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________________ ४०. मनुष्य लोक थी बार, वैक्रिय संपन्न पं.-तिरि। गति नहिं अग्नि मझार, बादर तेऊ नहिं तिहां ।। ४१. मनुष्य क्षेत्र रै मांय, ते पिण केयक पं.-तिरि । __ अग्नि मध्य नहिं जाय, सामग्री नां अभाव थी। ४२. *जे नीकलै ते दग्ध ह कांइ ? तब भाखै जिनराय। एह अर्थ समर्थ नहीं जी, शस्त्र आक्रमै नाय ।। ४३. ऋद्धि न पाम्या जे तिहां कांइ, तिरि पंचेंद्री जंत । अग्नि मध्य केइ नीकलै जी, केयक नहिं निकलंत ॥ ४०. यस्तु मनुष्यक्षेत्राबहिन सावग्नेमध्येन व्यतिव्रजेत्, अग्नेरेव तत्राभावात् । (वृ० प० ६४२) ४१. तदन्यो वा तथाविधसामग्र्यभावात्। (वृ० प० ६४२) ४२. जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? णो इणठे समझें । नो खलु तत्थ सत्थ कमइ । ४३. तत्थ णं जे से अणिडिढप्पत्ते पंचिदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्यंगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। ४४. जे णं वीइवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हता झियाएज्जा। ४५. से तेणठेणं जाव नो वीइवएज्जा। ४६. एवं मणुस्से वि । वाणमंतर- जोइसिय- वेमाणिए जहा असुरकुमारे । (श० १४।६०) ४४. जे अग्नि विषे जावै तिके कांइ, तेऊ मांहि बलंत? जिन भाख हंता बलै जी, बहुलपणे वच मंत ।। ४५. तिण अर्थे कर इम कह्यो कांइ, पंचेंद्री तिर्यंच । केइ अग्नि माहै बलै जी, केयक न बलै रंच ॥ ४६. एम मनुष्य पिण जाणवा कांइ, व्यंतर ज्योतिषी सोय । वैमानिक सुर ने वली जी, जेम असुर तिम जोय ।। । इति प्रथम द्वार। वलि दश स्थान नों बीजो द्वार प्रत्यनुभव पद ४७. दश स्थानक प्रति नारकी कांइ, भोगवता विचरंत । शब्द अनिष्ट अजोग्य छै जी, रूप अनिष्ट अकंत ॥ ४८. गंध अनिष्ट दुर्गंध छै काइ, अनिष्ट रस अरु फास । अप्रशस्त विहायोगति जी, लहि नाम उदय थी तास ।। ४६. अनिष्ट ठिती सातमों कांइ, नरक अवस्थान रूप । अथवा जे नारक तणो जी, आयु अनिष्ट कूप ।। ४७. नेरइया दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-अणिट्ठा सद्दा, अणिट्ठा रूवा ४८. अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा रसा, अणिट्ठा फासा, अणिट्ठा गती 'अणिट्ठा गई' त्ति अप्रशस्तविहायोगतिनामोदय सम्पाद्या नरकगतिरूपा वा,। (वृ० प०६४३) ४९. अणिट्ठा ठिती 'अणिट्ठा ठिति' त्ति नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा वा। (वृ० प०६४३) ५०. अणिटठे लावण्णे, अणिठे जसे कित्ती, 'अणिठे लावन्ने' त्ति लावण्यं-शरीराकृतिविशेषः । (वृ० ५० ६४३) ५०. अनिष्ट लावण्य आठमों कांइ, तनु आकार विशेख । अनिष्ट जश कीत्ति कहीजी, तास अर्थ इम पेख । सोरठा ५१. सर्व दिशि व्यापी ताय, तथा पराक्रम कर थयो। तेहनै यश कहिवाय, ए कीत्ति थी अधिक है। ५२. इक दिशि व्यापी ताम, तथा दान फलभूत जे । कीति तेहनों नाम, अनिष्ट यश कीर्ते तसु।। ५३. *अनिष्ट तास उठाण छै कांइ, कम्म बल वीर्य कहीज। पूरिसकार में परक्कमे जी, कुत्सितपणों लहीज ।। ५१,५२. यशसा सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरूपेण पराक्रमकृतेन वा सह की तिः एकदिग्गामिनी प्रख्यातिर्दानफलभूता वा यश: कीत्तिः अनिष्टत्वं च तस्या दुष्प्रख्यातिरूपत्वात्। (वृ० प० ६४३) ५३. अणिठे उट्ठाण-कम्म - बल-वीरिय - पुरिसक्कारपरक्कमे । (श० १४।६१) अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति । ( प० ६४३) ५४. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा ५४. असुरा दश स्थानक प्रतै काइ, भोगवता विचरंत । इष्ट शब्द गमता घणां जी, गमता रूप अत्यंत ।। *लय : अब लगजा प्राणी! चरणे साध रेजी श०१४, उ. ५, ढा० २९५ २५३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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