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________________ ६. तास असंख प्रदेश छ जशधारी, लोक आश्री सुविशेष रे गो०। ६. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च तेह अलोकज आश्रयी गुणधारी, छै तसू अनंत प्रदेश रे गो० ॥ अणतपएसिया, ७. लोक आश्री ते सादिया जशधारी, छै बलि अंत-सहीत रे गो०। ७. लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च अलोक आश्री सादिया गुणधारी, कहिय अंतर-रहीत रे गो०॥ सादीया अपज्जवसिया, सोरठा ८. पूर्व रुचकज पास, आदि तास अवलोकिये। लोकज छेहड़े तास, अंत अछै इण न्याय सं ॥ ६. *दिशि पूर्व अलोकज आश्री जशधारी, आदि-सहित कहिवाय रे गो० ।। अंत-रहित तसुं आखियै गुणधारी, निसुणो तेहनों न्याय रे गो० ॥ सोरठा १०. लोक पास तसु आद, नहिं छै अंत अलोक नों। ते माटै इम लाध, अंत नहीं छै दिशि तणो॥ ११. *मुरज संठाण लोक आश्री जशधारी, ११. लोग पडुच्च मुरवसंठिया, अलोग पडुच्च सगडुद्धिते आभरण आकार विचार रे गो०। संठिया पण्णत्ता। (श० १३०५२) वलि अलोकज आश्री गूणधारी, गाडा नी ओधि आकार रे गो० ॥ सोरठा १२. लोक अंत नो जाण, परिमंडल आकार छ। १२,१३. लोकान्तस्य परिमंडलाकारत्वेन मुरजसंस्थानता मुरज तणे संस्थान, पूर्व दिशि आखो प्रभु ॥ दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तं । १३. लोकांत आधी एह, मूरज संस्थानपणे का । (वृ० प० ६०७) आगल न्याय कहेह, हिवै अलोक नै आश्रयी ।। १४. शकट ओधि आकार, अलोक नों जिन आखियो। १४,१५. 'अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिय' त्ति रुचके तु तुण्डं धर संकीरण धार, विस्तीर्ण उत्तरोत्तरे ।। कल्पनीयं आदौ संकीर्णत्वात् तत उत्तरोत्तरं विस्तीर्ण१५. रुचक विषे सुविचार, मस्तक नी कर कल्पना । त्वादिति । (वृ० ५० ६०८) तिण कारण धुर धार, संकीरण पाछै वृद्धी ।। १६. *आग्नेयि दिशि भगवंत जी ! हूं वारी, १६. अग्गेयी णं भंते ! दिसा किमादीया, किंपवहा, कवण अछै तमु आदि रे जयवंता स्वाम! . किहां थकी चालो अछैहूं वारी, तेह प्रवर्ती लाधि रे जयवंता स्वाम ! १७. आदि प्रदेश तसू केतला हं वारी, विस्तीर्ण बि.तरा प्रदेश रे जय० । १७. कतिपएसादीया, कतिपएसवित्थिण्णा, कतिपएसिया, के प्रदेशिक कुण अंत छैहूं वारी, किसै संठाण कहेस रे? जय० ॥ किपज्जवसिया, किंसंठिया पण्णत्ता ? १८. जिन भाखै सुण गोयमा ! जशधारी, १८. गोयमा! अग्गेयी णं दिसा रुयगादीया, दिशि आग्नेयि कहीज रे गो०। रुयगप्पवहा, रुचक आदि छै जेहनै गुणधारी, चाली रुचक थकीज रे गो० ।। १६. एक प्रदेश जसू आदि छै जशधारी, विस्तीर्ण एक प्रदेश रे गो० । १९. एगपएसादीया, एगपएसवित्थिण्णा- अणुत्तरा, आगल पिण ते विदिशि नों गुणधारी, वद्धि नथी लवलेस रे गो० ॥ *लय :हूं तुझ आगल सी कहूं कनइया श०१३, उ०४, ढा० २७७ १५९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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