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________________ २६. जिन भाखे फफदा, लोक आश्रयी ताय । कदाचित फर्गे नहीं, अलोक आथयी रे ते कहिवाय ॥ ३०. जो तो जघन्य थी, इक वे तीन संघात | उत्कृष्ट धर्मास्तिकाय नै, सप्त प्रदेशे रे करि फर्शात ।। वा०-- एक आगासत्थिकाय नों प्रदेश धर्मास्तिकाय नां एक-वे प्रदेशे करी फर्शे, तेहनों न्याय कहे छँ – कोई एक एहवोज लोकांतवर्त्ती धर्मास्तिकाय प्रदेश शेष धर्मास्तिकाय प्रदेश थकी नीकल्यो, तिर्णे धर्मास्तिकाय प्रदेशे करी एक अग्रभागवर्त्ती अलोकाकाश-प्रदेश स्पश्य तथा वक्रगत तेहिज आकाश-प्रदेश ते दो धर्मास्तिकाय - प्रदेश संघाते फर्थ्यो । जेह अलोकाकाश दंतक प्रदेश ने आगे तथा नीचं तथा ऊपर धर्मास्तिकाय नां प्रदेश छै, ते आकाशास्तिकाय प्रदेश तीन धर्मास्तिकायप्रदेशे करी फर्थ्यो । उक्कोसपदे सतह - उत्कृष्टपदे एक आकाशास्तिकाय- प्रदेश सात धर्मास्तिकाय नै प्रदेशे फर्सी, ते किम ? जेह लोकांत कोणगत आकाश-प्रदेश, ते एक धर्मास्तिकाप- प्रदेश अयवाही रह्यो छँ, ते संघाते स्पर्शे । अनेरो एक धर्मास्तिकाय प्रदेश ऊपरवर्ती अथवा धर्ती ते मांहि एक संच विवि ने विषे धर्मास्तिकाय प्रदेश, ते संघात स्पर्श - इम एक आकाशास्तिकाय ने च्यार धर्मास्तिकाय- प्रदेश संघाते स्पर्शना हुवै । तथा जे आकाशास्ति प्रदेश धर्मास्तिकाय नां प्रदेश संघाते ऊपर १, नीचे १. बिदिशि २ स्पर्श तेहने पंचप्रदेश नीं स्पा हु तथा वे बलि ऊपर-नीचे २ तथा तीनई दिशि नं विषे वर्तमान धर्मास्तिकायप्रदेशे करी] स्पर्श तेहने यह प्रदेश नी फना हुवें । हिर्व उत्कृष्टपदेस प्रदेश करिते इसमे आकाश-प्रदेश १, ऊपर १, चिउं दिशि ४, एक अवगाही रह्यो– इम उत्कृष्टपदे आकाशास्तिकाय न धर्मास्तिकाये स्पर्शना थयां सात प्रदेशे करी फर्थ्यो । सोरठा । प्रदेश धर्मास्तिकाय नों एक प्रदेशज नीकल्यो । अलोक नां आकाश नों अग्र भाग जे एक, प्रदेश में फश्यों अर्थ | ३३. गत व आकाश प्रदेश, ए दोय धर्मास्तिकाय ने। प्रदेश करि सुविशेष, फर्थ्यो एक आकाश नें ॥ ३४. वलि जे लोकाकाश, दंडक जेह प्रदेश नें । धर्म- प्रदेश छै ।। आगल अधो विमास, वलि ऊपर ३१. "किहो लोकांत कहाय, शेष प्रदेश भी साय, ३२. ते धर्म-प्रदेश करि पेख ३५. इम इक आकाश-प्रदेश, तीन धर्म- प्रदेश करि । फर्जी छ विशेष ए न्याय तीन प्रदेश नों ॥ ३६. लोकांत कोणगत जेह एक आकाश-प्रदेश जे। इक धर्म- प्रदेश कहे, अवगाह रह्यो तसु फर्मणा ॥ धर्म- प्रदेश ऊपर रह्यो । बिहु में इक फर्शणा ।। ३७. तथा अन्य वलि एक, तथा अधस्तन पेख, ए Jain Education International २९. गोवा सिव पुट्ठे सिनो पु 'सिप पुट्ठे' ति लोकमाश्रित्य 'यो पुट्ठे' ति अलोकमाश्रित्य ( वृ० प० ६११) २०. ज पुट्ठे जण एक्हेण वा दोहि वा ती वा उक्कसप सतह | वा. एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्यलोकाका प्रदेश : स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्वातोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्ति कायप्रदेश: स्पष्टः, For Private & Personal Use Only यस्त्वेवं लोकान्ते कोणगतो व्योमप्रदेशो ऽस वेकेन धर्मास्तिकाय प्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्तिनायोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिगद्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुभिः यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्त्तमाने धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पञ्चभिः यः पुनरध उपरि च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवसंमानेन धर्मास्तिकायदेशेन पृष्टः स पद्मः यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभि म्रादेशः स्पृष्टो भवतीति (बु०प०६११) श० १३, ३०४, ढा० २७८ १६५ www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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