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________________ ११. पूर्व चरम तणो लक्षण कह्यो रे, तेह थकी विपरीत । अचरम सत्ताए प्रभु केतला रे ? ए दश प्रश्न संगीत || १२. जिन है रत्नप्रभा पृथ्वी विषे रे, तीस लख नरकावासा मांय । संस योजन विस्तर जे नरक रे ते विषे कहिवाय ॥ १३. विद्यमान संख्याता नारकी रे, काउलेस्सा संसेज | एवं संख्याता सन्नी अरे, ए सताए कहेज ॥ १४. असली मरि जे नरके अपना रे, अपर्याप्त अवस्थाय | भूत-भावत्व न्याय असन्नीका रे, ते थोड़ा करियाय । १५. ते कदाच वै कब न हुबै रे, जो एक दोष तीन पाव जपन्य थी रे, तो इम बात उत्कृष्टा संख्यात ॥ १६. संख्याता भवसिद्धिक आखिया रे, परिग्रहसंज्ञाए उपयुक्त छे रे, १७. इथी वेदगवणें तिहां नवी रे, पुरुष वेद नपुंसक संख्याता का रे १८. मानकबाई जिम असन्नी कह्या रे, ते कदाचित कवनां वे रे १६. इम जावत लोभकषाई उहविधे रे, तेहची तेहनों विरह को भी है, २०. संख्याता श्रोतेंद्रिय सहित छं रे, फशेंद्रिय करने सहित रे, ए छ २१. नोइंदिय उपयुक्त अछे तिके रे, तो ॥ केवल भावे मन सहित छ रे, २२. संपाता मनयोगी आखिया रे, उत्तर ए गुणचालीस प्रश्न न रे २३. नारक प्रथम समय नां ऊपनां रे, एवं जाव कहाय । द्रव्य इंद्री पाव || असन्नी जिम कहिवाय । पिण द्रव्य इंद्रिय नांय ॥ बावत म अनागार हिव दश प्रश्न विचार ।। कदा हुवै कदा नांय ? जो तो असन्नी जिम जाणवा रे, जघन्य उत्कृष्ट कहाय ॥ २४. संख्याताज परंपरोवन्नगारे, वे आदि समय वर्तमान । शेष रह्या ते अष्ट बोलां तणां रे, उत्तर सुणो सुजान ॥ २५. जिम अनंतरोववन्नगा का रे, अनंतशेवगाढा तेम । अनंतर आहार अनंतर पज्जत्तगा रे, ए पिण कहिया एम ॥ २६. परंपरागावा यावत वली रे, अचरम लगे विचार । जेम परंपरोववन्नगा का रे, तिम ए सर्व उचार ॥ १३२ भगवती जोड़ वा० - इहां वृत्तिकार का अनंतरोपपन्नका, अनंतर अवगाढका, अनंतरआहारका, अनंतर पर्याप्तका नै कदाचित्कपणां थकी सिय अत्थि इत्यादिक कहिवूं । अने शेष ने बहुपणां थकी संख्याता इम कहिवूं | इति संख्यात योजन विस्तार नरकावासा नां उत्पत्ति, उद्वर्त्तन, सत्ता - ए तीन गमा कया । Jain Education International एवं जाव कहंत । संख्याता पावंत || वेद पिण नांय । एवं फोधकवाय ॥ मान विषे वर्त्तमान । अपनी जान || नारक क्रोध अथाय । विरहो का || भवो येषां ते चरमाः, नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः, अचरमास्त्वितरे । (बृ. प. ६०० ) १२. गोमा इसे स्वगप्पभाए पृथ्वीए तीसाए निरयावास सय सहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु १३ संखेज्जा नेरइया पण्णत्ता, संखेज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता, एवं जाव संखेज्जा सण्णी पण्णत्ता । १४. असज्ञिभ्य उदवृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसञ्ज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति ( वृ० प० ६००) जइ अत्थि जहणेणं उक्कोसेण संखेज्जा कृत्वा १५. अण्णी सिय अस्थि, सिय नत्थि । एक्कोवा दो पाणि वा पण्णत्ता । १६. संखेज्जा भवसिद्धिया पण्णत्ता एवं जाव संखेज्जा परिग्गहसण्णोवउत्ता पण्णत्ता । १७. इथिवेदा नत्थि, पुरिसवेदगा नत्थि, संखेज्जा नपुंगवेदगा पण्णत्ता । एवं कोहकसाई वि । १८. माणकसाई जहा असण्णी । १९. एवं जाव लोभकसाई । २०. संखेज्जा सोइंदियोवउत्ता फासिदियो उत्ता | २१. नोइदियो उत्ता जहा असण्णी । पण्णत्ता, एवं नाव पण्णत्ता । एवं जाव २२. संखेज्जा मणजोगी अणागारोवउत्ता । २३. अगंत रोवण्णगा सिय अत्थि, सिय नत्थि । जइ अस्थि जहा असण्णी । २४. संखेज्जा परंपरोववण्णगा पण्णत्ता । २५. एवं जहा अनंत रोववण्णगा तहा अनंत रोवगाढगा, अतराहारगा, अणंतरपज्जत्तगा । For Private & Personal Use Only २६. परंपरोवगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरो( श० १३३५ ) वत्रणगा । वा० अनन्तरोपपन्नानामनन्त रावगाढानामनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्कत्वात् 'सिय अस्थि' इत्यादि वाच्यं शेषाणां तु बहुत्वात्संख्याता इति वाच्यमिति । ( वृ० प० ६०० ) www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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