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________________ सोरठा स्नेह रूप गडिए ' आसक्त अतृप्ति आहार विषे ३. जाव शब्द थी जान, अशने अध्यवसान, ते ४. गुद्ध प्राप्त जे आहार, तथा आकांक्षा धार, तंतू करी । कहीजिये | भाव करि । वांछा घणी ।। वहा , ५. अध्युपपन्न अप्राप्त जे, आहार विषे अतिचित । एहवो अणसणियो मुनि, तेह तणो वृत्तंत ॥ ६. तीव्र क्षुधा जे वेदनी, उदय थकी असमाधि । तेह मिटावण ने अरथ, भोगवतो अशनादि । ७. अथ हिब आहार कियां पछे करें स्वाभाविक काल । समुद्घात मारणांतिकी, काल शब्द अर्थ म्हाल ॥ ८. मारणांतिक समुद्घात थी, पछे अमूच्छित तेह। जाव अध्युपपन्न रहित, आहार प्रतै आहा रेह' ? ९. जिन कहै हंता गोयमा अगसणियो अणगार । ! तिमहिज पुरवली परे, कहियो सह अधिकार ॥ १०. ते कण अर्थ हे प्रभु! इहविध कहिये सोय भत्त पच्चक्खाण कियो तिको, अन्य तिमज अवलोय ? ११. जिन है. भत्त पचखाण मुनि, मूच्छित अति अवलोय । जावत अध्युपपन्न ते, आहार विषे जे होय || १२. हिवे स्वभावे काल करि पर्छ अमूच्छित जाव आहारविषे तिण अरथ, जाव आहार कृत साव ॥ १३. प्रश्न अर्थ तिमहीज ए अंगीकृत्य प्रभु कीध किणहिक अणसनिया तणो अशुभ भाव ते लीध ॥ , Jain Education International वा० -भत्तपच्चवखाए णं कहितां अणसण कीधो ते अणगार, मृच्छिए कहित ऊपनी मूच्र्च्छा - ऊपनो आहार संरक्षण अनुबन्ध अथवा ते आहार नां दोष नैं विषे मूढ थयो । 'मूर्च्छा मोहसमुछ्राययोः' इति वचनात् । इहां मूर्च्छा धातु मोह अर्थ नैं विषे ते मूढता समुछ्राय ते वृद्धि अर्थ नै विषे ते आहार संरक्षण नां परिणाम नी वृद्धि | जाव शब्द थी इम जाणवो 'गढिए गिद्धे' । गढिए कहितां आहार के विषे स्नेह रूप तंतु करिकै गूंथणो । 'ग्रंथ श्रंथ सन्दर्भे' इति वचनात् — ग्रन्थ धातु अथ धातु ए दोनूं सदर्भ ते गूंथणा अर्थ के विषे । गिद्धे कहितां पाम्या आहार नैं विषे आसक्त अथवा अतृप्तपण करी ते आहार नी आकांक्षावान् । 'गृधु अभिकांक्षायां' इति वचनात् —- गृधु धातु वांछा अर्थ विषे । १. अंगसुत्ताणि में 'गिद्धे' पहले है 'गढिए' बाद में है। जोड़ में पाठ आगे-पीछे है । कुछ आदर्शों में पाठ का यह क्रम रहा होगा । २. प्रस्तुत ढाल में गाथा ३ से ८ तक की जोड़ पाठ और वृत्ति दोनों के आधार पर की गई है । फिर भी जोड़ के सामने केवल पाठ ही उद्धृत किया गया है । क्योंकि गाथा १३ से आगे का वार्तिक वृत्ति के आधार पर लिखा हुआ है । - इसलिए वृत्ति का वह अंश अविकल रूप से वहीं पर उद्धृत किया है । २७० भगवती जोड़ ३. गढिए ४. गिद्धे For Private & Personal Use Only ५. अज्भोववन्ने ७. अब कालं करे । ८. तपच्छा अमूहिए लगि गरिएको वयन्ने बाहारमाहारेति ? ९. हंता गोयमा ! भक्त्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चैव (सं० पा० ) (१० १४८२) १०. से केणट्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ - भत्तपच्चक्खायए ०पा०) ११. गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे मुच्छिए जाव (सं० पा० ) आहारे भवइ । १२. अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए जाव (सं० पा० ) आहारे भवइ । १२. से गोवमा ! बाब आहारमाहारेति । (१० १४००३) वा० 'भत्ते' त्यादि, तत्र 'भत्तपच्चक्खायए णं' ति अनशनी 'मूच्छितः सञ्जातमूच्र्छ:- जाताहारसंरक्षणानुबन्धः तद्दोषविषये वा मूढः 'मुच्छ' मोहसमुच्ययोः इति वचनात् । यावत्करणादिदं दृश्यं – 'गढिए ' प्रमिताहारविषयस्नेहतन्तुभिः संदर्भित: 'ग्रन्थ श्रन्थ संदर्भ' इति वचनात् । 'गिद्धे' गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा तदाकाङ्क्षावान् 'गृधु अभिकाङक्षायाम् इति वचनात् । www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
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