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________________ नी स्थिति कहै छै--ते माट तिहां कृष्ण तथा तेजु नी जघन्य दश हजार वर्ष जे देवपण वत्तँ, तेहिज लेखवी । पिण पूर्व उत्तर भव नी लेश्या न लेखवी। तब वलि शिष्य पूछ-- जो इम छै तो पद्म नी उत्कृष्ट स्थिति दश सागर मुहर्त अधिक किम कही ? गुरु कहै--ए पूर्व उत्तर भव ना बे अंतर्मुहर्त नो मुहूर्त काल देव सम्बन्धिनी लेश्या में हीज लेखव्यो छ। तब शिष्य पूछ ----भगवान ! जे पूर्व उत्तर भव नै विषे लेश्या आवै ते देव संबंधिनी किम लेखविय ? तेहनों उत्तर-अनुयोगद्वारे जाणग-शरीर-भविय-शरीरव्यतिरक्त त्रिविध द्रव्य शंख कह्या-एकभविक द्रव्य शख, बद्धायुष्क शंख और अभिमुखनामगोत्र शंख । तिहां नंगम, संग्रह और व्यवहार नय नै मते तीन इहां शंख छ । ऋजुसूत्र नय नै मते बद्धायुष्क अनै अभिमुखनामगोत्र ए शंख बंछ । त्रिण शब्द नय नै मते जे शंख में ऊपजवा सन्मुख थयो ते अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण अभिमुखनामगोत्र शंख कहिये, तेहन वंछ। तिम मनुष्य अन तिर्यंच पंचमें देवलोके ऊपजतां छेहड़े अंतर्महर्त काल प्रमाण तेहनै अभिमुखनामगोत्र देव कहिय । तेहनी पद्म लेश्या ते देवसम्बंधिनी लेश्या कहियै । इम पंचमां देवलोक थकी चवी मनुष्य तिर्यंच में ऊपजै तेहनै अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण पद्म लेश्या हुवै । ते पिण देव लेश्या देवसम्बंधिनी जाणवी । इण न्याय पद्म नी स्थिति दस सागर महर्त्त अधिक कही। पन्नवणा पद २३ में दूजे उद्देशे सू० ७८ में नारकी ना आउखा-कर्म नीं स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष नै अंतर्मुहूर्त अधिक कही । ते अंतर्मुहूर्त थाकते पूर्व भव नै विषे आउखो बांध्यो, ते लेखव्यो। तिम इहां पद्म लेश्या नी स्थिति दस सागर मुहूर्त अधिक कहो, ते पूर्व उत्तर भव नां बे अन्तर्महतं में पद्म लेश्या आवै ते लेखवी । (ज० स०) ६१. *आणत पाणत कल्प में रे, किता सैकडां विमाणो रे ? श्री जिन भाखै च्यार सौ रे, तेह आवासा जाणो रे ।। जाणगसरीर - भवियसरीर - वतिरित्ता दव्वसंखा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - एगभविए बद्धाउए अभिमुहनामगोत्ते य ....इयाणि को नओ के संखं इच्छइ? नेगम-संगह-बवहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहा-एगभवियं बद्धाउयं अभिमुहनामगोत्तं च । उज्जुसुओ दुविह संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च अभिमुहनामगोतं च। तिण्णि सद्दनया अभिमुहनामगोत्तं संख इच्छंति । (अणु० सू० ५६८) ६२. ते प्रभु !संख योजन तणां रे, के असंख योजन विस्तारो रे? जिन कहै योजन सख नां रे, असंख योजन पिण सारो रे ।। ६१. आणय-पाणएसु णं भते! कप्पेसु केवतिया विमाणा वाससया पण्णता? गोयमा! चत्तारि विमाणावाससया पण्णत्ता। ६२. ते ण भने !कि संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि । ६३. एवं संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा जहा सहस्सारे, ६४. असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जतेसु चयंतेसु य एवं चेव संखेज्जा भाणियव्वा, ६३. संख्याता विस्तार में रे, तीन गमा अवदातो रे। जिम सहस्सार विषे कह्या रे, कहिवा तिम संख्यातो रे ।। ६४. असंख विस्तार विषे वली रे, संख्याता उपजतो रे । संख्याताज चवै अछ रे, तसु न्याय सुणो धर खंतो रे ।। सोरठा ६५. आणत प्रमुख रै माय, सन्नी मनुष्यज ऊपजै । चव्या सन्नी मनु थाय, तिण संख्याता कह्या ।। ६६. इण कारण थी जोय, समय करी संख्यात नों। ऊपजवो तसु होय, चववो पिण संख्यात नों। ६५,६६. आनतादिसूत्रे 'सखेज्जवित्थडेसु' इत्यादि, उत्पादेऽवस्थाने च्यवने च संख्यातविस्तृतत्वादविमानानां संख्याता एव भवन्तीति भावः, असंख्यातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः संख्याता एव, यतो गर्भजमनुष्येभ्य एवानतादिषूत्पद्यन्ते ते च संख्याता एव, तथाऽऽनतादिभ्यश्च्युता गर्भजमनुष्येष्वेवोत्पद्यन्तेऽतः समयेन संख्यातानामेोत्पादच्यवनसम्भवः, (वृ० ५० ६०३,६०४) *लय : राज पामियो रे करकंडु कंचनपुर तणो रे १४६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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