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________________ ढाल : २९३ १. द्वितीयोद्देशके देवव्यतिकर उक्तः: तृतीयेऽपि स एवोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् । स्येदमादिसूत् । ० ६३६) १. द्वितीय उदेशे देव नों, व्यतिकर कह्यो विशेख । तेहिज तृतीय उदेशके, सांभलजो संपेख ॥ *हं बलिहारी हो वीर नीं, भाख्या हो प्रभ भिन-भिन भेव के। धन्य शिष्य प्रश्न पूछिया, उत्तर दीधा जिन स्वयमेव के।। (ध्रुपदं) विनयविधि पद २. हे प्रभुजी ! जे देवता, महाकाय जसु बहु परिवार के। महा-शरीर छ जेहनों बृहततन् ते सूर अवधार के । ३. भावितात्म अणगार नै, बिचै थई मैं ते सुर जाय के ? जिन कहै कोइक जावै अछै, कोइक सूरवर जावै नाय कै। ४. किण अर्थे प्रभ ! इम कह्यो, कोइ जाय कोइक नहिं जाय कै । श्री जिन भाखै गोयमा ! देवा दोय प्रकार कहिवाय कै।। २. देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे 'महाकाय' त्ति महान् बृहन् प्रशस्तो वा कायोनिकायो यस्य स महाकायः, महासरीरे' त्ति बृहत्तनुः । (वृ० प० ६३६) ३. अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्यंगतिए नो वीइवएज्जा। (श० १४१२९) ४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ–अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा? गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, ५. तं जहा-मायीमिच्छादिट्टीउववन्नगा य, अमायी सम्मदिवीउववन्नगा य । तत्थ णं जं से मायीमिच्छदिट्ठीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, ६. पासित्ता नो वंदइ, नो नमसइ, नो सक्कारेइ, नो सम्माणेइ, ७. नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ । ५. मायी-मिथ्यादृष्टि ऊपनां, अमायी-समदृष्टि उत्पन्न के। इहां मायी-मिथ्यादृष्टि देवता, देखी भावितात्म मुनि जन्न कै॥ ६. वांदै नहि ते मुनि भणी, नमस्कार न करै सिर नाम के। वलि सत्कार करै नहीं, वलि सन्मान दियै नहिं ताम कै॥ ७. कल्याणकारक ते मुनि, विघ्न मिटावण मुनि मंगलीक के। धर्मदेव जाणी करी, यावत सेव करै न सधीक के। ८. ते भावितात्म अणगार नै, मध्योमध्य थई मैं जाय कै। __ नीकलै मुनि रै बिच थई, ते देव आसातन सूं डरै नाय कै॥ ६. अमायी-समदृष्टि ऊपनों, ते सुर मुनि प्रति देख उदार के। वंदै शिर नामै वलि, यावत मेव करै सुखकार के। १०. ते भावितात्म अणगार नै, मध्ये मध्य करी नहिं जाय कै। तिण अर्थे इम आखियो, कोइ जाय कोइ नहिं जाय ताय कै॥ ८. से णं अणगारस्स भावियप्पणो मझमज्झेणं वीइवएज्जा । ९. तत्थ णं जे से अमायीसम्मद्दिट्ठीउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता वंदइ नमसइ जाव (सं. पा.) पज्जुवासइ । १०. से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं नो वीइवएज्जा । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइअत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। (श० १४।३०) ११. असुरकुमारे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अण गारस्स भावियप्पणो मज्झमझेणं वीइवएज्जा ?एवं चेव । १२. एवं देवदंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणिए । (श०१४॥३१) 'एवं देवदंडओ भाणियब्वो' त्ति नारकपृथिवीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्यासम्भवाद् देवानामेव च ११. हे प्रभु ! असुरकुमार ते, महाकाय ते घणो परिवार के। महाशरीरी मुनि बिचै, एवं चेव पूर्ववत धार के॥ १२. ईम देव दंडक भणवो सह, जाव वैमानिक लग कहिवाय के। नारक पृथव्यादिक तण, ए कार्य नो असंभव थाय के। *लय : हूं बलिहारी हो जादवां २४० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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