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________________ १४३. कहि णं भंते ! लोए बहसमे, कहि णं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? बहुसम द्वार १४३. प्रभु ! लोक अत्यंत समो किहां, हानि वृद्धि करि रहित हो, प्रभुजी ! किहां सर्व थी सांकड़ो, ते सर्व विग्रहिक' कहित हो ? प्रभजी! १४४. जिन कहै रत्नप्रभा पृथ्वी, तास विषे कहिवाय हो, गोयम ! ऊपरलो नै हेठलो, क्षुल्लक प्रतर विषे ताय हो, गोयम ! १४५. ऊपरलो जे प्रतर लघु, ते प्रति अवधि करेह हो, गोयम ! ऊंची प्रतर नी वृद्धि, प्रवृत्ता छै तेह हो, गोयम ! १४६. वली हेठलो प्रतर लघु, ते प्रति अवधि करेह हो, गोयम ! नीची प्रतर नी वृद्धि, प्रवृत्ता छ तेह हो, गोयम ! १४७ ए बिहु प्रतर छ तिके, शेष प्रतर नी पेक्षाय हो, गोयम ! नान्हा छै तिण कारणे, क्षुल्लक प्रतर कहिवाय हो, गोयम ! १४८. ते बिहु प्रतर छै तिके, रज्जु प्रमाण विचार हो, गोयम ! आयाम विक्खंभपणे तिको, आख्या वृत्ति मझार हो, गोयम ! १४६. मध्यवर्ती तिरछा लोक नै, नवसौ योजन हेठ हो, गोयम ! नवसौ योजन उर्द्ध छ, ते तिर्यक लोक मध्य नेठ हो, गोयम ! १५०. बह सम लोक इहां कह्यो, वृद्धि हानि करि रहित हो, गोयम ! वक्र सर्व थी सांकड़ो, ते पिण इहां कहित हो, गोयम ! १५१. किहां अछ भगवंत जी! लोक तणों अवलोय हो, प्रभूजी ! विग्रह विग्रहिक शरीर छ, वृद्धि हानि जिहां होय हो ? प्रभुजी! १४४. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम हेट्ठिल्लेसु खुड्डगपयरेसु । १४५. उपरिमो यमवधोकृत्योर्ध्व प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता। (वृ० प० ६१६) १४६. अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता। (वृ०प०६१६) १४७-१४९. ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवत्तिनोः। (व०प०६१६) १५२. जिन वहै विग्रहकंड ते, ब्रह्मकल्प नां पिछान हो, गोयम ! कूपर खूणो छै तिहां, प्रदेश नी बृद्धि हान हो, गोयम ! १५०. एत्थ णं लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते। (श० १३।८८) १५१. कहि णं भंते ? विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते ? 'विग्गहविग्गहिए'त्ति विग्रहो---वक्रं तयुक्तो विग्रहःशरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः । (वृ० प०६१६) १५२. गोयमा ! विग्गहकंडए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते। (श०१३।८९) 'विग्गहकंडए' त्ति विग्रहो-वक्रं कण्डक-अवयवो विग्रहरूपं कण्डक-विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूपर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्धया हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं । (वृ०प०६१६) १५३. किसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठियसंठिए लोए पण्णत्ते । संस्थान द्वार १५३. प्रभू ! स्यं संस्थाने लोक छै? तब भाखै भगवान हो, गोयम ! सुप्रतिष्ठक संस्थिति, तास न्याय इम जान हो, गोयम ! सोरठा १५४. अर्थ विषे अवदात, सराव संपुट संस्थित । केयक इम आख्यात, कलस ऊपरै कलस जिम।। १५५. केइ कहै सराव तीन, तलै सराव अधोमुखी। ऊपर संपुट चीन, ऊर्द्धमुखो में अध:मुख ।। १५६. *हैठे विस्तीर्ण कह्यो, मध्य सांकड़ो न्हाल हो, गोयम ! जेम सातमा शतक मैं, प्रथम उद्देशे भाल हो, गोयम ! १५७. कयो सरूपज लोक नों, कहिवो तिणहिज रीत हो, गोयम ! जाव अंत कर दुख तणो, इतला लग सुवदीत हो, गोयम ! १. वक्र । *लय : सीता ओलखाब सोकां भणी १५६,१५७. हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते - जहा सत्तमसए पढमुद्देसे (सूत्र ३) जाव (सं० पा०) अंतं करेति । (श० १३।९०) १८४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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