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५०. *जिन कहै वर्ण रस पंच, बे गंध फर्श अठ संच।
५०. गोयमा ! पंचवण्णं, पंचरसं अट्ठफासं परिणाम गर्भ में उत्पत्ति काल, परिणाम परिणमै न्हाल ।।
परिणमइ।
(श. १२।११९) वा०—गर्भ में ऊपजवा नै काले जीव शरीर नै पांच वर्णादिकपणां थकी वा०.---'पंचवन्नं ति गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य गर्भ उपजवण काल नै विषे जीव परिणाम नै पांच वर्णादिपणो जाणवो। ते माटे पञ्चवर्णादित्वात् गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पंच वर्ण, दोय गंध, पंच रस, आठ फरस परिणामे परिणमै ।
पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति । (वृ. प. ५७५) सोरठा ५१. गर्भ उपजतो जीव, वर्ण गंध रस फर्श करि ।
५१. अनन्तरं गर्भ व्युत्क्रामन् जीवो वर्णादिभिविचित्रं विचित्रपणे अतीव, परिणाम परिणमै इम कह्यो ।।
परिणाम परिणमतीत्युक्तम् । ५२. जे विचित्र परिणाम, जीव तणे उपजै अछ ।
५२. अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति तिण कारण थी ताम, ते देखाड़े छै हिवै ॥
तद्दर्शयितुमाहकर्म विभक्ति पद ५३. *कर्म थकी प्रभु ! जीव, पिण कर्म बिना न अतीव ।
५३. कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं विभक्तिभाव कहिवावै, विभाग रूप जे भावै ।।
परिणमइ?
'विभत्तिभावं' विभागरूपं भावं। (बृ. प. ५७५) ५४. नारक तिरि मनु देव, जे भव नै विष स्वयमेव ।
५४. नारकतिर्यग्मनुष्यामरभवेष नानारूपं परिणाममित्यर्थः नानारूप परिणाम, परिणमैं प्राप्ति हवै ताम ।।
परिणमति गच्छति ।
(बु. प. ५७५) ५५. तथा तिण प्रकार करेह, 'कम्मओ णं जए' पाठ कहेह।
५५,५६. कम्मो णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं कर्म थकी जे जाणी, जगत-जीव-समूह पहिछाणी।।
परिणमइ? ५६. ते ते नारकादि भाव प्रतेह, जाये ते भाव परिणमेह ।
'कम्मओ णं जए' त्ति गच्छति तांस्तान्नारकादिपिण कर्म बिना नहि ताहि, विभाग भाव परिणमै नांहि ॥
भावानिति 'जगत्' जीवसमूहः। (वृ. प. ५७५) ५७. जिन कहै हंता जेह, कर्म थी तिमज जाव परिणमेह ।
५७. हंता गोयमा ! कम्मओ णं तं चेव जाब (सं.पा.) पिण कर्म बिना जे ताहि, विभाग परिणम नांहि ।।
परिणमइ।
(श. १२।१२०) वा०-कम्मओ णं जीवे ए प्रथम पाठ में समचे जीव नीं पूछा कीधी । अनवा०--जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंगमाभिधानो जगन्ति 'कम्मओ णं जए' द्वितीय पाठ में जीव द्रव्य नों हीज विशेष जंगम अभिधान ते जंगमान्याहुरिति वचनादिति । (वृ. प. ५७५) जीव त्रस नीं पूछा, एहवू जणाय छै । ५८. सेवं भंते ! जाणी, प्रभु ! सत्य तुम्हारी वाणी।
५८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श. १२११२१) शतक बारमा नों जाण, अर्थ पंचमुद्देशक वाण ।। ५६. ढाल बेसौ इकसठमी ताय, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय । तास प्रसादे जोय, 'जय-जश' सुख संपति होय ।।
द्वादशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१२॥५॥
ढाल : २६२
दहा १. पूर्व उद्देशक अंत में, जीव विभक्तीभाव।
चिउं गति में नानापणो, पामै कर्म प्रभाव ।। २. ते राहु ग्रसते समय, चंद्र तणो पिण थाय ।
ए आशंकाटालवा, षष्ठमुदेशे वाय ।। *लय : स्वामीजी थारे दर्शन की
१. जगतो विभक्तिभावः कर्मत इति पञ्चमोद्देशकान्त उक्तम् ।
(वृ. प. ५७५) २. स च राहुग्रसने चन्द्रस्यापि स्यादिति शंकानिरासाय षष्ठोद्देशकमाह
(वृ. प. ५७५)
श० १२, उ०५,६, ढा० २६१,२६२ ६७
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