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________________ कर्म, लेश्या और दृष्टि में वर्णादिक की पृच्छा _ *हो प्रभुजी ! आप तणी बलिहारी॥ [ध्रुपदं] ५. ज्ञानावरणी ताय, कांइ यावत वलि अंतराय । आठ कर्म में तास, कांइ जाव लहै चिहं फास ।। ६. कृष्ण लेश्या नी पृच्छा, हिवै जिन कहै सुण धर इच्छा । द्रव्य लेश्या में तास, पंच वर्ण जाव अठ फास ।। ५. नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए -एयाणि चउफासाणि। (श १२।११६) ६. कण्हलेसा णं भंते ! कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता? दव्वलेसं पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता । ७. भावलेसं पडुच्च अवण्णा अगंधा अरसा अफासा पण्णत्ता । एवं जाव सुक्कलेस्सा । भावलेश्या-आन्तरः परिणामः । (वृ. प. ५७४) ८. सम्मदिट्ठी मिच्छदिट्ठी समामिच्छदिट्ठी। ७. भाव लेश्या अंतर परिणाम, कांइ ते आश्रयी नै ताम। नहीं वर्ण गंध रस फास, इम जाव शुक्ल पिण तास ।। ८. सम्यगदृष्टि मझार, कांइ मिथ्यादष्टि विचार । सम्यगमिथ्या दृष्ट, ए तीन दष्टि में इष्ट ।। ६. चक्षु अचक्षु दर्शण ताहि, अवधि केवल दर्शण मांहि । पांच ज्ञान में तीन अज्ञान, वलि च्यार संज्ञा में जान ।। ९. चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, ओहिदंसणे, केवलदसणे आभिणिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा१०. एयाणि अवण्णाणि अगंधाणि अरसाणि अफासाणि । १०. यां सगलां में तास, नहिं वर्ण गंध रस फास । कह्या वत्ति में जीव-परिणाम, तिण सं वर्णादिक नहिं ताम।। सोरठा ११. इहां कृष्ण लेश्यादि, परिग्रह संज्ञा अंत लग। अवर्णादि संवादि, जीव-परिणामपणां थकी। उदयभाव जीव-अजीव १२. 'तीन दृष्टि रै मांय, वर्णादिक कह्या नथी। सम्यग-दृष्टि सुहाय, त्याग सहित संवर अछ।। १३. मिथ्यादृष्टि कहाय, भाव क्षयोपशम उदय वलि । ए बिहुं भावे थाय, देखो अनुयोगद्वार में ।। ११. इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसंज्ञाऽवसानानि अवर्णा दीनि जीवपरिणामत्वात् । (वृ. प. ५७४) १३. से कि तं खओवसमनिप्फण्णे ?......"खओवसमिया मिच्छादसणलद्धी...... (अणु. सू० २८५) से कि तं जीवोदयनिष्फण्णे ?"""""मिच्छदिट्ठी। (अणु. सू० २७५) १४. क्षयोपशम-निपन्न मांहि, दाखी मिथ्यादष्टि में । मिथ्याती री ताहि, भली-भली श्रद्धा तिका ।। १५. मिथ्याती रै ताम, केइक बोल समा अछ। भाजन लारै नाम, मिथ्यादृष्टि कही तसु ॥ १६. क्षयोपशम निर्मल भाव, ते कारण ए निर्जरा। उज्जल लेख कहाव, जीव-परिणाम अमूर्त ए॥ १७. उदय भेद बे जन्न, जीव-उदय-निप्पन प्रथम । अजीव-उदय-निष्पन्न, देखो अनुयोगद्वार में ।। १७. से किं तं उदयनिष्फण्णे? उदयनिष्फण्णे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवोदयनिष्फपणे य अजीवोदयनिष्फण्णे य । (अणु. सू० २७४) १८. जीव-उदय-निष्पन्न, कर्म तणांज उदा थकी। जीवपणेज प्रपन्न, बोल तेतीस कह्या तिहां ।। *लय : स्वामीजी यार दर्शन की ६४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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