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________________ ७. अनंत-अनंता ह अछ, पुद्गल-परिवर्तन । अन्य जिने पिण आखिया, तेह जाणवा मन ।। ८. परावर्त्त-पुद्गल हिवै, कहियै छै इहवार । श्रोता! चित दे सांभलो, जिन वच अधिक उदार।। ७. अणंताणता पोग्गलपरियट्टा समणगंतव्वा भवंतीति मक्खाया। (श०१२।८१) ८. अय पुद्गलपरावर्तस्यैव भेदाभिधानायाह (वृ० ५० ५६८) ९. 'पुग्गलपरियट्ट' त्ति पुद्गलैः पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्ताः-परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः। (वृ० ५० ५६८) सोरठा ६. पुद्गल द्रव्य कर साथ, बहु परमाणू नों मिलन । तेह प्रते आख्यात, परावर्तन-पुद्गल प्रगट ।। __ *वीर जिनेंद्र कहै सुण गोयमा ! [ध्रुपदं] १०. पुद्गल-परावर्त भगवंत जी ! कांइ आख्यो किते प्रकार? जिन कहै सप्त प्रकार परूपियो, ते सांभलज्यो विस्तार । ११. ओदारिक शरीर विषे जीव वर्त्तता, ओदारिक तनु प्रयोग। जे द्रव्य ते ओदारिकपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए ओदारिक परावर्त-पुद्गल कह्यो । १०. कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते तं जहा११. ओरालियपोग्गलपरियटे। 'ओरालियपोग्गलपरियट्टे' त्ति औदारिकशरीरे वर्तमानेन जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्यद्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसाबौदारिकपुद्गलपरिवर्तः । (व०प० ५६८) १२. वेउवियपोग्गलपरियट्टे । १३. तेयापोग्गलपरियटे। १४. कम्मापोग्गलपरियट्टे । १५. मणपोग्गलपरियट्टे । १६. वइपोग्गलपरियट्टे । १२. वैक्रिय शरीर विषे जीव वर्त्तता, कांइ वैक्रिय तनु प्रयोग। जे द्रव्य ते वैक्रिय शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त वैक्रिय कह्यो। १३. तेजस शरीर विषे जीव वर्त्ततां, कांइ तेजस तनु प्रयोग। जे द्रव्य तेजस शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त तेजस कहो।। १४. कार्मण शरीर विष जीव वर्त्ततां, कांइ कार्मण तनु प्रयोग । जे द्रव्य कार्मण शरीरपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त कार्मण कहो। १५. मन नै जे विषे जीव वर्त्ततां थकां, कांइमन प्रायोग्य पिछाण । जे द्रव्य छै तेहनै मनपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए पुद्गल-परावर्त मन जिन कहो।। १६. वचन नै विषे जीव वर्त्ततां थकां, कांइवचन प्रायोग्य विशेख। जे द्रव्य छै तेहने वचनपणे करी, समस्तपणे ग्रहै पेख । ए पुद्गल-परावर्त्त वच जिन कह्यो ।। १७. आन अरु पान विषे जीव वर्त्ततां, कांइ आन रु पान प्रायोग। जे द्रव्य आन रु पानपणे करी, समस्तपणे ग्रहै जोग। ए आन रु पान पुद्गल-परावर्त कह्यो। हिवै चउवीस दंडक आश्री पुदगल-परावर्त १८. नारक मैं किते प्रकार कह्यो, प्रभ! पुदगल-परावर्त पिछान? जिन कहै सप्त प्रकार परूपियो, ते सांभलजे सूविधान । श्री वीर जिनेंद्र कहै सुण गोयमा ! ]॥ १६. ओदारिक परावर्त्त-पुद्गल वलि, कांइ जाव उस्सास निस्वास। ए सप्तविध परावत्तं-पुद्गल कह्या, इम जाव विमानिक तास।। *लय : वीर जिनेश्वर सुणज्यो मोरी बीनती ४० भगवती जोड़ १७. आणापाणुपोग्गलपरियट्टे । (श० १२०८२) १८. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णते। १९. तं जहा-ओरालियपोग्गलपरियट्टे....... " जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे। एवं जाव वेमाणियाणं । (श० १२१८३) Jain Education Intemational Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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