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________________ १३०. ते नारक इण न्याय, अणंतर वलि परंपर। __ अनिर्गत कहिवाय, उत्पत्ति-क्षेत्र न पामिया ॥ १३१. *तिण अर्थे गोतम ! का एम, जाव अनिर्गता पिण छै तेम । एवं जाव वैमानिक भाव, इक-इक नां त्रिण-त्रिण आलाव॥ १३१. से तेणठेणं गोयमा ! जाव अणंतर-परंपर-अनिग्गया वि । एवं जाव वेमाणिया। (श०१४।१०) दूहा १३२. हिवै अनंतर-निर्गता, प्रमुख तीन जे ख्यात । ते आश्री बंध आयु नो, आगल ते अवदात ।। १३३. *हे भगवंत! नारक अवलोय, जेह अनंतर-निर्गता होय। नारक नो स्यूं आयू बांध, जाव देव नो आयू सांधै ? १३४. जिन कहै नरकायु न बंधंत, जाव देवायु नहिं पकरंत। पढम समय बंध आयु न कृत, तिणसुं अबंध अणंतर-निर्गत ।। १३५. हे भगवंत! नारक अवलोय, जेह परंपर-निर्गता होय। नारक नो स्यूं आयू बांध, यावत सुर आयू प्रति सांधै ? १३६. जिन कहै नरकायू पिण बांधै, यावत सुर आयू पिण सांधे। एह परंपर-निर्गता जोय, तिरि पंचेंद्री मनुष्य इज होय ।। १३२. अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह -- ___ (वृ० प० ६३३) १३३. अणंतरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? .१३४. गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति। (श० १४।११) १३५. परंपरनिग्गया णं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। १३६. गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि पकरेंति । (श० १४।१२) इह च परम्परानिर्गता नारकाः सर्वाण्यायूंषि बध्नन्ति, यतस्ते मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव च भवन्ति । (वृ०५० ६३३) १३७. ते च सर्वायुर्बन्धका एवेति । (वृ० ५० ६३३) १३७. ते तिर्यंच पंचेंद्री देख, अथवा जे वलि मनुष्य विशेख । ते चिहं गति नों आयू बांध, तिण कारण ए चिह गति सांधे।। १३८. वैक्रिय जन्म थकी सुविमास, अथवा ओदारिक थी तास । नीकलनेज मनुष्य हुवै कोय, अथवा तिरि पंचेंद्री होय ।। १३६. ते चिहं गति आयु बंध जोग्य, तिणरै चिहं गति बंध प्रयोग्य। चिहं गति आयु बंध कहीव, आयु बंध योग्य जे जीव ।। १४०. अणंतर-परंपर-निर्गत नाही, ते नारक नीं पूछा ज्यांही। जिन कहै नारक आयु न बंधै, यावत सुर आयू नहि संधै ॥ १३८,१३९. एवं सर्वेऽपि परम्परनिर्गता वैक्रियजन्मानः, औदारिकजन्मानोऽप्युवृत्ताः केचिन्मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्त्यतस्तेऽपि सर्वायूर्बन्धका एवेति । (वृ०प० ६३३, ६३४) १४०. अणंतरं-परंपर-अनिग्गया णं भंते ! नेरइया पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । १४१. निरवसेसं जाव वेमाणिया । (श० १४।१३) १४१. निविशेष ते विशेष रहीत, जावत वैमानिका कहीत । तीन-तीन आलावा प्रत्येक, पूर्वली पर कहिवा पेख ।। - सोरठा १४२. कह्या निर्गता एह, ते तो ऊपजता थका। सुखे करी उपजेह, तथा दुखे करि ऊपजै॥ १४३. दुखे करी उपजंत, ते आश्रो धुर सूत्र हिव । नारक तणोज हुँत, प्रश्नोत्तर तसु सांभलो॥ १४४. *हे प्रभु ! स्यूं नारक संपन्ना, कहिय अनंतर-खेद उपन्ना। समयादि अंतर-रहित आख्यातं, दुखे करी क्षेत्रे उपपातं ? १४२,१४३. अनन्तरं निर्गता उक्तास्ते च क्वचिदुत्पद्यमानाः सुखेनोत्पद्यन्ते दुःखेन वेति दुःखोत्पन्नकानाश्रित्याह (वृ० प० ६३४) १४४. नेरइया णं भंते ! कि अणंतरखेदोववन्नगा? 'अनंतरखेदोववन्नग' त्ति अनन्तरं-समयाद्यव्यवहितं खेदेन-दुःखेनोपपन्नं--उत्पादक्षेत्रप्राप्तिलक्षणं येषां ते । (वृ० ५० ६३४) *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी २३४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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