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________________ ढाल २९५ १. तुर्य उद्देशक नै विषे, आख्या छै परिणाम । हिव विचित्र परिणाम जे, पंचमुद्देशे पाम ॥ १. चतुर्थोद्देशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकारा दव्यतिव्रजनादिकं विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह । (वृ०प०६४१) अग्निकाय अतिक्रमण पद *चित धरले प्राणी ! वाणी जिन तणी जी। (ध्रुपदं) २. नारक प्रभुजी ! अग्नि रै कांइ, मध्योमध्य थइ जाय ? जिन कहै केंइक जाय छै जी, केयक जावै नाय । ३. किण अर्थे प्रभु ! इम कयो कांइ, कोई नारक जाय । केइक तो जावै नहीं जी! हिव जिन भाखै न्याय ॥ ४. द्विविध नारक दाखिया कांइ, विग्रहगति आपन्न । अविग्रहगतिया वली जी, उत्पत्ति क्षेत्र जन्न ।। २. नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मझमज्झेणं वीइवएज्जा? गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। (श०१४।५४) ३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ? ४. गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गह गतिसमावन्नगा य, अविग्गहगतिसमावन्नगा य। ५. तत्थ जे से विग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झण वीइवएज्जा । ६. से णं तत्थ झियाएज्जा ? नो इणठे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । ५. तिहां विग्रहगति पाम्या जिके कांइ, अग्निकाय रे जाण । मध्य थई नै नोकलै जी, वाटे वहितां माण ।। ६.ते अग्निकाय माहै बलै कांइ, अर्थ समर्थ न एह । विग्रहगतिया जीव ने जी, शस्त्र नहीं प्रणमेह ।। सोरठा ७. विग्रहगतिया जीव, कार्मण तनुपण करी। वलि सूक्ष्मपणां थकीव, अग्न्यादि शस्त्र नाक्रम ।। ७. विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र 'शस्त्रम्' अग्न्यादिकं न कामति । (वृ०प० ६४२) ८. तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमझेणं नो वीइवएज्जा। से तेणद्वैणं जाव नो वीइवएज्जा। (श० १४१५५) ८. *तिहां अविग्रहगति नारका काइ, अग्निकाय रै माय। मध्य थई नहिं नीकल जी, तिण अर्थे ए वाय ॥ सोरठा ६. इहां अविग्रह जाण, उत्पत्ति क्षेत्रे ऊपनो। कहियै तेह पिछाण, ते अग्नि विषे न करै गमन ॥ १०. फुन ऋजुगति समापन्न, तसु अधिकार इहां नथी। गमन करतो मन्न, ते पिण जावै अग्नि में ।। ११. नारक क्षेत्रोत्पन्न, अग्नि मध्य जावै नहीं। बादर तेऊ जन्न, नारक क्षेत्र विषे नथी॥ ९,१०. अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात् । (वृ०५० ६४२) ११. स चाग्निकायस्य मध्येन न व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात् । (वृ०प० ६४२) १. इस प्रसंग में किसी आदर्श में उद्देशकार्थ-संग्रह गाथा है । वृत्तिकार ने उसे उद्धृत किया हैनेरइय अगणिमझे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे । पव्वयभित्ती उल्लंघणा य पल्लंघणा चेव ।। *लय : अब लगजा प्राणी ! चरणे साध र जी २५० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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