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________________ १५७. इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः (वृ० प० ६१२) सोरठा १५७. इहां समय वर्तमान, विशिष्ट परमाणु तिको। रह्यो अढी द्वीप मध्य जान, ग्रहिवो अद्धा समय ते ।। १५८. अढी द्वीप रे मांय, रह्यो थको परमाणओ। तेहिज इहां गिणाय, समय युक्त छै ते भणी ।। १५६. इम थाय फर्शणा सात, बीज अद्धा समय नैं। धर्मप्र-देश संघात, सप्त फर्शणा नहिं हवै ।। १६०. इहां जघन्यपद नांय, द्रव्य विषे उत्कृष्ट पद। सात फर्शणा थाय, तेहिज सप्तकहोजिये ।। १६१. जघन्यपदे लोकांत, तिहां काल नहि ते भणी। इहां जघन्य नहिं हंत, समय अढी द्वीपेज ह। १६२. इहां सात संघात, फ0 ते किण रीत सं? तास न्याय आख्यात, कहियै छै ते सांभलो ।। १६३. अढी द्वीप मध्य एस, रह्यो विशिष्ट परमाणओ। एक धर्म-प्रदेश, ते प्रति अवगाही रह्यो । १५९. अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात्, (व प० ६१२) १६४,१६१. इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्य वत्तित्वाददासमयस्य, जघन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति, (वृ. प. ६१२) १६२. तत्र सप्तभिरिति, कथम् ? (बृ. ५० ६१२) १६३,१६ ४. अद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्यमेकत्र धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिक्ष्विति सप्तेति, (वृ० प० ६१२) १६५. केवतिएहि अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? एवं चेव, १६६. एवं आगासत्थिकाएहि वि । १६४. इक प्रदेश इम हंत तेहनैं छह दिशि नैं विषे । षट प्रदेश फर्शत, सप्त करी इम फर्शणा ।। १६५. *एक अद्धा समयो प्रभु ! अधर्मास्तिवाय तणे। कितै प्रदेश करि फर्शणा ?जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १६६. एक अद्धा समयो प्रभु ! आगासस्थिकाय तणेह । कितै प्रदेश करि फर्शणा? जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १६७. एक अद्धा समयो प्रभ! जीवास्तिकाय तणेह। कितै प्रदेश करि फर्शणा? जिन भाखै रे अनंत गिणेह ।। सोरठा १६८. एक प्रदेश रै मांय, जे अनंत जीवां तणां। अनंत प्रदेशज पाय, तिणसं अनंत फर्शणा ।। १६६. *एक अद्धा समयो प्रभु! पुद्गल स्तिकाय तणेह । कितै प्रदेश करि फर्शणा ? जिन भाखै रे अनंत गिणेह ।। १६७. केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढें ? अणतेहि । १६८. जीवास्तिकायप्रदेशैश्चानन्तै रेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्तत्वात्, (वृ० प० ६१२) १६९. एकोऽद्धासमयोऽनन्तः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च स्पृष्ट इति, (वृ०प० ६१२) सोरठा १७०. अद्धा समयो एक, विशिष्ट परमाण विषे । वत तेह विशेख, ममा कह्यो तर ते भणी।। १७१. इक पुद्गल द्रव्य स्थान, अथवा सम्पासे चली। पुद्गल अनंत पिछाण, अनंत तणां सद्भाव थो।। १७२. * एक अद्धा समयो प्रभु ! कितै अद्धा समयेण । फर्श छै. भगवंत जी? जिन भाख रे अनंत कहेण ।। १७०. अद्धासमयविशिष्टमणुद्रव्यमद्धासमयः, (वृ० प०६१२) १७१. एकद्रव्यस्य स्थाने पार्वतश्चानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात् (वृ० प० ६१२) १७२. ""अद्धासमएहि । (श० १३१७१) १. अढाई द्वीप बाहिरलो परमाणु समय युक्त नहीं, ते भणी धर्मास्ति नां एक प्रदेश संघात पिण फर्शणा नहि हुवै । लय* : रावण राय आशा अधिक अथाय १७४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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