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________________ १८. *किण अर्थ प्रभु ! अव्याबाधा, देवा इम कहिवाणियै ? जिन कहै इक इक अव्याबाध सुर समर्थ ते पहिछाणियै ॥ १६. इक इक पुरुष आंख नां, इक इक भांपण ऊपर ठाणियै । दिव्य प्रधान जे देव संबंधी, ऋद्धिप्रतं पहिछाणियै ॥ २०. दिव्य देवद्युति दिव्य देवअनुभाव प्रती वलि आणियै । देव संबंधी बत्तीस प्रकारे नाटक विधि प्रति ठाणिये ॥ २१. नाटक जेह देखाड़वा समर्थ, तेह पुरुष ने जाणियै । किंचित बहुत बाधा न पमावे', इस निश्वे दिल आणिये ॥ २२. अथवा छेद छवी नो न करें, देव शक्ति करि जाणियै । एवो सूक्षम जेम हुवे तिम, नाटक विधि प्रति ढाणिये ॥ २३. एहवा नाटकविध प्रति देखाड़ण, समयं ते सुर माणियै । तिण अर्थे जावत ते देवा, अव्याबाध बखाणियै ।। शकशक्ति पद २५. ते सिर छेद कमंडलु माहे, जिन कहै हंता समर्थ छै ते २६. श्री जिन भाखे छेदी- छेदी नें, कूष्मांडादिक नीं पर सूक्षम २४. समर्थ छै प्रभु ! शक सुरिंद्र, सुरां तणो राजा सही । पुरुष तणां मस्तक प्रति छेदै स्वहृत्य खड़ग प्रत ग्रही ॥ [ बलिहारी हो स्वाम तभी सही ।] प्रक्षेपवा समर्थ सही ? केम प्रक्षेप करें वही ? क्षुरप्रादिक करनें वही । खंड करीनैं प्रक्षेपही || २७. भेदी भेदी विदारी- विदारी, कपड़ा नीं पर ए कही। ऊर्द्ध फाड करीने पाछे कमंडलू मांहे प्रक्षेपही ॥ 2 २८. वलि तेहनों शिर कूटी-कूटी नें, जेम ऊखलादिक मही । तिल प्रमुख ने कूटै तिम कूटी, कमंडलु मांहे प्रक्षेपही ।। २६. चूरी-चूरी नें चूर्ण करनें, जेम सिलादिक नैं मही । चूरण द्रव्य तणी पर कर नें कमंडलु मांहे प्रक्षेपही ॥ ३०. तेह कमंडलु मां प्रक्षेपण कियां पर्छ जे शीघ्र ही । ते शिर पाछो मेल करि एकठं पुरुष नैं पीड़ हुवै नहीं ॥ *लय : बलिहारी भीखणजी स्वाम की १. जोड़ में आवाहं पबाहं—इन दो शब्दों की व्याख्या है । अंगसुत्ताणि भाग २ में बाहं के स्थान पर वाबाहं पाठ है। वहां पबाहं को पाठान्तर में लिया गया है । २०४ भगवती जो Jain Education International १०. से एवं वृषभव्यवाहा देवा, अव्वाबाहा देवा ? गोयमा ! पभू णं एगमेगे अव्वाबा देवे १९. एगमेगस पुरिसरस एवमेसि असि दिव्यं देविड्ढि २०,२१. दिव्वं देवज्जुति, दिव्वं देवाणुभागं, दिव्वं बत्तीसविविनविहिताए । नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाह वा उप्पाएइ 'आबाहं व' त्ति ईषद्बाधां 'पबाहं व' त्ति प्रकृष्टबाधां 'वाबा'ति स्वचित् यत्र तु 'ब्यावायां' विष्टामाबाधां । (बु०प०६५४) २२, २३. छविच्छेयं वा करेइ, एसुमं च णं उवदसेज्जा । से वेगद्वेगं गोपमा ! एवं पुष्पद अव्यावहादेवा अव्वाबाहा देवा । (०१४०११४) २४, २५. पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया पुरिसस्स सीस पाषिणा असणाचिदिता कमंडलुं पक्खिवित्तए ? ( श० १४ । ११५ ) हंता पभू । से कमदाणि पकरेति ? २६. गोयमा ! छिदिया- छिदिया च णं पक्खिवेज्जा । 'दिवाविति छियाछिया दुरादिना कूष्माण्डादिकमिव मण्डीमेवर्थः । ( वृ० प० ६५४ ) २७. भिदिया- भिदिया च णं पक्खिवेज्जा । 'मिदिप'ति विदायपाटन शाटकादिकमिव । (२००६५४) २८. कोडिया-कोडिया च मे परिधवेच्या । 'कुट्टिय' तिकुवाउनाहादिकमिव । ( वृ० प० ६५४ ) २९. वाणिया 'चुन्नियति चूर्णयित्वा शिलाया शिलापुकादिना गन्धद्रव्यादिकमिव । (बु०प०६५४) ३०. तो पच्छा खियामेव पडिपाएजा | 'ततो पच्छ' ति कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तरमित्यर्थः परिसंघाएन' त्ति मीलयेदित्यर्थः । (बु०प०६५४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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