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________________ १६. बोलती वेला निसर्ग समय में रे, भाषा नां द्रव्य तिके भेदाय रे । इतर बोलतां द्रव्य भाषा तणां रे, भेद पामै छै तसु हिव न्याय रे ।। १६. भासिज्जमाणी भासा भिज्जति । भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा । (वृ०प० ६२२) १७. इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स चाभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति । (वृ० प० ६२२) १८. तानि च निसृष्टान्यसंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते। (वृ० ५० ६२२) १९. विभिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्द परिणामत्यागमेव कुर्वन्ति । (वृ० प० ६२२) २०,२१. कश्चित्तु महाप्रयत्नो भवति स खल्वादानविसर्ग प्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव विसृजति । (वृ०प० ६२२) सोरठा १७. इहां कोइक जन जाण, वक्ता मंद प्रयत्न हवै। अभिन्न हीज पहिछाण, भाषा द्रव्य प्रति नीसरै ।। १८. नीकलिया रव तेह, असंख द्रव्यात्मक भाव थी। वलि स्थूलपणां थी जेह, भाषा द्रव्य भेदाय छै॥ १६. भेदीजता द्रव्य तेह, संख्याता योजन जई। शब्द परिणाम तजेह, मंद वदै तसु न्याय ए॥ २०. अथवा कोइक जाण, वक्ता महाप्रयत्न ह। शीघ्र उच्च स्वर वाण, ते तो निश्चै करि तदा। २१. भाषा द्रव्य आदान, ग्रहण अने निसर्ग बिहं। प्रयत्ने करि जाण, द्रव्य भेदी – नीसरै। २२. सूक्ष्मपणां थी तेह, वलि ते बहुलपणां थकी। अनंत गुणां द्रव्य जेह, वृद्धि करी बधता थका ।। २३. ते षट दिशि रै मांय, लोक अंत पामै अछ। वृत्ति थकी ए न्याय, आख्यो छै म्हैं इहविधे ।। २४. तिणसं इम कहिवाय, जेह अवस्था में विषे। शब्द परिणाम छ ताय, भाष्यमान नो भाव तब ।। २५. *भाषा समयो जे व्यतिक्रम्यां पर्छ रे, भाषा भेदावै नहि छै कोय रे । भाषा परिणाम तज्या तिण सर्वथा रे, तिणसू काल अनागत भेद न होय रे ।। २६. हे प्रभु ! भाषा कितै प्रकार छ रे ? च्यार प्रकार कही जिनराय रे। सत्या असत्या नैं सत्यामृषा रे, असत्यामृषा ववहार कहाय रे ।। २२,२३. तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्धया वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति । (वृ०प०६२२) २४. अत्र च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसेयेति । (वृ० प० ६२२) २५. नो भासासमयवीतिक्कता भासा भिज्जति । _ (श० १३।१२४) 'नो भासासमयवोइक्कते' ति परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः। (वृ० ५० ६२२) २६. कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णता ? गोयमा ! चउव्विहा भासा पण्णत्ता, तं जहासच्चा, मोसा, सच्चामोसा, असच्चामोसा । (श० १३।१२५) दूहा २७. अनन्तरं भाषा निरूपिता, सा च प्रायो मनःपूर्विका भवतीति मनोनिरूपणायाह- (व०प०६२२) २७. पूर्वे भाषा नैं कही, बहुलपण तो तेह। मन नैं पहिला व अछ, तिणसुं मन कहेह ।। मन पद २८. “आत्मा हे भगवन ! मन कहियै अछ रे, के आत्मा थी अन्यज मन कहिवाय रे? जिन कहै गोतम ! आतम मन नहीं रे, आतम थी अन्य मन छै ताय रे ॥ २८. आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे? गोयमा! नो आया मणे, अण्णे मणे । लय : श्री जिणवर गणधर श० १३, उ०७, ढा०२८८ २०३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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