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________________ ढाल : २७४ १. अथ रत्नप्रभादिनारकवक्तव्यतामेव सम्यग्दष्टयादीनावित्याह -- (व० प० ६७०) दूहा नरक में सम्यक दृष्टि आदि की पृच्छा १. अथ विहं दृष्टि तणो हिवै, रत्नप्रभादिक माय ! वक्तव्यता तसं वारता, प्रश्नोत्तर कहिवाय ।। _ *चतुर नर वारू अर्थ विचार ।। [ध्रपदं] २. प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, तीस लाख नरकावासा माय। संख्याता योजन तणां रे, नरकावासे ताय ।। ३. स्यं समदष्टी ऊपजै रे, कै मिथ्यादष्टि उपजंत । कै समामिथ्यादृष्टि नेरइया रे, उपजै छै भगवंत ! २. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ३. कि सम्मट्ठिी नेरइया उववज्जति ? मिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जति? सम्मामिच्छदिट्ठी नेइरया उववज्जति ? 6. गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरइया उववज्जति, मिच्छदिट्ठी वि नेरइया उववज्जति, नो सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जति । (श० १३.१४) 'न सम्ममिच्छो कुणइ काल' मिति वचनात् मिश्रदृष्टयो न म्रियन्ते। (वृ० प: ६००) ६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ७,८. कि सम्मदिट्ठी नेरइया उव्वटंति ? एवं चेव। (श० १३।१५) ४. जिन कहै समदृष्टि ऊपजै रे, मिथ्यादष्टि उपजत । समामिथ्यादष्टि नहिं ऊपजै रे, मिश्रदष्टि थको न मरंत ।। सोरठा ५. नारक भव नो इष्ट, ए पहिलो समयो अछै । सम्मामिथ्यादिष्ट, अपर्याप्त में नहिं हुवै ।। ६. *प्रभु! रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, नरकावासा तीस लक्ष । संख्याता योजन तणां रे, नरकावासे प्रत्यक्ष ।। ७. स्यं समदृष्टी नीकलै रे, कै मिथ्यादष्टि निकलंत । के समामिथ्यादष्टि थको रे, निकलै छै भगवंत ? ८. जिन कहै समदष्टो नीकलै रे, मिथ्यादृष्टि निकलंत । समामिथ्यादष्टि नहिं नीक लै रे, मिश्रदष्टि थको न मरंत ।। सोरठा ६. नारक उपजै आण, सन्नी मनुष्य तिर्यंच में। ते विहं गति नों जाण, ए पहिलो समयो अछ।। १०. *प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी विषेरे, तीस लाख नरकावासा मांहि। संख योजन विस्तार नैं रे, नरकावासे ताहि ।। ११. स्यं समदृष्टि नारक करी रे, विरह-रहित काहिवाय । मिथ्यादष्टि नारक करी रे, विरह-रहित त्यां पाय? १२. के मिश्रदष्टि नारक करी रे, विरह-रहित अवधार ? ए सत्ता आश्री त्रिहं रे, पूछा----प्रश्न प्रकार ।। १३. जिन कहै समदृष्टी तिहां रे, नारक विरह-रहीत । मिथ्यादष्टी नारकी रे, विरह-रहित संगीत ।। १४. मिश्रदष्टी नारकी रे, कदाचित ते पाय । कदाचित पावै नहीं रे, विरह अविरह कहाय ।। १०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए ___निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडा नरगा ११. किं सम्मद्दिट्ठीहि ने रइएहि अविरहिया ? मिच्छ दिट्ठीहि नेरइएहिं अविरहिया ? १२. सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया ? १३. गोयमा ! सम्मट्ठिीहि नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छ दिट्ठीहि वि नेरइएहिं अविरहिया । १४. सम्मामिच्छदिट्ठीहि नेरैइएहि अविरहिया विरहिया वा। कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति । (वृ० प. ६००) *लय : राम पूछ सुग्रीव नै रे १३६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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