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३३. यत्पुनरिदमुच्यते--अतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति तन्मतान्तरं।
(वृ० प० ५६०)
३४,३५. तस्य चेदं बीज-यदि द्वे अपि ते समाने स्यातां
तदा मुहर्तादावतिक्रान्तेऽतीताद्धा समधिका अना
गताद्धा च हीनेति हतं समत्वम् । (वृ० ५० ५६०) ३६. एवं च मुहर्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीयमाणाऽप्यनागताद्धा यतो न क्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्तगुणेति ।
(वृ० प० ५६०)
३८. यच्चोभयोः समत्वं तदेवं--यथाऽनागताद्धाया अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरिति समतेति ।
(वृ० ५० ५६०)
३३. जे वलि इम भाखंत, गया काल थी आगलो।
अनंतगुणो आखंत, ए छै बात मतांतरे ।। ३४. अतोत अनागत काल, ए दोनूंइ तुल्य है ।
ते किण रोते न्हाल, मतांतरे नों प्रश्न ए ।। ३५. मुहर्तादिक अतिक्रत, अतीत अद्धा अधिक है।
हीन अनागत हंत, तिणसं सम नहिं इम कहै ।। ३६. क्षण-क्षण प्रति-क्षयमान, अद्धा अनागत क्षय नहीं।
अतीत सू इम जान, अनागत अनंतगुणो कहै ।। ३७. ए तो आखी बात, मतांतरे नी म्हैं इहां ।
अतीत अनागत ख्यात, ए बिहुँ सम तसु न्याय हिव ।। ३८. उभय समपणों साध, काल अनागत अंत नहीं।
अतीत नीं नहिं आद, तिण कारण बिहं समपणों ।। ३६. ए सह विस्तर हीज, कह्य वृत्ति में तिम अख्यं ।
पिण मिलतूं सूत्र थकीज, तेहिज सत्य करि सद्दहिवं ।।
वा०-जे बली इम कहै अतीत अद्धा थकी अनागत अद्धा अनंतगुणो ते मतांतर । तेहनों ए बीज - रहस्य--अतीत अनागत ए बिहं पिण जो सम हुवै तो तिवारे मुहर्तादिक अतिक्रम्ये छते अतीत काल अधिक हवै अनै अनागत काल हीन हवै। इण लेखे समपणो न रह्यो । अन इम मुहर्तादिक करिकै क्षण-क्षण प्रति क्षय थातो छतो पिण अनागत काल क्षीण न हुवै ते भणी ते अनतगुणो अनै दो काल नों समपणो ते इम-जिम अनागत काल नों अंत नहीं इम अतीत काल नी आदि नहीं, इम समपणो हवै इति । ए विस्तार वृत्तिकार कह्यो तिम लिख्यो छ, पिण सूत्र में तो अतीत अद्धा थकी अनागत अद्धा एक समय अधिक कह्यो छ । जे वर्तमान एक समय ते अनागत अद्धा नै विषे लेख व्यो छै ते माट ।' ४०. सर्वेपि भव्य जान, सीझीस्यै इम प्रभु कह्यो।
जेम जयंती वान, पूछयो तिम उत्तर दियो ।। ४१. सूता नहिं सीझंत, सीझै जीवज जागरा।
ए संबंध करि हुँत, प्रश्न सुप्त जागर तणो ।।
४१. जीवाश्च न सुप्ताः सिद्ध्यन्ति कि तहिं जागरा एवेति सुप्तजागरसूत्रम्
(वृ० ५० ५६०)
जीव का सोना और जागना ४२. *सूतापणुं भलं हे प्रभुजी ! निद्रापणंज थावै।
अथवा जाग्रतपणुं भलु छै, निद्रा तणे अभावे ? ४३. श्री जिन भाखै सुण जयंती! कितरायक जीवां रे।
सूतापणुं भलं ते सूता, जबर बंध नहिं त्यांरे ।। ४४. कितरायक जीवां रे आछू, जाग्रतपणुं सुजाणी।
किण अर्थे इम प्रभुजी आख्यू ? तसु उत्तर पहिछाणी ।।
४२. सुत्तत्तं भंते ! साहू ? जागरियत्तं साहू ?
'सुत्तनं' ति निद्रावशत्वम् । (वृ० प० ५६०) ४३. जयंती ! अत्यंगतियाणं जीवाणं सुत्ततं साहू ।
४४. अत्यंगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साह ।
(श० १२॥५३) से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ
*लय : पारसदेव तुम्हारा दरसण १. यह वात्तिक ३३-३९ तक की सात गाथाओं का स्पष्टीकरण है । वृत्ति के जिस
अंश के आधार पर यह स्पष्टीकरण किया गया है, उसे गाथाओं के सामने उद्धृत कर दिया है।
१६ भगवती जोड़
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