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________________ २९. शुक्ल शुक्ल अभिजात पई नं. होजी ओ तो सी परम ज्ञान लही नैं | ३०. शुक्ल नाम ते अमच्छरमाणं, होजी ओ तो कीधा उपगार नुं जाणं ॥ होजी कांइ तेह शुक्ल अभिसंध ।। होजी ओ तो शुक्ल निरतिचार चरणं ॥ ३१. सदारंभी ने हित अनुबंध, ३२. अन्य आचार्य इम करे वरणं, ३३. परम शुक्ल ते शुक्ल अभिजात्य ३४. शोभन आगम विशुद्ध प्रतक्ष, होजी हिव एहिज कहूं अवदात्य ।। ३५. धमण भाव प्रति वर्त्ते बेह होजी ओ तो परम प्रकृष्ट सुलक्ष ॥ ३६. ते श्रमण भाव वर्ष थी उपरंत, होजी ओ तो निश्च गुणमणी गेह ॥ ३७. जे संत विशेष ते आधी ए भारुपो, होजी ओ तो सर्वथा शुक्ल कहंत || ३८. वृत्ति विषे इहविध सुविशेषं, होजी पिण सर्व मुनि नो न आथयो । ३१. परम शुक्ल भई पाछे सीत २९४ भगवती जोड़ होजी ओ तो आपो है न्याय अशेष ॥ होजी कांइ जान करें दुख अंत ॥ होजी ए तो जावत विचरै महंत ॥ होजी ओ तो अर्थ रूप सुविशेषं ॥ ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! Jain Education International ४१. चवदमा शतक नों नवमो उदेशं, ४२. मुनि सुख वर्णन डाल विशाली, ४३. भिक्षु भारीमात ऋषिराम प्रसाद, होजी आ तो तीनसी चउथी न्हाली ॥ होजी ए तो 'जय-जश' चित अहलादं ॥ चतुर्दशशते नवमोद्देशकार्यः ॥१४६॥ हा १. कह्या अनंतर शुक्ल ते, अछे केवली दशम हिव, ढाल : ३०५ तत्व थकी तो जेह । केवली प्रमुख कहेह || २०,३१. ''ति शुक्तो नामाभिन्नवृत्तोमारी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति । ( वृ० प० ६५७ ) ३२. निरतिचारचरण इत्यन्ये । ( वृ० १०६५७) ३३. 'सुक्काभिजाइ' ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः । ( वृ० प० ६५७) ३४-३६. आकिञ्चन्यं मुख्यं ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम् । सर्वं शुक्लमिदं खलु नियमात्संवत्सरादूर्द्ध वम् । ( वृ० प० ६५७ ) ३७. एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते न पुनः सर्व एवै - वंविधो भवतीति । ( वृ० प० ६५७ ) (२० १४।१३६) ३९. जाव (सं० पा० ) अंतं करेति । ४०. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ । (स० १४१३७) For Private & Personal Use Only , १. अनन्तरं शुक्ल उक्तः स च तत्त्वतः केवलीति केवलप्रभृत्यप्रतिबद्ध दशम उद्देशकः । (५० ५० ६५०) www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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