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________________ ढाल:२८९ मरण पद १. कही अनंतर ते माट कहिवाय, सोरठा काय, मरण तेहन त्यागे मरण है। तणां इज भेद हिव ।। १. अनन्तरं काय उक्तस्तत्त्यागे च मरणं भवतीति तदाह (वृ० प० ६२४) दहा २. कतिविहे णं भंते ! मरणे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णत्ते । २. कितै प्रकारे मरण जे, भाख्या हे भगवंत ? श्री जिन भाखै मरण नां, पंच प्रकार कहंत ।। _ *सुण गोयमा रे! (ध्रुपदं ३. प्रथम आवीचि मरण कहीव, समय-समय प्रति मरतो जीव । तेह निरंतरपणे मरंत, आवीचि नो हिवै अर्थ कहत ।। ३. आवीचियमरणे यतनी ४. आ कहितां समस्त प्रकार, वीचि किलोल नी पर धार। ४,५. आवीइयमरणे' त्ति आ समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयसमय-समय आउखो वेदंत, तिण सं समय-समय ए मरंत ।। मनुभूयमानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्द५. अपर-अपर आयू दल जाण, एहनां उदय थकी पहिछाण । लिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं । पहिला-पहिला आयु दल तास, च्यवन लक्षण अवस्था विमास ।। (वृ० प० ६२५) ६. अथवा अविद्यमान जे मांय, वीचि जिहां विच्छेद न थाय । ६. अथवाऽविद्यमाना वीचिः---विच्छेदो यत्र तदवीचिक कह्यो आवीचिक मरण, समय-समय आयु-दल क्षरण ।। अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तन्मरणं चेत्यावीचिक मरणं । (वृ० प० ६२५) ७. *दुजो अवधि मरण जे कहिवाय, अवधि कहितां मर्यादा पाय । ७. ओहिमरणे । ते मर्यादा करि मरण पामंत, तास न्याय निसुणो धर खंत ।। ८. नारकादि भवे करि जीव, आयु कर्म दलिक अतीव । भोगवी ने जेह मरंत, वर्तमान अद्धा विषे मंत ।। 8. वलि काल आगमिक माहि, तेहि आयु कर्म दल ताहि । भोगवी मरिस्यै नारकादि, तिको अवधि मरण संवादि' ।। वा०--अवधि मर्यादा ते अवधि करिकै मरण ते अवधि-मरण । नारकादि वा०—'ओहिमरणे' त्ति अवधिः-मर्यादा ततश्चावधिना भव निबंधनपण करी जे आयु कर्म दलिक भोगवी नै मरे । वलि जे तेहिज आयु कर्म मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनदलिक जे नारकादि भोगवी ने अनागत काले मरिस्य तदा ते अवधिमरण कहिये । तयाऽऽयु:-कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्ताते द्रव्य नी अपेक्षा करिक वली ते ग्रहण अवधि ज्यां लग जीव नै मृतपणां न्येवानुभूय मरिष्यते तदा तदवधिमरणमुच्यते । तद्रव्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधि यावज्जीवस्य थकी हवै । अनै गहीत उज्झित कर्म दलिक नों वलि ग्रहण करिबूते परिणाम नां मृतत्वात्, संभवति च गृहीतोज्झितानां कर्मदलिविचित्रपणां थकी। कानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्यादिति । (वृ० प० ६२५) *लय : खिण गई रे मेरी खिण गई १. गाथा ७ से ९ का प्रतिपाद्य वृत्त्यनुसारी है। फिर भी इनके सामने वृत्ति का पाठ उद्धत नहीं किया गया। इससे अगली वार्तिका के सामने उसे समग्र रूप से लिया गया है। २१० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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