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________________ २६. तो किन कारण स्पात, २५. जीव तणां परिणाम, दृष्टि अगोचर ते भगी। देखे नहिं ए ताम, पिण जाणें निज परिणाम प्रति ।। निज कर्म लेश जाणें नहीं ? तास न्याय अवदात, आगल कहियै छे हिवे || २७. सर्व पर्याय करेह, जानें नहि परिणाम निज । अथवा नहिं जाणेह, अनुपयुक्त छद्मस्थ मुनि ॥ २८. अथवा अवधिज आदि, सर्व भाव पर्याय कर । निज परिणाम कृष्णादि, जाणं नहि देखे नहीं ॥ वा० - हिवै कर्म लेश्या नों दूजो अर्थ कर्म नों संबंध इम टीका में किय तेहनुं न्याय कहै छै - २६. द्वित्तीय अर्थ कर्म ख्यात भावे लेश्या तेहथी। पिण कर्म लेश कही कर्म ने ॥ अवधि आदि जे रहित मुनि । बलि देखे नहि निज कर्म प्रति ।। सर्व भाव पर्याय कर बंध कर्म नों यात 1 ३०. अतिही सूक्षम तेह, प्रत्यक्ष नहि जाणेह, ३१. परम अवधिवंत संत निज कर्म द्रव्य प्रति मंत, ३२. एह जाणे नहि देखे नहीं ॥ श्वाय जणाय वलि बहुत आखेतिको । निर्मल छेवर न्याय सूत्रे कर अविरुद्ध जे || ३३. इहविध निज कर्म लेश, जाणे नहि छद्मस्य मुनि देखे नहि सुविशेष हिव जाणं देवं ते कहूं ॥ ३४. जीव शरीर सहीत, कर्म लेश कर सहित प्रति । जाणें मुनी वदीत देखे ते छग्रस्थ मुनि ॥ ३५. इहां एहवो अभिप्राय, शरीर चक्षु ग्राह्य है । 1 वा० जीव तणी जे काय ते जाणे देखे मुनि ।' [ज०स०] -रूप ते शरीर सहित अने कर्म लेश्या सहित जीव प्रतं जाणें देखे । ए संसारी जीव शरीर सहित कर्म लेश्या सहित छे, ते प्रतं जाण देखे । जीव नों शरीर प्रत्यक्ष दीस ते माटै। रूप सहित जीव प्रतै जाण देखे कह्यो । अरूप शरीर रहित अने कर्म या रहित सिद्ध है, ते प्रतस्थ मुनि न जान देखें । ते माटे रूप सहित जीव नों प्रश्नोत्तर कह्यो । ३६. * हे भगवंत ! अछे जिके जी, रूप वर्णादि सहीत | जे कर्म लेश सहोत नां जो पुद्गल बंध वदीत || ३७. प्रकाश पुद्गलतिकेजी, जाव प्रभासं ताय ? जिन भाखे हंता अत्थि जी, वलि शिष्य पूछे न्याय || ३८. कुण प्रभु ! रूप सहीत नां जी कर्म लेश्या करि सहीत । पुद्गल अवभासन करे जी जाय प्रभासं प्रतीत ? ३६. जिन भाखं शशि रवि तणां जी, प्रगट विमाण भी पेस , , तेज समूह बारे नोकल्यो जी, तेह प्रकाश विशेष ॥ ४०. एतला मार्ट ते गोवमा ! जी, रूप कर्म लेश्या सहित पोग्गला जी, दीपे *लय पंथीड़ो बोलं अमृत वाण Jain Education International शरीर सहीत । प्रकाश प्रतीत ॥ वा० - 'सरूवि' ति सह रूपेण - रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते योऽसौ समासान्तविधेः सरूपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव 'सकलेश्य' कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाज्जीवस्य च कथंचिच्छरीराव्यतिरेकादिति । ( वृ० प० ६५५) सकम्मलेस्सा पोग्गला भासेति ? ( ० १४१२४) ३६, ३७. अत्थि णं भंते! सरूवी भाति उज्जति तयेति हंता अत्थि । ३८. कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति जाव पभासंति ? ३९ गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहितो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ भ 1 ४०. एए णं गोयमा ! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओोभासेति उयोति सति भासेति । (श० १४ । १२५) २८९ For Private & Personal Use Only श० १४, उ० ९, ढा० ३०३ www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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