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________________ ७०. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उववज्जति ।। ७१ एवं सागारोवउत्ता वि, एवं अणागारोवउत्ता वि । (श. १३६३) ७२. अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह--- ७०. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । काययोगी तिहां ऊपजै जी, तेह सहित नरक जात ।। ७१. सागारोव उत्ता इह विधे जी, इम कहियै अनाकार । एह उपजवा आसरी जो, ए जिन उत्तर सार ।। सोरठा ७२. उत्पत्ति समय विचार, प्रश्नोत्तर तेहनों कह्यो। कहिये हिव अधिकार, उद्वर्त्तन समयाश्रयी ॥ नरक उद्ववर्तना पद ७३. *ए रत्नप्रभा पृथ्वी विषे प्रभु ! नरकावासा लक्ष तीस । योजन संख्याता तणां जी, नरकावासे जगीस ।। ७४. एक समय में नेरइया जी, किता नीकलै धार? काउलेशी किता नीकलै जी, जाब किता अनाकार ? ७३. इमीसे णं भते! रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु ७४. एगसमएणं केवतिया नेरइया उन्वति ? केवतिया काउलेस्सा उबटंति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उव्वटंति ? ७५. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संवेज्जवित्थडेसु नरएसु ७६. एगसमएणं जहणणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उवटति । ७५. जिन कहै ए रत्नप्रभा विषे जो, नरकावासा तीस लक्ष। संख योजन विस्तार नों जी, नरकावास विवक्ष ।। ७६. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । एक समय में नेरइयाजी, नीकलै छ तिहां साथ ।। सोरठा ७७. नीकलवा नों जाण, समयो ते परभव तणो। प्रथम समय पहिछाण, पिण नहि नारक भव समय ।। ७८. *एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्टा संख्यात । कापोतलेशी नीकल जी, जाव सन्नी इम आत ॥ ७६. असन्नी तो नहिं नीकलै जी, पर भव समय ए आद । नारक मरि असन्नीपणे जी, नहि ह इह विधवाद ।। ७८. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उबटटति । एवं जाव सण्णी। ७९. असण्णी न उव्वति । 'असन्नी न उबट्टति' त्ति उद्वर्तना हि परभवप्रथमसमये स्यात् न च नारका असज्ञिषूत्पद्यन्तेऽतस्तेऽ सज्ञिनः संतो नोद्वर्तन्त इत्युच्यते (वृ. प. ५९९,६००) ८०. जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उन्वति । एवं जाव सुय अण्णाणी। ८१. विभंगनाणी न उब्बति, चक्खुदंसणी न उब्बति । ८०. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्ट संखेज पिछाण। भव्यसिद्धिका नीकलै, इम जावत श्रुत अनाण ॥ ८१. विभंगनाणी न नीकल जी, समय नीकलवा नैं ताहि । विभंग अज्ञान हुवै नहीं जी, चक्षुदर्शन पिण नांहि ॥ ८२. एक दोय तीन जघन्य थी जी, उत्कृष्ट संखेज कहाय । अचक्षुदर्शणी नीकलै, इम जावत लोभ कषाय ।। ८३. सोइंदिय सहित न नीकलै, इम जावत इंद्रिय फास । नीकलवा नां समय में जी, द्रव्य इंद्री नहिं तास ।। ८४. एक दोय तीन जघन्य थी, उत्कृष्ट संख्याता सोय । नोइंदियोवउत्ता नीकल, ते भावे मन अवलोय ।। ८५. नीकलवा नां समय में जी, मनयोगी न कहाय । इमहिज वयोगी नहीं जी, विमल विचारो न्याय ॥ *लय : अभड भड रावणा इदा स्यूं अडियो ८२. जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खदंसणी उव्वति । एवं जाव लोभ कसाई। ८३. सोइंदियोव उत्ता न उव्वति, एवं जाव फासिदि योवउत्ता न उव्वति । ८४. जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उव्वट्टति । ८५. मणजोगी न उव्वति, एवं वइजोगी वि। १३० भगवती जोड़ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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