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सोरठा ८. आख्यो वृत्ति विषेह, भावितात्म अणगार ए।
संजम भावपणेह, वासित अंतःकरण तसु ।। ६. निज आतम नी जेह, कर्म योग्य लेश्या जिका।
कृष्णादिक कहेह, कर्म लेश तेहनें कही ।। १०. तथा कर्म न ताय, लेश संबंध अछै तिका।
कर्म लेश कहिवाय, द्वितीय अर्थ इम वृत्ति में ।। ११. तेह प्रतै अणगार, जाणे नहीं विशेष थी।
सामान्य थी पिण धार, देखै नहिं मुनिवर तिको । वा-प्रथम अर्थ कर्म योग्य लेश्या वृत्ति में कही तेहनै प्रथम ओलखाविगै
८. अनगार: 'भावितात्मा' संयमभावनया वासितान्त:करणः ।
(वृ० १०६५५) ९,१०. आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मणो योग्या लेश्या
कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या । "लिश श्लेषणे' इति
वचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या । (वृ० प०६५५) ११. तां न जानाति विशेषतो न पश्यति च सामान्यतः ।
(वृ०प०६५५)
१२. 'जेह थी कर्म बंधाय, कर्म योग्य लेण्या तिका।
जीव तणां अध्यवसाय, भाव लेश ए जाणवी।। १३. चवदम शतके पेख, प्रथम उदेशा नैं विषे।
कर्म लेश नै देख, भाव लेश आखी अछ ।। १४. कर्म लेश कहिवाय, उत्तराध्येन चउतीसमें।
आत्म परिणाम ताय, कर्म बंध छै तेहथी। १५. पुन्यकर्ता धर्म लेश, पाप तणी कर्ता तिहां ।
अधर्म लेश विशेष, भाव लेश कहिये तस्॥ १६. तेम इहां पिण ताम, कर्म लेश आखी तिका।
जीव तणां परिणाम, भाव लेश इम आखियै ।। १७. ते पोता नी जेह, कृष्णादिक लेश्या प्रतै ।
छद्मस्थ मुनिवर तेह, जाणें नहिं देखै नहीं। १८. सतरम पद के मांहि, तृतीय उद्देशा नै विषे।
कृष्ण लेण में ताहि, च्यार ज्ञान पावै अछ।।
१६. कृष्ण लेश संक्लिष्ट, मनपज्जव अति विशुद्ध ते ।
किण रीते ए इष्ट, वृत्ति विषे तसु न्याय इम ।।
१८. कण्णलेस्से णं भंते ! जीवे कतिसु णाणेसु होज्जा ?
गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु होज्जा।
(पण्ण० १७.११२) १९. ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते कृष्णलेश्या
च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः कथं कृष्णलेश्याकस्य मनःपर्यायज्ञानसंभव: ? उच्यते
(पण्ण० मलयवृ० प० ३५७) २०. इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्य
ध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते ।
(पण्ण० मलयवृ० ५० ३५७)
२०. असंख लोकाकाश, तास प्रदेश परमाण ते।
कृष्ण लेश नां तास, स्थानक अध्यवसाय नां ।।
२१. कृष्ण लेश नां स्थान, मंदज अध्यवसाय में।
ह मनपज्जव ज्ञान, पन्नवण वृत्ति विषे का ॥ २२. आख्या अध्यवसाय, तिणसं भावे कृष्ण ए।
पावै मनपर्याय, न्याय दष्टि करि देखिये ।। २३. जे छठे गुणठाण, भावे लेश्या षट अछ ।
तीन कहै कर ताण, तास विरुद्ध परूपणा ।। २४. अवध्यादिके रहीत, निज कर्म लेश जाणें न ते।
देखै नहिं सुवदीत, ए लेश्या भाव कहीजिये ।।
२८८ भगवती जोड़
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