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________________ ५५. जहण्णपदे चउहि उक्कोसपदे सत्तहि । ५६,५७. जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शकप्रदेशानां चतुभिरिति, कथम् ?, अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवाबगाढ इत्येवं (वृ०प० ६११) ५८. एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशादी केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति, (वृ० प० ६११) ५९. 'उक्कोसपए सत्तहिं' ति पूर्ववत, (वृ० ५० ६११) त्य ६०. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहि वि । ६१. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुटठे ? सत्तहिं । ६२. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? अगतेहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । (श० १३/६४) ५५. जिन कहै च्यार जघन्यपदे, उत्कृष्ट सात संघात । धर्मास्ती नै प्रदेशे करी, फर्श रे तसु न्याय विख्यात ।। सोरठा ५६. लोकांत खूणे देख, जेह प्रदेश रह्या तिहां । धर्म-प्रदेशज एक, अवगाह रह्यो तसु फर्शणा ।। ५७. ऊपर अथवा हेठ, ए बिहुं माहै एक है। बिहं पासे वे नेठ, ए चिउं जघन्यपदे करी॥ ५८. एक आकाश-प्रदेश, तिहां रह्यो इक जीव नों। एक प्रदेश विशेष, समुद्घात केवल समय ।। ५६. उत्कृष्ट सप्त संघात, षट प्रदेश षट दिशि तणां। जीव-प्रदेश विख्यात, धर्म-प्रदेश इक त्यां रह्यो ।। ६०. *इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, अधर्मास्तिकाय नै ख्यात। जघन्य च्यार प्रदेशे करी, उत्कृष्ट रे सप्त संघात ।। ६१. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, आकाश-प्रदेश संघात । सप्त प्रदेश नी फर्शणा, पूर्ववत रे न्याय विख्यात ।। ६२. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, जीवास्तिकाय नै जाण । शेष धर्मास्तिकाय तणी परै, कहिवो रे सर्व पिछाण ॥ पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों को स्पर्शना ६३. इक प्रदेश पुद्गलास्तिकाय नों, धर्मास्तिकाय तणेह । केतले प्रदेश करी, फशैं रे इम प्रश्न करेह ।। ६४. जिम जीवास्तिकाय नै विषे कह्यं तिम न्हाल । कहिवू तेह इहां सहु, वारू रे न्याय विशाल । सोरठा ६५. अनंतरे प्रत्येक, एक-एक प्रदेश नै । कही फर्शणा शेख, धर्म प्रमुख प्रदेश नीं।। ६६. हिव आगल आख्यात, दोय प्रदेशिक आदि जे । खंध तणे अवदात, देखाडै छै फर्शणा ॥ ६७. *बे प्रदेश पुद्गलास्तिकाय नां, धर्मास्तिकाय तणेह । केतले प्रदेशे करी, फर्श रे इम प्रश्न करेह ? ६८. जिन कहै जघन्यपदे करी, षट प्रदेश संघात । वलि उत्कृष्टपदे करी, द्वादश रे प्रदेश फर्शात ।। सोरठा ६६. षट प्रदेश संघात, जघन्यपदे तसु न्याय इम । चूर्णिकार आख्यात, जे लोकांत विषे अछ । ७०. दोय प्रदेशिक खंध, एक प्रदेश विषे रह्यो। तेह-प्रदेश' प्रबंध, प्रति द्रव्य अवगाहक कह्यो ।। ७१. इण नय मत अनुसार, अवगाहक प्रदेश इक। भिन्नपणां थी धार, फर्श दोय संघात ते ॥ ६३. एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहि धम्मत्थि कायपदेसेहिं पुढें ? ६४. एवं जहेव जीवस्थिकायस्स। (श० १३/६५) ६५. धर्मास्तिकायादीनां पुद्गलास्तिकायस्य चैकैकप्रदेशस्य स्पर्शनोक्ता, (वृ० प०६११) ६६. अथ तस्यैव द्विप्रदेशादिस्कन्धानां तां दर्शयन्नाह (वृ० प० ६११) ६७. दो भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मस्थि कायपदेसेहिं पुट्ठा? ६८. गोयमा ! जहण्णपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहि ६९,७० 'दो भंते !' इत्यादि, इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं -लोकान्ते द्विप्रदेशिक: स्कन्ध एकप्रदेशसमवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेशः (वृ०प०६११) ७१. इति नयमताश्रयणेनावगाहप्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वाद द्वाभ्यां स्पृष्टः, (वृ०प०६११) *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १. आकाशास्ति नो प्रदेश । श०१३, उ०४, ढा० २७८ १६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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