्यो! जितला इक, मंखलिसुत गोशाल । मुझ वध अर्थ नीसरयो, तनु थी तेज कराल ।। ६६६. तेह तेज अत्यर्थ ही, समर्थ पहुंचे ताम। सोल देश प्रति बालवा, कहिये तेहनां नाम ।। ६८७. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता ६८८. जेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव हालाहलाए कुंभ कारीए कुंभकारावणे ६८९. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभ कारीए कुंभकारावणंसि वा०-'अंबकूणगहत्थगए'त्ति आम्रफलहस्तगतः स्वकीय तपस्तेजोजनितदाहोपशमनार्थमाम्रास्थिकं चूषन्निति भावः । . (वृ०प० ६८४) ६९०. अंबकूणगहत्थगए, मज्जपाणगं पियमाणे, अभिक्खणं गायमाणे, ६९१. अभिक्खणं नच्चमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए कुंभ कारीए अंजलिकम्मं करेमाणे, बा०-गानादयस्तु मद्यपानकृता विकाराः समवसेयाः । ___(वृ० ५०६८४) ६९२,९३. सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचिण-उदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ। (श० १५।१२०) 'मट्टियापाणएणं' ति मृत्तिकामिश्रितजलेन, मृत्तिकाजलं सामान्यमप्यस्त्यत आह- (वृ०प०६८४) ६९४. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी६९५. जावतिए णं अज्जो! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं मम वहाए सरीरगंसि तेये निसठे ६९६. से णं अलाहि पज्जते सोलसण्हं जणवयाणं, तं जहा ---'अलाहि पज्जते' त्ति अलम् अत्यर्थं 'पर्याप्तः शक्तो घातायेति योगः। (वृ०प० ६८४) ६९७. (१) अंगाणं (२) वंगाणं (३) मगहाणं (४) मल याणं (५) मालवगाणं (६) अच्छाणं (७) वच्छाणं (८) कोच्छाणं (९) पाढाणं (१०) लाढाणं । ६९८. (११) वज्जीणं (१२) मोलीणं (१३) कासीणं (१४) कोसलाणं (१५) अवाहाणं (१६) सुंभुत्तराणं । ६९७. अंग बंग अरु मगध जे, मलय मालवो जाण । अच्छ वच्छ ने कोच्छ फुन, पाढ लाढ पहिछाण ।। ६६८. वज्री नै मोली वली, कोसी कोशल देश । अबाध संभुत्तर अख्या, जनपद सोल अशेष ।। ३४८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६. घात अर्थ ते त्रस तणी, अपेक्षाय अवलोय। ६९९. घाताए वहाए वध अर्थ स्थावर तणी, अपेक्षाय ए जोय।। घातायेति हननाय तदाश्रितत्रसापेक्षया 'वहाए'त्ति वधाय एतच्च तदाश्रितस्थावरापेक्षया । (वृ० १०६८४) ७००. उच्छादन अर्थे वली, जीव अजीव विषेह । ७००. उच्छादणयाए भासीकरणयाए । वस्त्र छादवा अर्थ फुन, भस्म करण अर्थह ।। 'उच्छायणयाए'त्ति उच्छादनताय सचेतनाचेतनतद्गतवस्तूच्छादनायेति । (वृ०प०६८४) ७०१. हे आर्यो ! जे पिण वली, मंखलिसुत गोशाल । ७०१. ज पि य अज्जो ! गोसाले मखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभारी हालाहला, तेह तणुं जे न्हाल । कुंभकारीए ७०२. कभकार-आपण विषे, आंबा नों फल जान । ७०२. कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए, मज्जपाणं छै जसु हाथ विषे जिको, पीबंतो मद्यपान ।। पियमाणे ७०३. यावत ही कर जोड़तो, विचरै छै इह वार । ७०३. जाव (सं० पा०) अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ, ते पिण मद्यपानादि जे, पाप ढांकवा धार ।। तस्स वि य णं वज्जस्स पच्छादणट्ठयाए 'वज्जस्स'त्ति बर्जस्य-अवद्यस्य वज्रस्य वा मद्यपानादिपापस्येत्यर्थः । (वृ०प०६८४) ७०४. आगल कहिस्यै तेह अठ, चरम परूप जेह। ७०४. इमाइं अट्ठ चरिमाइं पण्णवेइ, तं जहा-(१) चरिमे चरम पान मदिरा तणु, चरम गीत फुन एह ।। पाणे (२) चरिमे गेये । ७०५. चरम नाचवू नृत्य ए, चरम अंजली कर्म । ७०५. (३) चरिमे नट्टे (४) चरिमे अंजलिकम्मे (५) पुष्कल संवर्तक जबर, महामेघ पिण चर्म ।। चरिमे पोक्खलसंवट्टए महामेहे । ७०६. सींचाणक गंध गज चरम, महाशिलकंट संग्राम । ७०६,७०७. (१) चरिमे सेयणए गंधहत्थी (७) चरिमे चरम जाणवू फुन अद्धा, ए अवसर्पिणी ताम ।। महासिला कंटए संगामे (5) अहं च णं इमीसे ७०७. तीर्थकर चउवीस में, चरम तीर्थंकर मंत । ओसप्पिणिसमाए चउवोसाए तित्थगराणं चरिमे ते हूं छू हिव सीझसू, जाव करिस दुख अंत ।। तित्थगरे सिज्झिस्सं जाव अंतं करेस्सं । वा०-चरिम-ए बीजी वार नहीं हुवै ते भणी चरम कहिय । तिहां चरम वा०-'चरमे' त्ति न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरम, तत्र मद्यपानादिक ४ ते पोता नै प्राप्त छ। चरमता ते पोता नै निर्वाण जायवै करी पानकादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य बीजी वार वली अणकरवा थी। एतला वाना जिन नै निर्वाण काले अवश्य हवै। निर्वाणगमनेन पुनरकरणात्, एतानि च किल निर्वाणएहन विषे दोष नहीं, पिण हूं दाघ मिटावा में सेवू नहीं, एहबू कही मद्यपानादिक काले जिनस्यावश्यम्भावीनीति नास्त्येतेषु दोष इत्यस्य दोष ढांक्यो अनै पुष्करावर्त महामेघ, सींचाणो गंध हस्ती, महाशिलाकंटक संग्राम, तथा नाहमेतानि दाहोपशमायोपसेवामीत्यस्य चार्थस्य ए बाह्य ३ चरम कहै ते सामान्य जन नां चित्त रंजवा नै अर्थे पोता नु अतिशयपणुं प्रकाशनार्थत्वादवद्यप्रच्छादनार्थानि भवन्ति, पुष्कलजणायवा नै अर्थे अन आठमों चरम ते इण अवसर्पिणी काल मांहै पोते छहलो संवर्तकादीनि तु त्रीणि बाह्यानि प्रकृतानुपयोगेऽपि तीर्थकर बाजै छ, इम आठ चरम परूप । चरमसामान्याज्जनचित्तरञ्जनाय चरमाण्युक्तानि । (व. प०६८४) ७०८. हे आर्यो ! जे पिण वली, मंखलिसुत गोशाल । ७०८. जं पि य अज्जो ! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं शीतल मृतिका मिश्र जल, तिणे करीने न्हाल ।। मट्टियापाणएणं ७०६. कुंभकार भाजन विषे, जल मृद-मिश्र करेह । ७०९. आयंचिण-उदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ । पोतानांज शरीर प्रति, छांटतो विहरेह ।। आतन्यनिकोदकं कुम्भकारस्य यद्भाजने स्थितं तेमनाय मृन्मिश्रं जलं तेन । (वृ०प०६८४) ७१०. ते पिण निज अघ ढांकवा, पान परूपै च्यार । ७१०. तस्स वि णं वज्जस्स पच्छादणट्ठयाए इमाइं चत्तारि च्यार अपान परूपतो, ते शीतल जल सम धार ।। पाणगाइं चत्तारि अपाणगाइं पण्णवेति । (श० १५१२१) ७११. अथ स्यूं ते पाणी चिहुं, चउविधि पान कहेह । ७११. से कि तं पाणए ? गाय तणां जे पीठ थी, उदक पड़े छै जेह ।। पाणए चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा-(१) गोपुट्ठए 'गोपुट्ठए' त्ति गोपृष्ठाद्यत्पतितं। (वृ० प० ६८४) भ० श०१५ ३४९ Jain Education Intemational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२. कर थी मसल्यो उदक फुन, तपावियो तड़केह। ७१२. (२) हत्थमद्दियए (३) आतवतत्तए (४) सिलापब्भट्ठए गिरवर थी पड़ियो उदक, पान क ह्या चिहुं एह ।। 'हत्थमद्दियं' ति हस्तेन मद्दितं-मृदितं मलितमित्यर्थः । (वृ० प०६८४) ७१३. पाणी एह यती भणी, पीवा योग्य पिछाण । ७१३. सेत्तं पाणए। (श० १५५१२२) अथ स्यूं अपान ते हिवै, अपान चिहं विधि जाण ।। से कि तं अपाणए ? अपाणए चउविहे पण्णत्ते, तं जहा७१४. थाल पान पहिलो कह्यो, त्वचा पान अवधार। ७१४. (१) थालपाणए (२) तयापाणए (३) सिंबलिपाणए कह्यु संबलि पान फुन, शुद्ध पान सुखकार ।। (४) सुद्धपाणए। (श० १५॥१२३) वा०-ए च्यार अपान का भेद छै-तेहन पान शब्द किम कह्यो ? तेहनों वा०-'थालपाणए' त्ति स्थालं-बट्ट तत्पानकमिव उत्तर-ए च्यारूं अपान शीतल पाणी सरीखा छै ते मारी। लुप्त उपमा अलंकार दाहोपशमहेतुत्वात् स्थालपानकम्, उपलक्षणत्वादस्य करिक पान शब्द कह्या संभवे । पाणी घाली थाली पाणी नीं पर दाह उपशम हेतुपणां भाजनान्तरग्रहोऽपि दृश्यः, एवमन्यान्यपि नवरं त्वकथकी ते थाल पान १, वृक्ष नी छालि नो पाणी ते दाह उपशम हेतु ते त्वचा पान २, छल्ली सीम्बली-कलायादिफलिका 'सुद्धपाणए' त्ति तुरा प्रमुख फली नों पाणी ते सिंबलि पान ३, देव हस्त स्पर्श नों जल ते शुद्ध देवहस्तस्पर्श इति। (वृ०प०६८४) पान ४। ७१५. अथ स्यू छै ते थाल जल ? थाल पान हिव आय । ७१५. से कि तं थालपाणए ? भीनो थाल जले करी, उदक-वारकं ताय ।। थालपाणए-जे णं दाथालगं वा दावारगं वा 'दाथालय' त्ति उदका स्थालकं 'दावारगं' ति उदकवारकं । (वृ०प०६८५) ७१६. महाकुंभ भीनो जले, कलश लघु इम लेख। ७१. दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीतलगं उल्लगं शीतलगं उल्लग उभय, मृत्तिका पात्र विशेख । 'दाकुंभग' त्ति इह कुम्भो महान् 'दाकलसं' ति कलशस्तु लघुतरः । (वृ० ५० ६८४) ७१७. हस्ते कहि फशैं तिको, पिण जल नवि पीवेह । ७१७. हत्थेहि परामुसइ, न य पाणियं पियइ। सेत्तं थालते थाल पाणी कॉ, प्रथम भेद का एह ।। पाणए। (श० १५५१२४) ७१८. अथ स्यूं ते त्वच पान जे? त्वचा पान हिव आय । ७१८,७१९. से कि तं तयापाणए ? अंब वा अंबाडग वली, जेम पन्नवणा मांय ।। तयापाणए-जे गं अंबं वा अंबाडगं वा जहा पोग७१६. प्रयोग सोलम पद विषे, आख्यो तिमज कहेह । पदे जाव बोरं वा वनस्पती नां नाम जे, जाव बोरटी लेह ।। 'जहा पओगपए' त्ति प्रज्ञापनायों षोडशपदे (१६।५५)। (वृ०प० ६८४) ७२०. तिदंसक फल टीडसो, अभिनव काचो एह। ७२०. तेंबरुयं वा तरुणगं आमगं आसगंसि आवीलेति वा ईषत पीड़े मुख विषे, वा अतिही पीड़ेह ।। पवीलेति वा, 'तरुणगं' ति 'अभिनवम् 'आमगं' ति अपक्वम् 'आसगंसि' त्ति मुखे 'आपीडयेत्' ईषत् प्रपीडयेत् प्रकर्षत इह यदिति शेषः। (वृ० ५० ६८४) ७२१. इतले स्पर्श ते करै, पिण जल नवि पीवेह। ५२१. न य पाणियं पियइ । सेत्तं तयापाणए । ते त्वच पाणी आखियो, द्वितीय भेद का एह ।। ७२२. अथ स्यूं सिंबलिपाण ते? सिंबलिपाण सूजोय । (श० १५।१२५) ७२२. से किं तं सिंबलिपाणए ? कलाय धान तणी फली, तास उदक अवलोय' ।। सिंबलिपाणए-जे णं कलसंगलियं वा 'कल' त्ति कलायो-धान्यविशेषः । (वृ०प० ६८४) ७२३. उड़द फली न पाण फुन, सिंबलि वृक्ष विशेख । ७२३. माससंगलियं वा सिंबलिसंगलिय वा तरुणिपं आमियं तास फली नुं जल वली, अभिनव काचू देख ।। ___ 'सिंबलि'त्ति वृक्षविशेषः। (वृ० प० ६८४) १. अंगसुत्ताणि भाग २ में 'कलसंगलियं' के बाद 'मुग्गसंगलियं' पाठ है। उसकी जोड़ नहीं है। ३५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४. ईषत पीड़े मुख इतले स्पर्श विषे, ते करे. ७२५. का सिवलीपाण ए कह्य वा अतिही पिण जल नवि अथ स्यूं ते शुद्ध पाण ? शुद्ध पाण कहियै तिको, जे छ मास लग जाण ॥ ७२६. खावे शुद्ध खादिम जिको वर्त्ते वलि बे मास लग, ७२७. डाभ तणें संथार फुन, तेहने बहु प्रतिपूर्ण ही, ७२८. ए आगल कहिस्यै संचार विमास । संथारो तास ।। दोय मास वर्त्तत । छ मास नीं निशि अंत ॥ तिके, उभय देव दहदीप | महर्द्धिक जाव महेसखा, प्रगट तास समीप ।। ७२९ तास नाम धुर पूर्णभद्र, माणिभद्र सुर तेह शीतल उल्लग हस्त करि तास गात्र फर्शोह ॥ ७३०. अनुमोदै ते सुर प्रतै, रूडूं जाणे जेह । तो आसीदिष कर्म प्रति ते पुरुष पकरेह ॥ ७३१. जे पुरुष ते सुर प्रतं नहि मन अनुमोदेह । तो तमु स्व तनु ने विषे, अग्निकाय उपजेह ॥ ७३२. ते पोता नैं तेज करि, शरीर प्रति सोखेह | निज तेजे तनु दग्ध करि, तठा पछे सीह ॥ ७३३. जावत अन्त करे तिको, एह कहा ं शुद्ध पाण गोशाला नी बात ए प्रभु कही मुनि प्रति जाण ॥ अयंपुल आजीवकोपासक पद मही कठ पीड़ेह | पीवेह ॥ ७३४. तिहां सावत्वी नगरी ए. नाम अयंपुल जान || श्रावक आजीवक तणो, वसै धने ऋद्धिवान ॥ ७३५. जेम कही हालाहला, विमहिज जावत एह आजीवक सिद्धांत करि, आत्म भावित विचरेह ॥ ७३६. तिण अवसर गोशाल नुं श्रमणोपासक जेह नाम अयंपुल तेहनें, मध्य रात्रि समवेह || ७३७. कुटंब जागरणा जागतो, ए एहवे रूपेह अध्यातम आतम विषे, जावत मन उपजेह || ७३८. स्यूं संठाण परूपियो, हल्ला' जीव सुदोठ | गोवालिका तृण सारिखे आकारे जे कीट ॥ ७३६. ताम अयंपुल नैं वली, द्वितीय वार पिण एह । एहवे रूपे आत्म विषे जावत मन उपजेह ॥ " ७४०. इस निश् करि महरा, धर्माचारज न्हाल | उपदेशक जे धर्म नां, मंखलिसुत गोशाल ॥ १. गोवालिका तृण सरीखे आकारे कीट विशेष आपणपो तृणे करी वीं लोक रूढे सुघरी इति । ते हला जीव कहिये तेहनो स्यू संठाण - स्यू आकार ? ७२४. आसगंसि आवीलेति वा पवीलेति वा, न य पाणियं पियति । ७२५. सेत्तं सिबलिपाणए । से कि तं सुद्धपाणए ? सुपाणए म्यासे ७२६. सुद्धखाइमं खाइ, दो मासे पुढवीसंथारोवगए, दो मासे कसंथा रोवगए, ७२७. दो मासे दब्भसंथारोवगए, तस्स णं बहुपडिपुण्णाण छहं मासाणं अंतिमराईए ७२८. इमे दो देवा महिड्डिया जाव महेसक्खा अंतियं पाउब्भवंति, तं जहा ( श० १५/१२६ ) - ७२९. पुष्पमय माणिभद्दे तए णं ते देवा सीलएहि उत्तएहि हत्थेहि गामाई परागुसंति, ७३०. जेणं ते देवे साइज्जति, सेणं आसीविसत्ताए कम्म पकरेति, ७३१. जेणं ते देवे नो साइज्जति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, ७३२. से णं सएणं तेएणं सरीरगं झामेति, झामेत्ता तभ पच्छा सिज्झति । ७३३. जाव अंत करेति । सेत्तं सुद्धपाणए । (० १५ १२७) ७३४. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले नामं आजीविओवासए परिवस अ ७३५. जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहर। ७३६. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अण्णया कदायि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि ७३७. कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अमल्पिए जाव (to पा० ) संकष्पे समुपजत्वा - ७३८. किंसंठिया णं हल्ला पण्णत्ता ? (= {KIPRE) 'हल्लति गोवासिकातृणसमानाकार: कीटकविशेषः । (बु०प०६८४) तस्स अयं सस्स आजीविसोवासमरस दोच्च पि अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव (सं० पा० ) समुपज्जित्था । ७३९. तए णं ७४० एवं खलु ममं धम्मापरिए धम्मोवदेसर गोसाले मंत भ० श० १५ ३५१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४१. उत्पन्न ज्ञान दर्शण तणां धरणहार गुणधार । यावत ते सर्वज्ञ फुल सहु नां देखणहार | ७४२. इणहिज नगरी सावत्थी, हालाहला नामेह । कुंभकारिका नों जिको, कुंभकार हाटेह || ७४३. आजीविक संघ परिवरयो, आजीवक समयेह । आतम प्रभावित थको ७४४ ते मार्ट श्रेय मुझ भणी, जाव जलते रवि उदय, ७४५. मंचलित गोशाल प्रति, जावत ही पर्युपासना, सेव ७४६. ए एहवे रूपे जिको, व्याकरण तेह पूछिबू इम करी, इम चितं ७४७ एवं मन में चितवी, काल्हे हाए कृतवलिकम्म प्रमुख, जाव ७५२. शीतल मृद मिश्रित जले, सींचतो देखे तदा ७५३. बलि ते कहितां अति लभ्यं विचरं छं गुणगेह ॥ निश्चे काल्हे जोप । तेह समय अवलोय || ७४८. भार अपछे जे विषे, मोले एहवे आभरणे करी, अलंकारी ७४८. पर थी निकले नीकली, पालो तेह सावत्थी नगरीई, ७५०. कुंभारी हालाहला, कुंभ जिहां हाट आवे विहां, ७५१. देख लियो गोशाल प्रति अंब फल जाव ही, हस्त बंदी ने विधि रीत । करी घर प्रीत | ७५४. हलुवे - हलुवै गमन करि, तब आजीवक नां स्थविर, प्रश्न उदार । तिहवार ।। जाव जलत । शब्द में हुंत ॥ जावत मात्र प्रतेह देखी लज्जित देह || वेविडे कहितां ताय । अत्यन्त गाढो लाजियो, चलचित पयुं सवाय || । मुंहचा जेह निज देह ॥ पंथ विषेह | थई मध्यमध्येह || करिवा नों जान । आवीने तिह स्थान | कुंभकार हाटेह कर जोड़तो जेह || पाछो ही ओसरत । तेह अयंपुल प्रत ॥ ७५५. लज्जित जावत जेहनें, पाछो उस देख देखी इम कहै, आव अयंपुल जेथ । एथ ।। ७५६. तेह अयंपुल तिह समय, आजीवक थिवरेह | इम कहाँ खतेज ते कने, तुरत हीज आवेह || ७५७. आवी आजीवक तणां विवरांप्रतं वंदेह | नमस्कार बलि त करें, बंदी नमी शिरेह ॥ ३५२ भगवती जोड ७४१. उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव (सं० पा० ) सव्वण्णू सव्वदरिसी ७४२ इहेब सावरलीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि ७४३. आजीवसंपरिबुडे आजीवियसमए जा भावेमाणे विहरइ | ७४४. तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते ७४५. गोसाल मंसिपुत वंदिता नाव पनुवासिता ७४६. इमं एयारूवं वागरणं वागरितए ति कटट एवं पति ७४७. संपेता कस्ले पाउपभाए रपणीए नाव उद्रियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्म गियरे या जलते पहाए कयबलिकम्मे ७४८. अप्पमहन्याभरणाकियसरी ७४९. साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्ख मित्ता पायविहारचारेणं सार्वत्थि नगर मज्भंमज्झेणं ७५०. जे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता 1 ७५१. गोमंत हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूण गहत्थगयं जाव (सं० पा० ) अंजलिकम्मं करेमाणं ७५२. सीयलएणं मट्टिया जाव (सं० पा० ) गायाइं परिसिंचमाणं पासइ, पासित्ता लज्जिए ७५२ लिए विदे 'बिलिए' 'व्यलोकितः सन्नातव्यलीक: 'बिहे' त्ति व्रीडाऽस्यास्तीति व्रीड : लज्जाप्रकर्षवानित्यर्थः । (बु०प०६०४, ०५५) ( ० १५ १२९) तए णं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं ७५४. सणियं सणियं पच्चोसक्कइ । ७५५. लज्जियं जाव पच्चीसक्कमाणं पासइ, पासित्ता एवं बयासी - एहि ताव अयंपुमा ! इतो ( श० १५/१३० ) ७५६. तणं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीवियथेरेहि एवं वृत्ते समाणे देव बाजीविया पेरा रोव उवागच्छर, ७५७ उबागपिता आलीजिए बेरे बंदर, गर्मस, वंदित्ता नमंसित्ता Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८. नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ। (श०१५२१३१) अयंपुलाति ! ७५९. आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी -से नूणं ते अयंपुला! ७६०. पुव्ब रत्तावरत्तकालसमयंसि जाव' (सं० पा०) किसंठिया णं हल्ला पण्णत्ता? ७६१. तए णं तव अयंपुला ! दोच्चं पि अयमेयारूवे तं चेव सव्वं भाणियव्वं । ७६२. जाव सावत्थि नगरि मज्झमझेणं जेणेव हालाहलाए कुम्भकारीए कुम्भकारावणे ७६३. जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए। से नूणं ते अयंपुला ! अठे समठे ? ७६४. हंता अत्थि। ७५८. नहि अति निकट न दूर अति, जाव करै पर्यपास । अहो अयंपुल ! एहवं, आमंत्रण करि तास ।। ७५६. कहै आजीवक नां स्थविर, अयंपूल प्रति इम वाय । ते तुम्हनें निश्च करी, अहो अयंपुल ! ताय ।। ७६०. मध्य रात्रि में काल जे, अवसर समय पिछाण । जावत स्यं संठाण जे, हल्ला कह्य सुजाण ।। ७६१. अहो अयंपुल ! ताम तुझ, द्वितीय वार पिण एह । तिमहिज सह विस्तार ही, चित्युं तेम कहेह ।। ७६२. जावत नगरी सावत्थी, थई मध्यमध्येह । हालाहला तणो तिहां, कुंभकार-हट जेह ।। ७६३. जिहां अम्है जे छां इहां, तिहां तुम शोघ्र आवेह। ___ अहो अयंपूल ! अर्थ ए, समर्थ छै निश्चेह? ७६४. हंता अस्थि इह विधे, कहै अयंपुल वाय । हां छै साचू तुझ सुवच, अर्थ समर्थ कहाय ॥ ७६५. अहो अयंपुल ! जेह पिण, धर्माचारज तोय । धर्म तणां उपदेश नां, देणहार अवलोय ।। ७६६. मंखलिस्त गोशाल जे, हालाहला नामेह । कुंभकारिका तेहनों, कुंभकार-हाटेह ।। ७६७. रह्य अंबफल हस्त फुन, जाव अंजलीकर्म । करता विचरै तत्र पिण, कहै भगवन अठ चर्म ।। ७६८. प्रथम चरम मद्यपान जे, जावत करी सुअंत । धर्माचारज ताहरा, इह विधि कहै उदंत ।। ७६६. अहो अयंपुल! जे वली, धर्माचारज तोय । धर्म तणां उपदेश नां, देणहार अवलोय ।। ७७०. मंखलिसुत गोशाल ते, शीतल मृत्तिका जेह । मिश्रित जल करिने जिको, जावत ही विचरेह ।। ७७१. तत्र अपि भगवंत जे, पाण परूपै च्यार । च्यार अपाण परूपता, अथ स्यूं चिहुं जल धार? ७६५. ज पि य अयपुला ! तव धम्मायरिए धम्मोव देसए ७६६. गोसाले मखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणसि ७६७. अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलि करेमाणे विहरइ, तत्थ वि णं भगवं इमाइं अट्ठ चरिमाइं पण्णवेति, तं जहा७६८. चरिमे पाणे जाव अंतं करेस्सति । ७६९, जं पि य अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोव देसए ७७०. गोसाले मखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टिया जाव(सं० पा०) विहरइ । ७७१. तत्थ वि ण भगव इमाई चत्तारि पाणगाई, चत्तारि अपाणगाइं पण्णवेति । से कि तं पाणए? ७७२. पाणए जाव तओ पच्छा सिझति जाब अंत करेति । ७७२. जाव तिवार पछै तिको, सीझ जावत जेह । करै अंत सहु दुख तणो, कहिवू इहां लगेह ।। ७७३. ते माटै जाओ अयंपुला ! जा तूं एहिज सोय । धर्माचारज तांहरा, धर्मोपदेशक जोय ।। ७७४. मंखलिसुत गोशाल ही, ए एहवे रूपेह । व्याकरण उत्तर प्रश्न नों, तेहिज निश्चै देह ।। ७७५. तेह अयंपुल तिह समय, आजीवक थिवरेह । इम कह्य छतेज हरषियो, वलि संतोष लहेह ।। ७७६. ऊर्द्ध थायवै करि तिको, ऊठ ऊठी एम । मंखलिसूत गोशाल ज्यां, तिहां चाल्यो धर प्रेम ।। ७७७. तब आजीवक नां थविर, मंखलिसुत गोशाल । तसु अंबफल जु न्हखायवा, एकांत स्थानक न्हाल ।। ७७३. तं गच्छ णं तुम अयपुला ! एस चेव तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए ७७४. गोसाले मखलिपुत्ते इम एयारूव वागरण वागरेहिति। (श० १५२१३२) ७७५. तए णं से अयंपुले आजीविओवासए आजीविएहिं थेरेहिं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुठे ७७६. उट्टाए उठेइ, उठेत्ता जेणेव गोसाले मखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (श० १५.१३३) ७७७. तए ण ते आजीविया थेरा गोसालस्स मखलिपुत्तस्स अम्बकूणग-एडावणट्ठयाए एगतमंते भ० श०१५ ३५३ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८. संगारं सानी करै, एकांते संकेत । ७७८. संगार कुव्वति। (श० १५॥१३४) तजो अंबफल कर थकी, आयु अयंपुल एथ ।। 'संगार'ति 'संकेतम्' अयपुलो भवत्समीपे आगमिष्यति ततो भवाना म्रकूणिकं परित्यजतु संवृतश्च भवत्वेवरूपमिति । (वृ०प०६८५) ७७६. मंखलिसुत गोशाल ते, आजीविक नां थेर । ७७९. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं तेह तणां संकेत प्रति, ग्रहण करै मन घेर ।। संगारं पडिच्छइ. ७८०. तसु संकेत ग्रही करी, अंब तणों फल जेह। ७८०. पडिच्छित्ता अंबकूणगं एगंतमंते एडेइ । न्हाखै एकांत स्थानके, विजन भूमिभागेह ।। (श० १५१३५) 'एगंतमंतेत्ति विजने भूविभागे। (व. प०६८५) ७८१. तेह अयंपुल तिह समय, मंखलिसुत गोशाल । ७८१. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले जिहां अछै आवै तिहां, आवीने तिह काल ।। मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता ७८२. मंखलिसुत गोशाल प्रति, तीन वार अवधार । ७८२. गोसालं मखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासति । जावत ही पर्युपासना, सेवा करै तिवार ।। (श० १५।१३६) ७८३. अहो अयंपुल! एहवं, आमंत्रण सुकथीत । ७८३. अयंपुलादि ! गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीमंखलिसुत गोशाल तब, कहै अयंपुल प्रतीत ।। वियोवासगं एवं वयासी७८४. ते निश्चैज अयंपूला! मध्य रात्रि समयेह । ७८४. से नणं अयंपुला ! पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जिहां मुझ अंतिके, तिहां शीघ्र आवेह ।। जाव जेणेव ममं अतियं तेणेव हव्यमागए। ७८५. ते निश्चैज अयंपुला! अर्थ समर्थ पिछाण ? ७८५. से नूणं अयंपुला ! अर्से समझें हंता अस्थि इह विधे, कहै अयंपुल वाण ।। हंता अस्थि । ७८६. ते माटे निश्चै नहीं, अस्थि सहित अंब एह । ७८६. तं नो खलु एस अंबकूणए मुनि प्रति तेह अयोग्य छै, ते जाण्यं नहि तेह ।। 'तं नो खलु एस अंबकूणए' त्ति तदिदं किलाम्रास्थिक न भवति यतिनामकल्प्यं यद्भवताऽऽम्रास्थिकतया विकल्पितं । (वृ० प० ६८५) ७८७. ए आंबा नी छालि छ, गमन काल निर्वाण । ७८७. अंबचोयए णं एसे। कर लेवू जिन ने कह्य, त्वक-पानक पहिछाण ।। 'अवचोयए णं एसे' ति इयं च निर्वाणगमनकाले आश्रयणीयैव, त्वक्पानकत्वादस्या इति । (वृ० प० ६८५) ७८८. स्यूं संठाण कह्या हल्ला, जीव विशेष पिछाण । ७८८. किसंठिया हल्ला पण्णता? वंशी मूल संठाण ही, हल्ला कह्या सुजाण ।। वसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता ।। वा०--ए वंशीमूल संस्थितपणों तृणगोवालिया नै लोक प्रतीत हीज छ । वा०-'बंसीमूलसंठिय' त्ति इदं च बंशीमूलसंस्थिएतलेज की छत जे पूर्वे गोशाले मदिरा पान कयूं हतु तेहथी अकस्मात् मदिरा मद तत्वं तृणगोवालिकाया: लोकप्रतीतमेवेति, एतावविह्वलित मनोवृत्ति थई । तिण कारण तान करै ते कहै छ-- त्युक्ते मदिरामदविह्वलितमनोवृतिरसावकस्मादाह (वृ० प० ६८५) ७८६. वीण बजावै फुन इहां, उन्मत वश अवधार। ७८९. वीणं वाएहि रे वीरगा! वीणं वाएहि रे अरे वीरगा! वीरगा! इम मुख वचन उचार ।। वीरगा! (श०१५।१३७) वा०—वीण बजावो हे वीर भाई ! गीत प्रत गावै गीत गान करि एहवू बे वा०-'वीणं वाएहि रे वीरगा २' एतदेव द्विरावर्त्तवार कह्य-आव रे वीरगा! वीरगा! एहवं उन्माद न वचन अकस्मात अयंपुले यति' एतच्चोन्मादवचनं तस्योपासकस्य शृण्वतोऽपि सांभल्यं तो पिण अयंपुल' नां मन में शंका न ऊपनी । इम जाण-जे मोक्षे जाये ते न व्यलीककारणं जातं, यो हि सिद्धि गच्छति स चरम गीत न गाय इत्यादिक वाना निश्चै करें । चरमं गेयादि करोतीत्यादिवचनैविमोहितमतित्वादिति । (वृ० ५० ६८५) ७६०. तेह अयंपुल तिह समय, मंखलिसुत गोशाल । ७९०. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसालेणं एह उत्तर दीधे छते, हर्ष तुष्ट तिहकाल ।। मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हट्टतुट्ठ ३५४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१. जावत विकस्यो हृदय तसु, मंखलिसुतत गोशाल । तेह प्रतै वंदै नमै, वंदी नमी निहाल ।। ७६२. प्रश्न प्रतै पूछ तदा, पूछी प्रश्न प्रकार । ग्रहण करै बहु अर्थ प्रति, ग्रहण करी तिहवार ।। ७६३. ऊर्द्ध थायवै करो तदा, ऊभो थावै तेह। ऊभो थइ गोशाल प्रति, वंदै शिर नामेह ।। निर्हरण निर्देश पद ७६४. वंदी शिर नामी करी, जाव गयो निज गेह । मंखलिसुत गोशाल तब, निज मृत्यु प्रति देखेह ।। ७९१. जाव (स०पा०) हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ७९२. पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियइ, परियादिइत्ता ७९३. उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता मंखलिपुत्तं वंदइ नमंसइ, ७९४. वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। (श० १५११३८) तए ण से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोएइ। ७९५. आभोएत्ता आजीविए थेरे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी७९६. तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेह, ७९७. ण्हाणेत्ता पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइए गायाई ७६५. निज मृत्यु प्रति देखी करी, आजीवक नां जाण। थिवरां प्रति ते. तदा, तेड़ वदै इम वाण ॥ ७६६. अहो देवानुप्रिया ! तुम्है, काल गयो मुझ जाण । सुरभि गंध उदके करी, करावजो तनु स्नान ।। ७६७. स्नान करावी पछै, पम्हल जे सुकुमाल । ___ गंध कषाई वस्त्र करि, लुहिजो गात्र विशाल । ७६८. गात्र प्रतै लूही करी, सरस गोशीर्ष सार । चंदन करिकै गात्र प्रति, लीपीज्यो धर प्यार ॥ ७६६. चंदन तनु लीपी करी, मोटा योग्य सुहाय । हंस लक्खण अति शुक्ल जे, पट शाटक पहिराय ।। लूहेह, ७९८. लूहेत्ता सरसेणं गोसीसवंदणेणं गायाई अणुलिपह, ७९९. अणुलिपित्ता महरिहं हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेह, 'हंसलक्खणं' 'त्ति हंसस्वरूपं शुक्लमित्यर्थः । (वृ० ५०६८४) ८००. नियंसेत्ता सव्वालंकारविभूसियं करेह, ८०१. करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुहेह, ८००. पट एहवू पहिराय नैं, जेह सर्व अलंकार । तिणे विभूषित तनु प्रतै, कीज्यो अधिक उदार ।। ८०१. एम विभूषित तनु करी, पुरुष सहस्र सुविचार । शिवका जेह उपाइये, चढावजो तिहां सार ।। ८०२. एहवी शिवका चाढने, नगरी सावत्थी मांहि। शृंघाटक त्रिक जाव ही, महापंथ में ताहि ॥ ८०३. मोटे-मोटे शब्द करी, उद्घोषण कर तास । उद्घोषण करतां छतां, कहिज्यो एम विमास ॥ ८०४. इम निश्चै देवानप्रिया! मंखलिसुत गोशाल । तेह केवली जिन हुँतो, जिन-प्रलापी न्हाल । ८०५. जावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाशतोज सुजोय । विचरी ने ए अवसर्पिणी, काल विषे अवलोय ।। ८०६. चउवीस तीर्थंकर विषे, चरम तीर्थकर मंत। सीधो जावत सर्व ही, दुख नों कीधो अंत ।। ८०७. ऋद्धि करि सत्कार जे, पूजा तसु समुदाय । तिण करिके मुझ तनु तणे, नीहरण कीज्यो ताय ।। ८०२. दुरुहेत्ता सावत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिग जाव (सं० पा०) पहेसु ८०३. महया-महया सद्देणं उग्धोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वदह८०४. एवं खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी ८०५. जाव (सं० पा०) जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए ८०६. चउवीसाए तित्थगराणं चरिमे तित्थगरे, सिद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । ८०७. इढिसक्कारसमुदएणं मम सरीरगस्स नीहरणं करेह। (श. १५२१३९) 'इड्ढिसक्कारसमुदएणं' ऋद्ध्या ये सत्काराःपूजाविशेषास्तेषां यः समुदयः स तथा तेन । (वृ०प० ६८५) भ० श०१५ ३५५ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स एयमढ़ विणएणं पडिसुणेति । (श० १५१४०) ८०९. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्तस्स ८१०. अयमेयारूवे अज्झथिए जाब (सं० पा०) समुप्प ज्जित्था८११. नो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव (सं०पा०) जिणसई पगासेमाणे विहरिते ८१२. अहण्णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए ८१३. समणमारए समणपडिणीए ८१४. आयरिय-उवउझायाणं अयसकारए अवण्णकारए अकित्तिकारए ८१५. बहूहि असब्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा ८०८. तब आजीविक नां थविर, मंखलिसूत गोशाल । तसु वच ए विनये करी, करै अंगीकृत न्हाल ।। गोशालक-परिणाम-परिवर्तन पद ८०६. तिण अवसर गोशाल नैं, मखलिसुत नै धार । रात्रि सातमी वर्त्तता, लाधुं सम्यक्त्व सार ।। ८१०. ए एहवे रूपे तसु, आत्म विषे अवधार । जावल संकल्प ऊपनो, मन मांहे तिहबार ।। ८११. निश्चै करिनें हं नहीं, जिन जिनप्रलापी जाव। जिन रव प्रतै प्रकाशतो, विचरर्यो हूं असद्भाव ।। ८१२. निश्चै करिने हं सही, मंखलिसुत गोशाल । श्रमण उभय न हूं थयु, घातक महाविकराल ।। ८१३. इतला माटे हीज हूं, श्रमण-मारक साक्षात । श्रमण तणों प्रत्यनीक हूं, प्रतिकूलपणे विख्यात ।। ८१४. आचार्य उवज्झाय नों, अयश तणों करणहार । अवर्ण नं कारक वली, अकीत्तिकारक धार ।। ८१५. बहु असद्भाव उद्भाव नां, तेणे करिने ताम। मिथ्यात्वाभिनिवेस करि, निज पर बिहुं ने आम ।। वा०-असद्भाव कहितां झूठा अर्थ तेहनी उद्भावना ते उत्प्रेक्षणा ते असद्भाव उद्भावना कहिये । तिणे करी मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य त्ति मिथ्यात्व ते मिथ्यादर्शन उदय थकी अभिनिवेश ते आग्रह तिण प्रकार करिके तिणे करी। अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा आत्मा नै वा पर नै वा बिहूं नै । ८१६. व्युद्ग्राहमान छतोज हूं, व्युत्पादमान छतोज । विचरी निज तेजे करी, आर्त ही व्याप्यं थकोज ॥ वा---ग्गाहेमाणेत्ति आपणी आत्मा नै, पर नै अनै बिहुँ नै विरुद्धखोटो ग्रहणवंत करतो थको । आपणी आत्मा ने विरुद्ध अर्थ नै ग्रहण करै अनै पर आत्मा न विरुद्ध अर्थ प्रति ग्रहण करावै । अनै इमहिज बिहुं नै एहवो छतौ । वुप्पाएमाणेत्ति-दुर्विदग्ध एतलं दग्ध बीज सरीखो करतो छती हूं विचरी नै पोता नी तेजलेश्या करीनै व्याप्यो छतो। ८१७. सप्त रात्रि में अंत तनु, पित्त ज्वर परिगत न्हाल । दाह उपर्नु छद्मस्थ छतुं, निश्चै करिसु काल ।। ८१८. श्रमण भगवंत महावीर जी, जिन जिन-प्रलापी मंत। जावत ही जिन शब्द प्रति, प्रकाशता विचरंत । ८१६. इम चितै चिती करी, आजीविक नां थेर । तेह प्रतै तेड़े तदा, तेड़ी नैं तिह वेर ॥ ८२०. देव गुरू संबंधिया, संस करावै तास । संस करावी इह विधे, बोल वचन विमास । ८२१. निश्चै करिने हं नहीं, जिन जिनप्रलापी जाव। जिन रव प्रकाशतो छतौ, विचर्यो मिथ्या भाव ।। ८२२. निश्चै करिनैं हं सही, मंखलिसुत गोशाल । श्रमण-वधक जावत करि, छद्मस्थ छतूंज काल ।। ८१६. बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहरित्ता सएणं तेएणं अण्णाइठे समाणे ८१७. अंतो सतरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवर्क तीए छउमत्थे चेव कालं करेस्स ।। ८१८. समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव (सं०पा०) जिणसई पगासेमाणे विहरइ-- ८१९. एवं संपेहेति, संपेहेत्ता आजीविए थेरे सद्दावेइ. सद्दावेत्ता ८२०. उच्चावय-सवह-सावियए पकरेति, पकरेत्ता एवं वयासी८२१. नो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरिए। ८२२. अहणं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव (सं०पा०) छउमत्थे चेव कालं करेस्स। . ३५६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३. श्रमण भगवंत महावीर जी, जिन जिनप्रलापी जाव जिन रव प्रतै प्रकाशता, विचरै छै सद्भाव ।। गयो मुझ जाण । बांधजो ताण ॥ २४. ते मार्ट देवानुप्रिय ! काल डावा पग र दोरड़ी, तुम्हे ८२५. डावा पग रै दोरड़ी, तुम्हे बांधी तीन वार फुन थूकज्यो, थे मुझ मुख रै २६. तीन वार मुख चूकनें नगरी सावत्यी शृंघाटक त्रिक जाव ही महापंच में २७. उरहो परहो पीसाड़जो मोटे-मोट मोटे-मोट वार-वार उद्घोषणा, करता एम ने ताहि । मांहि || माहि ताहि ॥ रवेह | वदेह || २ नहि निश्च देवानुप्रिय ! मंखलित गोशाल । जिन जिनलागी जाव हो, विवरच ए महावाल २१. एहि निश् करी मंचलित गोशाल । छै श्रमण-वधक जावत कियो, छद्म छतेज काल || ३०. श्रमण भगवंत महावीर जो जिन जिन प्रलापी जाय। जिन रव प्रतं प्रकाशता, विचरं छं सद्भाव ८३१. मोटी अण करी, असत्कार समुदाय । तिणे करो मुझ तनु तो नोहरण की ताप ।। निर्हरण पद ८३२. इम कहि कीधू काल तब, आजीवक थिवरेह । मंखलिसुत गोशाल प्रति, मूंओ जाणीनें तेह ॥ ८३३. कुंभकारी हालाहला, तसु तास द्वार ढांकै तदा, २४. कुंभकारी हालाहला, तेह तणां बहु मध्य जे, ८३५. नगरी सावत्थी नुं तदा, आलेली गोशाल नां शरीर ८३६. डावा पग र दोरड़ी, बांध रे तीन बार मुख ने विषे ८३७. नगरी सावस्थी ने विषे शृंपटक पूर्क जाय पंथे उरहो-परहो, घीसाइत तिह वार ॥ ८३८ नीचे नीचे शब्द करि उद्घोषणा करत उद्घोषणा करता छता, इह विधि वयण वयंत ॥ ८३२. निश्चै नहीं देवानुप्रिय मंचलित गोशाल ! जिन जनप्रलापी जाब ही, विचरो ए महाबाल || ८४० ए मंखलिसुत गोशाल हिज, श्रमण-वंधक महाबाल । जावत ही छद्मस्थपणे, निश्चै कीधो काल ॥ कुंभकार हट जेह । ढांकी कपाट करेह || कुंभकार हट ताहि देश भाग रै मांहि ॥ स्वरूप आलेखंत | तणोंज मंत ॥ बांधी जोय । थी सोय ।। बिरुधार ८२३. समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिस मासेमारी विद ८२४. तंतुभं णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणित्ता बामे पाए सुवेणं बंधे, 'सुंबेणं' ति वल्करज्ज्वा ( वृ० प० ६८५ ) २५. ततो मुहे उभेह २६. उता सारथीए नगरीए सिपाडगाव (सं०पा० ) पहेसु ८२७ आकविकट्ट करेमाणा महया महवा स उग्धो से माणा - उग्घोसेमाणा एवं वदह 'कविकट्ट' ति आधिकाम् ( वृ० प० ६०५) २८. तु देवापिया! गोसाले मंगलिपुत्ते जि जिणप्लावी जाव विहरिए । ८ २९. एस णं गोसाले चेद मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए । ८३०. समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ । ८३१. महया अणिड्डी- असक्कारसमुदएणं ममं सरीरगस्स नीहरणं करेज्याह ८३२. एवं वदित्ता कालगए ( श० १५/१४१ ) तए णं आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता ८३. हालाहलाएं कुंभकारी कुंभकारावणस्थ दुवारा पिति, पित्ता ८३४. हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्भदेसभाए ८. आहिंति आनिहित्ता गोसालस मंखलिपुत्तस्स सरीरगं ३६. देवे बंधति बंधिता तो मुहे उभंति उभित्ता ८३० साली नगरीए [संपादन] नाव (सं० पा०) पहे कविकट्टरेमाणा ३०. गीयं णीयं स उम्पोसेमामा उम्पोसेमाणा एवं वयासी ८३९. नो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिण लावी जाव विहरिए । ८४०. एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए । भ० श० १५ ३५७ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४१. समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ८४२. सवह-पडिमोक्खणगं करेंति, करेत्ता ८४३. दोच्चं पि पूया-सक्कार-थिरीकरणठ्याए ८४१. श्रमण भगवंत महावीर जी, जिन जिन-प्रलापो जाण । जिन रव प्रकाशता छता, विचरै छै जगभाण ॥ ८४२. संस कराव्या जे हता, तास शपथ कहिवाय । तेहनै प्रति मोक्षण करै, सम पाली नै ताय ।। ८४३. द्वितीय वार पिण जे वली, पूजा ने सत्कार । ते स्थिर करिवा नै अरथ, थेर आजीवक धार । ८४४. मंखलिसुत गोशाल नां, डावा पग नी जोय। परही छोड़े दोरड़ी, रज्जु छोड़ी ने सोय ।। ८४५. कुंभकारी हालाहला, तसु कुंभकारि-हट जेह। द्वार तणांज कपाट प्रति, ताम उधाई तेह ।। ८४६. द्वार कपाट उघाड़ने, मंखलि-सुत गोशाल । तसं तनु सुरभि गंध जले, न्हवरावै तिहकाल ।। ८४७. तिमज जाव मोटी ऋद्धे, सत्कृत समुदायेह । मंखलिस्त गोशाल न, तनु नुं नीहरण करेह ।। भगवान के रोगांतक प्रादुर्भाव पद । ८४८. श्रमण भगवंत महावीर तब, अन्य दिवस किहवार । सावत्थी नगरी थकी, चैत्य कोठग थी धार ।। ८४६. निकलै निकली बाहिरै, जनपद देश विषेह। ___ करै विहार प्रतै तदा, विचरंता गुणगेह ।। ८५०. तिण काले नै तिण समय, मिढिय ग्रामज नाम । नगर हंतो रलियामणो, तसं वर्णक अभिराम ।। ८५१. मिढिय ग्रामज नगर नैं, बाहिर कूण ईशाण। साणकोठ इहां चैत्य थो, तसु वर्णक अति जाण ।। ८५२. जावत पृथ्वी शिलपट्रक, साणकोठ नामेह । चैत्य तणे ते दूर नहीं, नथी ढकडू जेह ॥ ८५३. इहां इक मोटो मालुका-कच्छ गहन जे हंत । कृष्ण वर्ण काली प्रभा, जावत निकुरंबभूत ।। ८५४. पत्र पुष्प फलवंत जे, हरित शोभतो जेह ।। लक्ष्मी करी घणु-घणं, उपशोभित तिष्ठेह। ८५५. ग्राम नगर मिढिय तिहां, नाम रेवती जास। जे गाथापतिणी वस, ऋद्धिवान धन राश। ८५६. जावत अपरिभूत तब, श्रमण भगवंत महावीर। अन्य दिवस प्रभुजी कदा, सुरगिर जेम सधीर ।। ८५७. पूर्वानुपूर्वे तदा, विचरंता बड़वीर । जावत मिढियग्राम जे, नगर तिहां प्रभु हीर ।। ८५८. साणकोठ जिहां चैत्य छ, जाव परिषदा आय । निज-निज स्थानक प्रति गई, वंदी श्री जिनराय ।। ८५६. श्रमण भगवंत महावीर नां, तनु नै विष तिवार । विपुल रोग आतंक ही, प्रगट थयो अवधार ।। ८६०. उज्जल जाव दुखे करी, सहि जेहन होय । पित्त ज्वरे करि सर्वथा, व्याप्यु तनु अवलोय ।। ८४४. गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वामाओ पादाओ सुंबं मुयंति, मुइत्ता ८४५. हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स दुवार वयणाई अवंगुणंति, ८४६. अवंगुणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं सुर भिणा गंधोदएणं ण्हाणेति, ८४७. तं चेव जाव महया इसिक्कारसमुदएणं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स नीहरणं करेंति। (श० १५२१४२) ८४८. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ ८४९. पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० १४११४३) ८५०. तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था–वण्णओ। ८५१. तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तर पुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं साणकोट्टए नाम चेइए होत्था--वण्णओ। ८५२. जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूरसामंते ८५३. एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था-किण्हे किण्होभासे जाव महामेहनिकुरंबभूए ८५४. पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति । ८५५. तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नाम गाहावइणी परिवसति--अड्डा ८.५६. जाव बहुजणस्स अपरिभूया। (श० १५११४४) तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि ८५७. पुव्वाणुपुचि चरमाणे जाव (सं० पा०) जेणेव मेंढियगामे नगरे ८५८. जेणेव साणकोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ जाव परिसा पडिगया। (श. १५२१४५) ८५९. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायके पाउन्भूए। ८६०. उज्जले जाव (सं० पा०) दुरहियासे पित्तज्जरपरि गयसरीरे ३५८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६१. दाह ऊपनों छै जस्, एहवा प्रभु विचरंत । लोही रूपज मल कर, लोही ठाण पहुंत। ८६२. ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य फुन, शुद्र वर्ण ए च्यार ।। मुखै वागरै इह विधे, सांभलजो विस्तार । ८६१. दाहवक्कंतिए यावि विहरति, अवि याई लोहिय वच्चाई पि पकरेइ। 'लोहियवच्चाईपि' ति लोहितवाँस्यपि-रुधिरा त्मकपुरीषाण्यपि करोति । (वृ० प०६९०) ८६२. चाउवण्णं च णं वागरेति 'चाउवण्णं' ति चातुर्वर्ण्य-ब्राह्मणादिलोकः । (वृ०प० ६९०) ८६३. एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे ८६४. अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाह वक्कंतिए ८६५. छउमत्थे चेव कालं करेस्सति । (श० १५।१४६) ८६३. श्रमण भगवंत महावीर ही, मंखलिसुत गोशाल । तेहने तप तेजे करी, व्याप्यो छतो विशाल ।। ८६४. जे षट मासज अंत ही, पित्त वरे करि जाण । व्याप्यं समस्तपणे तनु, दाह ऊपनों आण ।। ८६५. ते माटै निश्चय करी, छद्मस्थ थकोज जाण । करिस्यै कालज इहविधे, वदै वर्ण चिहु वाण ।। मुनि सिंह का मानसिक दुःख पद ८६६. तिण काले नैं तिण समय, श्रमण भगवंत महावीर। तसु शिष्य सीहो नाम जे, वर अणगार सुहीर ।। ८६७. प्रकृति स्वभावे भद्र मुनि, जाव विनीत गुणेह । मालुक कच्छ नैं दूर नहीं, नथी ढुकडू जेह । ८६८. छठ-छठ अंतर रहित तप, बाहू ऊद्धं करे । जावत विचरे इह विधे, आतापन मुम तह ।। ८६६. सोह अणगार तणे तदा, ध्यानांतर वर्तमान । ए एहवे रूपेज तसु, जाव ऊपनो जाण ।। ८७०. इम निश्वै करि मांहरा, धर्माचारज धीर। धर्म तणां उपदेशका, श्रमण भगवंत महावीर ।। ८७१. प्रगट थयो तसु तनु विष, विपुल रोग आतक । उज्जल जाव छद्मस्थ ही, करिस्य काल मृतंक ।। ८७२. कहिस्य इम अन्यतोथिका, छद्म थका कृत काल । इम एहवे रूपे मने, मानसीक दुख न्हाल ।। ८६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महा वीरस्स अंतेवासो सीहे नामं अणगारे---- ८६७. पगइभद्दए जाब विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूर सामंते ८६८. छठें छठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगि ज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरति । (श० १५११४७) ८६९. तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणतरियाए बट्टमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था । ८७०. एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स ८७१. सरीरगंसि विउले रोगाय के पाउन्भूए-उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सति । ८७२. वदिस्संति य णं अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव कालगएइमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं ८७३. अभिभूए समाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चो रुभित्ता ८७४. जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अंतो-अंतो अणुपविसइ, ८७५. अणुपविसित्ता महया-महया सद्देणं कुहुकुहुस्स परुण्णे । (श० १५२१४८) ८७३. मानसिक दुख पराभव्यो, आतापन भूमीज । तेह थकी निकले तदा, भूमि थकी निकलीज । ८७४. जिहां मालुका कच्छ छै, आवै तिहां चलाय । मालुक कच्छ विषे मुनि, करै प्रवेशज ताय ।। ८७५. एम प्रवेश करी तिहां, मोटे-मोटे साद । हह कूकू शब्दे करी, रोवै मन असमाध ।। भगवान द्वारा आश्वासन पद ८७६. हे आर्यो ! आमंत्रि इम, श्रमण भगवंत महावीर। श्रमण निग्रंथ बोलाय ने, इम कहै सुरगिरि धीर ।। ८७६. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं वयासी भ० श०१५ ३५९ Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal use only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७७. आय! इस निश्चे करो मांहरो शिष्य सुजाण । सीहो नाम अणगार ते, भद्रक प्रकृति पिछाण ॥ ७ तिमहिज सपतो जाणं जावत ही अधिकेह रोयो आर्यो ! गच्छ तुम्ह, सीह प्रतै तेह || तब ते श्रमण निग्रंथ वह धमण भगवंत महावीर इम को छोज प्रभु प्रतं वंदे नर्म वजीर ॥ ८८० जिन बंदी शिर साणकोट जे नामनें प्रभु पासा भी जाम । चैत्य थी निकले निकली ताम ॥ 3 छै, । १. जहां मालुका-कच्छ जिहां सीहो अणगार आने आयी करी, सीह प्रति इम कहे सार ॥ ८८२. सीहा ! धर्माचार्य तुझ, धर्माचार्य तुझ बोलावे जगनाथ । तब सीहो अणगार ते, श्रमण निग्रंथ संघात ॥ ८३. मालक कच्छ भी नीकले निकली ने मतिवंत । साणकोठ जिहां चैत्य है, जिहां प्रभु तिहां आवंत ॥ ८८४ प्रभु पासे आवी करी, वीर दक्षिण नां पासा थकी, दिये ८८५ प्रदक्षिणा देई करी, जाव करे पर्युपास हे सीहा ! इह विध प्रभु संबोधन दे तास || ८६. श्रमण भगवंत महावीर जी, सीह प्रति इम कहै वान । ते निश्चै तुझ ने सीहा ! झाणंतर वर्त्तमान ॥ ८८७ ए एहवे रूपे जिके, जाव तो अधिकेह | ते निश्च करि हे सीहा ! अर्थ समर्थ छै एह ? ८८ हंता अत्यि सीह कहे. हे सीहा ! निश्चेह मंखलिसुत गोशाल नैं व्याप्यो तप तेजेह ॥ 1 प्रतै त्रिण वार । प्रदक्षिण सार ॥ ते षटमासज अन्त हो, जाव करूं नहि काल । हूं अन्य साडा पनर ही वर्ष लगे सुविशाल ॥ ८०. जिन शोभन गज नीं परै, विचरीस जनपद सार । ते मार्ट जाओ तुम्हे, हे सीहा ! इहवार || ८६१. ग्राम नगर मिंढिय प्रति, नाम रेवती जास । गाधापतिणी तेहनां घर नं विषे विमास || ८१२ तिहां गाथापणी रेवती तिण मुझ अर्थ तेथ | दोय कपोत शरीर प्रति, संस्कारया घर हेत ॥ ८७७. एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी सीहे नाम अणगारे पग इभद्दए ८८. तं चैव सव्वं झाणियन्त्र जाव (सं० पा० ) परुष्णे तं गच्छ णं अज्जो ! तुम्भे सोहं अणगारं सद्दाह । (श० १४०९४९) ८७९ त णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिया सागको गाओ याम पडिनिमंति पडिनिक्खमित्ता ८८०. १. मावाकन्छए, जेणेव सी अणगारे ते उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सीह अणगारं एवं वयासी --- ८८२. सीहा ! धम्मायरिया सहावेंति । ( ० १५ १५०) तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं निग्गंथेहि सद्धि ८८३. मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जे सागको बेइए, जेगेव सम भगयं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, ८८४. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिम-पवाहिणं ८८५. जाव पज्जुवासति । ( ० १२।१५१) सोहादि । ०६. भगवं महावीरे सीह अणगार एवं वयासी से नूणं ते सीहा ! झाणंत रियाए वट्टमाणस ८८७ अयमेयारूवे जाव (सं० पा० ) परुण्णे । से नूणं ते सीहा ! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइट्ठे समाणे ८८९. अंतो छण्हं मासाणं जाव (सं० पा० ) कालं करेस्सं । अहम् मद सोलस बासाई ८९० जिसे ही विहरिस्यामि तं गच्छतुमं सीहा ! ८९१ मेंढियगामं नगरं, रेवतीए गाहावतिणीए गिहं, ९२. तर रेवतीए महावविपीए दुवे को सरीरा उवखडिया " बा० वा० - इहां वृत्तिकार कह्य श्रूयमाणमेवार्थं केचिन्मन्यन्ते । दुवे कवोया - इत्यादिक नो केइ एक जिसो शब्द कह्यो तिसोहीज अर्थ माने ए प्रथम अर्थ टीका में को छै । वलि वृत्तिकार का - अनेरा आचार्य इम कहे छे कपोतकः पक्षिविशेषः तेह्नों पर वर्ण नां सरीखापणां थकी जे फल ते कुष्मांड नां दोय फल दुवे कवया इत्यादेः धूमानमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते अन्ये त्वाहु: - कपातकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्ण साधर्म्यात्ते कपोते – कूष्मांडे ह्रस्वे कपोते कपोतके तेच ते शरीरे वनस्पतिजीव देहात कपोतशरीरे ३६० भगवती जोड़ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्हांना तेहिज शरीर वनस्पति जीव देहपणां थकी कोहला नां फलहीज अथवा कपोत अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधयदेिव कपोनां शरीर नी पर धूसर वर्ण नां सरीखापणां थको जे ते कपोत फल कोहला नां तकशरीरे कूष्माण्डफले एव ते उपसंस्कृते---संस्कृते । फलहीज ते संस्कारया, एतले कोहलापाक जाणवू-ए अर्थ अनेरै आचार्य कियो । (वृ०प०६९०,६९१) ८६३. ते संघाते मांहरे, अर्थ प्रयोजन नांहि । ८९३. तेहिं नो अट्ठो, जे बहु पापपणां थकी, आधाकर्मी ताहि ।। 'तेहिं नो अट्ठो' त्ति बहुपापत्वात् । (वृ० प० ६९१) ८६४. बली अनेरो जेह छै, ते पहिले दिन कीध । ८९४. अत्थि से अण्णे पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमार्जारकृत कुक्कड़ मंस जे, ते तं आण प्रसीध ।। मंसए, तमाहराहि, 'पारिआसिए' त्ति परिवासितं ह्यस्तमित्यर्थः । (वृ०प० ६९१) वा०—इहां 'मज्जारकडए' मार्जार इत्यादिक नों पिण केई एक श्रूयमाणहीज वा०—'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थ अर्थ माने छै, ए प्रथम अर्थ वृत्तिकार कह्यो । जे इम माने, तेहनो मानवो विरुद्ध छ। मन्यन्ते, पंचंद्रिय नों मांस साधु नै अभक्ष छै ते भणी। वलि प्रश्नव्याकरण अध्येन ६ अमज्जमंसासिया साधू नै कह्या छ, ते माट श्रूयमाण अर्थ करै ते मिलं नहीं। वलि वत्तिकार कह्यअनेरा आचार्य इम कहै ----मार्जार वायुविशेष, तेह अन्ये त्वाहुः--मार्जारो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय उपशमन नै निमित्ते कीधो-संस्कारयो ते मार्जारकृत । वलि अनेरा आचार्य कृतं—संस्कृतं मारिकृतम्, अपरे त्वाःकहे-मार्जार-विरालिका नामै वनस्पति विशेष, तिणे करी कीधो एतले भावित, मार्जारो-विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृत-भावितं यत्तत्तथा, कि तत् ? इत्याहते कुर्कुटमांसकं बीजपूरक कटाहं एतलै बीजोरापाक । तेह प्रतै बहिरी आण । 'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरक कटाहम् ।(वृ० ५० ६९१) ८६५. ते संघाते माहरे, अर्थ प्रयोजन जाण । ८९५. एएणं अट्ठो। (श. १५।१५२) ते निष्पापपणां थकी, एम कहै प्रभु वाण ।। निरवद्यत्वादिति । (वृ० प० ६९१) सिंह द्वारा रेवती से भैषज्य आनयन पद ८६६. तब सीहो अणगार ते, श्रमण भगवंत महावीर । ८९६. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं इम को छतेज हरषियो, तुष्ट जाव हृद हीर ।। एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ट जाव (सं० पा०) हियए ८६७. श्रमण भगवंत महावीर प्रति, वंदै नमै विनीत । ८९७. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता वंदी स्तुती करि नमी, त्वरितपणांज रहीत ।। अतुरियं ८६८. अचपल फुन असंभ्रांत ही, मुंहपोत्तिया ताम । ८९८. अचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता पडिलेहै पडिलेहि नैं, जिम जे गोतम स्वाम ।। जहा गोयमसामी ८६६. तिम कहिवो जावत जिहां, श्रमण भगवंत महावीर । ८९९. जाव (सं० पा०) जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव त्यां आवै आवी करी, वंदै नमै सुहीर ।। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, १००. प्रभ वंदी शिर नाम नैं, वीर पास थी जोय । ९००. वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स चेत्य साण कोटग थकी, निकले निकली सोय ॥ अंतियाओ साणकोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता १०१. त्वरितपणां करि रहित जे, जावत जिहां छै जेह । ९०१. अतुरियं जाव (सं० पा०) जेणेव मेंढियगामे नगरे ग्राम नगर मिढिय तिहां, आवै आवी तेह ॥ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ६.२. ग्राम नगर मिढ़िय तिहां, थई मध्यमध्येह । ९०२. मेंढियगामं नगरं मझमझेणं जेणेव रेवतीए गाहाजिहां रेवती नाम जे, गाथापतिणी गेह ।। वइणीए गिहे ६०३. तिहां आवै आवी करी, जेह रेवती जाण । ९०३. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रेवतीए गाहावतिगाथापतिणी में घरे, पेठो मुनि गुणखाण ।। ___णीए गिहं अणप्पविठे। (श०१५।१५३) ६०४. तिण अवसर सा रेवती, सीह अणगार प्रतेह । ९०४. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं एज्जआवंतो देखी तदा, देखी नै हरषेह ।। माणं पासति, पासित्ता हट्ट६०५. वलि संतोष लघु घणु, शीघ्रहीज सुविचार । ९०५. तुदा खिप्पामेब आसणाओ अब्भुटठेइ, अब्भुठेत्ता आसण थी ऊठ तदा, ऊठीनै तिहवार ।। भ० श० १५ ३६१ Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. सीह नाम अणगार नैं, सात-आठ पग धार । ९०६. सीहं अणगारं सत्तटु पयाई अणुगच्छइ, सन्मुख जावे ते तदा, सन्मुख जई तिवार ।। अणुगच्छित्ता ६.०७. तीन वार दक्षिण तणां, पासा थकी पिछाण । ९०७. तिवखुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति प्रदक्षिण देई करी, एम वदै वर वाण ।। नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी६०८. आज्ञा द्यो देवानुप्रिय ! तुम्ह आव्या मुझ गेह । ९०८. संदिसंतु णं देवाणु प्पिया ! किमागमणप्पयोयणं ? किसु प्रयोजन कार्य छै ? कही बतावो तेह ।। (श० १५।१५४) ६०६. तब सीहो अणगार ते, रेवती प्रति कहेह । ९०९. तए णं से सीहे अणगारे रेवति गाहावइणि एवं इम निश्चै करिनै तुम्है, अहो देवानुप्रियेह ! वयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! ६१०. श्रमण भगवंत महावीर ने, अर्थे जे अवलोय । ९१०. समणस्स भगवओ महावीरस्स अट्टाए दुवे कवोयदोय कपोत शरीर नैं, संस्कारचा छै सोय ।। सरीरा उवक्खडिया। ६११. तिणे करी नहिं अर्थ मुझ, छै अन्य तेह थकीज। ९११. तेहिं नो अट्टो, अस्थि ते अण्णे पारियासिए कीधो पहिला दिन तणो, मार्जारकृत सहीज ।। मज्जारकडए ६.१२. कुकुड़मंस कहीजिये, बीजपूरक गिर ताय । ९१२. कुक्कुडमंसए एयमाहराहि कहै बीजोरापाक छै, ते मुझ प्रति बहिराय ।। ६१३. ते संघाते अर्थ मुझ, तदा रेवती जेह । ९१३. तेणं अट्ठो। (श० १५२१५५) गाथापतिणी सीह प्रति, इह विधि वयण वदेह ।। तए णं सा रेवती गाहावइणी सीहं अणगारं एवं वयासी६१४. कूण सीहा ! ज्ञानी तिको, वा तपस्वीज तिणेह । ८१४. केस णं सीहा ! से नाणी वा तपस्वी वा, जेणं तुझ प्रति झट ए अर्थ मुझ, रहकृत प्रथम कहेह ।। तव एस अट्ठे मम ताव रहस्सकडे हव्वमवखाए। वा० ---कुण हे सीहा ! तेह ज्ञानी ते ज्ञान बले करी अथवा तपस्वी ते तप बले करी जेणे तुझ नै एह अर्थ म्हारो पहिलाज रहस्य -एकांत कृत कुष्मांडक फल पाक लक्षण उतावलो कह्य । ६१५. जाण छै तूं जेह थकी, जिम खंधक अधिकार । ९१५. जओ णं तुम जाणासि ? (श० १५।१५६) जावत जेह प्रभु थकी, हूं जाणूं छू सार ।। एवं जहा खंदए जाब (सं० पा०) जओ णं अहं (श० १५११५७) ६१६. तिण अवसर सा रेवती, सीह अणगार समीप । ९१६ तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स एह अर्थ निसुणो करी, हरष संतोष उद्दीप ।। अंतियं एयम8 सोच्चा निसम्म हट्ठतुद्धा ६१७. जिहां भात नो घर तिहां, आवै आवी ताम । ९१७. जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पात्र प्रतै छींका थकी, मूकै मूकी ठाम ।। पत्तगं मोएति, मोएत्ता 'पत्तगं मोएति' त्ति पात्रक-पिठरकाविशेषं मुञ्चति सिक्कके उपरिकृतं सत्तस्मादवतारयतीत्यर्थः । (वृ० प० ६९१) ६१८. जिहां सीहो अणगार त्यां, आवै आवी ताय । ९१८. जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहा नैं पडिघे तिको, सम्यक सहु बहिराय ।। सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्म निस्सिरति । (श० १५/१५८) ११६. तिण अवसर ते रेवती, गाथापतिणी जेह । ९१९. तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धेण तेह द्रव्य शुद्ध करी, जावत दान करेह ।। दायग जाव (सं० पा०) दाणेणं ६२०. जे सीहा अणगार प्रति, प्रतिलाभ्येज छतेह । ९२०,२१. सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्ध देवायू बांध्यु तदा, जेम विजय तिम एह ।। जहा विजयस्स ६२१. वसुधारा जे विजय नैं, प्रगट थया दिव्य पंच । जिम का तिमहिज इहां, सगलं कहि संच ।। ३६२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२. जावत जीवित जन्म मुं, फल लाधु तिण सार । गाथापतिणी रेवती, इम कहै वारंवार ।। ६२३. गाथापतिणी रेवती, तसु घर थी तिहवार । वर सीहो अणगार ते, निकले निकली सार ।। ६२४. ग्राम नगर मिढिय तण, मध्योमध्य थइ जाण । जिम गोतम जावत तिमज, देखाडै भत्तपाण ।। ९२२. जाव (सं० पा.) जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए रेवतीए गाहावतिणीए । (श० १५३१६०) ९२३. तए ण से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता ९२४. में ढियगाम नगर मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाब भत्तपाणं पडिदंसेति, ९२५. पडिदंसेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स पाणिसि तं सव्वं सम्म निस्सिरति । (श०१५।१६१) ६२५. भात पाण देखाड़ने, प्रभु कर विषेज तेह । पाक आहार मूकै तदा, सघलो सम्यगपणेह ।। भगवान का आरोग्य पद १२६. श्रमण भगवंत महावीर तब, मूर्छा रहित जिनेश । जावत अति तष्णा रहित, बिल जिम पन्नग प्रवेश ।। ६२७. तिमहिज आत्माइं करी, शरीर-कोठा मांय । सीह आण्युं ते आहार प्रति, प्रक्षेपै जिनराय ।। ६२८. श्रमण भगवंत महावीर तव, आहारे छते ते आहार । विपुल रोग आतंक ही, शीघ्र मिट्यो तिहवार ।। ९२६. तए णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव (सं० पा०) अणज्झोववन्ने बिलमिव पन्नगभूएणं ९२७. अप्पाणणं तमाहारं सरीरकोटगंसि पक्खिवति । (श०१५।१६२) 'तं सिंहानगारोपनीतमाहारं शरीरकोष्ठके प्रक्षिपतीति'। (वृ० प० ६९१) ९२८. तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते, ९२१. हट्टे जाए अरोगे बलियसरीरे । 'हठे' त्ति 'हृष्ट:' निाधिः 'अरोगे' त्ति निष्पीडः । (वृ० ५० ६९१) ६२६. हृष्ट व्याधि करि रहित थयं, अरोग पीड़ रहीत । वलि बलवंत शरीर इम, प्रभु तनु थयो पुनीत ।। गीतक छंद ९३०. संतोष पाम्या श्रमण सह, संतोष पामी अजिका। संतोष पाम्या सर्व श्रावक, इमज हरषी श्राविका । संतोष पाम्या देव बहु, इमहीज सुरवर-अंगना । सुर सहित मनु फुन असुर तुट्ठा, हर्षवंत थया जना।। ९३०. तुट्टा समणा, तुट्ठाओ समणीओ, तुट्ठा सावया, तुट्ठाओ सावियाओ, तुट्टा देवा, तुट्टाओ देवीओ, सदेवमणुयासुरे लोए तुझे। ९३१. हट्टे जाए समणे भगवं महावीरे, हठे जाए समणे भगवं महावीरे। (श० १५२१६३) 'हठे' त्ति नीरोगो जात इति । (व०प०६९१) ९३१. श्रमण भगवंत महावीर जी, थयाज हृष्ट निराम । तिण कारण श्रमणादि बहु, हृष्ट तुष्ट मन पाम ।। सर्वानुभूति उपपाद पद ९३२. हे भदंत ! इह विधि कही, भगवंत गोतम नाम । श्रमण भगवंत महावीर प्रति, वंदै फुन शिर नाम ।। ६३३. बंदी शिर नामी करी, इह विध बोल वाय । इम देवानुप्रिय तणों, अंतेवासी ताय ।। ६३४. पूर्व देश नुं ऊपनों, सर्वानुभूति नाम । प्रकृति भद्र अणगार ते, जाव विनय गुणधाम ।। ९३५. हे भदंत ! ते मुनि तदा, मंखलिसुत गोशाल । तिण तप तेजे भस्म नी राशि किये करि काल ।। ९३२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, ९३३. वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणु प्पियाणं अंतेवासी ९३४. पाईणजाणवए सव्वाणुभूती नाम अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, ९३५. से णं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे भ० श०१५ ३६३ Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६. कहिं गए ? कहिं उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी ९३७. पाईणजणवए सवाणुभूती नामं अणगारे पग इभदए जाव विणीए । ९३८. से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेण तेएणं भासरसीकए समाणे ९३९. उडुढं चंदिम-सूरिय जाव बंभ-लंतक-महासुक्के कणे वीइवइत्ता सहस्सारे कपणे ९४०. देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। ९४१. तत्थ णं सव्वाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस सागरो बमाई ठिती पण्णत्ता। ९४२. से णं भते ! सव्वाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं ९४३. जाव (सं० पा०) महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिति । (श० १५।१६४) ६३६. किहां गयो किहां ऊपनो? तब प्रभु भाखै सोय । इम निश्चै करि गोयमा ! अंतेवासी मोय ।। ६३७. पूर्व देश नों ऊपनों, सर्वानुभूति नाम । प्रकृति भद्र अणगार ते जाव विनय गुण धाम ।। ६३८. तेह मुनी तिण अवसरे मंखलित गोसाल । तिण तप तेजे भस्म नी राशि किये करि काल ॥ ६३६. ऊंचो रवि शशि जाव ब्रह्म, लांतक महाशुक्र एह । कल्प प्रतै लंघी करी, सहस्सार कल्पेह ॥ ६४०. देवपण जे ऊपनों, केइयक सुर नी तेथ । अष्टादश सागर तणी, स्थिति परूपी जेथ ।। ६४१. तिहां सर्वानुभूति जे, सुर नी पिण तिण ठाम । अष्टादश सागर तणी, स्थिती परूपी आम ।। ६४२. सर्वानुभूति सुर प्रभु ! ते सुरलोक थकीज । आउखा प्रति क्षय करी, फुन स्थिति क्षय करि हीज ।। ६४३. जाव महाविदेहक्षेत्र में, तेह सीझस्य ताम। जाव सर्व दुख अंत ही, करिस्य ते गुणधाम । सुनक्षत्र उपपाद पद ६४४. इम देवानुप्रिय तणों, निश्चै करि शिष्य जेह। कोसल देश नों ऊपनों, सुनक्षत्र नामेह ।। ६४५. प्रकृतिभद्र अणगार ते, जाव विनीत विशाल । हे भदंत ! ते मुनि तदा, मंखलिसुत गोशाल ।। ६४६. तप तेजे करि तेहने, परिताप्येज छतेह । काल अवसरे काल करि, किहां गयं मुनि जेह ॥ ६४७. किहां बली जे ऊपनों ! तब भाख भगवंत । इम निश्चै करि गोयमा! मुझ शिष्य अति गुणवंत ।। १४८. सुनक्षत्र नामै मुनि, भद्र प्रकृति सुविशाल । जाव विनीत ते मुनि तदा, मंखलि-सुत गोशाल ।। ६४६. तेणे तप तेजे करी, परिताप्येज छतेह । जिहां मुझ समीप छै तिहां, आवै आवी जेह ।। ६५०. वंदै शिर नामै तदा, वंदी नमी शिरेह । पोते महाव्रत पंच ही, उचरै उचरी तेह ।। ६५१. समणा फुन समणी प्रतै, खामै खामी ताम । आलोई फुन पड़िकमी, अति चित्त समाधि पाम ।। ६५२. काल अवसरे काल करि, जावत चंदिम सूर । जावत आणय पाणय, आरण कल्प पंडूर ॥ ६५३ ते सहु प्रति लंघी करी, अच्युत कल्प विषेह । देवपण ते ऊपनों, महामुनी गुणगेह ।। ६५४. किताक सुर नी स्थिति तिहां, दधि बावीस कहीस । सुनक्षत्र सुर नी पिण तिहां, स्थिति सागर बावीस ।। ६५५. शेष सर्वानुभूती नं, आख्यो जेम उदंत । तिमहिज कहिवू जाव ही, करिस्यै सहु दुख अंत ।। ३६४ भगवती जोड़ ९४४. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं ९४५. अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए । से णं भंते ! तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं ९४६. तवेणं तेएणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? ९४७. कहिं उववन्ने ? एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी ९४८. सुनक्खत्ते नाम अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं ९४९. तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ९५०. वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महब्बयाई आरुभेति, आरुभेत्ता ९५१. समणा य समणीओ य खामेति, खामेत्ता आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते ९५२. कालमासे कालं किच्चा उड्ढे चंदिम-सूरिय जाव आणय-पाणयारणे कप्पे ९५३. वीइवइत्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने। आ ९५४. तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोबमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं सुनक्खत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागरोबमाई। ९५५. सेसं जहा सव्वाणुभूतिस्स जाव अंत काहिति । (श० १५।१६५) Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशालक का भवभ्रमण पद ६५६. इम निश्चै करि आपरो अंतेवासी कुशोस । ९५६. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अतेवासी कुसिस्से गोसाले मंखलिसूत गोशाल जे, हे भगवंत ! जगीस ।। नाम मंखलिपुत्ते से णं भंते ! ६५७. मंखलिसुत गोशाल ते, काल मास करि काल । ९५७. गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहि किहां गयो किहां ऊपनों? हिव जिन उत्तर न्हाल ।। गए ? कहिं उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ६५८. मम अंतेवासी कुशिप्य, इम निश्चै करि जाण । ९५८. ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते मंखलिसुत गोशाल जे, श्रमणवधक पहिछाण ।। समणघायए वा..... इहां गोशाला नै भगवान कह्यो- म्हारो अंतेवासी कुशिष्य गोशालो मंखलिपुत्र । इण वचने पहिला शिष्य हुँतो, दीक्षा दीधी तिणसू कुशिष्य कह्यो। भगवती शतक ९ उद्देश ३३ में जमाली नै पिण कुशिष्य कह्यो छ। तिम इहाँ कुशिष्य कह्यो । कपूत कहिवै पूत टेहरयो । तिम कुशिष्य कहिलै पहिला शिष्य ठेहरयो । न्याय नेत्रे विचारी जोइज्यो।' (ज० स०)। ६५६. जावत हि छद्मस्थ छतं, काल मास करि काल । ९५९, जाव छ उमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ढं ऊंचो शशि रवि जाव ही, अच्युत कल्प विशाल ।। चंदिम-सूरिय जाव अच्चुए ६६०. देवपण तिहां ऊपनों, केइक सुर नी तेथ । ९६०. कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं दोय बीस सागर तणी, स्थिती परूपी जेथ ।। देवाणं बावीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । ६६१. सुर गोशाल तणों तिहां, बावीस दधि स्थिति ख्यात । ९६१. तत्थ गं गोसालस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाई हे प्रभु ! ते सुरलोक थी, सुर गोणाल विख्यात ।। ठिती पण्णत्ता। (श० १५२१६६) से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ देवलोगाओ ६६२. आयु क्षय करि जाव ही, किहां ऊपजस्ये एह ? ९६२. आउक्खएणं......"जाव (सं० पा०) कहिं उववज्जिजिन भाखै गोयम ! एहिज, जंबूद्वीप नामेह ।। हिति? १६३. ते द्वीपे भरतक्षेत्र में, विझगिरि नामेह । ९६३. गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विझगिरितास पायमूले प्रगट, पंड नाम देशेह ।। पायमूले पुंडेसु जणवएसु १६४. सयद्वार नगरे सुमति नप, भद्रा भार्या ताय । ९६४. सयदुवारे नगरे संमुतिस्स रण्णो भद्दाए भारियाए उपजस्यै तसु कुक्षि में, पुत्रपण ए आय ।। कुच्छिसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । ६६५. तेह तिहां नव मास ही, बहु प्रतिपूर्ण जाण । ९६५. से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव यावत व्यतिक्रम्ये थके, जावत ही पहिछाण ।। (सं०पा०) वीइक्कंताणं जाव ६६६. सुरूप बालक जनमस्यै, फन जे रात्रि विषेह। ९६६. सुरूवे दारए पयाहिति । (श०१५।१६७) जे बाल प्रत जनमस्यै, ते निशि में पुन्येह ।। जं रयणि च णं से दारए जाइहिति तं रयणि ६६७. जेह नगर शतद्वार नै, भ्यंतर सहितज बार । ९६७. सयदुवारे नगरे सभितरबाहिरिए भारग्गसो य भार परिमाण थकीज जे, विंशति शत पल भार । वा० ---भार परिमाण थकी जे पुरुष नै बहिवा जोग्य एतले पुरुष थकी वा.---'भारग्गसो य' त्ति भारपरिमाणत' भारश्च--- उपाडणी आवै एतला बोझ नै भार कहियै । प्रथम अर्थ तो ए जाणवो । अथवा भार भारकः पुरुषोद्वहनीयो विंशतिपलशतप्रमाणो वेति । ते दोय हजार पल नों एक भार । (वृ० प० ६९१) ते भार नों मान कहै छै—पांच चिरमो नो एक मासो, सोल मासा रो एक स्यात् गुञ्जाः पञ्चभाषकः । सोनइयो, च्यार सोनइया रो एक पल, सौ पल की एक ताकड़ी, वीस ताकड़ी रो एक ते तु षोडश कर्षोऽक्ष: पलं कर्षचतुष्टयम् ।। भार-एतले दोय हजार पल नो एक भार कहीज इति हेम तृतीय कांडे । विस्तः सुवर्णो हेम्नोऽक्षे कुरुविस्तस्तुतत्पले । तुला पलशतं तासां विंशत्या भार आचितः ।। (हेमकोष ३३५४७-५४९) भ० श. १५ ३६५ Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८. कुंभप्रमाणे सुजघन्य कुंभ, आढक साठ सुइष्ट । मध्यम कुंभ आढक असी. शताढक कुंभ उत्कृष्ट ।। ९६८. कुंभग्गसाच कुंभग्गसो य' ति कुम्भो-जघन्य आढकानां षष्ट्या मध्यमस्त्वशीत्या उत्कृष्टः पुनः शतेनेति । (वृ० प० ६९१) वा० - चतुभिः कुडवैः प्रस्थः प्रस्थैश्चतुभिराढकः । (हेमकोष ३१५५०) वा०-हिवै कुंभ नों प्रमाण कहै छ-दोय असती नी एक पुसली, दोय पुसली नी एक सेइ, च्यार सेइ नों एक कुडब, च्यार कूडब नों एक पाथो, च्यार पाथा नों एक आढक, अनै साठ आढक नुं ए जघन्य कुंभ, १०० आढक नुं उत्कृष्ट कुंभ । ६६६. पद्म वृष्टि फुन रत्न नी वष्टि वरससै सार। तिण अवसर ते बाल नां, मात-पिता तिहवार ।। ९६९. पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति । (श० १५२१६८) तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ९७०. एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते जाव (सं०पा०) संपत्ते बारसमे दिवसे अयमेयास्वं ९७१. गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज्ज काहिति--जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि ९७२. सयदुवारे नगरे सम्भितरबाहिरिए जाव (संपा०) रयणवासे बुझे। ९७३. तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं महा पउमे-महापउमे । ९७४. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज करेहिति महापउमे ति। (श० १२१६९) ९७५. तए णं तं महाप उमं दारगं मम्मापियरो सातिरेगट्ठ वासजायगं जाणित्ता ९७६. सोभणसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहुत्तंसि ६७०. दिवस इग्यारम अतिक्रम्ये, जावत पाम्ये छतेह । दिवस बारमा नै विषे, ए एहवे रूपेह ।। ९७१. गुणे करीने एहवो, गुणनिष्पन जे नाम । करिस्यै म्हारै जे भणी, ए जनम्ये छते ताम ।। ९७२. एह नगर शतद्वार नैं, भ्यंतर महितज बार । जाव रत्न रूप मेघ नीं, वृष्टि हुई तिहवार ।। ६७३. तिणसू होवो अम्ह तणां, ए बालक नो नाम । महापद्म महापद्म ए, पवर नाम अभिराम ।। ६७४. तिण अवसर ते बाल नां, माता-पिता अवलोय । नामधेय करिस्यै इसो, महापद्म इम जोय ।। ६७५. महापद्म बालक प्रतै, मात-पिता निहवार । साधिक अठ वर्ष नं थयं, जाणीने धर प्यार ।। ६७६. शोभनीक तिथि करण फुन, दिवस नक्षत्र विचार । वली भला मुहर्त विषे, आणो हरष अपार ।। ६७७. मोटे-मोटे राज्य नै, अभिषेक करि ताय । करस्यै राज्याभिषेक तसु, ते तिहां होस्यै राय ।। ६७८. मोटो हिमवंत नी परै, वर्णक तास विचार । जावत ही ते विचरस्यै, राज्य करतो सार ।। ६७६. ते महापद्म राजा तणे, अन्य दिवस किहवार । उभय देव महद्धिक तिके, महेश्वरा अवधार ।। १८०. करस्यै सेना कर्म प्रति, ते बे सुर नां नाम । पूर्णभद्र महिमानिलो, माणिभद्र अभिराम ।। १८१. तब शतद्वारे नगर बहु, राजा ईश्वर जाण । तलवर जावत सार्थवाह, प्रमुख धणां पहिछाण ।। १८२. माहोमांहि तेडाय नै, तेडावी नै तेह । इह विधि कहिस्यै जे भणी, अहो देवानुप्रियेह ! १८३. महापद्म अम्ह नप तणे, बे सुर महद्धिक जाव । करै सेन्यकर्म पूर्णभद्र, माणिभद्र सुर साव ।। ९८४. ते माटे होवो प्रवर, अहो देवानुप्रियेह ! एह अम्हारा महापद्म, राजा तणुंज जेह ।। ९८५. नामधेय दूजो अपि, देवसेन जग माय । देवसेन इह विधि तसु, वदस्यै जन-जन वाय ।। ३६६ भगवती जोड़ ९७७. महया-महया रायाभिसेगेणं अभिसिचेहिति । से णं तत्थ राया भविस्सति९७८, महया हिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ जाव विहरिस्सइ । (श० १५।१७०) ९७९. तए णं तस्स महाप उमस्स रणो अण्णदा कदायि दो देवा महिड्ढिया ९८०. सेणाकम्मं काहिति, तं जहा-पुण्णभद्दे य माणि भद्दे य । ९८१. तए ण सयदुवारे नगरे बहवे राईसर-तलवर जाव (सं०पा०) सत्यवाहप्पभितओ ९८२. अण्णमण्णं सद्दावेहिति, सद्दावेत्ता एवं वदेहिति जम्हा णं देवाणुप्पिया! ९८३. महाप उमस्स रण्णो दो देवा महिड्ढिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं करेति, तं जहा-पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य । ९८४. तं होउ ण देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रण्णो ९८५. दोच्चे वि नामधेज्जे देवसेणे-देवसेणे । Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६८६. तिण अवसर ते महापद्म, महिपति नु पहिछाण । द्वितीय नाम पिण जे हुस्यै, देवसेन इम जाण ।। १८७. तब महिपति सुरसेन ने अन्य दिवस किवार। श्वेत शंखनों तल विमल ते सरीखो सार ॥ ८८. चिदंतो गज रत्न वर, ऊपजस्यै तसु आय । तिण अवसर ते समय ही, देवसेन बड़राय || ६८६. श्वेत शंख तल विमल हो, तेह सरीखो ताय । चिउदंता गज रत्न प्रति, चढतो थकोज राय ॥ २९० तेह नगर मतद्वार नै भ्यंतर सहित बार मध्योमध्य थई करी, वारम्वार धर प्यार ॥ ११. प्रवेश करिस्वं पुरम, नोकल फुन बार तिण अवसर गतद्वार ते, नगर विषे अवधार || १९२. बहु नृप ईश्वर जाव ही प्रमुख मोहोम तेड़ावे तेाय में वदिस्य इह विधि वाय ।। ६६३. देवानुप्रिय ! जे भणी, जेह अम्हारा जाण । देवसेन राजा वणं प्रवेश शंख तल ९९४ ते सरीखा दंतचि हस्ती रत्न माण || उपन्न । ते मार्ट भावो वली, देवानुप्रिय मुजन्न ॥ २५. देवसेन अम्ह नृप तणों, तृतीय नाम पिन जान । विमलवाहन एवं प्रसिद्ध, विमलवाहन जन वान ।। ६६. तिण अवसर ते महीपति, देवसेन नों जोय | तृतीय नाम पिण जग विपे, विमलवाहन इम होय ॥ २७. विमलवाहन नृप तेह तव अन्य दिवस किवार। पडिवज्जस्यै श्रमण निग्रंथ थी, भाव अनारज धार ॥ १८. करिस्यै केक मुनि भणी, वच आदेश विशेख करियै केइक मुनि तणीं, हास्य मिस करी टेक ॥ ६६६. केइक मुनि ने परस्पर केइक में दुर्वण करो, १०००. केइक मुनि ने बांधस्यै जुदा पाइस्यै ताय । निर्भवस्यै अधिकाय || रूधि राखिस्यै केय । वलि केइक मुनिवर तणीं, करिस्यै छविछेदेय ॥ १००१. वलि केइयक मुनिवर भणी, मारण क्रिया सुजोय । तेह तणां प्रारंभ प्रति करिस्यै अति अवतोय || १००२. उपद्रव करिस्यै केइनें, केइक मुनि नां देख । वस्त्र पात्र ने कविता, पायपुच्छणो पेख ॥ तेह | १००३. थोड़ो-सो तसु छेदस्यै, विशेष छेदस्यै तसु वस्त्रादि भेदस्य वली खोसस्ये जेह || 1 ९८६. तए णं तस्स महापउमस्स रण्णो दोकचे वि नामधज्जे भविस्सति देवसेणे त्ति । ( श० १५/१७१) ९८७ तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो अण्णया कयाइ सेते संखतल - विमल सन्निगासे ९८८. चउदंते हत्थिरयणे समुप्पज्जिस्सइ । तए णं से देवसेणे राया ९८९. तं सेयं संखतल - विमल - सन्निगासं चउद्दतं हत्थिरयणं समा ९९० सयदुवारं नगरं मज्झमज्भेणं अभिक्खणं अभि क्खणं ९९१. अतिजाहिति य निज्जाहिति य । तए णं सयदुवारे नगरे ९९२. यह राईस जाय (सं० पा० ) सत्यप अण्णां साहिति सदाबह ९९३,९९४. जम्हा णं देवाणुपिया ! अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेते-गाते ह समुप्पन्ने, न होउ णं देवाणुप्पिया ! ९९५. अम्हं देवसेणस्स रण्णो तच्चे वि नामधेज्जे विमलवाहणं विमलवाहणं । ९९६. तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तच्चे वि नामधेज्जे भविस्सति विमलवाहणे त्ति । ( श० १५/१७२ ) ९९७. तए णं से विमलवाहणे राया अण्णया कदायि समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवज्जिहिति९९८. अप्पेगतिए आओसेहिति अप्पेगतिए अवसिहित 'आउसिहिइ' त्ति आक्रोशान् दास्यति । 1 ( वृ० प० ६९१ ) ९९९. अप्पेगतिए निच्छोडेहिति अप्पेगतिए निन्महति 1 १०००. अगतिए बंधेहिति अप्पेगतिए निरुभेहिति अप्पेगतिवाणं खविच्छेद करेहिति 1 १००१. अप्पेगतिए पमारेहिति, 'पमारेहिइ' त्ति प्रमारं मरणक्रिया प्रारम्भं करिष्यति प्रमारयिष्यति । (बु० ५० ६९१) १००२. अपेलिए उहिति अप्पेमतिया पडिह कंबलं पा 'उद्दवेहिइ' त्ति उपद्रवान् करिष्यति । ( वृ० प० ६९१) १००३. दिति वदति मिहिति अहरि figfr 'डिदिहि' सि ईषत्स्पति 'विडिदेहि सि विशेषेण विविधतया वा छेत्स्यति । ( वृ० प० ६९१ ) भ० श० १५ ३६७ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १००४. के इक नैं भत्तपाण नों, विच्छेद करिस्यै धार । केइक मुनि ने नगर थो, काढी देस्यै बार ।। १००४. अप्पेगतियाणं भत्तपाणं वोच्छिदिहिति, अप्पेगतिए निन्नगरे करेहिति 'निन्नगरे करेहिति' त्ति निगरान् नगरनिष्क्रान्तान् करिष्यति । (वृ० प० ६९१) १००५. अप्पेगतिए निव्विसए करेहिति । (श० १५११७३) १००६. तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर जाव (सं० पा०) वदिहिति१००७. एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलवाहणे राया सम णेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ने१००८ अप्पेगतिए आओसति जाव निविसए करेति । १००९. तं नो खलु देवाणुप्पिया ! एयं अम्हं सेयं, १०१०. नो खलु एवं विमलवाहणस्स रण्णो सेयं, १०११. नो खलु एयं रज्जस्स वा रट्ठस्स वा बलस्स वा वाहणस्स वा १०१२. पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स वा सेयं, १००५. के इक मुनि नैं देश थी, काढ़ी देस्यै तेह । अशुभ उदै मुनिवर भणी, इह विध दुख देस्येह ।। १००६. तिण अवसर शतद्वार जे, नगर विषे जन ताय । बहु राजा ईश्वर तदा, जावत वदस्य वाय ॥ १००७. इम निश्चै देवानुप्रिय! विमलवाहन राजान । श्रमण निग्रंथ सं पड़िवज्यो, भाव अनार्य पिछाण ।। १००८. के मुनि प्रति आक्रोश दै. जावत ही वलि जाण । केदक मुनि नैं देश थी, कालै ए महिराण ॥ १००६. ते माटै देवानुप्रिय ! निश्चै करिने न्हाल । आपण नैं ए श्रेय जे, भलुं नहीं इण काल । १०१०. विमलवाहन राजा तणें, निश्चै करिने जोय । एह अनार्य भाव फल, श्रेय भल नहि कोय ।। १०११. निश्चै करि ए राज्य नैं, अथवा राष्ट्र प्रतेह । अथवा बल ते कटक नैं, वा वाहन नैं एह ।। १०१२. अथवा पुरजन नगर ने, वा अंतेउर तास । तथा जानपद नैं वली, श्रेय भलं नहिं जास ।। १०१३. विमलवाहन नप जे भणी, श्रमण निग्रंथ संघात । भाव अनार्य पड़िवज्यो, प्रत्यक्ष ही देखात ।। १०१४. ते माटै देवानुप्रिय ! आपां नै जे श्रेय । विमलवाहन राजा प्रतै, अर्थ विनविवं एय ।। १०१५. एम करीनैं परस्पर, अर्थ सांभलस्यै एह । एह अर्थ प्रति सांभली, करो अंगीकृत जेह ।। १०१६. विमलवाहन जिहां राजवी, तिहां आवस्यै तेह। विमलवाहन राजा कन्है, आवी पुरजन जेह ।। १०१७. कर-तल बेहुं जोड़ने, विमलवाहन राजान । तेह प्रत जय विजय करि, वधावस्यै ते मान ।। १०१८. जय विजय करि वधाय नै, वदस्य इह विध वाय । इम निश्चै देवानप्रिय ! श्रमण निग्रंथ थी ताय ।। १०१६. भाव अनार्य पड़िवज्या, आक्रोसो मुनि केय। जावत के इयक मनि भणी, देश बार काढेह ।। १०२०. निश्च करि देवानुप्रिय ! तुझ नैं नहि ए श्रेय। अम्ह नैं पिण निश्चै करी, भलं नही छै एय ।। १०२१. निश्चै करी ए राज्य में, अथवा जावत जोय । जनपद ते जे देश नैं, भल नहीं छै कोय । १०२२. जे माटे देवानुप्रिय ! श्रमण निग्रंथ संघात । भाव अनार्य पड़िवज्या, ते प्रति विरमो नाथ ! १०२३. देवानुप्रिय ! अर्थ ए, तुम्हे न करिवो कोय । इतले तुम्है यती भणी, दुख नहिं देवू जोय ।। १०१३. जणं विमलवाहणे राया समणेहिं निग्गथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ने । १०१४. तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं विमलवाहणं रायं एयमठें विण्णवेत्तए १०१५. त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतियं एयमट्ठ पडिसुणे हिति, पडिसुणेत्ता १०१६. जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छिहिति, उवागच्छित्ता १०१७. करयलपरिग्गहियं जाव (सं० पा०) विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धावेहिति, १०१८. बद्धावेत्ता एवं वदिहिति-~-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणेहिं निग्गंथेहि १०१९. मिच्छ विप्पडिवन्ना अप्पेगतिए आओसंति जाव अप्पेगतिए निबिसए करेंति । १०२०. तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाणं सेयं, नो खलु एय ___अम्हं सेयं, १०२१. नो खलु एयं रज्जस्स वा जाव जणवयस्स वा सेयं । १०२२. जण देवाणुप्पिया ! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ना, तं विरमंतु णं १०२३. देवाणुप्पिया ! एयस्स अट्ठस्स अकरणयाए। (श० १२१७४) ३६८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०२४. विमलवाहन नृपते तब, तिथे बहू जे राय ईश्वर जावत सार्थवाह, आदि देईनें ताय ॥ १०२५. एह अर्थ प्रति वीनव्ये, धर्म तणीं बुध नांहि । बलि त तपनी बुद्धि नहि पण तास कथनी ताहि ॥ १०२६. मिथ्या विनय करी तदा एह अर्थ प्रति जेह भाव विना नृप ते ॥ बाहिर कूण ईशान । हुस्यै प्रवर उद्यान || , अंगीकार करस्यै जदा १६२७. ते शतद्वारज नगर नै सुभूमिभाग नामै इहां, १०२८. सर्व ऋतु मां फूल फल, तेह सहित सुखदाय तेनुं वर्णक जाणवं अति रमणीक सोभाय ॥ १०२९. तिण काले ने तिण समय, विमल नाम अरिहंत । तेहनां शिष्य नों शिष्य जे, नाम सुमंगल संत ॥ वा०-विमन नामें तीर्थंकर - समवायंग में आवती चउबीसी रा नाम कह्या, इकवीसमो विमल तीर्थंकर farमें इकवीसमों तीर्थंकर नों नाम विमल दी है । ते तो घणां कोड़ सागर गया हुस्ये । अन ए गोशाला नो जीव महापद्म तो बावीस सागर पर्छ हुस्यै । तिहां विमल तीर्थंकर न पड़पोतो शिष्य किम संभव ? तेहनों उत्तर—बावीस सागरोपम नैं अंते जे तीर्थंकर हुसी तेहनो विमल पिण नाम संभवे । महापुरुषांना अनेक नाम छे ते मणी विमल अरिहंत नो पड़पोत्रो सुमंगल नामा अणगार संभवै । , १०३२. सुभूमिभाग उद्यान नैं १०३०. जाति संपन्न मुनि तेह जिम, धर्मघोष तिम सार । एकादश शत ग्यारमें उद्देशके अधिकार ।। १०३१. जावत संक्षिप्ता तिणे विस्तीर्ण तेय लेश। तीन ज्ञान करि सहित छै मति धत अवधि विशेष ॥ श्रुत नथी दूर सामंत | छठ-छठ तप करस्यै तिके, अंतर रहित सुतंत ॥ १०३३. जावत ही आतापना लेतां थकां सुजान । तेह विवरस्यै महामुनि ध्यावस्वं निर्मल ध्यान ॥ १०३४. विमलवाहन राजान तव अन्य दिवस किहवार रथचरिया रथ फेरवा, निमित्त नीकलस्यै धार ॥ १९३५. विमलवाहन राजान तब सुभूमिभाग उद्यान । तासन दूर न दूकड़ो, फेरंतो रथ जान || १०३६. जेह सुमंगल मुनि प्रवर, छठ-छठ जाव आताप । नेता प्रति तिहो देवस्य देखी क्रोधे व्याप ॥ १०३७. आसुरते शीघ्र ही, जाव मिसिमिसेमान | 7 मुनि सुमंगल तेह प्रति रथ नैं शिर करि जान || १०३८. रथ ने शिर ए जान कागमुंहा करि केह मुनि ऊपर ते फेरस्यै, उलालि न्हाखीस्येह || १०३६. तेह सुमंगल मुनि तदा विमलवाहन राजान । रथ ने शिर संपात ही, ठेल्ये थके पिछान || 1 3 १०२४. तए णं से विमलवाहणे राया तेहि बहूहि राईसर जान (सं०पा० ) सत्यवाप्यभिह १०२५. एम से समानो धम्मो तिनो बो त्ति १०२६. मिच्या विणणं एवम पडिसुणेहिति । (० १२।१७४) १०२७. व पवार नगरस्य बढ़िया उत्तरपुरत्यिमे दिसीभाने, एत्थ गं सुभूमिभागे नाम उज्माणे भविस्स १०२८फ-कलसमिद्धे वणओ । (श० १२।१७६) १०२९. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए सुमंगले नाम अणगारे 'पउप्पए' त्ति शिष्यसन्तानः । (१०० ६९१) वा०- 'विमलस्स' ति विमलजिनः किलोत्सर्पिण्यामेकविंशतितमः समवाये दृश्यते स चापिणीचतुर्थजिनस्थाने प्राप्नोति तस्माच्चामीन विनान्तरेषु बहवः सागरोपम कोटयोऽतिक्रांता लभ्यन्ते, अयं च महापचो द्वाविंशतेः सागरोपमाणामन्ते भविष्यतीति दुखगममिदं अथवा वो द्वाविशते सागरोपमाणामन्ते तीर्थकृदुत्सपिण्यां भविष्यति तस्यापि विमल इति नाम संभाव्यते, अनेकाभिधानाभिधेयत्वान्महापुरुषाणामिति । (२०१० ६९१) १०३०. जाइसंपन्ने जहा धम्मघोसस्स ( भ० ११।१६२ ) वण्णओ १०३१. जाव संखित्तविउलतेयलेस्से तिन्नाणो गए १०३२. सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्ते १०२३ जाव (सं०पा०) बायामाणे विहरिस्सति । (१० १५१०७) १०३४. तए णं से विमलवाहणे राया अण्णदा कदायि रहचरिवं कार्ड निमाहिति । (१० १५१०८) १०३५. तए णं से विमलवाहणे राया सुभूमिभागस्स उज्जापरस अगरसामंते रहबरियं करेमाणे १०३६. सुमंगलं अणगारं छट्ठछट्ठेणं जाव (सं०पा० ) पाणिता सु १०३७,३८. जाव (सं०पा० ) मिसिमिसेमाणे सुमंगल अणगारं रहसि गोल्सावेहिति (श० १५/१७९) 'नोलावेहि' त्ति नोदयिष्यति प्रेरविष्यति । (१० ५० ६९१) १०३९. तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे भ० श० १५ ३६९ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४०. हलुए हलुए ऊठस्यै, ऊठीने मुनिराय । द्वितीय वार पिण ऊर्द्ध बाह, प्रकर्षे करि ताय ।। १०४१. जावत ही आतापना, लेता छता अदीन । एह मुनीश्वर विचरस्यै, मन इंद्रिय वश कीन ।। १०४२. विमलवाहन राजान तब, सुमंगल मुनि प्रतेह । द्वितीय वार पिण रथ शिरे, उलालि न्हाखीस्येह । १०४३. तेह सुमंगल मुनि तदा, विमलवाहन राजान ।। द्वितीय वार पिण रथ शिरे, न्हाख्यो थके पिछाण । १०४४. हलुए हलुए ऊठस्यै, ऊठीने अणगार। अवधि प्रतैज प्रजूझस्यै, अवधि प्रजूझो सार ।। १०४५. विमलवाहन राजा तणां, काल अतीत प्रतेह । ताम मुनीश्वर देखस्यै, देखी अवधि करेह ।। १०४६. विमलवाहन राजा प्रतै, वदस्य इह विध वाय । निश्चै करिनै तूं नहीं, विमलवाहन जे राय ।। १०४७. निश्चै करिने नहीं, देवसेन राजान । निश्च करिनै तूं नहीं, महापद्म महिरान ।। १०४८. तूं इहां थी तीजो भवो, मंखलिसुत गोशाल । घातक श्रमण तणों हुँतो, जाव छद्म करि काल ।। १०४०. सणियं-सणियं उठेहेति, उठेत्ता दोच्च पि उड्ढे __ बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय १०४१. जाब (सं० पा०) आयामाणे विहरि सति । (श०१५२१८०) १०४२. तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोच्चं पि रहसिरेणं नोल्लावेहिति । (श० १५५१८१) १०४३. तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा दोच्चं पि रहसिरेणं नोल्लादिए समाणे १०४४. सणियं-सणियं उठेहिति, उठेत्ता ओहिं पउंजे हिति, पउंजित्ता १०४५. विमलवाहणस्स रण्णो तीतद्धं आभोएहिति, आभो एत्ता १०४६. विमलवाहणं रायं एवं वइहिति-नो खलु तुम विमलवाहणे राया १०४७. नो खलु तुम देवसेणे राया, नो खलु तुमं महापउमे राया, १०४६. तुमण्णं इओ तच्चे भवग्गहणे गोसाले नामं मंखलि पुत्ते होत्था-समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए। १०४९, तं जइ ते तदा सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं पभुणा वि होऊणं १०५०. सम्म सहियं खमियं तितिक्खियं अहियासियं, १०४९. तेह भणी जे तांहरो, तिण अवसर रै मांहि । मुनि सर्वानुभूतिइं, समर्थ छतांपि ताहि ।। १०५०. तेजोलेश्या मुकिवा, समर्थ छतां सुजोय । सम्यकपणे सो खम्यं, अहियास्यूं अवलोय ।। १०५१. यद्यपि तुझ उपद्रव तदा, सुनक्षत्र अणगार । समर्थ छतां अपि सह्यु, जाव अहियास्यूं सार। १०५२. यद्यपि तुझ उपद्रव तदा, श्रमण भगवंत महावीर । समर्थ छतांपि जाव ही, अहियास्यूं चित धीर। १०५३. तेह भणी निश्चै करी, ते हं नहिं छु कोय ।। तिम सम्यक भावे सह, जाव अहियास्यूं जोय । १०५४. हिवड़ां इज हूं तुझ भणी, णवरं इतो विशेख । अश्व सहित फुन रथ सहित, सारथि सहित संपेख ।। १०५५. तप तेजे एगाहच्चं, कूडाहच्चं जास । तेह तणों पर जाणिवू, करिस भस्म नीं राश। १०५६. विमलवाहन नप तेह तब, मुनि सुमंगल जाण । इम को छतेज आसुरुत्त, जाव मिसिमिसेमान ॥ १०५१. जइ ते तदा सुनक्खत्तेणं अणगारेणं पभुणा वि होऊणं सम्म सहियं जाब (सं० पा०) अहियासियं, १०५२. जइ ते तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभुणा विजाव (सं० पा०) अहियासियं, १०५३. तं नो खलु ते अहं तहा सम्म सहिस्सं जाव (सं० पा०) अहियासिस्सं, १०५४. अहं ते नवरं -सहयं सरहं ससारहियं १०५५. मुनि सुमंगल प्रति तदा, तृतीय वार नप जेह । रथ नैं कागमहा थकी, उलालि न्हाखीस्येह ।। १०५८. मुनि सुमंगल ते तदा, विमलवाहन राजान । तृतीय वार पिण रथ शिरे, ठेल्ये छते पिछान ।। १०५६. आसुरुत्त थयो तदा, जाव मिसिमिसेमान । आतापन नी भूमि थी, पाछो उसरै जान । १०५५. तवेणं तेएणं एगाहच्चं कूडाहच्चं भासरासि करेज्जामि । (श०१५।१८२) १०५६. तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव (सं० पा०) मिसि मिसेमाणे १०५७. सुमंगलं अणगारं तच्च पि रहसिरेणं नोल्लावेहिति । (श. १५॥१८३) १०५८, तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तच्चं पि रहसिरेण नोल्लाविए समाणे १०५९. आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, ३७० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६०. पच्चोरुभित्ता तेयासमुग्घाएणं समोहणिहिति समोहणित्ता १०६१. सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्किहिति, पच्चोसक्कित्ता विमलवाहणं रायं सहयं १०६२. सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं जाव (सं० पा०) भासरासि करेहिति । (श०१५।१८४) १०६३. सुमंगले णं भंते ! अणगारे विमलवाहणं राय सहयं जाव भासरासि करेत्ता १०६४. कहि गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! सुमंगले अणगारे विमलवाहणं रायं १०६५. सहयं जाव भासरासि करेत्ता बहूहि छट्टट्ठम-दसम १०६०. ते भूमि थकी पाछो वली, जे तेज समुद्घात । ते प्रति करिस्यै ते करी, अतिही क्रोध वसात ।। १०६१. सत-अठ पग पाछो बले, वली सप्त-अठ पाय । विमलवाहन राजा प्रतै, घोड़ा सहितज ताय ।। १०६२. रथ करीने सहित फुन, सारथि सहितज जास। तप तेजे करि जाव हो, करिस भस्म नी राश ।। १०६३. मुनि सुमंगल हे प्रभु ! विमलवाहन प्रति जोय । __अश्व सहित जे जाव ही, भस्म राशि करि सोय ।। १०६४. जास्यै ऊपजस्यै किहां? तब भाखै भगवान । गोतम मुनी ! सुमंगले, विमलवाहन प्रति जान ।। १०६५. अश्व सहित तसु जाव ही, करी भस्स नी राश । चउथ छ? अट्ठम बहु, दशम तपे तनु त्रास ।। १०६६. जाव विचित्र तप कर्म करि, आत्म भावित छतां ताय। घणां वर्ष लग पालस्यै, चारित्र नी पर्याय ।। १०६७. बहु वर्षे पाली दोक्षा, मास संलेखण सार। __साठ भक्त अणसण भलो, जाव छेदी तिहवार ।। १०६८. आलोई ने पड़िकमी, समाधि ऊचो चंद । जाव ग्रैवेयक तसु वास तणां शत वृंद ।। १०६६. अतिक्रमी नै सव्वसिद्ध, महाविमान विषेह । ऊपजस्यै ते सुरपणे, वर सुकृत फल एह ।। १०७०. तिहां देव नी जे स्थिति, अजघन्य अण उत्कृष्ट । सागर जे तेतीस नीं, स्थिती परूपी इप्ट ।। १०७१. सुमंगल मुर नी पिण तिहां, अजघन्य अणउत्कृष्ट । वर सागर तेतीस नी, स्थिती परूपी सृष्ट ।। वा-'अत्र सुमंगल अणगार राजा, घोड़ा अन सारथी नै भस्म करिस्य । तेहन नवी दीक्षा रूप आठमो प्रायश्चित्त आवै, ते इहां किम नथी कह्यो ? तेहनो उत्तर---उत्तराध्येन अः २२ में रहनेमि राजीमती नै विषय वचन बोल्यो, तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी। सीहो अणगार मोटे-मोटे शब्दे रोयो, तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी । अयमुत्ते मुनि पाणी में पात्री तिराई, तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी । ज्ञाता अध्येन १६ में धर्मघोष रा साधा नागसिरी नै बाजार में जायनै हेली निदी, तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी। भगवंत महावीर स्वामी छद्मस्थपणे सरागभावे करी शीतल तेजोलेश्या फोडी, गोशाला नै बचायो, तेहनों पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी। एतलां ने प्रायश्चित्त चाल्यो नथी, पिण लियोज हुसी। तिम सुमंगल नै पिण प्रायश्चित्त चाल्यो नथी, पिण ते प्रायश्चित्त तो निश्च लेस्यैज । लियां विना आराधक पद पावै नहीं ते माट। कोइ कहै-सुमंगल ने अधिकारे 'आलोइयपडिक्कते' एहबूं पाठ कह्यो छ, तेहनै विषे प्रायश्चित्त माय गयो। तेहनो उत्तर--ए आलोइयपडिक्कते तो छेहड़े पाठ कह्यो छ-ते आलोइयपडिक्कते पाठ ते विषे राजादिक नै भस्म किया तेहनों प्रायश्चित्त किम हुवे ? सुनक्षत्र मुनि नै पिण आलोइयपडिक्कते एहवं पाठ कह्यो छ। १०६६. जाव (सं. पा०) विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणेहिति १०६७. पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता १०६८. आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते उडढं चंदिम जाव गेविज्जविमाणावाससयं १०६९. वीइवइत्ता सव्वदृसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उवव ज्जिहिति । १०७०. तत्थ णं देवाणं अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाइंठिती पण्णत्ता। १०७१. तत्थ णं सुमंगलस्स वि देवस्स अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । उत्तरा० २२।३७,३८ भगवई १५३१४८ भगवई ५०८० णाया० १११६।२६ • गवई १५६४ भगवई १५।१०९ भ.०१५ ३७१ Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंधक अणगार प्रमुख नै आलोइयपडिक्कते ए छेहड़ा नुं पाठ छ । तिमहिज सुमंगल में जाग अन जंघा - विद्या चारण लब्धि फोड़वी नंदीसर रुचक द्वीप जई पाछा आव तिहां एहवो पाठ छ- 'तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ' तेहनों अर्थतस्स ठाणस्स कहितां जे लब्धि फोड़वी ते रूप थानक आलोई पड़िकमी काल करें तो आराधक एवं का। तिम सुमंगल नैं तस्स ठाणस्स एवं पाठ नथी । जो तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कह्यो हुतो, जद तो ते लब्धि फोड़वी ते रूप स्थानक नों प्रायश्चित्त आय जातो पण तस्स ठाणस्स पाठ नथी ते माट आलोइयपडिक्कते ए छेहड़ा नुं पाठ छ । पिण जे लब्धि फोड़वी ते थानक नीं आलोयणा नुं पाठ नथी । इहां सुमंगल नैं अधिकारे तो एहवूं कह्यो छे, ते कहै छै - गोतम पूछयो हे भदंत ! सुमंगल अणगार अश्वादिक सहित राजा प्रति भस्म करी किहां ऊपजसी ? जद भगवान कह्यो- सुमंगल अणगार अश्वादिक सहित राजा प्रत भस्म करी बहु चउत्थ, छठ, अठम, दशम जाव विचित्र प्रकारे तप करि करी आतमा नैं भावता थका घणां वर्ष चारित्र नी पर्याय पालस्यै । पाली नै मास नीं संलेखना साठ भक्त नों अणसण छेदी ने एतला पाठ कहीनै पर्छ को-आलोइयपडिक्कंते आलोई पडिक्कमी समाधि थी ऊंचो चंद्रमा जाव ग्रैवेयक नोमा उल्लंधी में सर्वार्थसिद्ध महाविमाण के लिये उपयसी इहां पहिला चोथ आदि विचित्र प्रकारे तप करिवे करी आत्मा ने भावता थका घणां वर्ष चारित्र पाली संथारो करिस्यै । इहां घणां वर्ष चारित्र नी पर्याय पाल ये कह्यो । पछे संथारा नों पाठ कह्यो । पछे आलोइयपडिक्कते पाठ कह्यो । ते भणी पहिलां चारित्र लेइनें छेड़े संथारो करिस्यै । ते संथारा नैं विषे आलोइयपडिक्कते पाठ को छं ते माटै। ए बेहड़ा नों पाठ घणे ठिकाणे कह्यो तिम इहां पिण जाणवो । पिण अश्वादिक ने बालस्यै तेहनी आलोयण नों पाठ न संभव इत्यलं विस्तरेण । ( ज०म० ) । १०७२. देव सुमंगल हे प्रभु! ते सुरलोक चीज जाव महाविदेह सोझस्यै, जाव अंत करसीज ॥ १०७३. विमलवाहन नृप हे प्रभु ! मुनी सुमंगल जास । रथ करि सहितज जाव ही, करये भस्म नीं राश ।। २०७४ जास्यै उपजस्यै किहो ? तब भाखे भगवान । विमलवाहन राजा प्रतै, मुनी सुमंगल जान ।। १०७५ अश्व सहित जे जाब ही अधो सप्तमी महि विषे १०७६. नरक विषे नारकपणे तेह तिहां थी निकली, १०७७. ऊपजस्यै ते मछ विषे , वध पामी दाह ऊपनां, ज्येष्ठकाल स्थितिकेह जई उपजस्ये जेह ॥ अंतर रहितज ताय । द्वितीय वार पिण मछ विषे, ऊपजसी तिहां जाय ।। भस्मराशि कीधेह ज्येष्ठ काल स्थितिके ।। ऊपजस्ये तिहां जाय । अंतर रहितज ताय ॥ तिहां पिण शस्त्रे व्हाल । काल समय करि काल ॥ १०७८. द्वितीय वार पण सातमी, नरक विषे नारकपणे १०७६. तेह तिहां थी नीकली, ३७२ भगवती जोड़ भगवई २०७० भगवई २०१८६,८७ १०७२. से णं भंते! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ जाव (सं० पा० ) महाविदेहे वासे सम्मिहिति नाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति । (०१५ १०५) भंते राया सुमंगले क्षणमारेण सहये जाव भासरासीकए समाणे २०७३ १०७४ कति ? कहि उवज्जिहति ? गोयमा ! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेण १०७५. सहजाव भाखरासीक समाणे आहेसत्तमाए पुढबीए उनकोसकालसि १०७६. नरयंसि ने रइयत्ताए उववज्जिहिति । तो अगंतरं उदिता से १०७७. मच्छेति । तस्य विगं सत्यव दाहवक्कतीए कालमासे कालं किच्चा 'सत्य' विध्यः सन् दाह्यक्ती ति दाहोपरा का ति योग ( वृ० प० ४९३ ) १०७८. दोच्च पि आहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । १०७९. से तोतरं उन्महिता दोच्च पि मच्छेमु उबबज्जिहिति । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८०. तिहां पिण पामी शस्त्र वध, जाव काल करि जेह। __छट्ठी तमा पृथ्वी विषे, ज्येष्ठ काल स्थितिकेह ।। १०८१. नरक विष नारकपणे, ऊपजस्यै तिहां जोय । तेह तिहां थी जाव ही, निकली मैं अवलोय ।। १०८२. ऊपजस्यै स्त्री वेद में, तिहां पिण शस्त्र करेह । वध पामी दाह ऊपन्यां, जाव द्वितीय वारेह ।। १०८३. छठी तमा पृथ्वी विषे, ज्येष्ठ काल स्थितिकेह । जावत निकली – तदा, द्वितीय वार पिण जेह ।। १०८४. ऊपजस्यै स्त्री वेद में, तिहां पिण शस्त्र करेह । वध पामी नैं जाव ही, काल करीने जेह ।। १०८५. धूमप्रभा महि पंचमी, जेष्ठ काल स्थितिकेह । जाव तिहां थी निकली, ऊपजस्यै उरगेह ।। १०८६. तिहां पिण पामी शस्त्र वध, जाव करीनै काल । द्वितीय वार पिण पंचमी, ऊपजस्यै दुख जाल ।। १०८७. जाव नीकली अहि विषे, द्वितीय वार पिण तेह । ऊपजस्यै जावत वली, काल करीने जेह ।। १०८८. चउथी पंकप्रभा मही, जेष्ठ काल स्थितिकेह । जाव तिहां थी नीकली, पजस्य सिंघेह ।। १०८६. तिहां पिण पामी शस्त्र वध, तिमज जाव करि काल । चउथी पंकप्रभा विषे, जाव नीकली न्हाल ।। १०६०. द्वितीय वार पिण सीह विषे, ऊपजस्यै तब तेह । जाव काल करि वालुका, तीजी मही विषेह ।। १०६१. जेष्ठ काल स्थिति में विषे, जाव नीकली जेह । ऊपजस्यै पक्षी विष तिहां पिण बध शस्त्रेह ।। १०६२ जाव काल करि जाव ही, द्वितीय वार पिण तेह। तृतीय वालुका महि विषे, जाव नीकली जेह ।। १०९३. द्वितीय वार पिण पंखी विषे, अघ वश ऊपजस्येह । जाव काल करि दूसरी, सक्करप्रभा विषेह ।। १०६४. जाव नीकली सरीसृपे, ऊपजस्यै दुख ज्वाल । तिहां पिण पामिस शस्त्र वध, जाव करीने काल । १०६५. द्वितीय वार पिण दूसरी, सक्करप्रभा विषेह । जाव नीकली नै तदा, द्वितीय वार पिण तेह ।। १०६६. ऊपजस्यै सरीसृप विषे, जाव काल करि एह । रत्नप्रभा पृथ्वी विषे, जेष्ठ काल स्थितिकेह ।। १०६७. नरक विषे नारकपणे, ऊपजस्यै ते जाव । निकली नैं सन्नी विषे, ऊपजस्यैज कुभाव ।। १०६८. तिहां पिण पामिस शस्त्र वध, जाव काल करि जेह। ऊपजस्यै असन्नी विषे, तिहां पिण वध शस्त्रेह ।। १०६६. जावत काल करि तदा, द्वितीय वार पिण एह । रत्नप्रभाई पल्य ने, असंख भाग स्थितिकेह ।। ११००. नरक विषे नारकपणे, ऊपजस्यै अवलोय । ते जे रत्नप्रभा थकी, जाव नीकली सोय ॥ १०८०. तत्य णं वि सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा छट्ठाए तमाए पुढवीए उक्कोसकाल ट्ठियसि १०८१. नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । से णं तओहितो अणंतरं उवट्टित्ता १०८२ इत्थियासु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे ___ दाह जाव (सं० पा०) दोच्चं पि १०८३. छट्ठाए तमाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव (सं० पा०) उबट्टित्ता दोच्चं पि १०८४, इत्थियासु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (स० पा०) किच्चा १०८५. पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए उक्कोसकाल जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता उरएसु उववज्जिहिति । १०८६. तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा.) किच्चा दोच्चं पि पंचमाए १०८७. जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता दोच्चं पि उरएसु उववज्जिहिति । जाव (सं० पा०) किच्चा १०८८. चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि जाव (सं० पा०) उवट्टित्ता सीहेसु उबवज्जिहिति । १०८९. तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाब (सं०पा०) किच्चा दोच्चं पि चउत्थीए पंक जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता १०९०. दोच्च पि सीहेसु उववज्जिहिति । जाब (संपा०) किच्चा तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए १०९१. उक्कोसकाल जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे १०९२. जाव (सं० पा०) किच्चा दोच्च पि तच्चाए वालय जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता १०९३. दोच्च पि पक्खीसु उववज्जिहिति । जाव (सं०पा०) किच्चा दोच्चाए सक्करप्पभाए १०९४. जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता सिरीसवेसु उववज्जि हिति । तत्थ वि णं सत्थ जाव (सं० पा०) किच्चा १०९५. दोच्चं पि दोच्चाए सक्करप्पभाए जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता दोच्चं पि १०९६. सिरीसवेसु उववज्जिहिति । जाव (सं०पा०) किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिश्यंसि १०९७. नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता सणीसु उववज्जिहिति । १०९८. तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा असण्णीसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे १०९९. जाव (सं० पा०) किच्चा दोच्चं पि इमीसे रयण प्पभाए पुढवीए पलिभोवमस्स असंखेज्जइभागट्रिइयंसि ११००. नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति जाव (सं० पा०) उव्वट्टित्ता निक भ० श० १५ ३७३ Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० इहा जिण क्रम थी असन्नी आदि जीव रत्नप्रभादि में उत्पन्न होय, तेहनों यथोक्त वर्णन कीधो छ । का ं पिण छँ - असन्नी पहली नरक में, सरीसृप - भुजपर दूजी नरक तांई, पक्षी खेचर तीजी नरक ताई, सिंह — थलचर चौथी नरक तांई, उरग उरपरिसर्प पांचवी नरक तांई, स्त्री छट्टी नरक तांई अने मच्छ और मनुष्य सातवीं नरक तांई उत्पन्न थाय छ । तणां भेद विधानज होय । 1 ११०१. जेह एह पंखी ते जिम छे कहिये तिमज, चर्म पंखी अवलोय || ११०२. लोग पंखी हंसादि कुन डाबा ने आकार ए, ११०३. बलि वितत पंखी कथा मनुष्यक्षेत्र भी वार छे, १११२. एकखुरा अश्वादि जे ३७४ भगवती जोड़ समुग्ग पंखी धार मनुष्यक्षेत्र ने बार ।। ११०.४ अनेक लाखां वार ही, तेह विषेज बलोचली, ११०५. सहु भव में वध शस्त्र करि, काल अवसरे काल करि वा० - इहां खेचर का लाखां भव कह्या, ते अंतर सहित जाणवा । बीजूं निरंतरपण तो पंचेंद्रिय तिर्यंच नां उत्कृष्टा आठ भव भगवती शतक २४ में कह्या छँ । अथवा उत्तराध्ययन अ० १०।१३ में पिण पंचेंद्रिय नां सप्त अष्ट भव कह्या । ते पिण तिर्यंच पंचेंद्रिय नीं अपेक्षाये जाणवा । ते मार्ट ए लाखां भव कह्या ते अंतर सहित संभव । ते भव नीं विधि कहे छं आठ भव तिर्यच पंचेंद्रिय नां करी पर्छ एक भव एकेंद्रिय प्रमुख नों। वलि तिर्यंच पंचेंद्रिय नां आठ भव । इम अंतर सहित लाखां भव संभवे । ११०६. जे ए भुजपरिसर्प नां ते जिम में कहिये मिज, ११०७ जेम पनवणा घुर पदे, जावत जाहक जीव ते, ११०५ ते विषे वह लक्ष भव, शेष पंखी जिम जाणवो, ११०१. जे ए उरपरिसर्प नां भेद विधानज होय । गोह नोलिया जोय || आस्यो कहियो तेम । चउपद विशेष एम ॥ अंतर सहित कहाय जाव काल करिताय ॥ भेद विधानन होय । ते जिम कहिये तिमज, अहि अजगर अवलोय || १११०. आसालिया महोरगा, तेह विषे दम म्हाल बहु लख भव अंतर सहित, जाव करीनें काल || ११११. जेह एह चउपद तणां भेद विधानज होय । ते जिम से कहिये तिमज 1 एकखुरा अवलोय ॥ दोयखुरा गो आदि। गंडीया गज आदि फुन, सनखपदा सिंहादि || रहे पांखा विस्तार एहिं विषे विचार ॥ मरी-मरी नैं सोय । ऊपजस्यै अवलोय || दाह उपजवे जेह | भुजपर ऊपजस्येह || बा०--इह च यथोक्तमेवात्रिभृतयो रत्नप्रभादिषु यत उत्पद्यन्त इत्यसौ तथैवोत्पादितः, यदाह'अस्सण्णी खलु पढमं दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचभि पुढवि ॥ या मछा मनुया व सत्तम पुवि ॥ (बु०प०६९२) ११०१. जाई इमाई खयरविहाणाई भवंति तं जहा चम्पक्खीणं इति - 'खहचरविहाणाई' ति इह विधानानि - भेदाः ( वृ० प०६९३) ११०२. लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, 'लो' व हंसप्रभृतीनां समुम्यपनी ति समुद्गका कारवां मनुष्यक्षेत्रतिना (बृ० प० ९७३) ११०३. विययपक्खीणं 'विययपक्खीणं' ति विस्तारितपक्षवतां समयक्षेत्रबहितिगामेवेति । ( वृ० प० ६९३) सहसतो उदात्ता उदाइता तत्थेव तत्थेव भुज्जो - भुज्जो पच्चायाहिति । ११०५. सव्वत्थ विणं सत्यवज्भे दाहवक्कंतीए कालमा से कालं किच्चा ११०४. तेसु ११०६. जाई इमाई भयपरिसम्पविहाणा भवति तं जहा गोहाणं, नउलाणं पण्णवणापए ( १७६) जाव जाहगाणं ११०७. जहा चपाइया ११०८. ते अगस्त मे जहा बहरा जाय किच्चा ११०९. जाई इमाई उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं जहा अहीणं, अयगराणं १११०. आसालियाणं, महोरगाणं, तेसु अणेगसय सहस्सखुत्तो जाव (सं० पा० ) किच्चा ११११. जाई इमाई उप्पदविहाणा भवति तं जहाएमबुराणं १११२. दुखुराणं, गंडीपदाणं, सणहप्पदाणं 'ए' ति अश्वादीनां 'दुसुराणं' ति गवादीनां Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गंडीपयाणं' ति हस्त्यादीनां 'सणहप्पयाणं' ति सनखपदानां सिंहादिनखराणां । (व०प० ६९३) १११३. तेसु अणेगसयसहस्स जाव (सं० पा०) किच्चा १११४ जाई इमाई जलयरविहाणाइं भवंति, तं जहा मच्छाणं, कच्छभाणं १११५. जाव सुंसुमाराणं, तेसु अणेगसयसहस्स किच्चा १११३. तेह चतुष्पद में विषे, अनेक लक्षज वार । अंतर सहितज भव करी, जाव काल करि धार ।। १११४. जेह एह जलचर तणां, भेद विधानज होय । ते जिम छै कहियै तिमज, मच्छ-कच्छभा जोय ।। १११५. जावत ही सुसुमार फुन, तेह में बहु लख वार । अंतर-सहितज भव करी, जाव काल करि धार ।। हिवै ३ विकलेंद्रिय नां भव कहै१११६. जे ए चउरिद्रिय तणां, भेद विधानज होय । ते जिम छ कहिये तिमज, अंधिक पोत्तिक जोय ।। १११७. जेम पन्नवणा धूर पदे, जावत गोमय कीड़। तेह विषे बह लक्ष भव, जाव काल लहि पीड़।। १११८. जे ए तेइंद्रिय तणां, भेद विधानज होय । ते जिम छ कहियै तिमज, प्रथम उपचिता जोय ।। १११६. जावत हस्तीसंड फुन, तेह विषे इम न्हाल । करिस्यै अनेक लक्ष भव, जाव करीनै काल ।। ११२०. जे ए बेइंद्रिय तणां, भेद विधानज होय । ते जिम छै कहियै तिमज, पुला कृमिया जोय ।। ११२१. जावत समुद्रलीख फुन, तेह विषे इम न्हाल । करिस्य अनेक लक्ष भव, जाव करीने काल ।। हिवै एकेंद्रिय नां भव कहै छ११२२. जे ए वनस्पति तणां, भेद विधानज होय । ते जिम छ कहियै तिमज, रूंख गुच्छा अवलोय ।। ११२३. जाव भूमि-फोड़ा वली, तेह विषे इम लेह । बहु लाखां भव जाव ही, मरि-मरि ऊपजस्येह ।। १११६. जाई इमाइं चउरिदिय विहाणाई भवंति, जहा--- अंधियाणं पोत्तियाणं १११७. जहा पण्णवणापदे (११५१) जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसय जाव (सं० पा०) किच्चा १११८. जाई इमाई तेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा उवचियाणं १११९. जाव हत्थिसोंडाणं, तेसु अणेग जाव (सं० पा०) किच्चा ११२०. जाई इमाई बेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा -- पुलाकिमियाणं ११२१. जाव समुद्दलिक्खाणं तेसु अणेगसय जाव (सं० पा०) किच्चा ११२४. प्राये बहुलपणे करी, कटुक रूंख रै मांय । कडुई वेलि विषे वली, ऊपजस्यै तिहां आय ।। ११२५. सगलेई पिण शस्त्र वध, जाव काल करि जेह । ऊपजस्यै वायू विषे, विवरो तास सुणेह ।। ११२६. जे ए वाऊकाय नां, भेद विधानज होय । जे जिम छै कहियै तिमज, पूर्व वायू जोय ।। ११२७. जाव शुद्ध वायू कह्यु, तेह विष इम न्हाल । __ करिस्य अनेक लक्ष भव, जाव करीने काल ।। ११२८. जे ए तेऊ काय नां, भेद विधानज होय । ते जिम छै कहियै तिमज, जे अंगारा जोय ।। ११२६. जाव सूरकन मणि तणे, निश्चित तेऊ न्हाल । तेह विषे बहु लक्ष भव, जाव करीनै काल ।। ११३०. जेह एह अपकाय नां, भेद विधानज होय । ते जिम छ कहिये तिमज, ओस रात्रि-जल जोय ।। ११२२. जाई इमाइं वणस्स इविहाणाई भवंति, तं जहा रुक्खाणं, गुच्छाणं ११२३. जाव कुहणाणं, तेसु अणेगसय जाव (सं० पा०) पच्चायाइस्सइ 'कुहणाणं' ति कुहुणानाम् आयुकायप्रभृतिभूमीस्फोटानाम्। (वृ०प० ६९४) ११२४. उस्सन्नं च णं कड़यरुक्खेसु, कडुयवल्लीसु 'उस्सन्नं च णं' ति बाहुल्येन पुनः । (व० ५० ६९४) ११२५. सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा ११२६. जाई इमाइं बाउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा-पाईणवायाणं ११२७. जाव सुद्धवायाणं तेसु अणेगसयसहस्स जाव (सं० पा०) किच्चा ११२८. जाई इमाई तेउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा-इंगालाणं ११२९. जाव सूरकंतमणिनिस्सियाणं तेसु अणेगसयसहस्स जाव (सं० पा०) किच्चा ११३०. जाई इमाइं आउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा-ओसाणं भ० श० १५ ३७५ Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३१. जावत जल खाई तणुं, तेह विषे इम लेह । बह लाखां भव जाव ही, मरि-मरि ऊपजस्येह ।। ११३१. जाव खातोदगाणं, तेसु अणेगससयहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पच्चायाइस्सइ। ११३२. उस्सन्नं च णं खारोदएसु खत्तोदएसु ११३३. सब्वत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा ११३४. जाई इमाई पुढविक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा–पुढवीणं, सक्कराणं ११३५ जाव सूरकताणं, तेसु अणेगसय जाव (सं० पा०) पच्चायाहिति - ११३६. उस्सन्नं च णं खरबायरपूढविक्काइएम् सम्वत्थ वि __णं सत्थवज्झे जाव (स० पा०) किच्चा ११३२. प्राये बहुलपणे करी, खारा जल रै माय। वलि खातोदक ने विषे, ऊपजस्यै ए आय ।। ११३३. सगले ही पिण शस्त्र वध, जाव काल करि जेह । ऊपजस्यै पृथ्वी विष, विवरो तास सुणेह ।। ११३४. जे ए पृथ्वीकाय नां, भेद विधानज होय । ते जिम छै कहियै तिमज, पुढवी सक्कर जोय ।। ११३५. जाव सूरकत जाणवू, तेह विषे इम लेह । बहु लाखां भव जाव हो, मरि-मरि ऊपजस्येह ।। ११३६. प्राये बहलपण वली, खर बादर महि मांहि । सगर्ल पिण लहि शस्त्र वध, जाव काल करि ताहि ।। हिवै मनुष्य गति नै विषे ऊपजस्य तेहना भव कहै छै११३७. नगर राजगह वाहिरे, वेश्या प्रांतपणेह । ऊपजस्य तिहां शस्त्र वध, जाव काल करि जेह ।। वाल-- अत्र टीका में कह्यो ते लिखिये छै–बाहिं खरियत्ताए त्ति नगरबहिर्वत्तिवेश्यात्वेन नगर बारे बसवा बाली वेश्यापण । प्रांतज वेश्यात्वेनेत्यन्ये --- अनेरा आचार्य कहै--प्रांत वेश्यापण ऊपजस्य । ११३८. द्वितीय वार पिण राजगह, नगर मांहि अवलोय । ऊपजस्यै वेश्यापणे, शिष्ट वेश्या कहै कोय ।। वा०-अत्र टीका में कह्यो ते लिखिये छ-अंतो खरियत्ताए त्ति नगराभ्यंतर वेश्यात्वेन-नगर माहि वेश्यापण । शिष्टवेश्यात्वेनेत्यन्ये-अनेरा आचार्य कहैशिष्ट वेश्यापणं ऊपजस्य । ११३६. त्यां पिण पामिस शस्त्र वध, जाव काल करि जेह । एहिज जंबूद्वीप इण, नामै द्वीप विषेह ।। ११४०. भरतक्षेत्र में विझगिरि, तेह समीपे जाण । विभेल सन्नेिवेश में, ब्राह्मण कुले पिछाण ।। ११४१. ऊपजस्यै पुत्रीपण, मात-पिता तब तास । बालभाव प्रति मूकियो, प्राप्त जोवन वय जास ।। ११३७. रायगिहे नगरे बाहि खरियत्ताए उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा वा० --'बाहि खरियत्ताए' त्ति नगरबहिर्वत्तिवेश्यात्वेन प्रान्तजवेश्यात्वेनेत्यन्ये । (वृ०प० ६९४) ११३८. दोच्चं पि रायगिहे नगरे अंतो खरियत्ताए उवव ज्जिहिति । वा०-'अंतोखरियत्ताए' त्ति नगराभ्यन्तरवेश्यात्वेन विशिष्टवेश्यात्वेनेत्यन्ये । (वृ०प०६९४) ११४२. एहवी पुत्री जाण करि, जोग्य दान करि जेह । जोग्य विनय करिने जिको, जोग्य कंत जाणह ।। ११३९. तत्थ वि णं सत्थवज्झे जाव (सं० पा०) किच्चा ___ इहेव जंबुद्दीवे दोवे ११४०. भारहे वासे विझगिरिपायमूले बेभेले सण्णिवेसे माहणकुलंसि ११४१. दारियत्ताए पच्चायाहिति । तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जोव्बणगमणुप्पत्तं ११४२. पडिरूवएणं सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, पडि रूवयस्स भत्तारस्स 'पडिरूविएणं सुक्केणं' ति प्रतिरूपकेन उचितेन शुल्केन-दानेन। (वृ०प० ६९५) ११४३. भारियत्ताए दल इस्सति । सा णं तस्स भारिया भविस्सति इट्ठा कंता ११४४. जाव अणुमया, भंडकरंडगसमाणा 'भंडकरंडगसमाणे' ति आभरणभाजनतुल्या आदेयेत्यर्थः। (वृ०प०६९५) ११४३. देस्यै तसु भार्यापण, तिका ब्राह्मणी तास । भार्या होस्यै इष्ट ही, कंता वल्लभ जास ।। ११४४. जाव अणुमया वा लही, भंड आभरण पिछाण । तसु करंड भाजन कह्या, तेह सरीखो जाण ।' ३७६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४५. तेलकेला ते तेलना, भाजन विशेष होय । तेहनी पर रूड़ी परै, संगोपनीय जोय ।। ११४६. वस्त्र-मंजूसा नी परे, रूड़ी परै विमास । उपद्रव रहितज स्थानके, जेह राखिस्यै जास ।। ११४५. तेल्लकेला इव सुसंगोविया 'तेल्लकेला इव सुसंगोविय' त्ति तैलकेला इव--तैलाश्रयो भाजनविशेषः सौराष्ट्रप्रसिद्धः सा च सुष्ठ संगोपनीया । (वृ०प० ६९५) ११४६. चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया, 'चेलपेडा इव सुसंपरिगहिय त्ति चेलपेडावत्-वस्त्रमञ्जूषेव सुष्ठु संपरिवृत्ता (गृहीता)-निरुपद्रवे स्थाने निवेशिता । (वृ० प० ६९५) ११४७. रयणकरंडओ विव सुसारक्खिया, सुसंगोविया, ११४८. मा णं सीयं, मा णं उण्हं जाव परिसहोबसग्गा फुसंतु । ११४९. तए णं सा दारिया अण्णदा कदायि गुश्विणी ११४७. रत्न-करंडिया नी पर, रूड़ी परै आरोग्य । राखण योग्य हुस्य वली, सुसंगोपन योग्य ।। ११४८. रखे शीत फर्श वली, रखे उष्ण फशह । जाव परिसह उपसर्गा, मत फर्शो इम लेह ।। ११४६. इह विधि करस्य यत्न तसु, ताम बालिका तेह । कदाचित अन्य दिवस ही, हुस्यै गर्भणी जेह ।। ११५०. जे ससुरा नां घर थकी, आवंती कुल गेह । बिच दव अग्नि ज्वालक, अधिक हणास्य देह ।। ११५१. काल अवसरे काल करि, दक्षिण अग्निकुमार । देव विषेज सुरपण, ऊपजस्यै तिहवार ।। ११५२. तेह तिहां थी नीकली, अंतर रहित विचार। मनुष्य तणों तनु पामस्यै, मनु तनु लही उदार ।। ११५३. केवल सम्यक्त्व पामस्यै, पामी सम्यक्त्व सार। केवल मुंड थई हुस्यै, गृह तजि नै अणगार।। ११५४.तिहां पिण चरित्त विराधि ने, काल समय करि काल । दक्षिण असुरे सुरपणे, ऊपजस्यै इम न्हाल । ११५५. तेह तिहां थी जाव ही, निकली ने मनु देह । तिमहिज जावत तत्र पिण, चरित विराधी तेह ।। ११५६. काल अवसरे काल करि, दक्षिण नागकुमार। देव विषे ते सुरपण, ऊपजस्यै तिहवार ।। ११५७. ते तिहां थी अंतर रहित, इम इण अभिलापेह। दक्षिण सुवन्नकुमार में, ऊपजस्यै वलि जेह ।। ११५८. दक्षिण विद्युकुमार इम, वर्जी अग्निकुमार। जावत दक्षिण थणिय में, ऊपजस्यै तिहवार ।। ११५६. तेह तिहां दी जाव ही, निकली – मनु देह । लहिस्य जावत चरित्त प्रति, तदा विराधी तेह ।। ११६०. देव जोतिषी में विषे, ऊपजस्यै तिहां जाय । ते तिहां थी अंतर रहित, चवी मनुष्य तनु पाय ।। वा०-'अत्र चारित्र विराधी अग्निकुमार वर्जी नवनिकाय नै जोतिषी में ऊपजस्य, एहवू कह्य । ते सम्यक्त्व नो पिण विराधक संभव ते किम ? जे सम्यग्दृष्टि मनुष्य अन तिथंच रै वैमानिक देवायु विना अन्य आउखा रो बंध न पड़े, एहवू सूत्र कह्यो छ ते माट। नव निकाय अनै जोतिषी देवायु नो बंध पडस्य ते वेला सम्यक्त्व चारित्र दोनं नहीं, एहवं न्याय जाणवो।' (प..स०) ११५०. ससुरकुलाओ कुलघर निज्जमाणी अंतरा दवग्गि जालाभिहया ११५१. कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु अग्गिकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति । ११५२. से णं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता ११५३. केवलं बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वइहिति । ११५४. तत्थ वि य णं विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति । ११५५. से णं तओहितो अणंतरं उब्वट्टित्ता माणसं विग्गह जाव ( संपा०) तत्थ वि य णं विराहियसामण्णे ११५६. कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु नागकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति । ११५७. से णं तओहितो अणंतरं एवं एएणं अभिलावेणं ___ दाहिणिल्लेसु सुवण्णकुमारेसु, ११५८. एवं विज्जुकुमारेसु, एवं अग्गिकुमारवज जाव दाहिणिल्लेसु थणियकुमारेसु । ११५९. से णं तओहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाव (सं० पा०) विरायिसामण्णे ११६०. जोइसिएसु देवेसु उववजिहिति । से णं तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति । भ० श०१५ ३७७ Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६१. जावत चरित्त आराध नें, काल मास करि काल । सुधर्म कल्पे सुरपणे, ऊपजस्यै सुविशाल ।। ११६२. ते तिहां थी अंतर रहित, चयं च इत्ता धार । मनुष्य तणुं देह पामिस्यै, लहिस्यै सम्यक्त्व सार ।। ११६३. तिहां पिण चरित्त अराध नै, काल मास करि काल । सनत्कुमारे सुरपणे, ऊपजस्यै सुविशाल ।। ११६४. ते तिहां थी इम जिम का, सनत्कुमार विषेह । तिम ब्रह्मलोके महाशुक्र, आणत आरण जेह ।। ११६५. तेह तिहां थी जाव ही, चरित्त अराध उदार। काल अवसरे काल करि, संजम तप फल सार ।। ११६६. सर्वार्थसिद्ध नाम वर, महाविमाण विषेह । ऊपजस्यै ते सुरपण, लवसत्तमा सुर तेह ।। ११६७. तेह तिहां थी अंतर रहित, चयं चइत्ता सोय । क्षेत्र महाविदेह नै विषे, जेह एह कुल होय ।। ११६८. ऋद्धि प्रतिपूर्ण जाव ही, अपरिभूत कहेह । तथा प्रकार नां कुल विषे, पुंपणे उपजम्येह ।। ११६६. इम जिम उववाई विषे, दृढपइन्न तणीज । वक्तव्यता तेहिज सह, वक्तव्यता भणवीज ।। ११७०. जावत केवलज्ञान वर, दर्शण ऊपजस्येह। तिण अवसर ते केवली, दृढ़प्पइणो जेह ।। ११६१. जाव (सं० पा०) अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववज्जि हिति । ११६२. से णं तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्स विग्गहं लभिहिति । ११६३. तत्थ विणं अविराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उववज्जिहिति । ११६४. से णं तओहितो एवं जहा सणंकुमारे तहा बंभलोए, महासुक्के, आणए, आरणे । ११६५. से णं तओहितो जाव (सं० पा०) अविराहिय मामण्णे कालमासे कालं किच्चा ११६६. सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववज्जि हिति । ११६७. से ण तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाइं भवंति११६८. अड्डाई जाव अपरिभूयाई, तहप्पगारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पच्चायाहिति । ११६९. एवं जहा ओववाइए (सू० १४२-१५३) दढप्पइण्ण वत्तव्वया सच्चेव वत्तव्वया निरवसेसा भाणियव्वा । ११७०. जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिति । (श० १५१८६) तए णं से दढप्पइण्णे केवली ११७१. अप्पणो तीतद्धं आभोएहिइ, आभोएत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेहिति, सद्दावेत्ता ११७२ एवं वदिहिइ-एवं खलु अहं अज्जो ! इओ चिरातीयाए अद्धाए ११७३. गोसाले नामं मखलिपुत्ते होत्था-समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए। ११७१. काल अतीतज आपणो, देखै देख अतीत । श्रमण निग्रंथ तैडावस्यै, तेड़ावी सुवदीत ।। ११७२. इहविध कहिस्य हे अज्जो ! इम निश्चै करि जाण । घणे अतीत कालेज हूं, इहां थकी पहिछाण ।। ११७३. मंखलिसत गोशाल थो, श्रमण-वधक दुखकार । जाव छद्मस्थपणेज म्हैं, काल कियो तिहवार ।। वा०-जाव छदमस्थ थकोज निश्च काल प्राप्त थयो ते मूल जाणवो। ११७४. हे अज्जो! ते मूल हूं, आदि रहित अवलोय । ___ अंतर रहित फुन जाणवू, दीर्घ काल तसु जोय ।। ११७५. चातुरंत संसार जे, तेह रूप अटवीह । एहवा जे संसार प्रति, म्है बहु भ्रमण करोह ।। ११७४. तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं ११७५. चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियट्टिए । वा०'कोइ पूछ-गोशालो अनेक लाखां भव करिस्यै, एहवू पूर्वे का। अनै इहा आदि-अंत-रहित कह्य ते किम ? उत्तर-आदि-अंत रहित दीर्घ काल एहवी संसार रूपणी अटवी बखाणी। एहवी अटवी नैं विष म्है परिभ्रमण कीयो, इम गोशालो केवली थई कहिस्य । पिण हूं अनंत काल रूल्यो इम कहिस्थै, एहवू न का। __वलि इहां अनादि अनंत कह्यो, पिण गौशाला नै तो संसार नो अंत आवस्य । ते माट ए अनादि-अनंत ते संसार रूपिणी अटवी बखाणी । सथा भगवती शतक ८ उ०१० वृत्ति में सम्यक्त्व ना आराधक नै तथा देशविरत नां 'अट्ठभवा उ चरित्ते' ति श्रुतसम्यक्त्वदेशविरतिभवास्त्वसंख्येया उक्ताः (भग० वृ० ५० ४२०) ३७८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७६. तं मा णं अज्जो ! तुब्भं केयि भवतु आयरिय पडिणीए उवज्झायपडिणीए । ११७७. आयरिय उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारणए अकित्तिकारए। ११७८. मा णं से वि एवं चेव अणादीयं अणववदग्गं ११७९. जाव (सं० पा०) संसारकंतारं अणुपरियट्टिहिति, जहा णं अहं। (श० १५॥१८७) ११८०. तए णं ते समणा निग्गंथा दढप्प इण्णस्स केवलिस्स __ अंतियं एयमटुं सोच्चा निसम्म ११८१. भीया तत्था तसि या संसारभउव्विग्गा। आराधक नै उत्कृष्ट असंख्याता भव कह्या । इमहिम अणुयोगद्वारे अर्थ में कह्यो । भने गोशालो छेहली रात्र सम्यक्त पाय काल कियो। ते माट एहना अनंत भव किम हुवै ? न्याय दृष्टे विचारी जोयजो।' (जस०) ११७६. ते माट आर्यो ! अहो, तुम्हे म थावो कोय । प्रत्यनीक आचार्य नों, उपाध्याय नों जोय ।। ११७७. आचार्य उवज्झाय नों, अजशकार मति होय । अवर्णकारक मत हुओ, अकीतिकारक जोय ।। ११७८. इम निश्चै करिनैं तिको, आचार्य उवझाय । तसु अजशादिक कारको, अनादि अनंत ताय ।। ११७६. जावत संसार रूपणी, एहवी अटवी मांहि । परिभ्रमण करिसौ रखै, जिम हूँ तिह विध ताहि ।। ११८०. श्रमण निग्रंथ तिण अवसरे, दृढ़पइण्ण जिन पास । एह अर्थ निसुणी करी, हृदय धार वच तास ।। ११८१. बीहनां त्राठा वलि लघु, चित्त उद्वेग सुत्रास । वलि संसार नां भय थकी, लघु उद्वेग विमास ।। ११८२. केवली दृढपइण्ण प्रति, वंदणा करिस्य जाण । नमस्कार करिस्य वली, आलोवस्यै ते स्थान ।। ११८३. वलि ते स्थानक निंदस्य, जाव प्रायश्चित्त पेख । पड़िवजस्यै तन मन करी, केवली वचन अवेख ।। ११८४. तिण अवसर ते केवली, ढपइण्णेण ताय । बहु वर्षां लग पालस्यै, केवल नी पर्याय ।। ११८५. केवल पर्याय पालि नै, शेष आयु निज जाण । करिस्यै भत्तपच्चखाण प्रति, महामुनी गुणखाण ।। ११८६. इम जिम उववाई विषे, आख्यूं कहि तेम । जाव अंत सहु दुक्ख नों, करिस्यै लहिस्य खेम ।। ११८७. सेवं भंते ! तहत्ति इम, कही गोयम बे वार । जावत विचरै चरण तप, भावित आत्म उदार ।। ११८८. तेज लेश जे तेहनो, नीकलवो ते रूप । अध्ययन संपूर्ण थयो, अर्थ रूप तद्रूप ॥ ११८६. थयुं संपूरण पनरमो, एकसरो शत एह । उद्देशक नहि ते विषे, अमल अर्थ गुणगेह ।। ११८२. दढप्पइण्णं केवलि वंदिहिंति नमंसिहिति, वंदित्ता नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोएहिति ११८३. निदिहिति जाव अहारियं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजिर्जहंति। (श० १५५१८८) ११८४. तए णं से दढप्पइण्णे केवली बहूई वासाई केवलि ___ परियागं पाउणिहिति, ११८५. पाउणित्ता अप्पणो आयुसेसं जाणेत्ता भत्तं पच्च क्खाहिति । ११८६. एवं जहा ओववाइए (सू०१५४) जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिति । (श०१५।१८९) ११६७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । (श० १५५१९०) गीतक छंद ११६०. महावीर नां सुप्रसाद थी गोशाल अहंकृति जिम नशी। तिमहीज मम सहु विघ्नराशि-विनास थी अति उल्लसी।। गणनाथ भिक्षु दीर्घमाल' नपेंदुना' सुप्रसाद थी। शय पनरमा नी जोड 'जय-गणि' रची धर अहलाद थी। पञ्चदशं गोशालाख्यं शतकं समाप्तम ११६०. श्रीमन्महावीरजिनप्रभावाद, गोशालकाहंकृतिवद्गतेषु । समस्तविघ्नेषु समापितेयं, वृत्तिः शते पञ्चदशे मयेति ।। १. आचार्य भारीमालजी २. आचार्य रायचन्दजी भ० श०१५ ३७९ Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ११६१. पनरम विण सहु शतक नी, प्रथम जोड़ जय किद्ध। पछै पनरमा शतक नी, रची जोड़ सुप्रसिद्ध'। ११६२. वर्ण अद्धा निधि चंद जे, भाद्रव कृष्ण सुपक्ष' । द्वाविंशति छप्पन प्रवर, मुनि अज्जा गुण दक्ष ।। १. जयाचार्य 'भगवती जोड़' की रचना कर रहे थे। चौदह शतक की जोड़ पूरी हो गई । पन्द्रहवें शतक में गोशालक का अधिकार है। आचार्य भिक्षु ने उसे आधार बनाकर गोशालक का आख्यान लिखा। उस आख्यान की ४१ ढालें हैं। जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु की रचना का सम्मान करते हुए वह शतक यों ही छोड़ दिया और आचार्य भिक्षु रचित ४१ ढालों को जोड़ के साथ जोड़कर सोलहवें शतक का प्रारम्भ कर दिया। भगवतो जोड़ की रचना वि० सं० १९२४ में सम्पन्न हो गई। एक दशक बाद युवाचार्य मघवा तथा कुछ बुजुर्ग साधुओं ने निवेदन किया-'गुरुदेव ! स्वामीजी के प्रति आपके विनय और सम्मान का औचित्य है पर इतने बड़े और महत्त्वपूर्ण आगम की जोड़ को पूरा करना भी आवश्यक है।' उनके विशेष अनुरोध पर जयाचार्य ने पन्द्रहवें शतक की जोड़ रची पर रचना का क्रम बदल दिया। अन्य सभी शतकों में रागिनी बद्ध ढाले हैं जबकि प्रस्तुत शतक दोहों में निबद्ध है। चौदह शतक तक ढालों की संख्या ३०५ है। सोलहवें शतक का प्रारम्भ ३४७ वीं ढाल से होता है । बीच की संख्या आचार्य भिक्षु रचित 'गोशालक आख्यान' की ४१ ढालों की गणना से पूरी कर दी गई। पन्द्रहवें शतक की रचना एक दशक बाद हुई यह बात जयाचार्य कृत इसी दोहे से प्रमाणित होती है। इस दृष्टि से उस आख्यान को पन्द्रहवें शतक के परिशिष्ट में दिया गया है। २. पन्द्रहवें शतक की जोड़ का रचनाकाल वि० सं० १९३४ भाद्रपद मास का कृष्णपक्ष है। इसका संकेत प्रस्तुत पद्य में है। संस्कृत में संख्या की गणना का क्रम उलटा रहता है। उस समय संवत तिथि आदि का आकलन प्रायः प्रतीकात्मक शब्दों के द्वारा किया जाता था । जयाचार्य ने भी उसी क्रम को स्वीकार किया है । प्रस्तुत पद्य में चार शब्द हैं-वर्ण, अद्धा, निधि और चंद । चन्द्रमा १ होता है। निधियां ९ होती हैं। अद्धा-काल ३ होते हैं-भूत, भविष्य और वर्तमान तथा वर्ण ४ होते हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इस प्रकार १९३४ की संवत इस शतक का रचनाकाल है। ३८. भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ गोसाला री चौपई Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसाला री चौपई अरिहंत सिद्ध ने आयरिया, उवझाया सगला साध । मुगत नगर नां दायका, ए पांचू पद आराध ।।१।। नमं वीर सासणधणी, सुतर देव अरिहंत - भाख्या ते गणधरां गुथिया, ते आगम सार सिद्धंत ।।२।। भगोती रा पनरमां सतक में, गोसाला रो इधकार । तिण अनुसारे हं कहूं, ते सांभलजो विसतार ।।३।। तिण काले नै तिण समे, नगरी सावत्थी नाम । तिहां कोठग नामे बाग थो, इसाण कूण ठाम ।।४।। हलाहल कुंभारी तिहां वसै, तिणरै रिध घणी धर माहि। ते गोसाला री छै श्रावका, मत झाल रही छै ताहि ।।५।। ते गोसाला ग सिद्धत रा, लाधा छै अर्थ अनेक । वले अर्थ ग्रह्या नै पूछिया, निरणो कीधो छै बशेष ।।६।। हाड मीजा रंगी तेहनी, गोसाला रा धर्म मे ताहि । अर्थ परम-अर्थ गिण तेहन, सेस गिणै छै अनर्थ मांहि ।।७।। इणविध आतमा भावती, विचरै छै दिन रात । ते जाणै तीर्थंकर तेहन, तिणरै संका नहीं तिलमात ।।८।। ढाल : १ [मम करो काया माया कारमी] तिण हलाहल कुंभारी री जायगां मझे, पिरवार सहित आयो तास जी। तिण काले गोसाला नै हवा, पवज्जा लियां चौबीस वास जी। भाव सुणो गोसाला तणां ।।१।। छ दिसाचर पास-संतानिया, ते पूर्वधारी था ताय जी। त्यां जस कीरत सुण गोसाला तणो, ते मिलिया गोसाला में आय जी ।।२।। साण कलंद कणियार नैं, अछिद्र अगीवेसायण ताम जी। छठो गोमाउ नों पुत्र अर्जुन, एछ दिसाचर नां नाम जी ॥३॥ जब गोसालो मन हरषत हुवो, ज्यू डाकण में जरख मिलै आण जी। ज्यं लीधी असवारां सांढ्यां भणी, ए दिष्टंत लीजो पिछाण जी ।।४।। आठ महानिमत सास्त्र तके, गोसालो भण्यो मूख पाठ जी। तिणसं लोकां नै भरमाय ने, सिष-सिषणी रो कियो थाट जी ।।५।। भूम' कंपै उतपात* हुवै वले, सुपना रो जाणे विचार जी। उलकापात हुवै लोक में, ते फल रो जाणै विसतार जी ।।६।। गोसाला री चौपई, ढा० १ ३८३ Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग' फुरके डावो जीमणो, तेहनां पिण अर्थ नों जाण स्वर कागादिक तेहनां ते पिण लिया पिछाण मस तिलकादिक बंजणा", लषण' सास्त्र जाणें ताम ए आठ महानिमत्त सास्त्र भण्यो, ते परूप रह्यो ठाम ठाम जी || 5 || तिणसूं छह वागरणा मुख वागरै, जोतक भाखै अनेक जी । तिणस लोक मत में पड़या घणां, इहलोक रा अर्थी विशेष जी ॥ ६ ॥ ते लाभ' अलाभ' परूपतो, सुख दुख परूपै छै तेह जी । जीवन * मरण परूपती, आ मुदे सिद्धाई छ एह जी ।।१०।। तिणसूं कहे सावरची नगरी मझे, हूं जिण वीतराग स्वमेव जी हूं अरिहन्त छू केवली, हूं सतवादी देवातदेव जी ।। ११।। गोसालो नहीं अरिहंत केवल झूठावोलो छ साख्यात ओ छै साख्यात पिण जिण अरिहंत ज्यू पूजावतो, संके नहीं तिलमात पण लोक मांहोमांहि इम कहे, आजूणां काल रे मांय गोसालोजी तोर्थंकर चोबीसमों, कोइ संक म राखजो कांय जी ।।१३।। सावस्थी नगरी में फैलियो, गोसाला रो गूढ मिध्यात घणां लोक गोसाला रा मत म ते किण री सरघं नहीं बात जी । जी || १२ | ॥ जी । जी । जी ।।१४।। ॥ दूहा तिण काले नैं तिण समे, भगवंत श्री महावीर । ते तीर्थंकर चोवीसमां विचरत साहस धीर ॥१॥ गांवां नगरां विचरता करता पर उपगार | सावत्बी नगरी पधारिया, साथै साधां से बहु पिरवार ॥ २ ॥ सावस्थी नगरी रे बाहिरे, इसाण कूण रे माय तिहां कोटग नामे दाग थो, ते छहूं रित सुखदाय ||३|| तिण बाग मांहे वीर ऊतर्था भव जीवां रे भाग । मारग दिखायें मोख से उपजावं बैराग || ४ || रो, [अरिहंत मोटका ए] समझावै नर-नार नैं ए. भगवंत भलांइ पधारिया ए भव जीवां रा तारणहार । उतारं भव-जल पार || सावत्थी नगरी में फेलियो ए, ते काढण आविया ए. २०४ भगवती जो ढाल : २ जी । जी ॥७॥ जी । भगवंत भला आविया ए ॥ | १ || आं० गोसाला से गुड़ मिथ्यात । सयमेव श्री जगनाथ ||२॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यां राग धेष दोय खय किया ए, बले नहिं किण री पखपात । निंद्या नहीं केहनी ए, नहीं य खसामदी री बात ।।३।। सावत्थी नगरी नी परषदा ए, वाणी सुणे हरषत थाय । वंदणा करे वीर नैं ए, आया था जिण दिस जाय ॥४॥ पहिले पोहर गोतम सझाय करी ए, बीजे पोहर ध्यानज ध्याय । तीजे पोहर गोचरी ए, उठ्या सावत्थी नगरी रे माय ॥५॥ लोक सावत्थी नगरी तणां ए, ठाम-ठाम करै इम बात । गोसालो जिण केवली ए, चौबीसमों जगनाथ ।।६।। ए वचन गोतम सामी सांभल्यो ए, पाछा आया भगवंत पास। आहार देखाय ने ए, हिवै प्रश्न पूछे आण हुलास ॥७।। हूं आप तणी लेई आगना ए, गयो सावत्थी नगरी रै माय । तिहां लोक बातां करै ए, कहै गोसालो छै जिनराय ।।८।। जो इच्छा हुवै सामी आपरी ए, तो किरपा करे कहो जगनाथ । उठाणपरिया' एहनी ए, मांड कहो सहु बात ॥६॥ ० ० ० गोतमादिक सह साधां भणी, बोलाय कहै भगवंत । जे गोसाला ने तीर्थंकर कहै, ते झूठ बोल छै एकंत ।।१।। ओ मंखलीपुत्र डाकोतरो, डाकोतरा री जात । हिवै धुर सु उतपत तेहनी कहूं, ते सुणजो विख्यात ।।२।। ढाल : ३ [कपूर हुवं अति ऊजलो जी] मखली भिख्याचर डाकोतरो जी, पाटिया दिखाले चित्राम । आजीवका करतो फिर जी, तिणरै भद्रा अस्त्री नो नाम हो । गोतम ! सुण गोसाला रो विरतंत ॥१॥ आं० ते गर्भवती भद्रा हुई जी, ते गोसालो गर्भ में ताम। तिण अस्त्री नैं साथे लियां फिर जी, गांव परगाम ठाम-ठाम हो ।।२।। तिण काले नैं तिण समे जी, सरवण नामे सनीवेस । तिहां सुखिया लोक वसै घणां जी, त्यांरै रिध रो घणो परवेस हो ।।३।। तिहां गोबहल नामे ब्राह्मण वस जी, तिण रै रिध घणी घर मांहि । ते च्यार वेद रो जाण थो जी, त्यांरा अनेक सास्त्र जाण ताहि हो ।।४।। तिण ब्राह्मण रै गउसाला ती जी, ते मोटो घणी थी ताहि । मंखली भद्रा सहित फिरतो थको जी, आय उतरियो तिण मांहि हो ।।५।। १. उठाणपरियाणिय-आद्योपान्त वृतांत गोसाला री चौपई, ढा०३ ३८५ Jain Education Interational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण गऊसाला में जनमियो जी, तिण सू दियो गोसालो नाम । ते बालभाव मूक्यां पछै जी, जोवन प्रापत हवो ताम हो।।६।। कला चतराई परगट हुई जी, पाटीए चित्र्या रूप अनेक । ते पिण हाथे लियां फिर जी, करै पेटभराई विशेष हो ।।७।। हं तीस बरस घर में रह्यो जी, पछै लीधो मैं संजम हुलास । पख-पख खमण करतो पारणो जी, अठी-गाम कियो चौमास हो ।।८। बीजे वरस मास-मास पारणो जी, हूं करतो थो एकण धार । हं नगरी राजगही आवियो जी, नालंदा पाड़ा मझार हो ।।६।। तिण नालंदा पाड़ा मझे जी, तंतूवाय-साला थी तिण मांय । तिहां आग्या लेई हूं ऊतरचो जो, तिण में दियो चौमासो ठाय हो ।।१०।। गोसालो पिण तिण अवसरे जी, तंतूवाय-साला में आय । एक देस में उपगरण मेलने जी, गयो राजग्रही नै माय हो ।।११।। कठ जायगां न मिली तेहनै जी, जब पाछो आयो तिण ठाम। तंतवाय-साला रा एक देस में जी, ओ पिण रह्यो चौमासो ताम हो ।।१२।। पहिला मासखमण रो म्हारै पारणो जी, जब लेवा नै उठ्यो आहार। तंतवाय-साला थी बारै नोकल्यो जी, आयो राजग्रही नगर मझार हो ॥१३।। दूहा हं राजग्रही नगरी मझे, करतो सुध गवेस । विज गाथापती तेहनां, घर में कियो परवेस ।।१।। तिण मोनै आवतो देखन, घणों हरष हवो मन मांहि । वले संतोष पाम्यो अति घणों, वले भगत विनो कियो ताहि ।।२।। ढाल : ४ [वीर बखाणी राणी चेलणा जी] तिण आसण छोड्यो उतावलो जी, वले उभो हवो मान मरोड़। वले कियो उतरासंग जुगत सूं जी, वले अंजली कीधी कर जोड़। साधजी भलाई पधारिया जी ।।१।। आं० सात-आठ पग साहमो आयनै जी, लुल-लुल नीचो जी थाय । तीन परदिषणा दै मो भणी जी, वंदणा कीधी सोस नमाय ॥२॥ आज मांहरी रै जागी दशा जी, पूगी म्हारा मन तणो कोड़। आज भलो भाण ऊगियो जी, आज भाग कियो म्हारै जोर ॥३।। आज करतारथ हूं थयो जी, मुनिवर आया म्हारै बार। ज्यांरै पुरषां तणी चावना जी, त्यांरो म्है दीठो दीदार ॥४॥ ३८६ भगवती जोड़ Jain Education Interational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणग्राम किया म्हारा अति घणां जी, ते पिण वारूं जी वार । भाव सहित मोनै वांदिया जी, भाव कियो नमसकार ॥५।। मौन रसोड़ाघर माहे ले जाय नै जी, प्रतिलाभ्या च्यारूई आहार । दान देतां ने दियां पछै जी, पामियो हरष अपार ।।६।। दरब दातार दोन सुध था जी, तीजो पातर सुध जाण । वले सुध तीन करण तीन जोग रोजी, इणरै इसड़ो भिलियो जोग आण।।७।। इणविध मोने प्रतिलाभियो जी, असणादिक च्यारूंई आहार । तिहां देव आऊखो तिण बांधियो जी, वले कीधो तिण परत संसार ।।८।। तिहां सुगंध पाणी देव वरसावियो जी, बले बूठा पंचवर्ण फूल । वले बिरखा करी सोवन तणी जी, बूठा बले वसतर अमूल || देव बजाई देवदंदभी जी, आकास रै अंतर ठाम । मोटे सब्दे घोष पारियो जी, दान रा किया गुणग्राम ॥१०॥ धिन-धिन करै छै देवता जी, धिन-धिन करै नर-नार। विजै गाथापति नै कहै जी, इण सफल कियो अवतार ॥११॥ वले राजग्रही नगरी मझे जी, घणां लोक करै गुणग्राम । इण जीतब जनम सुधारियो जी, प्तिण साध प्रतिलाभिया ताम ।।१२।। पांच दरब परगट हुवा जी, ओ पिण लोकां इचरज देख । तिणसू ठाम-ठाम बातां करे जी, विवरा सुध वशेख ।।१३॥ ए बात गोसाले सांभली, घणां लोकां रे पास । ते सांसो काढण भणी, चाल्यो आण हुलास ॥१॥ तिण विज तणो घर छै तिहां, आयो गोसालो ताम । सोनइयादिक फूलां तणां, गिज दीठा तिण ठाम ।।२।। तिण विजय तणां घर मांहि थी, मौन नीकलतो देख । जब इण म्हारा गुण जाण नै, हरषत हुवो बशेख ॥३।। मुझने आय वंदणा करी, बोल्यो जोड़ी हाथ । थे धर्माचारज मांहरा, हुं सिष थारो सामीनाथ ।।४।। ए वचन सुणे म्है गोयमा ! इणने आदर न दियो ताम । वले भलो न जाण्यो एहने, मून साझी तिण ठाम ॥५॥ तिवार पछ हं गोयमा ! तिहां पाछो आयो चलाय । बीजो मासखमण मैं पचखियो, तंतूवायसाला में आय॥६।। गोसाला री चौपई, ढा०५ ३८७ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल: ५ [सल्ल कोई मत राखज्यो] बीजा मासखमण रै हूं पारणे, राजग्रही नगरी में आयो जी। तिहां आणंद गाथापति बसै, हूं गयो तिण रा घर मांडो जी॥ वीर कहै सुण गोयमा ! ॥१॥ आं० आणंद हरष्यो मौन देखी आवतो, विनो कियो रूडी रीतो जी। विजय गाथापती नी परे, अंतरंग भाव-भगत सहीतो जी ॥२॥ मौन रसोड़ाघर में लेजाय नै, खंड खाजादिक विविध पकवानो जी। मोनै प्रतिलाभे हरष्यो घणों, संतोष पाम्यो देइन दानो जी ।।३।। तिण देव आऊखो बांधियो, वले कीधो परत संसारो जी। सेष विजै जिम जाणजो, सगलोई विसतारो जी ।।४॥ जब पिण गोसालो मो आगले, विनो कर बोल्यो जोड़ी हाथो जी। थे धर्माचारज मांहरा, हं सिप थारो सामीनाथो ! जी ।।५।। जब पिण आरे इणनै म्है नहि कियो, मून साझे रह्यो तायो जी। वले मासखमण तीजो पचखियो, तंतूवाय-साला में आयो जी ।।६।। तीजा मासखमण रै पारणे, हं राजग्रही में आयो जी। तिहां सुदंसण गाथापति वस, हं गयो तिणरा घर माह्यो जी॥७॥ मोनै देख्यो सूदसण आवतो, विनो कियो रूडी रीतो जी। विज गाथापति नी परे, अंतरंग भाव-भगत सहीतो जी।।८।। मोनै रसोड़ाघर में ले जाय नै, सर्व गुण भोजन सरस आहारो जी। मौन भाव सहित प्रतिलाभियो, हरष संतोष पाम्यो अपारो जी ।।६।। इण पिण देव आऊखो बांधियो, इण पिण कियो परत संसारो जी। विज ज्यं सगलोई जाणजो, गोसाला सुधो विसतारो जी ।।१०।। जब पिण गोसाला मो आगले, विनो करे बोल्यो जोडी हाथो जी। थे धर्माचारज मांहरा, हूं सिष थारो सामीनाथो ! जी ॥११।। जब पिण इण ने आरे म्है नहि कियो, मून साझी रह्यो ताह्यो जी। वले मासखमण चोथो पचखियो, तंतवाय-साला रै मांह्यो जी ।।१२।। तिण नालंदा पाड़ा थी ढ़करो, कोलाग नामे सनिवेसो जी। तिहां बहुल नामे ब्राह्मण वसे, तिण रै रिध प्रभूत वसेसो जी॥१३॥ ते च्यारूई वेद रो जाण थो, ब्राह्मण रा सास्त्र जाण्या अनेको जी। तिण काती चौमासी जीमण कियो, मधु घ्रत संजुगत विशेषो जी ॥१४॥ चोथा मासखमण रै हं पारणे, आयो कोलाग संनिवेसो जी। तिहां बहुल ब्राह्मण रै घरे, म्है तिण में कियो परवेसो जी॥१५।। तिण पिण मोनै आवतो देखन, बिनो कियो रूड़ी रीतो जी। विजै गाथापति नी परे, अंतरंग भाव भगत सहीतो जी ।।१६।। मोन रसोड़ाघर में ले जाय नै, घ्रत मधु संजुगत आहारो जी। मोनै भाव सहीत प्रतिलाभियो, हरष संतोष पाम्यो अपारो जी ॥१७॥ ३८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational cation International Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इण पिण देव आऊखो बांधियो, कोधो परत संसारो जी। विजे गाथापति ज्यू जाणजो, सगलोई विसतारो जी ।।१८।। दहा जब गोसाले मोनै दीठो नहीं, तंतूवाय-साला रै मांहि । जब मोनै जोयवा नीकल्यो, नगरी राजग्रही मांहि ॥१॥ तिहां न दीठो मो भणी, जब जोवण गयो नगरी बार।। सर्व दिस विदिस घणों जोवियो, पिण खबर न पामी लिगार ।।२।। उण कठेइ न दीठो मो भणी, ते विलखो हवो अथाय । खप खीजे पाछो आवियो, तंतूवाय-साला रै माय ।।३।। तिहां पाटियादिक दूरा किया, बणायो साधु रो वेस । तंतूवाय-साला थी नीकल्यो, आयो कोलाग नामे सनिवेस ।।४।। कोलाग सनिवेस रै बाहिरे, लोक कहै माहोमांहि आम । धिन-धिन करै बहुल ब्राह्मण भणी, विजै नी परे करै गुणग्राम ।।५।। ढाल : ६ (सांमी म्हारा राजा ने धर्म सुणावज्यो) मुझनै मूकीन थे किहां गया? कहै गोसालो आम हो। स्वामी ! थे मुझनै मूकी नै किहां गया? गुर विण चेलो किहां रहे, किहां पामै विसराम हो ।। सामी ! थे मुझनै मूकीनै किहां गया ॥१॥ आं० थां ऊपर म्हारो अति घणों, हूंतो अतंत सनेह हो । इसड़ा सिष सुवनीत ने, थे काय दे चाल्या छेह हो ।।२।। एहवी करे विचारणा, चाल्यो तिहां थी ताम हो। कोलाग नामे सनिवेस छ, आय जोया तिण ठाम हो ।।३।। कोलाग सनिवेस बाहिरे, कहै मांहोमांहि आम हो। बहल नामे ब्राह्मण तणां, लोक करै गुणग्राम हो ॥४॥ ए वचन गोसाले सांभल्यो, घणां लोकां रे पास हो। जब सांसो मन ऊपनों, पछै बोल्यो मन में विमास हो ॥५।। जेहवी रिध जोत छै म्हारा गुरु तणी, जस बल वीर्य बशेख हो। वले प्राक्रम त्यांमें अति घणों, इत्यादिक गुण अनेक हो ।।६।। धर्माचारज मांहरा, भगवंत श्री विरधमान हो। इसड़ो म्है एक दीठो नहीं, बले नहिं सुणियो म्है कान हो ॥७॥ गोसाला री चौपई, ढा० ६ ३८९ Jain Education Intemational ation Intermational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इहां धर्माचारज मांहरा, आया दीसे इण गाम हो। इसड़ी करे विचारणा, जोवा लागो तिण ठाम हो ॥८।। कोलाग सनिवेस तेह में, जोवै अभितर बार हो । सर्व दिस विदिस जोवै तिहां, फिरै छै एकणधार हो ।।६।। कोलाग सनिवेस बाहिरे, मनोज्ञ भूमि रसाल हो। म्है कियो विसराम तिण ऊपरे, तिहां आयो गोसालो तिण काल हो ।।१०।। तिहां गोसाले मोनै देखनै, हरष्यो घणों मन मांय हो। तीन प्रदिखणा दे वांदने, विनो करे बोल्यो वाय हो ॥११॥ थे धर्माचारज मांहरा, हूं सिष थारो सुवनीत हो। हं धर्म-अंतेवासी तेहनें, मोनै मेल आया इण रीत हो ।।१२।। आप विहार कियां पछ, हूं हुवो अतंत उदास हो । मोनै साला लागी डरावणी, हूं नीठ आयो तुम पास हो ॥१३।। दहा हं राजग्रही जोवण गयो, तिहां जोया अभितर बार । म्है कठेय न दीठा आपनै, जब हुई फिकर अपार ॥१॥ पछै कोलाग सनिवेस छै तिहां, आय जोया ठाम-ठाम । तिहां जस कीरत सुणी आपरी, मोनै धीरज आई ताम ।।२।। थे धर्माचारज मांहरा, हं रहसं आप समीप । मोनै अलगो आप म मेलजो, हूं पिण आतमा लेतूं जीप ।।३।। ए वचन सुणी नैं गोयमा ! इणनै म्है कीधो अंगीकार । जब गोसाले मो साथे कियो, रमणीक भूम थी विहार ॥४॥ लाभ अलाभ सुख नै दुख, वले सतकार नै असतकार । छह वरस लगे इण भोगव्या, मो साथे लगे तिण वार ॥५।। ढाल : ७ (वेरागे मन वालियो) अणिच जागरणा जागतो, परिसा सहै दिन रात । हिवं करम जोगे तेहन, किण विध आवै मिथ्यात ।। वीर कहै सुण गोयमा ! १॥ आं० एकदा मो साथे कियो, सिद्धार्थ गाम थी विहार । कम गाम नै चालिया, बिचै तिल देख्यो तिण वार ॥२॥ ते पान फूले हरियो घणों, सोभ रह्यो थो अतंत। ते तिल गोसाले देखनें, मौनें पूछयो ए विरतंत ॥३॥ ३९० भगवती-जोड़ . .... Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तिल पाके में नीपजे, के नहीं नीपज हो साम ! इणरा फूल जीव इहां थी चवी, उपजसी किण ठाम ?।।४।। तिण अवसर म्है गोयमा ! कह्यो गोसाला नै आम । इण तिल में निश्चै करी, तिल नीपजसी ताम ॥५॥ ए जीव सात फूलां तणां, छोड़े इहां थी ठिकाण। इण तिल रै होसी एक सूंगलो, तिहां सात तिल होसी आण ॥६॥ ० ० ० दूहा गोसाले तिण अवसरे, ए मूल न सरधी बात । परतीत मूल आणी नहीं, पड़िवजियो मिथ्यात ।।१।। ढाल : ८ (प्रभवो चोर चोरां ने समझाव) वीर सं गोसाले पड़वजियो मिथ्यात, ते वीर वचन नहीं मान रे। जब वीर समीप थी हलवे-हलवे, तिल कनै आयो छान-छाने रे । वीर सं गोसाले पड़िवजियो मिथ्यात ।।१।। आं० तिण तिल उखेलनै अलगो न्हाख्यो, वोर नै झठा घालण गोसालो रे । जब दिव-बादल हुवा तिण काले, पाणी बूठो ततकालो रे ।।२।। जड़ माटी सहित तिल उखणियो हुँतो, तिण पाणी थी पाछो थंभाणो रे। तिल फल फूल सहित नीपनों, वीर कह्यो जिम जाणो रे ॥३॥ वले गोसालो वीर साथे चाल्यो, ते मन माहे जाणे छै एमो रे। ए प्रतख झूठ बोले छै चोड़े, ओ तिल नीपजसी केमो रे ।।४।। हिवै तिहां थी चाल कूर्म गामे आया, तिहां कूर्म गाम रै बारै रे। तिहां वेसायण नामे बाल तपसी, तपसा करै छै तिण वारै रे ।।५।। ते बेले-बेले निरन्तर करतो, तेज़ लेस्या तिण माह्यो रे। सुय साहमी आतापना लेवै, ऊंची कर-कर बांह्यो रे ।।६।। तिणरै सूर्य री आताप थी जूआं, नीकल पडै छै बारो रे। त्यांरी अणकपा आण वेसायण तपसी, पाछी मेहलै सरीर मझारो रे ।।७।। तिण वेसायण तपसी नै देखै गोसालो, तिण कनै आयो वीर छाने रे। तिण नै कहै तूं मुनी के अमुनी ? ओ उत्तर दै तूं म्हांनै रे ।।८।। के तूं जूआं रो सेज्यातर छै? ओ उत्तर दे तूं पाछो रे। जब तपसी ए वचन नै आदर न दीधो, मन में पिण नहिं जाण्यो आछो रे ।।६।। वेसायण तपसी मून साझी जब, गोसालो कह्यो दोय-तीन बारो रे। तं मुनी के अमुनी छै तूं, के जूंआं नै सेज्या रो दातारो रे? ॥१०।। गोसाला री चौपई, ढा०५८ ३९१: Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोय-तीन बार कह्यां तापस कोप्यो, धिगधिगायमान हवो तातो रे । आतापना भूम थी पाछै फिरियो, कीधी तेजस समुदघातो रे॥११॥ तेज लेस्या काढी तिण सरीर बारै, गोसाला नै बालण काजो रे । मौनै खीजाय नै ओ जीवतो जाओ, तो बाल भसम करूं आजो रे ।।१२।। जब म्है गोतम ! लब्ध फोरव नै, सीतल लेस्या म्है मैली रे। गोसाला री अणुकंपा नै अर्थे, तेजू लेस्या नै पाछी ठेली रे ।।१३।। सीतल लेस्या थी तेजू लेस्या हणाणी, गोसालो पिण बलियो नांहीं रे । जब वेसायण उपियोग देई नै, मोनै जाण लियो उण ताही रे ।।१४।। जब वेसायण तपसी इम बोल्यो, जाण्या-जाण्या हे भगवान ! थाने रे । थे गोसाला नै बलवा न दीधो, ते खबर पड़ेगी म्हांनै रे ॥१५॥ जब गोयमा ! मोमै गोसाले पूछ्यो, जू को रो सेज्यातर कहै कांई रे । जाण्या-जाण्या हे भगवान! आपने जाण्या, ते मोनै खबर पड़ी नांहीं रे ।।१६।। दूहा तिण काले म्है गोयमा ! कह्यो गोसाला ने आम । तं मो छानै तापस कन, तिणनें जाये पूछचो थै आम ॥१॥ तं मुनी अमुनी कदाग्रही, के सेज्यातर जूआं रो ठाम ? तब वेसायण थारा वचन नै, भलोई न जाण्यो ताम ॥२॥ जब दोय तीन बार तेहन, खिजायो बारूंबार । जब वेसायण तो ऊपरे, कोप्यो सिघर अपार ॥३॥ तोनं बालण कारणे, तेजू लेस्या मेली तिण काल । जब म्है थारी अणुकंपा आणनै, सीतल लेस्या म्हेली ततकाल ॥४॥ तूं नहीं बलियो तेहथी, मोनै ओलख कीधो याद । जाण्या-जाण्या हे भगवान ! आपन, न बल्यो आप तणे परसाद ।।५।। ए वचन गोसाले सांभल्यो, भय उपनों मन मांय । ए तेज लेस्या किम नीपज? मौनें पूछ्यो सीस नमाय ॥६॥ जब म्है गोयम ! तिण समे, कही गोसाला नै एम। तेज़ लेस्या इणविध नीपजै, ते सुणजो धर पेम ।।७।। बेले-बेले निरंतर तप करै, पारणे मूठी उड़द आहार । ऊनो पाणी एक पूसली पीए, छ मास लगै एकधार ।।८।। सूर्य साहमी लेवे आतापना, ऊंचो कर-कर बांहि । तिणने छ मास रै छेहरे, तेज़ लेस्या ऊपजै तिण मांहि ।।६।। ३९२. भगवती जोड Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ९ ( थे तो जीव दया धर्म पालो रे अथवा रस गिरधी ते हिलिया गटकं) । जब गोसाले तिन वारो रे, म्हांरो वचन कियो अंगीकारो । हि गोतम ! ओ म्हांरी लारो रे, कूर्म गाम थी कियो विहारो ॥ १ ॥ सिधारथ गाम नै पाछा चाल्या रे, तिल थंभ कनै आया हाल्या । जब गोसाले पुछ्यो मोर्न आमो रे, तिल नीपजसी को तामो ॥२॥ फूल तिल सूधी कही बातो रे, ते प्रतख झूठ मिथ्यातो । ते जावक तिल नीपनों नाहीं रे, नहीं नीपनों फलादिक कांई । ३।। जब हूं बोल्यो सुण तूं गोसाला रे, तिण वेलां किया में चाला म्हांरा वचन री परतीत न आणी रे, थै म्हांने झूठाबोलो जाणी ||४|| तिणसूं मुझ पासा थी धीरे-धीरे रे, छान-छाने आयो तिल तीरे । तिल उखाड़ न्हायो ति कालो रे, जब बादल हुआ ततकालो ॥ ५ ॥ पाणी वरसे तिल श्रंभाणों रे, ऊ निश्चेई तिल नीपजाणों । सात तिल फूल चविया तारे सात तिल हुआ संगळी मां ॥६॥ वनस्पतीकाय मभारो रे, इणविध करें करे पोटपरिहारो । ते तिल ऊभो छे निश्चे आज तांई रे, संका मत आणजे कांई ॥७॥ ए पिण वचन न मान्यो गोसाले रे, तिल आय जोयो तिण काले । संगळी फोर काया वारो रे, सात तिन गिणिया हाथ माशे ॥ तिल गिणियां पर्छ तिण ठामो रे, उपनों अद्यवसाय परिणामो । सर्व जीवां रो एह विचारों रे, करं छं पोटपरिहारो ॥ ६ ॥ इसड़ी ऊंधी इण धारो रे, मों सूं पड़ियो गोसालो न्यारो । मूठी उड़द खाओ जबूनो रे, पुसली पाणी पीये ऊन्हो ॥ १० ॥ निरन्तर बेले तपसा कीधी रे, सूर्य साहमी आतापना लोधी । दोनू ऊंची कर-कर बांहो रे छ महीना लगता ।। ११ ।। एहवो कष्ट कियो इण करूड़ो रे, छ मास लगे तिण पूरो । लबद छ मास रे अंत पाई रे, इण विध तेजू लेस्या उपाई ॥१२॥ एकदा गोसाला रे मांह्यो रे, छ दिशाचर मिलिया आयो । आगे को थे जिस विसतारो रे सगलोई लेवो विचारो ।।१३।। अरिहंत जिण केवली नाही रे, इणरे अतिसय गुण नहि कांई । अरिहंत रा गुण इनमें न पावे रे इस चौड़े झूठ चलायो रे इण ओ डाकोत-पूत गोसालो रे, तिण रो काढ्यो वीर नीकालो ।। १५॥ ओ झूठो नांव धरावे ॥ १४ ॥ सावत्थी नगरी मांह्यो। थे पूछ करी गोयम ! इणरी रे, उठाणपरिया कही तिणरी । गोतम स्वामी बोल्या जोड़ी हाथो रे, आप सत को स्वामीनाथो ! ॥१६॥ ० 00 गोसाला री चोपई. ढा०९ ३९३ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए मोटी परखदा रै मझे, भाख्यो श्री भगवान । वीर गोसाला री उतपत कही, ते पड़ी घणां रै कान ।।१।। ए बात सुणी – परखदा, आई जिण दिस जाय। घणां लोक माहोमा इम कहै, सावत्थी नगरी रै माय ।।२।। गोसालो कहै हं जिण केवली, ते झूठ बोलै छै ताम । ओ तो मंखली-पुत्र डाकोतरो, लोक बात करै ठाम ठाम ।।३।। म्है वीर जिणेसर आगले, सुणी गोसाला री बात । ओ नहीं अरिहंत जिण केवली, यंही बोले झठ मिथ्यात ॥४॥ वीर जिणंद चोबीसमां, अ देवातदेव स्वमेव । ते निश्चै अरिहंत जिण केवली, त्यांने वांदै कीजै नित सेव ।।५।। ए लोक माहोमां बातां करै, ते सुणी गोसाले कान । जब कोप्यो सिघर उत्तावलो, वले हुवो धिगधिगायमान ।।६।। आतापभूम थी नीकल्यो, आयो सावत्थी नगरी मांय । हलाहल कुंभारी जायगां तिहां, पाछो आयो तिण ठाम चलाय॥७।। घणां सिषां सहीत परवरचो थको, अमरस धरतो अतंत। जाणे घात करूं इण वीर नीं, इसड़ो मन धेष धरत ।।८।। ढाल : १० (धीज कर सीता सती रे लाल) तिण अवसर श्री भगवंत – रे, अंतेवासी सिष सुवनीत रे। सुगण नर ! ते आणंद नामे थिवर हंतो रे लाल, तिणमें साध तणी रूड़ी रीत रे ।। सुगण नर ! सुणजो गोसाला री वारता रे लाल ॥१॥ बेले-बेले निरन्तर तप करै रे, पारणे पेहली पोहर सझाय रे । बीजे पोहर ध्यान ध्यावै सदा रे लाल, तीजे पोहर गोचरी नै जाय रे ।।२।। ते वीर तणी लेइ आगना रे, उठ्यो सावत्थी नगरी मांय रे। ते करै समूदाणी गोचरी रे लाल, तीनंई कूल में जाय रे ।।३।। हलाहल कुंभारी री जायगां थकी रे, नेडो जातो आणंद में देख रे । जब गोसाले बोलायो आणंद नै रे लाल, पिण अंतरंग मन मांहे धेख रे ।।४।। एक मोटो ओलंभो मांहरो रे, तूं सांभल आणंद ! इहां आय रे। जब आणंद थिवर इहां आवियो रे लाल, गोसालो कहै बात बणाय रे ।।५।। केई धन रा लोभी वाणिया रे, चाल्या मोटी अटवी मझार रे । त्यां अनेक बसतां तूं गाडला भर्या रे, वले असणादिक च्यारूं आहार रे ।।६।। मोटी अटवी में आगा गयां थकां रे, नीठ्या असणादिक च्यार आहार रे। जब माहोमां सर्व भेला हुआ रे लाल, करवा लागा विचार रे ।।७।। पाणी तो खूटो सर्वथा रे, तिण विना पाछा जासां केम रे । हिवै करो पाणी री गवेसणा रे, ज्यं घरे जावां कुसले खेम रे ॥८॥ ३९४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहवी करे विचारणा पाणी रे जोवा लागा ठाम ठाम रे । एक मोटो वनखंड आयो जोवतां रे लाल, जोवा जोग घणों अभिराम रे || || तिण वनखंड रा मझ देस में रे, तिहां एक मोटी जायगां जाण रे । च्यार वलगू हुंता तिण ऊपरां रे लाल, त्यांरा ऊंचा सिषर वखाण रे ।। १० ।। ते देखी ने हरख्या वानिया रे, सह भेला हुये कहै आग रे । इण वनखंड में च्यार वलगू अछे रे लाल, ऊंचा सिषर बंध वखाण रे ॥ ११ ॥ तो श्रेय कल्याण आपां भणी रे, प्रथम वलनू भेवां जाय रे । तिण मांसू निरमल पाणी नीकले रे लाल, ते पीधां सगलां रं साता थाय रे ।। १२ ।। त्यां मांहोमां करे विचारणा रे प्रथम सिपर फोड़यो आय रे । तिण मांस निरमल पाणी नीकल्यो रे लाल, जब हरख्या पणां मन मांय रे ।। १३ ।। त्यां पाणी तो पीधो निरमलो रे, वले वाहण भरिया तिणवार रे। बले बीजा सिषर फोडण तणों रे लाल कीधो माहोमा विचार रे ।। १४ ।। पहिलो सिषर फोड्या पाणी नीकल्यो रे, तो सोनो नीकलसी दूजा मांय रे । ए मिसलत माहोमां कीधी तिहां रे लाल, बीजोइ सिषर फोड्यो जाय रे ।। १५ ।। तिण मांसूं सोनो नीकल्यो रे, जब मन मांहे हरषत थाय रे । त्यां भाजन भरया गाडला भरया रे लाल, तीजी वार विचार मांहोमांय रे ॥ १६ ॥ पहिलो सिपर फोडां पाणी नीकस्यो रे, सोनो नोकरूयो बीजा मांय रे । तीजो फोडचा मणी रतन नीकले रे लाल, तो तीजोई सिपर फोडां जाय रे ।। १७।। जब तीजो सिखर त्यां भेदियो रे, मणी रतन नोकलिया तिण मांय रे । त्यां भाजन भरी भरचा गाडला रे लाल, ते मन मांहे हरषत थाय रे ॥ १८ ॥ बले लोभ लागो त्यारं अति घणों रे, जब कहे मांहोमां आम रे । काम रे ॥ १६ ॥ तिण मांय रे । चितवियां ज्यूं नीकल्या रे लाल, मनवंत सरिया वजर रतन नीकले लाल, तो कुमी रहै नहीं काय रे ॥२०॥ बंधणहार रे । तो चोथो सिषर फोड़यां वले रे, त्यां वजर रतनां सूं गाडला भरां रे इतलां महेि एक वाणियों रे, त्यांरा हित से त्यांने कहो अति लोभ न कीजिये रे लाल, चोथो सिषर म फोड़ो लिगार रे ॥ २१ ॥ पहिलो सिपर फोडया पाणी नीकल्यो रे, सोनो निक्स्पो बीजा गांव रे। मणी रतन तीजा मांसूं नीकल्या रे लाल, चोथो फोड़यां अवस दुख वाय रे ।। २२ ।। तिगरी कधी त्यां मान्यो नहीं रे, चोथो सिर फोड़ो जाय रे तिण मांसूं कालो सर्प नीकल्यो रे लाल, विष पण तिण मांय रे ।। २३ ।। संघट्यो हुवो तिण सर्प नों रे, जब कोप चढ्यो ते काल रे । भंड उपधि सहित सगला तभी रे लाल, बाले रास कोधी तत्काल रे ।। २४ ।। जिण वाणिये त्यांने वरच्या हंता रे, तिथ ने कुसले राख्यो तिणवार रे। तेरिध संपत ने आपरी रे लाल, कुसले आयो निज नगर मभार रे ।। २५ ।। वहा दोष । वाणियां ज्यूं थारांगुर में घणों, लोभ तणों अति जस कीरत व्यापी तीन लोक में, तो ही आयो नहीं संतोष ॥ १ ॥ गोसाला री चौपई, ढा० १० ३९५ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणिया पाणी विण मरता तिहां, त्यांने पाणी मिलियो ताय । वले सोवन मणी रतन मिलिया, तो ही तिसणा मिटी नहीं काय ।।२।। त्यां चोथो सिषर फोडियो, तो घात पामी ततकाल । त्यां सरिखो थारो गुर लोभियो, ते पिण करसी अकाले काल ॥३॥ घणां गाम नगर इण वस किया, तो ही आयो सावत्थी मझार । सर्व सिष्य सहित हिवै तेहमी, बाले राख करतूं एक बार ॥४॥ एक वाणे सारां ने वरजिया, तिणरी सर्प न कीधी घात । ज्यूं तूं थारा गुर नैं वरजसी, तो थारी घात न करूं तिलमात ॥५॥ ढाल : ११ [डाभ मूंजादिक नी डोरी] इम सांभल बीहनो आणंद, पाछो आयो जिहां वीर जिणंद। वंदणा कर बोल्यो जोड़ी हाथ, एक अरज करूं सामीनाथ ! ॥१॥ हं आपरी आगन्या लेई तायो, गयो सावत्थी नगरी महियो। हं गोचरी करतो तिण काले, मौन देख बोलायो गोसाले ॥२॥ तिण रैमन मांहे धेष अपारी, मौने दियो ओलंभो भारी। बाणियां री कीधी सर्प घात, ते मांड कही सर्व बात ॥३॥ गर सहित थारा गुरभाई, त्यांरी घात करसं उठे आई। ते पिण घणां लोकां री साख, बाल जाल भसम करूं राख ।।४।। जो तं जाय कहसी सर्व बात, तो हूं थारी न करसं घात । जब हं भय पाम्यो तिण ठाम, ते पिण आप कनें कही आम ॥५॥ गोसाले कही ते सर्व बात, वीर पासे कही जोड़ो हाथ । हिवे आणंद पूछा करै आम, विनो करै सीस नाम ।।६।। समर्थ छै सामी! ए गोसालो, सर्व साधां नैं बालै समकालो। इसडो तप तेज छ इण मांय, सर्व साधां में बालै इहां आय ? ||७।। समर्थ छै आणंद ! ए गोसालो, सर्व साधां बाले समकालो। अरिहंत भगवंत ने बालै नांहि, एहवो तप तेज नहीं इण मांहि ।।८।। जेहवो तप तेज छै गोसाला रो, रूठो करै बोहत बिगाड़ो। इणथी अनंतगुणो साधु मांहि, तप तेज खिमा गुण ताहि ।।६।। साधु रा तप तेज थी ताहयो, अनंतगुणों थिवरां रे मांहयो। थिवरां रा तप तेज थी ताहयो, अनंतगुणों अरिहंत मोहयो ॥१०॥ त्यां अरिहंतां नैं किम बाले, यं ही झठ बोल्यो गोसाले । अरिहंत रा तप तेज आगै, गोसाला रो जोर न लागै ।।११।। वीर कहै आणंद मैं वाय, तूं साधां समीपे जाय । कहीजे गोतमादिक सर्व साधां ने, भगवंत कहयो छ थाने ॥१२॥ थे मत करजो गोसाला री बात, उण साधां सं पड़वजियो मिथ्यात । तोने कही गोसाले वाय, ते पिण दीजे सर्व सुणाय ॥१३॥ ३९६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुलास बौर ने आणंद यांदे सर्व साधा ने कहे बतलाय 1 आयो गोतमादिक पास । थे सांभलजो चित बूहा हूं आज बेला रे पारणे, गयो सावत्थी नगरी माहि मौन गोचरी करतो देख नैं, गोसाले बोलायो ताहि ॥ १ ॥ जे गोसाले कही सका, दीधी साधी में सर्व सुणाय । लाय || १४ || मौने वीर मेहल्यो छे पो कने, तूं कहीजे साधां ने जाय || २ || गोसाला रा मत तणीं, कोइ म करजो बात । गोसाले सर्व साध थो, पड़वजियो मिध्यात ॥३॥ ए वचन आणंद से सांभले, सर्व साधां कियो अंगीकार । गोसाला रा मत तणीं, न करें बात लिगार ||४|| ढाल : १२ [पूज जी पधारो हो नगरी सेविया ] " हि गोसालो मंखली - पुत्र डाकोतरो तिरे मन मांहे धेष अपार रे । दोभागो । हलाहला कुंभारी री जायगा थकी, नीकले तिण वार रे दोभागी छै । । 1 चाल्यो रे गोसाली वीर सूं भगड़वा || १|| आं० निज संघ सहित गोसालो चालियो, तिण रा दुष्ट घणां परिणाम रे । वले अमरस वहितो मन में अति घणों, साथै लियो साथ हगाम रे ||२|| ते क्रोध करे ने अति प्रजत्यो धको मुख सूं कहे विपरीत वासरे। कासप सहीत सगला साधां तणी, आज समकाले कर घात रे || ३ || तपतो यको चाल्यो सिघर उतावलो आयो सावत्थी नगर मभार रे । ते सावत्यी रे मन बाजार में नोकले, लोकां ने कहै बासंबार रे ॥ ४ ॥ थे कहो दो तीर्थंकर महावीर तेहने तारण तिरण जोहाज रे । हि आवो तो दिखालूं तीर्थंकरपणों तेहनों, थे अरूवरू देखलो आज रे ||५|| एहवो घोष सन्द करतो थको सावस्थी नगर मभार रे । ए सब्द गोसाला रो बहु जण सांभली, घणां लोक हुवा तिण लार रे ॥६॥ विमती अनमती पाखंडी अति घणां ते पिण जोवा चाल्या ताम रे । 1 गृहस्थ अनेक नै वृन्द नर नार नां, ते पिण चाल्या छोड़े घर काम रे ||७|| सावत्थो बारे गोसालो नीकले आयो कोटग बाग रे मांय रे । 1 J जहां भगवंत महावीर देव बेठां तिहां ऊभो है गोसालो आय रे || नर नारी तो बोहत भेला हुवा सिंहां कोठग नामे बाग रे मांहि रे । हिवे गोसालो भगवंत श्री महावीर ने ओलंभा वचन कहे ताहि रे ॥ ६ ॥ ००० गोसाला री चौपई, ढा० १५, १२ ३९७ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा अहो आउषावंत कासवा ! तू कहै लोकां रै माय । ओ गोसालो सिष्य मांहरो, ते प्रतक्ष मूसावाय ॥१।। थे आछो कह्यो आछो कह्यो, ते कह्यो ओलंभा रूप । हूं गोसालो सिष्य नहीं तांहरो, तूं सांभल तेह सरूप ॥२॥ गोसालो हुँतो सिष्य तांहरो, सूको भूखो तपकर ताय । ते आऊषो पूरो करी, देवपण उपनों जाय ॥३॥ हूं उदाई नामे राजान छू, कुंडीयाण गोत सधीर । उरजन गोतम-पुत्र तेहनों, छोड़े दोयो म्है छठो सरीर ॥४॥ गोसाला रो सरीर सेंठो घणों, ते म्है पड़ियो देखतिणवार। म्है परवेश कियो तिण सरीर में, ते सातमों पोटपरीहार॥५॥ ढाल: १३ [जगतगुर तिसलानंदन वीर] हिवै गोसालो कहै भगवंत नै, म्हारा भाष्या सार सिद्धत । सिझ्या सिझै सीझसी घणां, तिण में बोहत कह्यो विरतंत। हो कासप ! सुणजे म्हारो सिद्धत ॥१॥ चोरासी लाख महाकल्प हुवै, करै सात देव तणां अवतार । सात संजह सात सनीगर्भ करै, करै सात पोटपरीहार हो ॥२॥ पांच लाख ने साठ सहस ऊपरे, छसौ बले अधिका जाण । तीन करमां रा अंस खपाय नै, गया जाये जासी निरवाण हो ॥३।। एक दिष्टंत तोने साचो कहूं, ते सांभलजे चित ल्याय । एक मोटी गंगा लांबी घणी, तिणरो विवरो कहूं छु ताय हो ॥४॥ गंगा लांबी जोजन पांच सौ, अर्द्ध जोजन पेहली जाण । पांच सौ धनुष्य ऊंडी कही, ए गंगा नों परिमाण ।।५।। एहवी सात गंगा भेली कियां, एक महागंगा हुवै ताम। सात महागंगा तिण थी हुवै, एक सादीण गंगा आम हो ॥६॥ सात सादीण गंगा भेली कियां, एक मचू गंगा हुई जाण। सात मच गंगा भेली कियां, एक लोहिय गंगा बखाण हो ।।७।। सात लोहिय गंगा तिण थकी, आवती गंगा हवे एक । सात आवती गंगा तेहथी, एक परमावती गंगा वशेख हो।।८।। एक लाख सतरै सहंस ऊपरे, वले छसौ नै गुणचास । एक परमावती गंगा तणी, एतली गंगा हुवै तास हो।।। तेहनां दोय उधार परूपिया, ते सुण तूं राखे चित ठाम । सुषम बोंदी कलेवर नै वले, बादर बोंदी कलेवर ताम हो ॥१०॥ ३९८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सुखम कलेवर थापन, कहूं बादर रो विसतार । ते सौ-सौ वरस गयां थकां, एक कण रेत का? बार हो ।।११।। एकेको रेत रो कण काढतां, सारी गंगा खाली थाय । जब एक सर परमाण हुवै, कह्यो छै म्हारा सिधंत मांय हो ।।१२।। एहवा तीन लाख सरां तणों, एक महाकल्प हुवै ताय । एहवा चोरासी लाख महाकल्प नों, एक महामाणस थाय हो ।।१३।। अनंता संजुक्त तिहां करै, जीव चवी-चवो तिण ठाम । संजुक्त ऊपर लै माणसे, देवपणे ऊपजै ताम हो ॥१४॥ महामाणस नां समुदाय नी, हं संख्या कहूं छू ग्यान । ते सर्व नदी हवै एतली जी, सुणजे सुरत दे कान हो ॥१५।। दोय हजार कोड़ाकोड़ नै, वले नवस कोडाकोड़ जाण। वले चोसठ कोड़ाकोड़ ऊपरे, पिचितर लाख कोड़ बखाण हो ॥१६॥ अड़तालीस हजार कोड़ ऊपरे, सर्व एतली नंदी जाण । एक महामाणस हुवै तेहनी, ए संख्या कही परमाण हो ।।१७।। ते देव तणां भोग भोगवे, पूरो करै आऊखो ताय । पहिला सनी गर्भ में मझे, जीव ऊपजै आय हो ॥१८॥ ते जीव तिहां थी नीकले, मझले माणस में आय। संजुक्तपणे जे जीवड़ो, उपजै देव गति में जाय हो ।।१६।। तिहां देव तणां भोग भोगवे, बीजा सनी गर्भ में उपजै ताय । तिहां थी नीकल ते जीवड़ो, हेठला माणस में आय हो ॥२०॥ संजुक्तपणे वले जीवड़ो, उपजे देवता में जाय। ते देव तणां भोग भोगवे, तीजो सनी गर्भ हुवै आय हो ॥२१।। छठा सनी गर्भ तांई जीवड़ो, इणहीज विध उपजे आय । तिहां थी नीकल हवै देवता, पांचमां देवलोक में जाय हो ॥२२॥ पांच मोटा आवास तेह में, म्है भोग भोगविया ताय । दस सागर आउषो पूरो करी, हुवो सातमों सनी गर्भ आय हो ।।२३।। हं सवा नव मासे जनमियो, हं रूप में जाण देवकुमार । म्है कुमारपणे चारित लियो, कुमारपणे ब्रह्मचार हो ।।२४।। हं बालपणे वैरागियो, म्हैं बींधाया पिण नहीं कान। ओ म्हारो सातमों पोटपरीहार छै, ते सुण तूं सुरत दे कान ॥२५।। एणेज्ज नैं मलराम नों, मंडिय वले रोहो ताम । भारदाई में उरजुन गोतम-पुत्र, गोसालो मंखली आम हो ॥२६॥ नगरी राजगही नै बारे तिहां, मंडीकुख उद्यान में ताम । उदाई कुंडियाण गोत नों, म्है शरीर छोड्यो तिण ठाम हो ॥२७॥ पेंठो एणेज्ज रा सरीर में, ए पेहिलो पोटपरीहार । बावीस वरस लग हूं रह्यो, एणज्ज रा सरीर मझार हो ॥२८॥ उदलपुर नगर रै बाहिरे, चंदोतर बाग में जाय। तिहां एणेज्ज रो सरीर छोड़ने, पेंठो मलराम रा सरीर मांय हो ॥२६।। मलराम रा सरीर में, रह्यो इकवीस वरस मझार । इण रीते कासप! म्है कियो, ओ बीजो पोटपरीहार ॥३०॥ गोसाला री चौपई, ढा० १३ ३९९. Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपा नगरी नै बाहिरे, अंगमिंदर बाग में ताहि । तिहां मलराम नो सरीर छोड़नें, पेंठो मंडिया नां सरीर मांहि ||३१|| रह्यो मंडिय नां सरीर में हूं बीस वरस लग ताम । तीज पोटपरीहार है कियो, हिवै चोथो कहूं छू आम हो ||३२|| बाणारसी नगरी रे बाहिरे, काम महावन बाग में ताहि । मंडिय नो सरीर छोड़ नं. पैठो रोहा रा सरीर मांहि हो ।। ३३ ।। रह्यो रोहा नां सरीर में जी, उगणीस वरस मकार । इणविध कासप! म्हे कियो जी ओ चोयो पोटपरीहार हो ||३४|| आलंभिया नगरी नें बाहिरे, पतकालक बाग रे मांय । तिहां रोहा रो सरीर छोडने, पेंठो भारवाई रा सरीर में आय हो ।। ३५ ।। भारदाई नो सरीर में हूं रह्यो वरस अठार । इणविध कासव ! है कियो जी, पांचमों पोटपरीहार हो ||३६|| कठियायण उद्यान थो, ₹ बार । बेसाली नगरी भारदाई नो सरीर छांडनें, गयो उरजन सरीर मझार हो || ३७॥ सतरे वरस मभार । रह्यो उरजन रा सरीर में, इण रीते कासप! म्हे कियो छठी पोटपरीहार हो ॥ ३८ ॥ इण सावत्थी नगरी नें मझे, इण हलाहल कुंभारी री हाट । जब उरजन गोतम-पुत्र तेहनों, सरीर छोड्यो इण माट हो ।। ३६॥ तिहां गोसाला मंत्रली- पुत्र नों सेठो सरीर पड़ियो देख परिसा खमया समर्थ जाणियो, थिर संघयण तिणरो विशेष हो ॥ ४० ॥ उरजन से सरीर छोडने, पेठो गोसाला रा सरीर मकार सोलै पोटपरीहार ||४१ ।। वरस हुवा एहने, ए सातमों वरस में, कीधा सात पोटपरीहार । एक सौ तेतीस ते ग्यान नहीं सोने कासवा ! तूं बोल्यो विना विचार हो ||४२ ॥ वले गोसाली भगवंत नैं, बोलै ओलंभा जेम । भलो भलो को थे कासवा! हिये नहीं बोलीजे एम हो ||४३ ॥ इम गोसालो बोल्यो घणों विपरीत । भगवंत ने | बले झूठ बोले निसंक सूं छोड़ो जावक आगली पीत हो ॥४४॥ ४०० दूहा थे को गोसालो सिष्य मोहरो, ते हं सिष्य थांरो नांव । थे सरीर गोसाला रो देखने, भर्म भूलो तूं कांय ॥ १ ॥ ते सिष्य कह्यो छे मो भणी ते थोड़े चलायो झूठ ते झूठ थांरो म्है सांभले, हूं आयो ठिकाणा थी ऊठ ||२|| एहवा वचन गोसाले कह्यां थकां बोल्या श्री भगवान । दिष्टंत देई है तेह नें, ते सुणों सुरत दे कान || ३ || भगवती बोड Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १४ (दुलहो मानव भव काइ तुम हारिय) हिवं वीर कहै ! गोसाला सुणे, थे बोल्यो झूठ बणाय रे। गोसाला ! तं गोसालो मंखली-पूत छ, ते छिपायां छिपियो नहीं जाय रे। गोसाला ! तूं झुठ बोलै आपो ढांकवा ॥१॥ आं० ज्यं कोइ चोर चोरी करे नीकल्यो, ते आयो गाम रै बार रे। तिण लारे वेग सताब सं, पाछै आय लागी नेड़ी बहार रे॥२।। चोर बहार लगती आई जाण ने, चोर जागा जोवा लागो ताम रे। खाड गुफा झंगी परवतादिक, चिहं दिस जोवै ठाम-ठाम रे ।।३।। विषम दुरगम जायगां जोवै घणी, पिण चोर न लाभी काय रे । तिणरै मरवा री मन मांहे नहीं, हियाफूटा ज्यू होय रह्यो ताय रे॥४।। ऊन सिण रूई ने तिणां तणों, एक मोटो गिज तिण मांहि रे । चोर जाणें हं छिपियो एह में, पिण छिपियो नहीं चोर ताहि रे ॥५॥ आतमा नै तिण मूल ढांकी नहीं, ते ढांकी मानै मन माय रे । तिण चोर न छिपाई आतमा, ते जाणे छिपाई छै आय रे ॥६॥ चोर जाणे अलगोन्हाठो बहार थी, पिण नेरी आये लागी बहार रे। तिण नैं आपो मूल सूझ नहीं, इसड़ो चोर मूढ गिंवार रे ॥७॥ चोर जाणतो हं सेंठो लुक रह्यो, मोनें कोई न जाणे आम रे। तिणनें बाहरू अलगा थकां देखने, आय ऊभा तिण ठाम रे ॥८॥ तिण चोरनैं बाहरू आय पकड़ियो, कुण ले जावादे तिण नैं माल रे। सैंठो कीधो बंदीखाने न्हाखने, तिण में पाड्यां घणां हवाल रे ॥६॥ इण दिष्टते गोसाला तूं जाण ले, थे पिण आपो छिपायो छै आम रे। पिण आपो छिपायो किम छिपै, चोर ज्यू चोड़े दीसै छै ताम रे ॥१०॥ चोर चोर्ड छिप किण रीत सू, पाछै लागा बहार रा पूर रे। ज्यं तं मो आगे किणविध छिपे, ऊ जोव ने ऊ मुखनूर रे॥११॥ हिवं इसड़ो झूठ न बोलिये, हूं तो नहीं थारो सिष्य तेह रे। तं तो सांप्रत गोसालो तेहीज छै, तिण में मूल नहीं संदेह रे ॥१२॥ तं गोसालो मंखली-पूत छ, निमाई निश्चै डाकोत रे। उवाहीज भाषा बोली तांहरी, ऊहीज सरीर छाया तेज रे ॥१३॥ ए वीर वचन गोसाले सुण्या, जब कोप चढयो ततकाल । मिसमिसायमान करै घणों, अंतरंग माहे उठी झाल ॥१॥ ऊंच नीच वचन कहै वीर नैं, निरभंछ बारूंबार । भंडो बोले निसंक सू, किणरी संक न आणे लिगार ॥२॥ तु नष्ट थयो रे कासवा! तं विनष्ट थयो किण वार। वले भिष्ट थयो तूं किण दिने, तूं नष्ट विनष्ट नैं भिष्ट अपार ॥३॥ गौसाला री चौपई, ढा० १४ ४०१ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज हित नहीं हुवै तो भणी, थे मांड्यो छै मुझ थी विवाद । आज सुख म जाण तूं मो थकी, आज नहीं हुवै तुजनैं समाध ।।४।। थारा सिष सहीत आज तांहरी, बाल जाल भसम करूं राख। जब जाण लीजे तूं मो भणी, घणां लोकां री साख ।।५।। ढाल : १५ (धत्तूरो राचणो जी) हिवै सर्वाणुभूती अणगार, ते सिष्य भगवान रो जी। ते तो गुण-रतनां रो भंडार, दाता अभय दान रो जी। हिवै मान गोसाला! वचन, श्री भगवान रो जी॥१॥ आं० तिणरै धर्म रो राग अतंत, भगवंत रै ऊपरे जी। भद्रीक घणों मतवंत, विनै में रूड़ी परे जी ॥२॥ वीर नां अवगुण बोल्या अनेक, गोसाले आफूट नै जी। तिणरी बात न मानी एक, आयो तिहां ऊठनै जी ।।३।। आय ऊभो गोसाला रै तीर, समझावै तेहनै जी। एतो भगवंत श्री महावीर, दुहवै नहीं केहनें जी ॥४॥ औ तो तारण-तरण जिहाज, अतिसै ग्यान तेहमें जी। सहंस ने आठ लखण बिराज रहया त्यांरी देह में जी ॥५॥ तं काय दे तिणां नै आल, चोड़े झूठ बोल नै जी। हिवै मत बोले आल-पंपाल, अभितंर री खोल नै जी॥६॥ कोइ समण निग्रंथ रै पास, सीखै पद आण नै जी। त्यांने वांदै छ आण हुलास, साचा गुर जाण नै जी ॥७॥ तोनें तो दिख्या दे भगवान, मुंडण कियो तो भणी जी। बहसुरती कियो दे विगनान, अणुकंपा करी तो तणी जी॥८॥ तोस बोहत कियो उपगार, ते बीसारे घालनै जी। उलटी करवानै आयो बिगार, सनमुख चालने जी ॥६॥ इसडो नहीं बोलीजे झूठ, हं गोसालो नहीं जी। हूं तोने कहिवा आयो छु ऊठ, भगवंत साचा सही जी ॥१०॥ तं तो निश्चै गोसालो साख्यात, तिण में सांसो नहीं जी। थें पड़िवजियो मिथ्यात, भगवंत सं सही जी ॥११॥ इम सांभलने कोप्यो ततकाल, निलाड़ी सल चाढनै जी। इणरी राख करूं बाल जाल, तेज लेस्या काढने जी ।।१२।। तेज लेस्या काढे ततकाल, माठी मन आदरी जी। पापी राख कीधी बाल जाल, उत्तम मोटा साध री जी॥१३।। बले बोलै घणों विपरीत, आगा ज्यू भगवान ने जी। तिण साधु नै बाले बेरीत, चढयो अभिमान में जी ॥१४॥ ४०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलता-बोलतां हुई बार, चलावै झुठ मैं जी। जब सुनखत्र नामे अणगार, आयो तिहां ऊठन जी ॥१५।। ते पिण कहिवा लागो आम, बाल्यो थें साध नैं जी। हिवै मत बोले झूठ बेकाम, छोड़े विषवाद नै जी ।।१६।। सर्वाणभूती नी परे ताम, समझावै एहने जी। तूं साख्यात गोसालो छ आम, झूठो बोलो केहने जी ॥१७॥ समझावण लागो रूड़ी रीत, समझयो नहीं पापियो जी। वीर रा गुण करै वनीत, इणनै उथापियो जी ॥१८॥ जब ओ कोप चढयो ततकाल, निलाड़ी सल चाढने जी। इणरी राख करूं बाल जाल, तेजू लेस्या काढन जी ॥१६॥ इणने बालण लेस्या मेहली आप, ओ तो बलियो नहीं जी। लेस्या थी उपनों परिताप, असाता हुई सही जी ॥२०॥ तिण बांद्या भगवंत रा पाय, सुमतारस मन धरचो जी। साध-साधवी सर्व खमाय, आउखो पूरो करयो जी ॥२१॥ ० ० ० दूहा दोय साध गोसाले बालिया, समोसरण रै माय । तीजी बार गोसालो भगवान सूं, झगड़े सनमुख आय ॥१॥ रे कासव ! तूं इम कहै, गोसालो म्हारो सिष्य छो एह । इसड़ो झठ न बोलियै, तुझ मुझ किसो सनेह ॥२।। गोसालो मंखलीपूत हूं नहीं, तूं मत कर म्हारी बात। हिवै बोल्यो तो बाल भसम करूं, कर देसू सगलां री घात ।।३।। आगे अजोग बोल्यो हुँतो, तिणथी बोल्यो अजोग वशेख । आज सगलां में पूरा पाडसू, बाकी लारै न राखू एक ॥४॥ दोय साधां गोसाला मैं जिम कह्यो, तिमहीज कह्यो भगवंत। बोहसुरति कियो म्हैं तो भणी, ओर सगलोई कह्यो विरतंत।।५।। तूं मंखली-पुत्र डाकोतरो, तूं निश्चै गोसालो साख्यात । हिवै तूं मोसू अन्हाखी थके, पड़िवजियो मिथ्यात ॥६।। ढाल : १६ [रे जीव मोह अणुकंपा नाणिय] एहवा वचन गोसालो सांभले, ओ तो कोप चढ्यो ततकाल रे। मिसमिसायमान करै घणों, अभितर लागी झालोझाल रे। लेस्या मेली गोसाले वीर नै ॥१॥ आं० गोसाला री चौपई, ढा० १५,१६ ४०३ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात-आठ पग पाछो ओसरै, तिण ठामें कोधी समूदघात रे। तेज लेस्या काढी तिण बाहिरे, भगवंत री करवा घात रे ॥२॥ तेज लेस्या सरीर थी नोकली, वीर साम्हो आवै छै ताय रे। ते किम पेस त्यांरा सरीर में, ते दिष्टंत सूणो चित ल्याय रे ।।३।। उकलिया ने मंडलिया वायरो, पेस पोली वस्तु रै मांय रे। परवत ने थंभादिक तेहथी, अटकै तिण ठामे जाय रे ।।४।। परवत थंभादिक नैं वायरो, भेदतो फोड़तो मत जाण रे। वायरा ज्यू तेज लेस्या जाणजो, वीर सरीर थंभ समाण रे॥५॥ ते किणविध पेस त्यांरा सरीर में, तेज लेस्या तिण वार रे। नोपकर्मो आउखो वीर नों, त्यांरो कुण छै मारणहार रे ॥६॥ न हुई न हुवै नै होसी नहीं, तीनई काल में बात रे। अरिहंत भगवंत तेहनी, समर्थ नहीं करवा घात रे ।।७।। लेस्या परिदिखणा करती थकी, आतो ऊंची चाली आकास रे । ऊंचा थी हणाणी हेठो पड़ी, कठै रहिवा न पाम्यो वास रे ॥८॥ जब गोसाला रा सरीर में, तेज लेस्या पेठी आय रे। पोता री लेस्या थी पोते बल, तिणरै लागो सरीर में लाय रे ॥।। ते बलू-बलू करतो थको, कहै छै भगवंत नै एम रे। सुण रे आउखावंत कासवा ! तूं रह्यो मत जाणे कुसले खेम रे॥१०॥ तोनै होसी छ मास रै छेहड़े, रोग पितंजर ततकाल रे। . जद बलू-बलू करतो थको, छदमस्थ थको करसी काल रे ।।११।। वोर कहै गोसाला! सांभले, हूं नहीं करूं छ मासे काल रे। छदमस्थ थको मरूं नहीं, झूठ बोल तू आल-पंपाल रे ॥१२॥ हंतो सोले वरस लग विचरस, गंधहस्ती नी परे साहसीक रे। केवलग्यानी थको जासू मुगत में, ते तोनें नहीं जाबक ठीक रे ॥१३।। थे मौन तेजू लेस्या मेहली तका, पेठी थारा सरीर में आय रे । तिण थी रोग पितंजर ऊपज, दाह लागै सरीर र माय रे ।।१४।। जब तूं बलू-बलू करतो थको, असाता करे होसी हेरान रे। काल करसी सातमी रात में, छदमस्थ थको बिण ग्यान रे ॥१५॥ दहा. यांरै माहोमां विगट बातां हुई. ते पड़ी घणां रै कान । ते बात लोकां में विस्तरी, न्याय जाणे विरला बुधवान ॥१॥ हिवै सावत्थी नगरी रै मझे, घणां पंथ मारग रै माय । लोक माहोमां बातां करै, ते सुणजो चित ल्याय ॥२॥ ४०४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७ [आसण रा ए जोगी अथवा वेदक जग ए देखी] केइ लोक मिथ्याती त्यांमें नहीं ग्यांन, वले पूरो नहीं विगनान रे। ___ समझ नर विरला । आज दोय तीर्थकर रै झगड़ो लागो, तेतो सावन्थी नगरी रै बागो रे । समझू नर विरला ॥१॥ आं० ए दोनं माहोमां विवाद में बोल, एक-एक रा पड़दा खोलै रे। वीर तो कहै तूं म्हारो चेलो गोसालो, मोसू मत कर झूठी झखालो रे ॥२॥ गोसालो कहै हूँ थारो चेलो नाहि, थे कूड़ी कथी लोकां मांहि रे । म्है तो साधपणो थां आगे न लीधो, म्है तो गुर थान कदेय न कीधो रे॥३॥ वीर कहै गोसालो तीर्थकर नांहि, तीर्थंकर नां गुण छै मो मांहि रे । गोसालो कहै हं तीर्थंकर सूरो, ओ तो कासप प्रतख कूड़ो रे ।।४।। वीर नैं सनमुख चोड़े बोल्यो गोसालो, तूं तो मो पेहली करसी कालो रे । जब वीर कह्यो तूं सुण रे गोसाला! तूं करसी मो पेहली कालो रे ॥५॥ आप-आप तणों मत दोनई थापे, एक-एक नैं मांहोमां उथाप रे। यांमें कुण साचो कुण मुसावाई, केइ कहै म्हांनै खबर न काई रे ।।६।। यांमें केई कहै गोसालो जी साचो, इणनै किणविध जाणो काचो रे। यांमें तो उघाड़ी दीसै करामात, तुरत कीधी साधां री घातो रे ॥७॥ इण देखनां बाल्या दोय इणरा चेला, इणसं न हुआ पाछा हेला रे। इणनै खोटो कहितो जब बोलतो सेंठों, पछै अणबोल्यो कांय बैठो रे ॥८॥ गोसालो बोल ते गूंजार करतो, वीर पाछो बोल्यो तो ही डरतो रे । गोसालो जी सीह तणी पर गुंज्या, वीर नां साध सगलाई धज्या रे ॥६॥ वीर री तो लोकां देख लीधी सिधाई, इण में कला न दीसै कांई रे । सिधाई ह तो पाछी देखावत यांन, जब ए पिण ऊभा रहिता क्यांने रे ॥१०॥ ओ तो इण ऊपर चलाय नै आयो, इण कोठग बार रै मांह्यो रे। ओ सुरपणों तो दीस इण मांहि, तिण में कुमीय न दीसै काई रे ॥११॥ जद पिण हंतो लोकां में इसड़ो अंधारो, ते विकलां रै नहीं विचारो रे। ओ गोसालो पाखंडी प्रतख पापो, तिणनै दियो तीर्थंकर थापी रे ।।१२।। चतुर विचक्षण था तिण कालो, त्यां खोटो जाण्यो गोसालो रे। ओ गोसालो कुपातर मूढ मिथ्याती, तिण कीधी साधां री घाती रे ॥१२॥ खिमासूरा अरिहंत भगवंत, त्यांरा ग्यान तणो नहीं अंत रे। त्यांरा कोड़ जीभा करे नित गुण गावै, तो ही पार कदे नहीं आवै रे ॥१४॥ यां लखणां कर तीर्थंकर पिछाणो, ते तो भगवंत महावीर जाणो रे । ओ तो अतिसय ग्यांन गुणे कर पूरा, यांनै कदेय म जाणो कूड़ा रे ॥१५॥ केइ तो भगवंत ने जिण जाण, ते तो एकत त्यांनै बखाण रे। केई अग्यांनी गोसाला री ताणे, ते जिण-गुण मल न जाणे रे॥१६॥ केइ कहै दोन जिण साचा, आपां थी दोनई छै आछा रे। आपां नै यारा झगड़ा में न पड़णो, सगला नै नमण गुण करणो रे॥१७॥: केइ कहै ऐ तो दोनूंई कूड़ा, कर रह्या फेन-फितूरा रे। आप-आप तणों मत बाँधण काजे, तिण तूं झगड़ो करता नहीं लाजे रे ॥१८॥ गोसाला री चौपई, ढा० १७ ४.५ Jain Education Intemational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदे आपो न संभाले रे । ऐ तो पेट भरण रो करे छे उपाय, लोकां ने केयक इणविध बोले अग्यानी, भाषा इसड़ो अंधकार तो तिण काले, उसभ तीर्थंकर थका हुआ इसड़ा वेदा रे, ते तो अनाद काल रा सेंदा रे ॥ २० ॥ इम सांभल उत्तम नर नारो, अंतरंग मांहे कीजो विचारो रे । पखपात किणही री मूल न कीजे, साचो मारग ओलख ने लीजे रे || २१|| घाले का ००० तिणा काष्ठ ने सूका पानड़ा रे, त्यांने जलावे कोयक आयने रे, हा तिण काले नै तिण समे, जब उपगार जाणें भगवंत । कहै साथ साधवी में बोलाय ने ये सांभलो एक दिष्टंत ॥ १ ॥ छे मत मांय रे । मनमानी रे ।। १६ ।। ढाल : १८ [बे-बे रे मुनिवर बहिरण पांगरधा अथवा आउखो तूटा ने सांधो को नहीं ] वले छाल ने तुस रा ढिगला जाण । अगन मेले तिण मांहे आण रे ॥ गोसालो लेस्या थी खाली हुवो रे ।।१।। ० तिण अगन थी बल जल नें भसम हुवा रे, तिण राख में अगन नहीं लिगार रे । इण म्हांरी घात करवा रे कारणे हि गोसालो तप तेज रहित हुवो सगत नहीं मिनख बालण तणी रे, रे, सर्व तेजू लेस्या काढी इण बार रे || २ || रे, ठाला ठीकर ज्यूं हूवो निरधार रे । इणरो डर मत राखो मूल लिगार रे || (गोसालो होय गयो ठाली ठीकरो रे ) ॥३॥ तेजू लेस्या तो जाबक नीकली रे, लारै तो लेस्या नहीं अंसमात रे । मुदे तो आ सिद्धाई पूरी पड़ी रे, तिण सूं मिनखां री करतो घात रे ॥४॥ हिवै इच्छा हुवै तो साधां तुम तणीं रे, तो थे धर्म री करो चोयणा जाय रे । वले प्रश्न थे पूछो गोसाला भणी रे, कारण वागरणा पूछो न्याय रे ||५|| इम सांभल सगला साधु हरषिया रे, सगला हवा से साहस धीर रे वीर ने वंदना करने नीकल्या रे, आय ऊभा गोसाला तीर रे ॥६॥ गोसाला सूं कीधी धर्म चोवणारे, पडियोयणा कोधो बले वशेस रे। अर्थ में हेत वागरणा तणां रे प्रश्न पूछपा तिण में अनेक रे ||७|| त्यांरा पूछयां रो जाब न आयो तेहने रे, जब कोप चढयो तिज में ततकाल रे। लागी अंतर में मालोकाल रे || ८|| ते दांत पीसे ने मन में परजले रे, जब गोसालो जाणे सर्व साधा तणी रे, इणरी इण ठामे कर दूं घात रे । पीड़ा आबाधा कर सकै नहीं रे, तेजू लेस्या नहि तिण में तिलमात रे ॥ ६ ॥ ४०६ भगवती जोड़ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवर गोसाला रा ति अवसरे रे त्यां पिण जाण्यों तिण ने विपरीत रे । प्रश्न पूछ्यां राजाब न ऊपनां रे वले साध मारण री जाणी नीत रे ॥१०॥ जब के यक चिवरां गोसाला भणी रे, तिहाइज छोड़ दिया ततकाल रे । पखपात न राली वेलां गुर तणी रे गुण अवगुण निज नंगा लिया निहाल रे ।। ११॥ बीर जिणंद समीप आय में रे, त्यां वंदना कोधी छे बारूवार रे। त्याने जाणं मोटा तीर्थंकर केवली रे, त्यां पासे त्यां लीधो संजम भार रे ।। १२ ।। के धियरां गोसाला नैं नहीं छोड़ियो रे, ते तो रह्या छे तिण रे पास रे । hi खोटो जायो पण मत छोड्यो नहीं रे, केइ मन मांहे हुआ अतंत उदास रे ॥१३॥ गोसाला रा थिवर आया भगवंत में रे, जब केयक कहिवा लागा आम रे । इण बेला गमाया लोकां देखता रे, इहाँ आय पढ़ाई उलटी माम रे ।। १४ ।। गोसाला रा थिवर लिया समझाय नें रे, त्यांरं तो ग्यांन तणी छै बात रे । ओ गोसालो अग्यानी दृष्टी पापियो रे, इण कीधी सुधा साधां री पात रे ।। १५ ।। घणा लोकां रे मन इम मानियो रे, गोसालो भाखै ते सतवाय रे । वीर नहीं छं जिण चोवीसमा रे अगहूंतो बोलं मूसावाय रे ।। १६ ।। केएक उत्तम था से इस कहे रे, गोसालो जिण नहीं करें अन्याय रे । सतवादी वीर जिणंद चोवीसमां रे एकदेव न बोले मुसावाय रे ।।१७।। कितरांएक से सांसो मिटियो नहीं रे, म्हाने तो समझ पड़े नहि काय जी जिग दिन पिण सगला समस्या नहीं रे, भोल पण धो लोकां मांय रे ।। १८ ।। श्रावक गोसाला रै सुणिया अतिघणां रे इग्यारे लाल इगसठ हजार रे । वीर रे एक लाख वले ऊपरं रे, गुणसठ सहंस इधिक विचार रे ॥१६॥ जद पिण पाखंडी था अति घणां रे, पिण गोसाला रो पाखंड चलियो जोर रे । वीर जिणंद मुगत गया पर्छ रे, तिण में धर्म रहसी जिणराज रो रे, भवको पड़े ने वले मिट जायसी रे, भरत में होसी अंधारो घोर रे ॥२०॥ थोड़ो-सो आगिया नों चमकार रे । पिण निरंतर नहीं इकवीस हजार रे ।। २१ ।। 0 0 हा दस श्री वीर तणां समोसरण में दोष साधां री कीधी पात । बले उपसर्ग कियो भगवंत नं ते तो अछेरो छं सख्यात ॥ १ ॥ हुंदा नामे अवसर्पिणी, ते काल उतरतो जाण । बोलां री तेहमें, सम-सम अनंती हाण ॥२॥ जे निश्चै होणहार टले नहीं, जो करें कोड़ उपाय । व्यवहार रूप छै वारता, ते आगी पाछी पिण थाय || ३ || कोई निश्चै होणहार तिमहीज हुवै, ते भोलां खबर न कांय । ते भाव भेद परगट करूं, ते सुणओ चित ल्याय ॥४॥ गोसला री चौपई, ढा० १८ ४०७ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १९ [आ अणुकंपा जिम आमन्या में] भगवंते गोसाला नैं चेलो कोधो, ते अखोणरागपणे कियो जाणों । इणरा परिचा थकी स्नेह थो इणथी, मोह अणुकंपा सभाव पिछाणों। निश्चै होणहार टलै नहीं टाल्यो॥१॥ छदमस्थपणां थी इसड़ी मन आई, वले अवस भावी भाव टालणी नावै । जे निश्चै भाव केवलियां देख्या, ते आगा पाछा कहो किण विध थावै ॥२।। तीर्थकर छदमस्थ उपदेश न देव, सिषणी पिण न करै तिण कालो। अवस भावी भाव टालणी नावै, जब कियो भगवते चेलो गोसालो ॥३॥ जो धुर सं इणनै वीर चेलो न करता, तो इसड़ा उदंगल क्यांनै थावै ।। तिण समोसरण में आय उपसर्ग कीधो, इण विनां अछेरो कुण उपजावै ॥४॥ एक तिल देखनै पूछा कीधी गोसाले, निल नीपजसी वीर कह्यो विरतंत । जब वीर नै झठा घालण गोसाले, तिल उखाण नैं न्हाख दियो एकंत ॥५॥ आगा जायने पाछा आया तिण ठामे, गोसाले कह्यो तिल नीपनों नाही। जब वीर कह्यो तिल निश्चै नोपनों, फूल रा जीव ऊपना संगली मांही ॥६॥ थेट सूं बात मांडी कही सर्व तिल री, जिण विध जीवां कीया पोटपरिहारो। इम सांभल नैं इण उधो विचारयो, पोटपरिहार करै छै सर्व संसारो ॥७॥ इण ऊंधी अकल सं ऊंधी विचारै, पछै वीर से अलगो पड़ियो गोसालो। सातमों पोटपरिहार आपरो थाप्यो, सनमुख वीरसं झगड़यो तिण कालो ॥८॥ जब गोसाला ने साधा झूठो घाल्यो, जब गोसालो कोप चढयो ततकालो। जब भगवंत ने तिण उपसर्ग कीधो, वले दोय साधां ने दीधा बालो ।।६।। जो गोसाला नैं तिल बतावत नाहि, तो पोटपरिहार ओ क्याने बतावै। इणने पिण साधु झूठो न कहिता, तो उपसर्ग अछेरो किणविध थावै ॥१०॥ वले गोसाला नै वीर सीखाई, तेज लेस्था नीपजै इण भाँत । तिण लेस्या उपजाई सावध सेवै, तिणरै मिनख मारण री मन माहे खांत ॥११॥ तिण लेस्या सं कीधा अनेक अकार्य, मत बांधे फेलायो लोकां में मिथ्यातो। वले लोहीटाण भगवंत कीधो, वले दोय साधां री कीधो घातो ॥१२॥ जो गोसाला में लेस्या वीर नहिं सिखावत, तो उपसर्ग किणविध करतो आय। जो उपसर्ग नहीं करतो गोसालो, जब एक अछेरो घटतो थाय ॥१३॥ ओ पिण निश्चै होनहार छ, तिणसं गोसाला मैं लेस्या वीर सीखाई। औ पिण भाव दीठा जिम हुवा, तिण मांहे संक म आणों काई ।।१४।। फोडवी लबद अणुकंपा आणे, गोसाला – वीर बचायो । छ लेस्या नैं छदमस्थ हुंता, मोह करम वस रागज आयो ॥१५॥ मोह करम उदै अवस आयो ते, टालण समर्थ नहीं जगनाथ । वले अवस गोसालो अछेरो करसी, जद किणविध पामै गोसालो घात ।।१६।। अछरा दस देख्या अनंता अरिहंता, ते न घटै उपाय करै जो अनेक । जद गोसाला नै वीर नहीं बचावै, तो दसां अछेरां में घट जाऔ एक ॥१७॥ साधां मैं तो लब्द फोरवणी नाही, जोवो सूतर भगवती माय । पिण अवस भाव निश्च होनहारो, तिण मांहे संक म राखो काय ॥१८।। ४०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational cation International Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसड़ा अजोग ने वीर दिख्या दीधी, वले इसड़ा अजोग नैं वीर बचायो । ते अवस भावी भाव टालणी नावे, एक अधेरा से निश्च ओहीज उपायो ।। १६ ।। गोसाला कुपातर ने वीर बचायो, तिण मांहे समदिष्टी धर्म न जाणे । जे धर्म जाणं तो धर्म में भूला, ते सावद्य निरवद्य कम पिछाणे ॥ २० ॥ असंजती गोसालो कुपातर, तिण नै साझ सरीर से दीधो । धर्म जाणें तो जगत दुःखी थो, वले वीर ए काम कांय न कीधो ॥ २१ ॥ तेजू लेस्या मेल गोसालो बाल्या, दोय साध भसम करी काया लवदधारी या साध पणाई मोटापुरषां आनें क्यूं न बचाया ॥ २२ ॥ गोसाला कुपातर ने वीर बचायो, तिणमें धर्म कहे ते विना विचारो तिण जिनमारग ने ओलखियो नाहि, त्यांरा घट मांहे पूरो पोर अंधारी ॥२३॥ गोसाला नैं मरतो वीर बचायो, जो तिण मांहे धर्म जाणें जिनराय । तो आप तणां दोय साध न राख्या, ओ पिण किण विध मिलसी न्याय ||२४|| गोसाला ने वीर बचायो तिण में, धर्म जाणें सासणनायक साम । दो साध बचावता आप तणां वीर, वले फिर-फिर करता वीर ओहिज काम ||२५|| जगत नैं मरता देख्या भगवंते, कठेइ आडा न दीधा हाथ । धर्म जाणं तो आगो नहीं काढत तिरण तारण हंता श्री जगनाथ ||२६|| जो गोसाला ने वीर नहीं बचावता तो पट जातो अछेरो एक । निश्चे होनहार ते किणविध टाले, समझो रे गीसाला में वीर बचायो तिण सूं निश्चेई वले लोहीठाण भगवंत नैं कीधो, वले दोय साधां री कीधी घात ||२८|| गोसालो बचियां सूं राजी हुआ ते, गोसाला रा केड़ायत जाणो । तिण दुष्टी रा जीवियां में धर्म जाणें, त्यांरै मोह मिथ्यात उदे हुओ आणो ॥ २६ ॥ ज्यांरी सरधा नैं आचार दोनूं खोटा छै, त्यां तो गोसाला रो लीधो सरणो । ते गोसालो-गोसालो कर रह्या मूरख, पिण गोसाला रो पूरो न काढे निरणो ॥ ३० ॥ गोसाला ने पाले पोसे मोटो कीधो, त्यां माइतां ने जो होसी धर्मो तो तिने बचाया त्यांनं पिण धर्म, तिरो ओ परमार्थ ओहीज मर्मो ॥३१॥ , समझो थे आण विवेक ||२७|| बधियो बोहत मिथ्यात | तठा पेहली तो जीतम रो उपगार, ते तो उपगार माइतां रो जाणो । तठा पछनो जीतब से उपगार, ते तो वीर तनों उपगार पिछाणो ||३२| ओ तो सावद्य जीतब से उपगार, ते तो मोह करम वस रागज आण । वले पेहली उपगार कियो गोसाला थी, ग्यानादिक गुण रोते, तो निरवद जान ||३३|| दूहा । गोसालो खाली हुवो सर्वथा, कोठग बाग रे गांव तप तेज गमायो सर्व आपरो तो ही गरज सरी नहीं कांय ॥ १ ॥ वीर सहित सर्व साधां तणीं, जाग्यो घात कर तिज ठाम । सासण घापसू मांहरो, ते सरघो न एको काम ॥२॥ रुद्र दिष्टे देखतो थको लांबा मेलतो निसास। दाढ़ी मूंछा रा केस उखणं, पणी लाज खणतो तास ॥ ३ ॥ गोसाला री चौपई, ढा० १९ ४०९ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वले साथल बेहूं कूटतो थको, वले मसलतो बेहं हाथ । दोन पगां सूं भूम कूटतो कहै, म्हारी बिगड़ गई बात ॥४॥ आज हणाणो हूं सर्वथा, हा ! हा ! करवा लागो आम । हं माठी विचार आयो इहां, म्हारो बिगड़ गयो सर्व काम ||५|| तो हिवै हूं जाऊं इहां थकी, करूं और उपाय। ज्यू मत कुसले रहै मांहरो, ते किणविध करै छै जाय ॥६॥ ढाल : २० [धर्म अराधिए ए]] हिवै कोठग बाग थी नीकल्यो ए, आयो सावत्थी नगर मझार । जिहां निज श्राविका ए, हलाहली नामे कुंभकार । गोसालो दुखियो घणो ए॥१॥ आँ० तिणरी जायगां में पाछो आय ने ए, अब फल लियो हाथ मझार । मद पाणी पीतो थको ए, वले गीत गावै बारूंवार ॥२॥ वले बारूंवार नाचतो थको ए, कभारी ने नमै सीस नाम । दोन हाथ जोड़नै ए, बले कर तिणरा गुणग्राम ॥३॥ सीतल पाणी माटी भरिया ठामड़ा ए, उलंची-उलंची मैं ठाम । गात्र नै सींचतो ए, माटी नां लेप लगावै ताम ।।४।। बलू-बलू सरीर हुवो तेहनों ए, ते सीतल करवा काज । करै छै विटंबणा ए, पिण नांण मन माहे लाज ||५|| भगवंत कहै तिण अवसरे ए, श्रमण निग्रंथ नैं बोलाय। मौनै बालण कारणे ए, लेस्या काढी सरीर माथी आय ।।६।। ते लेस्या हुंती अति आकरी ए, जाजलमान वशेख। मोनै म्हेली तिण थकी ए, बल जाऔ सोले देस ।।७।। अंग बंग नै मगद देस में ए, मलया नै मालव जाण । अच्छा बच्छा देस मैं ए, कोच्छा पाढ में लाढ वखाण ॥८॥ वज मोली ने मोसली' ए, कोसल अवाहाज ताम । सोलमों संभूतरा ए, ए सोलै देसां रा नाम ।।६।। तिण तेजू लेस्या थी सोलै देस नै ए, बाले राख कर दै ताम। एहवी लेस्या आकरी ए, मेली मोनै बालण रै काम ॥१०॥ ते लेस्या पेठी तिणरा सरीर में ए, बलू-बलू करे रह्यो ताम । कभारी री जागां मझे ए, विटंबणा करै तिण ठाम ॥११॥ तिण अंब फल लियो छ हाथ में ए, जाव करै छै अंजली कर्म । करै छै विटंबणा ए, तिण छोड़ी लाज नै सर्म ।।१२॥ तो पिण ऊंधी करै छै परूपणा ए, तिणरै घट मांहे ओघट घाट । वज्र पाप ढांकवा ए, चरम परूपै आठ ॥१३॥ १. काशी : (अंगसुत्ताणि भाग २, श० १५, सू० १२१) ४१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बले बेहला गावू हूं गीत'। अंजलि करूं इण रीत ॥ १४ ॥ सींचाण गंधहस्ती' ताम । । * गात्र ओ बेहलो पाणी' मांहरे ए छेहलो नाटक करूं ए, छेहलो महामेह पुनसंग पांचव ए. बले कहूं कहूं सातमों ए. महासिला कंटक संगराम ।।१५।। हूं छेहलो तीर्थंकर चोबीसमों ए, ते हूं आठमों चरम भगवंत । इण अवसर्पणी काल में ए, मोख जासूं करमां रो कर अंत ॥ १६ ॥ सीतल माटी पाणी रा ठाम मांहि थी ए, उलंची उलंची ठाम । ने घटतो ए. वले झूठ बोले आम ||१७|| हूं बेहलो तीर्थकर चोबीसमों ए, इतरा कियां म्हाने नहीं दोख । वे कल्पे छे मो भणी ए. म्हांरं जाणो हे वेगो मोल ॥१८॥ जो हूं इतरावाना करूं नहीं ए, तो मौन लागे छै उलटा दोख । इतरा कियां विना ए, हूं जाय न सकूं मोख ॥ १६ ॥ आ तो थित छै काल अनाद री ए. ते छेहला तीर्थंकर नीं जाण । संका मत राखजो ए, इण विध कियां पोहचें निरवाण ॥२०॥ इसड़ी खोटी करै छै परूपणा ए, वज्र पाप ढांकण रे काज । वीर कहै साधां भणी ए, इतरी करै गोसालो आज ॥२१॥ बूहा बले कुणकुण करे छे परूपणा, घणां लोकां रे मांय । । ते जथातथ परगट करूं, ते सुणजो चित ल्याय ॥ १ ॥ ढाल : २१ [ अरे हां सुज्ञानी पास जिनंदा बे, अरे हां सुज्ञानी साहिब मेरा बे] अथवा [सलूणी रमणी रूड़ी ने अरे हांसंगे बोले कूड़ी वे ] ओ जस महिमा कोरत बधारण, बले मान बढ़ाई ताम । ते तो गोला फेंके गालां तणां ते तो मत राखण रै काम । गोसालो जिन नहीं रूड़ो वे अरे हां अग्यानी भितर कूड़ो वे ॥ १॥ ज० ते मन मांहे जाणे हे प्रतख खोटो, साचा श्री विरधमान । ते तो करमां वस जाणतो थको वले कुणकुण करे छे तान । गो० २ ॥ 1 आप तीपंकर जेम पूजावे, भगवंत ने कहै इन्द्रजाल । अन्हाखी यो बकवो करे, ओ तो दे दे अणतो आल ||३|| सात पोटपरिहार परूप्या, आपो छिपावण काम । ओ झूठ बोले निसंक सूं वले दुष्ट घणां परिणाम ||४|| दोसाला चौपाई, डा० २०.२१ ४११ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । | रूप रच्यो है साधु न वा गुण नहीं मूल लिगार जाणै जुगां रो जूनो जती, बणियो सासण रो सिणगार ||५|| गोसाले लोक धूतवा माटै, साधु रूप रच्यो अद्भुत । मुंडे बांधी मुंहपती, ओषो लियो बिना करतूत ॥ ६ ॥ नहीं उठाण कम बल नै वीर्य, पुरषाकार प्राकम नहीं ताय । ए पांचां रो कारण को नहीं, होसी होणहार ते हो जाय ||७|| करणी से कारण को नहीं छे होणहार तिम होय । एहवी ऊंधी करे परूपणा, पणां लोकों ने दीघा डबोय ||६|| सीतल पाणी पीधा से मोखन अटके अस्वी सेव्यां न अटक मोस । बीज हरीकाय भोगव्यां, त्यांमें पिण न बतावै दोष ॥६॥ छेहलो तीर्थंकर बाजे लोकां में, तिणसूं हुवो घणों मगरूर । पण अतिशय गुण एको नहीं, यूं ही थोथो चलायो फितूर ||१०|| आठ चरम तिण बेहला परूप्या ते पिण झूठ एकत महाकल्प से मन सूं उठाय में तिणरा झूठ से बोहत विरतंत ।। ११।। आप तो जाबक गुण विन थोथो, बोथो सहु पिरवार पलाल ज्यूं पुंज दीसे घणों, मांहे कण नहीं मूल लिगार || १२ || इरे सरधा माहे अतंत अंधारी, आचार में नहीं ठिकाण । भारीकरमा हुता ते जीवड़ा, पड़िया खोटा मत में आण ।। १३ ।। जिण काले जिण केवली हुंता, कहिता मनोगत बात । भारीकरमां रे गोसाला तणों, मिटियो नहीं मूल मिध्यात ।। १४ ।। वले वज्र पापनें ढांकवा काजे, पाणी परूपै च्यार । वले अपाणी प्यार परूपिया, त्यांसे करें घणों विसतार ।। १५ ।। एक तो पाणी परूपं पाल रो, बीजो पाणी छाल से जाण । तीजो पाणी फला तणों, चोयो सुध पाणी पिछाण ।। १६ ।। छ मास लगे मुध खादिम भोगवे तिण में दोष मास पुढवी संचार । काष्ठ संथारो दोय मास नों, दोय मास नों डाभ मकार ।। १७ ।। तिण नैं छ मासे नीं छेहली राते, दोय देव आवें तिण पास । पूर्णभद्र माणभद्र तेहनीं सेवा करे आण हुलास ।। १८ ।। सीतल अगोंचो लेई लेई हाथ में, हाथ में यात्र गात्र लूहे आय । तिने भलो जाणे तो तेह में आसीविस करम करे ताय ।। १६ ।। जो ऊ भलो न जाणे तेहनें, तो अगन सरीर में पाय । तिण अगन सू सरीर प्रजलै घणों बलूं-बलू करें ताय ।। २० ।। इतरी रीत "कियो पर्छ, ओ तो जाने मोख मभार । इणविध सुध पाणी विस्तार ||२१|| 1 ४१२ भगवती जोह तणो, कहै तो कहे घण घणों दूहा एहवी अंधी करे परूपणा, ते झूठ में झूठ अनेक । छै तिगरी धावक अयंपुल आवे विहां, ते सुणजो आणविवेक ॥ १ ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२ [पुन नीपज सुभ जोगं सूं रे]: सावथी नगरी में तेह में रे लाल, अयंपूल नामे जाण हो। भविक जण ! ते श्रावक छ गोसाला तणों रे लाल, तिणरै रिध प्रभूत बखाण हो। भविक जण ! श्रावक सुणजो गोसाला तणों रे लाल ।।१।। आं० ते गोसाला रै मत मझे रे लाल, प्रवीण घणों अतंत हो। विचरै छ आतमा भावतो रे लाल, गोसाला रो मारग जाण तंत हो ।।२।। ते रात समा रै विषे एकदा रे लाल, कुटंब जागरणा जागतो जाण हो। तिण अवसर मन माहे ऊपनी रे लाल, हल रो छै कूण संठाण हो ।।३।। बीजी वार अयंपुल मन चितवै रे लाल, मांहरा धर्म आचार्य ताहि हो। गोसालो जी तीर्थकर मोटका रे लाल, सर्व ग्यान दरसण त्या मांहि हो ।।४।। ते विचरै छै सावत्थी नगरी मझेरे लाल, हलाहल कभारीरी जायगां मांहि हो। संघ सहित परवरयो थको रे लाल, आतमा नै भाये रह्या ताहि हो।।५।। तो श्रेय किलाण छै मो भणी रे लाल, सूर्य उगां पछै बांदु जाय हो। सेवा-भगत करूं तेहनी रे लाल, त्यांनै प्रश्न पूछं हित ल्याय हो ।।६।। एहवी राते कीधी विचारणा रे लाल, सूर्य उगां पछै परभात हो। तिण मरदन सिनान किया तिहां रे लाल, चंदण सू चरच्यो गीत हो ।।७।। मोल मंहघा नैं हलका घणां रे लाल, एहवा कपड़ा गेहणा पेहरचा ताम हो। सगलोई अंग सिणगारियो रे लाल, घर बारे नीलियो आम हो ।।८।। हलाहल कुंभारी री जायगा तिहां रे लाल, अयंपुल आयो तिण वार हो। तिण देख्यो गोसाला नै दूर थी रे लाल, अंबफल देख्यो हाथ मझार हो ।।६।। जाव नमण करै कुंभारी भणी रे लाल, गात्र पाणी सींचतो देख्यो ताय हो। जब अयंपुल लाज्यो मनमें अति घणों रे लाल, हलवे-हलवे पाछा दीया पाय हो।।१०।। जब गोसाला रा थिवरां जाणियो रे लाल, अयंपुल लाज्यो देखी ताहि हो। जब अयंपुल ने कहै छै बोलाय नै रे लाल, थारै इसड़ी उपनी मन मांहि हो ।।११।। ते बात पूछण तं आवियो रे लाल, तु लाज्यो अंबफल देखे हाथ हो। ए बात साची कै साची नहीं रे लाल, अयंपुल कह्यो साची छ बात हो ॥१२।। तं लाज्यो अंबफल देखे हाथ में रे लाल, ते तं संका मन में मत जाण हो। भगवंत परूप आठ चरम नै रे लाल, पछै पोहचै निरवाण हो।।१३।। इण कारण अयंपुल गर तांहरो रे लाल, सरीर छांट पाणी सं जाण हो। आठ चरमादिक सगला बाना करी रे लाल, सीझ बुझ जासी निरवाण हो ।।१४।। ए वचन थिवरां रा सांभल्या रे लाल, अयंपुल घणों हरखत थाय हो। हिवै तिहां थी उठी नै नीकल्यो रे लाल, गोसाला ने वंदण जाय हो ।।१५।। जब थिवर गोसाला कनै गया रे लाल, अंबफल दियो एकंत न्हखाय हो। अयंपल आय वांदे बेठो तिहां रे लाल, गोसालो कहै तिणनै बतलाय हो ।।१६।। इणरै मनमें उपनी ते थिवरां कही रे लाल, तिम हिज गोसाले कही जाण हो। आठ चरमादिक सगली मांडी कही रे लाल, हल छै वंसी मूल संठाण हो ।।१७।। वीणा वजावै गीत गावतो रे लाल, गावतो-गावतो करै तान हो। वीरगा-वीरगा मुख ऊचरै रे लाल, वीर भाई-वीर-भाई करतो मान हो।।१८।। गोसाला री चौपई, ढा० २२ ४१३ Jain Education Intemational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वो वचन बेबे वेलां उचरै रे लाल, उनमाद नो कारण जाप हो । तो पण श्रावकां रे संका पड़े नहीं रे लाल, ते पिणजाणं कारण निरवाणहो ।। १६ ।। ते श्रावक पिण मुख सूं इम कहै रे लाल, आ छेहलां तीर्थंकर नीं रीत हो । त्यांरी मत ढंकाणी मोह करम सूं रे लाल, तिण सूं गोसाला से पूरी परतीत हो ॥ २० ॥ वले प्रश्न अपुल पुछिया रे लाल, त्यांरा अर्थ सुर्ण हरवत याय हो । भ० । भाव सहित वंदना करे रे लाल, पछे आयो जिण दिस जाय हो ।। २१ ।। हा गोसालो मरण जाण्यो आपरो जब थिवरां ने कहै पूरण खांत । थे काल गयो जाणो मो भणी, म्हांरी महिमा कीजो इण भांत ॥ १ ॥ ढाल २३ [जंबूद्वीप मशार रे अथवा [र जोवन मांय रे देही निरोगी हवे ] सुरभी गंध पाणी आण रे मुझ, सरीर नै । रूड़ी रीत म्हबरावजो ए ॥ १ ॥ परमल अति सुखमाल रे, गंध कसाई ए । तिण करे सरीर नैं लूहजो ए ॥ २ ॥ गोसीस चंदण आण रे, सरस ततकाल नों । महामोटा जोग वशेष रे, सपेत ऊजलो । मुझ गातर लेप लगावजो ए ||३|| डांको मुझ सरीर रे, रूडी रीत हूं। अलंकार करो सर्व अंग रे, ज्यं रे, सरीर घणों सिणगार ४१४ भगवती-जोड़ इसडो कपड़ो आप ने ए ॥ ४ ॥ ज्यू दीसे अति सोभतो ए ॥ ५॥ विभुसत करो घणों । लागे अति रलियामणो ए ।। ६ ।। दीपक ज्यू दीपती । देखतां नयण ठरं ए ॥ ७ ॥ पुरुष उपाड़े सहंस रे, करजो हजारों रूप रे, सावत्थो नगरी रं मांहि रे, घणां पंथ भेला हुवै । तिहां कीजो उद्घोषणा ए ॥ १० ॥ एहवी सेवका । ते रूडी रीत बणायजो ए ||६|| सेवका मके । ते देखता लोचन ठरै ए ॥६॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादिक रिध सतकार रे, मुझ सरीर नै । नगरी बार काढजो ए।।११।। वले मुख सं कहिजो आम रे, संका मत आणजो। आज हुवो अंधारो भरत में ए ।।१२।। इण अवसर्पिणी मांहि रे, चरम तीर्थंकर । ते करम खपाय मुगते गया ए ।।१३।। जस कीरत गुणग्राम रे, कीजो अति घणां। ज्यं जिणमारग दीपै घणों ए ।।१४।। गोसालो मंखली-पूत रे, जिण चोवीसमों। ते सींह तणी परे विचरता ए।।१५।। ते तारण-तिरण जिहाज रे, भव जीवां तणां । इणविध कोजो उद्घोषणा ए ।।१६।। ते पुरष गया • काल रे, तो हिवै भरत में । मिथ्यातज वधसी अति घणों ए ।।१७।। ते सासणनायक साम रे, विच्छेद गयां थकां । हिवै कासप अति गूंजसी ए॥१८।। कासप री मन खांत रे, आज पूरीजसी। जाणे मत फेलांसू मांहरो ए ।।१६।। त्यां पुरुषां नै देख रे, पाखंडी धूजता। सनमुख कोइ न फुरकता ए।।२०।। आगा थी जाता भाग रे, पग नहीं मांडता। छिए जाता काने सुण्यां ए॥२१॥ इत्यादिक बोल अनेक रे, कहिजो जुगत सू । बहु जन में संभलावता ए॥२२।। पाड़े मोटे-मोटे सब्द रे, एहवी उदघोषणा। ठाम-ठाम करजो घणी ए ।।२३।। दूहा ए वचन गोसालो कह्या तके, थिवरां सुण तिण वार । विनै सहीत हाथ जोड़ नै, रूड़ी रीत किया अंगीकार ।।१।। हिवै गोसालो सातमी रात में, लाधो समकत सार । अधवसाय मन में ऊपनों, जब करै छै कुण विचार ।।२।। म्है कूड़ कपट करे घणों, मत बांध्यो एकत। हं प्रतख झूठो निसंक सू, साचा श्री भगवंत ।।३।। जो ए सल मांहे रहै मांहरे, तो बध जाऔ अनन्त संसार । नरकादिक दुख भोगवं, तिणरो कहितां न आवै पार ।।४।। तो हिवै सल न राखणों, आलोवण कियां सुध थाय। हिवै करै आलोवण किण विधे, ते सुणजो चित ल्याय ॥५॥ गोसाला री चौपई, ढा० २३ ४१५ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २४ [चंदगुपत राजा सुणे] हूं तो निश्चै तीथंकर छु नहीं, हं केवलग्यानी पिण नाही रे । जे अतसय गुण छै जिणेसर तणां, ते जाबक नहीं मों मांही रे । हा ! हा ! रे पापी मैं स्यूं कियो ।।१।। आँ० हूं तो गोसालो मंखली-पूत छू, भारीकरमो मूढ मिथ्याती रे। दोय साध भगवंत रा, त्यांरो हुवो हूं घाती रे ॥२॥ औ तो वीर जिणंद चोबीसमां, ते तो च्यार तीर्थ नां थापी रे । ते तो निश्चै तीर्थकर केवलो, ते म्है जाणे उथाप्या पापी रे ।।३।। मौनै दिख्या दे वीर चेलो कियो, वले, बहुसुरती मोने कीधो रे। ते उपगार विसारे में घालियो, त्यांनै उलटो म्है दुख दीधो रे ॥४।। तेज़ लेस्या जिण विध नीपज, ते पिण मौनें वीर बताई रे। त्यांरो विनो भगत तो जीहाई रह्यो, त्यांने उलटो हुवो दुखदाई रे॥५।। त्यांरा दोय साधां नै म्है मारिया, तेज़ लेस्या मेहली म्है पापी रे । बले लेस्या मेहली म्है वीर नै, त्यांनै मारण री मन में थापी रे ॥६॥ हं प्रतणीक सर्व साधां तणों, त्यांरो अंतरंग माहे वेरी रे। म्है काण न राखी किण साध री, त्यांसू दुष्ट परिणामे रह्यो गेरो रे ॥७॥ वले आचार्य नै उवज्झाय नों, त्यांरो अजस करतो वारूवारो रे । त्यांरा अवरणवाद बोल्या घणां, त्यांरी कीधी अकीरत अपारो रे ।।८।। अछता आल दिया म्है अति घणां, त्यांरी कर-कर कूड़ी बातो रे । म्है च्यार तीथ सं पापिये, पड़िवजियो मिथ्यातो रे ॥६॥ है तो पूरो विगुतो मिथ्यात में, घणां जणां मैं विगोया रे। त्यांनै संसार रूपिया समद में, ऊंधी सरधा में न्हाख डबोया रे ॥१०॥ म्है तेज लेस्या मेहली वीर नैं, ते लेस्या मो में पाछी आई रे। तिण तेज लेस्या रा तप तेज थी, म्हारै बलण घणी छै माही रे ॥११॥ तिण सं रोग पितंजर ऊपनों, वले दाह लागी विकरालो रे । तो आज सातमी रात छ, छदमस्थ थको करसू कालो रे ।।१२।। जद वीर मोने न बचावता, तो हूं कुसले न रहितो पापी रे । दोय साधां नैं भगवंत रो, मूल न है तो संतापी रे ॥१३॥ हं पापी जीव बचायां थकां, गुण किणरै ई नीपनों नांहीं रे । म्है हाण पाड़ी जिण-धर्म री, उलटा न्हाख्या मिथ्यात रै मांही रे॥१४॥ मोटा-मोटा अकार्य म्है किया, वले हुवो करमां सं भारी रे। मो जीव्यां थी ए गुण नीपनों, म्हारो किम होसी निसतारी रे ॥१५॥ एहवी करै विचारणा, निज थिवरां मैं बोलाया रे। जब वचन लेई थिवरां तणों, भारी-भारी संस कराया रे ॥१६॥ भारी संस कराय थिवरां भणी, पछै मांड कही सर्व बातो रे । हं पूरो पाखंडी थेट रो, म्है कीधी साधां री घातो रे ॥१७॥ तीर्थकर वीर जिणंद चोबीसमां, ते तो विचरै छै साहसीको रे। हूं गोसालो मखलीपूत छु, हूं रह्यो पाखंड में तीखो रे ॥१८॥ ४१६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे काल गयो जाणों मो भणी, हं कहं ते सगला कीजो रे । डावा पग रै बांधजो सींदरी, म्हारा मंढा में थूकीजो रे ।।१६।। सावत्थी नगरी में मझे, तीन च्यार घणां पंथ तामो रे । तिहां आमो-साह्मो सरीर घीसालजो, बारूंवार पारजो मामो रे ।।२०।। ठाम-ठाम कीजो उद्घोषणा, मोटे-मोटे सब्दे विख्यातो रे । गोसालो नहीं जिण केवली, पापी कीधी साधां री धातो रे ।।२१।। तिण आउखो आज पूरो कियो, छदमस्थपणे कियो कालो रे । इत्यादिक निज ओगुण कह्या घणां, ते कहिता म कीजो टालो रे ।।२२।। तार्थंकर अरिहंत जिण केवली, ते तो समण भगवंत महावीरो रे । त्यांनै परगट कीजो सहर में, घणां लोकां रै तीरो रे ।।२३।। मुझ सरीर नै भूडी तरे, काढजो नगरी बारो रे। जे कही ते सर्व सरलपणे, पछ काल कियो तिण वारो रे ।।२४ ० ० ० गोसाले काढयो सल आपरो, तिण पाछ न राखी कांय । तिण मान अभिमान सर्व छोड़ने, निज अवगुण दिया बताय ।।१।। एहवी करै आलोवणा, ते तो विरला जाण। सल काढे मरै तिण पुरुष नां, जिणवर करै छै बखाण ।।२।। हिवै गोसाला रा थिवरा तिहां, काल गयो गोसालो जाण। त्यांन आय बणी छै सांकड़ी, त्यांस मेलणी नांव माण ।।३।। ते वचन गोसाला रो राखवा, वले निज संस राखण काज । ते नाम मातर छान करै, चोड़े करतां आवै लाज ।।४।। गोसाले तो खोटो मत छोडियो, तिण तो जाबक दियो छ उठाय। जे भारीकरमा जीवड़ा, त्यांस मत छोड्यो नहिं जाय ।।५।। ढाल : २५ [सुण हे सुवटी मत कर सुत नी आस] थिवर मांहोमांही चितवै, हिवै करवो कवण विचार । जे नायक था सासण तणां, त्यां दीधी बात बिगाड़। सुणो भाई थिवरां, म करो मत रो उघाड़।।१।। आं० आपे तो यांने जाणता, ए ग्यान गुणां भरपूर । त्यां तो मुख सं इम कह्यो, म्है जाबक कियो फितूर ।।२।। उघाड़ कियां में गुण नहीं, खोटो जाणे रे लोक । जब पड़े बिखेरो मत मझे, सह जाण लेवेला फोक ।।३।। गोसाला री चौपई, ढा० २४,२५ ४१७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपां ने दिन काढणा, इणहीज मत रै मांय । 1 तिसुं बात वारे मत काटजो चुप राख्यां गुण बाय || ४ || गोसाले को छै जिम करां, तो लागे न्यात जात सर्व लोक में, जाओ पणी विपरीत। परतीत ||५|| करवा लागा विचार | जड़या किमाह ।।६।। रे जाय । बणाय ||७|| गोसालो काल गयां थकां जब कुंभारी तां घर तणां, आडा कुंभारी नीं जायगां मझे, बहु मझ देस में नगरी आलंकी सावत्यो, तिहां रूड़ी रीत डावा पग रे बांधी सींदरी, गोसाला रै तिण ठाम । तीन बार क्यो मुख तेहने वले करवा लागा आम ||८|| तिण सावत्थी नगरी मझे, तीन च्यार घणां पंथ मांय । आमो साह्मो घसाल्यो तेहने, सींदरी हाथ संभाय ॥ ६ ॥ नौचो-नीचो मुख करी, सब्द कह्यो तिण काल । उदघोषणा करने को, ओली-पूत गोसाल ||१०| ओ नहीं अरिहंत जिण केवली, ओ डाकोतरा री जात । इण कियो अकार्य पापिये, कीधी दोय साधां री घात ।। ११ । । छदमस्थपणे ओ चल गयो, आसा अलूधो रे आज वले करम बांध भारी हुबो, इणरो श्रमण भगवंत महावीर जी, अ ले अतिसय गुणकर दोपता त्या गोसाले को थो जिम करघो, त्यां ते जथातथ किणविध करें, जे हिवै दूजी बार महिमा करें, ते मत यो हावा पगारी सोंदरी, वले किया सुरभीगंध पाणी करो, न्हवरायो पहिला को गोसाले तिम करचो कीधा सगला बोल संभाल ।। १६ ।। मोटी रिच सतकार सूं काठो नगरी रे बार न सर्यो आतम काज || १२ || निश्चे देवातदेव । इंद्र करें सेव ।। १३ ।। नगरी ने आलंक । भारीकरमां बंक ।। १४ ।। राखण तिणवार । उघाड़ा दुवार ||१५|| तिण काल । , तिरा किया महोछव अति घणां सुतर में घणों विसतार ||१७|| 1 ४१८ भगवती जोड़ निज काल कितोएक बीतां सावत्थी नगरी थी नीकले तिण काले ने तिण समे, सोण कोठ नामे बाग थो ईसाण कूण रे मांहि ॥ २ ॥ तिण साण कोठ नामा बागथी, नेड़ो मालुआ कच्छ थो एक । ते पान फूल फलां की सोभतो, तिथ में रूड़ा विरख अनेक ||३| तिण मेढीगाम नगर मांहे वसं, रेवती गाथापतणी नाम । कोइ धन कर गंज सकै नहीं, रिध प्रभूत छै ठाम ठाम ||४|| 3 वहा पर्छ, भगवंत कियो विहार । चाल्या जनपद देस मझार ॥१॥ मेढीगाम नगर यो ताहि " Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २६ [हंस हंस बांध करम अथवा आछे लाल] तिहां भगवंत श्री महावीर, विचरत साहस धीर । आछे लाल। मेढ़ीगाम पधारिया ॥१॥ मेढीगाम नगर रे बार, साण कोठ बाग मझार । तिण बाग में वीर समोसरया ॥२॥ साथे मोटा-मोटा अणगार, वले सिष्यां रो बह पिरवार । मोटे मंडाणे वीर आविया ॥३॥ तिहां आया लोक अनेक, कीधी सेवा भगत वशेख । जिण दिस आया तिण दिसे गया ।।४।। तिण अवसर श्री महावीर, त्यारै आतंक रोग सरीर। वेदन वेदै अति आकरी ॥५॥ ते वेदन जाजलमान, कायर कंप सुण कान । • ते अहियासतां अति दोहिली ।।६।। पितंजर परगट्यो सरीर, समे परिणामे खमै महावीर । दाह उपनों सर्व सरीर में ॥७॥ लोहीठाण हवो तिण काल, ते वेदना अति विकराल । वीर वाणी अटके गई ॥८॥ च्यारूं वर्ण रै माहोमांही आम, लोक बात करै छै ठाम-ठाम । भगवंत नै करड़ो रोग ऊपनों ।।६।। वीर नै गोसाला रे संवाद, हवो कोठग बाग में विवाद । ___ जब तेजू लेस्या मेली वीर – ।।१०।। तिण लेस्या रो लागो ताप, ते रह्यो सरीर में व्याप। ____ जब वीर वाणी अटकी तेह सूं ॥११॥ छ मास तणे अंत जोय, जब रोग पितंजर होय । दाह उपजसी सर्व सरीर में ।।१२।। छदमस्थ थको करसी काल, इम कह्यो थो जद गोसाल । ए बात मिलती दीस तेहनीं।।१३।। वीर कह्यो जद मूओ गोसाल, तिणरो तो आयो निकाल । ते पिण वचन नहीं विगटियो ॥१४॥ दूहा तिण काले में तिण समे, भगवंत नों सिष सुवनीत । सीहो नामे अणगार थो, तिण में साध तणी सुध रीत ॥१॥ बेले-बेले निरंतर तप करै, सूर्य साह्मो लेवे आताप। मालुआ कच्छ री पाखती, दोन हाथां नैं ऊंचा थाप ॥२॥ गोसाला री चोपई, ढा. २६ ४१९ Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण ठामे ध्यान ध्यावतां, उपनों मन में अधवसाय । म्हारा धर्माचार्य वीर नैं, रोग ऊपनों आय ।।३।। छ मास रै छेहड़े लेस्या थकी, छदमस्थ थका करसी काल । इम सीहे सुणी लोकां कनै, उठी मोह नी झाल ।।४।। ढाल : २७ [बालम मोरा हो बिछडिया धणो संभर अथवा सहियां हे मोरी आज सोनं रो सूरज ऊगियो] हिवै सीहो अणगार तिण अवसरे, तिण पाम्यो घणों दुख अतंत । जिणंद मोरा हो। मोटो दुख माणसीक मन ऊपनों, जाण्यो काल करसी भगवंत । जिणंद मोरा हो। तुझ विरहो मुझ दोहिलो ॥१॥ आं० हिवै हं प्रश्न पूछस केहन, कुण देसी प्रश्नां रा मोनें जाब । तुझ दरसण री हती मौन चावना, जब दरसण करतो सताब ।।२।। तो हिवै सर्व पाखंडी गूंजसी, वले बधसी घणों मिथ्यात। अंधकार होसी भरतखेतर में, जाण पूरी अमावस री रात ।।३।। आप विना इण भरतखेतर मझे, सर्व सासण होसी अनाथ । वले हलुकरमा जीवां तणों, त्यांरो कुण काढसी मिथ्यात ।।४।। आप विनां इण भरतखेतर मझे, इसड़ी वाणी कुण वागरै आम । ते सुण-सुण भवियण जीवां तणां, तुरत सुलटा हुवै परिणाम ।।५।। तीनसौ नै तेसठ आप भाषिया, पाखंडियां तणां मत जाण। आप विना पाखंडी घणां जीव नं, त्यांरा मत में न्हाखसी ताण ताण ।।६।। अंतरंग माहे दुख व्याप्यो घणों, तिणरी छाती भराणी छै ताहि। जब आतापना भूम थी नीकल्यो, गयो मालुआ कच्छ मांहि ।।७।। मालुआ कच्छ नैं मझ तिहां गयो, तठे मिनख नहीं कोइ ताम । तिहां मोटे-मोटे सब्दे रोवै घणों, घणी कूक पाडै तिण ठाम ।।८।। जो आप आउखो पूरा कियां, किणनै कहिस हिया री हूं बात। मुझ में आप तणों आधार छै, आप विनां हं निश्चै अनाथ ।।६।। इणविध आक्रंद करै घणों, मोटे सब्दां रोवै बांगां पार। तुझ विना तो हूं दुखियो घणों, म्हारो किम नीकलै जमवार ।।१०।। ए मोह करम जोरावर जीव नै, तिणसं करै अनेक अकाज । तिण उदे आयां संवली सूझे नहीं, ते जाणै छै श्री जिणराज ॥११॥ वीर जाण्यो सीहा नैं रोवतो, जब कहै साधां मैं विचार । अंतेवासी सिष मांहरो, सीहो नामे अणगार ॥१॥ ४२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते रोवै छै मालुआ कछ मझे, सगली बात कही विसतार । तेड़ ल्यावो हिवै तेहनें, म करो ढील लिगार ॥२॥ साधु तिहां थी नीकल्या, आया सीहा रै तीर । ते साध कहै छै सीहा भणी, तोमै बोलावै श्री महावीर ॥३॥ हिवै सीहो तिहां थी नीकल्यो, आयो भगवंत पास । वंदणा करे श्री वीर नैं, तिहां ऊभो अतंत उदास ।।४।। ढाल: २८ [कपूर हुवै अति ऊजलो जो] श्री वीर जिणंद चोवीसमां रे, कहै सीहा नै बोलाय । जे-जे सीहा रै मन ऊपनी रे, ते दीधी छै वीर बताय । रेसीहा ! मत कर फिकर लिगार ॥१॥ आं० थारै ध्यान करतां मन ऊपनी रे, भगवंत रै उपनों आतंक रोग । म्हारा धर्माचार्य तेहनों रे, थे पड़तो जाण्यो विजोग ।।२।। थे जाण्यो धर्मगुर महरा रे, छदमस्थ थका करसी काल । केइ अणतीर्थी इम भाषसी रे, तिण सं उठी थारै मोह झाल ॥३॥ तिण कारण तूं रोयो घणों रे, मालुआ कच्छ रे माही। बांगां पाड़ी छ अति घणी रे, मोटे-मोटे सब्दे ताही ॥४॥ सीहे विलाप कियो तके रे, वले चिन्तवी थी मन मांय । ते वीर सगली सीहा नै कही रे, ते सगली आगंच दीधी बताय ।।५।। वीर कहै सीहा ! वारता रे, कहै साची कही के नांहीं। जब सीहो कहै साची वारता रे, झूठ नहीं तिण मांही। रे जिणेसर ! म्हारी कही मनोगत बात ॥६।। हूं गोसाला रा ताप थी रे, काल न करूं छ मासा रे अंत । लोक बातां करै ते झूठा थका रे, ते साच न जाणे मतवंत ॥७॥ साढा पनरै वरसां लगे रे, केवलग्यान सहीत । गंधहस्ती नी परे विचरसू रे, हिवै जाबक रोग रहीत ॥८॥ हिवै जा तूं सीहा ! इहां थकी रे, मेढीगाम नगर रै माय । तिहां गाथापतणी छै रेवती रे, तिण रे घर त जाय || तिण म्हारै अर्थ नीपजावियो रे, ते कोल्हापाक पिछाण । तिण नैं तूं मत ल्यावजे रे, आधाकरमी दोषण जाण ॥१०॥ जे उणरै अर्थे नीपनों रे, विजोरापाक वशेष । ते तूं ल्याव निसंक सूं रे, सुध निरदोषण देख ॥११॥ गौसाला री चौपई, ढा. २८ ४२१ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा दम सांभल में सीहो मन हरथियो, बले पायो अतंत संतोष । तो हि जाय सताब सूं. हिवे भगवंत ने वंदना करे, आयो जिहां रेवती नों घर छ तिहां, परवेस रेवती देख्यो सीहो मुनि आसण छोड़े ऊभी थई पाक ल्याऊं निरदोष ॥ १ ॥ मेढीगाम में ताहि कियो तिन मांहि ||२|| ढाल : २९ [वीर बखाणी राणी चेलणा जी ] आयतो जी हरषत हुई मन मांय । जी, सात आठ पग साझी आय । तीन प्रदिपणा दे करी जी, पांचूई अंग नमाय ने जी. आज म्हारी रं जागी दसा जी, पूगी आज भलो भाग उगियो जी भाग आज करतारथ हूं गई जी, मुनिवर ज्यां पुरुष तण चावना जी त्यांरो म्हे तो दीठो दीदार ॥४॥ किण प्रयोजन आप पधारिया जी, ते कहि ने बतावो जो मोय । साधजी भलाई पधारिया जी ॥१॥ आं० वांदे छे बा जी वार । बारूं मन मांहे हरष अपार ॥२॥ म्हांरा मन तणीं कोड । कियो म्हारे आया म्हार जोर ॥३॥ वार । 7 ॥७॥ जब सीहो कहै रेवती भणी जी. एक ओषध आप तूं मोय || ५ || कोल्हापक थे वीर अर्थ कियो जी ते लेगो कल्पे नहीं मोम | बीजोरापाक तुम अयें कियो जी, ते बेहराम निरदोष जोय ||६|| कुण ग्यानी हो यारे एहवा जी त्यां कही म्हांरी छानी जी बात। थे परगट कही मो आगले जी, ते उत्तर दो सामीनाथ ! ||७|| वीर जिणंद चोबीसमा जी, त्यांसूं छानी नहीं कोई बात । ते लोक अलोक जाणं सर्वथा जी त्यांरा कह्यां सं जाणं साख्यात ॥ ८ ॥ ए वचन सीहा तणों सांभली जी, रेवती हरषत थाय । तिण दान दियो सीहा अणगार नै जी, मन रलियायत थाय ॥६॥ दरब दातार दोनूं सुध था जी, तीजो पातर सुध जाण । वसुध तीन करण तीन जोग सूं, इणरै इसड़ी जोगवाई मिली आण ॥ १० ॥ तिण ओषध बेहरायो अति भाव से जी, बले उछरंग पाम्पो तिन वार । तिहां देव आउसो तिण बांधियो जी, वले कीधो परत संसार ।। ११।। तिहां सुगंध पाणी देव वरसावियो जी वले वूठा पांच वर्ष जी फूल । वले विरखा करी सोवन तणीं जी, बूठा वले वसतर अमूल ।।१२।। देव बजावं देव-दुदभी जी, आकास र अंतर ठाम । मोटे सब्दे घोष पाड़ियो जी, दान रा धिन धिन करें देवता जी, धिन धिन रेवती गाथापतणी ने कहै जी, इण सफल ४२२ भगवती जोड़ किया करे कियो गुणग्राम || १३ || नर-नार । अवतार ॥ १४ ॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बले मेठी गाम नगर मझे जी पणां लोक करे गुणग्राम । इण जीतब जनम सुधारियो जी, तिण साध प्रतिलाभिया ताम ॥ १५॥ पांच दरव परगट हुया जी, ओ पिण लोक इचरज देख । तिण सूं ठाम ठाम बातां करें जी, विवरा सुध विशेख ॥१६॥ वहा आयो हिवे सीहो तिहां पी नीकल्यो, भगवंत पास पाक सूप्यो भगवंत ने मन मोहे अतंत हुलास || १ || पाक लेई वीर हाथ में प्रक्षेप्यो सरीर मकार । ततकाल मिटी दाह वीर नीं, सुखसाता हुई तिणवार ॥२॥ रोग रहित हुआ वीर सर्वथा, वल बधियो सरीर मझार । तेज प्राकम बधियो अति घणों, ते कहितां न आवै पार || ३ || वाणी वागरवा समर्थ हवा, चोबीसमा जिणराय । जब कुणकुण जीव हरपत हुआ, ते सुणजो चित स्थाय ॥४॥ ढाल : ३० [ सोरठ देश मझार द्वारका नगरी सार आज हो वसुदेव राजा राज करें तिहां जी ] बीर लियो वीजोरापाक, तिण सूं हुय गया चाक आज हो सीहो मुनीसर ल्यायो बेहरने जी ॥ १ ॥ साध साधवियां सुविसेष त्वां पाम्यो हरष संतोष आज हो मन रा मनोरथ फलिया तेहनां जी || २ || वले श्रावक श्रावका जाण, ते पिण चतुर सुजाण । आज हो हरष संतोष त्यां पिण पानियो जी ॥ ३॥ ए हरख्या तीरथ च्यार त्यां पाम्यो आनंद अपार । आज हो विकसत हुआ कमल नां फूल ज्यूं जी ॥ ४ ॥ बले देवी देवता ताम, ते हरण्या ठामो ठाम आज हो वीर सरीर निरोगो सांभले जी ॥ ५ ॥ वले देव मिनख सुर लोग त्यांरा विकस्या तीन जोग 1 आज हो रलियां पुराणी त्यांरा मन तणी जी ।।६।। वले हरषी परखदा बार, ते सुणवान हुआ त्यार । आज हो वाणी चलू हुई जाणी वीर नीं जी ॥७॥ हिवे गणधर गोतम साम, पूछे भगवंत ने आम । आज हो वंदना करे ने वीर जिणंद नैं जी ॥ ८ ॥ गोसाला री चौपई, ढा० २९, ३० ४२३ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाणुभूती अणगार, ते गुण-रतनां रा भंडार । आज हो ते उपनो पिछम नां जनपद देस नों जी || || जद गोसाले तिण ठाम, तेजू लेस्या म्हेली ताम । ते आज हो वाल जाले नै भसम किया तिहां जी ॥ १०॥ पूछा करूं जोड़ी हाथ, मोनें कहो तिलोकीनाथ ! काल करे में मुनिवर किया गयो जो ॥११॥ हिवे भाखे श्री भगवंत, सुण गोतम ! मतवंत । आज हो सर्वाणुभूती गयो सुर आठमें जी ।। १२ ।। आठमां सुर मकार, आउषो सागर अठार । आज हो देव तणां सुख भोगवसी तिहां जी ।।१३।। जो चव ने जासी केत! वीर कहे महाविदेह खेत आज हो संजम लेई में सिवपुर जावसी जी ।। १४ । । बले हाथ जोड़ी सीस नाम पूछे गोतम साम आज हो बंदणा करी में वीर जिणंद में जो ।। १५ ।। उपनों कोसल देस मकार, सुनपत्र नामे अगगार । आज हो अंतेवासी थो सामी तुम तणों जी ।। १६॥ तिण ने गोसाले ताम, तेजू लेस्या मेली तिण ठाम आज हो तिगरं परतापे मर ने कहां गयो जी ? ।।१७।। हिये भाषे श्री भगवंत, सुण गोतम ! मतवंत । आज हो सुनवत्र साधु आयो मो कने जी ॥ १८॥ मोनें बांदे वाहंवार बले फेर महाव्रत धार आज हो साध साधवियां सर्व खमाविया जी ॥ १६ ॥ आलोए पडिकमे ताम, समाध पामे तिण ठाम आज हो काल करे गयो सुर बारमें जी ||२०|| इणरो आउखो सागर बावीस, ते भाख्यो जगदीस । आज हो देव तणां सुख भोगवसी तिहां जी ॥ २१ ॥ ओ चवने जासी केत, वीर कहै महाविदेह खेत । आज हो संजम लेई ने सिवपुर जावसी जी ॥ २२ ॥ वले हाथ जोड़ी सीस नाम, पूछे गोतम साम आज हो वंदना करे में वीर जिनंद ने जी ॥ २३ ॥ थारै कुसिष्य हुवो गोसाल, तिण कियो इहां थी काल । आज हो किण ठिकाणे जाए अपनों जी ॥ २४॥ हिये वीर कहे थे ताय, सुण गौतम ! जित ल्याय । आज हो गोसालो कुसिष्य हवो ते माहरो जी ||२५|| घात कधी साधां री बाल, छदमस्थपर्णे कर काल । आज हो बारमें देवलोके हवो देवता जी ||२६|| गोतम सामी सुणै इम वाय, मन में इचरज थाय । आज हो इसड़ो दुष्टी बारमें सुर किम गयो जी ? ॥२७॥ इसड़ा किया अन्याय, तिणसं पड़े नरक में जाय । आज हो तिन हूं इचरज पाम्पो अति घणों जी ॥ २८ ॥ गोतम पूछे जोड़ी हाथ, मोने कहो तिलोकीनाथ ! आज हो किन करणी कर गयो सुर बारमें जी ||२१|| ४२४ भगवती - जोड़ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब मांड कहो जगनाथ, गोसाला री बात। आज हो आलोवण कीधी ते मगली कही।॥३०॥ जद चोखी समकत पाय, तिहां पून रा थाट उपजाय । आज हो तिण सं बारमें सूर हवो देवता जी ।।३१।। गोतम पूछे जोड़ी हाथ, उठ आउखो कितो सामीनाथ ! आज हो बारमें देवलोके तिण देवता तणों जी ।।३२।। इणरो आऊ सागर बावीस, ते भाख्यो श्री जगदीस । देव तणां सुख भोगवसी तिहां जी ॥३३।। देव आउखो पूरी करे, चव उपजसी किहां जाय ? जब वीर कहै सुण गोयमा ! सुण तू चित्त लगाय ॥१॥ ढाल : ३१ [नमिराय धिन-धिन तूं अणगार] जोहो जबंद्वीप नां भरत में, पंड जनपद देम मझार । जोहो सयदुवार नामे नगर हुँतो, तिहां भरिया रिध भंडार । चतुर नर जोवो करम विपाक ॥१॥। आं० जोहो तिण सयदुवार नगरी अधिपति, सुमति नामे गजान। जीहो भद्रा राणी तिण राय ने. ते डाही चतुर सुजान ।।२।। जीहो बारमा देवलोक थी चवी, ते तो छोड़सी तेह ठिकाण । जीहो भद्रा राणी री कुख में, पत्रपणे उपजसी आण ।।३।। जीहो सवा नव मास पूरा हआं, जनम होसी तिण काल । जीहो सुंदर रूप सुहामणों, वले भरीर घणों सुकमाल ॥४॥ जीहो जनम होसी तिण रात नों, जद नगरी माहे नै बार। जीहो पदम रतनां तणी विरखा हुसी, उसरा पुन ले जासी लार ॥५॥ जीहो बार में दिन न्यात जीमावियां, त्यां ने मात-पिता कहसी आम । जोहो म्हार पुत्र हुवो छै तेहनों, म्है तो गुणनिपन देसां नाम ॥६॥ जीहो म्हारै पुत्र जनमो तिण रात नों, नगरी माहे बारै टाम-ठाम। जीहो पदम रतन तणीं विरखा हुई, महापदमकुमर इण रो नाम ॥७॥ जीहो आठ बरस जाझेरो हुसी, वले डाहो चतुर सुजाण । जीहो मात-पिता इणनैं हरष सूं, राज देसी मोटे मंडाण ।।८।। जोहो ओ महापदम राजा होसी, मोटो हेमवंत ज्यं जाण । जोहो गाम नगर सर्व देस में, सगल वरतसी इणरी आण ||६|| गोसाला री चौपई, डा. ३०,३१ ४२५ Jain Education Intemational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोहो काल कितोएक बीतां पछै, दोय देव प्रगट होसी ताम । जीहो ते मोटी रिध सुख नां धणो, पूर्णभद्र माणभद्र नाम ।।१०।। जीहो महापदम राजा तणों, सेनापतीपणों करसी आय । जोहो इसड़ा पुन भोगवसी तिहां, सुखसाता माहे दिन जाय ।।११।। जीहो सयदुवार नगर तेहमें, माहोमां मिल कहमी आम। जीहो इण राजा री सेवा करै देवता, देवसेन दूजो देसी नाम ॥१२॥ जीहो देवसेन राजा तणे, हस्ती रतन उपजसी आण। जीहो उजलो संख तल ज्यू निरमलो, चउदंतो हाथी रतन बखाण ॥१३॥ जीहो देवसेन राजा तिहां, तिण हस्ती ऊपर चढ़ ताम । जीहो सयदुवार नगर में मझे, बार-बार नीकलसी तिण ठाम ।।१४।। जीहो तिण काले सयदुवार नगर में, धणां राजादिक सह जाण । जीहो ते कहसी माहोमां तेड़ने, तिणरा करसी घणां बखाण ।।१५।। जीहो देवसेन राजा तणों, विमल हस्ती उपनों ताम। जीहो तिणसू तोजो नाम दो एहनों. विमल वाहण राजा नाम ।।१६।। जीहो महापदम नाम पहिल रो, देवसेन राजा दूजो नाम । जीहो विमलवाहन नाम तोसरो, मोटो गजा होसी अभिराम ।।१७।। जीहो सुखे समाधे राज करता थकां, माठी उपजसी मन मांहि । जोहो घातक साधां रो भव पाछिले. ते गूद मिटी नहीं ताहि ।।१८।। जीहो छहले अवसर आलोय नै, सल काढयो थो तिण ठाम । जीहो तिहां पून बांध्या ते भोगव्या, पाछा आया मूलगा परिणाम ॥१६।। जीहो गोसालो मंखली-पूत थो, हंतो डाकोतरा नी जात । जीहो लाहीठाण कियो थो भगवंत ने, बले दोय साधां रो घात ।।२०।। जीहो तेहीज लखण बले परगट्यां, वले तेहीज खोटा परिणाम । जीहो ते धेखो होसी सुध साधा तणो, ते कुण-कुण माठा करसी काम ।।२१।। काल कितोएक बीतां पछ, विमलवाहण राजान । ते धेषी होसी जिण धर्म नों, वले खोटो रहिसी तिणरो ध्यान ।।१।। पाप करम रा उदा थकी, बिगड़े जासी बात । श्रमण निग्रंथ अणगार थी, पड़िवजसी मिथ्यात ।।२।। ढाल : ३२ [इण पुर कंबल कोय न लेसो] एक-एक साधु नै आक्रोस करसी, एक-एक री घात करतो न डरसो। एक-एक साधु में उपद्रव देसी, एक-एक ने निरभंछणा करसी ।।१।। ४२६ भगवती जोड Jain Education Interational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-एक ने बंधण बांधसी ताम, एक-एक नें रूंध राखेसी एक ठाम । एक-एक री करसी चामड़ी नी छेद, एक-एक ने मारे गमासी विछेद ||२|| एक-एक ने मैं उपद्रव उपजाय, ते करतो संक न आण कांय । एक-एक रा वस्त्र छेदै ताम, पडिग्गह कंबल पायपूंछणो आम ||३|| एक-एक रा उपध विशेषे छेदै, एक-एक रा उपध विशेष भेदे । एक-एक साधु रा उपधि ने पोरे, एक-एक रा उपधि ने फाड़े तोड़े || ४ || एक-एक से विच्छेद करसी भात पाणी, एक-एक नै निगन करसी जाण जाणी । एक-एक नै निप्रष्ट करसो जाण जाण, एक-एक नैं दुख देसी ताण-ताण ||५|| इत्यादिक साधां रो हुसी दुखदाई, दुख देतो संक न राखे कांई । साधां रो हुसो वले अंतरंग वेरी, इसड़ो विमलवाहन राजा गेरी || ६ || जे कोर साध-सतो ने सतावे ते जीव सुख कहां थी पावे। ते राय साधां ने दुख देसो जाण, तिणरे किण-विध पाप उदे हुवे आण ||७|| दूहा हिदे सवार नगर नेमके लोक कहै मांहोमांही आम । राजा ईसर जुगराजादिक बहु, घणां बात करेमी ठाम ठाम ||१|| विमलवाहन राजा हि साधु तूं पड़वजियो मिथ्यात । त्यांने विविध दुखदं पणों ति बिगड़ी दो छेदात ॥ २ ॥ सूं ते भलो नहीं आपां भणो, राजा ने पिण भलो नांय । राज देस बल वाहन भणी, ते निश्चै भलो नहीं कांय ॥३॥ पुर अंतेवर ने भलो नहीं, नहीं कि रे सुख तिलमात । विमलवाहन राजा साधां थकी, पड़वजियो मिथ्यात ||४|| तो श्रेय किलाण छँ आपां भणी, राजा सूं अरज करां जाय । ए माहोमा मिलि बातां करी ते सगला १ आसीदाय ||५|| ढाल : ३३ [मल मेवासी] सगलाई मतो कर हाल्या, आसी राय कनै आय ऊभा रहसी राजा रे पास, हाथ जोड़ी विनों करसी तास हो ॥ १ ॥ 'सहु चाल्या हो । राजद बड़भागी || १॥ अ० जय-विजय करेने बघासो बले विरदावलियां बोवासी हो। तिहां बोलावसो मीठी वाणी, एक अरज करां म्हे जाणी हो ||२|| ये साधा पडिवजियो मिथ्यात ते आछी नहीं थे बात हो। एक-एक में आकोसो तास, सगली मांड कही राय पास हो ।। ३॥ गोसाला री चोपई, ढा० ३२, ३३ ४२७ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते भलो नहीं है थाने वले भलो नहीं थे महांने हो । वले राज देस ने भंडार, भलो नहीं है किणने ई विगार हो ॥४॥ किणही माध री म करो पात मी पहिजो त्यांस मिथ्यात हो। दुख पिण मती देवो लिगार, आ अरज करां वारूंबार हो ||५|| इम सांभल लोकां री वाय, विमलवाहण नामे राय हो । धर्म तप नहीं जायो बिगार, लोटा मन से कियो अंगीकार हो ॥६॥ पण लोकां कही वे बात, मंढे तो मान लोधी साख्यात हो । पण अंतरंग मांहे उवाहीज रीत, तिरै साध मारण री नीत हो ||७|| दिन काढसी इण परिणाम, साध ने दुख देवा री हाम हो । हि किविध साधु ने सतावे, किणविध कीधा रा फल पावै हो || ८|| दूहा तिथ काले ने विण समे, विमलवाहण अरिहंत । त्यारो परपोतो सिष्य दीपतो, सुमंगल साध महंत ||१|| त्यांरी जात माता री निरमली, कुल पिता से निरदोष । त्यांरा गुण रो छेह आये नहीं, गुण जाणों जिम धर्मघोष ||२|| तेज लेख्या होसी त्वामें दीपती तीन ग्यान करे में सहीत । बेले बेले निरंतर तप करें, आतापना लेवे रूडी रीत ॥३ ॥ सवदुवार नगर र ईसाण कृण में ताम सुभूमभाग उद्यान उतरसी तिण बाहिरे में, आय ठाम ॥४॥ [ जाणं छं राय तूं बात ए ] जद विमलवाण नामे राय ए, एकदा बेसी रथ मांय ए रथकीला करण ने काम ए. नगर बारै जासी तिण ठाम ए ॥ १ ॥ ढाल : ३४ सुभूमभाग उद्यान रे पास ए, रथकीला करतो आसी तास ए । तिहां सुमंगल नामे अणगार ए, आतापना लेसी तिणवार ए ||२॥ तिथ साधु नैं राजा देख ए, तब जागसी राजा नें धेख ए । 'आसुरले मिस मिसायमान ए, बसे कोप चहसी असमान ए || श ऊभा सुमंगल नामे अणगार ए. रथ से हेठा न्हावसी तिणवार ए रथ फेरसी सिर ऊपर ताम ए, राय नां होसी दुष्ट परिणाम ए ||४|| वले सुमंगल नामे अणगार ए हलवे हलवे तिण बार ए पाछो ऊभो होसी तिण ठाम ए, वले लेसी आतापना ताम ए ||५|| ४२८ भगवती-जोड Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूजी वार साधु ने देख ए, वले राय ने जागसी धख ए । वले कोप चढ़ी तिन बार ए ले रथ फरसी सिर महार ए ॥६॥ वले सुमंगल नामे अणगार ए. वसे हलवे हलवे तिथ वार ए पाछो कभी होसी विण ठाम ए पर्छ अवधि प्रजूजसी ताम ए ॥ ७॥ अवधि प्रभूंजी तिवार ए, गया काल से करसी विचार ए । इसे पाछिलो भय लेसी जाण ए, इसने बोलसी एवी वाण ए ||८|| राजा नां गुण नहीं तो मांहि ए, विमलवाहण राजा तूं नाहि ए। तूं निश्वं नहीं देवसेन राय ए, भूडा लपण दीसे तो मांय ए ॥ ९ ॥ तू नहीं महापदम राजान एतं करें गुमान ए आज थी तीजा भव मांहि ए, गोसालों मंखली- पूत ताहि ए ॥ १० ॥ साधां री घात कीधी थे बाल ए, छदमस्थ थके कियो काल ए । अजे उन्हीज यांरो ध्यान ए. तिण सूं से नहीं निश्वं राजान ए ॥११॥ जद थे कधी साधा से घात ए, ते पिण समर्थ हुंता विख्यात ए । बाले जाले भसम करे तोय ए. पिणयां क्रोध न कीधो कोय ए॥ १२ ॥ समे परिणामे सह्यो जाण ए, खिमता कीधी सुमता आण ए । सर्वाणभूति सुखसाध ए. मूआ धीजिण धर्म अगध ए ।।१३।। तिम भगवत श्री महावीर ए ते पि रह्या साहस धीर ए । विमासूराजे अरिहंत एपिपिमा कोधी मतए ||१४|| पण त्यां जियो छ नांहि ए, खिमता रम नहीं मो मोहि ए। तो घोड़ा ने रथ सारथी समेत ए, बाले जाने भसम करूं एथ ए ।। १५ ।। ए साधु रा वचन सुणे कान ए, घणों को चढ़सी राजान ए । सुमंगल नामे अणगार ए. त्यांने मारण तोजी वार होसी बले तयार ए, रथ फेरण सिर मभार ए । तीजी वार रथ आवतो देख ए, साध ने जागसी धख वशेख ए ।।१७।। साधु होसी धिगधिगायमान ए. घणों कोप चढसी असमान ए । री मन धार ए ।। १६ ।। समुदघात करसी तिण काल ए तेज था उसी ततकाल ए ।। १६ ।। राय घोड़ा रथ सारथी समेत ए, बाल जाल भसम करसी तेथ ए । साधु ने संतापसी जाण ए, तिए रे तुरंत फल लागसी आण ए ।। १६ ।। ते तो वानगी मातर जाण ए, आगे दुख अनंत पिछाण ए । खासी नरकादिक में मार ए, तिण रो छं घणों विसतार ए ||२०|| गोतमसामी पूछा करी आम ए, साधु उपजसी किण ठाम ए ? वीर कहे सुमंगल साध ए घोर तप करे पासी समाध ए ।। २१ ।। घणां वरसां से चारित पाल ए, काटसी करमा तप करसी विचित्र परकार ए. एक मास तणों आलोए पटिकमेध याय ए उपजसी स्वार्थसि तिगरी आज सागर तेतीस ए. गोतम ने कह्य जगदीस ए ।।२३।। ओ चवने जासी केत ए, वीर कहै महाविदेह खेत ए । राजाल ए । संवार ए ।। २२ ।। मां ए उठे करे करमों रो सोख ए. तिहां थी जासी पाध मोत्र ए ||२४|| 0 गोस ल री चौपई, ढा० ३४ ४२९ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुध साधां नैं दुख देतां थकां, बांधिया करम अथाय । ते छुट नहीं विण भोगव्यां, ते सुणज्यो चित ल्याय ।।१।। विमलवाहण राजा पापियो, ते होय जासी जीतब रहीत । तिणनै साधु बाले भसम कियो, घोड़ा रथ सारथी सहीत ।।२।। विमलवाहण राजा तणी, पूछा कीधी गोतम साम । आउखो पूरे करे, जासी कुणसे ठाम ?।।३।। वीर कहै सुण गोयमा ! विमलवाहण राजान । ते मरने जासी नरक सातमी, तिहां महा दुखां री खान ।।४।। तिहां आउखो सागर तेतीस नों, खेत्र वेदना अनंती जाण। तिहां दुख माहे दुख होसी घणों, उठे कुण छुड़ावै आण ।।५।। ढाल: ३५ [साधु जी नगरी आया सदा भला] सातमी नरक थकी ते नीकली रे, मछपणे उपजसी आण। तिहां पिण सस्त्र सं घात पामसी रे, बलू-बलू करतो छोड़े प्राण । करम थी न छूटे रे कोई विन भोगव्यां रे ।।१।। आं० तिहां थी मरने जासी वले सातमी रे, तिहां उत्कष्टी थित जाण। वले सातमी नरक थकी ते नीकली रे, बीजी वार होसी मछ आण ।।२।। तिहां पिण सस्त्र सं घात पामसी रे, बल-बलं करतो पाडै चीस । तिहां थी मरने जासी छठी नरक में रे, तिहां आउखो सागर बावीस ॥३॥ छठी नरक तणो नीकल्यो थको रे, अस्त्रीपणे उपजसी आय।। तिहां पिण घात पामसी आगली विध रे पड़सी छठी नरक में जाय ।।४।। वले अस्त्री होसी छठी रो नीकल्यो रे, तिण हीज विध पामसी घात । तिहां थी मरने जासी नरक पांचमी रे, तिहां पिण सूख नहीं तिलमात ।।५।। पांचमी नरक तणो नीकल्यो थको रे, सर्प होय नैं पांचमी जाय। पांचमी रो नीकल्यो वले सर्प होय नै रे, चोथी नरक में जासी ताय ॥६।। ते सींह होसी चोथी थी नीकली रे, बले परसी चोथी में जाय। वले सींह थई जासी तीजी नरक में रे, तिहां थी नीकल पंखी थाय ।।७।। पंखो मर जासी तीजी नरक में रे, तिहां थी नीकल पंखी फेर थाय । ते पंखी मर जासी बीजी नरक में रे, तिहां थी नीकल सिरीसव होसी ताय॥८॥ ते सिरीसव मरने जासी बीजी नरक में रे,तिहां थी निकल सिरोसब फेर थाय । ते सिरीसव मरने जासी पेहली नरक में रे, तिहां थी नीकल सनी में जाय ।।६।। ते सनी मरने असनी होय नै रे, बले पेहले नरक में जाय । एकण पल रो भाग असंख्यातमो रे, एहवो आउखो पाय ॥१०॥ शेष आउखो सगलेई नरक में रे, उतकष्टो पामसी तेह। सस्त्र घात सगलेई पामसी रे, बलू-बलू करतो मरसी एह ॥११।। ४३० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोसाला रो जीव सातोंई नरक में रे, जासी दाय-दाय बार । एकसौ नै पच्यासी सागर जाझी थकी रे, इतरी खासी नरक में मार ।।१२।। साधां री घात कीधी थी पापिये रे, वले कीधी मिथ्यात री थाप । उसभ करम उपाया तिण समै रे, ते भोगवसी इणविध पाप ।।१३।। पापरी गुद सं गुद बधसी घणी रे, भंडा लारे भंडोइज होय । इम सांभल नै थे भवियण जीवडां रे, किणरो भूडो म कीजो कोय ।।१४।। सातोंई नरक माहे दुख भोगव्या रे, तोही नांवे करमा रो अंत । शेष करम रह्या ते किणविध भोगवे रे, ते सूणजो मतवंत ।।१५।। दुख भोगवतां सात नरक में, तिहां होसी घणोंइज हेरान । गोसाले संचो कियो थो जिण दिने, तिण पाप री उघड़सो खान ।।१।। हाल:३६ [कर्म भुगत्यां इज छूटिये] पेहली नरक थी निकली, जासी पंखी तणी जात माय लाल रे। त्यांरा तो भेद अनेक छ, ते पूरा केम कहवाय लाल रे । करम भुगत्यां इज छूटिये ॥१॥ आं० चम पखी ने लोम पंखिया, समूग पंखो विततादिक पंखी मांहि लाल रे। लाखां गमे करसी भव तेहमें, वारंवार उपजसो ताहि लाल रे ॥२॥ सगले सस्त्र स घात पामसी, बल-बल करतो करसी काल लाल रे। तिहां दुख भोगवसी आंत घणां, वेगी-वेगी लागसी झालोझाल लाल रे ॥३॥ पहचर पंखी मांहि थी नीकली, भजपर री जात में जाय लाल रे । त्यांरा पिण भेद अनेक छे, ते पूरा केम कहवाय लाल रे ।।४।। गोह नोलियादिक तेहमें, करसी लाखां गमे भव ताम लाल रे। ते पिण पहचरनी परे जाणजो, मर-मर उपजसी तिण ठाम लाल रे ॥५॥ त्यां सं नीकल जासी उरपर मझे, त्यांरी पिण जात व शेख लाल रे । अडी अजगर ने असलिया आली, महोरगादिक भेद अनेक लाल रे ॥६॥ लाखां गमे करसी भव तेह में, मर-मर उपजसी वार-वार लाल रे। तिहां पिण दुख भोगसी घणां, षहचर जिम विसतार लाल रे॥ ते भजधर मांस नीकली, पछ जामा थननर मझार लाल रे। तिहां भव करसी लाखां गमे, मर-मर उपजमी वारंवार लाल रे ।।८।। एगखरा दुखरा गंडापया, सणपया ल च उपद पिछाण लाल रे। त्यांग नाम जात अनेक छ, त पिण पहचर नी पर जाण लाल रे ।।।। गोसाला री चौपई, ढा० ३५,३६ ४३१ Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते थलचर मांहि थी नीकली, पछै जासी जलचर मांहि लाल रे । मछ कछ सुसमारादिक, त्यांरा नाम अनेक छै ताहि लाल रे ॥१०॥ त्यांमें भव करसी अनेक लाखां गमे, एकीकी नाम जात मझार लाल रे । तिहां पिण संघले सस्त्र सं मारीजसी, ते पिण पहचर जिम विसतार लाल रे ॥११॥ तिहांथी नीकल जासी चोइंदी मझे, तिहां पिण लाखां गमे भव जाण लाल रे । इमहिज तेइंद्री नै मझे, बेइंद्री पिण एम पिछाण लाल रे ।।१२।। त्यां मांहि थी नीकल्यो थको, जासी वनसपती रै मांहि लाल रे। पांचं थावर में बेहिला बीचसी, ते संक्षेप कई छ ताहि लाल रे ॥१३॥ वनसपती नै बाउकाय ना, तेऊ अप नै प्रथवीकाय लाल रे। त्यांरा पिण भेद अनेक छ, अनुक्रमे उपजसी त्यां मांय लाल रे ।।१४।। लाखां गमे करसी भव तहमें, एकीकी काय रा भेद मांहि लाल रे । त्यां पिण घात सस्त्र सू पामसी, बलू-बलू करतो मरसी ताहि लाल रे ।।१५।। मार खातो-खातो एकिन्द्री मझे, मिनष तणां भव मांय लाल रे। ते किणकिण ठिकाणे ऊपजे बले, सुणजे गोतम ! चित ल्याय लाल रे ॥१६।। तिण काले नैं तिण समे, नगरी राजग्रही ताम। भमतो-भमतो जीव गोसाला तणों, आय उपजसी तिण ठाम ॥१॥ ढाल : ३७ [माधव इम बोल रे] नगरी राजग्रही नै बाहिरे रे, अचोखी वेस्या रै ठिकाण । अछेप मेला कुल मझे रे, वेस्यापणे उपजसी आण रे। करमां गति जोयजो ॥१॥आं० तिहां अनेक माठा किरतब करै रे, त्यां पिण सस्त्र सूं पाम घात । बल-बलं करती मरसी तिहां रे, बले करती अनेक विलापात रे ॥२॥ काल करेसी तिहां थकी रे, चोखी वेस्या होसी दूजी वार। ते राजग्रही नगरी मझे रे, माठा किरतब री करणहार रे ॥३॥ तिहां पिण सस्त्र संघात पामसी रे, बल-बलं करती तिण ठाम। . विलविलाट करती थकी रे, तिहां पिण दुखणी थकी मरण पाम रे ॥४॥ पछै इण हीज जंबूद्वीप में रे, भरतखेतर सूठाम । विभारगिरी नैं मूले तिहां रे, होसी विभल सनीवेस गाम रे ।।५।। तिहां ब्राह्मण नां कुल ने मझ रे, पुत्रीपणे उपजसी आण। मात-पिता ने व्हाली होसी रे, ते रूप में अतंत बखाण रे॥६।। ४३२ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिण ने माता-पिता परणाबसी रे भरतार से करसो केल| इष्ट कंत होसी भरतार ने रे, तिहां सुख र संजोग समेल रे ॥७॥ ते गर्भवती होसी एकदा रे, ते रहितां सासरा मांय ते सुसरानो घर थकी रे, आवती कुलपर मांय मारग दव लागो तिहां रे, तिण ज्वाला करी पराभव पामी अति घणों रे, दग्ध हुई तसु देह अगन महि बसी थकी रे, काल करेसी ताय । रे ॥८॥ देवपण उपजसी जाय रे ।। १० ।। पामी नर अवतार। लेसी संजम भार रे ।। ११ ।। । दिखण दिसे अगनकुमार में रे, ते अग्निकुमार थी नीकली रे, त्यां समगत बोध पामन रे, बले चारित्र विराध आपरो रे, काल करसी तिण ठाम | दिखण दिशि रा असुरकुमार में रे, देवपणें उपजसी ताम ।।१२। वले मिनख वै चारित विराध नं रे, देवता होसी नागकुमार । अगनकुमार वरजी दियो रे जान देवता वणियकुमार रे ।।१३। नव वार चारित विराध नैं रे, देवता होसी नवूई वार | असुरकुमार आदि दे रे, इम नई लीजो विचार रे ।। १४ ।। पणियकुमार थी नीकली रे वले मिनख वणो भव पाय । चारित विराधी तिहां थकी रे, ज्योतिषी देवता होसी जाय रे ।। १५ ।। तेह | चूहा सुख भोगवे जोषियां तणां बले पामसी नर अवतार | वले वाणी सुण साधां तणी, लेसी संजम भार ॥१॥ ढाल : ३८ रे ॥ ६ ॥ [जाणपणो जग दोहिलो ] तिहां साधरण सुध पालसी रे लाल, आश्रव नाला रोक सुविचारी रे। करसी चारित आराधना रे लाल, जासी पेहले देवलोक सुविचारो रे । गोसालो जिण धर्म आराधसी रे लाल ||१|| आं० गोसाला से चौपई ४० ३७,३८ ४३३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेहले देवलोक में सुख भोगवी रे लाल, वले पामसी नर अवतार । उत्तम कुल आय अवतरी रे लाल, वले. लेसी संजम भार ।।२।। रूड़े रीते चारित अराध नै रे लाल, करे तिहां थी काल । देवता होसी तीजा देवलोक में रे लाल, तिहां पामसी भोग विसाल ।।३।। तिहां देव तणां सुख भोगवी रे लाल, बले थित पूरी करे ताय। वले मिनष तणों भव पामसी रे लाल, उत्तम कुल में उपजसी आय ॥४॥ तिहां वाणी मुणसी साधां तणी रे लाल, जब आसी वेराग अतंत । मात-पिता ने पूछ नं रे लाल, चारित लेसी मतवंत ।।५।। तिहां चारित आराधे चोखी तरे रे लाल, करे तिहाथी काल । देवता होसी देवलोक पांचमें रे लाल, तिहां पामसी भोग रसाल ।।६।। तिहां सुख भोगवे देवता तणां रे लाल, वले पामे नर अवतार । तिहां पिण चारित आराधे होसी देवतारे लाल, सातमा देवलोक मझार ॥७॥ सातमा देवलोक रो चब्यो थको रे लाल, लेसी उत्तम कुल अवतार । तिहां पिण वाणी मुणे थिवरां तणी रे लाल, बले लेसी संजम भार ।।८।। तिहां पिण चारित गुध आराधसी रे लाल, काल करसो तिण ठाम । देवता होसी नवमां देवलोक में रे लाल, तिहां पिण सुख पामसी अभिराम ।।६।। ते चवसी नवमा देवलोक थी रे लाल, वले लेसी मानव अवतार । तिहां पिण वाणो सुण थिवरां तणी रे लाल, वले लेसी संजम भार ॥१०॥ तिहां चारित आराधे रूड़ी रीत सू रे लाल, काल करसी तिण वार । देवता होसी मोट को रे लाल, इग्यारमा देवलोक मझार ।।११।। इग्यारमा देवलोक थी रे लाल, चव लेसी मानव अवतार । तिहां पिण वाणी सुणे थिवरां तणी रे लाल, संजम ले होसी मोटो अणगार ॥१२॥ काल करसी चारित आराध नै रे लाल, जासी स्वार्थसिध मझार । महामोटो होसी देवता रे लाल, तिणरा सुख रो घणों विसतार ।।१३।। ० ० ० देवता मांहे सारे सिरे, स्वार्थसिद्ध मझार। भारी पुन उपजाए तिहां ऊपनों, त्यांरा सुख घणां श्रीकार ॥१॥ मेहलायत मोटी रलीयामणी, तिहां लागी झिगमिग जोत । अंधकार कदेइ हुवै नहीं, सदा होय रहयो छै उद्योत ।।२।। तिहां सेज्या अतंत रलियामणी, तिण ऊपर चंद्रवो एक । तिणरै लेहकै मोती नों झूबको, ते शोभ रहयो छ विशेष ॥३॥ सोवन पानड़ियां करो, मोती रह्या छै ताम । वले सोवन सर में पोया थकां, त्यांरो रूप घणों अभिराम ।।४।। मेहलायत सेज्या नै मोत्यां तणों, इधको घणों छै सरूप। थोड़ो-सो परगट करूं, ते सुणजो अति चंप ।।५।। ४३४ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ३९ [कोड़ पूर्व लग पामो साता, मोरा देवी माता जी] इग्यारै सौ जोजन री मेहलायत, ते रतना सेती जड़िया जी। साधपणों सुध जे नर पाल, त्यार पाने पड़िया जी। इण स्वार्थसिध रै चन्द्रवे कांइ, मोती झंबक सोहै जी ।।१।। तस झंबक रै विचलो मोती, चोसठ मण रो जाणी जी। च्यार मोती बले तस पाखतिया, बतोस मण रां बखाणी जी ॥२॥ तेहने पाखतियां अति ही निरमल, सोल मण रा आठ मोती जी। सुन्दरता देखी हियो हरष, वर्धे आंखड़ियां री जोती जी ॥३॥ तस पाखतियां सोल मोती, त्यांमें आठ-आठ मण भारो जी। सोभा बोहत विराजे तेहनी, ते दोठां हरष अपारो जी ॥४।। बतीस मोती तस पाखतियां, त्यांमें च्यार-च्यार मण तोलो जी। ते दीठां अति हियो हरणे, ते मोती घणां अमोलो जी ।।५।। तस पाखतियां चोसठ मोती, ते दोय-दोय मण छ तासो जी। तेज उद्योत करै तिण ठामे, तेहनों घणों प्रकासो जी ॥६॥ त्यां पासे मोती मण-मण रा, एक सौ ने अठावीसो जी। ते दीठां भूख त्रिषा मिट जावै, ते भाष गया जगदीसो जी ॥७॥ दोय सौ नै तेपन मोती, मर्व थई नै मिणिया जी। तिसलानन्दण वीर जिणेसर, केवलग्यानी गिणिया जी ।।८।। बाऊ जोगे मोती आफलनां, तो ही मोती मूल न फट जी। मीठा सब्द गेहर गंभीरा, त्यां मोत्यां मांस ऊठ जी ।।६।। ते सदा काल सासता मोती, त्यांन पवन चलावै जी। मधुर सब्द त्यां मांसू निकले, ते सुर नै घणां सुहावै जी ।।१०।। जाण बतीस विध रा नाटक पड़े छ, छ राग त्यां मांस होवै जी। छतीस रागणी त्यां मांसू नीकले, ते मुर ना हीया मोहै जी ॥११॥ बूर वनसपती पेहल रूई नां, ऐसी ओपमा न्हाली जी।। माखण नै रेसम नां लच्छा, तिण स सेज्या घणी सुहाली जी ।।१२।। तेतीस हजार वर्ष नीकलियां, भूख री मनसा थावे जी। सास ऊंचा थी नीचो मूक, पख तेतीस जावै जी ॥१३।। अवधिग्यान सं नीचो देखे, नरक सातमी हेठो जी। ऊंचो देखे ध्वजा पताका, तिरछो थेटाथेटो जी ॥१४॥ स्वार्थसिध नां सुख भोगवतां, हरखं विसवावीसो जी। त्यां एकधारा लहलीन रहै छै, सुर सागर तेतीसो जी ॥१५॥ तिण ठामे जे जाय ऊपनां, ते सगला एकाऽवतारो जी। ते देव चवी ने मिनषज होवै, मोटा कुल मझारो जी ॥१६।। साधपणों सुध चोखो पालै, इसड़ा मेहलज पावै जो। थोड़ा दिनां में करणी कर ने, चव ने मुगत सिधावै जी ॥१७।। गोसाला री चौपई, ढा.. ३९ ४३५ Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा ते जीव स्वार्थसिध मझे, सुर-सुख विलसी एथ । देव आउखो पूरी करी, चव नें जासी केत ? ।।१।। [ वीर सुणो मोरी विनती] , वीर कहै सुण गोयमा ए चवसी हो गोसाला रो जीव महाविदेह तर मझे, जनम लेसी हो मोटे कूल अतीव । बीर कहै सुण गोयमा ! ॥१॥ अ० एंठा नाज ॥ ३॥ धर्म में दिदृ थाय । रिध कर ने अति दीपतो, वस्तीर्ण हो घणां महल आवास । पिलंग सिंघासण पालखी रथ घोड़ा हो हाथी हुवे तास ||२|| माणक मोती जिहां घणां, सोनो रूपो हो धन बधतो व्याज । भात वाणी जी पणां उगरता हो हा दास-दासी जेहने घणां गायां भेस्या हो छालो प्रमुख जाण । धन कर गंज सके नहीं, तिण घर में हो उपजसी आण || ४ || पुत्र गर्भ आव्यां थकां, मां-बाप हो सवा नव मासे जनमसी, सुखमाल हो पूरी इंद्री वाय ॥५॥ लषण वंजण गुण भला, परमाणे हो सहु सुंदर अंग । सोम चन्द्रमा सारिखो, मनगमतो हो तिरो रूप सुचंग || ६ || जनम महोधवचन करी तीजे दिन हो बंद सूर्य दिखाय छठे दिन छठी जगावसी, बारमें दिन हो सुध होसी न्हाय ||७|| कहिसे न्यात जीमाड़ ने जिन दिन हो गर्भ ऊपनों ताम । दिढ हूवा म्है धर्म में, दिपड़नी हो दमा इण रो नाम || 5 || आंगण गोडालिये चालणों, सीख्यो जब हो खरचं धन माल । पगे चाल्यां थड़ी कियां, वसतु नी हो अगड ले झाल ||६|| जीमण कवल वधारियां, बोली सोख्या हो विधायां कान | वरसी गांठज लेखव्यां, प्रथम मुंडण हो ओछव दे दान ।।१०।। पांच धाए वो थको, खीरधाई हो पेहली कहवाय । 1 मंजण धाय न्हवरावसी, मंडण धाई हो सिणगार कराये ॥ ११ ॥ । अंक धाय खोते लिये फोलावण हो करामी केल देश अठारे गे दासिया, खोजाविक हो करने अति बेल ||१२|| कुबजा बांकी देसनी, चिलाती हो देस नी केइ जोय । वामणी वामण देस नी वडभी नो हो हियो ऊंचो होय ||१३|| बबर चोसिया जोनिया, पलवीया हो ऋषी गणका जाण । चरुणिया लासिया भणी लाउसिया हो दलिया पिाण ।।१४।। सिंघल अरव देस नी गुलिद ही पंकी से देस मही सबरी पारसी आप आपणा हो देस नां छं वेस ।। १५ ।। । ४३६ भगवती जोड ढाल : ४० 1 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ते दास्यां डाही घणी मनचित्या हो करे आफै काम । वय तुरणी विनयवंती, घणां खोजा हो अंतःपुर अभिराम ।।१६।। पालसी बालक ने प्रीत . हंसे लेसी हो सह हाथोहाथ बाल लीला करावी, नहि मूकं हो रहे दिन-रात ॥ १७॥ एक खोला थी बीजे लिये नचावै हो गाए गीत विनोद | हालरियो देहेत . निज माने हो नित का प्रमोद ॥ १८॥ मधुर वचन बोलावसी, रमावण रो हो सगलां उछरंग । टोपी भूगो वोह रंग नां, रतन जड़या हो सो गेणा सुचंग ।। १६ ।। रमणीक मणी रतनां जड़गो, तिण गण हो कीला करसी बाल । विधन रहित सुखे बधे गिरि-गुफा हो जिम चंपा नीं हाल ॥ २० ॥ कला-आचार्य में सूपसी, जाभेरो हो वरस आठ परमाण कला बोहितर सीखसी अठार देसी हो होसी भाषा तो जाण ।। २१ ।। नव अंग सूता जागसी, द्रव इन्द्री हो आठ ने मन जाण । गीत रित गंधरव कला, नाटक में हो डाहो चतुर सुजाण ॥ २२ ॥ सिणगार सुंदर रूप में हमण बोलण हो चालण री प समझसी लोक आचार में, जुध जीपण हो सुरवीर अनूप ||२३| भोग जोग समर्थ हुसी, अबीहतो हो फरसी काल अकाल । मात-पिता वह धामसी, मनगमता हो कामभोग रसाल ||२४|| पिन ए कंवर न राचसी विधिया रस हो गिरधी नहि थाय । जिम ए कमल कादे हुवो, जल बधियो हो पिण नहीं लिपाय ||२५|| तिम काम का अपनों, भोग जल सूं हो वधसी जाणो एह । पिण न लेवे काम भोग में सजन सूं हो न लगाये नेह ।।२६।। । दुहा तिण अवसर पधारसी, मोटा ऋष अणगार | मुगतनगर नां दायका. ग्यान तणां भंडार ||१|| लोक जासी वांदण भणी, थिवर पधारचा जाण । दिपइनो पण जावसी कर मोठे मंडाण || २ || वंदना करसी भाव सूं, नीचो अंग नमाय । मुनिवर देसी देखना ते गुणसी चित लगाय ॥३॥ वाण अपूर्व सांभली, रुचमी अंगो-अंग । विरकत होय संसार में गती जावण उच्छरंग ॥४॥ मात-पिता ने पूछे तिहां, संजम लेसी सूर तपसा करे घणघातिया, करम करसी चकचूर ||५|| केवलम्यान उपजसी तिहां वाणी वागरसी तिगवार । घणां जीवां ने समझाय नैं, करसी मुगत में तयार ॥ ६ ॥ केवलग्यान उपना पर्छ, समण निग्रंथ ने बोलाय ।. कहिसी पोते दुख भोगव्या तिके, वले निज आंगुण देसी सुणाय ॥ ७॥ गौसाला री चौपई, ढा० ४० ४३७ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : ४१ [धर्म आराधियं ग] घणां काल पेहली जोव माहरो ए हूं तो मंखली-पूत गोसाल घातक साधां तणों ए, थे सुणजो सुरत संभाल । गोसालो इम भाषसी ए || १ || पाछे हुई चोबीसी तेह में ए. देहला तीर्थकर महावीर । जद हूं सिष थयो तेहनों ए म्है दिख्या लीधी त्यांरै तीर ॥२॥ त्यांनेईज दुःख है दिया घणां ए, लेम्या मेले कियो लोहीठाण । वले लेस्या थकी ए, दोय साधां नें बाल्या जाण ॥ ३ ॥ म्है पाखंड चलायो अति घणों ए. भगवंत ने परूप्या इंद्रजाल । बले अम्हासी थके ए हूं तीर्थकर बाज्यो ति काल ॥४॥ म्हे महिमा बधारी अति माहरी ए. झूठ बोल्यो मैं विप्रकार। तिहां सिध्य सिपणी तणो ए. भेलो कियो बोहत पिरवार ||५|| हूं आचार्य ने उवकाय तणों ए. प्रतणीक वो वारूंवार | अज कियो अति घणों ए, घणां आंगुण बोल्या मुख फार || ६ || इत्यादिक सगली कही मांड ने ए. पछे खेहले अवसर सल काढ समकत पामी तिहां ए, जद तो काम सिराड़े दियो चाढ ॥७॥ पछे मरने गयो सुर बारमें ए, तिहां थी चवे हुवो मोटो राय । तिहां पिण साधां भणो ए, दुख घणों दियो ताय ||5|| वले सुमंगल नामे अनगार ने ए. हेठो नास्यो रथ फेरपो दो बार। तिण तेजू लेस्या काढनें ए मोने बाले जाले कियो छार || ६ || तिहां भी मरने गयी हूं नरक मातमी एतिहां दुख भोगविया अपार । सातोई नरक में ए हूं छू गयो दोय- दोय बार ॥ १०॥ पर्छ तिर्यच में दुख भोगव्या ए. ते पिण मांडे कही सर्व बात । मिनष रा भव मझे ए, समकत आयो गयो मिथ्यात ।। ११ ।। भवणपती रे मांय । नो भव पाय ।।१२।। देवता हुआ जाय। गयो सुर मांय ।। १३ ।। दस वार चारित है विराधियो ए. गयो तिहां थी हूं नीकली ए. मानव ति पिचारित विराध ने ए जोती पछै चारित आराध ने ए सात बार इणविध संसार में हत्यो ए. तिन घणो विस्तार । मो जिम करजो मती ए. वधारजो आचार्य ने उवकाय नां ए, प्रतणोक मत अंजस कीजो मती ए बले आंगुण मत वले अकीरत करजो मती ए. कीधा मो जिम संसार में ए भ्रमण करोला जद संमण निबंध इम सांभली ए भय आलोए पकिमी ए, प्राछित ले ४३८ भगवती जोड मती संसार | १४ || होयजो कोय । बोलजी सोय ।।१५।। दुख अनंत वार अनंत ।। १६ ।। पामसी तिण ठाम सुध होसी ताम ॥१७॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दढपइनो साधू तिण भव मझे ए, घणां वरस केवल प्रज्या पाल । संथारो करे तिहां ए, मोख जासी काटे कर्म जाल । आळू करम खै करी ए॥१८॥ जठे जनम-मरण नहीं सर्वथा ए, सासता सुख घणां श्रीकार । त्यां सुखां ने नहीं ओपमा ए, त्यांरो पामै नहि कोई पार । एहवा सुख पामसी ए॥१६॥ एहवा सुख गोसाला रो जीव पामसी ए, बीचे विधन घणां छै ताम। बांध्या करम भोगवी ए, छुटेको होसी ताम। जिणेसर भाखियो ए॥२०॥ ए चरित करचो गोसाला तणों ए, सुतर भगोती रै अणुसार । पनरमा सतक में ए, तिहां पिण जोय लीजो विसतार ।।२१।। संवत अठार छयालै सम ए, काती बिद सातमी रविवार । चोपी गोसाला तणी ए, कीधी खैरवा सहर मझार । जिणेसर भाखियो ए॥२२॥ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fort te & Personal Use Only प्रज्ञापुरुर्ष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ग, दीप्त सलाद, ओजस्वी चेहरा- यह था जपाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व। अप्रकंप संकल्प, सुदृढ़ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंतःकरण, महामनस्वी, कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अनुशासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के सूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञ- यह था उनका आंतरिक व्यक्तित्व। तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक, आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति और मेघा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्घायु बना दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढ़े तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने भगवती जैसे महान् आगम ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका हैं। उसका गंथमान है साठ हजार पद्य प्रमाण । ० जन्म- १८६० रोयट (पाली मारवाड़) ० दीक्षा- १८६९ जयपुर ० युवाचार्य पद - १८९४ नाथद्वारा ० आचार्य पद - १९०८ बीदासर ० स्वर्गवास - १९३८ जयपुर Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्व enter सीमायोजन geसदीananावियापारी anामिन सीमामलेगी रस्साकसागर-वायरफोम CAREममयमानी-जापानीबारपाजीवपिरोएकरने जमकर कयलेह-मनलगमहीनीकरबदकिशाली पनवासीmajमनाकदिवमिन 70 विवरेमारaaaरदेशकसानोंजीवनीमsilaaशिकाmasविश्वमोसमयसोगरे वामरकामीको दिसमनजोवरे मारनकादिनामी जमारयविन-वारमारामारपरकामार्थyriusuीजीनी कारणबजोगरे किमादिगारकम निरपaaaag मोगरे वीरशुरामगोपन माधिकार देशकविलनियम संगरविवार शिलकाविलममध्यानीमायालादातरेकदिदममा क्रियानिशालविलायतेद्धीपमाला megatinाकसिरमामा-मीरनगरमहामकिनारसमजायकार्यसमजते शिसमययनविदनिकालनसम्यक किशनिष्टालरेनेऊनाममय श्री- जाद भारसमंगgl-नादिवशीकरीनगेनिजीममममममममानिनवाणरेखामालेकपों-लाmaaaaसानिमाणीकर at पानकदमागगरanguीयामागसहिए जिससमाजधरनामा दशरजोइपरदनों-बसंतशतवेदीएवी सायंकाकरे नेदनीवालमाने जीवनदाशिवपदाहिसिकारीबारीमागदानामविसुरकप कसनेसून सामगोलासादिकोयमोनारकीमधएकारागारकीपाकिमक देवपदोन विदांमागममाविसमावसटिविनाविधनादिककरी बंदिवालिनियमनकामसगलीमहासरस्वामीदमकदारादिकमारकीय शिमियादिककरिबीमामललीवनयेण्यानिकेसनकारीयोवलिसनमामी कमजतातोमर के कपनानकदियक्रियाका सनिष्टकाएनिमायालेदशीकपमा क्लो मनालीरदिननसाची विकीस्मादिक-करितोय तेकोऊपनांक दीजिएसजेवानरसन नमामी कमालयापदिनीसमयपनानागी वयोवनीदेवमविपिलमारपूर्ववारिक-पुरनिकट की कमीबाटमदरकिसकालकतिसमयकमनीए निष्टाकावाकियाकानिष्कामोसमयको hinmनामनिया मानचिनकदैदनागोयामा नगरकपने-बानमोय क्रियाकलौनसमरसेहिसमयनिष्कासनीवालमाविककानवदीप निमकी मदमीणजिनदैदेशिकी जानकरैः-३-दकपोंकदिवपुरमादिदेवनिमशासनिकेसनमा Hamagamalayatोबारसमलिनिवारपरे पक्ष मनिकरिया रोकावरहीतानीमरेजीमाएकामना दिपिकाल्न Jodhinmeदाकदितिलदिनीसामल्लिनिशानमीरपुरमादिका दिनदेनजीकैकबसोमालिककमायोजिदिकीयtnaation maaसवपसमविदेशावरदेवोल्यमंना मालिटिसा सेवेमतेविषयाaadanaseमाध्यादेश वीकली मनारमहल करनaana समया किदिया METREKHESnnuaल गीत य Ra Mah amaविकरमाग कालसूनसमोसावधानसनिannadलादो મુવી નીતિ હિસાબી કા “ઝીણાની) રાશિ सर्वरदेानीयममपामारकासालाहीम.स RBAR विश्वकोटादा बरदिनलियावियाकरितादिखनस्पति अपने मप्रकासकालst सविनायकरावधावानर RALEReaजवाब awe nana 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