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२६. सुर ने द्रव्य थकी कहिवाय, अवस्थित लेश्या छै ताय ।
ते माट न पड़े द्रव्य लेश, जो पड़े तो भाव लेश कहेस ।। २७. ते अणगार वली तिणवार, मध्यवर्ती सूरवास मझार।
गयो ऊपनो थकोज ताहि, ते परिणाम विराधै नांहि ।। २८. तो तेहिज लेश प्रतैज कहेह, अंगीकार कर विचरै जेह।
तीव्र अशुभ परिणाम न थाय, हिवै कहं छं एहनों न्याय ।।
लेश्यायाः प्रतिपतति, सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्य
तोऽवस्थितलेश्यत्वाद्देवानामिति । (वृ० प० ६३१) २७,२८. से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं
उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। (श. १४।१) 'से य तत्थे' त्यादि, 'स' अनगारः 'तत्र' मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि न विराधयेत्तं परिणामं तदा तामेव च लेश्यां ययोत्पन्नः 'उपसम्पद्य' आश्रित्य 'विहरति' आस्त इति । (वृ० प०६३१)
सोरठा २६. 'इहां कही ए वाय, मध्यमवर्ती कल्प में।
गयो थको मुनिराय, भाव लेश परिणाम करि॥ ३०. तास विराधे जेह, तीव्र अशुभ परिणाम में।
आवै सुरवर तेह, इम पड़े भाव लेश्या थकी। ३१. जो न विराधै ताम, तीव्र अशुभ आवै नहीं।
तो शुभ लेश्या परिणाम, अंगीकार करनै रहै ।। ३२. इहां इम न्याय जणाय, सुर तत्काल समुप्पनो।
वंदै श्री जिनराय, सेव करै साचै मनै ।। ३३. चौथे ठाण कहाय, च्यार प्रकारे देव जे।
मनुष्य लोक में आय, चिहुं प्रकार आवै नहीं।। ३४. काम-भोग गद्ध थाय, अतिहि आसक्त जो हवै।
तो मनुलोके नहिं आय, जिन मुनि सेवा नहि करै।।
३३. ठाणं ४।४३३,४३४
३४. अहणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिब्वेसु कामभोगेसु
मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववणे, से णं माणुस्सए कामभोगे णो आढाइ, णो परियाणाति ।
(ठा० ४।४३३)
३५. ए प्रथम पाठ नों न्याय, लेश्या भाव विराध में।
तीव्र अशुभ में जाय, ए काम-भोग में गद्ध अति ।। ३६. जो भोगे गृद्ध न थाय, तो आवी मनु-लोक में।
जिन मुनि तपसी ताय, वंदनादिक सेवा करै।
३६. अहुणोववण्णे देवे देवलोगेसु दिन्वेसु कामभोगेसु
अमुच्छिते अगिद्धे अगढिते अणज्झोववण्णे तस्स णं एवं भवति–अत्थि खलु मम माणुस्सए भवे आयरिए ति वा "तं गच्छामि णं ते भगवते वदामि जाव पज्जुवासामि।
(ठा० ४१४३४)
३७. ए द्वितीय पाठ नों न्याय, भाव लेश विराधै नथी।
तीव्र अशुभ नहिं थाय, नहिं काम-भोग में गद्ध अति ।। ३८. ते जिन मुनि नां पाय, वंदी नैं सेवा करै।
अधुनोत्पन्न पेक्षाय, एहवं न्याय जणाय छै ।। ३६. सुरवर जे पर्याप्त, जिन मुनि पै आया प्रथम ।
अशुभ लेश जे व्याप्त, ते न गिणी दीस इहां ।। ४०. तीव्र अशुभ परिणाम, तेहनां नहिं छै ते भणी।
बहुलपणां थी ताम, अल्प अशुभ ते नहिं गिण्या। ४१. सूत्र पन्नवणा मांय, अठारमा पद में अख्यो।
दर्शण अवधि सुहाय, काल केतलो ते रहै ?
४१,४२. ओहिदसणी णं भंते ! ओहिसणी ति कालओ
केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीओ सागरोवमाई सातिरेगाओ।
(पण्ण० १८८७)
४२. छासठ सागर दोय,
बीच अवधि नहिं होय,
जाझेरो अद्धा कह्यो। अपर्याप्त पर्याप्त में ।।
श० १४, उ० १, ढा० २९१ २२७
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