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पंचविध देवों का अन्तर पद १०. *अंतर भव्य-द्रव्यदेव नों साहिबजी!
९०. भवियदब्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं भव्य-द्रव्यसुर मर सोय हो, जशधारी ! होइ ? काल केतलै ह वली साहिबजी !
भव्य-द्रव्यसुर जोय हो ? जशधारी ! ६१. श्री जिन भाखै जघन्य थी गोयमजी!
९१. गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तवर्ष सहस्र दश देख हो, जशधारी! मब्भहियाई: अंतर्महत अधिक ही गोयमजी!
तास न्याय संपेख हो, जशधारी !
सोरठा १२. वृत्ति विषे इम वाय, भव्य-द्रव्यदेव ते मरी। ९२,९३. भव्यद्रव्यदेवो भूत्वा दशवर्षसहस्रस्थितिष ___व्यंतर में उपजाय, शुभ पृथ्व्यादिक में जई ।। व्यन्तरादिषत्पद्य च्युत्वा शुभपृथिव्यादौ गत्वाऽन्तर्मुहूर्त १३. अंतर्महल स्थित्त, मरी वलि भव्य-द्रव्यसुर हुवे। स्थित्वा पुनर्भव्यद्रव्यदेव एवोपजायत इत्येवं एतच्च
एहवो न्याय प्रवृत्त, मत ए टीकाकार नों॥ टीकामुपजीव्य व्याख्यातं । (वृ० प० ५८७) १४. अन्य आचार्य कहै एम, बद्धायु भव्य-द्रव्यसुर। ९४,९५. अन्ये पुनराहुः ...इह बद्धायुरेव भव्यद्रव्यदेवोऽभि
इहां वंछयो धर प्रेम, जिम जघन्य स्थितिए देव थइ ।। प्रेतस्तेन जघन्यस्थितिकाद्देवत्वाच्च्युत्वाऽन्तर्मुहूर्त६५. त्यांथी चवी सुभेव, अंतर्महत स्थितिक फून । स्थितिकभव्यद्रव्यदेवत्वेनोत्पन्नस्यान्तमहत्तोपरि देवाथयो भव्य-द्रव्यदेव, तृतीय भाग में आयु बंध ।।
युषो बन्धनाद् यथोक्तमन्तरं भवतीति ।
(वृ० ५० ५८७) वा०-जिम दश हजार वर्ष नो जघन्य देवायु भोगवी पछ अंतर्मुहूर्त नां आउखे सन्नी तिर्यच में ऊपनों। तिहां वलि अंतर्मुहूर्त नों तीजो भाग ते पिण अंतमहत कहिये । तिण में देवायु बंध्यो । तिवारे तेहनै भविय-द्रव्यदेव कहिये । इम दश हजार वर्ष अंतर्मुहुर्त अधिक अन्तर जाणवो। १६. तथा
भव्य-द्रव्यदेव, अंतर्महत आउखो। ९६,९७. अथवा भव्यद्रव्यदेवस्य जन्मनोर्मरणयोर्वाऽन्तरस्य तास जन्म थी हेव, मरण अवंतर जाणवं ।। ग्रहणाद यथोक्तमन्तरमिति। (वृ०प०५८७) ६७. ते भव्य-द्रव्यसुर थाय, यथोक्त अंतर इह विधे ।
ए सगलोई न्याय, टीका मांहि कह्यो अछै ।। १८. *भव्य-द्रव्यसुरनों आंतरो गोयमजी!
९८. उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो । उत्कृष्टो कहिवाय हो, जशधारी !
(श० १२।१९२) काल अनंतो आखियो गोयमजी!
वनस्पति रै न्याय हो, जशधारी !
सोरठा ६६. भव्य-द्रव्यसुर न्हाल, सुर थई वनस्पति हवै।
रही अनंतो काल, भव्य-द्रव्यसुर ह वली ।। १००. "प्रभु ! अंतर कितो नरदेव नो साहिबजी!
१००. नरदेवाणं-पुच्छा। जिन कहै जघन्य थी ताय हो, जशधारी! गोयमा ! जहणणं सातिरेगं सागरोवमं । सागर एक जाझो कह्यो गोयमजी!
"जहण्णेणं साइरेगं सागरोवमं' ति कथम् । निसुणो तेहनों न्याय हो, जशधारी !
(वृ० ५० ५८७)
*लय : शीतल जिन शिवदायका
९८ भगवती जोड़
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