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आठ आत्मा का अल्पबहुत्व पद ८७. *हे भगवंत ! आठ आत्मा में, कवण-कवण थी कहिये ।
अल्प बहु तुल्य विशेष अधिका? हिव जिन उत्तर दइयै ।।
८७. एयासि णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव
वीरियायाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया
वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ८८. गोयमा! सब्बत्थोवाओ चरित्तायाओ।
'सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ'त्ति चारित्रिणां संख्यातत्वात्
(वृ० ५० ५९१)
८८. सर्व थी थोड़ा चरित्त आत्म नां, वृत्ति में कह्या संख्यात ।
तिण कारण ए पंच चारित्रिया, सर्वविरत आख्यात ।।
८९. पण्ण० । १३१२,१२
९०. अणु० सू० २८५
९१. भगवई ८।१६३
सोरठा ८६. 'जीव परिणामिक मांय, तेरम पद दश भेद त्यां।
चरित्त परिणाम कहाय, चारित्त पंच कह्या तिहां ।। ६०. वलि अनुयोगवार, चारित्र पंच थकी जुदो।
चरित्ताचरित्त उदार, क्षयोपशम-निप्पन कह्यो ।। ६१. अष्टम शतक मझार, द्वितीय उद्देशक भगवती ।
चरित्ताचरित्त उदार, चारित्र पंच थकी जुदो।। ६२. ते थी इहां चरित्त, देश थकी नों कथन नहीं।
सर्व चरित्त आश्रित्त, संख्याता आख्या वृतौ ।।' (ज०स०) ६३. *तेहथी अनंतगुणां ज्ञानात्मा, सिद्ध प्रमुख समदृष्टी। चारितिया थी अनंतगुणां है, ज्ञानी ते गुण इष्टी ।।
सोरठा ६४. अनंतगुणां रै न्याय, सिद्धां में चारित्र नथी।
खायक भाव शोभाय, पिण पंच चारित्र पावै नहीं। ६५. *तेहथी अनंतगुणां कषायात्मा, सिद्ध थकी अति ज्यांही।
धुर गुणठाणा थी दशमा तांइ, कषाय उदयवंत त्यांही ।।
९३. नाणायाओ अणंतगुणाओ। 'णाणायाओ अणंतगुणाओ' त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् । (वृ० ५० ५९१)
१६. तेहथी विसेसाहिया जोगात्मा, अकषाई पिण एह ।
ग्यारम बारम तेरम गुण नां, जोगवंत छै जेह ।।
६७. तेहथी विशेषाधिक वीर्यात्मा, अजोगी वीर्यवंत ।
एह विशेष अधिक जिन आख्या, पंच अक्षर स्थिति संत ।।
९५. कसायायाओ अणंतगुणाओ। 'कसायाओ अणंतगुणाओ' त्ति सिद्धेभ्यः कषायो
दयवतामनन्तगुणत्वात्। (वृ० ५० ५९१) ९६. जोगायाओ विसेसाहियाओ। 'जोगायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अपगतकषायोदय
र्योगवदभिरधिका इत्यर्थः । (वृ० ५० ५९१) ९७. वीरियायाओ विसेसायिाओ। 'वीरियायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अयोगिभिरधिका
इत्यर्थः, अयोगिनां वीर्यवत्त्वादिति । (वृ० ५० ५९१) ९८. उवओग-दविय-दसणायाओ तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ।
(श०१२।२०५) ते च वीर्यात्म भ्यः सिद्धराशिनाऽधिका भवन्तीति ।
(वृ० ५० ५९१,५९२)
१८. द्रव्य उपयोग दर्शण तिहुं तुल्ला, तेहथी विशेषाधिक कहिये।
सिद्ध राशि करि अधिक हुवै छ, ए सिद्ध विषे पिण लहिये ।।
६६. बारम शतक दशम - देश, बेसौ अडसठमी ढाल ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश'मंगलमाल।।
*लय : रूढ चन्द निहाले रे
श० १२, उ० १०, ढा० २६८ १०९
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