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८१. कृष्णपक्षी अभवसिद्धिया रे, तीन अज्ञान रे माही रे । न ऊपजै नैं चवै नहीं रे, सत्ताए ८२. अरिमा पिग छोड़वा रे, ए पि जाव संख्याता चरम छै रे, शेष
पिण नाही रे ॥ हिंग नाही रे । तिमज कहिवाई रे ।।
वा०-- जेहने चरम - छेलो तेहिज अनुत्तर देव नो भव छं ते चरम । तेहथी अनेरी ते अचरम । ते अचरम सर्वार्थसिद्ध में नथी । जिण कारण थकी चरमहीज मध्यम विमान नैं विषे ऊपजै ।
८३. असंख्याता विस्तार में रे, च्यार ए पाछै बोल कह्या तिके रे, त्रिहुं ८४. णवरं अचरमा पिण अछे रे, च्यार विमान में जाई रे । सौधर्मादिक भव करे रे, को परम पद' मांही रे ॥
अनुत्तर गमे नहि
जोयो रे । होयो रे ।।
८५. शेष सेवेयक विकरे असंध योजन अवदातो रे । आख्यो तिमहिवो इहां रे, जाव अचरिम असंख्यातो रे ।। देवों में सम्यदृष्टि आदि को पुच्छा
८६. हे प्रभु! असुरकुमार नां रे, चौसठ लक्ष आवासो रे । संख योजन विस्तार में रे असुर आवासे तासो रे ॥ ८७. स्युं असुर समष्टि ऊपजे रे, के मिध्यादृष्टि उपजतो रे । इम जिम रत्नप्रभा विषे रे को तीन आलावा तो रे ।।
इम तीन आलावा असुर नां रे, समष्टि नं धुर आलायो रे। मिथ्यादृष्टि न दूसरो रे, तीजो मदृष्टिनों भादो रे ।। ८. असंल योजन विस्तार में रे, तीन गमा इस पारी रे। जाव वैवेयक विमान में रे, इमहिज कहियो विचारी रे।।
सोरठा
६०. 'असुरादिक रे मांहि, तीन दृष्टि आखी सत्ता । इम जाव ग्रैवेयक ताहि, तीन दृष्टि इण न्याय त्यां ॥ ६१. पिण जीवाभिगमेह, ग्रैवेयक
वे
में दृष्टि मिश्रदृष्टि वरजेह, दोय दृष्टि इण न्याय १२. संधक-परित कवित्त, जीव तणां ज्ञान दर्शन चारित, पज्जव अगुरुलघु ६३. च्यार शरीर सहीत, जीव तणां त गुरुलघु सहीत, एहवो न्याय
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ह्वै ।
पजवा विषे ।
गुरुलघु ।। पर्याय छं । तिहां वृत्तौ ॥
१. पण्ण० प १५ सू० ११२
२. जयाचार्य ने जीवाभिगम सूत्र के आधार पर ग्रैवेयक देवों में दो दृष्टि बताई है। पर जैन विश्वभारती द्वारा मुद्रित जीवाजीवाभिगम में ग्रैवेयक देवों में तीनों दृष्टियां स्वीकार की हैं ( ३।११०५) । सम्भव है जयाचार्य को कोई ऐसा आदर्श उपलब्ध हुआ था, जिसमें दो दृष्टियों का उल्लेख रहा हो। उसके आधार पर कुछ थोकड़ों में भी ग्रैवेयक देवों में दो दृष्टियां मानी गई हैं ।
१४८ भगवती जोड़
८१.
अभयसिद्धिया तिसु अण्णा एए न उववज्जंति, न चयंति, न वि पण्णत्तएसु भाणियव्वा ८२. अचरिमा वि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तं चेव ।
aro - 'अरिमावि खोडिज्जति' त्ति येषां चरमोऽनुत्तरदेवभव स एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्ते च निषे धनीयाः यतश्चरमा एव मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति । (१०१०६०४)
८३. असंखेज्जवित्थडे वि एएन भण्णंति,
८४. नवरं अचरिमा अत्थि, 'नवरं अचरिमा अत्थि' त्ति पुनरुत्पद्यन्त इति
यतो बाह्यविमानेषु
( वृ० ० प० ६०४ ) ८५. सेसं जहा गेवेज्जएस असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । (श० १३।३६)
८६. चोयटठीए णं भंते ! असुरकुमारावास सय सहस्सेसु
अमराव
८७. कि सम्मद्दिट्ठी असुरकुमारा उववज्जति ? मिच्छदिट्टी असुरकुमारा उववज्जंति ? एवं जहा रयणप्पभाए तिणि आलावगा भणिया तहा भाणियन्त्रा । 'तिनि बालादर' नि सम्यगृदृष्टिमिध्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टिविषया इति । ( वृ० प० ६०४ ) ८९. एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिणि गमगा, एवं जाव गेवेज्जविमाणे,
८८.
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९२. ( भ० श. २०४६)
९३. अनन्ता गुरुलघुपर्याया औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य । (भ. वृ० प० ११९ )
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