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________________ ७६. बहु वच नारक न व्यंतरपणे कोइ जोतिषोषणं पिछाण । वैमानिकपणे जेम नारकपणे, आरुयूँ तिम कहिं जाण ।। ७७. जावत वैमानिक जे देव ने वैमानिकपणे विचार । एवं सातू पिण पुदगल परियट्टा, कांइ भगवा जिन वच सार ॥ ७८. जेहने तिहां अतीतपणे कोइ आगल पिण है अनंत । जेहनें नहीं सिंहां अतीत अनागत, ते परावर्त नहीं हूंत ॥ बा० - इहां ए भावार्थ- नारकी नैं नारकीपण वैक्रिय शरीर छँ तो वैक्रिय पुद्गल - परावर्त्त नारकपणें अतीत अनागत बेहुं पृथक दंडक भणी अनंता कहिवा सामान्यपणे नारकी नां आश्रय थकी तथा नारकोपण औदारिक पुद्गल ग्रहवा नां अभाव थकी औदारिक पुद्गल - परावर्तन अतीत तथा अनागत एदोनूं नहीं इम सगल भावना करिवी । ! ७६. जाव वैमानिक जे देव ने वैमानिकपणे विचार आगापा पोग्गल परियह किता ? जिन कहे अनंता धार ॥ ८०. काल अनागत करिये केतला ? जिन पुद्गल परावर्त करिस्यै जिके, ए यह ८१. आख्यो ए देश बारमा तुर्य नों, बेसौ कहे अनंता जेह वचने करि लेह ॥ छपनमीं ढाल | भिक्षु भारीमाल राय प्रसाद थी, कांइ 'जय जय' मंगलमाल || ढाल : २५७ औदारिक आदि पुद्गल परावर्तनों स्वरूप सोरठा १. अथवा औदारिक आद, परावर्त्त पुद्गल तणो । स्वरूप प्रति संवाद कहिये देखाडवा अरथ ।। दूहा २. वलि गोतम पूछे अखे ओदारिक पुद्गल प्रभु ! ३. वीर प्रभू तिण जिन वच सरधे तेहनें, अवसरे, Jain Education International किण अर्थ कहियाय ? परावर्त ए ताय ।। उत्तर देव एम कुशल नैं खेम ॥ सदा * चित्त लगाय नैं सांभलै ॥ [ ध्रुपदं ] ४. जीव ओदारिक तनु रह्यो, ओदारिक प्रायोग्य हो, गोतम! ग्रहण करे सह द्रव्य ने गहियाई ग्रहे योग्य हो, गोतम ! *लय: स्वामी ! म्हारा राजा नै धर्म सुणावज्यो ७६. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते । ७७. एवं जाव वैमाणियाणं वेमाणियते । एवं सत्त वि पोगरपट्टा भागिया ७८. जत्थ अस्थि तत्थ अतीता वि पुरेक्खडा वि अनंता भाणियव्वा, जत्थ नत्थि तत्थ दोवि नत्थि भाणियव्वा । ७९. जाव परियट्टा अतीता ? अनंता । ८०. केवतिया पुरेक्खडा ? अनंता । ( श० १२/९५ ) से देवनिया आणापाशुपोमल १. अथौदारिकादिपुद्गलपरावर्त्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह— ( वृ० प० ५६९ ) (3TO PRISE) २. से केणट्ठेण भंते ! एवं वुच्चइ -ओरालियपोग्गलपरिय- मोरासियोपरि ? For Private & Personal Use Only ४५. गोयमा ! जणं जीवेणं ओरालियसरीरे वट्टमाणेणं ओरालि यसरीरपायोग्गाई दव्बाई ओरालिय सरीरत्ताए गहियाई बढाई J श० १२, उ० ४, ढा० २५६, २५७ ४५ www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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