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________________ १४७. 'असंखेज्जा' इत्यादौ षट्सूत्री तथैव । 'अणंतरं भंते !' इत्यादिरपि षट्सूत्री तथैव (वृ० प० ६१२) १४८. नवरमिह यथा जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशाः । (वृ० १० ६१२) सोरठा १४७. वत्ति विषे इम वाण, असंखेज्ज इत्यादि जे। षट द्रव्य सूत्र पिछाण, कहिवा तिणहिज रीत सं ।। १४८. पिण इहां इतो विशेख, जेम जघन्यपद नै विषे । औपचारिका सुलेख, अवगाहका प्रदेश जे॥ __ वा. --- पुदगल नों जेतला प्रदेशियो खंध लोक रै अंत एक आकाशास्ति रा प्रदेश में रह्यो, ते एक आकाश-प्रदेश नं पूर्वोक्त चूर्णिकार नय नै मते जेतला पुद्गल खंध नां प्रदेश रह्या छ, तेतला गिणवा । अन तेहनै ऊपर एक प्रदेश तथा हेठे एक प्रदेश यां दोयां मांहिला एक प्रदेश में जेतला पुद्गल खंध नां प्रदेश कह्या, तेतला गिणवा । जिम असंख्यातप्रदेशियो खंध लोकांते एक आकाश-प्रदेश नै विषे रह्यो ते एक आकाश-प्रदेश नै असंख्याता प्रदेश गिणवा। अन ऊपरलो तथा हेठलो दोया माहिला एक प्रदेश नं असंख्याता गिणवा, ए औपचारिक कला, पिण साक्षात नहीं। तिम ही एक प्रदेश में अनंतप्रदेशी खंध रह्यो, तेहनै अनन्त पण औपचारिक गिणवा, पिण साक्षात-बास्तविक नहीं। केम ? समचो लोक असंख्य प्रदेशात्मक ही हुदै । १४६.तिम ही ए अविशेष, ऊपर अथवा हेठला । उत्कृष्टपदे अशेष, कहिवाए औपचारिका ।। १५०. निरुपचरित निःशेष, अनन्त प्रदेश हुवै नहीं। लोकाकाश अशेष, असंख्य प्रदेशात्मक हवै ।। १४९. अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि (वृ०प०६१२) १५०. नहि निरुपचरिता अनन्ता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । (वृ० प० ६१२) १५१. इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः __ (वृ० प० ६१२) १५२,१५३. "धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहन्नयपयम्मि । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ? ॥ (वृ० प० ६१२) १५१. वलि इह प्रकरणेह, बे गाथा वृद्ध उक्त छ । तास न्याय हिव जेह, कह्यो वृत्ति में ते सुणो ।। १५२. धर्मास्तीकायादि, तास प्रदेशज आश्रयी।। जघन्यपदे सुसमाधि, द्विप्रदेशादिक हवै। १५३. जघन्य विषे ते लाधि, दुगुणा बे रूपाधिका । दोय प्रदेशज आदि, तास फर्शवो किम हुवै ? १५४. तसु उत्तर इम होय, लोकांते ह जघन्य थी। तास विषे अवलोय, लोक आश्रयी फर्शणा ।। १५५. तथा स्तंभादि पिछाण, तेहना अग्रज भाग में । जघन्य फर्शणा जाण, वृद्धोक्त आख्यो वृत्तौ ।। अद्धा समय के प्रदेशों की स्पर्शना १५६. *एक अद्धा समयो प्रभु ! धर्मास्तिकाय तणेह । कितै प्रदेशे करि फर्शणा ? जिन भाखै रे सप्त गिणेह ।। १५४,१५५. एत्थ पुण जहन्न पयं लोगते तत्थ लोगमालिहिउं । फुसणा दावेयव्वा अहवा खंभाइकोडीए ।। (वृ०प०६१२) १५६. एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहि धम्मत्थिकाय पदेसेहिं पुठे ? सत्तहि । १. वृत्ति में वृद्धोक्त दो गाथाओं की संस्कृत व्याख्या जयाचार्य को उपलब्ध हुई, उसे पादटिप्पण में रखा गया है धर्मास्तिकायादिप्रदेशानाश्रित्य जघन्यपदं द्विप्रदेशादि भवति ततश्च जघन्य पदे तेनैव द्विरूपाधिकेन द्विगुणादिप्रदेशादयः कथं नु स्पृशेयुः इति प्रश्नः । उत्तरं-अत्र पुनः जघन्यपदं लोकांते भवति तत्र च लोकमालिख्य स्पर्शना दापयितव्या अथवा स्तंभादिकोट्यां स्तंभाद्यग्रभागे जघन्यपदस्पर्शना दापयितव्या। *लय: रावण राय आशा अधिक अथाय श०१३, उ० ४, ढा. २७८ १७३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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