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________________ ३८. बलि बिहं दिशि रे मांय, रह्या धर्म-प्रदेश बे । ते साथे फर्शाय, इम चिउं प्रदेश करि फर्शणा ।। ३६. लोकांत कोणगत जेह, एक आकाश-प्रदेश जे। इक धर्म-प्रदेश कहेह, अवगायो तसु फर्शणा ।। ४०. तथा अन्य वलि एक, धर्म-प्रदेश ऊपर रह्यो। तथा अधस्तन पेख, ए बेहं नी फर्शणा ।। ४१. वलि बिहं दिशि रै मांय, रह्या धर्म-प्रदेश बे । ते साथे फर्शाय, पंच प्रदेश संघात इम ।। ४२. वलि एक आकाश-प्रदेश, त्यां रह्यो धर्म-प्रदेश इक । ऊपर एक विशेष, एक अधस्तन जाणवो । ४३. त्रिहं दिशि मांहे तीन, इम षट धर्म-प्रदेश करि । फर्श एम सुचीन, एक आगास-प्रदेश ते ॥ ४४. उत्कृष्ट सप्त संघात, एक आगास प्रदेश त्यां। धर्म-प्रदेश विख्यात, अवगाह रह्यो तसु फर्शणा ।। ४५. इक तल ऊपर एक, चिउं दिशि तणां प्रदेश चिउं । धर्म-प्रदेश विशेख, फर्श सप्त संघात इम' ।। (ज० स०) ४६. *एक प्रदेश आकाशास्तिकाय नों, अधर्मास्तिकाय ने जाण। प्रदेश करीनै फर्शवो, इणहीज रे रीत पिछाण ।। ४७. एक प्रदेश आगासस्थिकाय नों, आगासस्थिकाय नै ख्यात । फशैं किते प्रदेशे करी? जिन भाखै रे षट संघात ।। सोरठा ४८. इक प्रदेश लोकाकाश, तथा अलोकाकाश नों। रह्या छहूं दिशि पास, तास संघाते फर्शवो।। ४६. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि । ४७. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? छहि । ४८. 'छहिं' ति एकस्य लोका काशप्रदेशस्यालोकाकाशप्रदे शस्य वा षडदिग्व्यवस्थितैरेव स्पर्शनात् षड्भिरित्युक्तम् (वृ०प०६११) ४९. केवतिएहि जीवत्थिकायपदेसेहिं पुठे ? ४६. *इक प्रदेश आकाशास्तिकाय नों, जीवास्तिकाय नैं जाण । फर्श किते प्रदेशे करी? तब भाखै रे श्री जगभाण ।। ५०. कदाचित फ” अछ, ए लोकाकाश-प्रदेश । तास विवक्षा-वंछना, तिण आश्री रे फर्श विशेष ।। ५१. कदाचित फर्श नहीं, अलोक आकाश प्रदेश । तास विवक्षा-वंछना, कीजै रे तो फर्श नहि लेश ॥ ५०. सिय पुढे 'सिय पुढे' त्ति यद्यसौ लोकाकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः (वृ०प० ६११) ५१. सिय नो पुठे, 'सिय नो पुटठे' ति यद्यसावलोकाकाशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति (वृ० प० ६११) ५२. जइ पुढे नियमं अणंतेहिं । ५३. एवं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं बि, अद्धासमएहि वि। ५२. जो फर्श तो निश्चय थकी, अनंत जीव नां जाण । ___ अनंते प्रदेशे करी, फर्श रे प्रगट पहिछाण ॥ ५३. इक प्रदेश आगासत्थिकाय नों, पुद्गलास्तिकाय नै ख्यात। प्रदेश करि इम फर्शणा, इमहिज रे अद्धा समय संघात।। जीवास्तिकाय के प्रदेशों की स्पर्शना ५४. इक प्रदेश जीवास्तिकाय नों, धर्मास्तिकाय नैं जेह । केतले प्रदेशे करी, फर्श रे प्रश्न करेह ? ५४. एगे भंते ! जीवत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थि काय पदेसेहिं पुठे ? *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय १६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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