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________________ ३८. 'शुभ जोग रूप जागरणा, तेहनों छे इहां वागरणा जो॥ ३६. जसु अशुभ जोग वरतायो, ते कथन इहां न कहायो जी ॥[ज.स.] ४०. हे भगवंत ! इम कही वाणी, गोतम गणधर गुणखाणी जी।। ४१. जिन वंदी नमण करीन, इम पूछे हरष धरीने जी ।। ४२. हे भगवंत ! किती जागरणा? कृपा करी करो वागरणा जी। ४३. जिन भाख तीन प्रकारो, जागरणा कहि सारो जी।। ४४. बुद्ध-जागरणा पहली छै, केवल अवबोध करी छै जी। ४०,४१. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंद इ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी४२. कतिविहा णं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? ४३. गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता । ४४. बुद्धजागरिया बुद्धाः केवलावबोधेन (वृ० ५० ५५५) ४५. अबुद्धजागरिया अबुद्धाः केवलज्ञानाभावेन । (वृ० प० ५५५) ४६. सुदक्खुजागरिया। (श० १२।२०) ४७. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्च इ-तिविहा जागरिया पण्णत्ता। ४५. जागरणा अबुद्ध कहायो, तसं केवलज्ञान न पायो जी॥ ४६. सुदक्खु-जागरणा जाणी, ए श्रावक नी पहिछाणी जी। ४७. किण अर्थे प्रभु ! इम आखी, जागरणा तीनज दाखी जी? ४८. भाखै तब श्री जिनरायो, त्रिण जागरणा न न्यायो जी ।। ४६. जे अरिहंतो भगवंतो, उपनो तसु ज्ञान अनंतो जी। ५०. वलि केवलदर्शनधारो, जिम खंधक मैं अधिकारो जी। ५१. यावत सह द्रव्य जाणता, वलि सर्व वस्तु देखता जी । ५२. केवलज्ञान छै जेहन, वर बुद्ध कहीजै तेहनै जी।। ५३. अजाणपणो तसु नांही, तिण करि जाग्या छै त्यांही जी।। ५४. बुद्ध-जागरिका तसु कहियै, हिव न्याय अबुद्ध नोंलहियै जी। ५५. जे ज्ञानवंत अणगारा, वर पंच समितधर सारा जी। ५६. ते जाव गुप्त ब्रह्मचारी, छद्मस्थ संत सुविचारी जी ॥ ५७. ज्यां केवलज्ञान न पायो, तिण कारण अबुद्ध कहायो जी। ५८. जे जागरिका प्रति जागै, ते अबुद्ध जागरिका साग जी ।। ५६. जे समणोपासक साचा, जीवादिक जाण्या जाचा जी। ६०. यावत मुनि प्रतिलाभंता, ते विचरै छै मतिवंता जी। ४९,५०, गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाण दंसणधरा जहा खंदए (भ० २।३८)। ५१. जाव (सं० पा०) सव्वष्णू सवदरिसी। ५२-५४. एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति । बुद्धा: केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति । ५५. जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया"। ५६. जाव (सं० पा०) गुत्तबंभचारी। ५७. एए णं अबुद्धा। ५८. अबुद्ध जागरियं जागरंति । ५९. जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा । ६०. जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावे माणा बिहरंति६१. एए णं सुदक्खु जागरियं जागरंति । ६२. से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तिविहा जागरिया पण्णत्ता। (श०१२।२१) ६३. तए णं से संखे समणोवासए समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता । ६४. अथ भगवन्तं शंखस्तेषां मनापरिकुपितश्रमणोपासकानां कोपोपशमनाय क्रोधादिविपाकं पृच्छन्नाह (वृ० ५० ५५६) ६५. कोहवसणं भंते ! जीवे कि बंधइ ? कि पकरेइ ? किं चिणाइ? कि उवचिणाइ? ६६,६७. संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ ६८. सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ । ६९.७०. एवं जहा पढमसए (भ० ११४५) असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियट्टइ। (श०१२।२२ पा०टि०८) ६१. सुध सम्यक्त्व करि जागै, सुदक्खु-जागरिका सागैजी ॥ ६२. गोतम ! तिण अर्थे ए आखो, जागरिका त्रिविध भाखी जी। ६३. हिव संख श्रावक तिणवारो, जिन वंदी करि नमस्कारो॥ ६४. श्रावक नों कोप मिटावा, फल क्रोध प्रश्न सद्भावा जी। ६५. प्रभु! क्रोध तण वस पोड़ित, स्यूं बंध पकर चिण उपचित जी ? ६६. जिन भाखै संख ! अतोवा, क्रोधे करि पीड़ित जीवा जी। ६७. आऊखो वर्जी सोयो, सप्त कर्म प्रकृति अवलोयो जी ।। ६८. ढील बंधन जे बंधी, दृढ बंधन करै सुसंधी जी ।। ६६. इम प्रथम शतक अधिकारो, कह्यो असंवत अणगारो जी।। ७०. तिण रीत इहां पिण कहियै संसार अनंत दुख लहिये जी ।। ८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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