SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८५. बे प्रदेश अवगाह्य, रह्या दोय परमाणुआ। तास संघात कहाय, फा धर्म-प्रदेश बे।। ८६. दोय नोचला जोय, ऊपरला प्रदेश बे। दोय पूर्व दिशि होय, बे पश्चिम दिशि में रह्या ।। ८७. दक्षिण पासे एक, उत्तर पामे एक वलि। इम द्वादश सुविशेख, फर्श धर्म प्रदेश करि॥ दो परमाणुआ द्वादश प्रदेश फर्श तेहनी स्थापना ८५. परमाणुद्वयेन द्वौ द्विप्रदेशावगाढत्वात्स्पृष्ट। (वृ०प० ६११) ८६,८७. द्वौ चाधस्तनो उपरितनौ च द्वौ पूर्वापरपार्श्व योश्च द्वी दक्षिणोत्तरपार्श्वयोश्चकैक इत्येवमेते द्वादशेति (वृ० प० ६११) ८८. एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि । ८९. केवतिएहि आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? बारसहि 'बारसहिं' ति इह जघन्यपदं नास्ति । (वृ० प० ६११) ८८. *बे प्रदेश पुद्गल तणां, अधर्म-प्रदेश साथ । फर्श षट इम जघन्य थी, उत्कृष्टा रे बार संघात ॥ ८६. पूछा आकास्तिकाय नी ? जिन कहै बार संघात । पूरवली पर जाणवो, नहि कहिवी रे जघन्योत्कृष्ट बात ।। सोरठा १०. लोकांते पिण जोय, जे आकाश-प्रदेश नां। विद्यमान थी सोय, तिणसू द्वादश फर्शणा ॥ ६१. *शेष जेम धर्मास्ति कह्यो, धर्मास्तिकाय संघात । कहिवो तिणहिजरीत सं, तेहन रे इम अर्थ आख्यात ।। ६२.बे प्रदेश पुदगल तणां, जीवास्तिकाय नै ख्यात । किते प्रदेश करि फर्शणा ? जिन भाखै रे अनंत संघात ।। ९०. लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तं (वृ० प०६११) ९१. सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। (श० १३/६६) ९२. दो भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं जीवत्थिकायप्पएसेहिं पुट्ठा ? गोयमा ! अणंतेहिं । (वृ० प० ६११) ९३. एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि (वृ०प० ६११) ९४. अद्धासमयः स्यात् स्पृष्टौ स्यान्न, (वृ० प० ६११) ६३. इम बे प्रदेश पुद्गल तणां, पुद्गलास्तिकाय नैं जेह । __ अनंते प्रदेशे करी, फर्रु रे इम कहिवू तेह ।। १४. वलि अद्धा समये करी, फर्श तेह किवार। द्वीप अढाई नै विषे, नहि फर्श रे समयक्षेत्र - बार ।। ६५. जो फर्श तो निश्चय करी, समय अनंत संघात । पूर्व पाठ भलावियो, तेहनों रे ए अर्थ आख्यात ।। ६६. प्रभु ! पुद्गलास्तिकाय नां, तीन प्रदेश आख्यात । कित धर्मास्तिकाय नैं, फौँ रे प्रदेश संघात ? ६७. जिन कहै जघन्यपदे करी, अष्ट प्रदेशज साथ । वलि उत्कृष्टपदे करी, सतरै रे प्रदेश संघात ।। ९५. यदि स्पृष्टौ तदा नियमादनन्तैरिति (वृ०प०६११) ९६. तिण्णि भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहि धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा? ९७. जहण्णपदे अट्ठहिं उक्कोसपदे सत्तरसहि । *लय : रावण राय आशा अधिक अथाय श० १३, उ० ४, ढा० २७८ १६९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003620
Book TitleBhagavati Jod 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages460
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy