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________________ भणवा तीन आलाव | वलि सत्ता नों भाव || एवं तीन आलाव । तीन आलावा पंच अणुरूर अपट्टाणा गांहि || न्याव || ताहि । उपजै छे भगवंत ! के मिथ्यादृष्टी अपने रे के मिथदृष्टी जंत ? १२. जिन कहे समदृष्टी तिर्क है, नारक नहि उपजंत । मिथ्यादृष्टी ऊपने रे, मिश्रदृष्टि नहि जंत ।। १५. एम असंख विस्तार नैं रे, ऊपजवा चववा तणो रे, १६. सक्करप्रभा नैं विषे रे, एवं जाव तमा विषे रे १७. प्रभु ! सातमी नरक में रे, जाव संख योजन तणो रे, १५. स्यू समदृष्टी नारकी रे, २०. इमहिज नीकलवो अछे रे, समदुष्टो मिथदृष्टि में रे, सोरठा २१. नरक सातमीं मांहि, सम्यक्त थको न ऊपजै । नीकलवो पिण नांहि, मिश्र थको पिण इम कह्यो । २२. *सत्ता आश्री सात नीरे, विरह-रहित जलाव । जिम क रत्नप्रभा विषे रे, तिणहिज रीत कहाव ॥ २३. इम असख योजन तणां रे, तीन आलावा तिण विरे २४. नारक दृष्टि प्रकार, हिव तेहज विचार, नरक में लेश्या की पृच्छा मिच्छदिट्टि निकलंत । नीकलयो नहि हुंत ॥ नरकावासा च्यार । दृष्टि तीन सुविचार ॥ सोरठा Jain Education International वक्तव्यता तेहनी कहीं । भंगांतरे कीजिये || २५. *इम निश्च भगवंत जी ! रे, कृष्णलेशी अवलोय | नील लेश्यावंत थई रे, जाव शुक्ल लेश्यावंत होय || २६. कृष्ण लेश्यावंत ने विषे रे, उपजै नारकपणेह ? जिन कहै हंता गोभा ! रे, कृष्णलेस्से जाब उपजेह ॥ २७. किण अर्थ प्रभु ! हम द जाब शुक्तवंत ते पई रे, २८. जिन कहै लेश स्थानक विषे रे, अविशुद्ध विषे बलि जावतो रे, २६. कृष्णलेस्या प्रति परिणमी रे, कृष्ण लेस्यागंत नरक में रे, ३०. तिण अर्थ इम आथियो रे, अन्य लेश्यावंत से परे, रे, लेश्या कृष्ण कहे। कृष्ण विषे उपजेह ? अविशुद्ध विषे वर्त्तत । कृष्ण परिणमें अंत' ॥ करि तिहां थी काल । उपजं तेहिज बाल || कृष्णलेश्या तेह। कृष्ण विषे उपजेह || *लय राम पूछे सुग्रीव ने रे १. कृष्णलेश्यावंत विशुद्ध परिणामे शुक्ल मे जावै वलि अविशुद्ध परिणामे करी अविशुद्ध लेश्या विषे वर्ततो कृष्णपण परिणमै । १५. एव असंखेज्ज वित्थडे भाणियव्वा । १६. एवं सक्करप्पभाए वि एवं जाव तमाए वि 7 ( ० १३०१६) १७. मागं ते! पुढवी पंच अयुत्तरे जाव संखेज्जवित्थडे नरए १८. किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया - पुच्छा । वि तिण्णि गमगा १९. गोयमा ! सम्मट्टी नेरइया न उववज्जंति, मिच्छराति सम्मानिया दि न उववज्जंति : २०. एवं उब्वटटति वि 1 २२. अविरहिए जहेव रयणप्पभाए । २३. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिष्णि गमगा । For Private & Personal Use Only २४. अथ नारक वक्तव्यतामेव भंग्यन्तरेणाह ( ० १३।१७) , २५. सेनूहले नीलले जाव मुक्कलेसे ( वृ० प० ६०० ) भवित्ता २६. कहले से मेरए उज्जेति ? हंता गोवमा कहलेस्से जाय उज्जेति । ( श० १३।१८ ) २७. से केणट्ठणं भंते! एवं वुच्चइ - कण्हलेस्से जाव उववज्जंति ? २८. गोमाले मासु किलिस माणे उष्वपरिणमद २९. परिणमत्ता कण्हलेसेसु नेरइएसु उववज्जंति । ३०. से तेणट्ठेणं जाव उववज्जति । (० १३०१९) श० १३. उ० १, ढा० २७४ १३७ www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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