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गोशालक का स्वतन्त्र विहार, लब्धि प्राप्ति, छह दिशाचरों का योग, केवली के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित करने का प्रयास, श्रावस्ती में भगवान् महावीर का आगमन, गोशालक के असत्य संभाषण का प्रतिवाद, गोशालक को कोप, स्थविर आनन्द के साथ उसका वार्तालाप, चार बल्गुओं का दृष्टांत, आनन्द और भगवान् का संवाद, गोशालक का भगवान् के समवसरण में आगमन, सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनियों पर तेजोलब्धि का सफल प्रयोग, भगवान् पर तेजोलब्धि का असफल प्रयोग, तेजोलब्धि का पुमः गोशालक के शरीर में प्रवेश, भगवान् और गोशालक का संवाद, श्रावस्ती नगरी में जन प्रवाद, भगवान् के शिष्यों द्वारा गोशालक की पुनः हालाहला कुंभकारी के आपण में वापसी, गोशालक द्वारा विचित्र सिद्धान्तों के रूप में आठ चरम तत्त्वों का निरूपण ओर उनका आचरण । आजीवक श्रमणोपासक अयंपुल का गोशालक के पास आगमन, आजीवक स्थविरों द्वारा अयंपुल का समाधान, गोशालक को अपनी मृत्यु का आभास, अन्तिम संस्कार के बारे में निर्देश, गोशालक के परिणामों में परिवर्तन पश्चात्ताप, अपने बारे में श्रावकों को नया निर्देश, गोशालक की मृत्यु और उसके निर्हरण का विस्तार के साथ विवेचन है ।
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गोशालक ने भगवान् पर तेजोलब्धि का प्रयोग किया। वह शरीर अनन्त था । वह उस कष्ट से प्रभावित नहीं हुआ । किन्तु शरीर पर उसका प्रभाव भगवान् श्रावस्ती नगरी से विहार कर मिडियग्राम नगर के साण कोष्ठक उद्यान में पित्तज्वर का प्रकोप हुआ। लोगों में चर्चा होने लगी कि गोशालक की घोषणा के गए। अब वे निश्चित रूप से छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होंगे ।
भीतर प्रविष्ट नहीं हो पाई। भगवान् का आत्मबल होने लगा । उस स्थिति में भी महान् आत्मबली पधारे। वहां भगवान् के शरीर में अस्वस्थता बढ़ी । अनुसार छह महीनों के भीतर महावीर अस्वस्थ हो
भगवान् महावीर का शिष्य सिंह नामक मुनि ने भगवान् के सम्बन्ध में उक्त जनप्रवाद सुना । वह अधीर हो गया । वह मालुका कच्छ में प्रविष्ट होकर बाढ़ स्वर में विलाप करने लगा। भगवान् ने अपने ज्ञान बल से सिंह मुनि की मनःस्थिति को जाना । साधुओं को भेजकर सिंह को अपने पास बुलाया। सिंह मुनि को आश्वस्त किया। उसे रेवती के घर से बीजोरापाक लाने का निर्देश दिया। सिंह मुनि रेवती के घर गोचरी गया। सहज निष्पन्न बीजोरापाक लेकर आया । भगवान् ने उसका सेवन कर स्वास्थ्य लाभ किया । इससे चतुविध संघ में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई ।
भगवान् का शरीर स्वस्थ होने पर गणधर गौतम ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि के बारे में कुछ प्रश्न किए। गोशालक के बारे में जिज्ञासा की । भगवान् ने पूरे विस्तार के साथ गोशालक के संसार भ्रमण का चित्र उपस्थित किया । अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करने के बाद गोशालक महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ नामक केवली होगा। वह अपने शिष्य साधुओं को गोशालक भव का पूरा वृत्तांत सुनाकर कहेगा- 'आर्यो ! मैंने अपने धर्माचार्य भगवान् महावीर की प्रत्यनीकता की। उनका अवर्णवाद किया। उन्हें कष्ट दिया । इसलिए मुझे संसार में दीर्घकाल तक भ्रमण करना पड़ा । कोई भी व्यक्ति आचार्य - उपाध्याय का प्रत्यनीक बनता है, उसकी यही स्थिति होती है।' दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवली पर्याय में रहकर अनशनपूर्वक देह त्याग कर मुक्त हो जाएंगे ।
११८९ दोहों में निबद्ध गोशालक - चरित्र की शैली भगवती-जोड़ की चालू शैली से हटकर है । इसका कारण पन्द्रहवें शतक के अन्तिम पद्यों में उल्लिखित है। उन पद्यों पर दिए गए टिप्पणों से उसकी पूरी जानकारी उपलब्ध हो जाती है । प्रस्तुत खण्ड में एक परिशिष्ट भी रखा गया है । उसमें आचार्य भिक्षु द्वारा रचित गोशालक को चौपई दी गई है। चौपई की इकतालीस ढालें हैं । चौदहवें शतक की आखिरी ढाल की संख्या ३०५ है । पन्द्रहवें शतक की जोड़ के दोहों को इकतालीस ढालों की संख्या में गिनकर सोलहवें शतक का प्रारंभ ३४७ वीं ढाल से किया गया है। यह प्रसंग आचार्य भिक्षु के प्रति जयाचार्य के उत्कृष्ट समर्पण का उदाहरण है ।
भगवती जोड़ के प्रथम तीन खण्डों की तरह चतुर्थ खण्ड का सम्पादन परमाराध्य आचार्यवर की मंगल सन्निधि में हुआ है । यत्र-तत्र युवाचार्यश्री का मार्गदर्शन भी मिलता रहा है। सम्पादन कार्य में आदि से अन्त तक निष्ठा के साथ काम किया है साध्वी जिनप्रभाजी ने । जोड़ में निर्दिष्ट आगमों के प्रमाण-स्थलों की खोज में मुनि हीरालालजी का सहयोग अविस्मरणीय है। किसी भी आगम या व्याख्या ग्रंथ का विवक्षित स्थल वे जिस सहजता से खोज लेते हैं वह उनके गंभीर आगम-अनुशीलन का परिचायक है । प्रति शोधन, प्रूफ निरीक्षण आदि कार्यों में साध्वी जिनप्रभाजी को अनेक साध्वियों का सहयोग सुलभ रहता है। इससे कार्य सम्पादन की गति में त्वरा आ जाती है। भगवती-जोड़ का मुद्रण कार्य भी बहुत श्रम साध्य है। ग्रंथ को सही ढंग से कम्पोजिंग करने में भी पूरी एकाग्रता की अपेक्षा रहती है। जैन विश्व भारती प्रेस के कार्यकर्ता इस कार्य में उत्तरोत्तर दक्षता बढ़ाते जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह माना जा सकता है प्रस्तुत ग्रंथ में कुछ भी नया लेखन न होने पर भी जितना समय और श्रम इसके सम्पादन में लगता है, वह इसके वैशिष्ट्य का सूचक है है। आचार्यप्रवर का मंगल आशीर्वाद और सम्पादन कार्य में आए अवरोधों को दूर करने में आपकी तत्परता से मुझे जो आलोक मिलता है, वह आगामी खण्डों के सम्पादन में और अधिक सघनता से प्राप्त होगा, यह विश्वास ही मेरी सम्पादन यात्रा का सबसे बड़ा आलम्बन है ।
राजस्थानी, प्राकृत और संस्कृत भाषा वाले इस
साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा
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