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सोरठा
संसार
में।
२०. नारक प्रमुख विचाल, आदि रहित विचाल आदि रहित प्रकार, परावर्तन- पुद्गल
भमता
सप्त
का ॥ २१. *इक इक नारक नैं भगवंत जी ! किया गया काल है मांय । ओदारिक परावर्त्त पुद्गल किता ? जिन कहै अनंता थाय ॥
To - अतीत काल में अनंता पुद्गल परावर्त्तन जाणवा । ते अतीत काल नैं अनादिपण थकी अनं जीव ने अनादिपणां थकी । वलि अनेरा-अनेरा पुद्गल ग्रहण सरूपपणां थकी ।
२२. काल आगमिये करिस्ये केतला ? तब भाखे श्री जिनराय । कोइक नैं परावर्त्त पुद्गल अछे, कोइक नैं कहिये नांय ॥
सोरठा
२३. कोई एक जे जीव, दूर अथवा अभव्य अतीव जसु २४. कोइक नें पहियाण, परावर्त-पुद्गल नरक थकी जे जाण, नीकल नर भव' शिव २५. भव संख्यात करेह, तथा असंख भवे शिव गति जास्ये तेह, तेहने पिण परावर्त
भव्य शिव दूर तसु । पुद्गल परावर्त -
छे ।
२६. काल अनंतो
होय, परावर्त्त-पुद्गल तणो । तिण कारण अवलोय, भव अनंत कह्या इहां ॥ २७. *पुद्गल - परावर्त्त जेहनें अछे, इक बे त्रिण जघन्य निहाल । उत्कृष्ट संख असंख अनंत ही, करिस्ये आगमिये काल || हिवे असुरकुमार साथी क
२८. इक इक असुर त भगवंत जी ! किया गया काल रे मांय । ओदारिक परावल किया। इस नरक जेम कहियाय ।। परावर्त्त ! २६. एवं यावत वैमानिक लग सहु, कांइ काल अनागत हुंत । जेहनें है इक वे त्रिण तसु जघन्य थी, उत्कृष्टसं असंल अनंत ।। हि वैक्रिय शरीर आश्री कहे छे
नथी।
हुये ॥
३०. इक इक नारक नैं भगवंत जी ! थया गया काल रे मांहि । वैक्रिय परावर्त्त- पुद्गल किता ? जिन कहै अनंता ताहि ॥ ३१. इम जिम ओदारिक पुद्गल-परावर्त कह्या
*सप वीर जिनेश्वर सुन्यो मोरी वीनती
करी ।
नहीं ।।
तिम वैक्रिय पिण भणवा तास । एवं यावत वैमानिक लग सहु, इम जाव उस्सास निस्वास ॥ ३२. एनारक प्रमुख एक वचने कह्या, ओदारिकादि सप्त प्रकार। पुद्गल विषयपणां भी हूं जिको कांई दंडक सप्त विचार ॥ चवीस दंडक में सप्त सप्त हुवै ॥
१. हस्तलिखित प्रति में यहां भव्य शब्द है ।
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२०. 'नेरइयाणं' ति नारकजीवानामनादौ संसारे संसरता सप्तविधः परावतः प्रज्ञप्तः (० प० ५६०
२१. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया ओरालियपोमलपरियट्टा अतीता ? वगता
वा० - ' एगमेगस्सेत्यादि, अतीतानन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्य जीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुद्गलग्रहणस्वरूपत्वाच्चेति । ( वृ० प० ५६८ )
२२.?
कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि ।
'पुरक्खडे' ति पुरस्कृता भविष्यन्तः । ( वृ० प० ५६८ )
२३. 'कस्सइ अस्थि' त्ति कस्यापि जीवस्य दूरभव्यस्याभव्यस्य वा ते सन्ति । ( वृ० प० ५६८ ) २४. कस्यापि न सन्ति उद्धृत्य यो मानुषत्वमासाद्य सिद्धि यास्यति । ( वृ० प० ५६० )
यः सिद्धि तस्यापि (पु०प०५६०)
( वृ० प० ५६८ )
२५. संख्येयर संख्येयैर्वा भवैर्यास्यति परिवर्त्तो नास्ति ।
२६. अनन्तकाल पूर्यत्वात्तस्येति ।
२०. जस्स जो एक्को वा दो वा तिष्णि वा, उक्को सेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा । (० १२२८८)
२८, २९. एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स केवइया ओरालियोलपरियट्टा (संपा.) एवं जेब जाव एवं जाव वैमाणियस्स ।
( ० १२००५)
३०. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवइया वेउब्वियपोग्गल परियट्टा अतीता ? अनंता ।
२१. एवं हे ओरालिपपलपरियट्टा तहेव उब्वियपोग्गलपरियट्टावि भाणियव्वा । एवं जाव मायरस एवं जाय वाणापाणुपासपरियट्टा । ३२. एते एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति ।
'एगत्तिय'
त्ति
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( ० १२००६) एकत्विकाः – एकनारकाद्याश्रयाः
श०१२, उ० ४, ढा० २५६ ४१
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