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________________ ५६. यस्मात्तत् केवलिनिर्वाणे पुनस्तं परिणाममसी न प्राप्स्यतीति । (वृ० प० ६४०) ५६. जे केवलि शिव पाम, फून परिणत वर्णादि ते। लहिस्यै नहिं परिणाम, भाव थकी इम चरम है।। ५७. वर्णादिक परिणाम, समुद्घात केवलि विना। पूर्वे पाम्या ताम, वलि लहिस्य अचरम तिको । ५८. आख्यो ए विस्तार, चूर्णिकार नै मत करी। एम कह्यो वृत्तिकार, द्रव्यादिक नां न्याय ए॥ ५६. परमाण चरमादि, कह्या लक्षण परिणाम तसु । हिव परिणाम संवादि, तास भेद अभिधान कर ।। ५८. इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति । (वृ० प०६४०) ५९. अनन्तरं परमाणोश्चरमत्वाचरमत्वलक्षणः परिणाम: प्रतिपादितः, अथ परिणामस्यैव भेदाभिधानायाह (वृ०प०६४०) ६०. कतिविहे णं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा--जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियव्वं । (श० १४।५२) ६०. *प्रभु ! कतिविध परिणाम रे ? द्विविध जिन कहै, प्रथम जीव परिणाम जे ए। एवं अजीव जाण रे पद परिणाम जे, तेरम पन्नवणा पाम जे ए॥ सोरठा ६१. परिणमवो जे पाम, अन्य अवस्था द्रव्य नीं ६१. तत्र परिणमनं-द्रव्यस्यावस्थान्तरगमनं परिणामः । गमन करे ताम, ते परिणाम कहीजिये ।। (वृ० प० ६४१) वा०–परिणाम ते अन्य अर्थ प्रति पहुंच-सर्वथा रहिवू नथी अन सर्वथा वा०-परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । विनाश नथी, ते परिणाम । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः । ६२. दशविध जीव परिणाम, गति इंद्रिय कषाय फुन । ६२,६३. जीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? लेश योग वलि ताम, फून उपयोग परिणाम छै ।। गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा---गइपरिणामे, ६३. ज्ञान अने दर्शन, चरित्त अने वलि वेद फुन । इंदियपरिणामे एवं कसायलेसा जोगउवओगे जीव परिणाम कथन, जीव राशि में जाणवा ।। नाणदंसणचरित्तवेदपरिणामे इत्यादि । (वृ०प०६४१) ६४. वलि दशविध पहिछाण, अजीव परिणामज कह्या। ६४,६५. अजीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? बंधण गति संठाण, भेद वर्ण गंध रस फरस ।। गोयमा! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा-बंधणपरिणामे ६५. अगुरुलघू नै शब्द, अजीव परिणामज दस । १. गइपरिणामे २. एवं संठाण ३. भेय ४. वन्न ____ अजीव राशे लब्ध, इत्यादिक कहि इहां ।। ५. गंध ६. रस ७. फास ८. अगुरुलहुय ९. सद्द परिणामे १०." इत्यादि । (वृ०प०६४१) ६६. *सेवं भंते ! स्वाम रे गोतम इम कही, ६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ । यावत विचरै उमह्यो ए। (श० १४१५३) शत चवदम नो ताम रे आख्यो अर्थ थी, तुर्य उदेश पूरण थयो ए॥ ६७. आखी ढाल रसाल रे बसौ ऊपरै, च्यार नेऊमो अति भली ए। भिक्षु भारीमाल रे ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जश' आनंद रंगरली ए॥ चतुर्दशशते चतुर्थोद्देशकार्थः॥१४॥४॥ *लय : एक दिवस शंख राजान रे श० १४, उ० ४, ढा० २९४ २४९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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